Monday 25 November 2019

समय सत्ता और कवि : एक (मनोज कुमार झा की कविताएं)

जब मोहम्मद रफ़ी मरे तो बारिश हुई थी
संदर्भ : #मनोज_कुमार_झा_की_कविताएँ
शहंशाह आलम

मनोज कुमार झा की कविता हवा का वह झोंका है, जो भीषण गर्मी के दिन सहसा आता है और पसीने से चिपचिप बदन को थोड़े समय के लिए राहत देकर खेत, पगडंडी, दरख़्त, दरिया के रास्ते आगे बढ़ जाता है। नामवर सिंह ने भी इनकी कविता को लेकर कहा है कि इनकी कविताएँ हवा के नए झोंके की तरह हैं। नामवर जी ने सही लिखा। मनोज कुमार झा की कविता में हवा के जिस झोंके की बात यहाँ पर चल रही है, वह झोंका जब-जब आता है
मनोज कुमार झा
पुनर्नवा होकर आता है। मनोज कुमार झा की कविता में व्यक्त शब्द आदमी के लिए यही काम करते हैं। यानी इनकी कविता आदमी को राहत पहुँचती है। आज की तारीख़ में एक आदमी की हालत कैसी है, यह क़िस्सा किसी दहलाने वाले क़िस्से से कम नहीं है। तभी दुनिया भर के आदमियों के सड़कों पर निकलने की ख़बरें रोज़ आती रहती हैं। सड़कों पर आदमी के लिए कड़ी धूप है और किसी साये का इंतज़ाम तक नहीं है। ऐसे में, मनोज कुमार झा की कविता एक सायेदार पेड़ की तरह आदमी को राहत पहुँचाती है। कविता का असल काम यही तो है। बहुत सारे लोग ऐसे भी हैं, जो पल भर सो नहीं पाते, ग़ुरबत की वजहकर। इनकी कविता उनकी आँखों को नींद देती आई है।
     मनोज कुमार झा की कविता ‘देशज’ कविता है और यह कवि ‘देशज्ञ’ कवि है। यानी इनकी कविता बोलचाल की भाषा से स्वतः उत्पन्न कविता तो है ही, कवि आदमी की रीति, नीति और संस्कृति से भी परिचित है। यह देशजता और यह देशज्ञता इस कवि का अपना गुण है। अपना मूल पाठ है। संभवतः इन्हीं कारणों से यह कवि अतीत से अधिक वर्तमान में जीता है। कवि का अपना वर्तमान वही है, जो देश के आम नागरिक का वर्तमान है, ‘ठीक कह रहे अनवर भाई / जब मोहम्मद रफ़ी मरे तो बारिश हुई थी / अनवर भाई, ठीक कह रहे / जब आपके भाई रोशन क़व्वाल मरे तब भी बारिश हुई थी / मानता हूँ अनवर भाई / आपके अब्बू मोहम्मद रफ़ी की नक़ल नहीं करते थे / उनकी आवाज़ निकालते थे / मगर अबकि बारिश वैसी बारिश नहीं / घुला हुआ है अम्ल / घुला हुआ है रक्त / चलो अनवर चलो कोई चौड़े पाट वाली नदी ढूँढ़ो / जिसमें धुल सके इस बारिश की बूँदें।’
     अपने शब्द की मार्फ़त अंतिम आदमी के लिए जितना कुछ किया जा सकता है, हर कवि करता है। मनोज कुमार झा अपने शब्द की मार्फ़त यही करते हैं। कारण कि जो अंतिम आदमी है, उसकी बोलती बंद है। हर अंतिम आदमी ‘कदाचित् अपूर्ण’ है। अब जिन कदाचित् कारणों से सबकी आवाज़ अपूर्ण है, सबकी बोलती बंद है, सबकी हालत पतली है, ये सारी वजहें घृणा से भरी हुई हैं। घृणित इस कारण हैं कि सत्ताएँ हर अंतिम आदमी के साथ आखेट करती हैं। यह सच ही तो है, अब वह वक़्त गया, जब कोई राजा अपने राज्य के अंतिम आदमी के दुःख को समझने वेश बदलकर रात को निकला करता था। अब का राजा अपने असली रूप में अंतिम आदमी का शिकार करने निकलता है। यानी अब सत्ताधीश बस कुशल आखेटक भर बनकर है, शांत दिनों की हर संभावना को नष्ट करने वाला भर रह गया है, ‘उखड़ी-उखड़ी लगती है रात की साँस / बढ़ता जाता प्रकाश का भार / तेज़ उठता मथने वाला शोर / तो क्या फट जाएगा एक दिन रात का शहद / और नाराज़ सूरज कहेगा अब नहीं लौटूँगा / रात ही देती थी लाल रूमाल / जिसको हिलाते बीतते थे प्रात / अब भोगो अपना प्रकाश अपना अँधकार।’ मनोज कुमार झा अपनी कविता में जिस अंदेशे से अकसर घिरे दिखाई देते रहे हैं, वह अंदेशा एक जागरूक कवि का अंदेशा है। यह अंदेशा हर कवि में बार-बार आता रहता है। वह कवि जिस भी भाषा का कवि है, यह अंदेशा यानी यह पूर्वाभास उसको परेशान करता रहता है कि उसके घर के बाहर जो सत्ताधीश गली में छिपकर उसकी टोह में लगा हुआ है, वह उसको न मालूम किस जुर्म में फँसाकर उसका शिकार कर लेगा। ऐसे टोही और हरजाई सत्ताधीशों से भरे समय में भी मनोज कुमार झा अपने ‘अनवर भाई’ जैसे पड़ोसियों को आज के शिकारी सत्ताधीश से बचाना चाहते हैं। कवि के बचाव का यह तरीक़ा हर आदमी के लिए माक़ूल है और कविता के लिए मुनासिब भी, ‘क्या तुम्हें शर्म नहीं आती / क्या तुमने दूध के लिए रोते बच्चों को देखा है / अपनी माँ से पूछ लो / नहीं, तुमसे छूट गई होगी वो भाषा / जिसमें माँओं से बात की जाती है / क्या तुमने तेज़ाब की शीशी को / बच्चों की पहुँच से दूर किया है कभी / अपनी पत्नी से पूछ लो।’
     मनोज कुमार झा की कविता ऊपर-ऊपर से जितनी शांत दिखाई देती है, अंदर से आपको इतनी बेचैन कर देती है कि आप ज़िंदगी की त्रासदी को परत-दर-परत समझ पाते हैं। शर्त यही है कि इस कवि की कविता वाली नदी में आपको डुबकी लगानी होगी। शर्त यह भी है कि आपको नदी में गोता लगाना आता हो। इनकी कविता का स्वर आदमी को प्रेम से बाँधे रखना ज़रूर है, परंतु जो सत्ताधीश रेड कार्पेट पर चलते हैं, उनकी मुख़ालफ़त की शर्त पर मनोज कुमार झा आपसे प्रेम करते हैं। वजह साफ़ है, सत्ता के लोग आपके मुख़ालिफ़ ही तो खड़े दिखाई देते रहे हैं। मनोज कुमार झा की असल कारीगरी यही है कि लोगों के सत्तावादी प्यार को ख़त्म करना चाहते हैं, ‘तुम नहीं तो यहाँ अब मेरे हाथ नहीं / एक जोड़े दास्तानें हैं / पैर भी नहीं / एक जोड़ी जूते की / देह भी नहीं / मात्र बाँस का एक बिजूका / जिसमें रक्त और हवाएँ घूम रही हैं।’ कवि आपसे यह कहना चाहता है कि पक्षियों और जंतुओं को डराने के लिए खेत में उलटी हाँडी का सिर बनाकर खड़ा किया गया जो पुतला होता है न, वही अब लोगबाग होते जा रहे हैं। लेकिन वह पुतला तो महज़ धोखा और भुलावा होता है न। फिर आप ऐसे क्यों होते जा रहे हैं? कवि को मालूम है, आज के सत्ताधीश अपनी जनता को किसी बिजूका से ज़्यादा नहीं मानते। हालत यह हो गई है कि देश में जनता को नोटबंदी के बाद अब एक किलो प्याज़ के लिए पंक्ति में खड़ा कराया जा रहा है और तुर्रमख़ाँ सत्ताधीश विदेश की यात्राएँ कर-करके मौज मना रहा है, ‘तुमने परमाणु बम बनाया / चाँद को छुआ / वह दस दिन का बच्चा डूब रहा पानी में / वह काग़ज़ का टुकड़ा नहीं / जिसे तुम फेंक देते हो बिना दस्तख़त के / शिशु-शरीर वह / बसती है जिसमें सभ्यता की सुगंध / तुम इस दस दिन के बच्चे को नहीं बचा सकते / तुम्हें शर्म नहीं आती।’
     यह सही है कि सत्ताधीशों को अब शर्म नहीं आती। शर्म आती होती तो वे जो दिन-रात संविधान की धज्जियाँ यहाँ-वहाँ उड़ाते हुए दनदनाते फिर रहे हैं, देश में संविधान दिवस मनाए जाने की बातें नहीं करते। वास्तव में, देश की जनता ऐसे सत्ताधीशों को अपना मौन-समर्थन जब तक देती रहेगी, वे देश की जनता को प्याज़ क्या, नमक तक के लिए पंक्ति में खड़ा करवाते रहेंगे। चेतना सत्ताधीशों को नहीं, हमको है। ग़म यही है कि हम चेतने से अच्छा किसी मंदिर में जाकर घंटी बजा आना मान रहे हैं, ‘यह युद्ध इतना विषम / नोचे इतने पंख / लूटते रहे मेरे दिन की परछाइयाँ / कुतरते रहे मेरे रात की पंखुड़ियाँ / चितकबरा लहू थूकता यह अँधकार / फिर भी छूटा वो अर्जित कोना निपट अकेला / जहाँ बसे हैं विकट दुर्गुण मेरे ख़ास।’ मनोज कुमार झा धब्बेदार, लाल-काले दाग़ोंवाली और बेसुरी इस सदी के बारे में जो भी कहते हैं, यथार्थ कहते हैं। तभी इनकी कविता यथार्थ की कविता है। यह कवि ऐसा है कि अपने दुःख में सबको शामिल करने से बचता दिखाई देता है। इस कवि को मालूम है, दुखी तो सभी जन हैं, फिर अपना दुःख सुनाकर दुखी जनों को और अधिक दुखी काहे किया जाए, ‘मैं काँपता अपने निश्चय के भीतर कि मैं तो रोऊँगा।’ आज का माहौल भी ऐसा है कि किसी रोते हुए आदमी के काँधे पर भला प्यार से कौन हाथ धरता है। हमदर्द आदमियों की कमी जो होती जा रही है। साथ ही, आदमी के अंदर से हमदर्दी ख़त्म भी होती जा रही है, ‘मगर मेरे पास सिर्फ़ देह / क्या इसे निर्वस्त्र करके गलियों में घुमाऊँ / तो दिखेगा उदासी का चेहरा।’ एक कवि आपको चेता भर ही न सकता है कि आप अपनी दर्दमंदी, अपना ख़ुलूस, अपनी सहानुभूति खो रहे हैं, तभी अब आप दूसरे के दुःख से दुखी होने का भाव अपने अंदर नहीं महसूस कर पाते, ‘उधर से खाँसी उठती थी / जान जाता था कि पिता जगे हैं / इधर मैं कविताओं का काग़ज़ फाड़ता था / जान जाते थे कि लड़का जगा है / इस तरह एक रिश्ता बनता था / लड़ाइयों की हार की तरफ़ लुढ़कते हुए।’
     मनोज कुमार झा की कविता का जो स्वर है, यही है कि इनकी कविता आदमी के अतीत और वर्तमान, दोनों को साथ लेकर चलती है। आदमी का अतीत अगर-मगर करता हुआ पूर्णता के साथ बीता है तो उसका वर्तमान कदाचित् अपूर्ण रह गया है। लेकिन कवि की श्रद्धा आदमी के भविष्य को लेकर विश्वास से भरी है। यही वजह है कि इनकी कविता आदमी को अधूरा आदमी नहीं मानती - पूर्ण, सुंदर और भव्य मानती है। इनकी कविता आदमी से बातचीत की कविता है। कहीं कोई कमी है भी तो कवि का ग़ुस्सा सातवें आसमान तक नहीं जाता है। कारण कि ‘तथापि जीवन’ एक कवि का ही जीवन तो है। मनोज कुमार झा ‘हम तक जो विचार’ पहुँचाना चाहते है, यही पहुँचाना चाहते हैं, ‘दुःख तो पुराना गुइयाँ है / जैसे राख की साथी आग / मगर चुंबक का एक सिल बनाया हम लोगों ने / और उस पर खीरा रखा / जिसे काटने को लोहे के चाक़ू से हुनर क़बूल किया।’
     मनोज कुमार झा उम्मीदों के कवि हैं। इनको नाउम्मीदी हर तरफ़ से घेरती भी है तो नाउम्मीदी का घेरा इनको तोड़ना बख़ूबी आता है। नाउम्मीदी के घेरे को तोड़ने का यह काम भी यह कवि विनम्रतापूर्वक करता है। संभव है, इनकी इस विनम्रता और इनके इस विनयन के लिए कोई ‘बहुत डरा हुआ कवि’ कहकर ताने मारे, लेकिन यह ग़लत होगा। मानवता के बचाव की लड़ाई मुहब्बत से भी लड़ी जाती रही है। मनोज कुमार झा ऐसे ही कवियों में हैं। इनकी कविता को एक नए फ़्रेम में देखेंगे तो लगेगा कि पूरी तरह सहज रहकर कोई कवि किस प्रकार आदमी के पक्ष का संघर्ष जीतता है, ‘नहीं दिख रहा हरसिंगार का पेड़ / नहीं दिख रहा गेंदा जिसे सुबह में छुआ था / इन अँधियारों में मुझे क्यों लग रहा कोई नाव चला रहा है।’ दरअसल मनोज कुमार झा का कवि उस नाविक की भूमिका में है, जो नाविक चाहे समुद्र में जितनी आँधियाँ आएँ, जितनी परेशानियाँ आएँ, जितनी हैरानियाँ आएँ, अपनी कश्ती को किनारे लाकर ही दम लेता है। यह इनके एक सतर्क कवि होने का भी परिचायक है।
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Sunday 17 November 2019

कविता : कम्बखत ये गरीब

ये गरीबों के बच्चे
कम्बखत

बिना टैक्स दिए
पढ़ लेते हैं 
देश के बड़े संस्थानों में

फीस बढ़ाओ और 
संस्थानों को इनकी पहुंच से बाहर कर दो

बिना टैक्स दिए लेते हैं
देश की हवा में सांस
और
टैक्स पेयर के हिस्से की भी हवा खींच लेते हैं

सायकिल से मर्सिडीज की सड़क जाम कर देते हैं

देश की रफ्तार बढ़ाने के लिए
इन गरीब पिल्लों को 
मारो
धक्के दो
और विकास रथ से नीचे उतार दो

Saturday 16 November 2019

कविता: प्रेम जो कभी बासी नहीं होता

बहुत बार दुहराने पर जो बासी नही होता
वह प्रेम ही है
बाक़ी
सब कुछ बासी हो जाता है
स्वर्ग
स्वाद
देह
दान
ज्ञान
जीवन
दुनिया- जहान

Thursday 14 November 2019

एक विक्षिप्त वैज्ञानिक का अवसान : प्रेमकुमार मणि

एक विक्षिप्त वैज्ञानिक का अवसान : प्रेमकुमार मणि 

 किंवदंती पुरुष गणितज्ञ वशिष्ठनारायण  सिंह आज 14  नवंबर को इस दुनिया को अलविदा कह गए . यूँ भी उनका पार्थिव  शरीर ही शेष था . चेतना तो आज से 45   साल पहले ही लोप हो गयी थी . दरअसल उनका वास्तविक अवसान उसी रोज ,यानि आज से 45 साल पहले जनवरी 1974 में हो चुका था .
  
     मैं जब हाई स्कूल में था ,तब वशिष्ठ जी का नाम पहली दफा  सुना था . हमारे स्कूल में शिक्षा विभाग के रिजनल डायरेक्टर आये थे . 1967 -68 का साल होगा .  अपने भाषण के दौरान नेतरहाट स्कूल के औचित्य पर बोलते हुए उन्होंने कहा था कि वैसा स्कूल हर जिले में होना चाहिए . इसी क्रम में उन्होंने वशिष्ठनारायण की चर्चा की और कहा कि यदि एक वशिष्ठ उस स्कूल से  निकल गया तो नेतरहाट का  बनना सार्थक हो गया . हमारे गाँव-घर  के सत्यदेव प्रसाद जी ,जो अब दिवंगत हैं ,नेतरहाट स्कूल में वशिष्ठ नारायण से एक बैच सीनियर थे . हायर सेकेंडरी के पहले बैच में बिहार भर  में उन्होंने भी प्रथम स्थान प्राप्त किया था . मैंने  सत्यदेव भैया से वशिष्ठनारायण के बारे में पूछा . वह ,यानि सत्यदेव भैया उनके खूब प्रशंसक थे . उनकी विलक्षणता की जानकारी उनसे भी हुई थी . बाद में सुना कि वशिष्ठनारायण जी विक्षिप्त हो गए . लेकिन लीजेंड तो वह छात्रजीवन में ही बन चुके थे . आज उस करुण- कथा का अंत हो गया . आज मेरे हिसाब से श्रद्धांजलि का नहीं ,संकल्प  का समय है . हम इस पूरे हादसे को एक गंभीर  सामाजिक प्रश्न के रूप में क्यों नहीं देखते ? 

जो थोड़ी बहुत जानकारी मुझे मिली है ,उसके अनुसार 1942 में जन्मे वशिष्ठजी का विवाह जुलाई 1973 में हुआ और जनवरी 1974 में वह विक्षिप्त हो गए . मैं उन लोगों में नहीं हूँ जो सब कुछ सरकार पर छोड़ते हैं . यह सामाजिक समस्या है ,जिस पर सबको मिल कर सोचना है . हमने अपनी प्रतिभाओं को सहेजना नहीं सीखा है . शिक्षा और ज्ञान के प्रति हमारी रूचि गलीज़ किस्म की है . संभव है उनपर जोर हो कि इतनी प्रतिभा है तो भारतीय प्रशासनिक सेवा में क्यों नहीं जाते . क्योंकि हमारे कुंठित और गुलाम समाज में अफसर बनना प्रतिभा की पहली पहचान होती है . देखता हूँ प्रतिभाशाली  इंजीनियर  और डॉक्टर भी प्रशासनिक सेवाओं में तेजी से जा रहे हैं . इस पर पाबंदी लगाने की कोई व्यवस्था हमारे यहां नहीं है . शिक्षा का हाल और संस्कार कितना बुरा है ,कहना मुश्किल है . शिक्षा का समाजशास्त्र यही है कि बड़े लोग वर्चस्व हासिल करने केलिए उच्च शिक्षा हासिल करते हैं और मिहनतक़श तबका मुक्ति हेतु इससे जुड़ते हैं . वशिष्ठ नारायण शिक्षा के ज्ञान मार्ग से  जुड़ गए थे . अपनी साधना का इस्तेमाल वह सुपर थर्टी खोल कर पैसे और रुतबा हासिल करने में कर सकते थे . प्रशासनिक सेवाओं से जुड़ कर वह सत्ता की मलाई में हिस्सेदार हो  सकते थे . लेकिन वह तो गणितीय सूत्रों को सुलझा कर ज्ञान की वह चाबी ढूँढ रहे थे ,जिससे प्रकृति के रहस्यों पर से पर्दा हटाना संभव होता . वह वैज्ञानिक थे . हमने वैज्ञानिकों का सम्मान करना नहीं सीखा है . अधिक से अधिक टेक्नोक्रेट तक पहुँच पाते हैं ,जो आज की साइंस -प्रधान दुनिया के अफसर ही होते हैं . ऐसे समाज में वशिष्ठ नारायण विक्षिप्त नहीं हों तो क्या हों ? हमारे साहित्य की दुनिया में निराला और मुक्तिबोध अंततः इसी अवस्था को प्राप्त हुए थे . एक लोभी , काहिल और वर्चस्व -पसंद समाज अफसर ,नेता और ठेकेदार ही पैदा कर सकता है . उसे वैज्ञानिकों -विशेषज्ञों की जरुरत ही नहीं  होती . यहां पंडित वही  होता है ,जो गाल बजाते हैं . 

और ऐसे में गुस्से से मन खीज उठता है ,जब लोग सरकार को दोष देते हुए कायराना रुदन कर रहे हैं कि हमारे महान वैज्ञानिक के शव को सरकार एम्बुलेंस भी मुहैय्या नहीं करा सकी . खैर ,आज की गमगीन घड़ी में हम यदि यह संकल्प लें कि अपने समाज में हम किसी दूसरे वशिष्ठ को विक्षिप्त नहीं होने देंगे ,तब यह उस गणितज्ञ के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी . लेकिन मैं जानता हूँ ऐसा  कुछ नहीं होगा . बस दो चार रोज में हम उन्हें भूल जायेंगे . हमारी जिद है कि  हम नहीं सुधरेंगें . जात - पात और सामंती ख्यालों के कीचड़ में लोटम -लोट होने में जो आनंद है ,वह अन्यत्र कहाँ  है ?

Monday 11 November 2019

सवाल :कविता

सवाल

सवाल
महफ़िल में किसी बच्चे की तरह
बार बार
उठ खड़ा होता है
लोग नाच के नशे में चिल्लाते हैं

बैठ जाओ
बैठ जाओ

अरमान

Friday 1 November 2019

तिब्बत की स्वाधीनता का स्वप्न है मेरा भविष्य - तेन्ज़िन च़ुन्डू

तिब्बत की स्वाधीनता का स्वप्न है मेरा भविष्य  - तेन्ज़िन  च़ुन्डू
तेन्ज़िन च़ुन्डू निर्वासित तिब्बतियों की भू- राजनीतिक जनांकाक्षाओं की न केवल साहित्यिक आवाज़ है,बल्कि वह एक जांबाज़ क्रांतिकारी एक्टिविस्ट के रूप में ज़्यादा जाने और सराहे जाते हैं ।
 
 तिब्बती कवि एक्टिविस्ट तेन्ज़िन  च़ुन्डू और हिन्दी के कवि अग्निशेखर
धर्मशाला में उनकी पहचान माथे पर बंधी लाल पट्टी वाले तिब्बती एक्टिविस्ट के रूप में है।सन् 1959 में तिब्बत से करीब एक लाख लोगों के निर्वासित होने के करीब डेढ़ दशक के बाद तेन्ज़िन च़ंडू  का जन्म सड़क  मज़दूरी करने वाले शरणार्थी माता -पिता के यहाँ मनाली में हुआ। देश के अलग अलग राज्यों में शिक्षा पाई।

तेन्ज़िन च़ुन्डू एक अत्यंत संवेदनशील, प्रश्नाकुल कवि तो हैं हीं जो निर्वासन की चेतना से ओतप्रोत तिब्बत के प्रश्न पर बड़े बड़े जोखिम उठाते रहे हैं । चीन की तानाशाही और छिन चुके तिब्बत में जारी उसकी विध्वंसक कार्यकलाप  का विरोध करने वालों में वह अग्रणी हैं ।
आम तिब्बती लामाओं की तरह उनके चेहरे पर अवसाद और सौम्य खामेशी नहीं  बल्कि एक मुखर बांकपन है। तिब्बत उनके रोम रोम में है ,उनकी आंखों में है। वह तिब्बत के बारे में देश में जगह जगह जाकर जागरूकता के अभियान में लगे रहते हैं ।अंग्रेज़ी में लिखने वाले तेन्ज़िन च़ंडू की चार पुस्तकें हैं ।
मैंने धर्मशाला जाकर उनके जीवन, उनके स्वप्न, संघर्ष और उनकी साहित्यिक यात्रा के कई पहलुओं पर एक विस्तृत बातचीत की ।
अग्निशेखर  : आपसे यदि अपना परिचय देने को कहें तो क्या कहेंगे अपने बारे में ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू : मैं जवाब में अपनी कविता 'शरणार्थी ' का एक अंश सुनाता हूँ आपको।
       जब मेरा जन्म  हुआ
       कहा मेरी माँ ने
       एक शरणार्थी हो तुम
       बर्फ में धंसा सड़क किनारे
       तंबु हमारा
       तुम्हारी भौंहों के बीच
       एक 'R' है अंकित
       कहा मेरे शिक्षक ने..
यानी मैं एक पैदाइशी शरणार्थी हूँ  जिसके  माता पिता सन् 1960 में किशोर अवस्था में तिब्बत पर चीनी आक्रमण के बाद जान बचाकर भारत आए । यहाँ उन्होंने कुली का काम किया । रास्ते बनाने की मज़दूरी की। पिता लद्दाख के रास्ते से भाग आए थे और अन्य तिब्बती अरुणाचल,नेपाल,भूटान,सिकिम से आए थे। माता पिता अलग अलग कैंपों में रहे । कुली का काम खत्म होने पर वे अन्य तिब्बती शरणार्थियों की तरह कर्णाटक चले गए।इस तरह मेरी शिक्षा दीक्षा भी अलग अलग जगहों पर हुई।
अग्निशेखर  : आपने अपनी एक कविता में कहा है कि आप उस देश के लिए लड़ते हुए थक गये हैं जिसे आपने कभी नहीं देखा है ।
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : यह एक फ्रस्ट्रेशन की अभिव्यक्ति है ।एक घुटन है।हम दशकों से जुलूस निकालते हैं।संघर्ष करते हैं ।लेकिन बदलता कुछ नहीं । कोई हमारा साथ नहीं देता। मैक्लोडगंज,कुल्लू,
  मनाली,दिल्ली या कहीं भी आप जब जुलूस निकालते हैं तो सब किनारे से तमाशा देखते हैं ।शामिल नहीं होते।आपको लग सकता है कि यह एक अनुष्ठान है,एक अलग तरह रिवाज है ।विरोध नहीं ।इसलिए एक फ्रस्ट्रेशन सी होती है कि हो कुछ नहीं रहा।
लेकिन हम लड़ना जारी रखे हुए हैं ।उसका कोई विकल्प नहीं है ।भले ही मैंने अपनी मातृभूमि देखी नहीं है , मैं उसके लिए लड़ रहा हूँ फिर भी ।
अग्निशेखर  :आपने सन् 2002 में तत्कालीन चीनी राष्ट्रपति के भारत आगमन के अवसर पर मुम्बई में ओबेराय टावर्स की चौदहवीं मंज़िल पर ' तिब्बत को आज़ाद करो' अंकित तिब्बती झंडा और बैनर फहराया था।कुछ प्रकाश डालेंगे उस जोखिम भरी घटना पर ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : यह तिब्बत को चीन द्वारा हड़प लिए जाने और उसकी मुक्ति के उद्देश्य से प्रेरित एक कदम उठाया था मैंने ताकि संसार का ध्यान आकर्षित हो हमारे साथ हुए अन्याय के प्रति ।
मुझे याद है कैसे मुम्बई में छः सौ तिब्बती युवा भूख हड़ताल पर बैठे थे।मैं चुपचाप ओबेराॅय होटल की 14वीं मंज़िल  की स्कैफ़ोल्डिंग पर तिब्बत का राष्ट्रीय झंडा फहराया।वहाँ तत्कालीन चीनी राष्ट्रपति भारतीय व्यापारियों को संबोधित कर रहे थे।मैंने "तिब्बत को मुक्त करो"  का नारा लगाया।। हवा में करीब 500 पर्चों की वर्षा की। गिरफ्तार हुआ।
फिर जब सन् 2006 में चीन के तत्कालीन राष्ट्रपति का भारत दौरा था , मुझे 14 दिन तक धर्मशाला में पुलिस ने हिरासत में रखा।ऐसे किसी भी आंदोलन से जुडे किसी प्रतिबद्ध कवि- कार्यकर्ता के लिए आम बात होती हैं।किसी भी हद तक जाया जा सकता है ।आपतो भली भांति जानते हैं यह सब।
अग्निशेखर: तो " मैं थक गया हूँ " , जिसे आप एक तरह ऊब या फ्रस्ट्रेशन कहते हैं, कविता को क्या आपकी पीढ़ी की समकालीन सोच माना जाए ,जिन्होंने तिब्बत नहीं देखा ..परंतु उसके लिए लडे जा रहे हैं?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू : हाँ ..बिलकुल ।
अग्निशेखर: आप अपनी अग्रज पीढ़ी के संघर्ष को कैसे देखते हैं  ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  :  उस पीढ़ी में नॉस्टेल्जिया बहुत है।वे लोग तिब्बत में रहे।वहाँ पैदा हुए।पले बढे..और उनको मातृभूमि छोड़कर आना पढ़ा।उनके त्रासद अनुभव हैं जो सीधे हैं । वे पहाडों पहाडों भारत आते हैं ।उनका शरीर यहाँ रहता है लेकिन उनकी आत्मा तिब्बत में रहती है ।
अग्निशेखर  : और आप कहाँ रहते हैं ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : दोनों दुनियाओं में ।यहाँ भी और वहाँ भी। जहाँ हमारे माँ- बाप,हमारी अग्रज यादों में रहते हैं ,वहीं हम सपनों में रहते हैं ।दोनों तिब्बत में रहते हैं ।
हममें बचपन में एक दिन तिब्बत वापस जाने का सपना बोया गया ।वो सपना हमारे लिए भविष्य है और तिब्बत की यादें हमारे बडों के लिए अतीत ।दो सोच हैं और साफ साफ हैं।
अग्निशेखर  : इन दोनों संघर्षरत पीढियों में आपसे में तिब्बत को लेकर कोई संवाद है ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : है..लेकिन अब उन्हें लगने लगा है कि वे वापस नहीं पहुँचने वाले। वे बूढे हो गये हैं,उनके घुटने दुखने लग गये हैं । उनके हाथों से सब कुछ निकलता जा रहा है । अब वे नहीं उनके बच्चे यानी हमारी पीढ़ी जाएगी एक दिन ।इसलिए जब मैं थकने की बात करता हूँ तो वो अस्थायी मानसिक अवस्था है,हताशा नहीं।
अग्निशेखर  : कुछ याद है कि बचपन में  तिब्बत आपकी चेतना में कब आया ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : बचपन में नानी से सुनी   की कहानियों से मेरे अंदर तिब्बत साकार हुआ। वह ऊंचा पर्वतक्षेत्र है।वहाँ याक और ड्री नाम के विशेष जानवर होते हैं ।वहाँ दही और पनीर बनाती थी नानी।हमारी वेशभूषा और भाषा तिब्बती है।
मैं नानी से पूछा करता था कि फिर हमारे कैंप के बाहर ये जो भारतीय लोग रहते हैं इनके चेहरे,इनकी भाषा और वेशभूषा अलग क्यों हैं ?
मज़ेदार बात यह कि मैं नानी से पूछता कि ये भारतीय लोग यहाँ क्यों हैं? फिर हर शनिवार और रविवार को एक कन्नडिगा स्त्री हमारी बस्ती में इडली बेचने आती थी ।हम बच्चे दौड़ कर जाते इडली खाने।
इस तरह समझ में आया कि हम तिब्बत से भागकर यहाँ आए हैं ..हम शरणार्थी हैं ।एक बच्चे को जब यह पता चले कि हम यहाँ के नहीं हैं किसी अन्य देश से आए हैं ..उसपर क्या गुज़रती होगी ..कोई कल्पना कर सकता है ? फिर बडे होने पर समझ में आया कि हम हर साल 'तिब्बती विद्रोह दिवस' क्यों मनाते हैं उन हज़ारों  शहीदों की याद में जिन्हें  सन् 1959 में चीनी आक्रमणकारी सेनाओं ने मार डाला।
अग्निशेखर  : मैं यह अच्छे से  समझ सकता हूँ, यह शरणार्थी कैंपों में  हमारे   बच्चों का भी अनुभव है ।
●तेन्ज़िन च़ुन्डू : तो हमारे माता-पिता  को बेबस और अपमानित होकर अपना देश छोड़कर भागना पड़ा है ; और एक बच्चे के लिए संसार में उसके माता-पिता ही पहला गौरव होते हैं ।और अब हम किसी अन्य देश में शरणार्थी हैं ।किसी की सहानुभूति और दया पर रहते हैं और यदि उनका मन बदले तो हमें यहाँ से  जाना होगा ।इस तरह बचपन में एहसास हुआ कि मैं एक शरणार्थी हूँ ।
और शरणार्थी होना कोई शर्म नहीं,क्योंकि  इसके लिए हम ज़िम्मेदार नहीं । शरणार्थी बनने को मैं एक सुअवसर के रूप में देखता हूँ ।आप के लिए भगतसिंह या गाँधी बनने के रास्ते भी खुल सकते हैं । जैसे मेरे पास तीन भाषाएँ हैं ।मातृभाषा जिसमें मैं गाता हूँ, स्थानीय भाषा के अतिरिक्त तीसरी भाषा है -
"रंगज़ेन" (Rangzen) अर्थात् मुक्ति ।रंगज़ेन विमर्श के तौर पर मेरी भाषा है।
अग्निशेखर  : एकबार आप चोरी छिपे तिब्बत पहुँच  गये थे और वहाँ पकड़े भी गये थे। वो सब कैसे हुआ था ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : यह तब की बात है जब मुझ पर अपनी मातृभूमि तिब्बत की एक झलक देखने का जुनून हावी हो गया। तिब्बत केवल मेरी सोची हुई दुनिया में था।मैंने लद्दाख के उत्तरी मैदान  से हिमालय लांघकर अवैध रूप से  तिब्बत में प्रवेश किया और मन बनाया अब तिब्बत में ही बसूंगा।मुझे चीन की सेना ने पकड़ लिया।मेरी पिटाई की । गिरफ्तार किया गया ।और एक दिन किसी तरह मैं उनकी जेल से रिहा हुआ।
अग्निशेखर : आपने शुरु से ही अंग्रेज़ी में लेखन किया अथवा पहले तिब्बती में लिखते थे ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू : मैं शायद तिब्बती भाषा में बेहतर लिख सकता था।लेकिन हमें शुरू से ही बताया गया था कि दुनिया को हमारे बारे में कुछ पता नहीं है ।इसलिए मैंने  बचपन से ही तय किया था कि अंग्रेज़ी में ही लिखूंगा।यों दावा नोरबु के बाद  जमियंग नोरबू, थिरिंग वांग्याल ,तुंडुप जैसे मेधावी बुद्धिजीवी ने ही अंग्रेज़ी में लिखने की सुदृढ़ नींव डाली।
अग्निशेखर  : चूंकि चीन की तानाशाही और उसकी विस्तारवादी नीति के चलते तिब्बत में एक जीनोसाइड हुआ है।आप इसपर क्या कहना चाहेंगे ?
● तेन्ज़िन च़ुन्डू  :  चीन की कोशिश जारी है कि वह तिब्बत में हमारे इतिहास को ,हमारी संस्कृति और आबादी को पूरी तरह से नष्ट करे ।उसने साठ लाख तिब्बती नागरिकों में से दस-ग्यारह लाख लोगों  का जनसंहार किया है ।
इतने भर से उसका पेट नहीं भरा।चीन ने हमारी तिब्बती भाषा और संस्कृति पर धावा बोला है।आप जानते होंगे कि चीन ने तिब्बत में सांस्कृतिक संहार के चलते छः हज़ार बौध विहार नष्ट किए हैं। प्राचीन पांडुलिपियां जला डाली हैं ।कुछ पांडुलिपियां लामा लोग यहाँ साथ ले आए। 'कल्चरल रिवोल्यूशन' के दौरान चीन ने यही नीति चीन में अपनायी।चीन के लोगों के पास उसकी बर्बरता से निपटने का कोई विकल्प न था।तिब्बत में चीन इस दृष्टि से पूर्ण रूप से सफल न हो सका ।
अग्निशेखर  : सो कैसे  ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : इधर सन् 1981-82 के बाद से सुनने में आया कि तिब्बत में लोग अपने बुद्ध धर्म,अपनी संस्कृति और भाषा की ओर फिर से मुड गए हैं ।
अग्निशेखर : कविता के अलावा गद्य की अन्य विधाओं की क्या स्थिति है  तिब्बती  निर्वासन साहित्य में?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : भले ही कम लिखा जा रहा हो, लेकिन कहानी, आत्मकथा,जीवनी, निबंध खूब लिखे गये हैं ।जमियंग नोरबू ने
नाटक लिखे ,उपन्यास लिखे।आपको आश्चर्य होगा कि साहित्य की अपेक्षा हमारे यहाँ संगीत अभिव्यक्ति का सर्वाधिक सशक्त माध्यम है ।लोक साहित्य भी लोकप्रिय माध्यम बना हुआ है। लोग पारंपरिक गीत गाएँगे, 'बोली' करेंगे,नाटक करेंगे । इसी में ज़्यादातर तिब्बत की स्मृति है।उसका बिछोह है।
अग्निशेखर  : कोई उदाहरण देंगे ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : एक लोकगीत गाया जाता है -"एक दिन गुरूजी ( दलाईलामा) को साथ लेकर हम अपने देश वापस जाएँगे।"
पारंपरिक धुनों में नये भावबोध के प्रार्थना गीत गाये जाते हैं-" गुरुजी तिब्बत आ जाएँ ..."
एक लोकगीत में दलाईलामा और पेंचनलामा (मृत्यु 1988) को नायकत्व दिया गया है ।दलाईलामा  स्वाधीनता की मणि की खोज में तिब्बत छोड़ कर गये हैं और उन्होंने अपने पीछे तिब्बती में  प्रजा की देखभाल के लिए पेंचनलामा को रखा है।यह सब पूर्वजन्म के  कर्मों का खेल है ।इस लोकगीत में दलाईलामा के मुंह से कहलवाया गया है कि मेघों के पीछे ढका हुआ सूर्य अवश्य फिर से निकलेगा ।
अग्निशेखर  : क्या निर्वासन की यह केंद्रीय संवेदना चित्रकारों  के यहाँ भी देखने को मिलती है?आपके यहाँ तो थन्का पेंटिंग की समृद्ध परंपरा है।
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : हमारे अधिकांश चित्रकारों ने इधर जो चित्र बनाए हैं उनमें अक्सर प्रतीक रूप में "पोताला" (दलाईलामा का प्राचीन महल), उनका चित्र और तिब्बत का राष्ट्रीय ध्वज भी बनाया हुआ मिलेगा।अमेरिका में हमारे अनेक चित्रकार सक्रिय हैं ।आस्ट्रेलिया में कर्मा फिन्सुक सृजनरत  हैं।
अग्निशेखर  : तिब्बती समाज में साहित्यिक  पत्र पत्रिकाएँ हैं क्या ?
तेन्ज़िन च़ुन्डू  :बहुत ज़्यादा जानकारी नहीं है । एक ज़माने में 'नोरबलिंगा',  'चिलू मेलों','  'सोशल मिरर' साहित्यिक होते थे। तिब्बत लाइब्रेरी का एक ' तिब्बत जर्नल' निकला करता था। उनका एक साहित्यिक ग्रुप होता था -" अनिमाची " जो पुरस्कार भी देते थे।
अग्निशेखर  : आपको कभी कोई सम्मान मिला है ?
तेन्ज़िन च़ुन्डू  : मेरी कोई अपेक्षा भी नहीं ..चार पुस्तकें  लिखी हैं ।
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Wednesday 9 October 2019

क़िस्सा चयन समिति - सिद्धार्थ शंकर राय

क़िस्सा चयन समिति

किसी विश्वविद्यालय का इंटरव्यू हो रहा था। अमुक आवेदक से विशेषज्ञ ने सवाल पूछा तो आवेदक ने कोई जवाब नहीं दिया। साक्षात्कार समाप्त हुआ तो आवेदकों पर बात होने लगी। चयन समिति के अध्यक्ष ने कहा कि अमुक आवेदक का करिए। इस पर विशेषज्ञों ने कहा कि अमुक आवेदक ने किसी प्रश्न का उत्तर नहीं दिया; कुछ भी नहीं बोला । इस पर अध्यक्ष ने कहा कि अमुक आवेदक लिखता बहुत अच्छा है। अध्यक्ष महोदय के इस तर्क पर अमुक की नियुक्ति हो गयी।
कुछ दिनों के बाद अमुक जी के प्रोमोशन काा इंटरव्यू था। पिछली चयन समिति के एक विशेषज्ञ फिर से चयन समिति में विशेषज्ञ के रूप में आ गये। अमुक जी साक्षात्कार के लिए आये और पूछे गये सवालों पर मौनव्रत की पिछली व्यवस्था बनायी रखी। विशेषज्ञ ने अमुक जी के लेखन के बारे में सवाल किया तो उन्होंने काँख-कूँख, खाँस-खखारकर शांति व्यवस्था बहाल रखी। समिति के अध्यक्ष ने अमुक जी के प्रोमोशन हेतु प्रस्ताव रखा। इस पर दोबारा पधारे विशेषज्ञ ने कहा कि आपने पिछली बार कहा था कि ये बोलते नहीं अपितु लिखते अच्छा हैं; लेकिन इन्होंने ने तो कुछ लिखा भी नहीं है। इस पर अध्यक्षजी ने कहा कि जी! ये सोचते बहुत अच्छा हैं।
इस प्रकार अच्छा सोचने के कारण अमुकजी प्रोमोशन को प्राप्त कर गये।
आप भी अच्छा सोचिए ।

Tuesday 8 October 2019

बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का - कृष्ण मोहन

बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का
अभी हाल में आलोचक-मित्र आशुतोष कुमार ने यह दावा किया था कि "आज की हिंदी की समूची पीढ़ी नामवर सिंह के कुर्ते की जेब से निकली है"।(नवभारतटाइम्स, 21 फरवरी, 2019) अपनी इस मान्यता को उन्होंने अन्यत्र भी एकाधिक बार दुहराया। असल मे यह वक्तव्य महान रूसी कथाकार तुर्गनेव की एक अभिव्यक्ति से प्रेरित है। तुर्गनेव ने कभी कहा था कि 'हमारी पीढ़ी गोगोल के ओवरकोट से निकली है'। संदर्भ गोगोल की प्रसिद्ध कहानी "ओवरकोट" का था, जिसका परवर्ती पीढ़ियों पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा था। इस कथन में गोगोल की कहानी के नाम का उपयोग संश्लिष्ट अर्थ में हुआ है, इसलिए रूपक बन जाता है, और बात सार्थक हो जाती है। लेकिन आशुतोष कुमार के वक्तव्य में इसका अभाव है। अगर कोई कहे कि  'हिंदी की आधुनिक कहानीकारों की पीढ़ियाँ प्रेमचंद के क़फ़न से निकली हैं', और दूसरा कहे कि 'वे उनकी बंडी की जेब से निकली हैं', तो दोनों की बात में जो अंतर होगा, कमोबेश वही अंतर इन दोनो वक्तव्यों में है।
              
बहरहाल, इस प्रसंग में लेखक ने नामवर सिंह की आलोचना के बारे में और क्या कहा है, देखें: "उनकी आलोचना-दृष्टि को समझने के लिए ज्ञानोदय में प्रकाशित उनके प्रसिद्ध लेख 'नंगी और बेलौस आवाज़' को पढ़ने की ज़रूरत है। भारत-चीन युद्ध के समय राष्ट्रवाद का ज्वार उमड़ पड़ा था। बड़े-बड़े प्रगतिशील कवि भी भावनाओं के उस ज्वार में
कृष्ण मोहन
तिनके की तरह उड़ गए जिनमें शमशेर जैसे शिखर कवि भी थे। लेकिन नामवर सिंह ने शमशेर पर भी सवाल उठाने में कोई कोताही नहीं की और बताया कि युद्ध को लेकर 'काशी के एक नितांत नए कवि' धूमिल की कविता कहीं ज़्यादा संयत है। यह साहस वही कर सकते थे।" (नवभारतटाइम्स,वही)
"आलोचना"60 में भी आशुतोष कुमार ने लिखा कि "नामवर सिंह में यह साहस था कि एक अज्ञात कवि धूमिल की कविता को अपने प्रिय शमशेर जैसे स्थापित कवि की कविता से बड़ी बता सकें और उसे रातोरात हिंदी का सितारा बना दें।"
नामवर सिंह के लेख 'नंगी और बेलौस आवाज़' का शमशेर की कविता से सम्बंधित अंश देखें:  " 'बात बोलेगी हम नहीं' के कवि शमशेर से पहले ही से कौन आश्वस्त न होगा कि वे शोर मचाने वालों में नहीं हो सकते! 'मौन' का कवि और शोर! आकर्षण स्वाभाविक है। कविता में भी 'सत्य' और 'सच्चाई' (कवि का प्रिय शब्द) एक बार नहीं अनेक बार। इतने पर भी कोई कमी दिखे तो कविता का अंत देखिए, सत्यमेव जयते, सत्यमेव जयते,सत्यमेव जयते का तीन बार उद्घोष! नाटकीयता की पराकाष्ठा, भाषण कला का उच्चतम आदर्श! लेकिन कविता के अंदर 'तुम मूर्ख हो', 'धन्यवाद पशु', 'आवारा प्रेत', 'मार्क्स को जला दो', 'लेनिन को उड़ा दो' वगैरह-वगैरह। इस प्रकार कवि कुछ कहता है, कविता कुछ! पाठक किसका विश्वास करे? कहते हैं, थोथा चना बाजे घना! कवि को स्वयं बोलना पड़े तो समझिए कि कविता की वाणी को पक्षाघात है! यह कैसा 'रेटरिक' कि भाषा शब्द से अपशब्द के स्तर तक स्खलित हो गई। 'सत्यमेव जयते' की पुष्टि तो बाद में होगी यहाँ तो 'काव्यमेव जयते' में ही सन्देह है!"
इस टिप्पणी की तेरह पंक्तियों में से आठ के अंत में आया विस्मयबोधक चिह्न यह बताता है कि इसका लेखक किसी वजह से अपनी बात पर अतिरिक्त जोर देना चाहता है, लेकिन पूरी कोशिश करके भी संतुष्ट नहीं है। वह पाठकों को अपनी "खोज" से विस्मित कर देना चाहता है, जिसके लिए  ख़ुद विस्मित होने का अभिनय किए जा रहा है। अपनी बात के खोखलेपन का एहसास होने पर ऐसी ही हास्यास्पद हरकत हो जाती है। न केवल इस अंश में बल्कि पूरे लेख में ही नामवर सिंह ने इसी तरह मुद्राओं और भंगिमाओं से काम चलाया है। इस संदर्भ में शमशेर की कविता पर आने से पहले कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह की एक कविता "विषयांतर" को उद्धृत करके वे उस पर जो टिप्पणी करते हैं, उसे देखते चलें:
"बिना किसी हिचक के कह सकता हूँ कि चीनी हमले पर अभी तक जितनी कविताएँ सामने आई हैं उनमें यह सर्वोत्तम है। यदि इसमें कोई कमजोरी है तो हिंदी कविता के वर्तमान समय या 'कन्वेंशन' की, जैसे प्रतीक-पद्धति। परन्तु प्रतीक-बोध से मुक्त होकर भी एक 'विषयांतर' के रूप में कविता का स्वाद लिया जा सकता है----ख़ास तौर से 'हवा का रुख और मौसम का रंग बदल गया' के आगे। कहने की आवश्यकता नहीं कि कविता के सम्पूर्ण भाव या अर्थ को ग्रहण करने के लिए बराबर 'विषयांतर' के सन्दर्भ को ध्यान में रखना होगा। कहाँ अन्य कवियों का भावावेश और कहाँ इस कविता का परिपक्व स्वर: 'यह कुछ नहीं था जो हुआ!' पूरी कविता के लय-विन्यास में स्वर की यह परिपक्वता व्याप्त है। चीनी आक्रमण से स्थिति में जो परिवर्तन आया, उसके बारे में जहाँ दूसरे लोग कयामत की तुरही बजा रहे थे वहाँ मद्धिम स्वर कुमारेन्द्र केवल इतना कहते हैं: 'चाँदनी के धरती पर पड़ने में फ़र्क़ ज़रा पड़ गया' और 'कणिका का ताप सहसा कुछ बढ़ गया!' कौन कह सकता है कि इस 'अंडरस्टेटमेंट' में तार-स्वर से कम शक्ति है---शक्ति और समझ! शीर्षक इसका 'सत्यमेव जयते' भले न हो किन्तु यहाँ सत्य की जीत होती है, वास्तविकता कविता के कथ्य का समर्थन ही नहीं करती, बल्कि इस काव्य-सत्य को पुनः प्राप्त करके हमारी दृष्टि में कहीं अधिक निखर उठती है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सत्य का ढोल न पीटते हुए भी कवियों की नई पीढ़ी आज सत्य के कथन में अधिक समर्थ है। जितनी सीधी-सादी यह भाषा है, उतनी ही सीधी-सादी दृष्टि। इसके मूल में निश्चय ही एक निर्भीक नैतिकता अथवा नैतिक साहस है।"
यही नामवर सिंह की आलोचना की शैली है। कविता की पद्धति की आलोचना कर दी, लेकिन उसके आशयों के बारे में एक शब्द नहीं कहा। कविता की पंक्ति को उद्धृत करके उसे 'परिपक्व स्वर' का उदाहरण बताया और फिर किसी विलक्षण तरकीब से 'पूरी कविता के लय-विन्यास' में उसे व्याप्त बता दिया। लेकिन यह पता नहीं चल पाया कि 'यह कुछ नहीं था जो हुआ' में परिपक्व क्या है, अर्थ, स्वर, या लय। 'हवा का रुख और मौसम का रंग' क्या था जो 'बदल गया'? 'जो हुआ' वो क्या था, और क्या नहीं था? 'चाँदनी के धरती पर पड़ने' का क्या अभिप्राय है, और वह 'ज़रा-सा फ़र्क़' क्या है, जो 'पड़ गया? 'कणिका का ताप' क्या है जो 'सहसा कुछ बढ़ गया'?  कौन सी 'वास्तविकता' किस 'कथ्य' का समर्थन करती है और फिर किस 'काव्य-सत्य' को पुनः प्राप्त करके निखर उठती है, कुछ पता नहीं चलता। और तो और , आलोचक महोदय ने कविता के शीर्षक का भी दो बार इस्तेमाल किया, लेकिन एक बार भी यह पता नहीं लगने दिया कि उनकी नज़र में यह कैसा विषयांतर है, किस विषय से किस दूसरे विषय मे प्रवेश कर रहे हैं। कविता की अपनी व्याख्या हम सभी कर सकते हैं, लेकिन आलोचक जब कविता के नाम पर बड़ी-बड़ी बातें बना रहा हो तो उससे यह न्यूनतम उम्मीद की जाती है कि उसकी बात जिन पंक्तियों पर आधारित है, उसका अर्थ उसने क्या समझा, इसे ज़रूर बताए। "प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो" की यह शैली, दरअसल, नामवर सिंह की प्रतिनिधि शैली है।
बहरहाल, हमें देखना चाहिए कि शमशेर की कविता में ऐसा क्या है जो नामवर सिंह के मुताबिक इस क़दर आपत्तिजनक है। नामवर सिंह ने कविता से जो कुछ शब्द और वाक्य उद्धृत किए हैं, जिनमें अतिरिक्त भावावेश की कल्पना करते हुए उन्होंने उन्हें अपशब्द मान लिया है, उनमें 'मार्क्स को जला दो', 'लेनिन को उड़ा दो' जैसे वाक्यों पर ही यह शक किया जा सकता है। बाक़ी, 'मूर्ख', 'पशु' या 'आवारा प्रेत' कहने में कठोर निर्णय का संकेत भले ही मिलता है, अविचारित अभिव्यक्ति का नहीं।  इसलिए हम यहाँ इन्हीं वाक्यों पर विचार करेंगे ताकि नामवर सिंह की आलोचकीय क्षमताओं का कुछ और परिचय प्राप्त कर सकें। कविता का वह अंश देख लें जिसमें ये पंक्तियाँ आई हैं:
"क्या बुद्ध का नाम हिमालय के पार भी
लोग लेते हैं?
अगर तोपों के मुँह में ज़बान है
           सच्चाई की,
और बम्बार ही भाई-भाई को पहचानेंगे;
तो
तो---मार्क्स को जला दो! लेनिन को उड़ा दो!
माओ के क्यून-ल्यून को
प्रशांत महासागर में डुबा दो!
हिमालय पहाड़ कोई चीन की दीवार तो नहीं
जिसे लाँघ जाओ!"
साहित्य का कोई सामान्य विद्यार्थी भी देख सकता है कि नामवर सिंह ने मार्क्स-लेनिन से सम्बंधित पंक्तियों को इस तरह से प्रस्तुत किया है मानो साम्यवादी चीन पर क्रोधावेश के कारण शमशेर मार्क्स और लेनिन को आग में जलाने या बम से उड़ाने का आह्वान कर रहे हों। किसी समय कम्यून में रहने वाले और अपनी मार्क्सवादी प्रतिबद्धता को प्रकट करने में कभी न हिचकने वाले कवि शमशेर पर उनका यह आरोप कितना घातक रहा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। बहरहाल, अगर सचमुच कोई कवि किसी को "जलाने या उड़ाने" का आह्वान करे तो उस पर अवश्य आपत्ति की जा सकती है। सवाल है, क्या शमशेर वही कह रहे हैं, जो नामवर सिंह हमें इशारों-इशारों में बताना चाहते हैं।
बुद्ध का नाम हिमालय के पार न केवल लिया जाता है, स्वयं चीन में भी कन्फ्यूशियस के बाद वे सम्भवतः सर्वाधिक सम्मानित विचारक हैं। भारत और चीन के बीच प्राचीन काल से स्थापित सांस्कृतिक रिश्ते की यह एक सामान्य अभिव्यक्ति है। बुद्ध के साथ अहिंसा का सिद्धांत भी अनिवार्यतः जुड़ा हुआ है। ऊपर उद्धृत अंतिम पंक्ति से स्पष्ट है कि यह कथन चीनियों के प्रति है, भारतीयों के प्रति नहीं। चीनियों से बाक़ायदा मुख़ातिब होकर कवि उनसे तोपों और बमवर्षक विमानों की बाबत सवाल करता है----अगर वे इन्हीं के माध्यम से इंसानी रिश्तों और सचाई के तक़ाज़ों को समझते हैं तो उन्हें अपने मार्गदर्शक आधुनिक विचारकों मार्क्स और लेनिन को भी मटियामेट कर देना चाहिए, क्योंकि व्यवहार में वो ऐसा पहले ही कर चुके हैं। बुद्ध को तो उन्होंने पहले ही त्याग दिया है।
कहना अनावश्यक है कि शमशेर की इस कविता में अंधराष्ट्रवाद जैसा कुछ भी नहीं था। अगर कुछ था तो छले जाने का एहसास था। जिस मित्रता से बहुत उम्मीद थी, उसके टूटने से पैदा हुई हताशा और आक्रोश, जिसकी अभिव्यक्ति तीखी वैचारिक बहस के साथ आरोप-प्रत्यारोप में हो रही थी। लेकिन किसी को गिराने और किसी को उठाने के अभियान पर निकले आलोचक को यह सब देखने की न तो फ़ुर्सत थी, न ज़रूरत।
बहरहाल, शमशेर की इस कविता के मुकाबले नामवर सिंह ने धूमिल की जिन कविता-पंक्तियों को श्रेयस्कर माना था, उन्हें उन्होंने "स्वयं कवि के मुँह से सुनी" थी:
"मुझमें सारे समूह का भय
चीख़ता है
दिग्विजय! दिग्विजय!!"
इन पंक्तियों पर नामवर सिंह की टिप्पणी भी देख लें, जो बिना कुछ कहे बहुत कुछ कहता हुआ दिखने की उनकी शैली के अनुरूप ही है:
"भय चीख़ता है दिग्विजय! भय और दिग्विजय। क्या इस विडम्बना में कोई वास्तविकता नहीं है? इन तीन पंक्तियों में जितनी बड़ी विडम्बना को व्यक्त कर दिया गया है वह लम्बे-लम्बे दर्जनों वीर-गीतों से कहीं अधिक काव्यात्मक है और उससे भी अधिक काव्यात्मक है नई पीढ़ी के एक दूसरे कवि श्री कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह की इसी विषय से सम्बद्ध कविता 'विषयान्तर'..."
नामवर सिंह ने "कविता की वाणी को पक्षाघात" का ज़िक्र किया था, जिसकी असलियत हम देख चुके हैं। लेकिन उनकी आलोचना की भाषा यहाँ पक्षाघात की वास्तविक शिकार मालूम पड़ती है। किसी भी वाक्य में वास्तविकता का कोई न कोई पहलू अवश्य होता है, इसलिए उनका पहला प्रश्न तब तक निरर्थक है जब तक वे उस वाक्य में किस वास्तविकता के दर्शन कर रहे हैं, नहीं बताते।'विडम्बना' है लेकिन उसकी वस्तुगतता के नाम पर केवल उसके आकार का पता चलता है, यानी वह 'बड़ी' है। बड़ी होते होते वह अचानक 'काव्यात्मक' होने लगती है और इतनी 'काव्यात्मक' हो जाती है कि 'दर्जनों वीर-गीत' पीछे छूट जाते हैं। तभी अचानक एक उससे भी 'अधिक काव्यात्मक' कविता आ जाती है, जिसके बारे में उनके विचारों से हम पहले ही परिचित हो चुके हैं। यही है नामवर सिंह की बहुश्रुत आलोचना का सच। रचना का सामना होने पर वे उस डॉक्टर की तरह व्यवहार करते हैं जिसे चिकित्सा-शास्त्र का ज्ञान तो है, लेकिन मरीज़ की नब्ज़ देखना नहीं आता, और जब वह मर्ज़ की पहचान नहीं कर पाता तो दवाई छोड़कर ओझाई करना शुरू कर देता है।
बहरहाल, धूमिल की ऊपर दी हुई पंक्तियों पर विचार करें तो पता चलता है कि 'दिग्विजय' के आग्रह का औचित्य 'समूह के भय' की प्रकृति पर टिका हुआ है। अगर भय का कारण कवि की दृष्टि में वास्तविक  है, तो दिग्विजय का आग्रह भी अनुचित न होगा। इन पंक्तियों से इस विषय में कोई स्पष्ट सूचना नहीं मिलती, लेकिन अगर पूरा समूह भयभीत है तो सम्भावना इसी बात की अधिक है कि भय का कोई न कोई ठोस कारण है। धूमिल का इस विषय में और क्या सोचना था, इसका पता उनकी एक अन्य कविता 'पटकथा' से चलता है। कुछ पंक्तियाँ देखें:
"मैंने देखा कि मैदानों में
नदियों की जगह
मरे हुए साँपों की केंचुलें बिछी हैं
पेड़---
टूटे हुए रडार की तरह खड़े हैं
दूर-दूर तक
कोई मौसम नहीं है
लोग---
घरों के भीतर नंगे हो गये हैं
और बाहर मुर्दे पड़े हैं
विधवाएँ तमगा लूट रही हैं
सधवाएँ मंगल गा रही हैं
वन महोत्सव से लौटी हुई कार्यप्रणालियाँ
अकाल का लंगर चला रही हैं
जगह-जगह तख़्तियाँ लटक रही हैं---
'यह श्मशान है, यहाँ की तस्वीर लेना मना है'।"
फ़िलहाल, 'विधवाएँ तमगा लूट रही हैं' जैसी उक्तियों में निहित भावभूमि को किसी अन्य मौक़े पर विचार के लिए छोड़कर हम यहाँ इन पंक्तियों में व्याप्त देश की दुर्दशा के चित्र पर ध्यान केंद्रित करते हैं। 'समूह का भय' इसी परिस्थिति की देन है, क्योंकि दोनों का सन्दर्भ भारत-चीन युद्ध है, जिसका पता कुछ ही पंक्तियों बाद के अंश से चलता है:
"मैंने अचरज से देखा कि दुनिया का
सबसे बड़ा बौद्ध-मठ
बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है
अखबार के मटमैले हाशिये पर
लेटे हुए, एक तटस्थ और कोढ़ी देवता का
शांतिवाद, नाम है"
बुद्ध की ओर संकेत, चीन के संदर्भ में, शमशेर ने भी किया था, लेकिन पंचशील, शांति और अहिंसा जैसी अवधारणाओं का प्रेरक होने के कारण धूमिल को वे "कोढ़ी देवता" मालूम पड़ते हैं। पहचान के लिए 'लेटे हुए' कहकर वे उनके अंतिम समय की कुशीनगर स्थित लेटी हुई मुद्रा को भी याद करते हैं। बौद्ध मठ को 'बारूद का गोदाम' बताकर उन्होंने अपने आशय को और स्पष्ट किया है। कविता में इससे पहले तत्कालीन भारतीय नेतृत्व की छवि का अंकन करते हुए उन्होंने अपने ख़ास अंदाज़ में 'पंचशील' के सिद्धांत को ख़ारिज़ किया था:
"मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे
उसी लोकनायक को
बार-बार चुनता रहा
जिसके पास हर शंका और
हर सवाल का
एक ही जवाब था
यानी कि कोट के बटन-होल में
महकता हुआ एक फूल
गुलाब का।
वह हमें विश्वशांति और पंचशील के सूत्र
समझाता रहा।"
कहने की ज़रूरत नहीं कि धूमिल का विचार यहाँ अंधराष्ट्रवाद से आगे बढ़कर धर्म-आधारित वैमनस्य की हद को छू रहा है। यही उनकी सुसंगत वैचारिक स्थिति थी। शायद इसी वजह से '63 में उनसे सुनी कुछ पंक्तियों के आधार पर उन्हें अग्रणी कवि के रूप में प्रस्तुत कर चुके नामवर सिंह की देखरेख में जब उनका पहला संग्रह 'संसद से सड़क तक' '72 में छपा (भारत यायावर, 'नामवर होने का अर्थ', पेज 375) तो उसमें यह कविता नहीं थी। नामवर सिंह इसकी जो व्याख्या कर चुके थे, 'पटकथा' के साथ छपने पर उसकी निरर्थकता उजागर हो जाती।
एक बात और। एक जमाना था जब किसी को 'रातोरात सितारा' बनाने का कारनामा उपेक्षा के योग्य समझा जाता था। अब शायद इसे साहसिकता की मिसाल माना जाता है। दुनिया परिवर्तनशील है। लेकिन हर बदलाव के बावजूद कुछ चीज़ें कभी नहीं बदलतीं। जोश मलीहाबादी ने ऐसी ही किसी स्थिति पर क्या ख़ूब चुटकी ली है:
"बेहोश होके जल्द तुझे होश आ गया
मैं बदनसीब होश में आया नहीं हनोज़"

कृष्ण मोहन
प्रोफेसर
हिन्दी विभाग
बीएचयू वाराणसी

Wednesday 25 September 2019

अरमान आनंद की लघुकथा एन एच 31

एन एच 31 (लघुकथा)

रमेसर आज जल्दी उठ गया। रोज से लगभग दो घण्टे पहले । आसमान पर नजर डाली। घनघोर बादलों  के कारण समय का ठीक-ठीक अंदाजा नही लगा सका फिर भी उसने सोचा तीन साढ़े तीन तो बज ही रहे होंगे। सोने की कोशिश की लेकिन दुबारा नींद नही आई.. बगल में देखा उसका बीस साल का पोता पवन गहरी नींद में सो रहा था।  रमेसर बेगूसराय में एन एच 31 के ठीक किनारे चाय की दुकान चलाता था। दिन में दुकान पर उसके साथ उसका बेटा भी आ जाता लेकिन रात में वह घर चला जाता। रामेश्वर की बीबी मर चुकी थी। अब वह घर जाकर करता भी क्या? एक कमरे वाले घर मे उसका बेटा बहु और बच्चे रहते हैं । बच्चे क्या एक पोती और एक पोता। पोता बड़ा हुआ तो साथ ही आकर सोने लगा।
    लाख कोशिशों के बाद भी जब रमेसर को दुबारा नींद नही आई तो वह घरेलू चिंताओं में खो गया। पोती पूजा की शादी करनी है सोलह की हो गयी है। कहाँ से आएगा पैसा?बहु सबीतरी और पोती पूजा घर घर बर्तन माँजती हैं और यह चाय की दुकान है तो जीवन जैसे तैसे चल जाता है।बेटा तो बौधा ही है। किसी काम का नही इसलिए चाय की दुकान पर साथ बैठा लिया ।एक ये पोता पवन है उसका दाख़िला तो उसने सरकारी स्कूल में कराया था लेकिन पढ़ाई उसने छोड़ दी । काम काज कुछ करता नही दिन रात कट्टा लेकर घूमता रहता है। सुना है बेगूसराय में बड़े पुलिस अधिकारी आए हैं बेगूसराय को अपराधमुक्त बनाने का सरकारी ऑर्डर जारी हुआ है। कहीं बिसनमा के जैसे इसका भी इनकाउंटर न हो जाये । लाख समझाया मानता ही नही।
       बिसनमा रामेश्वर के पोते पवन का ही दोस्त था ।छह महीने पहले बिसनमा ने लछमी पेट्रोल पंप पर डकैती डाली । पेट्रोल पंप के मालिक की सरकार में पहुंच थी । दबाव डलवा कर बिसनमा का सीधा इनकाउंटर करवा दिया। दीरा जा कर पुलिस उठाई थी उसको। ठीक ही हुआ पुलिस ने मार दिया। पूजा को जब तब ले के अलका सिनेमा में घुसा रहता था। रमेसर ने लम्बी सांस ली।
      रमेसर के बेटे का नाम ढिबरी था। वह बचपन मे वह ढिबरी को ढूंढता रहता और जब मिल जाये तो उसका ढक्कन खोल बाती से किरोसिन तेल चाटता रहता। रमेसर ने भाई ने उसका नाम ढिबरी रख दिया। रमेसर सोचने लगा कि बैल बुद्धि ढिबरी से तो पूजा की शादी नही सम्भल पाएगी । पूजा की शादी उसे अपने जीते जी करनी होगी कहाँ से आएगा पैसा ? पिछला कर्जा बाकी है । कम से कम पचास बाराती तो आएंगे ही फिर दूल्हा उसका बाप माई सबका कपड़ा-लत्ता । सोना न सही चांदी का ही बिछिया अंगूठी भी बनेगा। बहुत खर्चा है । सोचते सोचते रमेसर ने करवट बदली।अचानक  खटर पटर की आवाज आई । रमेसर ने गर्दन उठा कर देखा एक मोटा चूहा छप्पर से बर्तन पर कूदा और अंधेरे में खो गया।
    आज तो रामजीवन सिंह भी आएगा बोला है कम से कम पांच हजार रुपया देना ही होगा। कर्जा तो जान का जपाल ही हो जाता है । पवन को डेंगू न होता तो यह कर्जा नही होता। कमबख्त एक मच्छर सारी जमापूंजी खा गया। चलो यह पैसा देकर आज लगभग बरी हो जाना है । थोड़ा बहुत बचेगा। जल्दी ही चुकता कर देंगे।  दुपहरी में सौ रुपया मोफतिया को भी देना है चाय दुकान लगाने का रंगदारी । पवनमा क्या रंगदार बनता है। मोफतिया है असली रंगदार ।आ जाता है तो सिपाही उठ के खड़ा हो जाता है । यामाहा मोटरसाइकिल उसकी हरदम स्टार्ट ही रहती है । कब जाने दुष्मनमा उस पर हमला बोल दे। तभी रमेसर के कान के पास एक मच्छर भनभनाने लगा। रमेसर ने चपत लगाई। पता नही मच्छर मरा या नही आवाज बन्द हो गयी।
        मच्छर से रमेसर का ध्यान टूटा तो उसने देखा दिन साफ हो रहा है पांच बजने वाले होंगे । रमेसर उठ बैठा।  एन एच इकत्तीस पर लगातार ट्रक गुजर रहे थे। सुबह के शांत शहर के बीच जाती इस सड़क पर ट्रकों का गुजरना सांय सांय की ध्वनि उत्त्पन्न कर रहा था। रमेसर ने सोचा घर जा कर नहा धो कर आ जाऊं। उसने पवन को उठा कर कहा घर जा रहा हूँ लौटकर आता हूँ तब तक झाड़ू दे कर और चूल्हा जला कर रखना। दुकान के पीछे से उसने सायकिल निकाली  और एन एक 31 पर बढ़ चला ।
   रमेसर सायकिल पर धीरे धीरे  पैडल मारता हुआ घर की ओर बढ़ चला । कपड़ों के नाम पर एक मैली धोती और फटा हुआ बनियान पहने  हुए था । उसका शरीर दुबला पतला और थोड़ा झुका हुआ। लग रहा था जैसे संसार की इस आपाधापी में वह जीवन को अभिशाप की तरह जीताऔर गरीबी से लड़ता हुआ जा रहा हो । बारिश के मौसम से सड़कें भी भीगी हुई थीं। अपने मुहल्ले की गली के पास वह ज्यों मुड़ा एक तेज रफ्तार ट्रक आया और रमेसर को कुचलता हुआ निकल गया।

अरमान आनंद

#लघुकथा #shortstory #story #hindistory

Tuesday 24 September 2019

सुशांत कुमार शर्मा की कविता दीक्षा

राधारमण स्वामी मुश्किल में पड़ गए थे
जब कि किसी किशोर वयस लड़की
गुलाबकली ने उठा लिया था
गण्डकी के तट पर रखा हुआ
उनका वल्कल वस्त्र
और प्रतीक्षा करने लगी थी
उनके स्नान के पूर्ण होने का ।
राधारमण स्वामी नग्न स्नान करते थे
यह गुलाबकली ने बहुत बचपन में ही
सुन रखा था और चाहती थी एक बार
स्वामी राधारमण को नंगा देखना ।
इसिलिए जबकि वह जानती थी कि
वह विशेस समय जब
नहाते थे राधारमण स्वामी
कोई नहीं जाता था उस घाट की ओर ।
किशोरवयस गुलाबकली ने
स्वयं को चौदह वसंत रोके रखा
लेकिन जब खुद वसंत हुई
तो नहीं रुक पाई और पहुँच गई
उसी घाट पर उसी समय
क्योंकि विवाह से पूर्व
वह देखना चाहती थी किसी
नंगे पुरुष को
और जानती थी कि राधारमण स्वामी
नंगा नहाते हैं ।
ध्यान आते ही कि कोई तट पर है
स्वामी ने दिखाया अपना रौद्र रूप
और शाप दे देने तक की धमकी दी
पर गुलाबकली ने वस्त्र बाँध दिए
पेड़ की डाली पर
कहा नंगे बाहर आओ ।
राधारमण स्वामी बहुत गिड़गिड़ाए
अंततः बाहर आये
गुलाबकली ने देखा एक पूर्ण पुरुष
और उसी दिन
स्वामी को भी एहसास हुआ
अपने पुरुष होने का
गुलाबकली उनसे दीक्षित होकर
सन्यासिन बन गई
राधारमण स्वामी ने भोग जाना
गुलाबकली ने बस इतना जाना कि
सन्यास अपने नग्न सौंदर्य को
खर्च न करने का नाम है ।

@सुशांत

Friday 20 September 2019

पान पर शेर

पान पर शेर

प्रेम में आह वो पान का कुचला जाना
लाली होठ पर आई तो मगर कुर्बान होकर

अरमान

Monday 16 September 2019

रंडी : भाषा और परिभाषा- आशीष आज़ाद

रंडी

―कुछ साल पहले की बात है मारिया शारापोवा को “रंडी” सिर्फ़ इसलिए कहा गया क्योंकि वह सचिन तेंदुलकर को नहीं जानती थीं! 
         सोना महापात्रा “रंडी” हो गयीं क्योंकि वो सलमान ख़ान की रिहाई सही नहीं मानती थीं!
        सानिया मिर्ज़ा से लेकर करीना कपूर तक हर वो सेलेब्रिटी “रंडी” है जिसके प्रेम ने मुल्क और मज़हब की दकियानूसी दीवारों को लांघा!
         वह चौदह साल की लड़की भी उस दिन आपके लिए “रंडी” हो जाती है जिस दिन वह आपका प्रपोज़ल ठुकरा देती है और अगर कोई लड़की आपके प्रेम जाल में फंस गयी तो वह भी ब्रेक-अप के बाद “रंडी” हो जाती है!
          जीन्स पहनने वाली लड़की से लेकर साड़ी पहनने वाली महिला तक सबका चरित्र आपने सिर्फ़ “रंडी” शब्द से परिभाषित किया है!
          बोल्ड और सोशल साइट पर लिखने वाली महिलाओं को अपना विरोध या गुस्सा दिखाने के लिए कुछ लोग फ़ेसबुक पर इन (रंडी वैश्या छिनाल) शब्द को सरेआम लिख/बोल रहे हैं। परंतु.....

             रंडी शब्द ना तो आपका विरोध दिखाता है, ना ही आपका गुस्सा। ये सिर्फ़ एक चीज़ दिखाता है, वह है आपकी घटिया मानसिकता और नामर्दानगी।
     मगर क्यों?  क्योंकि कहीं ना कहीं आपको लगता है कि औरतें आपसे कमतर हैं, और जब यही औरतें आपको चुनौती देती हैं तब आप बौखला जाते हैं और जब आप किसी औरत से हार जाते हैं तब आप बौखलाहट में अपना गुस्सा या विरोध दिखाने के लिए औरत को गाली देते हैं, उसे “रंडी” कहते हैं ! मगर “रंडी” शब्द ना तो आपका विरोध दिखाता है ना ही आपका गुस्सा, ये सिर्फ़ एक चीज़ दिखाता है, वह है आपकी “घटिया मानसिकता"

                रंडी-वेश्या कहकर हमें अपमानित करने की लालसा रखने वाले ऐ कमअक्लों, एक पेशे को गाली बना देने की तुम्हारी फूहड़ कोशिश से तो हम पर कोई गाज़ गिरी नहीं। पर अपनी चिल्ला-पों और पोथी-लिखाई से छानकर क्या तुमने इतनी सदियों में कोई शब्द, कोई नाम ढूंढ़ निकाला ?

                कोई इस समाज को समझा सके कि पुरुष का पौरुष संयम और सदाचार से बढ़ता है। तुम हमें रंडी, वेश्या कहते हो, हमारा बलात्कार करते हो, हमारे शरीर को गंदी निगाहों से देखते हो, हमें पेट में ही मार देते हो, सरेआम हमारे कपड़े फाड़ते।

                  कभी देखा है किसी रंडी को तुम्हारे घर पर कुंडी खड़का कर स्नेहिल निमंत्रण देते हुए ?? नहीं न !!! ….वो तुम नीच नामर्द ही होते हो, जो उस रंडी के दरबार में स्वर्ग तलाशने जाते हो

आशीष  आज़ाद
(पूर्व छात्र बीएचयू)

Tuesday 6 August 2019

सिद्धार्थ की कविता : रुके हुए फैसले

रुके  हुये फैसले

रुके  हुये फैसले लेने पड़ते है
जब दूसरा कोई रास्ता नहीं बचता
सुरंग के अंधेरे में कोई रोशनी जब दिखती है
मन खिलता है
पर डर भी लगता है
आने वाली ट्रेन से
जिसका सायरन अब तक सुनाई नहीं दे रहा

रुके हुये फैसले लेने पड़ते है
जब मारे गये लोगों की आत्मा
देवदार की संख्या पार कर जाती है
चिनार जब रक्तिम हो जाते है
और लाल बर्फ़  जब ठंडी पड़ जाती है
मर चुकी देह सी
तब रुके हुये फैसले लेने ही पड़ते है

रुके हुये फैसले लेने भी चाहिए
जब क्रांति की खाल में छिपा आदमी
हिंसक बाघ बन ताक में है कुछ और हत्याओ के
आखिर किसी झील को लाल सागर बनते देखना हराम है

रुके हुये फैसले लेने ही चाहिए
लोगों द्वारा, लोगों के लिये
जिसमें शामिल हो वो लोग भी
जो आज नहीं हो पाये है

पर रुके हुये फैसले लेने के बाद
कल्पना करनी चाहिये
किसी पांच साल के छोटे यावर की
जिसे पसंद है फंतासी कहानिया उस सड़क की
जिस पर वह दौड़ सकता है निधड़क
बगल वाले अंकल की बाहों से झाकती बन्दूको के भय के बिना
हम कल्पना करनी चाहिये
कि राजू को सुनाने के लिये कहानी
सूबेदार गाव जिन्दा वापस लौट आया है

हमें राजू और यावर की दोस्ती की कल्पना करनी ही चाहिये
जमीन और जोरू की नंगी विभत्स कल्पनाये छोड़कर

और फिर एक आखिरी फैसला लेना चाहिये
इतिहास- भूलने का
जादुई भविष्य के लिये

सिद्धार्थ

विथ लव to प्राइम मिनीस्टर मोदी एंड पीपुल ऑफ़ कश्मीर

Wednesday 31 July 2019

ख़ुद के आधे-अधूरे नोट्स : व्योमेश शुक्ल

ख़ुद के आधे-अधूरे नोट्स : व्योमेश शुक्ल

है अमानिशा उगलता गगन घन अंधकार
खो रहा दिशा का ज्ञान स्तब्ध है पवन चार
(निराला, ‘राम की शक्तिपूजा’)

ऐसे क्षण अंधकार घन में जैसे विद्युत
जागी पृथ्वी तनया कुमारिका छवि अच्युत
(निराला, ‘राम की शक्तिपूजा’)

एक

स्मृति निराशा का कर्तव्य है. लेकिन इस बीच वर्तमान को इतना प्रबल, अपराजेय और शाश्वत मान लिया गया है कि कोई भी हार मानने को तैयार नहीं है और जब तक आप हार नहीं मानेंगे, स्मृति का काम शुरू नहीं होगा. यों, आजकल, स्मृति क्षीण है और चाहे-अनचाहे हमलोग उसका पटाक्षेप कर देने पर आमादा हैं.

दो

इस धारणा को साक्ष्यों से सिद्ध किया जा सकता है. मिसाल के लिए फ़ेसबुक प्रायः रोज़ हमें याद दिलाता रहता है कि आज – इसी तारीख़ से – ठीक एक-दो-तीन-चार या पाँच साल पहले हमने यहाँ क्या कहा-सुना था, कहाँ गए थे या कौन सी तस्वीर शाया की थी. उस परिघटना को वह स्मृति की तरह पेश करता है और हमें, एक बार फिर, उसे अपने लोगों के साथ साझा करने का अवसर देता है. हममें से ज्यदातर लोग कई बार उस बिलकुल क़रीब के अतीत को स्मृति की तरह स्वीकार करते हैं और ‘वे दिन’ वाले अंदाज़ में शेयर करते हैं. हमारे मित्रों की लाइक्स और आशंसा भरी प्रतिक्रियाओं से यह निर्धारित भी होता जाता है कि वह जो कुछ भी है, स्मृति ही है.

तीन

स्मृति की उम्र इतनी कम नहीं हुआ करती. वह बहुत मज़बूत धातु है. मनुष्य नामक शक्तिशाली चीज़ जब इस धातु से टकराती है तो उससे निकलने वाली आवाज़ शताब्दियों के आरपार लहराती हुई जाती है. मुक्तिबोध के शब्दों में : ‘इतिहास की पलक एकबार उठती और गिरती है कि सौ साल बीत जाते हैं.

चार

एक ओर इतिहास-बोध का नुक़सान और दूसरी तरफ़ वर्तमान के ही हीनतर और सद्यःव्यतीत संस्करण को स्मृति मान लेने का भोथरा परसेप्शन – क्या ये दो असंबद्ध बातें हैं ? जो लोग इतिहास और स्मृति को ध्रुवांतों पर रखकर सोचने के अभ्यस्त हैं, उन्हें इस सचाई को भी सोचना होगा. आख़िर यथार्थ का अनुभव क्या है ? वह या तो स्मृति है या कल्पना. यानी स्मृति का अवमूल्यन यथार्थ का निरादर है.

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