Saturday 30 August 2014

बेबाक कविताओं की दुनिया: जी हाँ लिख रहा हूँ.. armaan anand



बेबाक कविताओं की दुनिया: जी हाँ लिख रहा हूँ..


सर्जक की प्रसव पीड़ा को उसकी रचना ही सार्थक करती है और सर्जना जड़ता के विध्वंश और प्रजनन के दर्द से उत्पन्न आनंद का नाम है| अपने परिवेश से कवि का सतर्क सम्बन्ध सशक्त एवं कालजयी कविताओं को जन्म देता है|निशान्त अपने संग्रह के शीर्षक "जी हाँ लिख रहा हूँ ..", आवरण चित्र और प्रस्तावना में नागार्जुन की कविता के द्वारा संकेत दे देते हैं कि वे अपनी सर्जना के प्रति कितने सतर्क ,संकल्पित और गौरवान्वित हैं| जी हाँ लिख रहा हूँ.../बहुत कुछ! बहोत -बहोत!! /ढेर -ढेर सा लिख रहा हूँ/मगर, आप उसे पढ़ नहीं पाओगे /देख नहीं सकोगे उसे आप!...जी हाँ लिख रहा हूँ...| बाबा नागार्जुन की इन पांच पंक्तियों को अपनी पांच लम्बी कविताओं का प्रतिनिधि स्वर बनाकर कवि ने अपना रूख बिलकुल साफगोई से सामने रख दिया है| जी हाँ लिख रहा हूँ.. शीर्षक इस ध्वन्यात्मकता के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है ,जैसे वह कालचक्र का इतिहास लिखने जा रहा हो ... ,जैसे उसने भांप ली हो चाल समय के पहिये की |संग्रह की कवितायें एक प्रकार से यात्रा कवितायेँ है, जो कवि के जीवनानुभव को साथ लेकर चलती हैं |व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन एक यात्रा ही तो है|जन्म से मृत्यु की यात्रा ,अज्ञान से ज्ञान की यात्रा ,अबोध से बोध, बोध से शास्त्र, शास्त्र से अनुभव, अनुभव से बौद्धिकता की यात्रा ,कहा भी गया है कि यात्रा ही जीवन है और ठहराव मृत्यु | संग्रह में उतरते ही निशान्त कोलकाता को कविता के कैनवास पर बिखेर देते हैं| चित्र दर्शन के बहाने से पाठक को कालयात्री बना देते हैं |कोलकाता के सीने पर बिछी हुई हैं पटरियां , कहते ही वे कोलकाता की प्राच्य -आधुनिकता ,टून...टून..टून की आवाज के साथ सांस्कृतिक बोध और बैलगाड़ी और उसके चलने की आवाज कहते ही समय के पारिवार्तनिक नैरंतैर्य की यात्रा पर पाठक को अनायास ही रवाना कर देते हैं |कोलकाता कभी हाथ में रिक्शा बन दौड़ पड़ता है, तो कभी पिताजी की सीख में सामंत बनकर खड़ा दिखता है|फिर यह यात्रा पाताललोक में सरक आती है, जहाँ पाताल लोक कोलकाता के साथ-साथ कवि के बचपन में भी बसा है और साथ ही बसा है दादी की कहानियों में |यह पाताल लेखक की अगली पीढ़ी की कहानियों में भी प्रत्यक्ष -अप्रत्यक्ष दोनों बसता है|'कोलकाता एक जादुई नगरी' कहते हुए लेखक उन तमाम कहानियों को जिन्दा कर देता है, जो दूर अनजान देशों में कोलकाता कि प्रतिनिधि थीं | सत्ता के उस तिलिस्म को बेनकाब करता है, जो वामपंथ के नाम पर गद्दी से गलियों तक फैला हुआ है| यही जादू कवि -फिल्मकार बुद्धदेव दास गुप्ता की फिल्मों और कविताओं में प्रकृति बन कर मुस्कुरा रहा है|कोलकाता बस में एक रूपये के लिए लडती औरत से लेकर विक्टोरिया मेमोरियल के गुम्बद तक फैला हुआ है|भोर के सपने-सा उतरता हुआ किराये के कमरों में घर बनकर अधलेटा हुआ कोलकाता कविता की आखिरी पंक्ति तक पाठक के अन्दर टहल रहा है|कुल मिलाकर "कोलकाता :कविता के कैनवास" पर कुछ बिखरे चित्रों में निशांत दर्शन की कला और दर्शन का सौन्दर्य प्रस्तुत करते हैं|बातें सारी होतीं तो इसी दुनिया और हमारे आस-पास की हैं ,मगर घड़ियों की रफ़्तार में अंधी आँखें न देख पाती हैं , न टिक टिक के शोर में सुना जा सकता है| आधुनिक अफ़्रीकी साहित्य के पिता माने जाने वाले चिनुआ अचेबे कहते थे -लेखक को इतिहासकार होना पड़ता है|मेरी उनसे सौ प्रतिशत सहमति इसलिए है क्योंकि मैं सोचता हूँ, पत्रकारिता या इतिहास लेखन में समाज के रहन -सहन ,विचार आदि का डाटा मात्र भरा होता है ,वहीँ साहित्यकार समाज का भावपूर्ण इतिहास लिखता है, जो कई मायनों में बेहतर और उपयोगी है|


संग्रह की दूसरी लम्बी कविता कबूलनामा लेखक के आत्म चिन्तन और आत्म-चिन्तन के बहाने समग्र चिंतन की भी कविता है|मध्यवर्गीय चेतना अपने अस्तित्वमूलक सत्ता की पहचान और स्थापना को लेकर चिंतित है|कभी-कभी मैं पहचान नहीं पाता हूँ ,अपने आपको /शीशे में मेरा चेहरा स्थिर रहता है /हिलता है /डुलता है और कई चेहरे बनता है /दरअसल वह कई मुखौटे रखता है अपने पास /मैं अपने 'मैं' को लेकर सशंकित रहता हूँ.. जीवन संकट के पीछे मध्यवर्गीय चिंता और मध्यवर्ग का ढुलमुल आचरण है ,जो स्वयं को बचाए और बनाये रखने के लिए वह इस्तेमाल करता है| यहाँ जीवन संकट से ज्यादा तवज्जो निशांत पहचान के संकट को देते हैं |अस्तित्व मूलक सत्ता की स्थापना को देते हैं |जीवन को बचा लेने और गुपचुप तरीके से जी लेने की मध्यवर्गीय सोच जिसके लिए मध्यवर्ग ने मुखौटों और कई चेहरों का आज तक सहारा लिया है|उसे वह एक सिरे से नकार देते हैं| सत्ता सबसे पहले स्वायत्तता चाहती है |लेखक अपनी अस्मिता की स्थापना के लिए स्वतंत्रता चाहता है|आँखें वह नहीं देख पातीं जिसे मैं देखना चाहता था / जुबान वह नहीं बोलती जिसे मैं चाहता था बोलना |मध्यवर्गीय चेतना दो चरित्रों को साथ लेकर चलती है |वह दास भी है और दमनकारी भी|वह स्वतंत्रता चाहता भी है और स्वतंत्र होने देना भी नहीं चाहता |सपने में हमेशा एक सुन्दर स्त्री आती है और अपने हाथों में बारूद लिए /उसके हाथ बहुत ही कलात्मक होते /किसी कलाकार द्वारा फुरसत में बनाए हाथों की तरह ..अब बारूद लिए स्त्री निश्चय ही कवि द्वारा अपनी अस्मितामूलक सत्ता बचाने और बनाने में उद्धत स्त्री का बिम्बात्मक चित्रण है ,परन्तु उसके हाथों की तारीफ में डूबी अगली पंक्तियाँ उन तमाम मध्यवर्गीय मानसिकता को उजागर करती है , जो उसकी यौनेच्छाओं को शांत करने में लगी रहती हैं|फ्रायड इसी को लिविडो कहते हैं|माँ में हमेशा एक पुरुष दीखता था मुझे ..उस स्त्री का चित्रण है जो शरीर से स्त्री और चेतना से पुरुष है |यह पंक्ति लान्का के सुप्रसिद्ध विचार वीमेन डज नाट एक्जिस्ट का काव्यात्मक रूपांतरण है|विचार कविता में ढलकर किस तरह आम जन तक पहुँचती है इसका सुंदर उदाहरण भी|शक ,संशय और डर मध्यवर्ग का चिर परिचित मिजाज है |अपने ही विश्वासघाती व्यक्तिव से मनुष्य इतना आतंकित है कि उसे किसी पर भरोसा नहीं है|माँ , बहन, बच्चे, प्रेमिका सब पर शक करता है ,अपने डर को तुष्ट करने के लिए डराता है ,मनोनुकूल आचार और प्यार करने पर मजबूर करता है|यह भी जानता है कि यह एक मनोरोग है परन्तु वह लाचार है| उसका सबसे बड़ा संकट है पवित्रता, जो उसे विरासत में मिली है|इसे बचाने के लिए वह कई जघन्य अपराध भी करता है| कविता का दूसरा हिस्सा गाँव और शहर के बीच फंसे मध्यवर्ग का बयान है |कुछ खेत, कुछ जानवर, कुछ बच्चे, कुछ औरतें और /ढेर सारे झूठ पीछे छूटे जा रहे थे /यात्रा करना जरूरत नहीं मेरी मजबूरी थी/लाभ बहुत ज्यादा नहीं था/ फिर भी पेट के लिए फिरते रहना मेरी मजबूरी है ......शहर पहुँचते ही पवित्रता के सारे आडम्बर धराशायी हो जाते हैं | पहली बार भीख मांगते हुए मैंने जाना /दुनिया में कुछ भी पवित्र नहीं है /अभी -अभी जाना... शहर के नजदीक आते गाँव का दूर हो जाना सांस्कृतिक बिछुडन का शिकार बनाता है |वहीँ शहर पवित्रता के ढोंग का चेहरा साफ़ और स्पष्ट करने में भी माहिर है|असलम दा के बहाने एक बौद्धिक और एक सामान्य व्यक्ति के बीच के फर्क को कवि दिखाना चाह रहा है|अपनी जिन्दगी बिना अनावश्यक पचड़े के न जी पाने की सारी भडास निकाली है|कविता के चौथेपन में कवि डर जैसे शाश्वत सत्य का उद्घाटन कर रहा है|डर जीवन का उपहार भी है और कमजोरी भी |डर का अपना मनोविज्ञान है| राजनीतिक सत्ता खुद की स्थापना के लिए जनता में डर बनाये रखना चाहती है तो उसी अनुरूप क़ानून भी बनाती है| घार्मिक सत्ता नैतिकता और पवित्रता के नाम पर डर का निर्माण करती है ,तो समाज मर्यादा के नाम पर डर पैदा करता है|व्यक्ति अपने जीवन और अस्मिता की रक्षा के लिए भयभीत रहता है, परन्तु तब तक जब तक भय संभव है|भय के अंतिम क्षणों में साहस की उत्पत्ति होती है| युद्ध नीति कहती है -दुश्मन को हमेशा तीन तरफ से ही घेरना चाहिए, एक तरफ से भागने का मौका देना चाहिए |वर्ना वह अंतिम सांस तक लडेगा | यह डरना नितांत आवश्यक है /डर-डर के ही की जा सकती है सफल यात्रा..कहते ही कवि इंगित करता है कि मध्यवर्गीय मनोविज्ञान में डर अपनी अस्मिता, पवित्रता, नैतिकता, संस्कार आदि को बचाए रखने के लिए ही आता है| यही डर सफलता की कुंजी है, परन्तु यह डर घातक हो जाता है ,जब डर अभिव्यक्ति और सोच की स्वतंत्रता पर हावी हो जाता है| डरो ताकि डरने से नहीं लगता चुनरी में दाग /भागो ताकि भागने से सोयी रहती है आत्मा...../ डर-डर कोई स्वप्न देखता है भविष्य के लिए /डर -डर कर कुछ लोग करते हैं आत्महत्या ..... / डर कर कुछ मुंह खुल नहीं पाते ..कविता के पांचवें हिस्से में कई छोटी-छोटी चीज़ें अहम हो जाती हैं| फुलपैंट ,कुरता , बंडी, रुमाल, छोटी घटनाएँ, रिश्ते ,रिश्तों की छोटी-छोटी मगर अहम यादें ,सबकुछ मध्यवर्गीय जीवन में विशालता के साथ उपस्थित होता हैं |जीवन में इनका अपना हिस्सा है|अपना सरोकार है|निशांत लिखते हैं -छोटे -छोटे शब्दों के भी होते हैं /बहुत बड़े-बड़े अर्थ /बहुत बड़े -बड़े साम्राज्य /एक उम्र में समझ में आती है यह बात /..साइकिल, प्रेम, चाय , झगड़ा ,रूठना - मनाना,एस एम् एस सबकुछ एक आम जीवन में उतना ही महत्वपूर्ण होता है ,जितना कि राज्य के लिए प्रधानमन्त्री, राजनयिक, विदेश नीति, मुद्रास्फीति, परमाणु और मिसाइलें |छोटी चीजों का अस्तित्व कितना महत्वपूर्ण होता है और हो सकता हैं या होना चाहिए ,इसे बतलाते हुए निशांत लिखते हैं -इतने बड़े राष्ट्रपति भवन में /एक कबूतर तक नहीं बैठ सकता /बड़े शर्म की बात है /दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में /कबूतरों तक को बैठने के लिए जगह नहीं है .. अर्थात लोकतंत्र तभी तक सार्थक है, जब तक लोक जिन्दा है|जब तक केंद्र हाशिये से परिचालित है|अन्त्योदय सबसे बड़ा लक्ष्य है|छोटी और मामूली चीजें लोक जैसी महत्वपूर्ण शक्ति का निर्माण करती हैं|इन्हीं छोटी चीजों में मध्यवर्ग का मैं भी महत्वपूर्ण है और इतना महत्वपूर्ण कि आपका जीवन ,आपके अस्तित्व की सत्ता भी इसी मैं पर टिकी है|


'मैं में हम -हम में मैं' कविता कई मैं के मिलने से बने हम और हम की परिधि में उलझे कई मैं की गाथा है| निशांत ने कई मैं की कहानियों को बारीकी से रखा है, जो समवेत रूप में हम की कहानी है|हम ही नहीं हैं 'सबकुछ'/सबकुछ में एक बूँद में एक बूँद हैं हम /हम में ही कुछ है /कुछ में ही मैं हूँ -हम है .. कवितायेँ छात्र जीवन की चुहलबाजियों और यादों से पटी पड़ी हैं|इनमे एक जीवन्तता है|कभी न खत्म होने वाला एक सिलसिला है|कितनी छोटी -छोटी बातों से खुश हो लेते हैं 'हम '/तो कुछ दुखी भी /मसलन हजार रूपये की ब्रांडेड जींस चार सौ में मिल गयी /पडोसी वर्मा की बेटी मुस्कुराकर के बगल से सट कर गयी... |कविता के दौरान निशांत उन तमाम परेशानियों और उधेड़बुनों से भी दो चार होते हैं, जिनसे छात्र जीवन जूझता है| ....और बार-बार आत्महत्या के बारे में सोचते हुए /कमरे से बाहर निकलता /जीने की मजबूरी को कंधे पर लादे /कमरे में उसी ब्लेड से नाखून काटता ....../ माँ पंखा झलती /और कहती -"आज बहुत उमस है |/रात को बारिस होगी|"/ 'पिता' कहते -"बस ,वह बन जाये 'कुछ'|"...


"फिलहाल सांप कविता" संग्रह की चौथी कविता है|कवि ने इसे बाबा नागार्जुन को समर्पित किया है|बाबा लोक और लोक राजनीति के लोकमान्य धुरंधर थे|कविता का पहला पैरा ही बाबा के प्रति समर्पण को स्पष्ट कर देता है|साथ ही उन तमाम अवसरवादियों और विचारधारा के दलालों के प्रति अपने विरोध को भी मुखर रूप देता है जो पुरस्कार और साहित्य के नाम पर तीसरे दर्जे की राजनीति करते हैं|उम्र बढ़ने के साथ-साथ वह होता जा रहा है सन्त /बढती जा रही है लोलुपता ..कह कर निशांत तमाम घोंघा बसंतों को बेनकाब कर दते हैं|संपादकों को जनतांत्रिक तानाशाहों से जोड़ कर साहित्य और सियासत के सियारी चेहरे में बेनकाब कर देते हैं|खींसों के खेल से तथा अदृश्य पूँछों की सलामी के सहारे साहित्य की सीढियाँ चढ़ने वाले तमाम लोगों की खबर इस कविता में ली गयी है|एक कवि ने चिल्ला कर कहा /उदारवादी बाजारवादी और विज्ञापन के शिखर कालखंड में /दारू पीने-पिलाने से इनकार करने वाला व्यक्ति /सबकुछ हो सकता है कवि नहीं हो सकता ... |कविता का दूसरा खंड उस व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है, जो पिछली कविताओं में अपने अस्तित्व और उसकी सत्ता की स्थापना के लिए चिंतित था|वह खूंसटों की खबर ले रहा है| अपनी स्थापना की घोषणा कर रहा है|वह बता रहा है कि ये कविता जो वह लिखता है, एक्सपायर्ड दिमाग से बाहर की चीज़ है|माओत्से कहते थे -साहित्य और कला का कार्य हमेशा से ही पर्दाफाश करना रहा है| सम्पादकीय चरित्र की बखिया उधेड़ते हुए निशांत साफ़ -साफ़ लिखते हैं एक सम्पादक सरकारी कमरे में तीन तरफ /चाणक्य प्लेटो और ईश्वर के शांति दूत प्रधानमंत्री की तस्वीर लगाये /चौथी तरफ अपनी तस्वीर लगाने की इच्छा लिये / थर-थर काँपता है रात को बिस्तर में /उसके सपने में आता है एक 'रक्त-स्नात-पुरुष' बीड़ी जलाता और अँधेरे में पूछता - पार्टनर तुम्हारी पोलिटिक्स क्या है ? जिन झोलाछाप डाक्टरों के कारण साहित्य क्षय रोग का शिकार हुआ है तथा खांसता हुआ दम तोड़ रहा है निशांत ने उन्हें एक- एक कर अपने निशाने पर लिया है|साहित्य अपने आप में एक महान काम है |लोग इसे शौक या प्रसिद्धि के लिए इस्तेमाल करते हैं |निशांत इनके प्रति भी खासा रोष प्रकट करते हुए कहते हैं .. दफ्तर के वक्त पूरी दफ्तरी/कविता के वक्त कविता के अलावा और कुछ नहीं होना चाहिए .. चीन के प्रसिद्ध साहित्यकार लू-शुन भी क्रन्तिकारी काल का साहित्य निबंध में अपने विचार व्यक्त करते हैं कि.. क्रांतिकारी साहित्य क्रांति के वक्त लिखा साहित्य नहीं बल्कि क्रांति के सम्बन्ध में क्रांतिकारियों द्वारा लिखा हुआ साहित्य होता है,परन्तु क्रांति के वक्त साहित्य नहीं लिखा जाना चाहिए| क्रांति के वक्त केवल क्रांति और साहित्य के वक्त केवल साहित्य|इसके लिए क्रांतिकारी साहित्य थोड़ी देर से भी शुरू हो तो कोई हर्ज नहीं है|काम के प्रति निष्ठा ही काम में परफेक्शन देता है|निशांत कविता में घुसी हुई हर फर्जी प्रवृति को उधेड़ते और निषेध करते हैं|चौथी लम्बी कविता के चौथे हिस्से में युवा समकालीन कवियों को लताड़ लगाते हैं कि उनका लक्ष्य पूँजी और पद प्राप्ति हो गया है,संपादकों के इर्द-गिर्द मंडराना उनकी फितरत हो गयी है|वे लिखते हैं -पूँजी हमारा परम मित्र है /जाति हमारी पहचान /सूचना जाल हमारे मददगार हैं /आप हमारे पालनहार ..| समकालीन कविता सचमुच फार्मूलाबद्ध हो गयी है|बिलकुल हिंदी सिनेमा की तरह ..थोडा आदर्श, थोडा नाच-गाना, थोडा इमोशनल ड्रामा,थोडा डायरेक्टर,एक्टर का नाम थोड़ी पब्लिसिटी हो गयी फिल्म सौ करोड़ के पार|इसी तरह संपादकों से मोबाइल मैनेजमेंट और चलताऊ विमर्शों से कविता में पुरस्कृत गोबर भरे जा रहे है|भाषा को साहित्य की कसौटी पर इसलिए कसा जाता है क्योंकि साहित्य ज्ञान मीमांसा का सर्वोत्कृष्ट साधन है|बिना नये ज्ञान का उत्पादन किये जो कुछ लिखा जायेगा |सब कूड़ा ही तो होगा |अनावश्यक ,बेमतलब ,सिर्फ भाषा चमत्कार कुछ भी हो साहित्य तो बिलकुल नहीं हो सकता | इस समय के पास नहीं है विचारों की वह सान /जो आन्दोलन की जमीन बना सके ...आगे लिखा है.. ठीक रीति काल में "कन्हाई सुमिरन के बहानो है"की तर्ज पे /वे समझ गये हैं इस समय की कविता पढने के लिए नहीं /सजे-धजे पृष्ठों पर छपने के लिए लिखी जा रही है|निशांत ने बेरोजगारी से मुक्ति और पूँजी के लोभ कविता के जन्म के दो तत्कालीन आधार बताये हैं |सम्पादक विज्ञापनों के लिए कवितायेँ बटोरता है तो कवि चंद लघु पत्रिकाओं की सीढियाँ बनाकर रोटी,फिर ऐशो -आराम तक पहुंच बनाता है|जनता को भी कवि कठघरे में खड़ा करता है-अब, खून नहीं खौलता किसी को सरेआम हत्या पर /बस अखबार में रिपोर्ट लिखी-पढ़ी जाती है / काली पट्टी बांधकर प्रदर्शन किया जाता है /मोमबत्ती जलाकर जुलूस निकाली जाती है /अंत में सारी घटनाएँ एक फिल्म में तब्दील हो जाती हैं | पांचवें खंड में कविता के अंतर्वस्तु के सम्बन्ध में बात करती है|कविता का डायरी और छोटी चीजों का इतिहास होते जाना आज की कविता की विशिष्टता है| कविता की शैली कुछ कुछ समाचार शैली है|घटनाओं को विस्तार से समझाती सुंदर लड़की के नीचे तुरत-फुरत की घटनाएँ शब्द बनकर दौड़ती हैं|मगर घटनाओं के विस्तारीकरण से निशांत आपको आपको बोर नहीं करते|कवितायेँ सीधी-सपाट भाषा में सत्ता की तमाम साजिशों का पर्दाफाश करती चली जाती है, जिसमे केंद्र चूतड़ अटकाए जमा है और हाशिया चूतड लिए धक्का मुक्की करता केंद्र की ओर दौड़ रहा है|किसी को सम्पूर्ण परिवर्तन नहीं चाहिए ; हिस्सा चाहिए लूट में हिस्सा| हर परिवर्तन बस अपनी स्थिति तक के परिवर्तन की आकांक्षा तक सीमित है |


'कैनवास पर कविता' रंगों की वैचारिकी को शब्दबद्ध करने का सुंदर प्रयास है| इसे रंगों का भावानुवाद भी कह सकते हैं , जिसमे कुछ -कुछ दार्शनिक टच भी मिलता है|संग्रह के इस अंतिम खंड में निशांत साबित करते हैं कि कला वैचारिकी का माध्यम भर है|कला का असल उद्देश्य नई वैचारिकी का जन्म है|चाहे बात रंगों में हो या शब्दों में नई बात अगर सलीके से कही जाएगी,तभी महत्वपूर्ण होगी|अंतिम पंक्ति इसे और भी पुष्ट करती है|जब कुमार अनुपम की पेंटिंग्स को देखते हुए कहते हैं -वह लिखता है कविता रंगों की भाषा में |


संग्रह को पढ़ते हुए पाठक यह महसूस करता है कि निशांत अपनी कविताई और समय के प्रति प्रतिबद्ध हैं|वह समस्याओं पर पैनी और निडर नजर रखते हैं| सबसे ज्यादा उनकी बेबाकी मुझे प्रभावित करती है|पांच लम्बी कविताओं से वे विश्वास दिलाते हैं कि कविता की पटकथा और शिल्प में आज भी नये और सार्थक प्रयोग हो रहे है|कविता में मुक्तिबोध के चिरपरिचित वाक्यों का प्रयोग उनके परम्पराबोध को भी दर्शाता है| मेरे विचार से जवान होते हुए लड़के का कबूलनामा के बाद उनका यह दूसरा संग्रह जी हाँ लिख रहा हूँ भी एक योग्य प्रयास है,जिसके लिए निशांत साधुवाद के पात्र हैं| आशा है कि आगे भी उनकी रचनाधर्मिता से साहित्य लाभान्वित होता रहेगा| 





अरमान आनंद,शोध-छात्र ,हिंदी विभाग बी.एच.यू. 07499261303

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