Monday 28 September 2020

हर्ष भारद्वाज की कविता माओं की बीमारियों का संक्षिप्त इतिहास

ब्रेस्ट कैंसर पर हर्ष भारद्वाज की विलक्षण कविता। इस कविता में जहाँ केंसर की भयावहता स्पष्ट हुई है वहीं माँ के माध्यम से दुनिया भर स्त्रियों की पीड़ा और दुर्गति की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है।

माओं की बीमारियों का संक्षिप्त इतिहास

***

अपने देह के व्याकरण को समझे बगैर
हमारी माँएं ब्याह दी गईं;
जवानी की दहलीज के इस पार होते हुए भी
वो अपने ही भार से थरथराती खड़ी रहीं
हमें अपने कोख में लिए;
उसने हमारे लिए घोला
अपने स्तन में मिश्री।

लेकिन हम अपनी माओं के उतने कभी नहीं हुए
जितनी वो हमारी हुई।
जिन स्तनों ने हमें
उम्र भर की मजबूती दी
हम उसका नाम लेने भर से लजाने लगे
और उनमें पनप रहे किसी घाव से बेखबर
माँएं सोती रही ईश्वर के भरोसे।

हम अपनी माओं के उतने कभी नहीं हुए
जितनी वो हमारी हुईं
हम पढ़ लिख कर बड़े हुए
लेकिन विज्ञान के अंधेरे में
माँ सिर्फ बीमार हुई। 
उसके स्तनों की गिठलियाँ खून उगलती रही
और हमने उसपे बात करना भी
शर्मनाक समझा।

ये माँएं जो भागी थी
हमें हिरोशिमा से लेकर,
लाइबेरिया के आदमखोरों से बचाकर,
अमेरिकी बमों के फटने से पहले ही वे
हमें फिलिस्तीन से लेकर भागीं
और जब उन्हें मालूम हुआ
कि माओं का नहीं होता कोई देश
तो वो समस्त प्रकृति हो गयी।

समस्त प्रकृति हो गई वो
और हम समझ भी न पाए,
लड़ते रहे युद्ध, करते रहे धुआं
उसकी देह पर
और हम खुद हो गए उसका कैंसर।

प्रकृति 
तब भी हमारी माँ ही रही।

लेकिन हमने कभी अपनी माओं को
मौका नहीं दिया
अपने देह के व्याकरण को समझने का
और फिर किसी दिन वो 
लड़खड़ा कर गिर पड़ी
अपने सीने के दर्द से ऐसे
मानों जैसे 
जीवन की सभी संभावनाएं
किसी पहाड़ सी टूट गई हो
या हो गई
जलमग्न!

हर्ष भारद्वाज

Tuesday 1 September 2020

नंदकिशोर नवल:आधुनिक कविता के आलोचक :गोपेश्वर सिंह

आज हमारे अध्यापक साथी नंदकिशोर नवल का जन्मदिन है. यह पहला जन्मदिन   है , जब वे हमारे बीच नहीं है. जब मैं पटना में था तो आज के दिन नवल जी के घर  बढ़िया भोजन मिलता था और हम देर तक गपशप करते थे. ...उनके निधनोपरांत 'आजकल' ने अपना इस महीने का अंक नवल जी पर केंद्रित किया है. इस अंक में मेरा भी एक लेख है जिसके जरिए  मैंने आलोचक नंदकिशोर नवल को वस्तुपरक ढंग से समझने की यथासंभव  कोशिश की है. उस लेख के साथ नवल जी की स्मृति को प्रणाम .                  

नंदकिशोर नवल:आधुनिक कविता के आलोचक :गोपेश्वर सिंह


लिखने के लिए नंदकिशोर नवल ने कई विधाओं में लिखा है, लेकिन वे मूलतः कविता के आलोचक हैं. कविता में भी छायावाद और उसके बाद के काव्य परिदृश्य में उनकी विशेष रूचि थी. उन्होंने निराला की कविता पर शोध -कार्य किया था. निराला की कविता का प्रभाव उनके ऊपर ऐसा पड़ा कि वह उनके रूचि- निर्माण का वह मुख्य आधार बन गया. वैसे उनके अध्ययन का दायरा बहुत व्यापक था. वे संस्कृत भाषा के कालिदास से लेकर अपभ्रंश के कवियों पर बात कर सकते थे. वे सरहपाद, विद्यापति, तुलसीदास, बिहारी, निराला से लेकर आधुनिक काल तक के
कवियों के काव्य-वैशिष्ट्य पर समान रूप से लिखते- बोलते थे. वे यदि निराला के काव्य की अर्थ छवियों को खोलते थे तो संजय कुंदन, राकेश रंजन आदि युवा कवियों के काव्य-वैशिष्ट्य को भी . हिंदी कविता पर इतने विस्तार से लिखने वाले और बातचीत करनेवाले आलोचक के रूप में नामवर सिंह के बाद सहज ही नंदकिशोर नवल का नाम याद आता है. 
 नवल जी ने सूरदास, तुलसीदास, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, अज्ञेय, नागार्जुन आदि पर स्वतंत्र पुस्तकें लिखी हैं और उनकी कविता का नया मूल्यांकन प्रस्तुत करने की कोशिश की है. उन्होंने रघुवीर सहाय, कुँवर नारायण, राजकमल चौधरी, केदारनाथ सिंह आदि पर भी लम्बे-लम्बे लेख लिखे हैं. उन्होंने ‘आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास’ लिखा है और अपनी पसंद के कवियों का मूल्यांकन किया है. ‘हिंदी कविता अभी, बिलकुल अभी’ जैसी पुस्तक भी लिखी है और आठवें दशक के प्रमुख कवियों का मूल्यांकन किया है. इसके अतिरिक्त कविता और कवियों पर लिखे हुए निबंधों की उनकी अनेक किताबें हैं. उन्होंने ‘निराला रचनावली’ का तो संपादन किया ही है, कुछ और पुस्तकों का भी संपादन किया है. कुल मिलाकर यह कि नंदकिशोर नवल ने कविता पर प्रचुर मात्रा में  लेखन कार्य किया है, लेकिन आलोचक के रूप में उनकी कीर्ति का मूल आधार ‘मुक्तिबोध: ज्ञान और संवेदना’ तथा ‘निराला: कृति से साक्षात्कार’ नामक दो पुस्तकें हैं. अन्य कवियों पर उनके लिखे हुए की कोई भले अनदेखी कर जाए, लेकिन जिसकी भी रूचि निराला और मुक्तिबोध में है, उसे नवल जी की आलोचना से गुजरना ही होगा. जिस तैयारी के साथ नवल जी ने मुक्तिबोध के कवि- मन में प्रवेश किया है  और उनके काव्य- मर्म को उद्घाटित किया है, वह अपूर्व है. लिखने के लिए मुक्तिबोध पर उनके पूर्व रामविलास शर्मा, नामवर सिंह आदि ने भी लिखा है. लेकिन नवल जी ने जितने विस्तार और गहराई से मुक्तिबोध के मनस्विन रूप की खोज की है, वह मुक्तिबोध को नए रूप में हमारे सामने रखता  है. इसी तरह निराला पर रामविलास शर्मा का प्रबंधात्मक लेखन है. अन्य लोगों की लिखी हुई पुस्तकें भी हैं. लेकिन ‘निराला: कृति से साक्षात्कार’ के जरिए नवल जी ने निराला की कविताओं की जो पाठ आधारित आलोचना लिखी है, वह निराला संबंधी समझ को बदलनेवाली और विकसित करनेवाली है. 
 नवल जी का मानना है कि ‘कुछ कवि भावना के साथ ज्ञान को भी महत्त्व देते हैं, कुछ जितना भावना को महत्त्व देते हैं, उतना ज्ञान को नहीं.’ इन दोनों तरह के कवियों के उदाहरण हिंदी कविता के इतिहास में मिल जाएँगे. लेकिन नवल जी की नजर में मुक्तिबोध ऐसे कवि थे जिनकी कविता में ज्ञान और भावना दोनों समान रूप से मौजूद हैं.  नवल जी का कहना है- ‘मुक्तिबोध कविता में संवेदना के साथ ज्ञान को अनिवार्य मानते थे. इसी कारण उन्होंने कवि द्वारा अपने भीतर विश्व-दृष्टि विकसित करने पर बहुत बल दिया है.’ नवल जी का मानना है कि मुक्तिबोध यथार्थवादी कविता के पक्षधर थे, लेकिन उन्होंने आत्मपरकता का निशेष नहीं किया है. नवल जी के अनुसार मुक्तिबोध ‘व्यक्तिबद्ध पीड़ाओं से हटकर’ रची गई कविताओं को महत्त्व देनेवाले कवि थे. मुक्तिबोध जीवन के साथ कविता का अनिवार्य संबंध मानते थे. लेकिन कविता को जीवन का इतिवृत बनाने के पक्ष में वे नहीं थे. नवल जी के अनुसार मुक्तिबोध का लेखन प्रगतिशील चेतना का है, लेकिन उसमें परंपरागत प्रगतिशीलता का आधार नहीं खोजा जा सकता. नवल जी के अनुसार मुक्तिबोध बहुत ही गहरे अर्थों में राजनीतिक कवि थे. लेकिन उनकी राजनीति रोजमर्रा की राजनीति नहीं थी. उनकी राजनीति के मूल में विश्व के शोषित-पीड़ित मनुष्य की मुक्ति का प्रश्न अंतर्निहित है. उनकी दृष्टि व्यापक है और विश्व मानवता से प्रतिबद्ध है. इस कारण मुक्तिबोध की कविता में ‘महाकाव्यात्मक औदात्य और ओजस्विता’ संभव हो सकी है और वे हिंदी कविता का नए रूप में विस्तार करते हैं. 
 रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘नई कविता और अस्तित्ववाद’ में मुक्तिबोध की बहुत ही ‘आत्मपरक’ आलोचना की थी. रामविलास जी ने मुक्तिबोध को न सिर्फ अस्तित्ववाद से प्रभावित माना था, बल्कि उन्हें सिजोफ्रेनिक भी करार दिया था. नवल जी ने मुक्तिबोध का मूल्यांकन करते हुए रामविलास शर्मा का न सिर्फ खंडन किया, बल्कि यह भी साबित किया कि मुक्तिबोध अस्तित्ववाद के विरोधी थे. इसी के साथ उनकी कविता की विशेषता बताते हुए नवल जी ने लिखा है: “मुक्तिबोध की कविता जिस तरह अज्ञेय की कविता की तरह ‘जड़ाऊ’ नहीं, उसी तरह वह नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन की कविता की तरह सरल भी नहीं. इसका एक मुख्य कारण यह है कि वह प्रायः आकार में लम्बी ही नहीं, प्रकार में जटिल भी है. इस जटिलता का कारण वह गहन वैचारिकता है, जो ‘प्रसाद’ और ‘निराला’ के बाद सिर्फ मुक्तिबोध में ही दिखलाई पड़ती है, न अज्ञेय में, न किसी अन्य प्रतिष्ठित प्रगतिशील कवि में ही.” 
 मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ की अनेक व्याख्याएँ हुई हैं. रामविलास शर्मा ने इसे कवि के विभाजित व्यक्तित्व का परिणाम माना है. वे ‘अँधेरे में’ को असफल कविता मानते हैं. नामवर सिंह ने ‘अँधेरे में’ को ‘व्यक्ति अस्मिता की खोज’ कहा है. लेकिन नवल जी ने इस कविता की बिल्कुल अलग व्याख्या की है. इस कविता की रचना के पीछे वे फासीवाद की मुख्य भूमिका मानते हैं. यह व्याख्या पिछली सभी व्याख्याओं से अलग है और मुक्तिबोध की इस महान कविता को सही परिप्रेक्ष्य में रखने का काम करती है. आगे चलकर नामवर सिंह ने भी नवल जी की व्याख्या को सही माना और इसकी पृष्ठभूमि में फासीवाद की आशंका से इन्कार नहीं किया. 
 मुक्तिबोध के प्रसंग में आत्म-संघर्ष की बहुत चर्चा होती है. उनके आत्म-संघर्ष की तरह-तरह से व्याख्याएँ हुई हैं. उनके आत्म-संघर्ष वाले पक्ष पर विचार करते हुए नवल जी ने लिखा है: “मुक्तिबोध को आत्म-संघर्ष का कवि माना जाता है. वे मध्यवर्गीय संस्कारों और सीमाओं से मुक्त होकर सर्वहारा वर्ग से तादात्म होना चाहते थे, लेकिन चूँकि यह काम आसान नहीं था, इसलिए वे आत्म-संघर्ष में गिरफ्तार थे. एक तरफ़ अपने व्यक्तित्त्व का मोह और दूसरी तरफ़ उसके विसर्जन की आकांक्षा- इसने उन्हें विकट अंतर्द्वंद्व में डाल रखा था.... हमारा निष्कर्ष यह है कि मुक्तिबोध का आत्म-संघर्ष उनका अपना संघर्ष होते हुए भी पूरे सचेत प्रगतिशील मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी समुदाय का संघर्ष है और उसका संघर्ष होते हुए भी वह उनका अपना संघर्ष हैं. यह संघर्ष वस्तुतः वर्ग संघर्ष की छाया है, जिसकी द्वंद्वात्मकता उनके यथार्थबोध के साथ बढ़ती गई है.” मुक्तिबोध के भीतर मौजूद इस द्वंद्व की चर्चा नवल जी ने ठीक ही की है, लेकिन उनके यहाँ ‘अन्तःकरण’ की बात भी बार- बार आती है, उसकी अनदेखी अन्य लोगों की तरह नवल जी ने भी की है. 
 मुक्तिबोध की कविता में प्रगीतात्मक तत्त्व की नवल जी ने चर्चा की है. यह उनकी कविता की विशेषता है. नवल जी के अनुसार: “उनमें वस्तुपरकता और आत्मपरकता का जटिल संयोग देखने को मिलता है, यह तथ्य है. इस कारण उन्होंने न केवल लम्बी कविताओं की रचना की है, बल्कि छोटी कविताएँ भी अच्छी संख्या में लिखी हैं और उनकी लम्बी कविताओं में भी प्रगीतात्मक संवेदना के खंड पिरोए हुए हैं.” प्रगीतात्मकता के साथ विश्व-दृष्टि मुक्तिबोध की कविता का वह पक्ष है, जिस कारण उनकी कविता का विचार फलक बहुत व्यापक दिखाई देता है. मुक्तिबोध की विश्व-दृष्टि पर विचार करते हुए नवल जी ने लिखा है: “मुक्तिबोध की विश्व-दृष्टि असंदिग्ध रूप से मार्क्सवादी थी, लेकिन यह मार्क्सवाद उनके लिए जितना पराया था, उतना ही वह उनका अपना था. वह उनके लिए कोई जड़ सूत्र या रूढ़ विचार प्रणाली तो कतई नहीं था, जो व्यक्ति की अनुभूति, कल्पना और चिंतन शक्ति को मुक्त करने की जगह परतंत्र बना देती है.” इसी के साथ यह कहना जरुरी है कि मार्क्सवादी विश्व-दृष्टि के बावजूद मुक्तिबोध कम्युनिस्ट रेजिमेंटेशन के खिलाफ़ थे. वे पूँजीवाद का विरोध करते थे और मार्क्सवाद में उनकी आस्था थी. प्रश्न है कि किस कम्युनिस्ट रेजिमेंटेशन के ? सिर्फ हिंदी में जारी रेजिमेंटेशन के या सोवियत संघ समेत अन्य कम्युनिस्ट देशों में हुई कम्युनिस्ट परिणतियों के भी? नवल जी के मुक्तिबोध सम्बन्धी लेखन में इन प्रश्नों के उत्तर प्राय: नहीं मिलते हैं. 
प्रारंभ में नंदकिशोर नवल की आलोचना पर प्रगतिशील आलोचना खासतौर से रामविलास शर्मा की आलोचना का गहरा प्रभाव था. जाहिर है कि कंटेंट और फॉर्म के रूढ़ विभाजन के जरिए कविता को समझने की कोशिश उनकी आलोचना में मुख्य रूप से दिखाई देती है. यथार्थवादी दृष्टि से कविताओं का मूल्यांकन और उससे प्राप्त निष्कर्ष प्राय: कविता के साथ न्याय नहीं करते. कविता संबंधी नवल जी की आलोचना का पूर्व पक्ष यथार्थवादी दृष्टि की सीमाओं से घिरा हुआ लगता है. लेकिन धीरे-धीरे वे इस प्रभाव से मुक्त होते हैं और उनका झुकाव पाठ केन्द्रित आलोचना की ओर होता है. उनके लेखन में यह मोड़ सोवियत संघ के पतन के बाद आता है.  उनके इस आलोचनात्मक प्रयत्न का सर्वोत्तम उदाहरण ‘निराला: कृति से साक्षात्कार’ नामक क़िताब है. इसके अतिरिक्त अन्य पुस्तकें भी हैं, जो उनके आलोचनात्मक लेखन में आए तेज और झटकेदार मोड़ का प्रमाण देती हैं. आगे का उनका आलोचनात्मक लेखन इसी दिशा में है. हालाँकि पाठ आधारित आलोचना की अपनी सीमाएँ हैं. उसके जरिए कविता के पूरे आशय को नहीं समझा जा सकता. यह बात नवल जी जानते हैं और उन्होंने यह बात  स्वीकार भी की है: “पाठ आधारित आलोचना की अपनी सीमाएँ हैं. इसमें रचना की जो क्लोज स्टडी की जाती है, वह अध्येता को इसकी इजाजत नहीं देती कि रचना को उससे हटकर, दूर स्थित होकर, सम्पूर्ण रूप में देखा जा सके. अध्येयता प्रायः रचना के छोटे-छोटे और नजदीकी ब्यौरों में उलझकर रह जाता है. यह आलोचना रचना के अदृश्य पक्षों का उद्घाटन नहीं कर पाती, नहीं वह आलोचक की अंतर्दृष्टि से रचना की सर्वथा नवीन व्याख्या कर पाठकों को चमत्कृत कर पाती है.”  यह स्वीकार करने के साथ नवल जी ने निराला की कुछ प्रसिद्ध कविताओं की व्याख्या की है. नवल जी का मानना है कि निराला की कविता पर कालिदास, तुलसीदास, रवीन्द्रनाथ और शेली का गहरा प्रभाव है. निराला की शब्दावली और बिम्बों से लेकर उनके भावलोक तक पर इन कवियों का प्रभाव है. लेकिन इसी के साथ यह भी सही है कि निराला ने अपने कवि- व्यक्तित्त्व का स्वतंत्र विस्तार किया है. 
‘जूही की कलि’, ‘बादल राग’, ‘जागो फिर एक बार’, ‘तुलसीदास’, ‘मित्र के प्रति’, ‘सरोज स्मृति’, ‘प्रेयसी’, ‘राम की शक्तिपूजा’, ‘सम्राट एडवर्ड अष्टम के प्रति’ और ‘वन-बेला’ इन दस कविताओं की पाठ आधारित आलोचना करते हुए नंदकिशोर नवल ने बहुत गहराई से इन कविताओं का अर्थ- संधान किया है. इन कविताओं की जो व्याख्याएँ उन्होंने की हैं, वे पूर्ववर्ती आलोचकों की व्याख्याओं से अलग और अधिक विश्वसनीय है. जैसे ‘राम की शक्तिपूजा’ की श्रेष्ठता का कारण नवल जी उसमें पाई जाने वाली ‘नाटकीयता’ को मानते हैं. उनका कहना है: “यह नाटकीयता इसकी घटनाओं में भी है, इसके चरित्रों में भी, इसके भाव में भी और इसमें प्रयुक्त संवादों की भाषा में भी. पूरी कविता एक नाटक की तरह है, जिसमें क्रम-क्रम से सारे दृश्य रंगमंच पर प्रत्यक्ष होते हैं.” इसी के साथ नवल जी इस कविता में पाई जाने वाली उदात्तता की भी चर्चा करते हैं. नवल जी का कहना है: “शक्तिपूजा पत्नी प्रेम की कविता है, जिसका एक अत्यंत व्यापक संदर्भ है- आधुनिक युग में उत्पन्न जनतांत्रिक चेतना. इसी ने इस कविता को वह सुविस्तृत भावभूमि प्रदान की है, जिससे यह अत्यंत उदात्त हो गई है.” अपनी व्याख्या का अंत करते हुए नवल जी ने लिखा है: “राम की शक्तिपूजा आज खड़ी बोली की सर्वोत्कृष्ट काव्य कृति ही नहीं, सर्वाधिक उदात्त काव्य कृति के रूप में भी मान्य है. उदात्त कृति की एक पहचान यह भी है कि भिन्न रूचि और संस्कार के व्यक्तियों के भीतर भी वह प्रखर सौन्दर्यानुभूति उतपन्न करने में समर्थ होती है.” 
हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं का इतना विकास हो चुका है कि अब किसी एक व्यक्ति के लिए  अकेले इसका इतिहास लिखना संभव नहीं है. हिंदी कविता का भी परिसर इतना विस्तृत हो चुका है कि एक पुस्तक के जरिए उसके इतिहास को किसी एक व्यक्ति द्वारा प्रस्तुत नहीं किया जा सकता. इसलिए अब समय आ गया है कि अलग-अलग कालखंडों का और अलग-अलग विधाओं का इतिहास अलग-अलग विद्वानों द्वारा लिखा जाए. शायद इसी को ध्यान में रखते हुए नंदकिशोर नवल ने ‘आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास’ नामक पुस्तक लिखी है, जिसमें भारतेंदु से लेकर साठोत्तरी पीढ़ी के धूमिल तक को शामिल किया गया है. इसमें शुक्ल जी के इतिहास की तरह प्रवृत्तियों के आधार पर काल विभाजन न करके हिंदी कविता के विकास क्रम के आधार पर कवियों का विवेचन किया गया है. कोई चाहे तो इसे ‘आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास’ न कहकर ‘आधुनिक हिंदी कविता का विकास’ कह सकता है. सही अर्थों में यह पुस्तक इतिहास न होकर आधुनिक हिंदी कविता के विकास के पड़ावों को समझने का एक प्रयास है. साहित्य के इतिहास में इतिहासकार की रूचि के महत्त्व से इंकार नहीं किया जा सकता. लेकिन वह रूचि कुछ कवियों को शामिल करने और कुछ कवियों को छोड़ देने की दिशा में सक्रिय दिखे तो वह इतिहास की बड़ी सीमा बन जाती है. आधुनिक हिंदी कविता के इस इतिहास को पढ़ते हुए यह बात ध्यान में आती है. 
‘हिंदी कविता: अभी, बिलकुल अभी’ नवल जी की महत्त्वपूर्ण आलोचना पुस्तक है. इसमें आठवें दशक के महत्त्वपूर्ण नौ कवियों- विनोद कुमार शुक्ल, विष्णु खरे, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, आलोक धन्वा, श्याम कश्यप, ज्ञानेंद्रपति, उदय प्रकाश और अरुण कमल- की काव्य- यात्रा का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है. हर दौर अपना आलोचक लेकर आता है. एक ही आलोचक हर पीढ़ी के साथ न्याय नहीं कर सकता. कहा जा सकता है कि नंदकिशोर नवल आठवें दशक की कविता के विशिष्ट आलोचक हैं. यह आलोचना- पुस्तक इन कवियों का अलग-अलग काव्य संसार लेकर हमारे सामने तो आती ही है, वह हिंदी कविता में आए नए बदलावों को भी रेखांकित करती है. जिन कवियों को नवल जी ने शामिल किया है और जिन कवियों को छोड़ दिया है, उनमें से कुछ नामों को लेकर बहस हो सकती है और कहा जा सकता है कि यह आलोचक की निजी पसंद है. कोई पूछ सकता है कि श्याम कश्यप क्यों शामिल किए गए हैं और वीरेन डंगवाल, गिरधर राठी आदि क्यों छोड़ दिए गए हैं? बावजूद इसके कहा जा सकता है कि धूमिल के बाद के कवियों को और काव्य विकास को समझने में नंदकिशोर नवल की लिखी हुई इस आलोचना का विशेष महत्त्व है. 
 ‘हिंदी कविता: अभी, बिलकुल अभी’ में पहला निबंध विनोद कुमार शुक्ल पर है. धूमिल के बाद आए कवियों में विनोद कुमार शुक्ल का अलग महत्त्व है. उनकी काव्य शैली सबसे अलग और ध्यान आकृष्ट करनेवाली है. आमतौर से माना जाता है कि वे रूपवादी कवि हैं. लेकिन नवल जी ने यह संकेत किया है कि वे प्रगतिशील कवि हैं. उनकी प्रगतिशीलता का ढाँचा केदार, नागार्जुन और त्रिलोचन वाला नहीं है. वे शमशेर और मुक्तिबोध की तरह जटिल वितान वाले कवि हैं. नामवर सिंह का एक कथन है- ‘यथार्थवाद कोई शैली नहीं, बल्कि जीवन-दृष्टि है’. नवल जी कहते हैं कि इसको ध्यान में रखते हुए विचार करें तो हम पाएँगे कि विनोद कुमार शुक्ल पारिभाषिक रूप से भले ही प्रगतिशील या जनवादी कवि न हों, लेकिन वे सामाजिकता के व्यापक दायरे के करीब है. नवल जी ने लिखा है: “सामाजिकता या सामाजिक चेतना कोई संकीर्ण वस्तु नहीं है. वह मुट्ठी बाँधकर और गला फाड़कर क्रांतिकारी नारा लगाने में भी नहीं हैं. वह अत्यंत व्यापक है, आकाश की तरह, जो हमारे भीतर भी है और बाहर भी है. वस्तुतः समाज से बाहर कुछ भी नहीं है.” इस तरह व्यापक अर्थों में विनोद कुमार शुक्ल को प्रगतिशील कवि मानते हुए नवल जी का कहना है कि उनकी प्रगतिशीलता किसी साँचे में ढली हुई नहीं है. 
विष्णु खरे को नवल जी ने ‘हिंदी की प्रचलित काव्य-भाषा के फॉर्म को तोड़ने वाला कवि’ कहा है. नवल जी के अनुसार भाषा के फॉर्म को तोड़ने का मतलब उसकी व्याकरणिक व्यवस्था को तहस-नहस करना नहीं है, बल्कि भाषा का नया इस्तेमाल करते हुए इस तरह कविता लिखना है, जिस तरह अब तक नहीं लिखी गई थी. इसी के साथ नवल जी का यह भी मानना है कि खरे की कविता में यथार्थ चित्रण इतना गहरा होता है कि उन्हें फैंटेसी लिखने की ज़रूरत नहीं होती. राजेश जोशी पर लिखते हुए नवल जी ने कहा है कि धूमिल के बाद की कविता को नया अर्थ देने वाले कवियों में राजेश जोशी प्रमुख हैं. धूमिल में ‘आत्मीयता का अभाव’ था. राजेश की पीढ़ी ‘आत्मीयता और सहजता’ लेकर आई. राजेश की कविता में एक ऐसा जादू है जिसके सौंदर्य का विश्लेषण आलोचक के लिए चुनौती है. इसी के साथ नवल जी ने राजेश की कविता में रुमानीपन को रेखांकित किया है और कहा है- ‘रुमानीपन राजेश की कविता की बहुत बड़ी ताकत है. वह उनकी दृष्टि को धुंधलाता नहीं, बल्कि उसी के कारण उनके यथार्थ के बिम्बों में एक ताजगी और अनुभूति में एक नवीनता संभव हुई है’. 
मंगलेश डबराल की कविता पर विचार करते हुए नवल जी का कहना है कि ‘उनमें राजेश जोशी वाली आत्मीयता और सहज सम्प्रेषणीयता नहीं है’. इसी के साथ नवल जी यह भी कहते हैं कि ‘मंगलेश में चीख और रुदन जिस मात्रा में हैं, उस मात्रा में भूख और दुःख नहीं हैं’. मंगलेश की कविताओं में ‘रक्तक्रांति’ के दर्शन करनेवाले नवल जी तीन कारणों से मंगलेश को महत्त्वपूर्ण कवि मानते हैं- ‘एक कारण तो यह कि उन्होंने बड़ी सावधानी से अपनी कविताओं को विचारधारा के आरोपण से बचाया है; दूसरा कारण यह कि उन्होंने अनेक बार संकेतों से भी काम लिया है और तीसरा कारण यह कि उन्होंने कभी-कभी सबसे मुक्त होकर जीवन की कविता लिखी है, जो अपने-आप में बेजोड़ है’. आलोक धन्वा को नवल जी ‘गतिशील काव्य संवेदना का कवि’ मानते हैं. ‘संप्रेषणीयता’ नवल जी की नजर में आलोक का सबसे बड़ा गुण है. पहले नवल जी मानते थे कि आलोक धन्वा की कविता में रेटॉरिक का गुण है. बाद के वर्षों में नवल जी को आलोक में  रेटॉरिक की जगह संप्रेषणीयता का गुण दिखने लगा. 
ज्ञानेंद्रपति की कविता में ‘एक ताजगी’ दिखाई देती है. इसी के साथ ‘नई भाषा, नए बिम्ब और नई कल्पना-शक्ति के भी दर्शन होते हैं.’ नवल जी के अनुसार ज्ञानेंद्रपति की काव्य- भाषा मूलतः बिम्बात्मक है. अरुण कमल की कविता के बारे में नवल जी का कहना है: ‘सर्जनात्मक कल्पना के योग से उन्होंने जो बिम्ब बनाए हैं, वे मोहक तो है ही, इस बात का भी प्रमाण देते हैं कि उनका इन्द्रीयबोध आज के कवियों में सर्वाधिक तीक्ष्ण है.’ अरुण कमल को नवल जी ‘स्वतंत्र स्फुट कविताओं का कवि’ कहते हैं. नवल जी यह भी कहते हैं कि ‘अरुण जी बिम्ब-कुशल ही नहीं, शब्द-कुशल भी हैं’. अरुण कमल की कविता में नवल जी ‘आत्मपरकता’ का गुण पाते हैं. लेकिन यह आत्मपरकता ‘आत्मग्रस्तता’ नहीं है, जिसके कारण अरुण कमल की कविता नया प्रभाव पैदा करती है. 
यूँ तो हिंदी ‘कविता: अभी, बिलकुल अभी’ में श्याम कश्यप और उदय प्रकाश पर भी लेख हैं. लेकिन आज हिंदी कविता जिस मुकाम पर है वहाँ से देखने पर पता चलता है कि यह आलोचक की निजी पसंद है जो आलोचक की आत्मग्रस्तता की देन है. एक समय में उदय प्रकाश की कविताओं की चर्चा थी. लेकिन बाद में कहानी उनकी मुख्य विधा हो गई. कई अन्य कवियों की अनदेखी करके नवल जी ने श्याम कश्यप को रखा है. इसका कारण किसी की भी समझ में शायद ही आए! नवल जी ने राजेश जोशी, उदय प्रकाश और अरुण कमल की ‘कवि- त्रयी’ भी बनाई है, जिससे आज शायद ही कोई सहमत हो. समकालीन कविता के आलोचक के रूप में यह उनकी परख की सीमा है.   
नवल जी अपनी स्थापनाओं के जरिए हिंदी कविता का नैरेटिव बदलने की जगह उसके पाठ के परिप्रेक्ष्य को सही करनेवाले आलोचक हैं. उनकी आलोचना पढ़ी तो खूब गई, लेकिन हिंदी कविता के प्रति पूर्व की  धारणा को बदलने में कितनी सहायक हुई, यह कहना अभी मुश्किल है. उन्होंने हिंदी की महत्त्वपूर्ण लम्बी कविताओं की जो त्रयी बनाई वह हमारा ध्यान खींचती है. उस त्रयी में ‘राम की शक्तिपूजा’, ‘अँधेरे में’ और ‘मुक्ति प्रसंग’ (राजकमल चौधरी) की इतनी गहन और आत्मीय व्याख्या नवल जी ने की है जिसे पढ़कर हिंदी कविता के विकास का एक नया रूप पाठक के सामने उपस्थित होने लगता है.
‘हिंदी कविता: अभी, बिलकुल अभी’ के प्रारंभ में अपने प्रिय कवि मुक्तिबोध की कुछ काव्य- पंक्तियाँ नंदकिशोर नवल ने उद्धृत की है-
राहगीर को जैसे राहगीर मिल जाए,
बंजारे को गाहक,
पंडित को लघुसिद्धांतकौमुदी
वैसे ही तुम मिले मुझे यह काफी;
भूल-चूक की माफ़ी!

क्या यह एक आलोचक की पसंद की घोषणा है? अपनी पसंद को लेकर क्या उसके भीतर संशय है? अपनी  आलोचना पर की गई क्या यह उनकी अपनी ही टिप्पणी है? अपनी पसंद की आत्मपरकता का भान क्या आलोचक को खुद है? ऐसी आत्मपरकता क्या वस्तुपरक आलोचना के मार्ग में बाधक नहीं है? नंदकिशोर नवल की आधुनिक कविता पर किए गए लेखन के संदर्भ में ये प्रश्न उठेंगे.   
                                                           
                                                          गोपेश्वर सिंह 
                                                                 38/4, छात्र मार्ग 
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-110007
                                                                  मो. 8826723389
E-mail. Gopeshwar1955@gmail.com

साभार गोपेश्वर सिंह फेसबुक आईडी

Thursday 13 August 2020

युवा कवि रवि प्रकाश के जन्मदिवस पर उनकी एक कविता

रवि प्रकाश के जन्मदिवस पर उनकी एक कविता




सूर्य के हाथ से छूट रही है पृथ्वी

तुम पास बैठकर
कविता की कोई ऐसी पंक्ति गाओ
जहाँ मेरे कवि की आत्मा
निर्वस्त्र होकर
मेरे आँख का पानी मांग रही है
यह कैसा समय है
कि, ये पूरी सुबह
किसी बंजारे के गीत की तरह
धीरे-धीरे मेरी आत्मा को चीर रही है
जिसके रक्त से लाल हो जाता है आसमान
जिसके स्वाद से जवान होता है
हमारे समय का सूरज
और चमकता है माथे पर
जहाँ से टपकी पसीने की एक बूंद
जाती है मेरे नाभी तक
और विषाक्त कर देती है
मेरी समस्त कुंडलनियों को
मैं धीरे-धीरे छूटने लगता हूँ
ऐसे, कि जैसे
सूर्य के हाथ से छूट रही है पृथ्वी
सागर के एक कोने में

शाम होने को है
मैं रूठकर कितना भटकूंगा
शब्दों में।

◆Ravi Prakash

Saturday 8 August 2020

आदिवासी दिवस पर पढ़िए कामेश्वर द्वारा लिखित कहानी राष्ट्रपति का दत्तक

आज आदिवासी दिवस है। इस अवसर पर 'राजेन्द्र यादव 'हंस'कथा सम्मान 2019-20' से सम्मानित यह कहानी पढ़ी जानी चाहिए।


'राष्ट्रपति का दत्तक'-कामेश्वर

बुटूराम पूछते-पाछते कलेक्टोरेट के गेट पर पहुँचा तो चेक पोस्ट की खिड़की से झाँक रहा नगर सैनिक (होमगार्ड) बाहर निकल आया। उसके हाथों के तीर-कमान देख वह सतर्क हो गया, "कहाँ…?"
     "मिलना है कलेट्टर साहेब से…!" कद से ऊँची कमान को बाएँ से दाएँ हाथ में लेते हुए वह बोला। कनपटियों पर पसीने की धार। काँधे की लाठी को बाएँ हाथ से पकड़े। इसके पिछले छोर पर प्लास्टिक वायर से बुना थैला लटक रहा था जो कभी आधा लाल और आधा सफेद रंग की रहा होगा। यह उसके हुलिए से मेल नहीं खाता था। बाँह पर झूलता बदरंग जामुनी कुरते के नीचे मटमैला पटकू घुटनों से ऊपर बलिश्त भर दिख रहा था। कानों पर छितराए  बाल और खिचड़ी मूछें। चालीस-पचास के पेटे से आगे निकलता हुआ। 
     "क्या काम है?" नगरसैनिक उसके कंधे पर तीर-कमान को देखकर सशंकित हो उठा था। ये आदिवासी लोग दिखते सीधे हैं। पर गुस्से में खतरनाक हो जाते हैं। तीर मार भी देते हैं। पेपर में खबरें छपती रहती हैं। 
     "डौकी (पत्नी) चोरी हो गई है…!" उसने मुस्कराने की कोशिश की, पर वह सहमा हुआ था। गलत तो नहीं बोल गया ! वह रपट लिखाने गया था तो लेमरू थाने के सिपाहियों ने उसका मजाक उड़ाया था, "बच्चे चोरी हो गए हैं कि डौकी?" उन्होंने पूछा था। वह इन खाकी वर्दीधारियों के लिए एक मजाक ही तो है। इसलिए काम निकालने के लिए वह पहले से अपना मजाक उड़ाने की उसने अपने हिसाब से चालाकी की। 
     "डौकी चोरी हो गई है!" नगरसैनिक ने उसे अचरज और खींझ से भरकर देखा। पगला तो नहीं गया है! भीतर टेबल पर काम कर रहा साथी उसकी ओर देखकर मुस्कराने लगा। 
     "सुन रहे हो?" नगरसेवक ने उससे कहा, "...इसकी डौकी चोरी हो गई है!" फिर वह बुटूराम की ओर मुखातिब हुआ, "क्या बकते हो?...डौकी कोई सामान है जिसे कोई चुरा ले जाएगा?" नगर सैनिक ने उसकी हेंजवारी के लिए हड़काया। 
     "चुइया का रहने वाला मोहम्मद अजीज...वही ले गया है साहब!" वह सहमते हुए बोला।
     "तो थाने जाकर रपट लिखाओ! यहाँ क्यों चले आए?" नगरसैनिक ने डपटा तो वह निराश हो गया। चालीस किलो मीटर दूर अपने गाँव कदमझरिया से पैदल चलकर वह आया था। घर से आधी रात को निकला था। जंगली जानवरों से रक्षा के लिए तीर-कमान उसने साथ रख लिया था। रास्ते में एक गहबर और उसके बाद कुछ कोलिहा (सियार) दिखे। अपने रास्ते चले गए। खरहे (खरगोश) तो कई दिखे। रास्ते को बिजली की तरह छंलागते। बुटूराम को जरा भी डर नहीं लगा । अँधेरे में आँखें और भी काबिल हो गईं थीं। यहाँ के चकाचक उजाले में तो उसे कुछ सुझाई नहीं पड़ रहा है। उधर डर है, तो केवल दंतैलों का। आजकल खूब ताण्डव मचा रहे हैं। गाँवों तक पहुँच रहे हैं। धान-पान को रौंदकर बर्बाद कर देते हैं। घरों को धक्का देकर ढहा देते हैं और सूँढ़ से सूँघते हुए अनाज के बोरे-कुठले तक जा पहुँचते हैं। सामने कोई आदमी आ गया तो उसकी खैर नहीं। दौड़कर सूँढ़ से पकड़ लेते हैं और पटक कर खूँद-खाँद कर देते हैं। आदमी से इतना नाराज क्यों हो गया है हाथी! जंगल से गुजरते हुए बुटूराम ने सोचा था। पर उसे डर नहीं लगा। बस, वह चौकन्ना था। तीर-कमान उसके हाथ में थे। लेकिन शहर में आकर उसका चौकन्नापन गायब हो गया था, बल्कि वह अचकचा रहा था। उसे बिनती करना भी नहीं आता था। 
     "लिखाया था साहब!...लेमरू थाने में लिखाया था।" 
     "फिर?"
     "कुछ नहीं हुआ!"
     "तुम्हारी 'डौकी'..." नगर सैनिक ने मुस्कराया, "...तुम्हारे साथ रहने को तैयार है?"
     "वह नहीं रहना चाहती, मत रहे…" वह हिम्मत कर के बोला, "...जहाँ चाहती है, रहे...पर मेरे बच्चों को तो वापस कर दे!"
     "ठीक है!...तुम्हारे तीर-कमान और थैला इधर रखो!" उसने कमरे के एक कोने की तरफ इशारा किया जहाँ डस्ट बिन और दो डंडे रखे हुए थे। फिर अपने साथी से कहा, "लिख लो यार!...क्या नाम है तुम्हारा?"
     "बुटूराम!" उसने बताया।
     "बुटूराम!" उसने उचारा, फिर कहा, "कुछ अता-पता भी तो होगा।"
     वह अपना पता सोचने लगा। फिर बोला, "कदमझरिया!...गाँव कदमझरिया!"
     "जाओ यार!" उसने जाने की अनुमति दी और तीर-कमान पर नजरें गड़ाते हुए बरबराया, "कदमझरिया!" 
 
     बुटूराम पूछते-पाछते सीढ़ियाँ चढ़कर कलेक्टर कक्ष के सामने पहुँच गया। सफेद वर्दी में लाल पट्टाधारी दरबान ने भँवें चमका कर आने का मकसद पूछा।
     "मिलना है कलट्टर साहेब से!" उसने हाथ जोड़ा।
     "वहाँ से स्लिप निकालो!" दरबान ने दरवाजे के बगल में लटक रही पर्चियों की गड्डी की ओर इशारा किया, "अपना नाम-धाम लिखकर दो!"
     "मैं लिखना नहीं जानता साहब!" उसने अपनी लाचारी जताई।
     "ठीक है...इधर ला!" दरबान ने स्लिप पर उसका नाम-पता लिखा और कहा, "सामने बेंच पर जाकर बैठ जाओ!"
     बुटूराम ने उधर निगाह डाली। दीवार से लगे स्टील के पुश्त वाले जालीदार बेंचों पर कई लोग बैठे थे। आदमी, औरत सब। बुर्के में बैठी एक औरत के बाद बेंच खाली था। वह उसी के एक सिरे पर बैठ गया और गमछे से चेहरे का पसीना पोंछने लगा। फिर उसने आँख बंद कर ली। उसे झपकी-सी आ गई। काफी थक गया था वह। वह झकना कर सजग हुआ। बीत ही गई होगी एक घड़ी। उसने देखा कि बेंच पर लोग जस के तस बैठे हुए हैं। मतलब, उनमें से किसी की बारी नहीं आई। दो-एक नये लोग भी दिख रहे हैं। कुरता-पैजामाधारी लोग सीधे दरवाजे से घुस जा रहे थे। लेकिन निकल नहीं रहे थे। एकाध आदमी ही निकलता दिखता था। उनको स्लिप नहीं लगता क्या? बड़े आदमी होंगे भई! 
     लेकिन उसे लौटना भी है। यहीं मुँधियार हो जाएगा तो पैदल चलकर वह भिन्सारे पहुँच पाएगा। यह सब उसे बिरसो के कारण भुगतना पड़ रहा है। जरा भी दया-मया नहीं है किसबिन के मन में! तीन-तीन बाल-बच्चों की महतारी। बड़ी लड़की की शादी भी हो गई है। नयी-नवेली डौकी भी नहीं है। फिर भी उस पठान के साथ भाग गई। गलती खुद उसी की है। क्यों भला उसके साथ दारू पिया उसने? और फिर उसे खाना खिलाने घर भी ले आया? सड़क पर उसका ट्रक बिगड़ा हुआ था। वहीं सड़क पर पड़ा रहने देता। बेकार ही दया दिखाई। जिसका यह फल भोगना पड़ रहा है। समाज ने बिरसो को जात बाहर किया तो उसे बड़ा संतोष हुआ। अपने बेटों संतोष और मंतोष के साथ वह गिरस्ती को बनाने की कोशिश करता रहा। उसने बिरसो को लगभग भुला ही दिया था कि महीने भर पहले उसकी गैरहाजिरी में वह आई और बच्चों को साथ लेकर चली गई। वह उन्हें वापस लाने गया तो वह उल्टे लड़ने-झगड़ने लगी। क्या खिलाओगे इन्हें? पालने-पोसने की औकात है?  मतलब, उसे मालूम हो गया था कि सरकारी राशन मिलना बंद हो गया है। कहाँ से यह आधार और जनधन खाते की झंझट आ गई। राशन कार्ड के साथ नम्बर लिंक नहीं होने के कारण अब राशन मिल नहीं पा रहा है। फिर भी वह मरा नहीं है। अपने बच्चों को भी पाल-पोस लेता। आखिर पिछले पाँच सालों में जब वे गेदा-गेदा थे तो किसने उन्हें पाला? गाँव में बनी-भूती कर के, जंगल से सकेल-शिकार कर के वह उनको पाल सकता है। संतोष तो अब बड़ा भी हो गया है। उस बदमाश अजीज ने उसे काम पर लगा रखा है। उसने देखा। वह पानी में ट्यूब डुबोकर पंक्चर देख रहा था। उसे साथ लाने के लिए उसका हाथ पकड़ा तो अजीज ने धक्का मारकर भगा दिया। मन हुआ कि तीर से टुक दे। फिर चाहे जो हो! मरेगा किसी दिन उसके ही हाथों!
     वह उठकर दरबान के पास गया और हाथ जोड़ा, "बहुत दूर से आया हूँ साहब! लौटना भी है…!"
     "देख नहीं रहे, भीतर कितने लोग बैठे हैं?" उसने विजीटर रूम की ओर इशारा किया, "कलेक्टर साहब जिसे बुलाते हैं वही जाता है।"
      अच्छा, तो लोग भीतर भी इन्तजार कर रहे हैं। तभी बहुत कम आदमी निकल रहे हैं। वह निराश होकर वापस अपनी जगह पर आकर बैठ गया। जोरों की प्यास लगी थी। पर वह जा नहीं सकता था। कहीं वह पानी पीने गया और इधर उसकी बुलाहट हो गई तो! भूख भी लग रही थी। अब तो उसके पास महुआ लाटा भी नहीं बचा है। दाई ने एक पसर झोले में डाल दिया था। उसे रास्ते में चलते-चलते ही खा लिया था उसने। अब तो घर जाकर ही खाने को कुछ मिलेगा। एक बार कलट्टर साहेब से भेंट हो जाए। फरियाद करके ही वह जाएगा। वह बिरसो से अपने बच्चों को लेकर रहेगा। नहीं रहने देगा उसके पास।
     कितना बड़ा धोखा किया है उसने उसके साथ। वह उसे जान नहीं सका। सरहुली पूजा में नाच के समय कुछ इस तरह नजर भर कर देखा राँड़ी ने कि वह मोहित हो गया। उस पर प्रेम, फिर दया भी आ गई। साल भर पहले मर गया था उसका मरद। जंगल में भालुओं ने मार डाला था उसे। सरहुली पूजा के दिन उन्होंने हँड़िया पीकर खूब नाचा था। जदूरा नाच। वह उसका हाथ पकड़ कर अपने घर ले आया था। दाई ने भी मना नहीं किया। वे साथ रहने लगे। फिर उन्होंने ढुकू बिहाव कर लिया था। वह तो उसे पाकर निहाल हो गया था। सोचता था, उसके जैसे अड़हा (कमसमझ) आदमी को होशियार घरवाली मिल गई है। आठवीं तक पढ़ी थी वह वनवासी कल्याण आश्रम के स्कूल में। वह तो अनपढ़ ही रह गया। सोचा था, बिरसो उसके घर को सम्हालेगी। बाल-बच्चों को पढ़ाएगी। आस-पास के गाँव के लड़के पढ़-लिखकर गुरूजी और सिपाही बनने लगे हैं। उसके बच्चे भी कुछ बन जाते। घर में दाना-पानी की कमी वह न होने देता। खाँड़ी भर का खेत है। दुकाल न पड़ने पर चार महीने खाने के लिए धान हो ही जाता है। मुर्गियाँ और बकरे पाल ही रहा था। जंगल से कंद-मूल, तेंदू पत्ते, बीज, लाख, गोंद सकेल लाता था। भूखों नहीं मरने देता उन्हें। पर उसे तो चटक-मटक का चस्का लग गया था। कितनों भी रुपिये हाथ में धराओ, पूरा ही नहीं पड़ता था। हमेशा पैसा माँगती थी। घर के धान-पान बेच देती थी। अपने और बच्चों के लिए कपड़े, खजेना, खिलौने लेती ही रहती थी। कभी मना किया उसने? लेकिन उस नकटी ने उसके मुकाबले उस बदमाश अजीज को मरद समझा। यह बात रह-रह कर उसे सालती है। बिरसो से धोखा खाकर उसका मन फट गया है। अब वह जहाँ भी मरे उसे कोई मतलब नहीं। बस, उसके बच्चों को वापस कर दे।
     "मेहरुन्निशा...सौखीदास...बुटूराम…!" दरबान ने हाँक लगाई, "चलो सब एक साथ आ जाओ!...निकलना है साहेब को...।"
     बेंच पर बैठे लोग हड़बड़ा कर उठे। वह भी खुद को समेटता हुआ उनके पीछे लपका लपका। 
     "ठहरो-ठहरो...पहले निकलने दो इन्हें…!" 
     वे ठिठक कर दरवाजे के एक ओर हो गए। अन्दर से कलफ लगे झक्क सफेद कुरते-पाजामे में नेताजी और उनके शागिर्द कहकहाते निकल रहे थे। 
     "अच्छा, जाओ तुम लोग…!" दरबान ने उन्हें भीतर जाने की अनुमति दी। 
     अन्य लोगों के साथ वह भी अन्दर घुसा। आगन्तुक कक्ष में सोफों पर दो-चार लोग बैठे हुए थे। उसे पार कर वह कलेक्टर के कक्ष में पहुँचा। सामने टेबल के उस पार एक महिला को बैठे देखा। उसे खयाल आया, कहीं यह वही महिला कलेट्टर तो नहीं, जिसने कुछ दिनों पहले उनके गाँव तरफ दौरा किया था। उसने खुद तो उसे देखा नहीं था, पर गाँव वालों ने बताया था। इस बार महिला कलट्टर आई है। बड़ी भली साहेब है भाई! कई लोगों को राशन मिलना बंद हो गया था। राशन कार्ड के साथ आधार नंबर और बैंक एकाउण्ट नम्बर नहीं जुड़ने के कारण। कलेट्टर ने वहीं अपने अफसरों को हिदायत दी। और अब उन्हें राशन मिलने लगा है। गुरूजी लोग भी अब रोज स्कूल आते हैं। स्कूलों में मध्याह्न भोजन ठीक से मिलने लगा है। वनोपज के अच्छे दाम के लिए सहकारी समिति बनाई जा रही है। यह कलेट्टर गरीबों की सुध लेती है। 
     महिला कलेट्टर को देख कर उसकी हिम्मत बँधी। उसके साथ जरूर न्याय करेगी। वह धीरज रखते हुए बाकी फरियादियों के पीछे खड़ा हो गया। पहले ये लोग निपट लें, फिर वह इत्मीनान के साथ अपनी बात कहेगा। अब तक तो हाकिम लोग उसका मजाक ही उड़ाते आए हैं। लेमरू थाने में रपट दर्ज कराने गया था तो सिपाही उसका मजाक बना रहे थे। डौकी भाग गई! उठता नहीं क्या रे? उसे बहुत गुस्सा आया। लेकिन वह कर ही क्या सकता था? हवालात में बंद कर पीट-पाट देते तो वह क्या कर लेता? लेकिन ये साहेब लगता है उसकी सुनेगी।
     सामने के फरियादी हट गए तो कलेक्टर साहिबा की नजर उस पर पड़ी और उन्होंने आँखों से ही पूछा 
     "पाँच साल हुए साहब…!" उसके हाथ जुड़ गए, "...मेरी डौकी भाग गई थी! अब वह मेरे बच्चों को भी चुरा ले गई है...।" 
     "डौकी भाग गई है...बच्चे चुरा ले गई है…!" कलेक्टर साहिबा को कुछ समझ में नहीं आया।
     "डौकी...मेरी घरवाली साहेब!...पाँच साल पहले भाग गई थी...अब बच्चों को भी चुराकर ले गई है।"
     "बच्चे चुरा ले गई है?" कलेक्टर साहिबा को उसका आरोप अनुचित लगा। मां बच्चों को साथ ले गई होगी। उसी को चुराना  कह रहा है यह! "तो थाने में रपट लिखानी थी न!...यह तो कोर्ट का मामला बनता है।"
     "गया था साहब!" बुटूराम ने अधीर होकर कहा, "...लेमरू थाने में गया था...कुछ नहीं हुआ...।"
     "बच्चे मां के पास रहना चाहते होंगे तब?" 
     "बच्चे नहीं चाहते साहब!"
     "क्या नहीं चाहते?"
     "मां के साथ रहना नहीं चाहते।" बुटूराम ने कह तो दिया। लेकिन सोचने पर मजबूर हो गया। इसके पहले बच्चों के पराए होने के बारे में कभी सोचा भी नहीं था। बच्चों पर स्वाभाविक रूप से अपना हक मानता था। वह बाप है, और पिछले पाँच साल तो अकेले उसी ने उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया है। जब वे गेदा-गेदा थे तब तो वह छोड़कर भाग गई थी। कितनी साँसतों से उसने उन्हें पाला-पोसा था। अब बड़े हो गए तो अपना हक जताने लगी। 
     "लेमरू थाना…" कलेक्टर साहिबा को कुछ याद आ गया, "...कोरवा हो कि बिरहोर?"
     "कोरवा हूँ साहेब!" उसे ढाढस बँधा। कलेट्टर साहेब उन्हें जानती हैं। घूमती हैं न उनके गाँवों तरफ। प्यास के मारे सूख रहे होठों पर जबान फेरते हुए उसने मुस्कराने की कोशिश की, "आप तो आई थीं उधर…!"
     "तुम समेली भाठा के हो?" कलेक्टर साहिबा को चेहरा कुछ पहचाना-सा लगा। उस दिन वहाँ चौपाल में देखा हुआ-सा चेहरा। सारे आदिवासी लगभग एक जैसे ही तो दिखते हैं। कोरवा, बिरहोर, पाण्डो लोगों में ज्यादा फर्क नजर नहीं आता। ज्यादा सम्पर्क न होने के कारण ऐसा होता होगा। जैसे सब बन्दर, सभी पशु-पक्षी एक जैसे लगते हैं। पर ये तो राष्ट्रपति के दत्तक हैं। इनका भी एक व्यक्ति के रूप में पहचान में न आ पाना भी विडम्बना ही है। इनकी जातियों को लुप्तप्राय देखकर ही राष्ट्रपति से इन्हें गोद लिवाया गया था। गोद लेने वाले उस पिता को इन्होंने कभी देखा नहीं होगा। राष्ट्रपति को भला क्या मालूम कि उनके कितने दत्तक हैं, और किस हाल में हैं। हाल-चाल लेना तो प्रशासन का काम है। इसलिए कलेक्टर साहिबा उधर का दौरा कर ही लेती हैं। और अभी तो उन्हें उधर बार-बार दौरा करना पड़ रहा है। सरकार ने लेमरू को हाथी अभयारण्य क्षेत्र घोषित कर दिया है। इन दत्तकों को वहाँ से हटाना बड़ा मुश्किल काम हो गया है। उन्हें मालूम है, कुछ साल पहले जनसुविधाओं और रोजगार से जोड़ने के लिए इन आदिवासियों को मानगुरू पहाड़ियों से उसाल कर नीचे जंगल में बसाया गया था। कुछ परिवार को यह जमा नहीं तो वे फिर पहाड़ियों पर रहने चले गए। बाकी लोगों ने खेती-पाती करना शुरू कर दिया था। अब वे जमने लगे थे तो अभयारण्य के कारण उन्हें वहाँ से उसाला जाना जरूरी है। हाथी अब शहर से लगे गाँवों तक पहुँचने लगे हैं। हाथियों द्वारा लोगों को मारे जाने की खबरें लगातार छपती रहती हैं। सबसे ज्यादा शिकार तो जंगल के आस-पास रहने वाले ये आदिवासी ही होते हैं। इसलिए उनको हटाया जाना जरूरी है। 
     अभयारण्य! कलेक्टर साहिबा के चेहरे पर टेढ़ी मुस्कान  झलक उठी। क्या हाथी अपने अभयारण्य की सीमाओं को जानेंगे और मानेंगे? या ऐसा परकोटा खड़ा किया जाएगा जिसे हाथी तोड़ न सके? अभयारण्य में पर्याप्त चारा-पानी रहने की क्या गारण्टी है? सब जानते हैं, हाथियों के आबादी क्षेत्र में घुसने का मूल कारण है जंगलों को खनन क्षेत्र के हवाले कर हाथियों के रहवास को खत्म कर देना। लेकिन उस तरफ सोचना कलेक्टर साहिबा का काम नहीं है। उनका काम है सरकारी आदेश का पालन करना। योजनाओं को कार्यान्वित करना। प्रगति और विकास के लक्ष्यों को पूरा कर अपने कॅरियर को चमकाना। अब यह प्रगति और विकास जिधर ले जाए उधर ही जाना है। इसीलिए वे अपनी कोशिश में कमी नहीं करतीं। उन्हें वहाँ से उसलने के लिए मनाने बार-बार दौरा करती हैं। उनके दौरे से शासन की कल्याणकारी योजनाओं के लाभ से महरूम लोगों को कुछ फायदा भी हो जाता है। साथ गए अफसरों को तुरन्त निर्देश देती हैं। इससे आदिवासियों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। उन्होंने उन्हें कोसा रेलिंग का प्रशिक्षण दिलाकर रोजगार दिलाने और वनोपज की समिति द्वारा मार्केटिंग कराने का भरोसा दिया है। युवकों ने उत्सुकता दिखाई है। पर वह जानती हैं कि वनों से दूर कर देने पर न तो वनोपज तक उनकी पहुँच होगी और न कोसा रेलिंग का प्रशिक्षण ही कुछ काम आएगा। प्राकृतिक ककून वाले पेड़ तो अभयारण्य के अन्दर आ जाएंगे। वनोपज इकट्ठा करने की अनुमति क्या उन्हें मिलेगी? 
     "नहीं, मैं पहाड़ खाल्हे कदमझरिया का हूँ।" उसने बताया
     "तुम लोग समझते क्यों नहीं?" कलेक्टर साहिबा ने कुछ चिढ़े हुए अन्दाज में कहा, "...लगातार हाथियों के हमले हो रहें हैं। तुम्हारे अपने लोग मर रहे हैं। फिर भी चेत नहीं रहे…!"
     बुटूराम सकपका गया। उसे समझ में नहीं आया कि उसके बच्चों के बजाय हाथी का मामला कहाँ से आ गया। कलेट्टर साहिबा कह तो ठीक रही हैं। उधर के गाँवों में हाथियों द्वारा लोग अक्सर मारे जा रहे हैं। आते समय जंगल से गुजरते हुए वह भी डरा हुआ था। अँधेरा रहने तक तो वह ऐसे दबे पाँव चला, मानों बिल्ली हो। कोई दंतैल उसके सामने आ जाता तो वह अपने तीर-कमान से उसका क्या कर लेता! समस्या तो है। लेकिन मैडम उसे क्या समझने के लिए कह रही हैं, यह उसे समझ में नहीं आया। 
     "हम लोग सचेत हैं साहेब!" उसने कहा, "...अब घर में मउहा नहीं उतारते। उसकी महक पाकर वह आता है।"
     "हाथी तो फिर भी आ रहे हैं…" उन्होंने कहा, "...लोग मारे जा रहे हैं।...तुम भी समझाना अपने गाँव के लोगों को। सबको बसाहट के लिए बढ़िया जगह दी जाएगी। वहाँ बेकार ही अपनी जान को साँसत में डाले हुए हो!"
     "हौ साहेब!" बुटूराम को लगा कि यहाँ उसे हामी भरनी चाहिए। हाँ कहने में क्या जाता है? गाँव में उसकी सुनेगा कौन? उसकी हैसियत क्या है? बिरसो के भागने के बाद वह दर-दर की ठोकरें खा रहा है। साहेब कह रही है कहीं और बसा देंगे। पहाड़ से नीचे बसाया तो उसके डौकी-लइका का हरण हो गया। पहाड़ में रहते तो साले पठान से भेंट नहीं होती। सड़क किनारे घर होने से भेंट हो गई। उसका ट्रक बिगड़ गया था और उस पर दया कर वह उसे अपने घर ले आया था। हूम करते हाथ जल गया उसका। 
     कलेक्टर साहिबा ने एक स्लिप पर कुछ लिखा और बेल बजाई। चपरासी के आने पर उसे स्लिप देते हुए कहा, "इसे एसपी साहब के पास ले जाओ!"
     चपरासी उसे अपनी बाइक पर बैठाकर एसपी कार्यालय ले गया। बुटूराम का मन हुआ कि पहले कहीं रुक कर पानी पी ले। पर चपरासी से कहने की हिम्मत नहीं हुई। प्यास के मारे उसका तालू सूखा जा रहा था। आँखों में रह-रह कर झाँइयाँ छा रही थीं। वह डर रहा था कि बाइक से कहीं गिर न जाए। खैर, कलेट्टर साहेब की स्लिप और चपरासी द्वारा बाइक पर एसपी कार्यालय पहुँचाए जाने से उसे मदद की, अपने बच्चों के मिलने की एक नई आस जग गई थी। 
     एसपी कार्यालय में बाइक से उतर कर वह एकाध कदम चला कि लड़खड़ा कर बैठ गया। आधी रात से पैदल चलता हुआ वह आया था। रास्ते में थोड़ा बहुत महुलाटा खाया था। पर वह कितनी देर थामता? ऊपर से प्यास के मारे मुँह में चटका बर रहा था। आँखों में अँधेरा छाने के साथ ही महसूस किया कि चपरासी ने उसे कंधे को पकड़ कर संभाल लिया है। फिर उसकी चेतना डूब गई। 
     एक सिपाही उधर लपका, "क्या हो गया?"
     "लगता है, बेहोश हो गया है।" चपरासी ने कहा, "कलेक्टर साहेब ने इसे एसपी साहेब के पास भेजा है।"
    सिपाही भीतर से गिलास में पानी ले आया और उसके चेहरे पर छींटा मारा। बुटूराम की पलके फड़फड़ाईं और होठों पर जुबान फिरी। फिर उसने आँखें खोल दीं। सिपाही ने उसे गिलास का बचा पानी पिलाया। उसकी जान में जान आई। 
     "अब ठीक है?" सिपाही ने पूछा। 
     "ठीक है साहब!" उसने कहा। 
     चपरासी ने उसे उठाया। उसे सहारा देकर एसपी कक्ष तक ले गया। स्लिप को एसपी साहेब के पास भिजवाया। सिपाही ने उन्हें कक्ष के अन्दर आने का इशारा किया। बुटूराम लड़खड़ाता हुआ कक्ष में पहुँचा। 
     "पिये-उवे हो क्या?...ठीक से खड़ा हो!" बुटूराम सहम गया। अपने-आपको सचेत किया। खाकी वर्दी वालों से वैसे भी डर लगता है। लेमरू थाने वालों को देखकर तो वह कपस जाता है। उनकी नजर से जितनी दूर रहे उतना ही अच्छा! उन्होंने तो उसका मजाक उड़ाया था। उठता नहीं क्या रे? इस मजाक ने उसे बिल्कुल नाचीज बना दिया था। नाचीज का दर्द, गुस्सा एक मजाक ही तो है। वह कुछ कहता और वे हवालात में बंद कर उसकी कुटाई कर देते। उस दिन बच्चों पर दावे की अपनी हैसियत उसे कमजोर होती लगी थी। वह तो निराश होकर बैठ गया था। पिछले दिनों गाँव के तरफ कलेक्टर का दौरा होने लगा। इधर के लोग कलेक्टर के जन-दर्शन में जाने लगे तो उसकी भी हिम्मत बँधी। उसने सोचा कि वह भी करेगा कलेक्टर से फरियाद। शायद उसके बच्चे मिल जाएँ!
     "अभी इसे चक्कर आ गया था सर!" चपरासी ने उसकी हालत बताने की कोशिश की। 
     "कैसे?" एसपी ने अब उसे गौर से देखा। उसके चेहरे पर मुर्दनी छाई हुई थी। "खाना-वाना खाए हो कि नहीं?...बैठ जाओ!" उसने सामने रखी कुर्सी की ओर इशारा किया। 
     "टेम ही नहीं मिला साहब!" उसने कहा। मानों, टाइम मिलने पर उसके पास खाने की चीज या पैसे थे। 
     "टाइम नहीं मिला!" एसपी चकराया, "ऐसा कौन-सा काम कर रहे थे कि खाने को भी टाइम नहीं मिला?"
     "आधी रात को चला था साहब घर से..." उसने बताया, "कलेट्टर ऑफिस पहुँचते ग्यारह बज गए।"
     "कहाँ है तुम्हारा घर?"
     "कदमझरिया...लेमरू थाना...।"
     "पैदल चलकर आए हो?" 
     "हौ साहब!"
     "बस से क्यों नहीं आए?" एसपी ने उसे अचरज से देखते हुए पूछा।
     "टिकस के लिए पैसे नहीं थे साहब!"
     एसपी को उस पर दया आ गई। बड़ी तकलीफ उठा कर पहुँचा है यह तो! राष्ट्रपति के दत्तक को एसपी भी जानता है। बस, पहचानता कोई नहीं। इसके बच्चों को मां ले गई है। यह उन्हें पाना चाहता है। कलेक्टर मैडम ने स्लिप में लिखा है, प्लीज़ डू द नीडफुल। फोन पर भी तो बोल सकती थीं! और बच्चे मां के पास हैं तो वह क्या कर सकता है? वे किसके पास रहेंगे इसका फैसला तो अदालत ही कर सकती है। हाथी अभयारण्य क्षेत्र में रहता है यह। इन्हें वहाँ से हटाना है। मतलब, विस्थापित करना है। लेकिन बुटूराम को तो कुछ सांत्वना देना होगा। मौके पर ये लोग काम आएंगे।
     "बच्चे मां के पास रहना चाहते होंगे तब…" एसपी ने पूछा,, "...मिले थे उनसे?"
     "गया था साहब उन्हें लेने..." उसने बताया,..."अजीज ने उन्हें आने नहीं दिया!"
     "यह अजीज कौन है?" 
     "वही तो बिरसो को भगाकर ले गया है साहब! भाग गई तो अब वह मेरे लिए मर गई। अब उससे मुझे कोई मतलब नहीं। हमारे समाज ने उसको निकाल-बाहर कर दिया है। अब वह जहाँ चाहे, जैसा चाहे, रहे। लेकिन मेरे बच्चों को वापस कर दे।" उसकी साँस भर आई। प्यास फिर लग आई थी। खाली पेट खूब पानी माँगता है। "...जब बच्चे गेदा-गेदा थे तो उन्हें छोड़कर भाग गई थी निर्दई! उनके डेने जम गए तो अब अपना हक जता रही है...!" उसने दिल से फरियाद की। एसपी साहब उसे थानेदार जैसा खुर्राट नहीं लगा। अभी लइका उमर ही था। आदमी जैसा लग रहा था। जरूर उसकी सुनेगा। 
     एसपी को सच में, उस पर दया आ गई थी। घरवाली और बच्चे दोनों छिन गए बेचारे के! सरकार इनके संरक्षण के लिए काम कर रही है। हालांकि, नतीजा निकलता दिखाई नहीं देता। समाज की  मुख्यधारा में कदम रखते ही ये गायब होने लगते हैं। उनकी लड़कियाँ भगाकर महानगरों के देह-व्यापार में खपाई जाती हैं। भाषा और संस्कृति विलुप्ति के कगार पर हैं। होशियार और चालाक लोग इन्हें लूट लेते हैं। किसी अज़ीज ने इसकी पत्नी और बेटे लूट लिए। एसपी चाह कर भी उसके लिए ज्यादा-कुछ  कर नहीं सकता। उसने कहा, "देखो, अब यह कोर्ट-कचहरी का मामला बन गया है। वे बच्चे वापस देना नहीं चाहती। और तुम छिन कर ला भी नहीं सकते। अब कोर्ट ही फैसला कर सकता है। उसके आदेश के बिना हम कुछ नहीं कर सकते। मुकदमा लड़ना आसान काम नहीं है। सोच लो अच्छी तरह से। हो सकता है, बच्चे समझदार हो जाने पर खुद ही तुम्हारे पास आ जाएँ।" 
     एसपी ने उसकी जगह पर अपने-आपको रखकर देखा। हर लिहाज से दुखी जीव, जिसके बीवी-बच्चे भाग गए हों। भग्न-हृदय, बैचैन आत्मा। सक्षम आदमी की बीवी नहीं भागती। ऐसा बिपत कमजोरों पर ही आता है। उसका स्वर मुलायम हो गया, "मैं आता हूँ उधर एक दिन...देखता हूँ!" फिर अपने सहायक से कहा, "नोट कर लो इसका नाम-गाम!" उसने अपनी जेब से सौ रुपये का नोट निकाला और बुटूराम की ओर बढ़ाते हुए कहा, "इसे रख लो!...बस से जाना...और अपने गाँव के लोगों को समझाना। क्या रखा है जंगल में? तकलीफ के सिवा?" एसपी ने मानों, अपने सिद्धान्तों के आड़े आ रहे फर्ज को अदा किया। फिर चपरासी से कहा, "इसे दाल-भात सेन्टर में खाना खिलाकर छोड़ देना।"
      एसपी साहब के व्यवहार से बुटूराम के बुझे हुए मन की बत्ती कुछ जली। यह साहब कम-से-कम उसे आदमी तो समझता है। उसके भूख-प्यास का खयाल करता है। बच्चों के बारे में उसे भी संदेह है कि वे उसके साथ रहना चाहते होंगे। आखिर वह जंगल में उन्हें दे भी क्या पाता है। संतोष अज़ीज के पंक्चर दुकान पर नाँद के पास टायर लिए खड़ा था। चार पैसा कमा रहा है तो खर्चा-पानी मिलता होगा। अच्छा खाता-पीता होगा। मेरे साथ क्यों आना चाहेंगे! क्योंकि वह उनका बाप है। कोई बिजूका नहीं। साहब ने उसे बाप समझा है। उसके दुख को समझा है। इस बात से उसे ढाढस बँधा। आँसू छलछला आए। कृतज्ञ हाथ अपने-आप जुड़ गए। 
     दाल-भात सेन्टर में खाना खिलाने के बाद सिपाही ने उसे कलेक्टोरेट के गेट पर छोड़ दिया। वह सिक्यूरिटी पोस्ट की तरफ आने लगा। नगर सेवक ने उसे संदिग्ध नजरों से देखा। फिर उसे याद आ गया। यह वही व्यक्ति है जिसकी 'डौकी' चोरी हो गई है। उसने मुस्कराते हुए उससे पूछा, "क्या हुआ... मिले कलेक्टर साहिबा से?"
     "मिला हूँ साहब! कप्तान साहब से भी मिला।" वह उसके लहजे को देखकर उससे बतियाना नहीं चाहता था । वह कमरे के कोने में रखे अपने थैले और तीर-कमान को उठाने लगा। 
     "क्या हुआ?"
     "आऊंगा उधर बोले हैं कप्तान साहब।" बुटूराम को भरोसा हो गया था कि कप्तान साहब उधर आएंगे। बच्चों के वापस मिलने का भरोसा भले नहीं कर पा रहा था। लेकिन कप्तान साहब आदमी उसे अच्छे लगे। शुरू में घुड़का जरूर था। पर उसकी हालत देखकर तरस खा गए। बस के टिकट के लिए पैसे दिए। खाना भी खिलाने को कहा। गाँव वालों को समझाने के लिए कहा है। कलेट्टर साहेब ने भी कहा है। वह कोशिश करेगा। वैसे उसकी सुनता कौन है? गाँव में उसकी हैसियत ही क्या है? बिरसो के भागने के बाद तो वह कुकुर जैसा बन गया है। मुखिया को उसने कहा था कि उसे समाज बाहिर न करे। वह उसे ले आएगा। वह नहीं माना। पर अब वह अकेले ही कलट्टर-कप्तान से मिलकर जा रहा है। कप्तान साहब आएंगे बोले हैं। उनके आने से थोड़ी-बहुत तो उसकी धाक जमेगी। वह जरूर कोशिश करेगा। हाथियों का डर दिन-रात बना रहता है। उनके लोग मरते ही रहते हैं। पिछले महीने मुखिया के भाई को ही पटक मारा था दंतैल ने। तेंदू तोड़ने गए थे वे लोग। एक भाई किसी तरह से बचकर आ गया था प्लास्टर चढ़ा हुआ है उसके हाथ में। गाँव छोड़ देने में ही भलाई है। सरकार किसी जगह-पर बसाएगी तो रोजी-रोटी की भी व्यवस्था हो ही जाएगी। क्या पता, बिरसो उसकी हालत को बेहतर देख फिर वापस आ जाए। साहब लोग समझाएँ तो शायद, समझ भी जाए। गाँव वालों को समझाने की कोशिश तो वह जरूर करेगा।
     "इसे छोड़ जाओ!" नगरसेवक ने तीर-कमान की तरफ इशारा किया। उसने सोच लिया था कि तीर-कमान को वह रखेगा। उन्हें अपने घर की बैठक में सजाएगा। सामने की दीवार पर। जहाँ बारहसिंगा का सिर टँगा हुआ है। "...शहर में हथियार लेकर चलना मना है...मालूम है?"
     "लेकिन यह तो तीर-कमान है साहब! जंगल में जानवरों से रक्षा के लिए रखते हैं।" उसने कहा।
     "लेकिन यह शहर है। कोई सिपाही देख लेगा तो हवालात में बंद कर देगा।बेहतर है कि इसे यहीं छोड़ जाओ। घर में तो तुम्हारे पास और भी होंगे। नहीं तो बना लेना।" 
     बुटूराम को समझ में आ गया कि तीर-कमान पर इसका जी लग गया है, "रखना है तो ऐसा बोलो न साहब! डराते क्यों हो?" 
     नगरसेवक ने बेशर्मी से मुस्कराते हुए उसके कंधे से कमान खींच लिया। बुटूराम ने हाथ में धरे हुए तीर को बेमन से खुद ही उसके हवाले कर दिया और सुटुर-सुटुर बाहर निकल गया। उसे रंज हो रहा था। रखना ही था तो ठीक से माँगता। डरा रहा था साला!
                                     
     कामेश्वर

Thursday 6 August 2020

अरमान आनंद की कविता बेगुसरैया की आंख से बनारस

बनारस (1)

तुम्हारे महात्मय से
सर जैसे ही झुका
गोड़ गोबर*में  घुसते घुसते बचा
अहो भाग्य
वहां गड्ढा नहीं था।

*गोड़- पैर

बनारस (2)

मुंह इधर कर न बांदर
उधर क्या देखता है
कंघी कर पानी मार के
ऐसे कैसे जीता है
हम तुझे क्योटू बनावेंगे
तू कशिया चरस पीता है

बनारस(3)

अच्छी अच्छी सुनना हो
किसी और से कहो
न गालिबन तुम वो रहे
न हम ग़ालिब

बनारस(4)

किधर किधर न ढूँढा तुझको रे
तू इधर
शाही नाले में गोंता मार बैठा है
अब तू
जब इतना ऐंठा है
कल के कल जापान से कैमरा वाला ड्रोन मंगवाएंगे
कल के कल तुझे बाहर निकलवायेंगे

बनारस(5)

बउआ बनारसी
आज कल टीना का एक तलवार रखता है 
लचर पोंय टाइप
घुस गया एक दिन बूचर खाने में
बोला 
गाय हमारी माता है
टुन टूना टुन
बजा तभी उका फोन
आवाज आई
मैया बीमार हैं तुमरी
घर आ जाओ
पेट से दस किलो पिलास्टिक निकला है
हाय राम दईया रे दईया
मियान कने है

बनारस(6)

अरे बनारसी
सुना कि रानी बिक्टोरिया के पाँव तल्ले बजरी बिछा के
एगो बनारसी राजा कंगला होय गवा
और 
अब तो धरम करम बेच के सब अमीर हो रहे
तू रह गया कैसे फ़टे का फ़टे 



Saturday 1 August 2020

मार्क्स की इंसान की अवधारणा' - एरिक फ्रॉम (हिन्दी अनुवाद -प्रणव एन)

एरिक फ्रॉम (1900-1980) बीसवीं सदी के उन कुछ बड़े बुद्धिजीवियों में गिने जाते रहे हैं जिन्होंने अपनी गहरी छाप छोड़ी है। जर्मन यहूदी मूल के एरिक फ्रॉम नाजी काल में जर्मनी छोड़ अमेरिका में बस गए। मूलतः मनोवैज्ञानिक और मनोविश्लेषक रहे एरिक फ्रॉम
एरिक फ्रॉम
की 1961 में आई पुस्तक ‘मार्क्सेज कॉन्सेप्ट ऑफ मैन’ मार्क्स के मूल विचारों और जीवन, समाज, व्यक्ति तथा प्रकृति के प्रति उनके नजरिए को समझने का नया आधार तो प्रदान करती ही है इस सवाल से भी टकराती है कि मार्क्स कैसे और क्यों गलत समझे गए, न केवल अपने विरोधियों द्वारा बल्कि समर्थकों द्वारा भी।

[मार्क्स और उनकी विचारणा को समझने के लिए यह पुस्तक अनिवार्य है।]
सुपरिचित अनुवादक प्रणव एन द्वारा अनूदित एरिक फ्रॉम की पुस्तक के अंश यहाँ क्रमशः प्रकाशित होते रहेंगे।

सुपरिचित अनुवादक एवं पत्रकार प्रणव एन. का अनुवाद! 
प्रणव.एन का यह अनुवाद बेहतर संप्रेषणीय और मूल पाठ तक पहुँचने का रास्ता देता है।लम्बे समय से आप वैचारिकी से जुड़े हुए हैं और तमाम पेशेवर कामों के बीच भी दुनिया समाज पर सजग नज़र रखते हुए लेखन में सक्रिय हैं।महान विचारक एरिक फ्रॉम की यह पुस्तक अपने आप मे महत्वपूर्ण है।इस किताब का अनुवाद कर आपने मार्क्सवादी सिद्धांत को समझने का एक तार्किक रास्ता दिया है।
'मार्क्स की इंसान की अवधारणा'
[
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मार्क्स की इंसान की अवधारणा
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अध्याय 1: मार्क्स की अवधारणाओं में घालमेल
एरिक फ्रॉम (1961)
इसे इतिहास की विडंबना ही कहेंगे कि स्रोतों तक पहुंच के असीमित साधनों वाले इस दौर में भी सिद्धांतों के साथ तोड़-मरोड़ और गलतफहमियों का कोई अंत नहीं है। इस प्रवृत्ति का सबसे ज्वलंत उदाहरण है पिछले कुछ दशकों में कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों के साथ हुई तोड़-मरोड़। प्रेस में, नेताओं के भाषणों में, किताबों में और प्रतिष्ठित दार्शनिकों-समाजशास्त्रियों के लेखों में लगातार मार्क्स तथा मार्क्सवाद का जिक्र होता रहा है, इसके बावजूद ऐसा लगता है कि कुछ अपवादों को छोड़कर नेताओं और मीडियाकर्मियों ने कभी मार्क्स की लिखी एक लाइन पर भी नजर नहीं डाली है और समाजशास्त्री भी मार्क्स की न्यूनतम जानकारी से ही संतुष्ट हैं। साफ है कि वे इस क्षेत्र के विशेषज्ञ की एक्टिंग करने में कोई खतरा महसूस नहीं करते क्योंकि सोशल रिसर्च के उनके साम्राज्य में हैसियत और ताकत रखने वाला कोई भी शख्स उनके अज्ञानतापूर्ण वक्तव्यों को चुनौती नहीं देता।
मार्क्स के विचारों को लेकर जो तमाम गलतफहमियां फैली हैं, उनमें सबसे ज्यादा प्रचलित और व्यापक है मार्क्स के ‘भौतिकवाद’ से जुड़ी गलतफहमी।  इन मान्यताओं के मुताबिक मार्क्स ऐसा मानते थे कि मनुष्य को गतिशील रखने वाला सबसे बड़ा मनोवैज्ञानिक कारक होता है पैसा और भौतिक सुख-सुविधाएं हासिल करने की उसकी इच्छा। अधिकतम संभव लाभ की यही इच्छा उसकी निजी जिंदगी में भी सबसे बड़ा प्रेरक तत्व होती है और मनुष्य जाति के जीवन में भी। इस मान्यता के साथ ही यह धारणा भी उतना ही व्यापक रूप ले चुकी है कि मार्क्स ने व्यक्ति के महत्व की उपेक्षा की है, कि मार्क्स की दृष्टि में मनुष्य की आध्यात्मिक जरूरतों की कोई अहमियत नहीं थी, न ही उन्हें इनकी कोई समझ थी और यह कि उनका आदर्श था अच्छा खाने और अच्छा पहनने वाला ‘आत्मारहित’ मनुष्य। मार्क्स द्वारा की गई धर्म की आलोचना को तमाम आध्यात्मिक मूल्यों के नकार के रूप में लिया जाता है और उन लोगों के लिए यह बात और भी स्पष्ट होती है जो मानते हैं कि आध्यात्मिक रुझान के लिए ईश्वर में आस्था अनिवार्य है।
मार्क्स के बारे में बना यह नजरिया यहीं नहीं रुकता। यह उनके समाजवादी समाज की व्याख्या लाखों लोगों के ऐसे समूह के रूप में करता है जो सर्वशक्तिशाली राज्य नौकरशाही के आगे पूरी तरह समर्पित हो चुके होते हैं, ऐसा समाज जिसने समानता भले हासिल कर ली है पर जिसे अपनी आजादी खो देनी पड़ी है; भौतिक तौर पर संतुष्ट ये तमाम ‘व्यक्ति’ अपनी वैयक्तिकता खोकर ऐसे लाखों रोबॉट या चलती-फिरती मशीनों के रूप में सफलतापूर्वक तब्दील हो चुके होते हैं जिनकी कमान मुट्ठी भर अभिजन (इलीट) नेताओं के हाथों में होती है।
शुरू में इतना कहना ही काफी होगा कि मार्क्स के ‘भौतिकवाद’ की यह लोकप्रिय तस्वीर – उनका आध्यात्मिकता विरोधी रुख, समरूपता और अधीनस्थता को लेकर उनका आग्रह – सिरे से गलत है। मार्क्स का मकसद था मनुष्य को आध्यात्मिक मुक्ति दिलाना, आर्थिक स्थितियों की बेड़ी से उसे आजाद कराना,  उसे फिर से संपूर्ण इंसान का रूप देना और उसे दूसरे इंसानों से तथा प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करने में सक्षम बनाना। मार्क्स का दर्शन, धर्मनिरपेक्ष और नास्तिक भाषा में पैगंबर मसीहाई (प्रोफेटिक मेसियनिजम) परंपरा में एक नया और आमूल परिवर्तन लाने वाला कदम था; इसका लक्ष्य था वैयक्तिकता को पूर्ण रूप से अमल में लाना, वही लक्ष्य जो पुनर्जागरण और सुधारों के काल से 19वीं सदी तक पश्चिमी सोच का मार्गदर्शन करता रहा।
यह तस्वीर निस्संदेह बहुत से पाठकों को चौंका सकती है क्योंकि यह उन बातों से एकदम उलट है जो वे मार्क्स के विचारों के बारे में अब तक सुनते-पढ़ते आए हैं। लेकिन इन बातों के विस्तार में जाने से पहले मैं उस विरोधाभास को रेखांकित करना चाहता हूं जो इस तथ्य में निहित है कि मार्क्स के लक्ष्य और समाजवाद की उनकी अवधारणा की निंदा के तौर पर जो विवरण दिए गए हैं वे दरअसल मौजूदा पश्चिमी पूंजीवादी समाज पर फिट बैठते हैं। इस समाज के ज्यादातर लोग ज्यादा भौतिक फायदा पाने की इच्छा से प्रेरित हैं और उनकी इस इच्छा पर कोई अंकुश अगर होता है तो बस सुरक्षा की चिंता का, जोखिम टालने की भावना का। एक ऐसी जिंदगी में ही संतुष्ट रहने की उनकी भावना लगातार मजबूत होती जाती है जो उत्पादन और उपभोग दोनों ही क्षेत्रों में राज्य, बड़े निगम और दोनों की अपनी नौकरशाहियों द्वारा नियमित तथा नियंत्रित की जाती है। वे अनुकूलता के उस स्तर तक पहुंच चुके हैं जिसने उनकी वैयक्तिकता को उल्लेखनीय स्तर तक मिटा दिया है। मार्क्स के शब्दों में कहा जाए तो वे काम शक्ति से संपन्न, मशीनों की सेवा में लगे नपुंसक ‘वस्तु मानव’ हैं। बीसवी शताब्दी के मध्य के पूंजीवाद की ही तस्वीर को ले लें तो वह विरोधियों द्वारा बनाए गए मार्क्स के समाजवाद के कैरिकेचर से शायद ही अलग दिखे। 
इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि जो ‘भौतिकवाद’ का आरोप लगाते हुए मार्क्स की तीखी आलोचना करते हैं, वही लोग समाजवाद को इस आधार पर अव्यावहारिक बताते हैं कि समाजवाद इस बात को स्वीकार नहीं करता कि मनुष्य को कार्य करने के लिए प्रेरित करने वाला एकमात्र कारगर तत्व भौतिक लाभ पाने की उसकी इच्छा है। अपने लिए सुविधाजनक हो तो अधिक से अधिक स्पष्ट अंतर्विरोधों को भी तर्कों की आड़ में नजरअंदाज करने की मनुष्य की असीमित क्षमता का इससे अच्छा उदाहरण शायद ही कोई और मिले। जिन बातों को इसका सबूत बताया जाता था कि मार्क्स के विचार हमारी धार्मिक और आध्यात्मिक परंपराओं के कितने विपरीत हैं और जिन बातों का मार्क्स के विचारों के बरक्स हमारी मौजूदा व्यवस्था के बचाव में इस्तेमाल किया जाता था, उन्हीं बातों के जरिए वही लोग यह भी साबित करते रहे कि पूंजीवाद मानव प्रकृति के समरूप है और इसीलिए ‘अव्यावहारिक’ समाजवाद से बहुत-बहुत अच्छा है।
मैं यह बताने की कोशिश करूंगा 
-कि मार्क्स की यह व्याख्या पूरी तरह गलत है;
-कि मार्क्स के सिद्धांत ऐसा नहीं मानते कि मनुष्य को प्रेरित करने वाला मुख्य कारक भौतिक लाभ है; 
-कि मार्क्स का उद्देश्य ही मनुष्य को आर्थिक जरूरतों के दबाव से मुक्त करना था ताकि वह पूरी तरह इंसान बन सके; 
-कि मार्क्स की मुख्य चिंता यह थी कि मनुष्य की एक व्यक्ति के रूप में मुक्ति कैसे संभव हो, कैसे उसका अलगाव दूर किया जाए और वह दूसरे मनुष्यों से तथा प्रकृति से पूरी तरह तादात्म्य स्थापित करने की अपनी क्षमता वापस हासिल कर सके; 
-कि मार्क्स का दर्शन धर्मनिरपेक्ष भाषा में एक आध्यात्मिक अस्तित्ववाद रचता है और इस आध्यात्मिक खूबी के चलते यह भौतिकवादी व्यवहारों तथा हमारे युग के भौतिकवादी दर्शन के विपरीत है;
-कि मार्क्स की इंसान की अवधारणा पर आधारित उनका लक्ष्य, समाजवाद दरअसल उन्नीसवीं सदी की भाषा में मूलतः प्रोफेटिक मेसियनिजम ही है।
फिर आखिर यह कैसे हो सकता है कि मार्क्स के दर्शन को इस कदर गलत समझा गया और उसे तोड़-मरोड़ कर एकदम विपरीत रूप दे दिया गया? इसके कई कारण हैं। पहला और सबसे स्पष्ट कारण है अज्ञानता। ऐसा लगता है कि ये ऐसे विषय रहे जो विश्वविद्यालयों में नहीं पढ़ाए गए, किसी परीक्षा में इससे जुड़े सवाल नहीं किए गए और इसलिए हर व्यक्ति इन पर अपने ढंग से सोचने, बोलने और लिखने के लिए ‘आजाद’ रहा, इसे ढंग से समझने की चिंता किए बगैर भी। कोई ऐसी सम्मान्य अथॉरिटी नहीं रही जो तथ्यों और सच्चाइयों का सम्मान किए जाने पर जोर देती। इसलिए हर कोई खुद को मार्क्स पर बोलने का अधिकारी समझने लगा, उन्हें पढ़े बगैर या कम से कम इतना पढ़े बगैर कि उनकी जटिल, गूढ़ और सूक्ष्म विचार पद्धति का कुछ अंदाजा हो सके। इससे भी फर्क नहीं पड़ा कि इंसान की, उसके अलगाव की, उसकी मुक्ति आदि की मार्क्स की अवधारणा बताने वाली उनकी प्रमुख दार्शनिक कृति ‘इकॉनमिक एंड फिलॉसफिकल मैन्युस्क्रिप्ट्स’ अभी हाल तक अंग्रेजी में अनुवादित नहीं हुई थी और इसलिए उनके कई विचार अंग्रेजीभाषी जगत के लिए अनजान थे।
हालांकि यह तथ्य किसी भी सूरत में मार्क्स को लेकर फैली अज्ञानता की व्याख्या करने के लिए काफी नहीं है क्योंकि मार्क्स की इस किताब का अंग्रेजी में काफी देर से अनुवादित होना अपने आप में इस अज्ञानता का कारण ही नहीं उसका परिणाम भी था। दूसरी बात यह कि मार्क्स के मूल दार्शनिक विचार उनकी अंग्रेजी में पहले प्रकाशित किताबों में भी इतने साफ हैं कि इस तरह की गलतफहमियों से बचना मुश्किल नहीं था।
इसका एक और कारण इस तथ्य में निहित है कि रूसी कम्यूनिस्टों ने मार्क्स के सिद्धांतों पर अपना कब्जा जमा लिया और पूरी दुनिया को यह यकीन दिलाने की कोशिश की कि उनके सिद्धांत और व्यवहार मार्क्स के ही विचारों के अनुरूप हैं, जबकि बात उल्टी थी। पश्चिम ने उनके प्रचारात्मक दावों को स्वीकार कर लिया और यह मान बैठा कि मार्क्स के सिद्धांत ठीक वही हैं जो रूसियों के सिद्धांत और व्यवहार बताते हैं। हालांकि रूसी कम्यूनिस्ट अकेले नहीं हैं जो मार्क्स के विचारों को तोड़ने-मरोड़ने के दोषी हों। वैयक्तिक गरिमा और मानववादी मूल्यों की ऐसी-तैसी करने के मामले में जरूर उन्हें विशिष्टता हासिल रही है, लेकिन जहां तक अर्थशास्त्रीय भौतिकवाद के प्रतिपादक के तौर पर मार्क्स के विचारों को तोड़ने-मरोड़ने का सवाल है तो उसमें साम्यवाद विरोधियों और सुधारवादी समाजवादियों की भी भागीदारी रही है। इसके कारणों को समझना मुश्किल नहीं है। जहां मार्क्स के सिद्धांत पूंजीवाद की समीक्षा हैं वहीं उनके बहुत से समर्थक पूंजीवादी भावनाओं में इस कदर डूबे हुए थे कि उन्होंने मार्क्स के विचारों की व्याख्या समकालीन पूंजीवाद में प्रचलित अर्थशास्त्रीय और भौतिकवादी मानकों के अनुरूप कर दी। बेशक, सोवियत कम्यूनिस्टों के साथ ही सुधारवादी समाजवादी भी खुद को पूंजीवाद का दुश्मन मानते थे, लेकिन असलियत यह थी कि उन्होंने साम्यवाद और समाजवाद को पूंजीवादी चेतना के साथ ग्रहण किया था। उनके लिए समाजवाद कोई ऐसा नया समाज नहीं था जो पूंजीवाद से मानवीय तौर पर एकदम अलग हो। उनके अनुसार यह पूंजीवादी समाज का ही एक अलग रूप था जिसमें मजदूर वर्ग को ऊंची हैसियत मिली हुई होती है। इसे ही एंगल्स ने एक बार व्यंग्यात्मक स्वर में कहा था, ‘मौजूदा समाज, इसकी कमियों के बगैर।’
अब तक हमने मार्क्स के विचारों में तोड़-मरोड़ के तार्किक और वास्तविक कारणों पर बात की है। लेकिन, इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसे अतार्किक कारण भी रहे हैं जिन्होंने इस तोड़-मरोड़ में मदद की है। सोवियत संघ को तमाम बुराइयों का मूर्त रूप समझा जाता था; ऐसे में स्वाभाविक ही था उसके विचारों को शैतानी प्रभाव से ग्रस्त माना जाने लगता। 1917 के बाद कुछ ही दिनों के अंदर कम्यूनिस्ट शैतान का रूप माने जाने लगे और उनके सिद्धांतों पर निष्पक्षता से विचार होना मुश्किल हो गया। इस नफरत का कारण आम तौर पर उस आतंक को बताया जाता है जो स्टालिनवादियों ने लंबे समय तक बनाए रखा। लेकिन इस व्याख्या की प्रामाणिकता पर संदेह के पुख्ता आधार मौजूद हैं। आतंक और अमानवीयता का ऐसा ही दौर जब फ्रांसीसियों ने अल्जीयर्स में, ट्रुजिलो ने सैंटो डोमिंगो में और फ्रैंको ने स्पेन में कायम किया तो उनके खिलाफ ऐसी नैतिकतापूर्ण नाराजगी नहीं जताई गई, बल्कि कोई नाराजगी नहीं जताई गई। इतना ही नहीं, स्टालिन की बेलगाम आतंककारी व्यवस्था जब ख्रुश्चेव की प्रतिक्रियावादी पुलिस राज्य में बदली तब भी उसकी ओर खास ध्यान नहीं दिया गया। 
इन सबसे हम यह सोचने को मजबूर होते हैं कि क्या रूस के प्रति जताई जा रही यह नैतिकतापूर्ण नाराजगी सचमुच मानवतावादी और नैतिक भावनाओं पर आधारित है या इसका कारण सिर्फ इस एक तथ्य में निहित है कि वहां की व्यवस्था में निजी संपत्ति नहीं थी।
यह कहना मुश्किल है कि मार्क्स के दर्शन में तोड़-मरोड़ और घालमेल के लिए ऊपर बताए गए कारकों में से सबसे ज्यादा जिम्मेदार कौन सा था। संभवतः हर व्यक्ति और राजनीतिक समूह के संदर्भ में इनकी भूमिका का महत्व बदल जाता है। ऐसी संभावना नहीं है कि इनमें से कोई एकमात्र कारक इसके लिए जिम्मेदार हो।

मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद -

मार्क्स के दर्शन की सही समझ विकसित करने के रास्ते में पहली बड़ी बाधा है भौतिकवाद या ऐतिहासिक भौतिकवाद की उनकी अवधारणा को लेकर बनी गलतफहमी। जो इस दर्शन का मतलब यह बताते हैं कि मनुष्य की भौतिक कामना यानी अधिक से अधिक वस्तुएं और सुविधाएं हासिल करते जाने की उसकी इच्छा ही उसका मुख्य प्रेरक तत्व होती है, वे यह मूल बात भूल जाते हैं कि मार्क्स और अन्य तमाम दार्शनिकों ने जिन अर्थों में ‘आदर्शवाद’ या ‘भौतिकवाद’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया है, उनका उच्च आध्यात्मिक स्तर की ओर ले जाने वाली मनोवैज्ञानिक प्रेरणाओं या निचले स्तर की भौतिक प्रेरणाओं से कोई लेना-देना नहीं है। दार्शनिक शब्दावली में भौतिकवाद का मतलब उस दार्शनिक दृष्टिकोण से होता है जिसके मुताबिक पदार्थों की गतिशीलता ही ब्रह्मांड का मूल तत्व  है। इस लिहाज से यूनान के सुकरात से पहले के दार्शनिक जरूर भौतिकवादी थे, हालांकि ऊपर बताए गए अर्थों में वे कतई भौतिकवादी नहीं थे। इसके विपरीत ‘आदर्शवाद’ का मतलब उस दार्शनिक विचार पद्धति से है जिसमें ज्ञानेंद्रियों के संज्ञान में आने वाली निरंतर बदलती यह दुनिया यथार्थ नहीं है, यथार्थ है आत्मा या चेतना। प्लेटो का सिस्टम पहला ऐसा दार्शनिक सिस्टम है जिसे आदर्शवाद का नाम दिया गया। 
बहरहाल, सचाई यह है कि कई तरह की भौतिकवादी और आदर्शवादी दार्शनिक धाराएं प्रचलित रही हैं और मार्क्स के भौतिकवाद को समझने के लिए जरूरी है कि इन दार्शनिक धाराओं की उस सामान्य परिभाषा से थोड़ा आगे बढ़ा जाए जो ऊपर दी गई है। वास्तव में मार्क्स ने उस दार्शनिक भौतिकवाद के खिलाफ कड़ा स्टैंड लिया जिसका रुझान उनके समय के बहुत से प्रगतिशील चिंतकों (खासकर निसर्गवादियों) में मौजूद था। इस भौतिकवाद का दावा था कि तमाम मानसिक और आध्यात्मिक प्रवृत्तियों का आधार पदार्थों और भौतिक प्रक्रियाओं में ही मिलता है। अपने सबसे फूहड़ और सतही रूप में यह भौतिकवाद बताता है कि भावनाओं और विचारों को ठीक ही शारीरिक रासायनिक प्रक्रियाओं का परिणाम कहा गया है और यह कि ‘मस्तिष्क के लिए विचार वैसा ही है जैसा किडनी के लिए पेशाब।’
मार्क्स ने इतिहास और उसकी प्रक्रियाओं का निषेध करने वाले प्रकृति विज्ञान के इस अमूर्त भौतिकवाद, यांत्रिक और बुर्जुआजी भौतिकवाद के खिलाफ संघर्ष किया। इसके स्थान पर उन्होंने इकोनॉमिक एंड फिलॉसफिकल मैन्युस्क्रिप्ट में प्रकृतिवाद या मानववाद का प्रतिपादन किया जो आदर्शवाद और भौतिकवाद दोनों से अलग है। हालांकि दोनों के एकीकृत सत्य इसमें समाहित हैं। वास्तव में मार्क्स ने कभी ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’ या ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ शब्दों का प्रयोग ही नहीं किया। उन्होंने हीगल की पद्धति से अलग अपनी ‘द्वंद्वात्मक पद्धति’ और इसके भौतिकवादी आधार की चर्चा जरूर की है जिससे उनका मतलब मनुष्य के अस्तित्व के बुनियादी हालात से है। 
‘भौतिकवाद’ का यह पहलू (यानी मार्क्स की ‘भौतिकवादी पद्धति’) जो मार्क्स के विचारों को हीगल के विचारों से अलग करता है, मनुष्य के वास्तविक आर्थिक और सामाजिक जीवन का और उसके वास्तविक जीवन व्यवहारों के उसके विचारों तथा भावनाओं पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन करता है। मार्क्स ने लिखा है, ‘स्वर्ग से जमीन पर उतरने वाले जर्मन दर्शन के ठीक उलट इसमें हम जमीन से स्वर्ग की ओर उठते जाते हैं। कहने का मतलब यह कि हाड़-मांस के मनुष्य तक पहुंचने के लिए हमारा प्रस्थान बिंदु यह नहीं होता कि लोग क्या कल्पना करते हैं, क्या सोचते हैं, न ही यह कि उनके बारे में क्या कहा, सोचा जाता है, क्या कल्पना की जाती है या कैसी अवधारणा बनाई जाती है। हमारा प्रस्थान बिंदु होता है वास्तविक, सक्रिय मनुष्य। उनकी वास्तविक जीवन प्रक्रियाओं के आधार पर हम इस जीवन प्रक्रिया के विचारधारात्मक प्रतिरूपों और प्रतिध्वनियों के विकास को दर्शाते हैं।’ या फिर जैसा कि उन्होंने थोड़े अलग शब्दों में कहा है, ‘हीगल का इतिहास का दर्शन और कुछ नहीं बल्कि चेतना और पदार्थ, ईश्वर और संसार के बीच के अंतर्विरोध को लेकर ईसाई-जर्मन धारणा की दार्शनिक अभिव्यक्ति है... हीगल का इतिहास का दर्शन एक ऐसी अमूर्त या संपूर्ण चेतना की कल्पना कर लेता है जो इस तरह से विकसित होती है कि मानव समाज जाने-अनजाने उसका वहन करने वाली एक भीड़ मात्र बन कर रह जाता है। हीगल मान लेता है कि एक पूर्व कल्पित इतिहास होता है जो वास्तविक इतिहास से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। इस तरह मनुष्यता का इतिहास मनुष्यता की उस अमूर्त चेतना के इतिहास में परिणत हो जाता है जो वास्तविक मनुष्य पर हावी हो जाती है।‘
मार्क्स ने खुद अपनी ऐतिहासिक पद्धति को बड़े संक्षेप में वर्णित किया है, ‘मनुष्य किस तरह से अपनी आजीविका के साधन पैदा करते हैं यह सबसे ज्यादा उन वास्तविक साधनों की प्रकृति पर निर्भर करता है जो उन्हें अस्तित्व में मिलते हैं और जिनका उन्हें पुनरुत्पादन करना होता है। इस उत्पादन पद्धति को सीधे-सीधे व्यक्तियों के भौतिक अस्तित्व के पुनरुत्पादन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। वास्तव में यह इन व्यक्तियों की गतिविधियों का एक सुनिश्चित स्वरूप है, उनकी जिंदगी को व्यक्त करने का एक निश्चित स्वरूप, उनके हिस्से के जीवन की एक निश्चित पद्धति। व्यक्ति चूंकि अपने जीवन को व्यक्त करते हैं, इसलिए वे होते हैं। इसलिए जो वे होते हैं वह काफी कुछ उनके उत्पादन से जुड़ा होता है, दोनों लिहाज से, यानी एक तो इससे कि वे क्या उत्पादित कर रहे हैं और दूसरे इससे भी कि यह उत्पादन वे कैसे कर रहे हैं। इस तरह, व्यक्तियों की प्रकृति उनका उत्पादन तय करने वाली भौतिक परिस्थितियों पर निर्भर करती है।‘
मार्क्स ने ऐतिहासिक भौतिकवाद और समकालीन भौतिकवाद के बीच का अंतर फायरबाख पर अपनी थीसिस में बड़े स्पष्ट शब्दों में बताया हैः
‘आज तक के सारे भौतिकवादों (फायरबाख के भौतिकवाद सहित) की मुख्य गड़बड़ी यह है कि वस्तु, यथार्थ, जो भी हम अपनी इन्द्रियों के जरिए समझते हैं, वे विचार या वस्तु के ही रूप में समझी जाती हैं, इन्द्रियों के प्रति संवेदनशील मानवीय गतिविधियों के रूप में नहीं। इसलिए भौतिकवाद के विरोध में आदर्शवाद ने सक्रिय पक्ष को अमूर्त रूप से पाला-पोसा जिसे पता ही नहीं कि वास्तव में इन्द्रियों के प्रति संवेदनशील गतिविधि होती क्या है। फायरबाख चाहता है इन्द्रियों के प्रति संवेदनशील गतिविधियों को विचार के विषयों से एकदम अलग, विशिष्ट रूप में लिया जाए, लेकिन वह मानवीय गतिविधियों को ही वस्तुनिष्ठ गतिविधि के रूप में नहीं देखता।‘  हीगल की तरह मार्क्स वस्तु को उसकी गति में देखता है, उसके बनने में, न कि एक ठोस वस्तु के रूप में, जिसकी व्याख्या इसके भौतिक कारण को उद्घाटित करते हुए की जा सकती है। हीगल के विपरीत, मार्क्स इंसान और इतिहास का अध्ययन वास्तविक मनुष्य और उसकी उन सामाजिक, आर्थिक स्थितियों से शुरू करता है जिनमें वह रह रहा होता है, न कि उसके विचारों से। मार्क्स बुर्जुआजी भौतिकवाद से उतना ही दूर था जितना हीगल के आदर्शवाद से था – इसलिए उसने ठीक ही कहा कि उसका दर्शन न तो आदर्शवाद है और न भौतिकवाद बल्कि संश्लेषण (सिंथेसिस) हैः मानववाद और निसर्गवाद।
अब तक यह स्पष्ट हो गया होगा कि ऐतिहासिक भौतिकवाद की प्रकृति के बारे में प्रचलित मान्यता क्यों त्रुटिपूर्ण है। प्रचलित मान्यता यह मान लेती है कि मार्क्स के मतानुसार मनुष्य के अंदर सबसे मजबूत मनोवैज्ञानिक कारक पैसा पाने या भौतिक सुख-सुविधाएं हासिल करने की इच्छा ही होता है। ऐतिहासिक भौतिकवाद की यह व्याख्या आगे कहती है कि अगर यह मनुष्य के अंदर की सबसे बड़ी शक्ति है तो इतिहास को समझने का मुख्य जरिया लोगों की भौतिक इच्छा ही हो सकती है। यानी इतिहास की व्याख्या की कुंजी है मनुष्य का पेट और भौतिक सुख-सुविधाओं के प्रति उसका लोभ। इस व्याख्या की मूलभूत गड़बड़ी है यह मान्यता कि ऐतिहासिक भौतिकवाद ऐसा मनोवैज्ञानिक सिद्धांत है जो मनुष्य की प्रवृत्तियों और आवेगों से वास्ता रखता है। लेकिन वास्तव में, ऐतिहासिक भौतिकवाद मनोवैज्ञानिक सिद्धांत कतई नहीं है। इसका दावा है कि मनुष्य की उत्पादन पद्धति से उसका चिंतन और उसकी इच्छाएं निर्धारित होती हैं, यह नहीं कि उसकी मुख्य इच्छाएं अधिकतम भौतिक लाभ से प्रेरित होती हैं। इस संदर्भ में अर्थव्यवस्था का तात्पर्य एक मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं बल्कि उत्पादन पद्धति होता है; मनोगत, मनोवैज्ञानिक नहीं बल्कि एक वस्तुगत आर्थिक-समाजशास्त्रीय कारक। इस सिद्धांत में एकमात्र आधार-वाक्य जिसे कुछ हद तक मनोवैज्ञानिक कहा जा सकता है, इस मान्यता में निहित है कि मनुष्य को भोजन, आवास आदि की जरूरत होती है; इसलिए उसे उत्पादन करना होता है; इसलिए उत्पादन पद्धति सर्वोपरि होती है जो कि बहुत सारे वस्तुगत कारकों पर निर्भर करती है और फिर जैसी वह होती है उसके मुताबिक मनुष्य की अन्य क्षेत्रों की गतिविधियों को निर्धारित करती है। वे वस्तुगत स्थितियां जो उत्पादन पद्धति तय करतीं और सामाजिक संगठनों को आकार देती हैं, वही मनुष्य, उसके विचार और हित भी निर्धारित करती हैं। दरअसल, यह विचार कि ‘संस्थाएं मनुष्य का निर्माण करती हैं’ (मॉन्टेस्क्यू) काफी पुराना है। मार्क्स ने इसमें जो नई बात जोड़ी वह है इस बात का विस्तृत विश्लेषण कि कैसे संस्थाओं की जड़ें उत्पादन पद्धति में जमी होती हैं और कैसे उत्पादक शक्तियां इनमें अंतर्निहित होती हैं। कुछ निश्चित आर्थिक स्थितियां जैसे पूंजीवाद की स्थितियां संपत्ति और पैसों की इच्छा को मुख्य प्रेरक शक्ति के रूप में पेश करती हैं; अन्य आर्थिक स्थितियां एकदम विपरीत इच्छाओं जैसे सादगी, संयम और संपत्ति के प्रति विराग को मुख्य प्रेरक शक्ति के रूप में पेश कर सकती हैं। जैसा कि हम पूर्व की संस्कृतियों में और पूंजीवाद की आरंभिक अवस्थाओं में देखते हैं। मार्क्स के मुताबिक पैसों और संपत्ति के प्रति जुनून ठीक वैसे ही आर्थिक स्थितियों की उपज है जैसे कि इसके विपरीत इच्छाएं।
मार्क्स की इतिहास की ‘भौतिकवादी’ या ‘आर्थिक’ व्याख्या का मनुष्य के अंदर कथित तौर पर सबसे प्रमुख प्रवृत्ति के रूप में मौजूद ‘भौतिकवादी’ या ‘आर्थिक’ उद्यम से कोई लेना-देना नहीं है। इसका यह जरूर कहना है कि इतिहास का विषय और इसके कानूनों की समझ का केंद्र मनुष्य, वास्तविक और समग्र मनुष्य होता है, ‘वास्तविक जीवित व्यक्ति’ - न कि इन व्यक्तियों द्वारा प्रस्तुत विचार।
अगर ‘भौतिकवाद’ और ‘आर्थिक’ जैसे शब्दों की अस्पष्टता से बचना हो तो मार्क्स की इतिहास की व्याख्या को इतिहास की मानववैज्ञानिक व्य़ाख्या कहा जा सकता है। यह इतिहास की ऐसी समझ है जो इस तथ्य पर आधारित है कि इंसान ‘अपने इतिहास के लेखक और उसके सक्रिय कार्यकर्ता’ होते हैं।
दरअसल, मार्क्स और 18 वीं तथा 19वीं सदी के अन्य लेखकों के बीच एक बड़ा अंतर ही यह है कि वह पूंजीवाद को मानवीय प्रकृति का परिणाम नहीं मानते और न ही पूंजीवाद के तहत मनुष्य की प्रेरक शक्ति को मनुष्य की सार्वकालिक प्रेरक शक्ति मानते हैं। मार्क्स मनुष्य की सबसे प्रबल प्रेरक शक्ति अधिकतम लाभ को मानते थे, इस मान्यता का बेतुकापन तब और भी स्पष्ट हो जाता है जब हम यह देखते हैं कि मार्क्स ने मनुष्य की प्रेरणाओं के बारे में कई सीधे वक्तव्य दिए हैं। उन्होंने ‘निश्चित’ और ‘सापेक्षिक’ प्रवृत्तियों में फर्क किया है। उनके मुताबिक निश्चित प्रेरणाएं वे होती हैं जो हर परिस्थिति में मौजूद रहती हैं और विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों में उनमें जो थोड़े-बहुत बदलाव आते भी हैं वे उनके स्वरूप और दिशा तक सीमित रहते हैं। सापेक्षिक प्रवृत्ति वे होती हैं जो खास तरह के सामाजिक संगठन की ही उपज होती हैं। मार्क्स सेक्स और भूख को निश्चित प्रवृत्ति की श्रेणी में रखते हैं लेकिन उन्हें कभी यह बात नहीं सूझी कि अधिकतम आर्थिक लाभ को भी उसी श्रेणी में रख दें।
मगर, मार्क्स के भौतिकवाद के संबंध में प्रचलित मान्यता को गलत साबित करने के लिए उनके मनोवैज्ञानिक विचारों से ऐसे सबूत ढूंढने की कोई जरूरत नहीं है। पूंजीवाद की उनकी पूरी आलोचना ही यही है कि इसने पैसों और भौतिक लाभों की इच्छा को मनुष्य की मुख्य प्रवृत्ति बना दिया है और समाजवाद की उनकी अवधारणा ही एक ऐसे समाज की है जिसमें यह भौतिक इच्छा मनुष्य की प्रमुख प्रेरक शक्ति नहीं रह जाएगी। यह बात आगे और स्प्ष्ट होगी जब हम मनुष्य की मुक्ति और आजादी संबंधी मार्क्स की अवधारणाओं पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
जैसा कि मैंने पहले भी कहा है, मार्क्स आरंभ ही करते हैं मनुष्य से जो खुद अपना इतिहास बनाता हैः “सभी मानवीय इतिहासों का मूल आधार बेशक जीवित व्यक्तियों का अस्तित्व है। इसलिए पहला तथ्य जो स्थापित किए जाने की जरूरत है वह है इन व्यक्तियों का भौतिक संगठन और बाकी पूरी प्रकृति से रिश्ता। बेशक यहां हम न तो मनुष्य की वास्तविक भौतिक प्रकृति का विवेचन कर सकते हैं न ही उन प्राकृतिक स्थितियों – भू तत्वीय, जलतत्वीय, जलवायु संबंधी आदि - का विश्लेषण कर सकते हैं जिनमें मनुष्य खुद को पाता है। इतिहास लेखन की यात्रा हमेशा इन प्राकृतिक आधारों और इतिहास के क्रम में मनुष्य के कार्यों से इनमें होने वाले परिवर्तनों को दर्ज करते हुए बढ़नी चाहिए। मनुष्य जानवरों से चेतना के आधार पर, धर्म के आधार पर या ऐसे ही अन्य आधारों पर अलग किए जा सकते हैं। वे खुद अपनी आजीविका के साधन उत्पादित करना शुरू कर देते हैं। यह एक ऐसा कदम है जो उनके भौतिक संगठन द्वारा तैयार किया जाता है। अपनी आजीविका के साधन उत्पादित करते हुए मनुष्य प्रकारांतर से अपनी वास्तविक भौतिक जिंदगी का उत्पादन कर रहा होता है।”
मार्क्स के मूलभूत विचारों को समझना महत्वपूर्ण हैः मनुष्य खुद अपना इतिहास बनाता है; वह खुद अपना निर्माता है। जैसा कि कई साल बाद उन्होंने ‘पूंजी’ में लिखाः “और ऐसे इतिहास को संकलित करना आसान भी होगा, क्योंकि जैसा कि विको कहते हैं, मानवीय इतिहास नैसर्गिक इतिहास से इस अर्थ में अलग है कि हमने इसे बनाया है, उसे नहीं।“ मनुष्य इतिहास की प्रक्रिया में खुद को जन्म देता है। मनुष्य जाति के आत्मनिर्माण की इस प्रक्रिया में मूल कारक होता है प्रकृति से उसका रिश्ता। अपने इतिहास की शुरुआत में मनुष्य प्रकृति से पूरी तरह जकड़ा होता है। विकास की प्रक्रिया में वह प्रकृति के साथ अपने रिश्ते को रूपांतरित करता है और खुद को भी।
पूंजी में मार्क्स प्रकृति के ऊपर इस निर्भरता के बारे में और भी बहुत कुछ कहते हैः “उत्पादन के ये पुराने सामाजिक ढांचे, बुर्जुआजी समाज के मुकाबले बेहद साधारण और पारदर्शी हैं। मगर वे या तो ऐसे व्यक्तियों के अपरिपक्व विकास पर आधारित हैं जो आदिमकालीन आदिवासी समुदायों में व्यक्तियों को एक-दूसरे से जोड़ने वाले नाभिनाल जुड़ावों को भी काट नहीं पाए थे या फिर प्रत्यक्ष अधीनस्थता वाले संबंधों पर। वे तभी अस्तित्व बना और कायम रख सकते हैं जब उत्पादक श्रम शक्ति का विकास एक खास सीमा से आगे न बढ़ा हो और इसीलिए भौतिक जीवन की परिधि में सामाजिक जीवन – मनुष्य और मनुष्य के बीच तथा मनुष्य और प्रकृति के बीच – उसी अनुपात में संकीर्ण हो। यह संकीर्णता पुराने समय में होने वाली प्रकृति की पूजा तथा प्रचलित धर्म के अन्य तत्वों में झलकती है। वास्तविक दुनिया की धार्मिक परछाईं किसी भी सूरत में, अंतिम तौर पर तभी लुप्त हो सकती है जब रोजमर्रा की जिंदगी के व्यावहारिक रिश्ते मनुष्य को प्रकृति और अन्य मनुष्यों के संबंध में नितांत बोधगम्य और तार्किक रिश्तों की झलक दें। भौतिक उत्पादन की प्रक्रिया पर आधारित समाज की जीवन प्रक्रिया अपना रहस्यात्मक परदा तब तक नहीं हटाती जब तक कि इसका ख्याल रखने के लिए स्वतंत्र रूप से जुड़े मनुष्यों द्वारा संचालित उत्पादन प्रक्रिया अमल में नहीं आ जाती और वह तय योजना के मुताबिक उन लोगों द्वारा सतर्कतापूर्वक नियमित नहीं की जाने लगती। हालांकि इसके लिए समाज में एक निश्चित भौतिक आधार या रहन-सहन की एक खास परिस्थिति का होना जरूरी है जो, फिर विकास की लंबी और तकलीफदेह प्रक्रिया की स्वतःस्फूर्त उपज है।”
इस वक्तव्य में मार्क्स ने एक ऐसे तत्व का जिक्र किया है जिसकी उनके सिद्धांत में प्रमुख भूमिका है। वह है श्रम। श्रम वह कारक है जो मनुष्य और प्रकृति के बीच मध्यस्थता करता है। श्रम अपनी शक्ति को प्रकृति के साथ नियमित करने की मनुष्य की कोशिश है। श्रम मनुष्य की जिंदगी की अभिव्यक्ति है और श्रम के जरिए मनुष्य और प्रकृति के बीच के रिश्तों में बदलाव आता है। यानी श्रम के जरिए मनुष्य खुद को बदलता है। श्रम की उनकी अवधारणा पर आगे और चर्चा होगी।
इस खंड का समापन मैं 1859 में लिखे उस उद्धरण से करूंगा जो ऐतिहासिक भौतिकवाद पर मार्क्स की सबसे संपूर्ण व्याख्या हैः 
“जिस सामान्य निष्कर्ष पर मैं पहुंचा, और एक बार मिलने के बाद जिस निष्कर्ष ने मेरे अध्ययन के लिए मार्गदर्शक सूत्र का काम किया, उसे संक्षेप में इस तरह व्यक्त किया जा सकता हैः अपने जीवन के सामाजिक उत्पादन के दौरान मनुष्य ऐसे निश्चित और अपरिहार्य रिश्तों में पड़ता है जो उसकी इच्छा से स्वतंत्र होते हैं। उत्पादन के ये रिश्ते अपनी भौतिक उत्पादक शक्तियों के विकास की निश्चित अवस्था के अनुरूप होते हैं। उत्पादन के इन तमाम रिश्तों का कुल जोड़ मिलकर समाज की आर्थिक संरचना का निर्माण करता है जो उसकी वास्तविक बुनियाद होती है और इसी के ऊपर खड़ा होता है वह राजनीतिक और वैधानिक सुपरस्ट्रक्चर जिसके अनुरूप विकसित होते हैं सामाजिक चेतना के निश्चित स्वरूप। भौतिक जीवन की उत्पादन पद्धति मोटे तौर पर सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक जीवन प्रक्रिया तय करती है। वह लोगों की चेतना नहीं है जो उनका सामाजिक अस्तित्व निर्धारित करती है बल्कि इसके उलट उनका सामाजिक अस्तित्व ही उनकी चेतना निर्धारित करता है। अपने विकास की एक निश्चित अवस्था में समाज की भौतिक उत्पादक शक्तियां पहले से मौजूद उत्पादन संबंधों से या उन संपत्ति संबंधों से जिनमें वे अब तक रह रही होती हैं, टकराने लगती हैं। उत्पादक शक्तियों के विकास के स्वरूप से बदलकर ये रिश्ते धीरे-धीरे उनके पांवों की बेड़ियां बन जाते हैं। इसके बाद सामाजिक क्रांति का युग शुरू होता है। आर्थिक बुनियाद में बदलाव के बाद विशाल सुपरस्ट्रक्चर का रूपांतरण अपेक्षाकृत जल्दी होता है। ऐसे रूपांतरणों पर विचार करते हुए उत्पादन की आर्थिक परिस्थितियों के भौतिक रूपांतरण में (जो नैसर्गिक विज्ञान की यथार्थता के जरिए निर्धारित किया जा सकता है)  और वैधानिक, राजनीतिक, धार्मिक या दार्शनिक, एक शब्द में कहें तो वैचारिक स्वरूपों वाले रूपांतरण (जिनमें लोग इस संघर्ष को लेकर सचेत हो जाते हैं और इसे अंजाम देते हैं) में फर्क जरूर किया जाना चाहिए। जैसे कि किसी व्यक्ति के बारे में हमारी राय इस बात पर निर्भर नहीं करती कि वह अपने बारे में क्या सोचता है, वैसे ही हम रूपांतरण की ऐसी किसी अवधि के बारे में फैसला इसकी चेतना के आधार पर नहीं कर सकते। उल्टे, इस चेतना की व्याख्या भौतिक जीवन के अंतर्विरोधों के आधार पर, सामाजिक उत्पादक शक्तियों और उत्पादन संबंधों के बीच चल रहे टकराव के आधार पर की जानी चाहिए। कोई भी सामाजिक व्यवस्था तब तक नष्ट नहीं होती जब तक कि वे तमाम उत्पादक शक्तियां विकसित नहीं हो जातीं जिनके लिए इसमें गुंजाइश होती है; और नए उच्चतर उत्पादन संबंध तब तक सामने नहीं आते जब तक कि उनके अस्तित्व की भौतिक स्थितियां पुराने समाज के ही गर्भ में परिपक्व नहीं हो जातीं। इसलिए मनुष्यता अपने सामने हमेशा वही कार्यभार रखती है जो पूरे किए जा सकते हों। यानी अगर थोड़ा और बारीकी से देखा जाए तो यह हमेशा पाया जाएगा कि कार्य तभी सामने आता है जब उसे पूरा करने लायक भौतिक स्थितियां पहले ही तैयार हो चुकी होती हैं या कम से कम उनके तैयार होने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी होती है। एशियाई, प्राचीन, सामंती और आधुनिक बुर्जुआजी उत्पादन पद्धतियों को मोटे तौर पर समाज के आर्थिक निर्माण के क्रम में आए प्रगतिशील युगों के रूप में श्रेणीबद्ध किया जा सकता है। बुर्जुआजी उत्पादन संबंध उत्पादन की सामाजिक प्रक्रिया का आखिरी शत्रुतापूर्ण स्वरूप है - शत्रुतापूर्ण वैयक्तिक शत्रुता के अर्थ में नहीं, व्यक्ति के जीवन की सामाजिक परिस्थितियों से उत्पन्न शत्रुता के अर्थ में; इसी बीच बुर्जुआ समाज के गर्भ में विकसित हो रहीं उत्पादक शक्तियां इस शत्रुता को हल करने के लिए आवश्यक भौतिक स्थितियां तैयार कर देती हैं। इस प्रकार यह सामाजिक ढांचा मानव सभ्यता के इस पूर्व-इतिहास (प्री-हिस्ट्री) को समापन तक पहुंचा देता है।
यहां इस सिद्धांत की कुछ विशेष मान्यताओं को एक बार फिर से रेखांकित कर लेना उपयोगी होगा। सबसे पहले मार्क्स की ऐतिहासिक परिवर्तन की अवधारणा। परिवर्तन का कारण उत्पादक शक्तियों (तथा अन्य वस्तुगत परिस्थितियों) और तत्कालीन सामाजिक ढांचे के बीच का टकराव होता है। जब एक उत्पादन पद्धति या एक सामाजिक ढांचा उत्पादक शक्तियों को आगे बढ़ाने के बदले उन्हें बाधित करने लगता है, तो उन उत्पादक शक्तियों को या तत्कालीन समाज को नष्ट होने से बचने के लिए उत्पादन का ऐसा ढंग चुनना पड़ता है जो नई उत्पादन शक्तियों के अनुकूल हो और उन्हें बढ़ावा दे सके। समूचे इतिहास में मनुष्य का विकास प्रकृति के साथ उसके संघर्ष से ही निर्धारित होता आया है। इतिहास के एक खास बिंदु पर आकर (मार्क्स के मुताबिक, निकट भविष्य में) मनुष्य प्रकृति की उत्पादक शक्तियों का इस हद तक विकास कर लेगा कि मनुष्य और प्रकृति के बीच का विरोध अंततः हल हो जाएगा। इस बिंदु पर मनुष्य का पूर्व-इतिहास (प्री-हिस्ट्री) समाप्त होगा और वास्तविक मानवीय इतिहास का आरंभ होगा।  

एरिक फ्रॉम (1900-1980) बीसवीं सदी के उन कुछ बड़े बुद्धिजीवियों में गिने जाते रहे हैं जिन्होंने अपनी गहरी छाप छोड़ी है। जर्मन यहूदी मूल के एरिक फ्रॉम नाजी काल में जर्मनी छोड़ अमेरिका में बस गए। मूलतः मनोवैज्ञानिक और मनोविश्लेषक रहे एरिक फ्रॉम की 1961 में आई पुस्तक ‘मार्क्सेज कॉन्सेप्ट ऑफ मैन’ मार्क्स के मूल विचारों और जीवन, समाज, व्यक्ति तथा प्रकृति के प्रति उनके नजरिए को समझने का नया आधार तो प्रदान करती ही है इस सवाल से भी टकराती है कि मार्क्स कैसे और क्यों गलत समझे गए, न केवल अपने विरोधियों द्वारा बल्कि समर्थकों द्वारा भी।


चेतना की समस्या, सामाजिक ढांचा और बल प्रयोग
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ऊपर दिए गए उद्धरण में मानवीय चेतना से जुड़ी सबसे बड़ी समस्या का जिक्र आया है। अहम वाक्य हैः मनुष्यों की चेतना उनका अस्तित्व नहीं तय करती बल्कि इसके उलट, यह उनका सामाजिक अस्तित्व है जो उनकी चेतना तय करता है। चेतना की समस्या को लेकर अपना पूरा बयान मार्क्स ‘जर्मन आइडियोलॉजी’ में देते हैः
“तथ्य, इसलिए, यह है कि कुछ खास व्यक्ति जो खास तरह से उत्पादकतापूर्ण रूप से सक्रिय होते हैं इन खास सामाजिक और राजनीतिक रिश्तों में प्रवेश करते हैं। इनमें से हरेक मामले में अनुभवजन्य अवलोकनों के जरिए बगैर किसी रहस्यात्मकता या आनुमानिकता के सामाजिक तथा राजनीतिक ढांचे के उत्पादन से संबंधों का पता किया जाना चाहिए। सामाजिक ढांचा और राज्य निश्चित व्यक्तियों की जीवन प्रक्रिया से लगातार विकसित होते रहते हैं, उस रूप में नहीं जैसे कि वे अपनी या अन्य लोगों की कल्पना में लगते हैं बल्कि उस रूप में जैसे कि वे वास्तव में होते हैं। तात्पर्य यह कि वे भौतिक रूप से उत्पादित करते हैं, प्रभावी होते हैं और निश्चित भौतिक सीमाओं, पूर्वधारणाओं और शर्तों के अंतर्गत सक्रिय रहते हैं, उनकी इच्छाओं से स्वतंत्र।
“विचारों, अवधारणाओं या चेतना का उत्पादन प्रथमतया सीधे तौर पर भौतिक गतिविधियों से, मनुष्य की भौतिक अंतर्क्रियाओं से यानी वास्तविक जीवन की भाषा से अंतर्गुंफित रहता है। मनुष्य की मानसिक अंतर्क्रियाएं (परिकल्पना, चिंतन वगैरह) इस अवस्था में उनके भौतिक व्यवहार से सीधे तौर पर जुड़ी प्रतीत होती हैं। राजनीति, कानून, नैतिकता, धर्म की भाषा में और राष्ट्र की तत्व मीमांसा में झलकने वाले मानसिक उत्पादन पर भी यही बात लागू होती है। मनुष्य (अपनी उत्पादक शक्तियों के निश्चित विकास द्वारा और इनकी समानांतर अंतर्क्रियाओं द्वारा गढ़ा गया वास्तविक सक्रिय मनुष्य) अपने तमाम विचारों, अवधारणाओं आदि का उत्पादनकर्ता है। चेतना सचेत अस्तित्व से और वास्तविक जीवन प्रक्रिया में मनुष्य के अस्तित्व से अलग कुछ भी नहीं हो सकती। अगर तमाम विचारधाराओं में मनुष्य और उनकी परिस्थितियां कैमरे की प्रतिच्छाया की तरह उल्टी प्रतीत होती हैं तो यह तथ्य वैसे ही उनकी ऐतिहासिक जीवन प्रक्रिया से निकलता है जैसे कि रैटिना (आंख की पुतली) पर विभिन्न वस्तुओं की उल्टी छाया उनकी भौतिक जीवन प्रक्रिया से संभव होती है।”
सर्वप्रथम यह बात नोट की जानी चाहिए कि स्पिनोजा और फिर फ्रॉयड की तरह मार्क्स का भी यकीन था कि लोग सचेत ढंग से जो कुछ सोचते हैं उसका ज्यादातर हिस्सा ‘भ्रामक’ चेतना होती है। यह कोरी सिद्धांतवादिता या तार्किकता का नतीजा होती है। मनुष्य के कार्यों का वास्तविक अक्स उसका अचेतन होता है। फ्रॉयड के मुताबिक उसकी जड़ व्यक्ति की कामेच्छा में होती है; मार्क्स के मुताबिक इसकी जड़ व्यक्ति के समूचे सामाजिक ढांचे में होती है जो उसकी चेतना को निश्चित दिशाओं में निर्देशित करता है और उसे खास तथ्यों तथा अनुभवों से अवगत होने से रोकता है।
इस बात को समझना महत्वपूर्ण है कि यह सिद्धांत ऐसा झूठा दावा नहीं करता कि विचार या आदर्श वास्तविक नहीं होते या मजबूत नहीं होते। मार्क्स जागरूकता की बात करते हैं आदर्शों की नहीं। यह मनुष्य के सचेत विचारों का अंधापन ही है जो उसे उसकी वास्तविक मानवीय जरूरतों से, उनमें निहित आदर्शों से अवगत होने से रोकता है। अगर भ्रामक चेतना वास्तविक चेतना में रूपांतरित हो जाए तभी और सिर्फ तभी ऐसा संभव हो पाएगा कि हम तार्किकता या कल्पना से वास्तविकता को तोड़ने-मरोड़ने के बजाय उससे अवगत हो सकें, अपनी वास्तविक और सच्ची मानवीय जरूरतों से परिचित हो सकें।
इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि मार्क्स के मुताबिक खुद विज्ञान और मनुष्य में निहित समस्त ऊर्जा उन उत्पादक शक्तियों का हिस्सा हैं जो प्रकृति की शक्तियों से अंतर्क्रियाओं में शामिल रहती हैं। और जहां तक मनुष्य के विकास पर विचारों के प्रभाव की बात है तो मार्क्स किसी भी सूरत में उन ताकतों से उतने बेखबर नहीं थे जितना कि उनके लेखन की लोकप्रिय व्याख्याओं में दिखाया जाता है। मार्क्स की दलीलें विचारों के खिलाफ नहीं, बल्कि उन विचारों के खिलाफ थीं जो मानवीय और सामाजिक यथार्थ में रची बसी न हों, जो हीगल के शब्दों में, ‘वास्तविक संभावना’ न हों। सबसे बड़ी बात, मार्क्स कभी यह नहीं भूले कि न केवल परिस्थितियां मनुष्य का निर्माण करती हैं बल्कि मनुष्य भी परिस्थितियों का निर्माण करता है। नीचे दिए जा रहे अंश से यह साफ हो जाएगा कि मार्क्स के बारे में यह कहना कितना गलत है कि कई अन्य दार्शनिकों और समाजशास्त्रियों की तरह उन्होंने मनुष्य को ऐतिहासिक प्रक्रिया में निष्क्रिय भूमिका दी, मानो वह उसे परिस्थितियों की एक निष्क्रिय उपज के रूप में देखते होः 
‘’परिस्थितियों में बदलाव और शिक्षा से जुड़ा भौतिकवादी सिद्धांत (मार्क्स के विचारों के विपरीत) भूल जाता है कि परिस्थितियां मनुष्य द्वारा बदली जाती हैं और खुद शिक्षक को भी शिक्षित होना प़ड़ता है। इसलिए यह सिद्धांत समाज को दो भागों में बांटकर देखता है जिनमें से एक समाज (संपूर्णता में) से ऊपर होता है। 
“परिस्थितियों में बदलाव का और मानवीय गतिविधियों का संयोग केवल क्रांतिकारी अभ्यास के रूप में ही पूरी तरह समझा जा सकता है।”
क्रांतिकारी अभ्यास की यह अवधारणा हमें मार्क्स के दर्शन की सबसे विवादित अवधारणाओं में गिनी जाने वाली ताकत की अवधारणा की ओर ले जाती है। सबसे पहले तो यह बात अपने आप में कितनी विचित्र है कि उस सिद्धांत पर पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों में इतना गुस्सा है जो यह दावा करता है कि समाज में बदलाव राजनीतिक ताकत पर बलपूर्वक कब्जे के जरिए ही लाया जा सकता है। ताकत के जरिए राजनीतिक क्रांति का विचार मार्क्सवादी विचार कतई नहीं है। यह पिछले तीन सौ सालों से बुर्जुआजी समाज का विचार रहा है। पश्चिमी लोकतंत्र महान अंग्रेजी, फ्रांसीसी और अमेरिकी क्रांतियों का शिशु है। फरवरी 1917 की रूसी क्रांति और 1918 की जर्मन क्रांति का पश्चिम में जोरदार स्वागत हुआ था, बावजूद इसके कि इन क्रांतियों में बल का इस्तेमाल हुआ था। साफ है कि पश्चिमी देशों में बल के इस्तेमाल को लेकर जो गुस्सा आज दिखता है वह इस बात पर निर्भर करता है कि बल का इस्तेमाल कौन किसके विरुद्ध कर रहा है। हर युद्ध बल पर आधारित होता है। लोकतांत्रिक सरकारें भी बल के सिद्धांत पर आधारित होती हैं। वे बहुमत को अल्पमत के खिलाफ बल का इस्तेमाल करने की इजाजत देती हैं। यथास्थिति बनाए रखने के लिए यह जरूरी होता है। बल के इस्तेमाल से नाराजगी केवल शांतिवादी नजरिए से ही प्राणाणिक कही जा सकती है जो मानता है कि या तो ताकत पूरी तरह गलत होती है या फिर आत्मरक्षा के लिए अनिवार्य होने की स्थिति को छोड़कर ताकत का इस्तेमाल कभी भी कोई बेहतर बदलाव नहीं ला सकता।
तथापि, यह दर्शाना काफी नहीं है कि बलपूर्वक क्रांति संबंधी मार्क्स के विचार मध्यवर्गीय परंपरा के अनुरूप रहे हैं। यह जोर देकर कहा जाना चाहिए कि मार्क्स के विचार मध्यवर्गीय नजरिए में एक महत्वपूर्ण सुधार लाए, ऐसा सुधार जिसकी जड़ मार्क्स के इतिहास के समूचे सिद्धांत में निहित है।
मार्क्स ने देखा कि राजनीतिक ताकत ऐसी कोई भी चीज उत्पन्न नहीं कर सकती जिसके लिए सामाजिक और राजनीतिक प्रक्रिया में तैयारी न हो गई हो। यानी राजनीतिक ताकत अधिक से अधिक उस विकास को आखिरी धक्का दे सकती है जो पहले ही हो चुका होता है, लेकिन किसी भी सूरत में वह सचमुच कोई वास्तविक चीज नहीं उत्पन्न कर सकती। उन्होंने कहा, ‘ताकत नई सोसाइटी से गर्भवती हुई हर पुरानी सोसाइटी की दाई है।‘ यह मार्क्स की गहरी अंतर्दृष्टि थी कि वह पारंपरिक मध्यवर्गीय अवधारणा की सीमा से आगे बढ़े। उन्होंने शक्ति की रचनात्मक ताकत में विश्वास नहीं किया। इस विचार में भरोसा नहीं जताया कि राजनीतिक ताकत खुद ब खुद नई सामाजिक व्यवस्था का निर्माण कर सकती है। इसी वजह से, मार्क्स के मुताबिक ताकत की, अधिक से अधिक, संक्रमणकालीन सार्थकता ही होती है। समाज के रूपांतरण में इसकी भूमिका कभी स्थायी कारक की नहीं होती। 


साभार ब्रह्मराक्षस पेज


Friday 31 July 2020

प्रेमचंद की नज़र में राष्ट्र - प्रो गोपेश्वर सिंह

प्रेमचंद की नज़र में राष्ट्र  : गोपेश्वर सिंह

रामविलास शर्मा ने 1936 ई. को इस अर्थ में विशिष्ट माना है कि इस वर्ष तीन ऐसी रचनाएँ प्रकाशित हुईं जिनमें भविष्य के भारत का सपना था। इनमें पहली रचना आधुनिक भारत के निर्माता जवाहर लाल नेहरू की ‘आत्मकथा’ है। दूसरी रचना लोकनायक जयप्रकाश नारायण की ‘समाजवाद ही क्यों?’ (‘why socialism?’) है जबकि तीसरी रचना प्रेमचंद का निबंध ‘महाजनी सभ्यता’ है। पहली दोनों रचनाएँ पुस्तक रूप में थीं और अंग्रेजी में लिखी गई थीं। ‘आत्मकथा’ सिर्फ नेहरू की निजी कथा न होकर स्वतंत्रता आन्दोलन और स्वतंत्र भारत के आधुनिक जनतांत्रिक सपने की भी कथा है। ‘समाजवाद ही क्यों?’ भारत में समाजवादी व्यवस्था की आवश्यकता पर जोर देने वाली पहली व्यवस्थित पुस्तक है। नेहरू और जे.पी. प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी, अपने-अपने समय के युवा ह्रदय सम्राट तथा गाँधी के बाद देश के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता थे। ऐसे महानों की अति प्रसिद्ध पुस्तकों के साथ रामविलास जी ने हिंदी के लेखक प्रेमचंद के एक निबंध को याद किया है तो इसका विशेष अर्थ है| वे ऐसे लेखक थे जिनकी नजर वर्तमान के साथ बेहतर भविष्य पर भी थी। इसलिए यह अकारण नहीं है कि नेहरू और जे.पी. की पुस्तकों के साथ रामविलास शर्मा प्रेमचंद के निबंध का नाम लेते हैं जो उनकी लेखकीय दृष्टि को समझने के खयाल से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। महाजनी सभ्यता यानी पूँजीवादी सभ्यता। पूँजीवाद के पहले सामंतवादी सभ्यता थी। ये दोनों सभ्यताएँ जनता के शोषण और सामजिक भेदभाव पर आधारित थीं। जो सभ्यता शोषण और भेदभाव पर आधारित हो वह प्रेमचंद को किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं थी। उन्होंने उस सभ्यता का स्वागत किया जिसका सूर्य पश्चिम में उग रहा था। निस्संदेह पश्चिम के उस सूर्य से तात्पर्य रूस में स्थापित समाजवादी व्यवस्था से है। प्रेमचंद ने पूँजीवादी सभ्यता की कठोरतम आलोचना करने के बाद लिखा: “परन्तु अब नई सभ्यता का सूर्य सुदूर पश्चिम से उदय हो रहा है जिसने इस नारकीय महाजनवाद या पूँजीवाद की जड़ खोदकर फेंक दी है जिसका मूल सिद्धांत यह है कि प्रत्येक व्यक्ति, जो अपने शरीर या दिमाग से मेहनत करके कुछ पैदा कर सकता है, राज्य और समाज का परम सम्मानित सदस्य हो सकता है और जो दूसरों की मेहनत या बाप-दादों के जोड़े हुए धन पर रईस बना फिरता है वह पतीततम प्राणी है।”1 
प्रेमचंद भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के गर्भ से पैदा हुए ऐसे लेखक थे जिसके लिए स्वतंत्रता का अर्थ राजनीतिक मुक्ति के साथ सामजिक और आर्थिक मुक्ति भी है। वे पूँजीवादी व्यवस्था के जितने खिलाफ थे, उतने ही सामंती व्यवस्था के भी। जाति, संप्रदाय और गरीबी के सवाल उनके शब्द-कर्म के जरूरी एजेंडे थे। पुराना क्या है जो अप्रासंगिक हो चुका है और नया क्या है जो प्रासंगिक है, उसकी जितनी साफ़ समझ उनके पास थी, वैसी हिंदी के उनके समकालीन किसी दूसरे लेखक के पास शायद ही हो! वे यदि 1936 में ‘महाजनी सभ्यता’ का क्रीटिक तैयार करते हैं तो इसका कारण यह है कि वे पुराने समय और नए समय में फर्क करना ठीक से जानते हैं। 1919 में प्रकाशित उनके ‘पुराना जमाना: नया जमाना’ शीर्षक निबंध को देखने से पता चलता है कि 1936 में वे जहाँ पहुंचे थे उसकी तैयारी वे बहुत पहले से कर रहे थे। अपने उस निबंध में वे लिखते हैं: ”आने वाला जमाना अब जनता का है, और वह लोग पछताएंगे जो ज़माने के कदम-से-कदम मिलाकर न चलेंगे।”2 
ज़माने के कदम-से-कदम मिलाकर चलने की जो सबसे बड़ी कसौटी प्रेमचंद की थी वह थी किसानों की हालत। उनके सारे रचनात्मक और वैचारिक लेख के मूल में किसान जीवन की वास्तविकता और उनकी चिंता सर्वोपरि है। जैसे महात्मा गाँधी के ‘स्वराज’ के केंद्र में गाँव था और गाँव के किसान थे, वैसे ही प्रेमचंद के लेखकीय चिंतन के केंद्र में किसान हैं। ‘पूस की रात’ का हलकू हो या ‘गोदान’ का होरी या उनका वैचारिक लेखन, किसान जीवन की दशा-दुर्दशा और उसका भविष्य उनकी सजग-सचेत नजर से कभी ओझल नहीं होता। ‘पुराना जमाना, नया जमाना’ का एक अंश इस दृष्टि से देखा जा सकता है:  ”क्या यह शर्म की बात नहीं कि जिस देश में नब्बे फीसदी आबादी किसानों की हो उस देश में कोई किसान सभा, कोई किसानों की भलाई का आन्दोलन, कोई खेती का विद्यालय, किसानों की भलाई का कोई व्यवस्थित प्रयत्न न हो... मगर नए ज़माने ने नया पन्ना पलटा है। आने वाला जमाना अब किसानों और मजदूरों का है। दुनिया की रफ़्तार इसका साफ़ सबूत दे रही है। हिंदुस्तान इस हवा से बेअसर नहीं रह सकता। हिमालय की चोटियाँ उसे इस हमले से नहीं बचा सकतीं। जल्द या देर से, शायद जल्द ही, हम जनता को केवल मुखर ही नहीं, अपने अधिकारों की माँग करने वाले के रूप में देखेंगे और तब वह आपकी किस्मतों की मालिक होगी।”3 
प्रेमचंद जिस आधुनिक भारत का सपना देख रहे थे वह ऐसा राष्ट्र-राज्य है जिसमें किसान-मजदूर खुद अपनी किस्मत के मालिक होंगे। वे यह तो मानते हैं कि ‘वर्तमान सभ्यता का सबसे अच्छा पहलू राष्ट्रीयता की भावना का जन्म लेना है।’4 लेकिन सच्ची राष्ट्रीयता उनकी नजर में तब तक नहीं आ सकती जब तक कि सामजिक, आर्थिक और शैक्षणिक गैर बराबरी जनता में है। वे कहते हैं: ”आपका आधुनिक शिक्षा से वंचित भाई आपको इस ठाट में देखता है और यह समझता है कि यह आदमी हममें नहीं है, हम उनके नहीं हैं। फिर चाहे आप कितनी बुलंद आवाज से राष्ट्रीयता की हाँक लगाएँ।”5 वे ‘राष्ट्रीयता’ को आधुनिक सभ्यता का सबसे अच्छा पहलू कहते हैं लेकिन वे यह भी बताते चलते हैं कि ‘जनतांत्रिक’ का समावेश ‘आधुनिक सभ्यता का सबसे प्रधान गुण है।”6 इससे पता चलता है कि प्रेमचंद के लिए जो भविष्य का भारत है उसका ताना-बाना ‘जनतांत्रिकता’ और ‘आधुनिकता’ के रेशे से निर्मित है जिसमें ‘किसान-मजदूर अपनी किस्मत के मालिक’ हैं। लगभग सौ वर्ष पूर्व देखा गया भारतीय राष्ट्र-राज्य का प्रेमचंद का सपना मुहावरे के अर्थ में अब भी सपना है! किसान मजदूर अब भी अपनी किस्मत के मालिक नहीं हैं! हमारी जनतांत्रिक आकांक्षाओं पर अब भी पहरेदारी है! आर्थिक और शैक्षणिक गैर बराबरी की तो बात ही मत पूछिए! “किसानों की हालत और खराब है. गरीबों और अमीरों के बीच खाई और चौड़ी हो चुकी है. समाजवादी दुनिया बिखर चुकी है. ऐसे पूँजीवाद की उनके द्वारा की गई आलोचना का महत्त्व और बढ़ गया है. रामविलास शर्मा ने ठीक ही गणेश शंकर विद्यार्थी के बाद प्रेमचंद को पूँजीवाद का सबसे महत्त्वपूर्ण आलोचक कहा है|7
भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में प्रेमचंद सदेह शामिल नहीं थे। कुछ लोगों को आश्चर्य हो सकता है कि जनता की मुक्ति की बात करने वाला लेखक जनता के मुक्ति-संघर्ष में सदेह शामिल क्यों नहीं होता? उस ज़माने में हिंदी व विभिन्न भारतीय भाषाओं के अनेक लेखक स्वतंत्रता संग्राम में सदेह शामिल थे और उस कारण उन्हें तरह-तरह की यातनाएँ भी झेलनी पड़ीं। ऐसे सभी लेखकों से भारत के मुक्ति-संग्राम को बल मिला। उनके कर्म से भी और उनके शब्द से भी। लेकिन ऐसे भी बहुतेरे लेखक थे जो स्वतंत्रता संग्राम में सदेह शामिल न होकर मनसा-वाचा शामिल थे। उनके लिखे से भारतीय राष्ट्र-राज्य का नया रूप बन रहा था। उनका एक-एक शब्द हजारों-लाखों को प्रेरित-प्रभावित कर रहा था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ऐसे ही लेखक थे जिनसे भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम को नयी ऊर्जा मिलती थी। प्रेमचंद भी ऐसे ही लेखक थे जो भारतीय समाज और राष्ट्र की मुक्ति के मार्ग में बाधक सभी तत्त्वों से लड़ते रहे। अमृत राय ने ‘कलम का सिपाही’ नाम से उनकी जीवनी लिखी है। सही अर्थों में वे कलम के सिपाही थे। वे कलम से स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने वाले हिंदी के सबसे बड़े लेखक थे।
कलम से जिस तरह जनता और राष्ट्र की मुक्ति की लड़ाई प्रेमचंद लड़ रहे थे, उसका सही पता-ठिकाना तभी चलता है जब हम उनके रचनात्मक साहित्य के साथ उनके वैचारिक लेखन को भी देखते हैं। अपने लेखन काल के प्रारंभ से लेकर मृत्यु पर्यंत लगभग तीन दशक का उनका जो वैचारिक लेखन है वह भारत की स्वतंत्रता, स्वावलंबन, आर्थिक-सामजिक गैरबराबरी और विश्व बंधुत्व जैसी अनेक चिंताओं से मुठभेड़ का प्रतिफल है। हम अक्सर उन्हें आर्य समाजी, गाँधीवादी और मार्क्सवादी प्रभावों के सन्दर्भ में देखते-दिखाते हैं। उनके साहित्य पर इनके प्रभाव से किसी को इंकार भी नहीं है। लेकिन उनकी चेतना सबसे अधिक स्वतंत्रता आन्दोलन के मूल्यों से संचालित है। विदेशी दासता से मुक्ति के लिए स्वशासन जरूरी था। लेकिन कैसा स्वशासन? वे सही अर्थों में जनता के शासन के पक्ष में थे और जनता का शासन तब आएगा जब बेजबानों की ताकत जाहिर होने लगेगी। उन्हीं के शब्द देखें...”अब एक फाकाकश मजदूर भी अपनी अहमियत समझने लगा है और धन-दौलत की ड्योढ़ी पर सर झुकाना पसंद नहीं करता। उसे अपने कर्त्तव्य चाहे न मालूम हों लेकिन अपने अधिकारों का पूरा ज्ञान है। वह जानता है कि इस सारे राष्ट्रीय वैभव और प्रभुत्व का कारण मैं हूँ। यह सारा राष्ट्रीय विकास और उन्नति मेरे ही हाथों का करिश्मा है। अब वह मूक संतोष और सर झुकाकर सबकुछ स्वीकार कर लेने में विश्वास नहीं रखता।”8 तो प्रेमचंद इसी मजदूर की हिस्सेदारी ‘स्वशासन’ में सुनिश्चित करना चाहते थे। 
‘स्वदेशी आन्दोलन’ स्वतंत्रता संग्राम का एक बड़ा एजेंडा था। स्वदेशी के बिना भारत राष्ट्र के रूप में खड़ा नहीं हो सकता था। स्वतंत्रता आन्दोलन में महात्मा गाँधी के प्रवेश के बहुत पहले स्वदेशी की माँग जोर-शोर से उठने लगी थी। महात्मा गाँधी के आने के बाद इस आन्दोलन ने और जोर पकड़ा जब वे 1915 में भारत आए। प्रेमचंद 1905 में ‘देशी चीजों का प्रचार कैसे बढ़ सकता है’9  शीर्षक निबंध लिखकर घरेलू उद्योग-धंधों के विकास और उनकी मार्केटिंग के मार्ग में आने वाली बाधाओं की चिंता करते हैं। वे उसी वर्ष ‘स्वदेशी आन्दोलन’ की वकालत करते हैं और उसे ‘देशभक्तिपूर्ण आन्दोलन’10 की संज्ञा देते हैं। ‘स्वराज से किसका अहित होगा?’ (1930) शीर्षक अपने निबंध में वे निर्भय होकर इस संग्राम में सम्मिलित होने की मांग करते हैं। 1931 में ‘देश की वर्त्तमान परिस्थिति’ की चर्चा करते हुए वे किसानों से अपील करते हैं कि ‘महात्मा जी के मार्ग’ से यदि वे हटे तो उन्हें पछताना पड़ेगा। ‘स्वदेशी आन्दोलन’ का जबर्दस्त समर्थन करने के साथ प्रेमचंद भारत और पूरी दुनिया में गोरी जातियों की सभ्यता के अन्यायपूर्ण आचरण और दमन-शोषण की आलोचना करते हैं और उनके पाखंड पर चोट करते हैं। ‘गोरी जातियों का प्रभाव क्यों कम है’ (1931) शीर्षक निबंध में वे लिखते हैं कि “...गोरों ने आदि से ही प्रेम के बल पर नहीं, आतंक के बल पर संसार पर प्रभुत्व जमाया है। वह कालों की नज़रों से अपने ऐबों को छिपाकर अपनी नीतिमता की साख बिठाये थे|”11 अंग्रेजों की अन्यायपूर्ण नीति और गरीब जनता को टैक्स के जरिए लूटने की उनकी आदत के कारण प्रेमचंद को ‘स्वराज की कामना’ का भारतीय जन में ‘जन्म लेना’ स्वाभाविक जान पड़ता है। 
 प्रेमचंद के लिए राष्ट्र का अर्थ सिर्फ कोई निश्चित भू-भाग ही नहीं, उसके आगे भी बहुत कुछ है। उनके लिए राष्ट्र का अर्थ सबसे पहले उस भू-भाग की शोषित, पीड़ित जनता है। ‘नवयुग’ (1932) शीर्षक अपने एक निबंध में राष्ट्र और राष्ट्रीयता की ओर संकेत करते हुए वे लिखते हैं: “राष्ट्र केवल एक मानसिक प्रवृत्ति है। जब यह प्रवृत्ति प्रबल हो जाती है तो किसी प्रांत या देश के निवासियों में भ्रातृभाव जागरित हो जाता है। तब उनमें रुढियों से पैदा होने वाले भेद, पुराने संस्कारों से उत्पन्न होनेवाली विभिन्नताएँ और ऐतिहासिक तथा धार्मिक विषमताएँ, एक प्रकार से मिट जाती हैं।”12 जब तक ‘विविधताएँ’ और ‘विषमताएँ’ किसी राष्ट्र में मौजूद हैं तब तक वह सही अर्थों में राष्ट्र नहीं है। जनता का जिस तरह शोषण है, गरीबी का जैसा साम्राज्य है, गाँवों की जो हालत है, उस पर वे ‘दमन की सीमा’ (1932) शीर्षक निबंध में गंभीर और तल्ख़ टिप्पणी करते हैं। ब्रिटिश सरकार, प्रशासन और जमींदारों को कठघरे में खड़ा करते हुए कहते हैं: “देहात से, सुधार और सहयोग और शिक्षा और स्वास्थ्य और सभी आयोजनाएँ, जिनसे राष्ट्र बनता है, जिनसे उसका विकास होता है, लापता हैं।”13 इसीलिए औरों के लिए राष्ट्र और राष्ट्रीयता का जो भी अर्थ हो, प्रेमचंद के लिए उसका ठेठ भारतीय अर्थ है। उनकी दो टूक राय है,  “राष्ट्रीयता की पहली शर्त वर्ण-व्यवस्था, ऊँच-नीच के भेदभाव और धार्मिक पाखण्ड की जड़ खोदना है।”14 
 जाति भेद की समस्या को भारतीय राष्ट्रीयता की केन्द्रीय समस्या मानते हुए ऐसे लोगों पर प्रेमचंद जोरदार हमला करते हैं जो जाति की श्रेष्ठता और धार्मिक विद्वेष की भावना से भरे हुए हैं। राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद के नकली प्रवक्ताओं को ‘क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं?’ (1934) शीर्षक निबंध लिखकर वे कठघरे में खड़ा करते हैं। वे लिखते हैं: “हम अभी तक केवल मुँह से राष्ट्र-राष्ट्र का गुल मचाते हैं, हमारे दिलों में अभी वही जाति भेद अन्धकार छुपा हुआ है। और यह कौन नहीं जानता कि जाति भेद और राष्ट्रीयता दोनों में अमृत और विष का अंतर है।”15 इसलिए जो पुजारी, पुरोहित और पंडे जातिभेद करते हैं उन्हें वे ‘टके पंथी’ और ‘हिन्दू जाति का कलंक’ कहकर संबोधित करते हैं।
 भारत का विशाल भू-भाग, शस्य श्यामला धरती और यहां की पुरानी अच्छी बातें उन्हें भाती हैं। इस अर्थ में वे सच्चे देश-प्रेमी हैं। इसलिए वे औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति की बात जोरदार ढंग से उठाते हैं। काँग्रेस और महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चलने वाले राष्ट्रीय आन्दोलन की जोरदार वकालत करते हैं। इस विषय पर लिखते हुए उनका राष्ट्रवादी रुझान और उनकी राष्ट्रीयता पूरी बुलंदी पर है। इसलिए ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ जैसी भावना प्रधान देशभक्तिपूर्ण कहानी हो या ‘कर्मभूमि’ जैसा स्वाधीनता संग्राम के झंझावतों से भरा उपन्यास, ‘देशी चीजों का प्रसार कैसे बढ़ सकता है’ (1905) और ‘स्वदेशी आन्दोलन’ (1905) जैसे प्रारम्भिक वैचारिक लेख हों या आर्य समाज, गाँधीवाद और मार्क्सवाद जैसी विचारधाराओं के प्रभाव से गुजरने के बाद अंतिम दिनों के लेख, प्रेमचंद साम्राज्यवाद से भारत की मुक्ति के हमेशा पक्षधर हैं। लेकिन मुक्ति से प्रेरित उनकी राष्ट्रीयता सिर्फ कुछ प्रतीकों तक सीमित नहीं है। वे सिर्फ अपनी सरकार बन जाने से संतुष्ट होने वाले राष्ट्रप्रेमी नहीं हैं। राष्ट्र, जो मेहनतकश जनता से बनता है, वे उस राष्ट्र की मुक्ति के पक्षधर हैं। इसलिए ऐसे राष्ट्रवादियों को जिनके एजेंडे में भेदभाव मिटाना नहीं है, फटकार लगाते हुए वे कहते हैं “राष्ट्रीयता की पहली शर्त है, साम्य का दृढ होना। इसके बिना राष्ट्रीयता की कल्पना ही नहीं की जा सकती।”16  
 सच्ची राष्ट्रीयता का विकास कब होगा? जब समतामूलक समाज बनेगा, जब जाति भेद न होगा। प्रेमचंद हिंदी के इस अर्थ में अकेले लेखक हैं जो जीवन भर जातिप्रथा का विरोध करते रहे। उनका सारा साहित्य जातिप्रथा के विरुद्ध सतत संघर्ष का साहित्य है। सामजिक समता के लिए संघर्ष करते हुए वे कभी आर्थिक गैर बराबरी को नहीं भूलते। इसीलिए वे ‘स्वराज्य’ के साथ-साथ ‘आर्थिक स्वराज्य’ का प्रश्न उठाते हैं। अपनी एक टिप्पणी ‘आर्थिक स्वराज्य’ (1933) में वे आर्थिक और राजनैतिक स्वराज्य दोनों को एक-दूसरे का पूरक मानते हुए दिखाई देते हैं। उसी वर्ष की अपनी एक दूसरी टिप्पणी ‘अविश्वास’ में वे यही बात और साफ़ तरीके से कहते हुए दिखाई देते हैं। वे लिखते हैं “अधिकांश भारतीय स्वराज्य इसलिए नहीं चाहते कि अपने देश के शासन में उनकी आवाज ही पहले सुनी जावे, पर स्वराज्य का अर्थ उनके लिए आर्थिक स्वराज्य होता है। अपने प्राकृतिक साधनों पर अपना अधिकार, अपनी प्राकृतिक उपजों पर अपना नियंत्रण, अपनी वस्तुओं का स्वच्छंद उपभोग और अपनी पैदावार पर अपनी इच्छानुसार मूल्य लेने का स्वत्व- यही उनकी सबसे बड़ी, सबसे पहली, सबसे उत्कृष्ट माँग है। यह माँग स्वराज्य का अंग नहीं, स्वराज इसी माँग का अंग है।”17 इस तरह प्रेमचंद का स्वराज्य, उनके भारत का सपना, आर्थिक आत्मनिर्भरता से अलग नहीं था। भारत में आज भी किसानों-मजदूरों और आदिवासियों की आर्थिक पर निर्भरता, उनके अपने ही साधनों पर अपने अधिकार न होने पर हिंदी के कितने लेखक चिंतित दिखाई देते हैं? प्रेमचंद स्वराज्य के साधन के रूप में सबसे पहला स्थान इसीलिए ‘स्वावलंबन’ को देते हैं।18 
यह सही है कि प्रेमचंद भारत के लिए जिस स्वराज्य का स्वप्न देखते थे, वह ‘आर्थिक स्वराज्य’ से भिन्न न था। लेकिन वे उसके आगे सोशलिज्म का समर्थन करते हुए भी देखे जाते हैं। अपनी एक टिप्पणी ‘रूस में समाचार पत्रों की उन्नति’ (1933)  में जहाँ वे सोवियत संघ की प्रशंसा करते हैं, वहीँ वे भारत के नेताओं में जवाहरलाल नेहरू की उनके समाजवादी विचारों के लिए खुलकर तारीफ़ करते हैं। नेहरू के एक व्याख्यान की चर्चा करते हुए लिखते हैं, जैसे नेहरू उनके ही मन की बात कह रहे हों। प्रेमचंद के शब्द हैं, “श्री जवाहर लाल नेहरू ने अपने व्याख्यानों में वैज्ञानिक साम्यवाद (साइंटिफिक सोशलिज्म) शब्द का प्रयोग किया। आपका अभिप्राय यह था कि वर्तमान समाज में मनुष्य-मनुष्य में जो भीषण असमानता है, वह दूर हो। यह ठीक नहीं है कि एक मनुष्य के पास अथाह धन भरा पड़ा हो और दूसरा मनुष्य भूखा मरता हो। समाज का इस प्रकार संगठन होना चाहिए जिससे कोई मनुष्य भूखा न रहने पावे, सबको पर्याप्त अन्न और वस्त्र मिले और सबको उन्नति करने का समान अवसर हो।”19 1930 के दशक में जवाहर लाल नेहरू की जो छवि जनता में थी वह प्रेमचंद के उक्त कथन में दिखती है। 
 प्रेमचंद की राष्ट्रीय भावना कभी अंध-राष्ट्रवाद का रूप ग्रहण नहीं करती। वे अपने राष्ट्र से प्रेम तो करते हैं, पर विश्वबंधुत्व की भावना को तिलांजलि देकर नहीं। वे राष्ट्रीय आन्दोलन के समर्थक हैं, लेकिन उस अंध-राष्ट्रवाद के समर्थक नहीं हैं जो विश्वबंधुत्व का शत्रु है। इसीलिए वे अंध-राष्ट्रवाद की आलोचना करते हैं और अंतरराष्ट्रीयता को भारत के पुरातन सन्देश ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ से जोड़कर देखते हैं। राष्ट्र की सेवा, उसकी स्वतंत्रता आदि सवालों को वे राष्ट्रीय भावना के अंतर्गत रखते हैं, लेकिन जब हमारा राष्ट्रीय हित पड़ोसी मुल्क के हित के खिलाफ हो जाए, दूसरे देशों के अस्तित्व के लिए खतरा हो जाए तो वह अंध-राष्ट्रवाद में बदल जाता है। प्रेमचंद ऐसी अन्ध-राष्ट्रीयता के विरोध में हैं। अपनी एक टिप्पणी ‘राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता’ (1933) में वे अंध-राष्ट्रीयता की तुलना मध्ययुगीन साम्प्रदायिकता से करते हैं। वे लिखते हैं: “राष्ट्रीयता वर्त्तमान युग का कोढ़ है, उसी तरह मध्यकालीन युग का कोढ़ साम्प्रदायिकता थी। नतीजा दोनों का एक है। साम्प्रदायिकता अपने घेरे के अन्दर पूर्ण शांति और सुख का राज्य स्थापित कर देना चाहती थी, मगर उस घेरे के बाहर जो संसार था उसको नोचने-खसोटने में उसे जरा भी मानसिक क्लेश न होता था। राष्ट्रीयता भी अपने अपरिमित क्षेत्र के अन्दर रामराज्य का आयोजन करती है। उस क्षेत्र के बाहर का संसार उसका शत्रु है। सारा संसार ऐसे ही राष्ट्रों या गिरोहों में बंटा हुआ है और सभी एक-दूसरे को हिंसात्मक संदेह की दृष्टि से देखते हैं और जब तक इसका अंत न होगा संसार में शांति का होना असंभव है। जागरुक आत्माएँ संसार में अंतरराष्ट्रीयता का प्रचार करना चाहती है और कर रही हैं। लेकिन राष्ट्रीयता के बंधन में जकड़ा हुआ संसार उन्हें ड्रीमर या शेखचिल्ली समझकर उनकी उपेक्षा करता है।”20 उसके आगे वे लिखते हैं: “इसमें तो कोई संदेह नहीं कि अंतरराष्ट्रीयता मानव संस्कृति और जीवन का बहुत ऊँचा आदर्श है और आदि से संसार के विचारकों ने इसी आदर्श का प्रतिपादन किया है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ इसी आदर्श का परिचायक है।”
 अंतरराष्ट्रीयता के सम्बन्ध में प्रेमचंद की यह धारणा अचानक नहीं बनती है। देश में जो स्वाधीनता संघर्ष चल रहा था उसका लक्ष्य निश्चित रूप से स्वतंत्रता की प्राप्ति था। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारतवासियों में राष्ट्रीय भावना का जागरण आवश्यक था। किन्तु हमारे राष्ट्र नायकों ने दूसरे राष्ट्रों की कीमत पर अपने राष्ट्र की मुक्ति और उन्नति की कामना नहीं की। उसका प्रभाव भारतीय साहित्य और हिंदी साहित्य पर भी पड़ा। हिंदी साहित्य की चेतना स्वस्थ राष्ट्रीयता के साथ उदार अंतरराष्ट्रीयता से निर्मित हुई। प्रेमचंद की राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता उसी चेतना की उपज है। इस सम्बन्ध में प्रेमचंद के पूर्ववर्ती महावीर प्रसाद द्विवेदी के भी विचारों को देखना उचित होगा। राष्ट्र-प्रेम जब संकुचित होकर दूसरे देश के विरोध में चला जाए, इसको द्विवेदी जी ‘धूर्तों के भयंकर ढोंग’ के अंतर्गत रखते हुए अंतरराष्ट्रीयता को प्रमुखता से रेखांकित करते हैं और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के प्राचीन भारतीय आदर्श को आधुनिक सन्दर्भ में प्रासंगिक बताते हैं।21 द्विवेदी जी ने ठीक ही इस सम्बन्ध में रवीन्द्रनाथ ठाकुर को भी याद किया है जिनका चिंतन राष्ट्रीयता के साथ अंतरराष्ट्रीयता के विचारों को पुष्ट करता है। द्विवेदी जी अंधराष्ट्रीयता को यूरोप की देन मानते हैं और इसे भारत की स्वाभाविक वृत्ति नहीं मानते। कहने की जरुरत नहीं कि प्रेमचंद उसी धारा से निकले हिंदी चेतना के मुखर स्वर हैं। 
 एक तरफ काँग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन चल रहा था तो दूसरी तरफ मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की सांप्रदायिक राजनीति थी। प्रेमचंद लीग और सभा दोनों की सांप्रदायिक राजनीति का विरोध करते हैं और कांग्रेस के नेतृत्व में चलने वाले मुक्ति संघर्ष के पक्ष में खड़े रहते हैं। साम्प्रदायिकता को वे राष्ट्रीयता का शत्रु मानते हैं और सभी सम्प्रदायों के बीच मेल मुहब्बत का माहौल बनाने में अपनी सारी लेखकीय ऊर्जा झोंक देते हैं। वे धर्म के आधार पर आधुनिक राष्ट्र-राज्य की कल्पना के विरुद्ध हैं। अपनी एक टिप्पणी ‘पाकिस्तान की नयी उपज’ (1933) में वे न सिर्फ मुहम्मद इकबाल के धर्म के आधार पर पाकिस्तान के निर्माण संबंधी प्रस्ताव का विरोध करते हैं, बल्कि यह भी कहना नहीं भूलते कि धर्म राष्ट्र निर्माण का आधार नहीं हो सकता।”22 वे धर्म के ऊँचे भावों का सम्मान करते  हैं, उसे जीवन में उतारने की बात करते भी हैं, लेकिन उसके संकीर्ण अर्थ का हमेशा विरोध करते हैं। 
 सांप्रदायिक ढंगों पर, हिन्दू-मुस्लिम समस्याओं पर उन्होंने जितनी अधिक मात्रा में जोरदार टिप्पणियाँ लिखी है, उतनी और वैसी हिन्दी के किसी दूसरे लेखक ने शायद ही लिखी हों। सांप्रदायिकता को ‘विष’ समझनेवाले प्रेमचंद सांप्रदायिक राजनीति के पीछे की उस चतुराई को भी बेनकाब करते हैं जो संस्कृति का रूप धारण कर तरह-तरह से राष्ट्रीय जीवन में जहर घोलने का काम करती है। ‘सांप्रदायिकता और संस्कृति’(1934) नामक अपने प्रसिद्ध निबंध में उन्होंने साफ शब्दों में कहा है: “सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जानवरों पर रौब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है। अब संसार में केवल एक संस्कृति है और वह है आर्थिक संस्कृति मगर हम आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोए चले जाते हैं।“23 सांप्रदायिकता, अंधविश्वास आदि की आलोचना करते हुए वे आगे लिखते हैं: “ये जमाना सांप्रदायिक अभ्युदय का नहीं है। ये आर्थिक युग है और आज वही नीति सफल होगी जिससे जनता अपनी आर्थिक समस्याओं को हल कर सके, जिससे ये अंधविश्वास और ये धर्म के नाम पर किया गया पाखंड या नीति के नाम पर गरीबों को दुहने की कथा मिटाई जा सके।”24
  प्रेमचंद का एक प्रसिद्ध वाक्य कहावत की तरह हिंदी समाज में लोगों की जुबान पर है, जो उनकी कहानी ‘आहुति’ का है: “ऐसे स्वराज का आना व्यर्थ है जिसमें जॉन की जगह गोविंद गद्दी पर बैठ जाए।” इसीलिए ठीक ही रामविलास शर्मा ने उन्हें ‘स्वाधीनता-संग्राम के सैनिक साहित्यकार’25 के रूप में याद किया है|उनके मन में ‘स्वराज’ और ‘राष्ट्र’ का जो चित्र था वह बहुत साफ था। वे सिर्फ पात्र परिवर्तन के नहीं, व्यवस्था परिवर्तन के हिमायती थे। वे जाति-भेद के सवाल पर अम्बेडकर की तरह, संप्रदाय-भेद पर गाँधी की तरह और अमीरी-गरीबी के सवाल पर एक समाजवादी की तरह सोचते थे। जीवन, समाज और राष्ट्र के इतने व्यापक धरातल को छूने वाले वे हिंदी के सबसे बड़े लेखक थे। गाँधी के नेतृत्व में काँग्रेस ने प्रस्ताव पारित कर स्वराज के जिस रूप का संकल्प लिया था, उस पर प्रेमचंद ने अपनी एक टिप्पणी ‘काँग्रेस’ (1931) में लिखा: “अब काँग्रेस का ध्येय राष्ट्र के सामने है। वह गरीबों की संस्था है, गरीबों के हितों की रक्षा उसका प्रधान कर्तव्य है। उसके विधान में मजदूरों, किसानों और गरीबों के लिए वही स्थान है जो अन्य लोगों के लिए। वर्ग, जाति, वर्ण आदि के भेदों को उसने एकदम मिटा दिया है।”26 प्रेमचंद की नजर में ‘स्वराज्य’ के लिए लड़ने वाली काँग्रेस का यही रूप था! अफसोस यह है कि यह देखने के लिए वे जीवित न रहे ! ‘स्वराज्य’ तो आया किन्तु भारत वैसा राष्ट्र-राज्य नहीं बन सका जिसका वे सपना देखते थे| 
संदर्भ सूची:
1. Anavaratblogspot.in
2. विविध प्रसंग; भाग-1, पृष्ठ- 269 
3. वही, पृष्ठ- 268
4. वही, पृष्ठ- 259
5. वही
6. वही
7. भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद, पृष्ठ- 275
8. वही, पृष्ठ- 264 
9. वही, पृष्ठ- 15
10. वही, पृष्ठ- 20 
11. विविध प्रसंग; भाग-2, पृष्ठ- 77-78 
12. वही, पृष्ठ- 98
13. वही, पृष्ठ- 92
14. वही, पृष्ठ- 476
15. वही, पृष्ठ- 470
16. वही, पृष्ठ- 471
17. वही, पृष्ठ- 152
18. वही, पृष्ठ- 272
19. वही, पृष्ठ- 222 
20. वही, पृष्ठ- 334 
21. महावीर प्रसाद द्विवेदी रचना संचयन; संपादक: भरत यायावर, ‘समस्या’ शीर्षक निबंध। 
22. विविध प्रसंग; भाग-2, पृष्ठ- 409-10 
23. Krantiswarblogspot.in
24. वही
25. प्रेमचंद और उनका युग ,पृष्ठ -122
26. वि.प्र.,भाग-2, पृष्ठ-75  
Add: 38/4, छात्र मार्ग,
दिल्ली विश्वविद्यालय                                                                                                                                              दिल्ली- 110007
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