Saturday 10 February 2024

हिंदी की युवा कवयित्री काजल की कविताएं

 


काजल बिल्कुल नई कवयित्री हैं। दिनकर की धरती बेगूसराय से आती हैं। पेशे से शिक्षिका हैं। इनकी कविताओं में एक ताज़गी है। नए बिम्ब और कविता में उसका ट्रीटमेंट बरबस ध्यान खींचता है। अभी शुरुआत है। कवयित्री एक नई उम्मीद लेकर आई हैं। काव्य संसार मे आपका स्वागत है। आपके उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाओं के साथ...

 

आप सब इनकी पहली छह कविताओं से रूबरू हो:

धन्यवाद

1

पतझड़

---------

कहां खोए हो?

 

मौसम धीरे धीरे बदल रहा है

और तुम चुपचाप चले जा रहे हो

एक से लय और ताल में

 

तुम मन के द्वार खोलो तो सही

अपने मौन को तोड़ो तो सही

जरा सिर उठाकर देखो तो सही

 

देखो कि पतझड़ आ गया है

देखो कि हवाएं तुम्हारे मन के द्वार खटखटा रही हैं

उन्हें आने दो

 

देखो कि नदियों की छाती में भी हिलोरें उठ रही हैं

देखो कि कैसे प्रकृति नया रूप धारण करने के लिए

सब पुराना उतार कर फेंक रही है

देखो कि पेड़ कैसे निर्वस्त्र खड़े हैं

देखो कि कैसे सड़कें और चौड़ी होकर खिलखिला रही हैं

देखो कि आज इमारत थोड़ी और ऊंची हो गई हैं

देखो कि धरती अपना मन खोल कर बैठ गई है

 

सब कुछ हवाओं के साथ उड़ा देने केलिए

नदियों के साथ बहा देने के लिए

पत्तों के साथ गिरा देने के लिए

देखो कि एक बार फिर पतझड़ आ गया है

पुराना सब मिटा देने के लिए

ताकि नया वसंत आ सके ।

 

तुम भी अपनी यादों का पिटारा खोल दो

हवा के संग उड़ने को

नदियों के संग बहने को

पत्तों के संग गिरने को

कि फिर से नवजीवन ला सको

कि नया वसंत ला सको ।

 

2

बसन्त

.............

सर्द मौसम में यूं अचानक खिलती है धूप

जैसे खिलता है मन

आती है तुम्हारी याद

 जैसे निकलता है सूरज

कुहासो और बादलों के बीच से

जैसे जंगलों से गुजरती हुई पगडंडियां

अचानक ही मिल जाती है सड़क से

खिल उठते हैं फूल

ओस का भारीपन लिए

जैसे रंग बिरंगे ऊनी कपड़ों में लिपटे बच्चे

झांक रहे हों बहुमंजिली इमारतों की खिड़कियों से ।

 

3

पानी सबको खींच लेता है अपनी तरफ

चाहे समंदर का हो

नदी का हो

तालाब या फिर किसी झील का हो

झरने का हो या कुएं का

आंखों का हो या देह का

 

खींच ही लेता है वो

इंसान को

उसके मन को

उसकी थकान को

उसकी परछाई को भी ।

 

4

 

एक साधारण आदमी आजीवन घूमता है

अपनी काली उजली आंखों में कई रंगीन सपने लेकर।

उनके सपने किसी बंद पिटारी की तरह होते हैं

जिनका मुंह खुलते ही वे एक ही साथ

भड़-भड़ाकर गिर पड़ते हैं ।

एक साधारण आदमी फिर से उन्हें समेटकर

कंधे पर जिम्मेदारियों का बोझ उठाकर चल पड़ता है।

 

5

मैंने मां से पूछा एक दिन -

एक चिड़िया बादलों तक जाना चाहती है

नदी में रहने वाली मछलियां

समंदर में गोता लगाना चाहती है

गांव शहर जाकर बसना चाहता है

पंखुड़ियां हवा के साथ

अनंत को छू लेना चाहती है

मनुष्य अंतरिक्ष में हिरणों की तरह कुलांचे भरना चाहता है

ये सब क्यों?

मां ने अपनी सारी दुनिया को अपने जूडे में बांधा

और ठंडी आहें भरकर बोली -बेटा 'संभावनाएं' ।



6

 

 गुजरते हुए रास्ते

निरंतर बनती इमारतें

ये बहती हवाएं

बीतता हुआ समय

छूटते हुए लोग

उगती हुई फसल

निरंतर कुछ कहती है

कहती है कि सुनो

सुनो, नही सुनने को

रुको, चलते रहने को।

 

काजल

 

 

Friday 16 September 2022

हम कैसे बूढ़े होते है? - अम्बर पांडेय

हमारा शरीर कभी हमारे मन से आकर नहीं कहता कि वह बूढ़ा हो गया है। व्याधि और निर्बलता भी कभी मन से नहीं कहते कि हम बूढ़े हो गए है मगर हमारा मन भी एक दिन बूढ़ा हो जाता है। 

हमारा मन तब बूढ़ा होता है जब हमारे बचपन के प्रतीक विलीन होते है। भारत में यह लोग क्वीन एलिज़ाबेथ की मृत्यु से इसलिए शोकग्रस्त नहीं है कि इनके पास औपनिवेशिक स्मृतियाँ  है। हमारा बचपन केवल हमारी दादियों-नानियों से नहीं बनता उसके कुछ सांस्कृतिक प्रतीक भी होते है- जो बस अपनी जगह पर होते है, उनका होना आश्वस्त करता रहता है कि अभी भी हमारे आगे जीवन पड़ा हुआ है, अब भी हमारे पास समय, ऊर्जा और सुंदरता है। 

एक बार स्त्रीविमर्श के नाम पर बुजुर्गों का अपमान करनेवाली एक औरत ने किसी वरिष्ठ लेखिका के लिए लिखा था कि वह उनका एक हाथ तोड़कर दूसरे में दे देगी और कुछ वर्षों पूर्व पैदा होने हो जाने से उसके लिए कोई आदरणीय नहीं हो जाता। मुझे वह पढ़कर बहुत धक्का लगा था। वरिष्ठ लेखिका ने हालाँकि बाद में अपमान करनेवाली लेखिका को पुरस्कृत किया और खुद को निष्पक्ष और उसकी किताब को पुरस्कार योग्य माना यह दीग़र प्रसंग है।

वरिष्ठ लेखिका के उस अपमान से उस समय क्यों मुझे बहुत धक्का लगा यह मैं सोचता रहा हूँ। उनके लिखे से मैं कभी प्रभावित नहीं हुआ न उनके व्यक्तिगत जीवन की किसी को मैंने प्रशंसा करते हुए पाया मगर फिर भी उनका अपमान करना, उनपर शारीरिक हिंसा की बस बात करना भी मेरे लिए हिला देनेवाला था और यह इसलिए नहीं कि मैं कोई गांधीवादी हूँ जो हिंसा से बिलकुल दूर है।

इस दुनिया में इतने दुःख है, इतना संघर्ष है और यह किसी एक के लिए नहीं बल्कि सबके लिए है। इसमें बूढ़ा हो जाना बड़ा हो जाना है। इसमें इतने वर्षों तक डटे रहना भी एक चमत्कार है और इसलिए हम बुजुर्गों का सम्मान करते है। किसी बुज़ुर्ग का अपमान करने पर हमारे संस्कारों पर, हमारे अध्यवसाय और हमारे परिवार पर सबसे पहले उँगली उठती है क्योंकि यदि हमारे श्रेष्ठ में उनका हाथ है तो हमारे बुरे में उनका हाथ मानना भी स्वाभाविक है। 

जो भी नया है वह सब ख़राब है जैसे यह सही नहीं उसी तरह सब पुराना भी बुरा है यह भी ग़लत है। अर्थशास्त्र में लिंडी प्रभाव का सिद्धांत कहता है जो जितने वर्षों से है उतने अधिक वर्ष टिकता है—यही कारण है कि रामायण टिकी हुई है महाभारत और क़ुरान और बाइबल टिकी हुई है। पुराने से हमारी स्मृति बनती है और जो स्मृति का मान नहीं रखता उसका स्मृति भी मान नहीं रखती। 

सोफ़िया तोलस्टोया ने कहीं लिखा है कि तोलस्टोय के कोट और शर्ट की आस्तीनें और कॉलर हमेशा उधड़ी हुई या फटी हुई रहती थी क्योंकि वे पुराने कपड़ों से बहुत लगाव रखते है, उन्हें फेंकते नहीं थे इसलिए ही शायद वे इतने अच्छे लेखक थे।

हमारे जीवन से पुराना ग़ायब होता जाता है और हम बूढ़े होते जाते है।

ठेके का हिसाब: अंचित

ठेके का हिसाब 

मैं बहुत लम्बी लम्बी पंक्तियों में यह कविता लिख रहा हूँ और नहीं जानता कि इतनी दूर आ गया हूँ यहाँ से कैसा दिख रहा हूँ । 

अपने पर शर्मिंदा, अपनी कविता से नाराज़ , अपनी भाषा के अभिजात्यपने में फँसा हुआ , कि कमीने को कमीना नहीं कहता, भेड़िए को भेड़िया , गीदड़ को गीदड़ और आदमी को आदमी नहीं, मैं इतिहास का पहला नहीं, इतिहास का आख़िरी नहीं, इकलौता भी नहीं, उसी भीड़ में से कोई एक जिसने खादी का कुर्ता पहना है, जिसके घर में माँ के जोड़ों में दर्द है, जिसके पिता मोहल्ले के पंसारी से उधार का राशन लाए हैं, जिसके बिस्तरे के नीचे किसी का ख़त पड़ा है , वही जिसके न होने से लोग दुखी होंगे लेकिन जी जाएँगे , क्या इतने साधारण-वाक्यांशों से बना हुआ , उद्दातताहीन , अपनी उज्जड़ता में आपसे यह सवाल पूछ सकता हूँ कि आपको दिखता नहीं क्या - 

बैंगनी गहरा बैगनीं, कुहरे की तरह नहीं सड़ते गंधाते पानी वाली बाढ़ की तरह हमारे घरों में घुस आया है, और हमारे आत्म पर सांपों का विष चढ़ने लगा है, हम बैंगनी हो रहे हमें नहीं दिखता हमारे सीने दरक रहे हमें नहीं दिखता हमारी जीभ पर हमने अपना वॉटर्मार्क लगीं फूलों की बेलें लगा लीं हमें नहीं दिखता ,   हम सुंदरता देखने लगे हैं अपने मुँह में अपना माथा घुसाए हम कला देखने लगे हैं प्रचारों में अख़बारों में सरकारों में हमारा संगीत हमारा ब्रांड बन गया है सुनते कम जताते ज़्यादा हैं और हमारा बचपन हमारे नाम की मुनादियाँ करता , चौराहे का चमनचुतिया

ऐसे में भले हाथियों का हमारा यह समाज - हम कवि लोगों का समाज,  मुस्कराहटें बाँटने प्रेम बाँटने और सादर नमन का कॉपी पेस्ट पेलने में लगा हुआ है - एक अकवि का बिम्ब है मेरे पास , बताइए - कितना अच्छा बहुत अच्छा होता है ? कितना बुरा बहुत बुरा ? मैं नारों में कविता लिखना चाहता हूँ, बैठे हुए लोगों को उठाना , चलाना, दौड़ाना - अभिधा में कह रहा हूँ, अभिधा में सुनिए। वीरू सोनकर  के कहे में थोड़ा अपना मिला कर कहता हूँ , रीझने रिझाने का खेल बन गयी है कविता  आधी निजी आधी सरकारी भारतीय रेल बन गयी है कविता । रेलवे स्टेशनों पर छात्र हैं , छात्रावासों में लाठियाँ हैं  और माई डियर पोयट इंडिया इंटर्नैशनल सेंटर जाने वाले हवाई जहाज़ में - साल दर साल जमा निराशा एक जगह आकर कहती है- अर्जे तमन्ना कविता नहीं है सम्पादन है , जाने किसका उत्पादन है, निष्पादन है या सिर्फ पाद…

शुचिता और शुद्धतावाद में फ़र्क़ होता है ,
विचार और विचारधारा में फ़र्क़ होता है , 
ट्रोल और आलोचक में फ़र्क़ होता है, 
आलोचक  और भांड में फ़र्क़ होता है , 

संस्कृति की पूँजी भी पूँजी है 
ज्ञानियों की सत्ता भी सत्ता 
जिसकी अभिजात्यता और जिसका नशा 
रोज़ अपनी ओर खींचता है। 

क्या यह बहुत ज़्यादा चाहना है 
कि मेरा तेली दोस्त अपनी ब्राह्मण प्रेमिका से शादी कर पाए 
कि मेरा सनम मेरी बाहों में बाहें डाले सड़क पर चल सके 
कि मैं कविता लिखूँ तो मुझे नौकरी जाने का डर ना लगे 
कि बुद्धिजीवियों  के पास कुंठा नहीं, संवेदना हो  
कि युवा कवि कहाने का रोमैंटिसिज़म पालने वाले पहले सत्ताओं से लड़ना सीखें? 
कि अंचित आचार्यित छोड़ कविता छोड़ किसी की उँगलियों में फँसी सिगरेट बन सके? 

मेरी इन चाहों के पीछे बजबजाती हुई आती है पूँजी - रहस्य से भरी हुई और अपने सारे क्षद्म लपेटे हुए, फिर भी इतनी लापरवाह कि अपने होने पर शर्म आती है, सीज़र जैसे चल रहा था रोम की सड़कों पर, आती है पूँजी और यज़ीद की तरह डेरा जमाती है । मंगलेश डबराल की शर्मिंदगी से अपनी शर्मिंदगी मिलाता हूँ। सड़क पर चलते कोई हाथ उठा देगा जैसे देवीप्रसाद मिश्र पर उठा दिया गया था । रूश्दि की तरह अज्ञातवास, रित्सोस की तरह जेल, कालिदास की तरह किसी गणिका का आँगन और निराला पर समकालीन उत्तरआधुनिकता का थोपा हुआ पागलपन। 

मैं बहुत लम्बी लम्बी पंक्तियों में यह कविता लिख रहा हूँ - यह कोई शपथपत्र नहीं जैसा पिछले साल था, यह कोई उम्मीद का शिलालेख नहीं जो समय की दीवार पर टांगा जा रहा। एक तलहीन कूएँ में गिर रही आदमी की रीढ़ का आख्यान है। इसे जितनी जल्दी हो सके ख़ारिज कर दिया जाए। 

अंचित 
(उन कविताओं में जो कहीं नहीं छापेंगी। जब लिखी थी,रुश्दी पर हमला नहीं हुआ था)

Wednesday 14 September 2022

मार्क्स का जन्मदिन : कृष्ण मोहन

#मार्क्स_का_जन्मदिन

मार्क्स ने कहा था 
दुनिया की व्याख्या बहुत हो गई
अब उसे बदलना चाहिए
हालांकि उसने व्याख्या भी की
और बदला भी

हमने बदलने वाली बात पकड़ ली 
और व्याख्याओं से कतरा गए
दुनिया बदलती गई
हमारी उम्मीद से भी ज़्यादा
पर हमने उसकी व्याख्या करते रहना
ज़रूरी नहीं समझा

नतीजा वही हुआ
जो होना था
हम जिसे बदलने में लगे थे
उसे समझने से चूक गए

मार्क्स को याद करते हुए
मैं आज कहता हूँ
बदलने के लिए भी समझने की ज़रूरत है
हमें इस नई दुनिया की
व्याख्या करनी चाहिए।

ऐजाज़ अहमद का मार्क्सवाद: कृष्ण मोहन

ऐजाज़ अहमद का मार्क्सवाद 
1 .
(अग्रणी मार्क्सवादी विचारक ऐजाज़ अहमद पर यह लेख 'समयांतर' के जून अंक में प्रकाशित हुआ है। सोशल मीडिया के पाठकों और अपने विद्यार्थियों के लिए मैं यह लेख फ़ेसबुक पर  शृंखलाबद्ध रूप से प्रस्तुत कर रहा हूँ।)

ऐजाज़ अहमद की ख्याति तमाम फ़ैशनेबल भटकावों के बीच बुनियादी मार्क्सवादी स्थापनाओं के लिए संघर्ष करने वाले विचारक की रही है। 1992 में प्रकाशित उनकी सबसे प्रसिद्ध किताब 'इन थियरी' उनकी वैचारिक जद्दोजहद के सबूत पेश करती है। इस किताब में ऐजाज़ अहमद बीसवीं शताब्दी में हुए बदलावों, ख़ास तौर पर दूसरे विश्वयुद्ध के बाद हुए बड़े वैचारिक और राजनैतिक बदलावों पर विस्तार से बहस करते हैं। इस किताब का उपशीर्षक उन्होंने 'क्लासेस', 'नेशन्स', 'लिटेरचर्स' दिया है। इस तरह हम उनके चिंतन के तीन बुनियादी सरोकारों से परिचित होते हैं। 'क्लासेस' यानी 'वर्गों' की भूमिका और उनके दृष्टिकोणों का अध्ययन किसी भी मार्क्सवादी का सबसे प्रारंभिक और बुनियादी काम है, इसे कहने की आवश्यकता नहीं है। जहाँ तक 'राष्ट्रों' का प्रश्न है, उनके चिंतन के केंद्र में बीसवीं सदी में पूरी दुनिया में चलने वाले उपनिवेश-विरोधी राष्ट्रीय मुक्ति के आंदोलन हैं, दूसरे महायुद्ध के बाद जिनमे से अधिकांश को कामयाबी मिली। आज़ाद होने के बाद इनमें से कुछ ने पूंजीवाद की ओर क़दम बढ़ाया और कुछ ने समाजवाद की दिशा में बढ़ने का प्रयास किया। ऐजाज़ अहमद इन प्रयासों की बारीक़ी से पड़ताल करते हैं, ख़ास तौर पर समाजवाद के सामने आने वाली कठिनाइयों की छानबीन से वे यह निष्कर्ष निकालते हैं। कहना ग़ैरज़रूरी है कि यह सारा विचार-विमर्श तीसरे बिंदु 'साहित्यों' के माध्यम से ही होगा, जिसमें लिखित रूप में प्रस्तुत वैचारिक और रचनात्मक साहित्य तो है ही, पढ़ने, भाषण देने, विमर्श करने, यानी भाषाई व्यवहार के तमाम रूपों को भी शामिल माना गया है। किताब से दिए गए उद्धरणों का अंग्रेज़ी से अनुवाद मैंने ही किया है। हिंदी में उनके लेखन की अनुपलब्धता को देखते हुए इस लेख के पहले हिस्से में मैंने उनके विचारों का सार-संक्षेप प्रस्तुत किया है, और दूसरे भाग में उसकी समीक्षा की है।

                      (1)

इस किताब में ऐजाज़ अहमद का मुख्य ज़ोर परिवर्तन और आमजन की पक्षधरता का दावा करने वाले विचारों से बहस करने पर है। पूंजीवादी और साम्राज्यवादी प्रवृत्तियों और उनके कारनामों का उल्लेख वे उपयुक्त अवसर पर करते हैं, लेकिन उन पर कोई तर्क वितर्क नहीं करते। वे जनता और मनुष्यता की पक्षधरता का दम भरने वाले विचारों से निर्मम संघर्ष में उतरते हैं, और उन पर अपने कठोर प्रहारों के साथ-साथ तीख़ी व्यंग्योक्तियों का तालमेल बनाए रखते हैं। मुक्तिबोध ने कभी कहा था–

'बुरे अच्छे बीच के संघर्ष से भी उग्रतर
अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर'

इस बहसधर्मी किताब से गुज़रते हुए हम समानधर्मा लोगों, मुक्ति की राह के हमसफ़रों के बीच छिड़ने वाले विवादों की ज़रूरत को नए सिरे से महसूस करते हैं।

ऐजाज़ अहमद के आकलन के मुताबिक़ दूसरे महायुद्ध के बाद और ख़ास तौर पर साठ के दशक में बुनियादी महत्व की कुछ समानांतर प्रक्रियाएँ चलीं। दुनिया में जारी राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों की सफलता के बीच एक तरफ़ तो राजनैतिक स्तर पर पूंजीवाद और समाजवाद के दो मॉडलों के बीच संघर्ष चला और दूसरी तरफ़ साहित्य संस्कृति के क्षेत्र में ऐसे नए  आंदोलन सामने आए जिन्होंने राजनीति का विकल्प बनने का दावा किया और जिन्हें वे कुछ व्यंग्य के साथ 'रैडिकल' आंदोलन कहते हैं। इन आंदोलनों की मुख्य प्रेरणा '60 के दशक में एशिया और यूरोप के विभिन्न देशों के विश्वविद्यालयों में चले छात्र आंदोलन थे। उन्होंने साहित्यिक-सांस्कृतिक अध्ययन की पद्धतियों को अपने राष्ट्रवादी-राजनैतिक व्यवहार का प्रमुख हिस्सा बनाया। इसी कारण इन्हें सांस्कृतिक राष्ट्रवादी भी कहा जाता है। उल्लेखनीय है कि भारत में यह संज्ञा हिंदुत्ववादियों के लिए सुरक्षित हो गई है, लेकिन साहित्यिक सिद्धांतों को लेकर चलने वाले वैश्विक विमर्श में इसका अर्थ अलग है।

इस 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की विशेषताओं को चिह्नित करते हुए ऐजाज़ अहमद कहते हैं— 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की विचारधारा में एक व्यापक निहितार्थ है जैसा कि यह साहित्यिक 'सिद्धांत' में प्रकट होता है कि तीसरी दुनिया के पास एक 'संस्कृति' और 'परंपरा'  है, और अपनी संस्कृति और परंपरा के अंदर से बोलना अपने आप मे ही उपनिवेशवाद-विरोधी कृत्य है।' ('इन थियरी', पृ. 9)

इस उद्धरण में लेखक ने जिस चीज़ को साहित्यिक 'सिद्धांत' कहा है, वही दरअसल इस किताब का केंद्रीय सरोकार है। किताब की बिल्कुल शुरुआत में ही इसे स्पष्ट करते हुए लेखक कहता है—'साहित्यिक अध्ययनों का विकास पिछली तिहाई सदी से अंग्रेज़ी भाषी देशों में "सिद्धांत" के रूप में हुआ है।….जेराल्ड ग्राफ़ ने बिल्कुल सही बताया है कि सिद्धांत का यह विस्फोट "रैडिकल असहमतियों के वातावरण" की देन है जो विशिष्ट सूचनात्मक सांस्कृतिक व्यवहारों और उनकी व्याख्या के तरीक़ों के बारे में है। "असहमति की संस्कृति" ज्ञान के उन नए रूपों की देन है जो दूसरे महायुद्ध के बाद बौद्धिक जांच-पड़ताल के स्थापित  तौर-तरीक़ों को विस्थापित करने के लिए विकसित हुई थी। युद्ध के बाद महानगरों के विश्वविद्यालयों में आए जनसांख्यिकीय बदलावों के दौरान हुए राजनीतिकरण के चलते और 1960 क दशक के छात्र आंदोलनों के कारण ये परिवर्तन हुए हैं।' (वही, पृ. 1)

ग़ौरतलब है कि ऐजाज़ अहमद प्रायः विकसित देशों और उनके शहरों में स्थित विश्वविद्यालयों को 'मेट्रोपोलिटन' की संज्ञा देते हैं। यही 'मेट्रोपोलिटन' केंद्र इस 'सिद्धांत' के विकास के लिए ज़िम्मेदार हैं। रचनाओं, घटनाओं, परिघटनाओं आदि के अध्ययन और उनके अपने 'पाठ' (रीडिंग) यानी अपनी व्याख्या को प्रतिरोध का पर्याप्त तरीक़ा मानने वाली इस प्रवृत्ति की वर्गीय स्थिति का संकेत करते हुए वे कहते हैं— 'बड़े प्रभावशाली लोग ही मानते हैं कि वे पढ़ने, लिखने, बोलने आदि के द्वारा साम्राज्यवाद से छुटकारा पा सकते हैं। पूंजी के पिछड़े इलाक़ों के मानव समूहों का साम्राज्यवाद से हर रिश्ता उनके अपने राष्ट्र-राज्यों के माध्यम से बनता है। अलग तरीक़े की राष्ट्रीय परियोजनाओं और अपने राष्ट्र-राज्यों की क्रांतिकारी पुनर्रचना के बिना उन्हें साम्राज्यवाद से मुक्ति नहीं मिल सकती। यह राष्ट्र-राज्य से सीधे जा टकराने के मसला नहीं है।, बल्कि वर्ग, राष्ट्र, और राज्य की नई व्याख्याओं को विकसित करने का प्रश्न है।' (वही, पृ. 11)

लेखक अपने विश्लेषण के माध्यम से हमें बताता है कि '60 के दशक के छात्र आंदोलनों से उपजे इस 'सिद्धांत' का ज़ोर राजनैतिक कार्यक्रमों की संस्कृति की जगह 'पाठ' (टेक्स्ट) केंद्रित संस्कृति की स्थापना, स्थापित संस्कृतियों की समझौताहीन आलोचना को एक नए प्रकार की वामपंथी रहस्यमयता से विस्थापित करने के साथ साथ अतीत में मार्क्सवाद से जुड़े मुद्दों को उत्तरआधुनिक दिशा में मोड़ देने की कुशलता के साथ परिभाषित किया है। इसे ही 'नव वाम' की संज्ञा भी वह देता है। इस कथित 'सिद्धांत' में समाविष्ट अनेक चिन्तानधाराओं के प्रसंग में वह बेंजामिन, फ्रैंकफर्ट स्कूल, लुकाच, भाषा विज्ञान, संरचनावाद, उत्तर संरचनावाद, वोलोशिनोव-बख़्तिन सर्कल, ग्राम्शी, फ्रायड, लाकां आदि का उल्लेख करता है। 

ऐजाज़ अहमद के विश्लेषण में 'सिद्धांत' की उन शाखाओं को प्रमुखता प्राप्त है जो उपनिवेश और साम्राज्य का मुद्दा उठाती हैं, और राष्ट्र, राष्ट्रवाद और तीसरी दुनिया जैसी श्रेणियों के माध्यम से ख़ुद को परिभाषित करती हैं। राष्ट्रवाद को वे आम तौर पर राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग की अगुवाई में चलने वाली प्रक्रिया मानते हैं। यह वर्ग साम्राज्यवाद से संघर्ष के मामले में अंततः कमज़ोर साबित होता है और समझौते पर बाध्य होता है। इसलिए साम्राज्यवाद से संघर्ष की ज़िम्मेदारी भी उनके मुताबिक़ समाजवाद पर ही आती है। इस बात को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं—

'मैं यह नहीं मानता कि राष्ट्रवाद साम्राज्यवाद का दृढ़, द्वंद्वात्मक विपरीत है। यह हैसियत सिर्फ़ समाजवाद की है।…… न ही मैं मानता हूँ कि राष्ट्रवाद कोई एकात्मक (unitary) चीज़ है जो हमेशा प्रगतिशील या प्रतिगामी होता है। कोई राष्ट्रवाद क्या भूमिका निभाएगा यह हमेशा वर्ग शक्तियों और सामाजिक राजनैतिक व्यवहार के तरीक़ों पर निर्भर करता है जो उस शक्ति समूह (पावर ब्लॉक) को संगठित करते हैं, जिसके भीतर कोई राष्ट्रवादी पहल ऐतिहासिक रूप से प्रभावी होती है।' (वही, पृ. 11) 

ऐजाज़ अहमद के मुताबिक़ विउपनिवेशीकरण के साथ-साथ अमरीकी पूंजीवाद का अभूतपूर्व केंद्रीकरण और उसकी साम्राज्यवादी अभिव्यक्ति युद्धोत्तर विश्व की एक प्रमुख सचाई थी। व्यवहार में यह देखने में आया कि जो देश अपनी मुक्ति के बाद समाजवादी राह पर नहीं चले वे क्रमशः साम्राज्यवादी ढांचे में समाते चले गए। उत्तर औपनिवेशिकता इसी प्रवृत्ति की विचारधारा थी। इसने उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष तो किया, उससे मुक्ति भी हासिल की और साम्राज्यवाद के बारे में हाय तौबा मचाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन यह सब ऊपरी रंग-रोगन साबित हुआ। 'नव वाम' और साहित्यिक 'सिद्धांत' के 'रैडिकल' अनुयायियों की ऐसी अनेक गतिविधियों का उल्लेख उन्होंने किया है जिनमें वे अपनी गर्मागर्म साम्राज्यवाद-विरोधी लफ़्फ़ाज़ी भी जारी रखते हैं और समझौते का चोर-रास्ता भी ढूंढ लेते हैं। वे बताते हैं कि मेट्रोपोलिटन वाम संरचनाओं और विकसित पूंजीवादी राज्यों ने उपनिवेशवाद से पीड़ित देशों के प्रति भेदभावपूर्ण नज़रिया प्रदर्शित किया है। इस्राइल फिलिस्तीन संघर्ष में उन्होंने पर्दे के पीछे इस्राइल से हाथ मिला लिया था और फिलिस्तीन से आंख फेरकर दक्षिण अफ्रीका के लिए घड़ियाली आँसू बहाते रहे थे। वे लिखते हैं—

'फ़िलहाल चर्चा का मुख्य बिंदु उपनिवेश-विरोधी राष्ट्रवाद है। इसके दो रूप हैं—पहला, राष्ट्रवादी विचारधाराओं से युक्त तथा राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के उत्तर औपनिवेशिक राज्य; और दूसरा, क्रांतिकारी युद्धों और समाजवादी वाम के उत्तर क्रांतिकारी राज्य। 1970 के दशक तक यह वैश्विक संरचना का निर्धारक तत्व था। इस अवधि के भी आख़िरी दशक तक क्रांतिकारी आंदोलनों के वर्चस्व था जिन्होंने अपने उपनिवेशवाद-विरोध को बुनियादी बदलाव के राजनैतिक कार्यक्रमों का हिस्सा बनाया था। लेकिन '60 के दशक के बाद आए मेट्रोपोलिटन वाम ने इससे यह ग़लत नतीजा निकाल लिया कि प्रगतिशील सामाजिक परिवर्तन उपनिवेशवादविरोधी राष्ट्रवाद का अभिन्न अंग है। इसी पृष्ठभूमि में तीन दुनियाओं के चीनी सिद्धांत ने वैश्विक मान्यता प्राप्त की, और राष्ट्रवाद तथा सांस्कृतिक सिद्धांतकारों के लिए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विचारधारा को साम्राज्यवादी (उत्तरआधुनिकतावादी?) संस्कृति के स्वाभाविक विरोधी की मान्यता मिल गई।' (वही, पृ. 33)

लेकिन इस भ्रामक मान्यता से ये तथ्य नहीं बदलते कि 1980 के दशक के अंत तक दुनिया की संरचना में ऐतिहासिक परिवर्तन घटित हो रहे थे, क्रांति के बाद समाजवाद की राह पकड़ने वाले देशों को प्रायः सबसे निम्न स्तर की उत्पादक शक्तियों से काम लेना पड़ा जिससे आर्थिक ठहराव की स्थिति बनी, लेकिन इन रैडिकल नववामपंथियों में शामिल कम्युनिस्टविरोधियों ने इसे इस रूप में प्रचारित किया कि समाजवाद आर्थिक रूप से कारगर नहीं है। इस तरह सोवियत संघ के बारे में राय बदलने लगी। ऐजाज़ अहमद के अनुसार अभी कुछ समय पहले तक जब क्रांतिकारी संघर्ष चल रहे थे तो बात कुछ और थी। तब इस तथ्य को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल था कि हर प्रकार के क्रांतिकारी संघर्ष को सोवियत संघ का निर्णायक भौतिक और राजनयिक समर्थन मिलता रहा था। यहाँ तक कि ब्रेजनेव के शासनकाल के तथाकथित 'जड़ता' के दौर में भी बहुत सारी क्रांतियाँ सोवियत संघ के प्रत्यक्ष समर्थन से सफल हुईं। बहरहाल, आगे चलकर गोर्बाचेव के दौर ने इस ऐच्छिक स्मृतिभ्रंश को और तेज़ किया।

दूसरी तरफ़ जिन उत्तर औपनिवेशिक राज्यों से बहुत बड़ी-चढ़ी आशाएँ की गई थीं वे बहुत जल्द जड़ता, परनिर्भरता, तानाशाही क्रूरता, धार्मिक कट्टरता आदि का प्रदर्शन करने लगे। सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों की आख़िरी उम्मीद ईरान की क्रांति थी, जहाँ खोमैनी ने असंख्य ईरानी कम्युनिस्टों और देशभक्तों का सफ़ाया किया और ईरान को एक धर्म-शासित राज्य में बदल दिया। इस तरह साम्राज्यवाद के विकल्प के रूप में मेट्रोपोलिटन वामपंथियों के लिए समाजवाद तो पहले ही चुक गया था, उत्तर औपनिवेशिक राज्य भी नहीं बच सके।
#ऐजाज़_अहमद_का_मार्क्सवाद  (2)

ऐजाज़ अहमद हमें बताते हैं कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का संबंध तीन दुनियाओं के सिद्धांत के साथ अनिवार्यतः होता है। इसके बाद राष्ट्रवाद के विरोध का विचार एक पूरी तरह से अलग सैद्धांतिक ढांचे उत्तरसंरचनावाद से प्रेरित होकर आता है। उत्तरसंरचनावाद प्रत्यक्षतः तीन दुनियाओं के सिद्धांत का विरोधी हैं, इसके बावजूद वह इन्हें समेटने का प्रयास करता है। मार्क्सवाद को ठुकराने के क्रम में इस विचारधारा ने ऐतिहासिकता से अपना नाता पूरी तरह से ख़त्म कर लिया। नतीजा यह निकला कि नई ज़मीन तोड़ने निकला यह अवांगार्द (हिरावल) साहित्य-सिद्धांत आंतरिक रूप से संगत कोई संरचना तक तैयार न कर सका।

मार्क्सवाद-विरोध से भी बड़ी वजह इस असंगति की यह रही कि यह विचार दुनिया मे तेजी से हो रहे राजनैतिक और आर्थिक परिवर्तनों से संचालित था। '70 के दशक में साम्राज्यवाद के विरुद्ध राष्ट्रवाद गतिशील था तो तीन दुनियाओं के सिद्धांत के रूप में उसकी स्थापना हुई, लेकिन '80 के दशक में जब यही राष्ट्रवाद निरंकुश और दमनकारी हो गया तो उसे ठुकराने की ज़रूरत उत्तरसंरचनावाद में प्रकट हुई।  ऐसा करते हुए उत्तरसंरचनावाद किसी भी प्रगतिशील या पतनशील राष्ट्रवाद के बीच अंतर नहीं करता और सबको सिर्फ़ राष्ट्रवाद होने के कारण ख़ारिज़ कर देता है।

'60 के बाद पैदा हुए 'पश्चिमी मार्क्सवाद' (नव वामपंथियों को यह नाम पेरी एंडरसन ने दिया था) की बहुत सी प्रवृत्तियों ने आगे चलकर उत्तरसंरचनावाद की राह आसान की। मसलन, मार्क्यूस ने वर्ग की श्रेणी का परित्याग करके कामुकता और सौंदर्य के क्षेत्र में क्रांतिकारी गतिशीलता की खोज की। अडोर्नो की चरम निराशावादी कृति 'मिनिमा मोरलिया' ने सार्त्र के 'क्रिटिक ऑफ डाइलेक्टिकल रीज़न' के सहयोग से यह विचार विकसित किया कि 'अभाव' की श्रेणी के चलते यह अनिवार्य है कि कोई भी विद्रोही समूह सत्ता पाने के बाद नौकरशाही में पतित हो जाएगा। 'सिद्धांत' पर उल्लेखनीय प्रभाव रखने वाले अल्थ्यूसर का संरचनावाद से रिश्ता जगजाहिर है, लेकिन विचारधारा को 'अचेतन' 'प्रतिनिधित्व की प्रणाली के रूप में', 'इंसान और दुनिया के बीच जिए गए संबंध के रूप में', और 'ऐसी चीज़ के रूप में जो किसी राज्य के सभी अनुमानित उपकरणों को संतृप्त कर देती है', प्रस्तुत करके उसने इसे मिशेल फूको द्वारा प्रवर्तित उत्तरसंरचनावादी विमर्श के समतुल्य बना दिया। ब्रिटिश-अमरीकी अकादमिक जगत में पश्चिमी मार्क्सवाद का आगमन उल्लेखनीय रूप से '70 के दशक में उत्तरसंरचनावाद के साथ हुआ।

'तीसरी दुनिया का साहित्य' बक़ौल ऐजाज़ अहमद इंग्लैंड और अमरीका के महानगरों में स्थित विश्वविद्यालयों की निर्मिति है। इस पर संदेह करने की प्रमुख वजह इन विश्वविद्यालयों का विकासशील देशों के बौद्धिक जगत पर क़ायम वर्चस्व है। दोनों के बीच का रिश्ता, ख़ासकर अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से, शासक-शासित संबन्ध जैसा हो जाता है। लैटिन अमरीका में छपे किसी उपन्यास को चुनकर उसका अंग्रेज़ी में अनुवाद कराने से लेकर किसी अन्य देश, मसलन, भारत के विश्वविद्यालयों में इसे 'तीसरी दुनिया' के प्रतिनिधि उपन्यास की हैसियत से स्थापित करने की प्रक्रिया इसी वर्चस्व के तहत संचालित होती है। आम तौर पर इस कथित तीसरी दुनिया की भाषाओं से 'पहली दुनिया' के इन महानगरीय बुद्धिजीवियों और लेखकों का परिचय तक नहीं होता। इसलिए ख़ास दृष्टि से चुनी हुई बहुत थोड़ी सी कृतियाँ अनूदित होकर इस प्रतिष्ठान द्वारा स्वीकृत-पुरस्कृत होने की दहलीज पर पहुंच पाती हैं। इसके अलावा अपनी मातृभाषाओं से मुंह मोड़कर सीधे अंग्रेज़ी में लिखने वाले लेखक भाग्यशाली होते हैं कि उन्हें इस प्रक्रिया से नहीं गुज़रना पड़ता। पहली दुनिया के लेखकों को भी इसी में आसानी होती है। इस वजह से उन्हें तुरंत अपने देश का प्रतिनिधित्व करने का गौरव मिल जाता है।

जहाँ तक साहित्यिक 'सिद्धांत' का सवाल है, ऐजाज़ अहमद उसका खाका खींचते हुए हमें बताते हैं कि दो महायुद्धों के बीच के समय में अंग्रेज़ी साहित्य में चार प्रमुख प्रवृत्तियों का ज़ोर था। ये थीं— आई. ए. रिचर्ड्स की व्यावहारिक आलोचना, टी. एस. इलियट की रूढ़िवादी-कैथोलिक-राजतन्त्रवादी आलोचना, आधुनिकतावाद की कुछ अवांगार्द प्रवृत्तियाँ, और अमरीका में नई-नई उभर रही रैंसम और टेट आदि की 'नई समीक्षा'। इन प्रवृत्तियों का प्रतिवाद करने की रुचि इंग्लैंड में अधिक थी, क्योंकि वहाँ सामाजिक चेतना से संपन्न साहित्यिक अध्ययनों की परंपरा पुरानी थी। एफ. आर. लेविस की अगुवाई में 'स्क्रूटिनी' ग्रुप ने व्यावहारिक समीक्षा के शिक्षाशास्त्रीय महत्व को समझते हुए इसे साहित्यिक विश्लेषण के वस्तुगत मानदंड में बदल दिया, और इस प्रकार उन्होंने साहित्यिक 'आस्वाद' की अभिजात प्रवृत्तियों को विस्थापित कर दिया। 

लेविस और उनके ग्रुप की मध्यवर्गीय जड़ों, और साहित्यिक अध्ययन को इंग्लैंड की सांस्कृतिक मुक्ति के सुनिश्चित मार्ग की तरह देखने के लगभग धार्मिक रवैये के बावजूद इसमें रैडिकलवाद का कुछ लोकप्रियतावादी क़िस्म का अंश भी था। इसी लोकप्रियतावादी तत्व को रेमंड विलियम्स ने अपनी श्रमिकवर्गीय पृष्ठभूमि और उस ख़ास क़िस्म के रैडिकलवाद से जोड़ा जो उसे कम्युनिस्ट पार्टी में ले गया था। अगले बीस साल तक 'कल्चर ऐंड सोसाइटी' से लेकर 'द कंट्री ऐंड द सिटी' तक उसने अनेक अध्ययन प्रस्तावित किए। बाद वाली किताब को ऐजाज़ अहमद अंग्रेज़ी समीक्षा की सबसे प्रभावशाली कृति मानते हैं। हालाँकि, ब्रिटिश अकादमिक जगत में रेमंड विलियम्स को वह महत्व कभी नहीं मिल सका जो टी. एस. इलियट को मिला। लेकिन यह आसानी से कहा जा सकता है कि लेविस की मध्यवर्गीयता और विलियम्स के मार्क्सवादी संदर्भों के बीच ब्रिटिश बौद्धिकता का अगुवा तबक़ा शीतयुद्ध के दौर में भी साहित्य की सामाजिक भूमिका की स्थापना की ओर बढ़ता रहा। दूसरे शब्दों में, जब अमरीका में 'नई समीक्षा' के विरुद्ध उपजी प्रतिक्रिया 'विखंडनवाद' की ओर अग्रसर हुई, इंग्लैंड में रिचर्ड्स और लेविस के आलोचकों ने वामपंथी दिशा अपनाई।

अमरीकी समाज को ऐजाज़ अहमद ऐतिहासिक कारणों से अधिक रूढ़िवादी, कुलीनतावादी, और यहाँ तक कि नस्लवादी मानते हैं। दास प्रथा जैसी बुराई को अपनी आज़ादी के बाद बहुत लंबे समय तक बनाए रखने की जो वजहें अमरीकी समाज में थीं, उन्होंने ऐसी ही मनोभूमि का निर्माण किया था। फ्रांस की 'जैकोबिन' और इंग्लैंड की 'क्रामवेलियन' मनोवृत्ति के मुक़ाबले यह अमरीका का पिछड़ापन ही कहा जाएगा। इसी पृष्ठभूमि में वहाँ 'नई समीक्षा' का उदय होता है। इसने प्रत्येक कृति को निरपेक्ष रूप से स्वायत्त और 'साहित्य' को 'एक ख़ास तरह का ज्ञान रखने वाली अलग भाषा' मानते हुए 'पाठ' (रीडिंग) की जो संस्कृति विकसित की, वह अमरीकी साहित्यिक अध्ययन के क्षेत्र में चौथाई सदी तक छाई रही।

ग़ौरतलब है कि 1940 के दशक के अंत तक 'नई समीक्षा' अपने उत्कर्ष पर पहुंच गई थी। यही समय है जब अमरीका ने शीतयुद्ध छेड़ा और सख़्त कम्युनिस्टविरोधी 'मैकार्थीवाद' की शुरूआत की। '50 के दशक के अंत मे जब उसका वर्चस्व गिरावट के दौर में पहुँचा तो मैकार्थीवाद का भी उतार हो रहा था, और आइजनहावर के कठोर सिद्धांतों ने केनेडी युग के लिए जगह ख़ाली कर दी थी। अमरीकी उदारतावाद का यह वही सुनहला ज़माना था जिसने वियतनाम युद्ध छेड़ा था।

नई समीक्षा के विरुद्ध उसी दौर में पहली असहमति नार्थोप फ्राई जैसे आलोचकों के माध्यम से सामने आई। उन्होंने साहित्य को 'विशेष ज्ञान रखने वाली विशेष भाषा' के विचार को बरक़रार रखा लेकिन उसकी निरपेक्ष स्वायत्तता से इनकार कर दिया। उनका कहना था कि किसी व्यापकतर आख्यान के बग़ैर कोई रचना अपना अर्थ नहीं प्रकट कर सकती। साफ़ तौर पर यह 'टेक्स्ट' को 'कॉन्टेक्स्ट' में समझने का आग्रह था। सभ्यताओं की गहन संरचनाओं के रूप आकार के अंदर ही रचनाकार अपनी बातों को भाषा के माध्यम से प्रेषित करता है। इस परंपरा ने आगे चलकर 'संरचनावाद' की राह आसान कर दी। साथ ही साथ इसने 'विमर्श' के उत्तरसंरचनावादी सिद्धांत के लिए भी जगह बनाई, जिसमें यह माना जाता था कि भाषा ही मनुष्यों के माध्यम से बोलती है और मानव तत्व (ह्यूमन एजेंसी) का निर्माण भाषा ही के द्वारा हुआ है।

'60 के दशक में और उसके बाद अमरीकी साहित्यिक परिदृश्य को आच्छादित करने वाले हेरल्ड ब्लूम और पॉल दी मान जैसे व्यक्तित्वों का उभार हुआ। इसी दौरान अमरीकी शासन डलेस (जॉन फ़ास्टर डलेस, '50 के दशक में अपने कम्युनिस्टविरोध के लिए कुख्यात अमरीकी राज्य-सचिव) टाइप के कट्टरवाद से केनेडी टाइप के 'उदार' साम्राज्यवाद में, दूसरे शब्दों में कोरिया से वियतनाम में रूपांतरित हुआ। आगे चलकर 'विखंडनवाद' के उभार से ब्लूम को काफी पीड़ा हुई लेकिन वे इसका समुचित विरोध न कर सके, क्योंकि, लेखक के मुताबिक़, सैद्धांतिक प्रश्नों का सामना करने की उनकी तैयारी पर्याप्त नहीं थी।

वियतनाम युद्ध के विरोध में अमरीका में जो जनज्वार उठा वह इसे कोई साम्राज्यवादविरोधी स्वरूप देने में असफल रहा। उसकी चेतना बस इतनी ही थी कि अमरीका सेना को वियतनाम से बुला लेने के बाद वह शांत पड़ गई। लेकिन इससे हरकत में आई सामाजिक शक्तियों ने नारीवाद और ब्लैक आंदोलन (हिंदी में इसके लिए 'अश्वेत' चलता है जो कि पूरी तरह भ्रामक शब्द है। किसी बेहतर विकल्प के अभाव में मैं मूल शब्द 'ब्लैक' का इस्तेमाल करना उचित समझता हूँ।) के क्षेत्र में नए मुक़ाम तय किए। अमरीकी रैडिकलवाद का गठन इन तत्वों के साथ हुआ है।

इस दौरान अमरीकी अकादमिक जगत ने पहली बार नस्ल और लिंगभेद के सवालों का सामना किया। पहली बार इस बात की तरफ़ उनका ध्यान गया कि उनका अब तक का अध्ययन दुनिया के कितने छोटे से हिस्से, यूरोप और उत्तरी अमरीका तक सीमित था। इस अहसास से उन्होंने एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका पर जब दृष्टि डाली तो तीसरी दुनिया का साहित्य नामक एक नई श्रेणी को जन्म दिया। '60 के दशक में एशिया और यूरोप के विकसित शिक्षा केंद्रों को हिला देने वाले छात्र-आंदोलनों के साथ-साथ चीन की सांस्कृतिक क्रांति (1966-76) ने भी तीसरी दुनिया नामक नई श्रेणी को स्थापित करने में भूमिका निभाई। इस प्रकार रैडिकलवाद के तीन चेहरे उभरे— ब्लैक, नारी और तीसरी दुनिया। वे कहते हैं:

'किसी भी रैडिकलवाद के सामने चाहे वह ब्लैक हो, नारीवादी हो, या तीसरी दुनियावादी हो, सबसे बुनियादी और निरंतर बना रहने वाला ख़तरा उसका बुर्जुआकरण है। इस तरह के रैडिकल आंदोलन जिन तीन शीर्षक-संकेतों के अंतर्गत पूरी तरह से समेट लिए गए, वे हैं— तीसरी दुनियावादी राष्ट्रवाद, सारतत्ववाद (एसेंशियलिज्म), और बिखराव और टूट-फूट के मौजूदा फैशनेबल सिद्धांत, जैसे— "विषय की मृत्यु" (डेथ आफ सब्जेक्ट)। यानी एक तरफ तो सुविचारित विशिष्टता और स्थानीयतावाद की राजनीति और दूसरी तरफ, जैसा कि कुछ उत्तरसंरचनावादी मानते हैं, सामाजिक की मृत्यु, विषय की स्थिर स्थितियों की असंभाव्यता, यानी राजनीति मात्र की ही मृत्यु। हाल के वर्षों में तीसरी दुनियावादी विचार के उत्तरसंरचनावाद के साथ मेलजोल के कई प्रयास सामने आए हैं।' (वही, पृ.64-5)

यहां 'सब्जेक्ट' के पर्याय के रूप में मैंने 'विषय' का चुनाव किया है, लेकिन इसका वास्तविक अर्थ इसके साथ 'मरने वाली' 'सामाजिक' और 'राजनैतिक' जैसी श्रेणियों के साथ इसे रखने से प्रकट होता है। दूसरे शब्दों में, 'डेथ आफ सब्जेक्ट' का अर्थ है जनता और उसके लिए सोचने और काम करने वाले बौद्धिक कार्यकर्ता की मौत। उत्तरसंरचनावाद की अपनी राजनीति का तकाजा भी यही है।
                   #ऐजाज़_अहमद_का_मार्क्सवाद  (3)

ऐजाज़ अहमद के अनुसार '70 के दशक के अंत तक आते-आते उपनिवेशवादविरोधी क्रांतियों की आँधी थम गई और इसकी समाजवादी धारा को घेरने और काबू करने में साम्राज्यवाद सफल हुआ। '80 के दशक में इसीलिए राष्ट्रीय बुर्जुआ की अगुवाई में उत्तऔपनिवेशिक राष्ट्रवाद मजबूत हुआ, जिसने तीसरी दुनियावाद की नींव डाली। '80 के दशक के परवर्ती वर्षों में ऐसे अवांगार्द सिद्धांतकार सामने आए जिन्होंने घोषणा की कि राष्ट्रवाद की आलोचना करने के लिए उत्तरसंरचनावाद और विखंडनवाद मज़बूत वैचारिक स्थितियां हैं। एडवर्ड सईद ने रंजीत गुहा और सबाल्टर्न इतिहास की पूरी परियोजना को उत्तरसंरचनावादी माना है।

यहां फूको की कुछ मान्यताओं पर गौर करना चाहिए जो उत्तरसंरचनावाद के एक प्रमुख प्रेरक विचारक हैं—एक, जो भी खुद को 'तथ्य' बताता है वह विमर्श द्वारा प्रस्तावित 'सत्य-प्रभाव' (ट्रुथ-इफ़ेक्ट) है। दो, जो भी 'शक्ति' का प्रतिरोध करने का दावा करता है वह खुद 'शक्ति' बन जाता है। बक़ौल ऐजाज़ अहमद, इसके बाद 'सिद्धांत' के लिए 'प्रभावों' को गिनने, और उसे निगलने और उगलने के अलावा कोई काम नहीं बचता। यह खुद विचारों का बाजार बन जाता है जहां 'सिद्धांत' का किसी उपयोगशुदा माल की तरह थोक में उत्पादन और आपूर्ति होती है।

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फ्रेडरिक जेम्सन के एक निबंध 'थर्ड वर्ल्ड लिटेरचर इन द एरा ऑफ मल्टीनेशनल कैपिटलिज्म' के फुटनोट में तीसरी दुनिया के संज्ञानात्मक सौंदर्यशास्त्र की शब्दावली के प्रयोग पर सवाल खड़े करते हुए ऐजाज़ अहमद कहते हैं कि यूरोप या अमरीका का शायद ही कोई ऐसा लेखक होगा जो कथित तीसरी दुनिया की कोई भाषा जानता हो। इन देशों की भाषाओं से अंग्रेजी अनुवाद भी अपवादस्वरूप ही हो पाता है। ऐसे में इन देशों के अंग्रेजी में लिखने वाले लेखक अनायास इनके प्रतिनिधि का दर्जा पा लेते हैं जैसा कि सलमान रश्दी और एडवर्ड सईद के मामले में हुआ है। इसके अलावा फ्रेडरिक जेम्सन की अपनी वैचारिकी में तीसरी दुनिया और पहली दुनिया एक दूसरे के बायनरी विपरीत हैं। तीसरी दुनिया को वे उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के 'अनुभव' के आधार पर परिभाषित करते हैं, राष्ट्रवाद जिसकी अनिवार्य परिणति है। इसके बाद उनका प्रसिद्ध सूत्र आता है— तीसरी दुनिया की सभी रचनाओं को आवश्यक रूप से राष्ट्रीय रूपक की तरह पढ़ा जाना चाहिए। इस प्रकार इन तीनों का समीकरण अविभाज्य है। 

उल्लेखनीय है कि जेम्सन के अनुसार पहली दुनिया पूंजीवादी राज्यों का समूह है, और दूसरी दुनिया समाजवादी राज्यों का। तीसरी दुनिया शेष बची हुई है जिसकी विशेषता उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का उसका 'अनुभव' है। ऐजाज़ अहमद की आपत्ति यह है कि इस वर्गीकरण की पहली दो श्रेणियां मानवीय प्रयासों का परिणाम हैं, जबकि तीसरी श्रेणी केवल निष्क्रिय भोक्ता होने की स्थिति को व्यक्त करती है। भारत का उदाहरण देकर वे बताते हैं कि उसमें पहली और दूसरी दुनिया के कई देशों से अधिक मात्रा में पूंजीवादी विकास भी हुआ है, और समाजवादी विकास भी। इससे मिलती-जुलती स्थिति ब्राजील, मेक्सिको, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों की भी है। इसलिए इन्हें पहली दुनिया का बायनरी विपरीत बताना वास्तविकता से मेल नहीं खाता। उनका कहना है कि तीसरी दुनिया के सामने दो ही विकल्प हैं, राष्ट्रवाद या अमरीकी उत्तरआधुनिक संस्कृति। ऐजाज़ अहमद का प्रश्न है कि उनके सामने दूसरी दुनिया में शामिल होने का विकल्प क्यों नहीं हो सकता। वे जेम्सन को याद दिलाते हैं कि तीसरी दुनिया के वही राष्ट्र अमरीकी साम्राज्यवाद का प्रतिरोध कर सके जिन्होंने समाजवाद की राह चुनी। बाकी राष्ट्रवादियों को अमरीकी संस्कृति से जुड़ने में वक्त नहीं लगा। अगर मानव समाजों की व्याख्या उत्पादन संबंधों के बजाय अंतरराष्ट्रीय प्रभुत्व के 'अनुभवों' के आधार पर की जाएगी और उन्हें पूंजीवाद और समाजवाद के बीच संघर्ष के बाहर हमेशा के लिए त्रिशंकु की तरह लटकने के लिए छोड़ दिया जाएगा, उनके बीच एकता और संघर्ष के अन्य बिंदुओं की जगह राष्ट्रीय उत्पीड़न का अनुभव ही उन्हें एकताबद्ध करेगा, तो वे इतिहास के निष्क्रिय शिकार के रूप में देखे जाने को अभिशप्त होंगे।

इस बहस को आगे बढ़ाते हुए ऐजाज़ अहमद एक वैकल्पिक तर्क देते हैं— मान कर देखें कि हम तीन दुनियाओं में नहीं बल्कि एक ही दुनिया में रहते हैं, जिसमें पूंजीवाद और समाजवाद के बीच युद्ध छिड़ा हुआ है। कहीं पूंजीवाद जीता है जिसे जेम्सन पहली दुनिया कहते हैं, कहीं समाजवाद जीता है जिसे वे दूसरी दुनिया कहते हैं, और जहां अभी पलड़ा किसी के पक्ष में निर्णायक तौर पर नहीं झुका है उसे तीसरी दुनिया कहते हैं। यह विचार दुनिया की अधिक यथार्थवादी समझ देता है। इस दृष्टि से सोचने पर राष्ट्रवाद पर अतिरिक्त जोर देने की जरूरत नहीं रह जाती और न ही राष्ट्रीय रूपक की कोई खास अहमियत होती है। 

दूसरी तरफ जेम्सन का विचार है कि औद्योगिक समाजों में 'व्यक्तिगत' और 'सामाजिक' का पूर्ण विलगाव हो जाता है और पूर्व औद्योगिक समाजों में व्यक्तिगत और सामूहिक के तत्व परस्पर घुले-मिले होते हैं। इसीलिए तीसरी दुनिया के देशों की कथाओं में व्यक्तिगत के साथ  सामूहिकता के कुछ आशय भी सम्मिलित हो जाते हैं। इसे ही उन्होंने राष्ट्रीय रूपक होने का कारण माना है। ऐजाज़ अहमद इस बात के लिए उनको आड़े हाथों लेते हैं कि वे अपनी धारणाएं बहुत जल्दी-जल्दी बदलते हैं। 'सामूहिक' और 'राष्ट्रीय' में बहुत बड़ा फर्क है। 19वीं और 20वीं सदी के भारत की अनेक कथा-रचनाओं का हवाला देकर उन्होंने बताया कि वे कतई राष्ट्रीय रूपक नहीं है। इनमें मिर्जा हादी रुसवा, मोहम्मद हुसैन आजाद, इंशा अल्ला खाँ इत्यादि 19वीं सदी के बड़े लेखकों से लेकर 20 वीं सदी के उपन्यासकार अब्दुल्लाह हुसैन भी शामिल हैं। 

इस संबंध में कहने की बात यह है कि बहस में अगर कोई पक्ष अपनी बात का स्पष्टीकरण दे तो उसे फेसवैल्यू पर लेना चाहिए, और यथासंभव स्वीकार करना चाहिए, बशर्ते उसे येन केन प्रकारेण हराने ही कि मंशा न हो। क्योंकि इसके बगैर इस बात की संभावना बनी रहती है कि आप अपने प्रतिपक्ष के विचारों के किसी हीनतर पक्ष से बहस करते रहे जाएँ, और अपने हिसाब से उसमें सुर्खरू भी हो जाएँ, लेकिन वास्तविकता में उस बहस से कुछ भी नहीं बदलता। इस बहस में भी फ्रेडरिक जेम्सन की बात को ऐजाज़ अहमद तोड़ते-मरोड़ते हुए प्रतीत होते हैं। जैसे, उन्होंने जेम्सन पर परोक्ष रूप से ईसाइयत की परंपरा को रूपक के माध्यम से पुनर्जीवित करने का आरोप लगा दिया है, क्योंकि मध्यकाल में एलिगरी या रूपक का इस्तेमाल धार्मिक बोधकथाओं को प्रस्तुत करने के लिए बहुतायत से किया जाता था, जिसके विरुद्ध 19वीं सदी के अंग्रेज़ी साहित्य में विद्रोह हुआ और सेक्युलर परंपरा की स्थापना हुई थी। अब यह कुछ ऐसी ही बात है जैसे आज हिंदी में कोई रूपक की बात करे तो उस पर 'पंचतंत्र' या 'पुराणों' की परंपरा को पुनर्जीवित करने का आरोप लगा दिया जाए। बीसवीं सदी में भी अंग्रेज़ी-फ्रांसीसी साहित्य में रूपक-आधारित बेहतरीन कृतियों की रचना हुई है। अल्बैर कामू का 'प्लेग' और जार्ज ऑरवेल का 'एनिमल फार्म' इनमें खास तौर पर उल्लेखनीय हैं। फ़िलहाल हमारा विषय 19वीं और 20वीं सदी का हिंदी-उर्दू साहित्य है तो इसमें से बहुत चुने हुए दो-तीन रचनाकारों के माध्यम से रूपक की अहमियत पर बात की जाएगी।

सबसे पहले ऐजाज़ अहमद के प्रिय शायर मिर्ज़ा ग़ालिब को लेते हैं। उनकी शायरी के बेशतर हिस्से को बतौर राष्ट्रीय रूपक ही समझ जा सकता है। मसलन उनकी ये मशहूर ग़ज़ल देखें:

'न गुल-ए-नग़मा हूँ न पर्दा-ए-साज़
मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज़'

यह महज़ किसी आशिक़ की आवाज़ नहीं है, एक पराजित और विनष्ट होती हुई सभ्यता की भी आवाज़ है। इस शेर को अगर केवल रवायती मुहावरे में समझने की कोशिश करेंगे तो कोई घिसा-पिटा अर्थ भले ही हाथ लग जाए, इसका वास्तविक वैभव हमसे दूर ही रह जाएगा। अगला शेर देखें:

'हूँ गिरफ़्तार-ए-उल्फ़त-ए-सय्याद
वरना बाक़ी है ताक़त-ए-परवाज़'

यहाँ बात और खुल जाती है। ये जो शिकारी है, जिसने हमें क़ैद कर रखा है, हम दरअसल उसके सम्मोहन में उलझ गए हैं। वरना उड़ने की ताक़त अभी ख़त्म नहीं हुई है। हम भारतीय लोग 19वीं सदी में ब्रिटिश मान मूल्यों से ऐसे ही सम्मोहित हो गए थे। आज भी औपनिवेशिक विरासत हमारे ऊपर सवार है, क्योंकि राजनैतिक रूप से हम भले ही आज़ाद हो गए, लेकिन सांस्कृतिक स्तर पर आज भी ब्रिटिश-अमरीकी संस्कृति के दीवाने हैं। इसीलिए ज्ञान के किसी भी क्षेत्र में हम कोई मौलिक काम कर पाने में असमर्थ हो चुके हैं। 

ग़ालिब की एक अपेक्षाकृत कम उद्धृत की गई ग़ज़ल के चंद शेर हैं-

'गुलशन में बंदोबस्त बरंगे-दिगर है आज
कुमरी का तौक़ हल्का-ए-बेरूने-दर है आज

'आता है एक पारा-ए-दिल हर फ़ुगाँ के साथ
तारे-नफ़स कमंदे-शिकारे-असर है आज

'अय आफ़ियत किनारा कर अय इंतिज़ाम चल
सैलाबे-गिरिया दर पै-ए-दीवारो-दर है आज'

पहले शेर का आशय है कि बग़ीचे का इंतज़ाम आज दूसरे ढंग का हो गया है। पहले जो फंदा चिड़िया के गले
के इर्द-गिर्द था, अब वह दरवाजे का दायरा बन गया है। ऊपरी तौर पर तो चिड़िया अपना गीत गाने के लिए आजाद है, लेकिन यह आज़ादी एक बड़े क़ैदख़ाने के अंदर की आज़ादी है। आबो-हवा में उन्मुक्तता की जगह घुटन भर गई है, और पूरा माहौल प्रदूषित हो गया है। यह फ़र्क़ शासकवर्गीय कठोरता और उदारता का है। 19वीं सदी में अंग्रेज़ों ने इन हथकंडों का बख़ूबी इस्तेमाल किया था। हमारे मौजूदा शासक भी अक्सर इसका स्वांग भरते दीख जाते हैं। यहां दूसरे (दिगर) ढंग के इंतज़ाम' की बात में व्यंग्य और विडंबना है। अव्वल तो वह पहले से अलग है नहीं, और फिर उसे आज़ाद करने वाला समझा जा रहा है जबकि वह ग़ुलामी ही को और गहराई देता है।

दूसरे शेर में इसी परिस्थिति से उपजी मन:स्थिति का बयान है। इस स्थिति में हर कराह के साथ दिल का एक टुकड़ा बाहर आ जाता है। इससे प्रभावित व्यक्ति की सांस का हर तार मानो कमान बन गया है, जिससे छूटने वाला तीर उसके दिल में पैबस्त हो जाता है। 

तीसरे शेर में भी इसी तकलीफ़देह सचाई पर प्रतिक्रिया व्यक्त किया है---ऐ दिल की शांति तू अपनी राह ले और ऐ व्यवस्था तू चलती रह। आंसुओं की बाढ़ आज घर-बार को ढा देने पर उतारू है। व्यवस्था यानी वही 'नया बंदोबस्त'। उसे चलते रहना है क्योंकि कोई और विकल्प नहीं है, लेकिन उसके साथ शांति का बने राह पाना नामुमकिन है। अशांति होकर रहेगी। दुख के इस पहाड़ का मुकाबला आँसुओं की नदी में आई बाढ़ ही कर सकती है। यही बाढ़ अन्याय पर आधारित इस घर की दीवारों को ढाने में कामयाब हो सकती है।

                              #ऐजाज़_अहमद_का_मार्क्सवाद  (4)

हिंदी-उर्दू साहित्य में राष्ट्रीय रूपक की मौजूदगी के विषय पर बहुत विस्तार से बात की जा सकती है लेकिन मैं यहाँ नमूने के बतौर ही कुछ कहने तक ख़ुद को सीमित रखूँगा। ग़ालिब के बाद बीसवीं सदी के हिंदी कवि मुक्तिबोध का एक अंश और अब्दुल्लाह हुसैन के उपन्यास 'उदास नस्लें' के बारे में कुछ वाक्य। मुक्तिबोध की कविता 'ब्रह्मराक्षस' की ये अंतिम पंक्तियां हैं:

'पिस गया वह भीतरी
औ' बाहरी दो कठिन पाटों बीच, 
ऐसी ट्रैजेडी है नीच ! !

बावड़ी में वह स्वयं 
पागल प्रतीकों में निरन्तर कह रहा 
वह कोठरी में किस तरह 
अपना गणित करता रहा
औ' मर गया..
वह सघन झाड़ी के कँटीले
तम-विवर में
            मरे पक्षी-सा
            बिदा ही हो गया
वह ज्योति अनजानी सदा को सो गयी 
यह क्यों हुआ !
क्यों यह हुआ ! !
मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य
होना चाहता
जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य, 
उसकी वेदना का स्रोत
              संगत, पूर्ण निष्कर्षों तलक
                       पहुँचा सकूँ।'

यहाँ 'ब्रह्मराक्षस' नाम का यह पात्र ज्ञान के लिए उन्मुख भारतीय परंपरा का ही रूपक है जो आंतरिक स्तर पर सामंती और बाहरी स्तर पर औपनिवेशिक, दो कठिन पाटों के बीच पिस कर ख़त्म हो जाता है।

ऐजाज़ अहमद ने जिन रचनाकारों का नाम अपने मत के समर्थन में लिया है, उनमें अब्दुल्लाह हुसैन भी हैं। क्लासिक का दर्जा रखने वाले उनके उपन्यास' 'उदास नस्लें' को वर्षों तक मैं विश्वविद्यालय की कक्षाओं में पढ़ाता रहा हूँ और ये दावे के साथ कह सकता हूँ कि राष्ट्रीय रूपक के बतौर पढ़े बग़ैर इस उपन्यास में आने वाले घटनाक्रमों— 1857 के विद्रोह में एक सरकारी कर्मचारी रोशन अली ख़ाँ के हाथों कर्नल जानसन की जान बचने, फिर इस सेवा के बदले ब्रिटिश सरकार से मिली ज़मीन पर 'रोशनपुर' के बसने, उस नए बसे गाँव में रोशन अली ख़ाँ का अपने मुग़ल दोस्त मिर्ज़ा मुहम्मद बेग को रहने के लिए आमंत्रित करने, मुहम्मद बेग का अच्छी खासी जमींदारी के बावजूद लोहे की शिल्पकारी शौक़िया करने, उनकी मौत के बाद उनके बेटे नियाज़ बेग को इसी शिल्पकारी के कारण राजद्रोह के आरोप में जेल जाने, और उसके बेटे नईम का अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आज़ादी की जंग में शामिल होने जैसे प्रसंगों की कोई सार्थक व्याख्या नहीं हो सकती। यह आम तौर पर समूची 19वीं सदी में और ख़ास तौर पर '57 के विद्रोह के दमन के बाद अंग्रेज़ों के हाथों अपने वफ़ादार लोगों के माध्यम से पुनर्गठित हिंदुस्तान की कथा है। 

रोशनपुर इसी नए हिंदुस्तान का रूपक है। इसकी अपनी प्रभुत्वशाली परंपरा अंग्रेज़ों के एहसानमन्द और उनकी दी हुई जागीरों और वजीफ़ों पर पलने वालों की है तो दूसरी वास्तविक भारतीयता की परंपरा भी है जो इससे बेनियाज़ होकर अपनी मेहनत से सच्चे हिंदुस्तानी की तरह जीने वाले लोगों के जीवन में दिखती है। इसकी नुमाइंदगी मुग़ल परिवार करता है। शिल्पकारी का शौक़ एक ऐसा सूत्र है जो उन्हें भारतीयता से जोड़ता है। हमारे देश में शास्त्रज्ञान का उतना ही महत्व रहा है, जितना कि कला कौशल का। अपने काम मे दक्ष कोई किसान, कोई शिल्पकार, कोई जुलाहा, कोई राजमिस्त्री, या कोई कातिब किसी विद्वान से कम नहीं समझा जाता था। किसानों, श्रमिकों, और शिल्पकारों ने मध्यकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी की भूमिका निभाई थी। कबीर आदि निर्गुण संत कवियों की वाणी में उन्हीं की भावना व्यक्त होती है। जातीय श्रेष्ठता की सामाजिक प्रणाली से इसका सहज विरोध का संबंध था, भले ही इसने निर्णायक संघर्ष का रूप न पकड़ा हो। शिल्प और कला का असाधारण विकास शिल्पकारों के सम्मान के बग़ैर नहीं हो सकता। औपचारिक शिक्षा को एकमात्र शिक्षा पद्धति का दर्जा देने में अंग्रेजों ने परंपरागत प्रणाली को नष्ट करने के बाद ही कामयाबी पाई।  

किस्सा कोताह यह कि अंग्रेज़ों की बनाई हुई व्यवस्था में केवल औपचारिक शिक्षा को मान्यता मिली, और बाकी सबको अशिक्षित और अज्ञानी मान लिया गया। रोशनपुर का यह मुगल परिवार शिल्पकारी में दक्ष है। आगे चलकर मुहम्मद बेग का बेटा नियाज़ बेग लोहे की खूबसूरत बंदूकें बनाने लगता है, जिसे पुलिस की चेतावनी के बावजूद नहीं छोड़ता और राजद्रोह के आरोप में तेरह साल की सज़ा काटता है। ध्यान रहे कि हिंदुस्तान के लोगों के हथियार रखने के हक़ को ब्रिटिश सरकार ने ही छीना था। आज जिस लाइसेंस प्रणाली को हम स्वाभाविक समझते हैं, वह ग़ुलाम देशों की ही ख़ासियत है जो अब तक चली आई है। बहरहाल, आगे चलकर ये दोनों परंपराएँ परस्पर घुलती-मिलती हैं, आज़ादी के लिए लड़ती हैं, और अपनी राष्ट्रीय नियति में साझेदारी करती हैं।

कहने का आशय यह कि रूपक एक शैली है जिसमें आधुनिक युग के अनुरूप भी रचनाकर्म होता है। उस पर मध्ययुग का ठप्पा लगा देना उचित नहीं है। जेम्सन ने जिस संदर्भ में कहा है कि पूर्वऔद्योगिक समाजों में व्यक्तिगत कथा में सामूहिक कथा शामिल होती है, वह समझ में आने वाली बात है। पूर्वआधुनिक परंपराओं में व्यक्तिगत की चेतना भी नहीं होती और समूह के अंश के रूप में ही व्यक्ति के अस्तित्व की चरितार्थता संभव होती है। यही समाज उपनिवेशवाद से लड़ाई के दौरान अपने अंदर एक नई, राष्ट्रीय पहचान विकसित करता है। विकसित औद्योगिक समाज बनने तक उसकी चेतना में नई व पुरानी दोनों प्रकार की सामूहिकताएँ सक्रिय रहती हैं। लेकिन उपनिवेशवाद-विरोधी और साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना उसे लगातार आधुनिक दिशा में उन्मुख करती है। इसी पृष्ठभूमि में जेम्सन तीसरी दुनिया की रचनाओं को राष्ट्रीय रूपक के बतौर 'पढ़ने' की वक़ालत करते हैं। ध्यान दें, कि वे ऐसा 'लिखने' का आग्रह नहीं कर रहे हैं। सिर्फ़ पढ़ने के आग्रह में यह निहित है कि पुरानी सामूहिकताओं के नज़रिए से लिखी हुई रचनाओं में भी नई सामूहिकता यानी राष्ट्र के आग्रह स्वाभाविक रूप से शामिल होंगे। अब क्योंकि यह नई चीज है और सबसे मूल्यवान भी, इसलिए हमें चाहिए कि पढ़ते समय इसके प्रति विशेष रूप से सचेत हों, अन्यथा हम इसकी पहचान करने से चूक सकते हैं।

इस बहस का केंद्रीय मुद्दा यह है कि जो देश उपनिवेशवाद से मुक्त हुए हैं उन्हें समाजवाद में संक्रमण का संभावित उम्मीदवार माना जाए या साम्राज्यवाद से जूझते राष्ट्रवाद के रूप में देखा जाए। ऐजाज़ अहमद के विश्लेषण से ऐसा लगता है कि एक बार औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त होने के बाद उन्हें कथित तौर पर पूंजीवादी पहली या समाजवादी दूसरी दुनिया के अंग के रूप में अपनी भूमिका तय कर लेनी चाहिए, वरना वे तीसरी दुनिया की त्रिशंकु नियति को ही प्राप्त होंगे। इस मान्यता के पीछे जो सबसे बड़ी वजह दिखती है वह यह कि राष्ट्रवाद को वे व्यवहारतः राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के नेतृत्व में चलने वाला विचार ही मानते हैं, सैद्धांतिक गुंजाइशें चाहे जो हो। यानी, तीसरी दुनिया में राष्ट्रवाद के होने का एकमात्र अर्थ है कि वहां सर्वहारा वर्ग पूंजीपति का अनुगामी है, और समाजवाद के लिए संघर्ष नहीं हो पा रहा है। 

ग़ौरतलब है कि यह सारा विश्लेषण उन्होंने तब किया जब चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में जनता के लोकतांत्रिक गणतंत्र की स्थापना हो चुकी थी, 'पूंजीवादी पथिकों' (कैपिटलिस्ट रोडर्स) के विरुद्ध दस साल तक 'सांस्कृतिक क्रांति' चलाने के बाद उसे वापस ले लिया गया था, और माओ ने कहा था कि यह पूंजीवाद और समाजवाद के बीच संघर्ष की संक्रमणकालीन स्थिति है। यह संघर्ष लंबा चलेगा और अंत में कौन जीतेगा यह अभी से नहीं कहा जा सकता। रूस समेत जिन देशों में समाजवाद आया उनमें से कोई विकसित पूंजीवादी देश (जैसी कि मार्क्स ने कल्पना की थी) नहीं था। पिछड़ी हुई उत्पादन पद्धतियों वाले समाज में क्रांतियाँ संपन्न हुईं। रूस में 1917 की अक्टूबर क्रांति के सिर्फ़ एक साल के अंदर लेनिन 'नई आर्थिक नीति' लेकर आए जिसमें पूंजीवादी उत्पादन संबंधों को एक स्तर पर पुनर्स्थापित किया गया ताकि उत्पादक शक्तियों के विकास में मदद मिल सके। उस दौर के समाजवाद को इसीलिए 'राजकीय पूंजीवाद' और 'पूंजीपति के बगैर पूंजीवाद' कहां गया। मार्क्स के दिए नारे--- 'सबसे उसकी योग्यता के अनुसार और सबको उसकी आवश्यकता के अनुसार'--- से अलग लेनिन के समाजवाद की पहचान बन चुका नारा--- 'सबसे उसकी योग्यता के अनुसार और सबको उसके काम के अनुसार'--- पूंजीवादी लूट और शोषण के विरुद्ध अवश्य है, लेकिन बेशी मूल्य के आधार पर पूंजी के संचय के विरुद्ध नहीं है। ख़ुद ऐजाज़ अहमद के विश्लेषण में एक जगह यह सचाई झलक जाती है, जब वे लेनिन की छोटे बुर्जुआ वर्ग के लिए जगह बनाने वाली 'नई आर्थिक नीति' को पलटने और 'नियंत्रित अर्थव्यवस्था' की नीति अपनाने के स्तालिन के रवैये को 'विकृति' कहते हैं:

'बदले में इसका नतीजा यह हुआ कि स्तालिनीय नौकरशाहीवाद की सबसे बुरी संभावनाएँ सामने आईं, जिन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर न केवल विरोध को दबा दिया बल्कि अर्थव्यवस्था में व्यापक विकृतियों को जन्म दिया, जिसमें भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद में पतन भी शामिल था। असहनीय बाहरी दबाव और नियंत्रित अर्थव्यवस्था--- जिसे स्तालिन शासन ने नई आर्थिक नीति को हटाकर लागू किया और बाद में पूर्वमध्य यूरोप के कोमेकान (परस्पर आर्थिक सहयोगी, पूर्वसमाजवादी) देशों तक पर थोप दिया था और जो समाजवादी निर्माण का मॉडल बन गया था--- के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं थी। कहना मुश्किल है कि बाहरी दबाव ने आंतरिक विकृतियों को किस हद तक निर्धारित किया।' (वही, पृ. 22-3)

दूसरी बात यह कि जेम्सन के सूत्रीकरण में यह निहित है कि तीसरी दुनिया का सीधा संघर्ष साम्राज्यवाद से है। लेकिन इस समीकरण को बायनरी विपरीत का मामला बताकर ऐजाज़ अहमद खारिज कर देते हैं क्योंकि तीसरी दुनिया को साम्राज्यवाद या राष्ट्रवाद में से एक विकल्प चुनना पड़ता है। वे मानते हैं कि समाजवाद का सीधा संघर्ष साम्राज्यवाद से है और तीसरी दुनिया भी उस संघर्ष में शामिल है, यानी मूल लड़ाई समाजवाद बनाम पूंजीवाद है। उन्हें एतराज है कि इस सिद्धांत में समाजवाद को साम्राज्यवाद के विकल्प के रूप में क्यों नहीं रखा गया है। ध्यान दें कि साम्राज्यवाद से सीधे टकराव में अगर कामयाबी नहीं मिलेगी तो तीसरी दुनिया के देशों को उसका अंग बनना ही पड़ेगा। इसे अलग से कहने की भी जरूरत नहीं है। लेकिन अगर संघर्ष में कामयाबी मिलेगी तो जाहिर है कि देश के अंदर की समाजवादी प्रवृत्तियां मजबूत होंगी। ऐसी स्थिति में त्रिशंकु बनने की आशंका उचित नहीं है।

ऐसा लगता है कि ऐजाज़ अहमद यह कल्पना ही नहीं करते कि मजदूर वर्ग कभी राष्ट्रवाद का चैंपियन बन सकता है। यह भूमिका वे राष्ट्रीय पूंजीपति के लिए सुरक्षित रखते हैं, जबकि साम्राज्यवाद के युग में यह संभव ही नहीं है कि वह राष्ट्रीय हितों के लिए समझौताहीन संघर्ष कर सके। हर जगह उसे जनता के अधिकारों में कटौती करनी पड़ेगी, राष्ट्रवाद की जगह अंधराष्ट्रवाद लागू करना पड़ेगा, और साम्राज्यवाद को अधिक से अधिक छूट देते हुए अपनी जनता की मुश्कें कसने का काम करना होगा। इसी परिस्थिति से जूझते हुए किसी देश के अंदर की समाजवादी शक्तियां मजबूत होती हैं और राष्ट्रवाद तथा जनतंत्र के लिए संघर्ष की अगुवाई करती हैं। पिछड़े हुए विकासशील देशों के समाजवादी दिशा अपनाने का यही वास्तविक तरीका है, ऐजाज़ अहमद जिसकी अनदेखी करते हैं। 

एक और बात जिसके लिए उन्होंने जेम्सन को आड़े हाथों लिया है कि वे राष्ट्रों को उत्पादन प्रणाली के आधार पर नहीं, अंतरराष्ट्रीय प्रभुत्व के संबंधों के 'अनुभव' के आधार पर वर्गीकृत कर रहे हैं। यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी नवस्वतंत्र देश के इतिहास में उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के 'अनुभव' का अर्थ कोई संवेदनात्मक अनुभूति नहीं है। इसका सीधा संबंध उत्पादन प्रणाली, उत्पादन संबंध, स्वामित्व और वितरण के तरीकों से होता है। उपनिवेशवाद का अनुभव भारत जैसे देश में पुरानी उत्पादन प्रणाली के विनाश, संरक्षणवादी नीतियों के माध्यम से देश को कच्चे माल की मंडी में बदलना, भूमि संबंधों में बदलाव, देश के नियम कानून में बदलाव, शिक्षा, प्रशासन और राजनैतिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन आदि के रूप में दिखाई पड़ता है। यानी, किसी पिछड़े हुए उत्पादन संबंध वाले नवस्वतंत्र देश के लिए उपनिवेशवाद का 'अनुभव' 'अंतरराष्ट्रीय प्रभुत्व संबंध' का अध्ययन नहीं है। यह उत्पादन संबंधों का ही अध्ययन है।
कृष्ण मोहन

साभार      

कीर्तिगान उपन्यास हमारे समाज में जारी साम्प्रदायिक उन्माद और फ़ासिस्ट राजनीति को साहित्य की ओर से दिया हुआ जवाब है :कृष्ण मोहन

'कीर्तिगान' चंदन पांडेय का दूसरा उपन्यास है। इससे पहले 'वैधानिक गल्प' में उन्होंने एक ऐसे युवा मुस्लिम अध्यापक रफ़ीक की कहानी बयान की थी, जो लोकचेतना को जगाने वाले नाटकों को अपने विद्यार्थियों के साथ तैयार करके उनका प्रदर्शन करता है। इस प्रक्रिया में वह स्थानीय शक्तिशाली सामाजिक समूहों और निहित स्वार्थों को खटकने लगता है, जो बदलते हुए समय के साथ कथित धर्मनिरपेक्ष राजनीति को तिलांजलि देकर साम्प्रदायिक राजनीति के उभार के दौर में बढ़ चढ़ कर उसकी अगुवाई करने में लगे हुए हैं। एक निर्णायक प्रदर्शन से पहले रफ़ीक और उसकी टीम की सदस्य एक छात्रा अचानक गायब हो जाते हैं। उस छात्रा से जोड़कर उसके ग़ायब होने की अनेक व्याख्याएँ समाज मे फैला दी जाती हैं, जिनपर विश्वास करने को हमारा समाज मानो तैयार बैठा रहता है। उसकी पत्नी का मित्र, एक लेखक जब उसकी खोज में उतरता है तो उसके सामने रफ़ीक के सहयोगी अध्यापकों से लेकर पुलिस, दंगाई समूहों, राजनेताओं और सोशल मीडिया तक के गठजोड़ का दृश्य धीरे धीरे उभरता है।

यह उपन्यास हिंदी जगत में एक परिघटना की तरह आया और अत्यंत चर्चित और प्रशंसित हुआ। इसके पीछे वजह यही थी कि हमारे समाज के मौजूदा दौर में ज़मीनी स्तर पर चलने वाली साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया और उसको संचालित करने वाले निहित स्वार्थों की कार्यप्रणाली को कथा-साहित्य में पहली बार विश्वसनीय और कलात्मक ढंग से चित्रित किया जा सका था। साहित्य के पाठकों ने अपने ज्ञान से अधिक अपनी संवेदना से इस चुनौतीपूर्ण कथा की रचना में आने वाले कलात्मक जोख़िम को महसूस किया था।

बहरहाल, लेखक का अगला उपन्यास 'कीर्तिगान' इस मामले में एक बहुत बड़ी लकीर खींचता हुआ दिखाई पड़ता है। 'वैधानिक गल्प' में मॉब लिंचिंग की भूमिका-सी बनती है और एकाध इसके प्रयास भी होते हैं, लेकिन उसकी कथा प्रायः समाज की ऊपरी सतह पर जारी सॉफिस्टिकेशन के पाखंड को अनावृत करती है। इस अगले उपन्यास में हमारे समाज का यह लोमहर्षक यथार्थ  अपने सर्वग्रासी अंदाज़ में प्रकट होता है। अपनी आँखों के सामने सतत जारी इस हत्यारे सिलसिले को कला-रचना में ढालने का फ़ैसला करना एक अकल्पनीय चुनौती को आमंत्रित करने जैसा था। हिंदी-उर्दू के कथा-साहित्य में एक मंटो को छोड़कर दूसरा कोई नाम याद नहीं आता जिसने समाज में जारी ऐसे पाखंड और पागलपन की विकराल विभीषिका को, उसकी मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और ऐतिहासिक गहराई में जाकर, कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करने की चुनौती स्वीकार की हो। लेखक ने न केवल इसे स्वीकार किया है बल्कि बहुत बड़ी हद तक इसे सफलतापूर्वक निभाया है। इसका अर्थ है कि इस भीषण यथार्थ के सतही आयामों तक सीमित होकर नहीं, बल्कि इसके गहन आंतरिक आयामों का स्पर्श करते हुए कथा को बुद्धि-संवेदना-गम्य बनाया है। मेरी नज़र में यह एक हैरतअंगेज़ कारनामा है जो हमारे कथा-साहित्य में संभव हुआ है। उपन्यास अभी आया ही है, इसलिए इसकी विषयवस्तु के बारे में और कुछ कहना अभी उचित नहीं है। मैं यही कह सकता हूँ कि यह उपन्यास हमारे समाज में जारी साम्प्रदायिक उन्माद और फ़ासिस्ट राजनीति को साहित्य की ओर से दिया हुआ जवाब है। यह हमारी इस समझ को बल देता है कि रात जितनी ही अँधेरी और काली होती है, उसके सुबह में बदलने की संभावना उतनी ही निकट होती है।

अपूर्वानन्द की किताब 'सुंदर का स्वप्न' : कृष्ण मोहन

#सुंदर_का_सत्य

अपूर्वानन्द की किताब 'सुंदर का स्वप्न'

सचाई जब कड़वी हो जाती है, तो शासकवर्गीय विचारक सौंदर्य के पैमानों पर बहस छेड़ते हैं, और सत्य को व्यक्त करने के आग्रह पर कुढ़ने लगते हैं। जब उस सचाई को कला में ढालकर पेश किया जाता है तो वे उससे नाक़ाबिले बर्दाश्त होने की मांग करते हैं, और ऐसा न होने को कला की असफलता कहते हैं। असल में ऐसे विचारक रंगे सियार की तरह होते हैं, जो सत्ता के विरोधी होने का स्वांग भरते हैं, लेकिन जब भी मुँह खोलते हैं तो अपनी असलियत उजागर कर देते हैं। समय-समय पर इनकी चर्चा करनी पड़ती है, ताकि लेखकों की इस प्रजाति को पहचानना हम भूल न जाएं।

आधुनिक युग में सौन्दर्यशास्त्र के अस्तित्व में आने की एक दिलचस्प वजह बताते हुए अपूर्वानन्द अपनी किताब 'सुन्दर का स्वप्न' (वाणी प्रकाशन) के आरम्भिक पृष्ठों पर कहते हैं– "हम देखते हैं कि प्रायः हर समय शासक वर्गों के प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रोत्साहन पर सर्वसम्मति का एक स्तर खोजने की कोशिश चलती रहती है।... सौन्दर्यानुभूति के इस स्तर से गुजरकर ही किसी भी राजनीतिक या सामाजिक व्यवस्था का तर्क मान्यता प्राप्त करने में सफल होता है।... अर्थशास्त्र और नीतिशास्त्र की दुनिया अमूर्त तर्कों से अलग अनुभूति का एक सम्पूर्ण लोक है, जिसे समझना किसी सामाजिक व्यवस्था की आवश्यकता है। अठारहवीं सदी के यूरोपीय दार्शनिक अनुभूति के उस लोक का अपना तर्कशास्त्र गढ़ने की जरूरत महसूस करने लगे जो मानवीय चिन्तन द्वारा निर्मित नीतिशास्त्र, राजनीतिशास्त्र या तर्कशास्त्र से अलग अस्तित्व रखता हो। इसी प्रयास में सौन्दर्यशास्त्र का जन्म हुआ।" (पृ. 18-19)

लेकिन विकास के क्रम में सिक्के का दूसरा पहलू भी सामने आता है-- "सौन्दर्यशास्त्र ने अठारहवीं सदी में जहाँ एक नई सामाजिक-आर्थिक शक्ति के औचित्य के लिए आधार प्रस्तुत किया, वहीं आगे चलकर उसकी क्रूरता से विद्रोह किया, उसके असली चेहरे को बेनकाब किया और यह बताया कि एक ऐसा क्षेत्र बचा हुआ है जहाँ मनुष्य अपनी रचनात्मकता की शक्ति के साथ उस व्यवस्था का मुकाबला कर सकता है।" (पृ. 29)

बुनियादी तौर पर सौन्दर्य के शास्त्र के निर्माण या विवेचन का कोई भी प्रयास इन्हीं दोनों दिशाओं में से किसी एक के निकट होगा। इस किताब के उपशीर्षक में इसे मार्क्सवादी सौन्दर्य-दृष्टि से सम्बन्धित माना गया है, इसलिए इस परिप्रेक्ष्य में भी इसकी जाँच-परख अनिवार्य है। कुल मिलाकर सौन्दर्य को परिभाषित करने के इस आग्रह की राजनीति क्या है और यह स्वयं सौन्दर्य की कसौटी पर कितना खरा उतरा है, यही इस लेख का विषय है।

मार्क्सवादी सौन्दर्य-चेतना का पुनरुद्धार करने के क्रम में लेखक के हाथ एक अत्यन्त मौलिक सूत्र लगा है जिसे वह इन शब्दों में प्रस्तुत करता है- "मार्क्स और एंगेल्स की रचनाओं को आत्मीयता से पढ़नेवाला व्यकि यह देखे बिना नहीं रह सकता कि उनके आदर्श मानवीय जीवन का लक्ष्य जितना सत्य की प्राप्ति नहीं, सुख, आनन्द या लोगों की भलाई है।" (पृ. 37) मार्क्स को इस किताब में किसी सौन्दर्यशास्त्री जैसे उच्चतर आसन पर प्रतिष्ठित किया गया है क्योंकि उनका पूरा प्रयास मानवीय श्रम को पूंजीवादी उपयोगितावाद की अनिवार्यता से मुक्त कराकर उसे सुख और आनन्द की ऐच्छिकता के हवाले करता है और इस प्रकार पूंजीवादी उत्पादन पद्धति में अजनबियत का शिकार होकर गुम हो गए मानव-व्यक्तित्व को उसे वापस करता है। पूर्णता और सौन्दर्य का यह लक्ष्य निश्चय ही मार्क्स के बुनियादी लक्ष्यों में से एक है, लेकिन अपूर्वानन्द के विश्लेषण में मार्क्स को यह श्रेय महंगे दामों मिलता है। उसके लिए उन्हें सबसे पहले सत्य की भारी कीमत चुकानी पड़ती है। उपयुक्त उद्धरण में सुख या आनन्द, जिसे किताब में प्रायः सौन्दर्य के पर्याय के रूप में व्यवहृत किया गया है और लोगों की भलाई यानी लोककल्याण एक तरफ है और सत्य दूसरी तरफ। यह खेमेबन्दी रणनीतिक है जिसका रहस्य आगे चलकर खुलता है।

भारतीय परम्परा में सत्य और शिव को सुन्दर से अभिन्न माना गया है, लेकिन यहाँ अगर वे अलग-अलग दिखते हैं तो यह अकारण नहीं है। 'सच्चे' सौन्दर्य की स्थापना सत्य के मानमर्दन के बगैर नहीं हो सकती। साहित्य और कला के क्षेत्र में, जिसे सौन्दर्यशास्त्र का विशिष्ट क्षेत्र माना गया है, सत्य को अंतर्वस्तु तथा सौन्दर्य को रूप के द्वारा पहचाना जाता है। अन्तर्वस्तु की अवहेलना करके रूप के महत्व पर आत्यंतिक जोर देनेवाले विचार, रूपवाद का समर्थन करने के लिए बहुत खोजबीन कर मार्क्स की निम्नलिखित गवाही जुटाई गई है। रूपवाद को मार्क्सवाद का शत्रु घोषित करने और तमाम तथाकथित गैरयथार्थवादियों की आलोचना करनेवाले अगर मार्क्स के इस उद्धरण को देखें तो उन्हें अपनी गलती का अहसास शायद हो सके-- "सत्य में सबका साझा होता है- यह मेरी मिल्कियत नहीं है। इस पर हर किसी का हक है। मुझ पर वह नियन्त्रण रखता है। मैं उसे नियन्त्रित नहीं करता, मेरी सम्पत्ति बस रूप ही है-- यानी मेरी मानसिक और बौद्धिक विशिष्टता।" (वही, पृ. 47 )

मार्क्स के इस कथन से रूपवाद को तो शायद ही कोई राहत मिल सके, हाँ सत्य के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का पता अवश्य चल जाता है। अपने इतने उत्साही समर्थकों के प्रयासों पर मार्क्स की ऐसी ठंडी प्रतिक्रिया देखकर उनके एक समकालीन मिर्ज़ा ग़ालिब होते तो कहते:

'शौक हर रंग रक़ीबे सरो सामां निकला 
क़ैस तस्वीर के पर्दे में भी उरियाँ निकला'

मज़े की बात यह है कि लेखक अपनी उपलब्धि का श्रेय ख़ुद लेने में संकोच करता है और अत्यंत उदारतापूर्वक उसे पूँजीवाद को प्रदान कर देता है– "पूँजीवादी समाज में सत्य और सुन्दर अलग-अलग हैं, वे अलग-अलग मूल्य हैं। पूँजीवादी व्यवस्था में जो सत्य है, वह सुन्दर नहीं क्योंकि मानवीयता से रहित हुए बिना सच का सामना
नहीं किया जा सकता।" (पृ. 55) जाहिर है कि यह विलक्षण पूंजीवाद 'मानवीयता' को 'सत्य' से अलगाकर 'सुन्दर' के साथ जोड़ देता है जिससे दोनों के बीच मूल्यगत अलगाव पैदा हो जाता है। पूँजीवाद यह कैसे करता है, इसका मर्मस्पर्शी वर्णन देखें-- "इसी लिहाज से यह मान लिया जाता है कि सत्य का अनुधावन तो विज्ञान का काम है, लेकिन सौन्दर्य कला का लक्ष्य होता है। सत्य और सुन्दर के बीच जो सख्त अलगाव माना जाता है, उसकी वजह यह है कि सौन्दर्य-भावना का मानवीय आकांक्षाओं की पूर्ति से सम्बन्ध है जबकि इस समाज में जो वस्तुनिष्ठ सत्य है, वह अनेक बार इस मानवीय अभिलाषा के विपरीत, उसे कुचलते हुए अपनी सत्ता स्थापित करता है। इसीलिए पूँजीवाद की खासियत है कि यथार्थलोक में जो अभिलाषाएँ पूरी नहीं हो सकतीं, उनकी पूर्ति के लिए वह एक कल्पना लोक का निर्माण करता है और जनसामान्य को उसमें सन्तुष्टि हासिल करने को प्रेरित करता है। इस प्रकार सौन्दर्य - भावना की प्रबलता की जाँच मनुष्य को अधिक से अधिक यथार्थ-विस्मृत करने या अचेत बनाने की उसकी क्षमता से की जाती है।" (वही)

इस उद्धरण से किसी को भी यह भ्रम हो सकता है कि लेखक पूँजीवाद की इन कारस्तानियों असन्तुष्ट है, लेकिन वह तो इनकी पुष्टि के लिए मार्क्सवादी तर्कों की तलाश में है। पहले जैसे उसने मार्क्स को उद्धृत किया था, उसी तरह अब क्रिस्टोफर कॉडवेल को उद्धृत करते हुए 'सुन्दर' को समाज से काटने की जुगत भिड़ाता है। कॉडवेल कहते हैं कि "सौन्दर्य में बदलाव का कारण समाज है, उसी की वजह से नए सौन्दर्य का भी जन्म होता है। सौन्दर्य जिस वस्तुनिष्ठ परिवेश में अवस्थित होता है वह प्राकृतिक से ज्यादा सामाजिक है। यानी सौन्दर्य का निर्धारण दूसरे असौन्दर्यात्मक गुणों के द्वारा होता है और वे ही इसके अस्तित्व में आने और फिर विलीन हो जाने, इसके अन्दर तब्दीली का और इसके विकास का कारण बता सकते हैं... ये समाज वैज्ञानिक शक्तियाँ हैं।... ये समाज वैज्ञानिक गुण सौन्दर्यात्मक नहीं हैं: सौन्दर्यशास्त्र का एक अलग ही क्षेत्र है।" (वही, पृ. 56)

कॉडवेल के इस वक्तव्य से पता चलता है कि सौन्दर्य का आधार समाज है, वही उसमें परिवर्तन और विकास का कारण है, लेकिन उसकी व्याख्या के नियम समाज की व्याख्या के नियमों से अलग होंगे। कला का गतिविज्ञान सामाजिक गतिविज्ञान से अलग है; इससे लेखक यह निष्कर्ष निकालता है कि, "सौन्दर्यशास्त्र को बलपूर्वक समाजशास्त्र से अलग करने के उनके आग्रह को कभी भी नजरअन्दाज नहीं किया जाना चाहिए।" इसी तरह 'कला के तर्कशास्त्र' की व्याख्या करते हुए कॉडवेल तर्कणापरक के बजाय सौन्दर्यात्मक विश्वदृष्टि की आवश्यकता बताते हुए तर्कणापरक को 'वैज्ञानिक' (इनवर्टेड कामा लगाकर किसी विशिष्ट अर्थ में) कहते हैं। अपूर्वानन्द इससे झट निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि 'वैज्ञानिकता को सौन्दर्यात्मकता के बर-अक्स खड़ा करके कॉडवेल कला के अपने तर्कशास्त्र, यानी सौन्दर्यशास्त्र की विशिष्टिता को चिह्नित करते हैं।"

यहाँ कॉडवेल के विचारों की विवेचना का अवकाश नहीं है, लेकिन अपूर्वानन्द मार्क्स से लेकर कॉडवेल तक के वक्तव्यों से 'बलपूर्वक' वे सारे निष्कर्ष निकालते हैं जिसकी ज़िम्मेदारी उन्होंने पूँजीवाद पर डाली थी। इस प्रकार उन्होंने सौन्दर्य को अपने ही शब्दों में 'अधिक से अधिक यथार्थ-विस्मृत या अचेत बनाने की क्षमता' से सम्पन्न कर लिया। उनकी योजना बिल्कुल स्पष्ट है, हालाँकि उसे छिपाने के लिए उन्होंने ढेरों मार्क्सवादी पापड़ बेले हैं।

आन्तरिक संगति, सामंजस्य, लय और एकता सौन्दर्य के सम्भवत: सर्वाधिक पहचाने गए अवयवों में से कुछ एक हैं। लेकिन इस किताब में वर्णित सौन्दर्य हमेशा किसी न किसी का मुकाबला करते, उसे अपदस्थ करते हुए आता है। पहले उसने मनुष्यता को साथ लेकर सत्य को पछाड़ा, फिर भावना को साथ लेकर विचार को अपदस्थ करने की योजना बनाई। सन्दर्भ से कटे हुए उद्धरणों की कमज़ोर नींव पर खड़ा होने के कारण पहले की तरह ही इस उपलब्धि का श्रेय लेने का साहस भी लेखक नहीं कर सका और निहायत सादगी के साथ इसका जिम्मा एक बार फिर उसने पूँजीवाद के सिर मढ़ लिया। रिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत न गई। मुलाहजा फरमाएं– "भारतीय पूँजीवाद का विकास इस स्तर तक हो चुका था, जहाँ जाकर वह मानवीय व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के उन वायदों के खिलाफ काम करता हुआ दिखाई देने लगा था, जो अपने आरम्भिक काल में उसने किए थे। भारतीय मनुष्य के भावलोक और विचारलोक में एक दरार-सी पड़ गई थी और यह अहसास तेज हो गया था कि यह विकास सहज मानवीय भावनाओं को कुचलकर आगे बढ़ रहा है।" (पृ. 92)

यहाँ ग़ौरतलब है कि भावलोक और विचारलोक में दरार डालनेवाला पूँजीवाद सिर्फ़ भावनाओं को कुचलकर आगे बढ़ रहा है। संकेत साफ है, विचारों पर पूँजीवाद के समर्थन का आग्रह। इस प्रकार पूँजीवाद को दोषी ठहराने वाली भंगिमा में दरअसल उसके द्वारा डाली गई फाँक को और गहरा किया जा रहा है और उसी के आधार पर अपनी रणनीति को व्यवस्थित किया जा रहा है। इस बार आचार्य शुक्ल 'आत्मीयता' से भरी व्याख्या के शिकार बनते हैं– 'अपनी भाषा पर विचार' शीर्षक अपने निबन्ध में वे लिखते हैं "भाषा का प्रयोग मन में आई हुई भावनाओं को प्रदर्शित करने के लिए होता है।" इसके बाद आचार्य शुक्ल भावनाओं को विचारों से अलगाते हुए उसे रेखांकित करते हैं। लेखक का निष्कर्ष है– "भाषा को विचारों की जगह भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम मानने पर शुक्लजी का बल एक नई दृष्टि का परिचायक है। जिस तरह पाश्चात्य दर्शन में सौन्दर्यशास्त्र का विकास ऐन्द्रिय संवेदन पर बल देने के कारण हुआ उसी प्रकार शुक्लजी का सम्पूर्ण साहित्य-चिन्तन 'भावनाओं' को केन्द्र में रखकर होता है।" (पृ. 92)

इस मासूम से दिखनेवाले निष्कर्ष में एक तीर से दो शिकार किए गए हैं। एक तरफ विचारों को शुक्लजी के चिन्तन में हाशिए पर धकेला गया है, तो दूसरी तरफ ऐन्द्रिय संवेदन को पश्चिम की राह दिखाई गई है। फिर भी एक सवाल उठता है कि अगर भावना विचारों से इतनी अलग है और भाषा में उसी की अभिव्यक्ति होती है तो स्वयं शुक्लजी भाषा में किस चीज को व्यक्त कर रहे थे और क्या यह उचित न होगा कि उन्हें विचारक की भ्रामक श्रेणी से हटाकर भावक (या भावुक!) की समुचित कोटि में स्थापित कर दिया जाए। इसका उत्तर पाने के लिए आइए एक बार शुक्लजी के उस स्पष्टीकरण को भी देखें जिससे लेखक ने उक्त निष्कर्ष निकाला है– "स्मरण रखिए यह बात मैंने भावनाओं (Impressions) के विषय में कही है, विचारों (General notion) के विषय में नहीं।" (वही)

ऐसा लगता है कि शुक्लजी को अपने विचारों के अन्यथाकरण की कुछ आशंका थी, इसीलिए उन्होंने अपने शब्दों के साथ अंग्रेजी पर्यायों को भी देना ज़रूरी समझा। अंग्रेजी के 'इम्प्रेशन' का सबसे प्रचलित अर्थ 'प्रभाव' है जो वैचारिक भी हो सकता है। यहाँ तक कि उसका एक अर्थ स्वयं 'विचार' या 'नोशन' भी है। शुक्लजी के दिमाग में ये सारे अर्थ थे, इसीलिए उन्होंने 'नोशन' के साथ 'जनरल' लगाया, यानी सामान्य, आमफ़हम विचार। इससे अलग 'इम्प्रेशन' या 'भावना' को वह अभिव्यक्तिकर्ता की विशिष्ट मनोभूमि से जोड़ना चाहते थे। भाषा में अभिव्यक्ति की विशिष्टता से सम्बन्धित उनके इस कथन को मार्क्स के उस पूर्वोक्त वक्तव्य से जोड़कर देखा जा सकता है जिसे लेखक ने रूपवाद का समर्थन करने के लिए उद्धृत किया था। आचार्य शुक्ल ने ही कहीं कहा है कि सत्य सबका एक होता है और झूठ सबके अलग-अलग होते हैं। प्रत्यक्षं किं प्रमाणम्।

आचार्य शुक्ल के विचार इस विषय में पर्याप्त स्पष्ट हैं। स्वयं लेखक ने उनके जो उद्धरण दिए हैं, उनसे भी यह बात साफ हो जाती है। 'भाव या मनोविकार' शीर्षक लेख का एक उद्धरण देखें– "नाना विषयों के बोध का विधान होने पर ही उनसे सम्बन्ध रखनेवाली इच्छा की अनेकरूपता के अनुसार अनुभूति के भिन्न-भिन्न योग संघटित होते हैं जो भाव या मनोविकार कहलाते हैं।" ज़ाहिर है कि बोध की बुनियाद पर ही इच्छा और अनुभूति के रास्ते भावों का गठन होता है। यह बोध गहरे पानी पैठकर किए जानेवाले मन्थन से आता है। विचार तो उन लहरों की तरह हैं जो इस मन्थन से पैदा होते हैं। कुछ लोगों को साहित्य में इन्हीं विचारों से तकलीफ़ होती है। दरअसल यह तकलीफ़ बोध और चेतना से है। वे साहित्य को विचारों से 'इन्सुलेट' करके 'शुद्ध' बनाना चाहते हैं ताकि वह 'मनुष्य को अधिक से अधिक यथार्थ-विस्मृत या अचेत' कर सके।

आचार्य शुक्ल न केवल बुद्धि और हृदय की भूमिकाओं की विशिष्टता को समझते और उसकी रक्षा करते हैं, बल्कि सभ्यता के विकास के साथ साहित्य - व्यापार में बुद्धि की भूमिका को बढ़ाने के आग्रही हैं। 'कविता क्या है' शीर्षक निबन्ध से उद्धृत यह वक्तव्य देखें--"ज्यों-ज्यों सभ्यता बढ़ती जाएगी.. मनुष्य के हृदय की वृत्तियों से सीधा सम्बन्ध रखनेवाले रूपों और व्यापारों को प्रत्यक्ष करने के लिए उसे बहुत से परदों को हटाना पड़ेगा। ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नए-नए आवरण चढ़ते जाएँगे त्यों-त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जाएगी, दूसरी ओर कवि-कर्म कठिन होता जाएगा।... आरम्भ में मनुष्य जाति की चेतना सत्ता इंद्रियज ज्ञान की समष्टि के रूप में ही अधिकतर रही। अब मनुष्य का ज्ञान-क्षेत्र बुद्धि व्यवसायात्मक या विचारात्मक होकर विस्तृत हो गया है। अत: उसके विस्तार के साथ हमें अपने हृदय का विस्तार भी बढ़ाना होगा।" (वही, पृ. 100 )

कहना न होगा कि इन स्थितियों में विचारों के अवमूल्यन की कोई भी प्रवृत्ति 'भावना' के नाम पर मूलवृत्तियों और संवेगों की तरफ़ ही जाएगी और इस उलटी यात्रा से न तो साहित्य का कोई भला होगा, न सौन्दर्य का।

शुक्लजी के विचारों की मनचाही व्याख्या कर चुकने के बाद लेखक एक बार फिर मार्क्सवाद के समर्थन में ज़मीन-आसमान के कुलाबे मिलाता है और हिन्दी के मार्क्सवादी लेखकों का कुछ इस उत्साह से समर्थन करता है कि मन आशंकित हो उठता है। ख़ासतौर पर मुक्तिबोध को जब वह मार्क्सवादी सौन्दर्य-मूल्यों के लिए संघर्षरत योद्धा के रूप में चित्रित करता है और उनके सुपरिचित विचारों का परिचय अनपेक्षित विस्तार से देने लगता है तब यह आभास हो जाता है कि इसी विवरण के बीच कहीं कोई गाँठ ऐसी लगी होगी जिससे आगे चलकर मुक्तिबोध की 'मुक्ति' का ऐलान भी सम्भव हो सकेगा। उस गाँठ की तलाश भूसे के ढेर में सुई ढूँढ़ने जैसी थी। समूचे लेख से गुज़रने के बाद पता चला कि लेखक ने हाथ-पाँव तो बहुत मारा, मुक्तिबोध के विचारों में कोई ऐसा बिन्दु नहीं मिला जहाँ सूराख हो पाता। इसी खीज का नतीजा अन्त में जाकर इस आरोप में निकला-- "लेकिन यह भी सही है कि एकाधिक स्थल पर, अपनी व्यावहारिक समीक्षाओं और आलोचनाओं में मुक्तिबोध स्वयं एक विशेष प्रकार की सौन्दर्याभिरुचि के दायरे में घुसते नजर आते हैं। और प्रायः वे रचनाओं के विचार पक्ष या नैतिक अन्तर्वस्तु पर ही अधिक ध्यान केन्द्रित करते हैं" (वही, पृ. 158)।

इस आरोप की पुष्टि के लिए लेखक मुक्तिबोध के 'कामायनी : एक पुनर्विचार' के कुछ उद्धरणों का सहारा लेता है– " 'कामायनी' में व्यक्त विचारधारा को स्पष्ट तौर पर अस्वीकार करते हुए वे यह कहते हैं कि 'साहित्यिक सौन्दर्य के बारे में दो मत नहीं हो सकते।' लेकिन वे यह भी कहते हैं कि 'भावना या प्रभावोत्पादकता वह कसौटी नहीं है, जिससे हम जीवन के प्रति कवि-दृष्टि के औचित्य या अनौचित्य की जाँच कर सकें। कभी-कभी होता यह है कि भावना की रसात्मकता वस्तु-तत्त्व के अनौचित्य को ढाँक लेती है।' इन वाक्यों से यह निष्कर्ष निकालना बहुत गलत न होगा कि रचना में व्यक्त विचारधारा और उसकी कलात्मक प्रभावोत्पादकता, मुक्तिबोध के अनुसार, दो एकदम अलग-अलग चीजें हैं। किसी भी कलाकृति में व्यक्त विचारधारा वास्तव में एक सौन्दर्यात्मक समस्या है और उसके प्रभाव से उसका गहरा सम्बन्ध है। फिर यह कहना कहाँ तक उचित है कि कलात्मक सौन्दर्य का विश्लेषण एक अलग काम है और अन्तर्वस्तु का विश्लेषण जो कि विचारों से सम्बन्धित होता है, एक अलग काम है?" (वही)

यहाँ विचार और भावना यानी अन्तर्वस्तु और सौन्दर्य की एकता और अखंडता का नारा लगानेवाले अपूर्वानन्द का मार्क्स, कॉडवेल और आचार्य शुक्ल के सन्दर्भ में इन्हें अलग-अलग करना और एक की क़ीमत पर दूसरे को स्थापित करने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाना हम पहले ही देख चुके हैं। मुक्तिबोध ने जब इनके जैसे 'सच्चे सौन्दर्यशास्त्रियों' के मर्मस्थल पर चोट कर दी तो इन्हें एकता याद आने लगी। कहाँ तो विचार और भावना का अलगाव 'एक नई दृष्टि का परिचायक' नज़र आ रहा था और कहाँ अब दोनों का अलग-अलग विश्लेषण भी भारी गुज़र रहा है। उन्हें यह याद दिलाना तो गुस्ताख़ी ही होगी कि रूप और अन्तर्वस्तु में द्वन्द्वात्मक एकता होती है और कृति के समग्र मूल्यांकन के लिए उसके अवयवों का विश्लेषण करने के बाद ही संश्लेषण की क्रिया सम्पन्न होती है। रचना सुन्दर होकर भी नुकसानदेह हो सकती है। बकौल तुलसी–- 'विष रसभरा कनक घट जैसे'। स्वयं लेखक भी, मुक्तिबोध की ही तरह, सौन्दर्य की अचेतनकारी भूमिका की चर्चा कर चुका है, लेकिन संगति की अपेक्षा करना ही सम्भवतः उसके साथ ज़्यादती है।

कुल मिलाकर यह किताब तमाम देशी और विदेशी लेखकों के उद्धरणों और उनकी उबाऊ व्याख्याओं को बटोरकर हिन्दी में शास्त्र-निर्माण के नाम पर चलनेवाले कुंजी-लेखन का अच्छा नमूना है। इसका जो भी महत्व है वह इसमें सावधानीपूर्वक गूंथे गए मन्तव्यों के कारण है, जिनका थोड़ा परिचय यहाँ दे दिया गया है। इन विचारों का व्यावहारिक प्रयोग शमशेर की कविता पर जिस हल्के ढंग से किया गया है वह अपने आत्मविश्वास के कारण हास्यास्पद है। शमशेर की कविता के बारे में इससे शायद ही कोई अन्तर्दृष्टि मिलती है। हाँ, कवि के ही शब्दों और उनके शब्दकोषीय अर्थों के सहारे उनकी व्याख्या का छद्म ज़रूर रचा गया है, जिसकी परिणति प्रायः गूँगे के गुड़ जैसी अनुभूति में होती है। बहरहाल, सौन्दर्यशास्त्र में रुचि रखनेवाले प्रत्येक लेखक और पाठक को एक बार इस किताब को ज़रूर पढ़ना चाहिए ताकि पता लग सके कि सौन्दर्यशास्त्र पर बात किस तरह नहीं करनी चाहिए। नकारात्मक रूप में ही सही, लेकिन यह भी इस किताब का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है।

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