Friday 16 September 2022

हम कैसे बूढ़े होते है? - अम्बर पांडेय

हमारा शरीर कभी हमारे मन से आकर नहीं कहता कि वह बूढ़ा हो गया है। व्याधि और निर्बलता भी कभी मन से नहीं कहते कि हम बूढ़े हो गए है मगर हमारा मन भी एक दिन बूढ़ा हो जाता है। 

हमारा मन तब बूढ़ा होता है जब हमारे बचपन के प्रतीक विलीन होते है। भारत में यह लोग क्वीन एलिज़ाबेथ की मृत्यु से इसलिए शोकग्रस्त नहीं है कि इनके पास औपनिवेशिक स्मृतियाँ  है। हमारा बचपन केवल हमारी दादियों-नानियों से नहीं बनता उसके कुछ सांस्कृतिक प्रतीक भी होते है- जो बस अपनी जगह पर होते है, उनका होना आश्वस्त करता रहता है कि अभी भी हमारे आगे जीवन पड़ा हुआ है, अब भी हमारे पास समय, ऊर्जा और सुंदरता है। 

एक बार स्त्रीविमर्श के नाम पर बुजुर्गों का अपमान करनेवाली एक औरत ने किसी वरिष्ठ लेखिका के लिए लिखा था कि वह उनका एक हाथ तोड़कर दूसरे में दे देगी और कुछ वर्षों पूर्व पैदा होने हो जाने से उसके लिए कोई आदरणीय नहीं हो जाता। मुझे वह पढ़कर बहुत धक्का लगा था। वरिष्ठ लेखिका ने हालाँकि बाद में अपमान करनेवाली लेखिका को पुरस्कृत किया और खुद को निष्पक्ष और उसकी किताब को पुरस्कार योग्य माना यह दीग़र प्रसंग है।

वरिष्ठ लेखिका के उस अपमान से उस समय क्यों मुझे बहुत धक्का लगा यह मैं सोचता रहा हूँ। उनके लिखे से मैं कभी प्रभावित नहीं हुआ न उनके व्यक्तिगत जीवन की किसी को मैंने प्रशंसा करते हुए पाया मगर फिर भी उनका अपमान करना, उनपर शारीरिक हिंसा की बस बात करना भी मेरे लिए हिला देनेवाला था और यह इसलिए नहीं कि मैं कोई गांधीवादी हूँ जो हिंसा से बिलकुल दूर है।

इस दुनिया में इतने दुःख है, इतना संघर्ष है और यह किसी एक के लिए नहीं बल्कि सबके लिए है। इसमें बूढ़ा हो जाना बड़ा हो जाना है। इसमें इतने वर्षों तक डटे रहना भी एक चमत्कार है और इसलिए हम बुजुर्गों का सम्मान करते है। किसी बुज़ुर्ग का अपमान करने पर हमारे संस्कारों पर, हमारे अध्यवसाय और हमारे परिवार पर सबसे पहले उँगली उठती है क्योंकि यदि हमारे श्रेष्ठ में उनका हाथ है तो हमारे बुरे में उनका हाथ मानना भी स्वाभाविक है। 

जो भी नया है वह सब ख़राब है जैसे यह सही नहीं उसी तरह सब पुराना भी बुरा है यह भी ग़लत है। अर्थशास्त्र में लिंडी प्रभाव का सिद्धांत कहता है जो जितने वर्षों से है उतने अधिक वर्ष टिकता है—यही कारण है कि रामायण टिकी हुई है महाभारत और क़ुरान और बाइबल टिकी हुई है। पुराने से हमारी स्मृति बनती है और जो स्मृति का मान नहीं रखता उसका स्मृति भी मान नहीं रखती। 

सोफ़िया तोलस्टोया ने कहीं लिखा है कि तोलस्टोय के कोट और शर्ट की आस्तीनें और कॉलर हमेशा उधड़ी हुई या फटी हुई रहती थी क्योंकि वे पुराने कपड़ों से बहुत लगाव रखते है, उन्हें फेंकते नहीं थे इसलिए ही शायद वे इतने अच्छे लेखक थे।

हमारे जीवन से पुराना ग़ायब होता जाता है और हम बूढ़े होते जाते है।

ठेके का हिसाब: अंचित

ठेके का हिसाब 

मैं बहुत लम्बी लम्बी पंक्तियों में यह कविता लिख रहा हूँ और नहीं जानता कि इतनी दूर आ गया हूँ यहाँ से कैसा दिख रहा हूँ । 

अपने पर शर्मिंदा, अपनी कविता से नाराज़ , अपनी भाषा के अभिजात्यपने में फँसा हुआ , कि कमीने को कमीना नहीं कहता, भेड़िए को भेड़िया , गीदड़ को गीदड़ और आदमी को आदमी नहीं, मैं इतिहास का पहला नहीं, इतिहास का आख़िरी नहीं, इकलौता भी नहीं, उसी भीड़ में से कोई एक जिसने खादी का कुर्ता पहना है, जिसके घर में माँ के जोड़ों में दर्द है, जिसके पिता मोहल्ले के पंसारी से उधार का राशन लाए हैं, जिसके बिस्तरे के नीचे किसी का ख़त पड़ा है , वही जिसके न होने से लोग दुखी होंगे लेकिन जी जाएँगे , क्या इतने साधारण-वाक्यांशों से बना हुआ , उद्दातताहीन , अपनी उज्जड़ता में आपसे यह सवाल पूछ सकता हूँ कि आपको दिखता नहीं क्या - 

बैंगनी गहरा बैगनीं, कुहरे की तरह नहीं सड़ते गंधाते पानी वाली बाढ़ की तरह हमारे घरों में घुस आया है, और हमारे आत्म पर सांपों का विष चढ़ने लगा है, हम बैंगनी हो रहे हमें नहीं दिखता हमारे सीने दरक रहे हमें नहीं दिखता हमारी जीभ पर हमने अपना वॉटर्मार्क लगीं फूलों की बेलें लगा लीं हमें नहीं दिखता ,   हम सुंदरता देखने लगे हैं अपने मुँह में अपना माथा घुसाए हम कला देखने लगे हैं प्रचारों में अख़बारों में सरकारों में हमारा संगीत हमारा ब्रांड बन गया है सुनते कम जताते ज़्यादा हैं और हमारा बचपन हमारे नाम की मुनादियाँ करता , चौराहे का चमनचुतिया

ऐसे में भले हाथियों का हमारा यह समाज - हम कवि लोगों का समाज,  मुस्कराहटें बाँटने प्रेम बाँटने और सादर नमन का कॉपी पेस्ट पेलने में लगा हुआ है - एक अकवि का बिम्ब है मेरे पास , बताइए - कितना अच्छा बहुत अच्छा होता है ? कितना बुरा बहुत बुरा ? मैं नारों में कविता लिखना चाहता हूँ, बैठे हुए लोगों को उठाना , चलाना, दौड़ाना - अभिधा में कह रहा हूँ, अभिधा में सुनिए। वीरू सोनकर  के कहे में थोड़ा अपना मिला कर कहता हूँ , रीझने रिझाने का खेल बन गयी है कविता  आधी निजी आधी सरकारी भारतीय रेल बन गयी है कविता । रेलवे स्टेशनों पर छात्र हैं , छात्रावासों में लाठियाँ हैं  और माई डियर पोयट इंडिया इंटर्नैशनल सेंटर जाने वाले हवाई जहाज़ में - साल दर साल जमा निराशा एक जगह आकर कहती है- अर्जे तमन्ना कविता नहीं है सम्पादन है , जाने किसका उत्पादन है, निष्पादन है या सिर्फ पाद…

शुचिता और शुद्धतावाद में फ़र्क़ होता है ,
विचार और विचारधारा में फ़र्क़ होता है , 
ट्रोल और आलोचक में फ़र्क़ होता है, 
आलोचक  और भांड में फ़र्क़ होता है , 

संस्कृति की पूँजी भी पूँजी है 
ज्ञानियों की सत्ता भी सत्ता 
जिसकी अभिजात्यता और जिसका नशा 
रोज़ अपनी ओर खींचता है। 

क्या यह बहुत ज़्यादा चाहना है 
कि मेरा तेली दोस्त अपनी ब्राह्मण प्रेमिका से शादी कर पाए 
कि मेरा सनम मेरी बाहों में बाहें डाले सड़क पर चल सके 
कि मैं कविता लिखूँ तो मुझे नौकरी जाने का डर ना लगे 
कि बुद्धिजीवियों  के पास कुंठा नहीं, संवेदना हो  
कि युवा कवि कहाने का रोमैंटिसिज़म पालने वाले पहले सत्ताओं से लड़ना सीखें? 
कि अंचित आचार्यित छोड़ कविता छोड़ किसी की उँगलियों में फँसी सिगरेट बन सके? 

मेरी इन चाहों के पीछे बजबजाती हुई आती है पूँजी - रहस्य से भरी हुई और अपने सारे क्षद्म लपेटे हुए, फिर भी इतनी लापरवाह कि अपने होने पर शर्म आती है, सीज़र जैसे चल रहा था रोम की सड़कों पर, आती है पूँजी और यज़ीद की तरह डेरा जमाती है । मंगलेश डबराल की शर्मिंदगी से अपनी शर्मिंदगी मिलाता हूँ। सड़क पर चलते कोई हाथ उठा देगा जैसे देवीप्रसाद मिश्र पर उठा दिया गया था । रूश्दि की तरह अज्ञातवास, रित्सोस की तरह जेल, कालिदास की तरह किसी गणिका का आँगन और निराला पर समकालीन उत्तरआधुनिकता का थोपा हुआ पागलपन। 

मैं बहुत लम्बी लम्बी पंक्तियों में यह कविता लिख रहा हूँ - यह कोई शपथपत्र नहीं जैसा पिछले साल था, यह कोई उम्मीद का शिलालेख नहीं जो समय की दीवार पर टांगा जा रहा। एक तलहीन कूएँ में गिर रही आदमी की रीढ़ का आख्यान है। इसे जितनी जल्दी हो सके ख़ारिज कर दिया जाए। 

अंचित 
(उन कविताओं में जो कहीं नहीं छापेंगी। जब लिखी थी,रुश्दी पर हमला नहीं हुआ था)

Wednesday 14 September 2022

मार्क्स का जन्मदिन : कृष्ण मोहन

#मार्क्स_का_जन्मदिन

मार्क्स ने कहा था 
दुनिया की व्याख्या बहुत हो गई
अब उसे बदलना चाहिए
हालांकि उसने व्याख्या भी की
और बदला भी

हमने बदलने वाली बात पकड़ ली 
और व्याख्याओं से कतरा गए
दुनिया बदलती गई
हमारी उम्मीद से भी ज़्यादा
पर हमने उसकी व्याख्या करते रहना
ज़रूरी नहीं समझा

नतीजा वही हुआ
जो होना था
हम जिसे बदलने में लगे थे
उसे समझने से चूक गए

मार्क्स को याद करते हुए
मैं आज कहता हूँ
बदलने के लिए भी समझने की ज़रूरत है
हमें इस नई दुनिया की
व्याख्या करनी चाहिए।

ऐजाज़ अहमद का मार्क्सवाद: कृष्ण मोहन

ऐजाज़ अहमद का मार्क्सवाद 
1 .
(अग्रणी मार्क्सवादी विचारक ऐजाज़ अहमद पर यह लेख 'समयांतर' के जून अंक में प्रकाशित हुआ है। सोशल मीडिया के पाठकों और अपने विद्यार्थियों के लिए मैं यह लेख फ़ेसबुक पर  शृंखलाबद्ध रूप से प्रस्तुत कर रहा हूँ।)

ऐजाज़ अहमद की ख्याति तमाम फ़ैशनेबल भटकावों के बीच बुनियादी मार्क्सवादी स्थापनाओं के लिए संघर्ष करने वाले विचारक की रही है। 1992 में प्रकाशित उनकी सबसे प्रसिद्ध किताब 'इन थियरी' उनकी वैचारिक जद्दोजहद के सबूत पेश करती है। इस किताब में ऐजाज़ अहमद बीसवीं शताब्दी में हुए बदलावों, ख़ास तौर पर दूसरे विश्वयुद्ध के बाद हुए बड़े वैचारिक और राजनैतिक बदलावों पर विस्तार से बहस करते हैं। इस किताब का उपशीर्षक उन्होंने 'क्लासेस', 'नेशन्स', 'लिटेरचर्स' दिया है। इस तरह हम उनके चिंतन के तीन बुनियादी सरोकारों से परिचित होते हैं। 'क्लासेस' यानी 'वर्गों' की भूमिका और उनके दृष्टिकोणों का अध्ययन किसी भी मार्क्सवादी का सबसे प्रारंभिक और बुनियादी काम है, इसे कहने की आवश्यकता नहीं है। जहाँ तक 'राष्ट्रों' का प्रश्न है, उनके चिंतन के केंद्र में बीसवीं सदी में पूरी दुनिया में चलने वाले उपनिवेश-विरोधी राष्ट्रीय मुक्ति के आंदोलन हैं, दूसरे महायुद्ध के बाद जिनमे से अधिकांश को कामयाबी मिली। आज़ाद होने के बाद इनमें से कुछ ने पूंजीवाद की ओर क़दम बढ़ाया और कुछ ने समाजवाद की दिशा में बढ़ने का प्रयास किया। ऐजाज़ अहमद इन प्रयासों की बारीक़ी से पड़ताल करते हैं, ख़ास तौर पर समाजवाद के सामने आने वाली कठिनाइयों की छानबीन से वे यह निष्कर्ष निकालते हैं। कहना ग़ैरज़रूरी है कि यह सारा विचार-विमर्श तीसरे बिंदु 'साहित्यों' के माध्यम से ही होगा, जिसमें लिखित रूप में प्रस्तुत वैचारिक और रचनात्मक साहित्य तो है ही, पढ़ने, भाषण देने, विमर्श करने, यानी भाषाई व्यवहार के तमाम रूपों को भी शामिल माना गया है। किताब से दिए गए उद्धरणों का अंग्रेज़ी से अनुवाद मैंने ही किया है। हिंदी में उनके लेखन की अनुपलब्धता को देखते हुए इस लेख के पहले हिस्से में मैंने उनके विचारों का सार-संक्षेप प्रस्तुत किया है, और दूसरे भाग में उसकी समीक्षा की है।

                      (1)

इस किताब में ऐजाज़ अहमद का मुख्य ज़ोर परिवर्तन और आमजन की पक्षधरता का दावा करने वाले विचारों से बहस करने पर है। पूंजीवादी और साम्राज्यवादी प्रवृत्तियों और उनके कारनामों का उल्लेख वे उपयुक्त अवसर पर करते हैं, लेकिन उन पर कोई तर्क वितर्क नहीं करते। वे जनता और मनुष्यता की पक्षधरता का दम भरने वाले विचारों से निर्मम संघर्ष में उतरते हैं, और उन पर अपने कठोर प्रहारों के साथ-साथ तीख़ी व्यंग्योक्तियों का तालमेल बनाए रखते हैं। मुक्तिबोध ने कभी कहा था–

'बुरे अच्छे बीच के संघर्ष से भी उग्रतर
अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर'

इस बहसधर्मी किताब से गुज़रते हुए हम समानधर्मा लोगों, मुक्ति की राह के हमसफ़रों के बीच छिड़ने वाले विवादों की ज़रूरत को नए सिरे से महसूस करते हैं।

ऐजाज़ अहमद के आकलन के मुताबिक़ दूसरे महायुद्ध के बाद और ख़ास तौर पर साठ के दशक में बुनियादी महत्व की कुछ समानांतर प्रक्रियाएँ चलीं। दुनिया में जारी राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों की सफलता के बीच एक तरफ़ तो राजनैतिक स्तर पर पूंजीवाद और समाजवाद के दो मॉडलों के बीच संघर्ष चला और दूसरी तरफ़ साहित्य संस्कृति के क्षेत्र में ऐसे नए  आंदोलन सामने आए जिन्होंने राजनीति का विकल्प बनने का दावा किया और जिन्हें वे कुछ व्यंग्य के साथ 'रैडिकल' आंदोलन कहते हैं। इन आंदोलनों की मुख्य प्रेरणा '60 के दशक में एशिया और यूरोप के विभिन्न देशों के विश्वविद्यालयों में चले छात्र आंदोलन थे। उन्होंने साहित्यिक-सांस्कृतिक अध्ययन की पद्धतियों को अपने राष्ट्रवादी-राजनैतिक व्यवहार का प्रमुख हिस्सा बनाया। इसी कारण इन्हें सांस्कृतिक राष्ट्रवादी भी कहा जाता है। उल्लेखनीय है कि भारत में यह संज्ञा हिंदुत्ववादियों के लिए सुरक्षित हो गई है, लेकिन साहित्यिक सिद्धांतों को लेकर चलने वाले वैश्विक विमर्श में इसका अर्थ अलग है।

इस 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की विशेषताओं को चिह्नित करते हुए ऐजाज़ अहमद कहते हैं— 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की विचारधारा में एक व्यापक निहितार्थ है जैसा कि यह साहित्यिक 'सिद्धांत' में प्रकट होता है कि तीसरी दुनिया के पास एक 'संस्कृति' और 'परंपरा'  है, और अपनी संस्कृति और परंपरा के अंदर से बोलना अपने आप मे ही उपनिवेशवाद-विरोधी कृत्य है।' ('इन थियरी', पृ. 9)

इस उद्धरण में लेखक ने जिस चीज़ को साहित्यिक 'सिद्धांत' कहा है, वही दरअसल इस किताब का केंद्रीय सरोकार है। किताब की बिल्कुल शुरुआत में ही इसे स्पष्ट करते हुए लेखक कहता है—'साहित्यिक अध्ययनों का विकास पिछली तिहाई सदी से अंग्रेज़ी भाषी देशों में "सिद्धांत" के रूप में हुआ है।….जेराल्ड ग्राफ़ ने बिल्कुल सही बताया है कि सिद्धांत का यह विस्फोट "रैडिकल असहमतियों के वातावरण" की देन है जो विशिष्ट सूचनात्मक सांस्कृतिक व्यवहारों और उनकी व्याख्या के तरीक़ों के बारे में है। "असहमति की संस्कृति" ज्ञान के उन नए रूपों की देन है जो दूसरे महायुद्ध के बाद बौद्धिक जांच-पड़ताल के स्थापित  तौर-तरीक़ों को विस्थापित करने के लिए विकसित हुई थी। युद्ध के बाद महानगरों के विश्वविद्यालयों में आए जनसांख्यिकीय बदलावों के दौरान हुए राजनीतिकरण के चलते और 1960 क दशक के छात्र आंदोलनों के कारण ये परिवर्तन हुए हैं।' (वही, पृ. 1)

ग़ौरतलब है कि ऐजाज़ अहमद प्रायः विकसित देशों और उनके शहरों में स्थित विश्वविद्यालयों को 'मेट्रोपोलिटन' की संज्ञा देते हैं। यही 'मेट्रोपोलिटन' केंद्र इस 'सिद्धांत' के विकास के लिए ज़िम्मेदार हैं। रचनाओं, घटनाओं, परिघटनाओं आदि के अध्ययन और उनके अपने 'पाठ' (रीडिंग) यानी अपनी व्याख्या को प्रतिरोध का पर्याप्त तरीक़ा मानने वाली इस प्रवृत्ति की वर्गीय स्थिति का संकेत करते हुए वे कहते हैं— 'बड़े प्रभावशाली लोग ही मानते हैं कि वे पढ़ने, लिखने, बोलने आदि के द्वारा साम्राज्यवाद से छुटकारा पा सकते हैं। पूंजी के पिछड़े इलाक़ों के मानव समूहों का साम्राज्यवाद से हर रिश्ता उनके अपने राष्ट्र-राज्यों के माध्यम से बनता है। अलग तरीक़े की राष्ट्रीय परियोजनाओं और अपने राष्ट्र-राज्यों की क्रांतिकारी पुनर्रचना के बिना उन्हें साम्राज्यवाद से मुक्ति नहीं मिल सकती। यह राष्ट्र-राज्य से सीधे जा टकराने के मसला नहीं है।, बल्कि वर्ग, राष्ट्र, और राज्य की नई व्याख्याओं को विकसित करने का प्रश्न है।' (वही, पृ. 11)

लेखक अपने विश्लेषण के माध्यम से हमें बताता है कि '60 के दशक के छात्र आंदोलनों से उपजे इस 'सिद्धांत' का ज़ोर राजनैतिक कार्यक्रमों की संस्कृति की जगह 'पाठ' (टेक्स्ट) केंद्रित संस्कृति की स्थापना, स्थापित संस्कृतियों की समझौताहीन आलोचना को एक नए प्रकार की वामपंथी रहस्यमयता से विस्थापित करने के साथ साथ अतीत में मार्क्सवाद से जुड़े मुद्दों को उत्तरआधुनिक दिशा में मोड़ देने की कुशलता के साथ परिभाषित किया है। इसे ही 'नव वाम' की संज्ञा भी वह देता है। इस कथित 'सिद्धांत' में समाविष्ट अनेक चिन्तानधाराओं के प्रसंग में वह बेंजामिन, फ्रैंकफर्ट स्कूल, लुकाच, भाषा विज्ञान, संरचनावाद, उत्तर संरचनावाद, वोलोशिनोव-बख़्तिन सर्कल, ग्राम्शी, फ्रायड, लाकां आदि का उल्लेख करता है। 

ऐजाज़ अहमद के विश्लेषण में 'सिद्धांत' की उन शाखाओं को प्रमुखता प्राप्त है जो उपनिवेश और साम्राज्य का मुद्दा उठाती हैं, और राष्ट्र, राष्ट्रवाद और तीसरी दुनिया जैसी श्रेणियों के माध्यम से ख़ुद को परिभाषित करती हैं। राष्ट्रवाद को वे आम तौर पर राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग की अगुवाई में चलने वाली प्रक्रिया मानते हैं। यह वर्ग साम्राज्यवाद से संघर्ष के मामले में अंततः कमज़ोर साबित होता है और समझौते पर बाध्य होता है। इसलिए साम्राज्यवाद से संघर्ष की ज़िम्मेदारी भी उनके मुताबिक़ समाजवाद पर ही आती है। इस बात को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं—

'मैं यह नहीं मानता कि राष्ट्रवाद साम्राज्यवाद का दृढ़, द्वंद्वात्मक विपरीत है। यह हैसियत सिर्फ़ समाजवाद की है।…… न ही मैं मानता हूँ कि राष्ट्रवाद कोई एकात्मक (unitary) चीज़ है जो हमेशा प्रगतिशील या प्रतिगामी होता है। कोई राष्ट्रवाद क्या भूमिका निभाएगा यह हमेशा वर्ग शक्तियों और सामाजिक राजनैतिक व्यवहार के तरीक़ों पर निर्भर करता है जो उस शक्ति समूह (पावर ब्लॉक) को संगठित करते हैं, जिसके भीतर कोई राष्ट्रवादी पहल ऐतिहासिक रूप से प्रभावी होती है।' (वही, पृ. 11) 

ऐजाज़ अहमद के मुताबिक़ विउपनिवेशीकरण के साथ-साथ अमरीकी पूंजीवाद का अभूतपूर्व केंद्रीकरण और उसकी साम्राज्यवादी अभिव्यक्ति युद्धोत्तर विश्व की एक प्रमुख सचाई थी। व्यवहार में यह देखने में आया कि जो देश अपनी मुक्ति के बाद समाजवादी राह पर नहीं चले वे क्रमशः साम्राज्यवादी ढांचे में समाते चले गए। उत्तर औपनिवेशिकता इसी प्रवृत्ति की विचारधारा थी। इसने उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष तो किया, उससे मुक्ति भी हासिल की और साम्राज्यवाद के बारे में हाय तौबा मचाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन यह सब ऊपरी रंग-रोगन साबित हुआ। 'नव वाम' और साहित्यिक 'सिद्धांत' के 'रैडिकल' अनुयायियों की ऐसी अनेक गतिविधियों का उल्लेख उन्होंने किया है जिनमें वे अपनी गर्मागर्म साम्राज्यवाद-विरोधी लफ़्फ़ाज़ी भी जारी रखते हैं और समझौते का चोर-रास्ता भी ढूंढ लेते हैं। वे बताते हैं कि मेट्रोपोलिटन वाम संरचनाओं और विकसित पूंजीवादी राज्यों ने उपनिवेशवाद से पीड़ित देशों के प्रति भेदभावपूर्ण नज़रिया प्रदर्शित किया है। इस्राइल फिलिस्तीन संघर्ष में उन्होंने पर्दे के पीछे इस्राइल से हाथ मिला लिया था और फिलिस्तीन से आंख फेरकर दक्षिण अफ्रीका के लिए घड़ियाली आँसू बहाते रहे थे। वे लिखते हैं—

'फ़िलहाल चर्चा का मुख्य बिंदु उपनिवेश-विरोधी राष्ट्रवाद है। इसके दो रूप हैं—पहला, राष्ट्रवादी विचारधाराओं से युक्त तथा राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के उत्तर औपनिवेशिक राज्य; और दूसरा, क्रांतिकारी युद्धों और समाजवादी वाम के उत्तर क्रांतिकारी राज्य। 1970 के दशक तक यह वैश्विक संरचना का निर्धारक तत्व था। इस अवधि के भी आख़िरी दशक तक क्रांतिकारी आंदोलनों के वर्चस्व था जिन्होंने अपने उपनिवेशवाद-विरोध को बुनियादी बदलाव के राजनैतिक कार्यक्रमों का हिस्सा बनाया था। लेकिन '60 के दशक के बाद आए मेट्रोपोलिटन वाम ने इससे यह ग़लत नतीजा निकाल लिया कि प्रगतिशील सामाजिक परिवर्तन उपनिवेशवादविरोधी राष्ट्रवाद का अभिन्न अंग है। इसी पृष्ठभूमि में तीन दुनियाओं के चीनी सिद्धांत ने वैश्विक मान्यता प्राप्त की, और राष्ट्रवाद तथा सांस्कृतिक सिद्धांतकारों के लिए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विचारधारा को साम्राज्यवादी (उत्तरआधुनिकतावादी?) संस्कृति के स्वाभाविक विरोधी की मान्यता मिल गई।' (वही, पृ. 33)

लेकिन इस भ्रामक मान्यता से ये तथ्य नहीं बदलते कि 1980 के दशक के अंत तक दुनिया की संरचना में ऐतिहासिक परिवर्तन घटित हो रहे थे, क्रांति के बाद समाजवाद की राह पकड़ने वाले देशों को प्रायः सबसे निम्न स्तर की उत्पादक शक्तियों से काम लेना पड़ा जिससे आर्थिक ठहराव की स्थिति बनी, लेकिन इन रैडिकल नववामपंथियों में शामिल कम्युनिस्टविरोधियों ने इसे इस रूप में प्रचारित किया कि समाजवाद आर्थिक रूप से कारगर नहीं है। इस तरह सोवियत संघ के बारे में राय बदलने लगी। ऐजाज़ अहमद के अनुसार अभी कुछ समय पहले तक जब क्रांतिकारी संघर्ष चल रहे थे तो बात कुछ और थी। तब इस तथ्य को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल था कि हर प्रकार के क्रांतिकारी संघर्ष को सोवियत संघ का निर्णायक भौतिक और राजनयिक समर्थन मिलता रहा था। यहाँ तक कि ब्रेजनेव के शासनकाल के तथाकथित 'जड़ता' के दौर में भी बहुत सारी क्रांतियाँ सोवियत संघ के प्रत्यक्ष समर्थन से सफल हुईं। बहरहाल, आगे चलकर गोर्बाचेव के दौर ने इस ऐच्छिक स्मृतिभ्रंश को और तेज़ किया।

दूसरी तरफ़ जिन उत्तर औपनिवेशिक राज्यों से बहुत बड़ी-चढ़ी आशाएँ की गई थीं वे बहुत जल्द जड़ता, परनिर्भरता, तानाशाही क्रूरता, धार्मिक कट्टरता आदि का प्रदर्शन करने लगे। सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों की आख़िरी उम्मीद ईरान की क्रांति थी, जहाँ खोमैनी ने असंख्य ईरानी कम्युनिस्टों और देशभक्तों का सफ़ाया किया और ईरान को एक धर्म-शासित राज्य में बदल दिया। इस तरह साम्राज्यवाद के विकल्प के रूप में मेट्रोपोलिटन वामपंथियों के लिए समाजवाद तो पहले ही चुक गया था, उत्तर औपनिवेशिक राज्य भी नहीं बच सके।
#ऐजाज़_अहमद_का_मार्क्सवाद  (2)

ऐजाज़ अहमद हमें बताते हैं कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का संबंध तीन दुनियाओं के सिद्धांत के साथ अनिवार्यतः होता है। इसके बाद राष्ट्रवाद के विरोध का विचार एक पूरी तरह से अलग सैद्धांतिक ढांचे उत्तरसंरचनावाद से प्रेरित होकर आता है। उत्तरसंरचनावाद प्रत्यक्षतः तीन दुनियाओं के सिद्धांत का विरोधी हैं, इसके बावजूद वह इन्हें समेटने का प्रयास करता है। मार्क्सवाद को ठुकराने के क्रम में इस विचारधारा ने ऐतिहासिकता से अपना नाता पूरी तरह से ख़त्म कर लिया। नतीजा यह निकला कि नई ज़मीन तोड़ने निकला यह अवांगार्द (हिरावल) साहित्य-सिद्धांत आंतरिक रूप से संगत कोई संरचना तक तैयार न कर सका।

मार्क्सवाद-विरोध से भी बड़ी वजह इस असंगति की यह रही कि यह विचार दुनिया मे तेजी से हो रहे राजनैतिक और आर्थिक परिवर्तनों से संचालित था। '70 के दशक में साम्राज्यवाद के विरुद्ध राष्ट्रवाद गतिशील था तो तीन दुनियाओं के सिद्धांत के रूप में उसकी स्थापना हुई, लेकिन '80 के दशक में जब यही राष्ट्रवाद निरंकुश और दमनकारी हो गया तो उसे ठुकराने की ज़रूरत उत्तरसंरचनावाद में प्रकट हुई।  ऐसा करते हुए उत्तरसंरचनावाद किसी भी प्रगतिशील या पतनशील राष्ट्रवाद के बीच अंतर नहीं करता और सबको सिर्फ़ राष्ट्रवाद होने के कारण ख़ारिज़ कर देता है।

'60 के बाद पैदा हुए 'पश्चिमी मार्क्सवाद' (नव वामपंथियों को यह नाम पेरी एंडरसन ने दिया था) की बहुत सी प्रवृत्तियों ने आगे चलकर उत्तरसंरचनावाद की राह आसान की। मसलन, मार्क्यूस ने वर्ग की श्रेणी का परित्याग करके कामुकता और सौंदर्य के क्षेत्र में क्रांतिकारी गतिशीलता की खोज की। अडोर्नो की चरम निराशावादी कृति 'मिनिमा मोरलिया' ने सार्त्र के 'क्रिटिक ऑफ डाइलेक्टिकल रीज़न' के सहयोग से यह विचार विकसित किया कि 'अभाव' की श्रेणी के चलते यह अनिवार्य है कि कोई भी विद्रोही समूह सत्ता पाने के बाद नौकरशाही में पतित हो जाएगा। 'सिद्धांत' पर उल्लेखनीय प्रभाव रखने वाले अल्थ्यूसर का संरचनावाद से रिश्ता जगजाहिर है, लेकिन विचारधारा को 'अचेतन' 'प्रतिनिधित्व की प्रणाली के रूप में', 'इंसान और दुनिया के बीच जिए गए संबंध के रूप में', और 'ऐसी चीज़ के रूप में जो किसी राज्य के सभी अनुमानित उपकरणों को संतृप्त कर देती है', प्रस्तुत करके उसने इसे मिशेल फूको द्वारा प्रवर्तित उत्तरसंरचनावादी विमर्श के समतुल्य बना दिया। ब्रिटिश-अमरीकी अकादमिक जगत में पश्चिमी मार्क्सवाद का आगमन उल्लेखनीय रूप से '70 के दशक में उत्तरसंरचनावाद के साथ हुआ।

'तीसरी दुनिया का साहित्य' बक़ौल ऐजाज़ अहमद इंग्लैंड और अमरीका के महानगरों में स्थित विश्वविद्यालयों की निर्मिति है। इस पर संदेह करने की प्रमुख वजह इन विश्वविद्यालयों का विकासशील देशों के बौद्धिक जगत पर क़ायम वर्चस्व है। दोनों के बीच का रिश्ता, ख़ासकर अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से, शासक-शासित संबन्ध जैसा हो जाता है। लैटिन अमरीका में छपे किसी उपन्यास को चुनकर उसका अंग्रेज़ी में अनुवाद कराने से लेकर किसी अन्य देश, मसलन, भारत के विश्वविद्यालयों में इसे 'तीसरी दुनिया' के प्रतिनिधि उपन्यास की हैसियत से स्थापित करने की प्रक्रिया इसी वर्चस्व के तहत संचालित होती है। आम तौर पर इस कथित तीसरी दुनिया की भाषाओं से 'पहली दुनिया' के इन महानगरीय बुद्धिजीवियों और लेखकों का परिचय तक नहीं होता। इसलिए ख़ास दृष्टि से चुनी हुई बहुत थोड़ी सी कृतियाँ अनूदित होकर इस प्रतिष्ठान द्वारा स्वीकृत-पुरस्कृत होने की दहलीज पर पहुंच पाती हैं। इसके अलावा अपनी मातृभाषाओं से मुंह मोड़कर सीधे अंग्रेज़ी में लिखने वाले लेखक भाग्यशाली होते हैं कि उन्हें इस प्रक्रिया से नहीं गुज़रना पड़ता। पहली दुनिया के लेखकों को भी इसी में आसानी होती है। इस वजह से उन्हें तुरंत अपने देश का प्रतिनिधित्व करने का गौरव मिल जाता है।

जहाँ तक साहित्यिक 'सिद्धांत' का सवाल है, ऐजाज़ अहमद उसका खाका खींचते हुए हमें बताते हैं कि दो महायुद्धों के बीच के समय में अंग्रेज़ी साहित्य में चार प्रमुख प्रवृत्तियों का ज़ोर था। ये थीं— आई. ए. रिचर्ड्स की व्यावहारिक आलोचना, टी. एस. इलियट की रूढ़िवादी-कैथोलिक-राजतन्त्रवादी आलोचना, आधुनिकतावाद की कुछ अवांगार्द प्रवृत्तियाँ, और अमरीका में नई-नई उभर रही रैंसम और टेट आदि की 'नई समीक्षा'। इन प्रवृत्तियों का प्रतिवाद करने की रुचि इंग्लैंड में अधिक थी, क्योंकि वहाँ सामाजिक चेतना से संपन्न साहित्यिक अध्ययनों की परंपरा पुरानी थी। एफ. आर. लेविस की अगुवाई में 'स्क्रूटिनी' ग्रुप ने व्यावहारिक समीक्षा के शिक्षाशास्त्रीय महत्व को समझते हुए इसे साहित्यिक विश्लेषण के वस्तुगत मानदंड में बदल दिया, और इस प्रकार उन्होंने साहित्यिक 'आस्वाद' की अभिजात प्रवृत्तियों को विस्थापित कर दिया। 

लेविस और उनके ग्रुप की मध्यवर्गीय जड़ों, और साहित्यिक अध्ययन को इंग्लैंड की सांस्कृतिक मुक्ति के सुनिश्चित मार्ग की तरह देखने के लगभग धार्मिक रवैये के बावजूद इसमें रैडिकलवाद का कुछ लोकप्रियतावादी क़िस्म का अंश भी था। इसी लोकप्रियतावादी तत्व को रेमंड विलियम्स ने अपनी श्रमिकवर्गीय पृष्ठभूमि और उस ख़ास क़िस्म के रैडिकलवाद से जोड़ा जो उसे कम्युनिस्ट पार्टी में ले गया था। अगले बीस साल तक 'कल्चर ऐंड सोसाइटी' से लेकर 'द कंट्री ऐंड द सिटी' तक उसने अनेक अध्ययन प्रस्तावित किए। बाद वाली किताब को ऐजाज़ अहमद अंग्रेज़ी समीक्षा की सबसे प्रभावशाली कृति मानते हैं। हालाँकि, ब्रिटिश अकादमिक जगत में रेमंड विलियम्स को वह महत्व कभी नहीं मिल सका जो टी. एस. इलियट को मिला। लेकिन यह आसानी से कहा जा सकता है कि लेविस की मध्यवर्गीयता और विलियम्स के मार्क्सवादी संदर्भों के बीच ब्रिटिश बौद्धिकता का अगुवा तबक़ा शीतयुद्ध के दौर में भी साहित्य की सामाजिक भूमिका की स्थापना की ओर बढ़ता रहा। दूसरे शब्दों में, जब अमरीका में 'नई समीक्षा' के विरुद्ध उपजी प्रतिक्रिया 'विखंडनवाद' की ओर अग्रसर हुई, इंग्लैंड में रिचर्ड्स और लेविस के आलोचकों ने वामपंथी दिशा अपनाई।

अमरीकी समाज को ऐजाज़ अहमद ऐतिहासिक कारणों से अधिक रूढ़िवादी, कुलीनतावादी, और यहाँ तक कि नस्लवादी मानते हैं। दास प्रथा जैसी बुराई को अपनी आज़ादी के बाद बहुत लंबे समय तक बनाए रखने की जो वजहें अमरीकी समाज में थीं, उन्होंने ऐसी ही मनोभूमि का निर्माण किया था। फ्रांस की 'जैकोबिन' और इंग्लैंड की 'क्रामवेलियन' मनोवृत्ति के मुक़ाबले यह अमरीका का पिछड़ापन ही कहा जाएगा। इसी पृष्ठभूमि में वहाँ 'नई समीक्षा' का उदय होता है। इसने प्रत्येक कृति को निरपेक्ष रूप से स्वायत्त और 'साहित्य' को 'एक ख़ास तरह का ज्ञान रखने वाली अलग भाषा' मानते हुए 'पाठ' (रीडिंग) की जो संस्कृति विकसित की, वह अमरीकी साहित्यिक अध्ययन के क्षेत्र में चौथाई सदी तक छाई रही।

ग़ौरतलब है कि 1940 के दशक के अंत तक 'नई समीक्षा' अपने उत्कर्ष पर पहुंच गई थी। यही समय है जब अमरीका ने शीतयुद्ध छेड़ा और सख़्त कम्युनिस्टविरोधी 'मैकार्थीवाद' की शुरूआत की। '50 के दशक के अंत मे जब उसका वर्चस्व गिरावट के दौर में पहुँचा तो मैकार्थीवाद का भी उतार हो रहा था, और आइजनहावर के कठोर सिद्धांतों ने केनेडी युग के लिए जगह ख़ाली कर दी थी। अमरीकी उदारतावाद का यह वही सुनहला ज़माना था जिसने वियतनाम युद्ध छेड़ा था।

नई समीक्षा के विरुद्ध उसी दौर में पहली असहमति नार्थोप फ्राई जैसे आलोचकों के माध्यम से सामने आई। उन्होंने साहित्य को 'विशेष ज्ञान रखने वाली विशेष भाषा' के विचार को बरक़रार रखा लेकिन उसकी निरपेक्ष स्वायत्तता से इनकार कर दिया। उनका कहना था कि किसी व्यापकतर आख्यान के बग़ैर कोई रचना अपना अर्थ नहीं प्रकट कर सकती। साफ़ तौर पर यह 'टेक्स्ट' को 'कॉन्टेक्स्ट' में समझने का आग्रह था। सभ्यताओं की गहन संरचनाओं के रूप आकार के अंदर ही रचनाकार अपनी बातों को भाषा के माध्यम से प्रेषित करता है। इस परंपरा ने आगे चलकर 'संरचनावाद' की राह आसान कर दी। साथ ही साथ इसने 'विमर्श' के उत्तरसंरचनावादी सिद्धांत के लिए भी जगह बनाई, जिसमें यह माना जाता था कि भाषा ही मनुष्यों के माध्यम से बोलती है और मानव तत्व (ह्यूमन एजेंसी) का निर्माण भाषा ही के द्वारा हुआ है।

'60 के दशक में और उसके बाद अमरीकी साहित्यिक परिदृश्य को आच्छादित करने वाले हेरल्ड ब्लूम और पॉल दी मान जैसे व्यक्तित्वों का उभार हुआ। इसी दौरान अमरीकी शासन डलेस (जॉन फ़ास्टर डलेस, '50 के दशक में अपने कम्युनिस्टविरोध के लिए कुख्यात अमरीकी राज्य-सचिव) टाइप के कट्टरवाद से केनेडी टाइप के 'उदार' साम्राज्यवाद में, दूसरे शब्दों में कोरिया से वियतनाम में रूपांतरित हुआ। आगे चलकर 'विखंडनवाद' के उभार से ब्लूम को काफी पीड़ा हुई लेकिन वे इसका समुचित विरोध न कर सके, क्योंकि, लेखक के मुताबिक़, सैद्धांतिक प्रश्नों का सामना करने की उनकी तैयारी पर्याप्त नहीं थी।

वियतनाम युद्ध के विरोध में अमरीका में जो जनज्वार उठा वह इसे कोई साम्राज्यवादविरोधी स्वरूप देने में असफल रहा। उसकी चेतना बस इतनी ही थी कि अमरीका सेना को वियतनाम से बुला लेने के बाद वह शांत पड़ गई। लेकिन इससे हरकत में आई सामाजिक शक्तियों ने नारीवाद और ब्लैक आंदोलन (हिंदी में इसके लिए 'अश्वेत' चलता है जो कि पूरी तरह भ्रामक शब्द है। किसी बेहतर विकल्प के अभाव में मैं मूल शब्द 'ब्लैक' का इस्तेमाल करना उचित समझता हूँ।) के क्षेत्र में नए मुक़ाम तय किए। अमरीकी रैडिकलवाद का गठन इन तत्वों के साथ हुआ है।

इस दौरान अमरीकी अकादमिक जगत ने पहली बार नस्ल और लिंगभेद के सवालों का सामना किया। पहली बार इस बात की तरफ़ उनका ध्यान गया कि उनका अब तक का अध्ययन दुनिया के कितने छोटे से हिस्से, यूरोप और उत्तरी अमरीका तक सीमित था। इस अहसास से उन्होंने एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका पर जब दृष्टि डाली तो तीसरी दुनिया का साहित्य नामक एक नई श्रेणी को जन्म दिया। '60 के दशक में एशिया और यूरोप के विकसित शिक्षा केंद्रों को हिला देने वाले छात्र-आंदोलनों के साथ-साथ चीन की सांस्कृतिक क्रांति (1966-76) ने भी तीसरी दुनिया नामक नई श्रेणी को स्थापित करने में भूमिका निभाई। इस प्रकार रैडिकलवाद के तीन चेहरे उभरे— ब्लैक, नारी और तीसरी दुनिया। वे कहते हैं:

'किसी भी रैडिकलवाद के सामने चाहे वह ब्लैक हो, नारीवादी हो, या तीसरी दुनियावादी हो, सबसे बुनियादी और निरंतर बना रहने वाला ख़तरा उसका बुर्जुआकरण है। इस तरह के रैडिकल आंदोलन जिन तीन शीर्षक-संकेतों के अंतर्गत पूरी तरह से समेट लिए गए, वे हैं— तीसरी दुनियावादी राष्ट्रवाद, सारतत्ववाद (एसेंशियलिज्म), और बिखराव और टूट-फूट के मौजूदा फैशनेबल सिद्धांत, जैसे— "विषय की मृत्यु" (डेथ आफ सब्जेक्ट)। यानी एक तरफ तो सुविचारित विशिष्टता और स्थानीयतावाद की राजनीति और दूसरी तरफ, जैसा कि कुछ उत्तरसंरचनावादी मानते हैं, सामाजिक की मृत्यु, विषय की स्थिर स्थितियों की असंभाव्यता, यानी राजनीति मात्र की ही मृत्यु। हाल के वर्षों में तीसरी दुनियावादी विचार के उत्तरसंरचनावाद के साथ मेलजोल के कई प्रयास सामने आए हैं।' (वही, पृ.64-5)

यहां 'सब्जेक्ट' के पर्याय के रूप में मैंने 'विषय' का चुनाव किया है, लेकिन इसका वास्तविक अर्थ इसके साथ 'मरने वाली' 'सामाजिक' और 'राजनैतिक' जैसी श्रेणियों के साथ इसे रखने से प्रकट होता है। दूसरे शब्दों में, 'डेथ आफ सब्जेक्ट' का अर्थ है जनता और उसके लिए सोचने और काम करने वाले बौद्धिक कार्यकर्ता की मौत। उत्तरसंरचनावाद की अपनी राजनीति का तकाजा भी यही है।
                   #ऐजाज़_अहमद_का_मार्क्सवाद  (3)

ऐजाज़ अहमद के अनुसार '70 के दशक के अंत तक आते-आते उपनिवेशवादविरोधी क्रांतियों की आँधी थम गई और इसकी समाजवादी धारा को घेरने और काबू करने में साम्राज्यवाद सफल हुआ। '80 के दशक में इसीलिए राष्ट्रीय बुर्जुआ की अगुवाई में उत्तऔपनिवेशिक राष्ट्रवाद मजबूत हुआ, जिसने तीसरी दुनियावाद की नींव डाली। '80 के दशक के परवर्ती वर्षों में ऐसे अवांगार्द सिद्धांतकार सामने आए जिन्होंने घोषणा की कि राष्ट्रवाद की आलोचना करने के लिए उत्तरसंरचनावाद और विखंडनवाद मज़बूत वैचारिक स्थितियां हैं। एडवर्ड सईद ने रंजीत गुहा और सबाल्टर्न इतिहास की पूरी परियोजना को उत्तरसंरचनावादी माना है।

यहां फूको की कुछ मान्यताओं पर गौर करना चाहिए जो उत्तरसंरचनावाद के एक प्रमुख प्रेरक विचारक हैं—एक, जो भी खुद को 'तथ्य' बताता है वह विमर्श द्वारा प्रस्तावित 'सत्य-प्रभाव' (ट्रुथ-इफ़ेक्ट) है। दो, जो भी 'शक्ति' का प्रतिरोध करने का दावा करता है वह खुद 'शक्ति' बन जाता है। बक़ौल ऐजाज़ अहमद, इसके बाद 'सिद्धांत' के लिए 'प्रभावों' को गिनने, और उसे निगलने और उगलने के अलावा कोई काम नहीं बचता। यह खुद विचारों का बाजार बन जाता है जहां 'सिद्धांत' का किसी उपयोगशुदा माल की तरह थोक में उत्पादन और आपूर्ति होती है।

                           (2)

फ्रेडरिक जेम्सन के एक निबंध 'थर्ड वर्ल्ड लिटेरचर इन द एरा ऑफ मल्टीनेशनल कैपिटलिज्म' के फुटनोट में तीसरी दुनिया के संज्ञानात्मक सौंदर्यशास्त्र की शब्दावली के प्रयोग पर सवाल खड़े करते हुए ऐजाज़ अहमद कहते हैं कि यूरोप या अमरीका का शायद ही कोई ऐसा लेखक होगा जो कथित तीसरी दुनिया की कोई भाषा जानता हो। इन देशों की भाषाओं से अंग्रेजी अनुवाद भी अपवादस्वरूप ही हो पाता है। ऐसे में इन देशों के अंग्रेजी में लिखने वाले लेखक अनायास इनके प्रतिनिधि का दर्जा पा लेते हैं जैसा कि सलमान रश्दी और एडवर्ड सईद के मामले में हुआ है। इसके अलावा फ्रेडरिक जेम्सन की अपनी वैचारिकी में तीसरी दुनिया और पहली दुनिया एक दूसरे के बायनरी विपरीत हैं। तीसरी दुनिया को वे उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के 'अनुभव' के आधार पर परिभाषित करते हैं, राष्ट्रवाद जिसकी अनिवार्य परिणति है। इसके बाद उनका प्रसिद्ध सूत्र आता है— तीसरी दुनिया की सभी रचनाओं को आवश्यक रूप से राष्ट्रीय रूपक की तरह पढ़ा जाना चाहिए। इस प्रकार इन तीनों का समीकरण अविभाज्य है। 

उल्लेखनीय है कि जेम्सन के अनुसार पहली दुनिया पूंजीवादी राज्यों का समूह है, और दूसरी दुनिया समाजवादी राज्यों का। तीसरी दुनिया शेष बची हुई है जिसकी विशेषता उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का उसका 'अनुभव' है। ऐजाज़ अहमद की आपत्ति यह है कि इस वर्गीकरण की पहली दो श्रेणियां मानवीय प्रयासों का परिणाम हैं, जबकि तीसरी श्रेणी केवल निष्क्रिय भोक्ता होने की स्थिति को व्यक्त करती है। भारत का उदाहरण देकर वे बताते हैं कि उसमें पहली और दूसरी दुनिया के कई देशों से अधिक मात्रा में पूंजीवादी विकास भी हुआ है, और समाजवादी विकास भी। इससे मिलती-जुलती स्थिति ब्राजील, मेक्सिको, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों की भी है। इसलिए इन्हें पहली दुनिया का बायनरी विपरीत बताना वास्तविकता से मेल नहीं खाता। उनका कहना है कि तीसरी दुनिया के सामने दो ही विकल्प हैं, राष्ट्रवाद या अमरीकी उत्तरआधुनिक संस्कृति। ऐजाज़ अहमद का प्रश्न है कि उनके सामने दूसरी दुनिया में शामिल होने का विकल्प क्यों नहीं हो सकता। वे जेम्सन को याद दिलाते हैं कि तीसरी दुनिया के वही राष्ट्र अमरीकी साम्राज्यवाद का प्रतिरोध कर सके जिन्होंने समाजवाद की राह चुनी। बाकी राष्ट्रवादियों को अमरीकी संस्कृति से जुड़ने में वक्त नहीं लगा। अगर मानव समाजों की व्याख्या उत्पादन संबंधों के बजाय अंतरराष्ट्रीय प्रभुत्व के 'अनुभवों' के आधार पर की जाएगी और उन्हें पूंजीवाद और समाजवाद के बीच संघर्ष के बाहर हमेशा के लिए त्रिशंकु की तरह लटकने के लिए छोड़ दिया जाएगा, उनके बीच एकता और संघर्ष के अन्य बिंदुओं की जगह राष्ट्रीय उत्पीड़न का अनुभव ही उन्हें एकताबद्ध करेगा, तो वे इतिहास के निष्क्रिय शिकार के रूप में देखे जाने को अभिशप्त होंगे।

इस बहस को आगे बढ़ाते हुए ऐजाज़ अहमद एक वैकल्पिक तर्क देते हैं— मान कर देखें कि हम तीन दुनियाओं में नहीं बल्कि एक ही दुनिया में रहते हैं, जिसमें पूंजीवाद और समाजवाद के बीच युद्ध छिड़ा हुआ है। कहीं पूंजीवाद जीता है जिसे जेम्सन पहली दुनिया कहते हैं, कहीं समाजवाद जीता है जिसे वे दूसरी दुनिया कहते हैं, और जहां अभी पलड़ा किसी के पक्ष में निर्णायक तौर पर नहीं झुका है उसे तीसरी दुनिया कहते हैं। यह विचार दुनिया की अधिक यथार्थवादी समझ देता है। इस दृष्टि से सोचने पर राष्ट्रवाद पर अतिरिक्त जोर देने की जरूरत नहीं रह जाती और न ही राष्ट्रीय रूपक की कोई खास अहमियत होती है। 

दूसरी तरफ जेम्सन का विचार है कि औद्योगिक समाजों में 'व्यक्तिगत' और 'सामाजिक' का पूर्ण विलगाव हो जाता है और पूर्व औद्योगिक समाजों में व्यक्तिगत और सामूहिक के तत्व परस्पर घुले-मिले होते हैं। इसीलिए तीसरी दुनिया के देशों की कथाओं में व्यक्तिगत के साथ  सामूहिकता के कुछ आशय भी सम्मिलित हो जाते हैं। इसे ही उन्होंने राष्ट्रीय रूपक होने का कारण माना है। ऐजाज़ अहमद इस बात के लिए उनको आड़े हाथों लेते हैं कि वे अपनी धारणाएं बहुत जल्दी-जल्दी बदलते हैं। 'सामूहिक' और 'राष्ट्रीय' में बहुत बड़ा फर्क है। 19वीं और 20वीं सदी के भारत की अनेक कथा-रचनाओं का हवाला देकर उन्होंने बताया कि वे कतई राष्ट्रीय रूपक नहीं है। इनमें मिर्जा हादी रुसवा, मोहम्मद हुसैन आजाद, इंशा अल्ला खाँ इत्यादि 19वीं सदी के बड़े लेखकों से लेकर 20 वीं सदी के उपन्यासकार अब्दुल्लाह हुसैन भी शामिल हैं। 

इस संबंध में कहने की बात यह है कि बहस में अगर कोई पक्ष अपनी बात का स्पष्टीकरण दे तो उसे फेसवैल्यू पर लेना चाहिए, और यथासंभव स्वीकार करना चाहिए, बशर्ते उसे येन केन प्रकारेण हराने ही कि मंशा न हो। क्योंकि इसके बगैर इस बात की संभावना बनी रहती है कि आप अपने प्रतिपक्ष के विचारों के किसी हीनतर पक्ष से बहस करते रहे जाएँ, और अपने हिसाब से उसमें सुर्खरू भी हो जाएँ, लेकिन वास्तविकता में उस बहस से कुछ भी नहीं बदलता। इस बहस में भी फ्रेडरिक जेम्सन की बात को ऐजाज़ अहमद तोड़ते-मरोड़ते हुए प्रतीत होते हैं। जैसे, उन्होंने जेम्सन पर परोक्ष रूप से ईसाइयत की परंपरा को रूपक के माध्यम से पुनर्जीवित करने का आरोप लगा दिया है, क्योंकि मध्यकाल में एलिगरी या रूपक का इस्तेमाल धार्मिक बोधकथाओं को प्रस्तुत करने के लिए बहुतायत से किया जाता था, जिसके विरुद्ध 19वीं सदी के अंग्रेज़ी साहित्य में विद्रोह हुआ और सेक्युलर परंपरा की स्थापना हुई थी। अब यह कुछ ऐसी ही बात है जैसे आज हिंदी में कोई रूपक की बात करे तो उस पर 'पंचतंत्र' या 'पुराणों' की परंपरा को पुनर्जीवित करने का आरोप लगा दिया जाए। बीसवीं सदी में भी अंग्रेज़ी-फ्रांसीसी साहित्य में रूपक-आधारित बेहतरीन कृतियों की रचना हुई है। अल्बैर कामू का 'प्लेग' और जार्ज ऑरवेल का 'एनिमल फार्म' इनमें खास तौर पर उल्लेखनीय हैं। फ़िलहाल हमारा विषय 19वीं और 20वीं सदी का हिंदी-उर्दू साहित्य है तो इसमें से बहुत चुने हुए दो-तीन रचनाकारों के माध्यम से रूपक की अहमियत पर बात की जाएगी।

सबसे पहले ऐजाज़ अहमद के प्रिय शायर मिर्ज़ा ग़ालिब को लेते हैं। उनकी शायरी के बेशतर हिस्से को बतौर राष्ट्रीय रूपक ही समझ जा सकता है। मसलन उनकी ये मशहूर ग़ज़ल देखें:

'न गुल-ए-नग़मा हूँ न पर्दा-ए-साज़
मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज़'

यह महज़ किसी आशिक़ की आवाज़ नहीं है, एक पराजित और विनष्ट होती हुई सभ्यता की भी आवाज़ है। इस शेर को अगर केवल रवायती मुहावरे में समझने की कोशिश करेंगे तो कोई घिसा-पिटा अर्थ भले ही हाथ लग जाए, इसका वास्तविक वैभव हमसे दूर ही रह जाएगा। अगला शेर देखें:

'हूँ गिरफ़्तार-ए-उल्फ़त-ए-सय्याद
वरना बाक़ी है ताक़त-ए-परवाज़'

यहाँ बात और खुल जाती है। ये जो शिकारी है, जिसने हमें क़ैद कर रखा है, हम दरअसल उसके सम्मोहन में उलझ गए हैं। वरना उड़ने की ताक़त अभी ख़त्म नहीं हुई है। हम भारतीय लोग 19वीं सदी में ब्रिटिश मान मूल्यों से ऐसे ही सम्मोहित हो गए थे। आज भी औपनिवेशिक विरासत हमारे ऊपर सवार है, क्योंकि राजनैतिक रूप से हम भले ही आज़ाद हो गए, लेकिन सांस्कृतिक स्तर पर आज भी ब्रिटिश-अमरीकी संस्कृति के दीवाने हैं। इसीलिए ज्ञान के किसी भी क्षेत्र में हम कोई मौलिक काम कर पाने में असमर्थ हो चुके हैं। 

ग़ालिब की एक अपेक्षाकृत कम उद्धृत की गई ग़ज़ल के चंद शेर हैं-

'गुलशन में बंदोबस्त बरंगे-दिगर है आज
कुमरी का तौक़ हल्का-ए-बेरूने-दर है आज

'आता है एक पारा-ए-दिल हर फ़ुगाँ के साथ
तारे-नफ़स कमंदे-शिकारे-असर है आज

'अय आफ़ियत किनारा कर अय इंतिज़ाम चल
सैलाबे-गिरिया दर पै-ए-दीवारो-दर है आज'

पहले शेर का आशय है कि बग़ीचे का इंतज़ाम आज दूसरे ढंग का हो गया है। पहले जो फंदा चिड़िया के गले
के इर्द-गिर्द था, अब वह दरवाजे का दायरा बन गया है। ऊपरी तौर पर तो चिड़िया अपना गीत गाने के लिए आजाद है, लेकिन यह आज़ादी एक बड़े क़ैदख़ाने के अंदर की आज़ादी है। आबो-हवा में उन्मुक्तता की जगह घुटन भर गई है, और पूरा माहौल प्रदूषित हो गया है। यह फ़र्क़ शासकवर्गीय कठोरता और उदारता का है। 19वीं सदी में अंग्रेज़ों ने इन हथकंडों का बख़ूबी इस्तेमाल किया था। हमारे मौजूदा शासक भी अक्सर इसका स्वांग भरते दीख जाते हैं। यहां दूसरे (दिगर) ढंग के इंतज़ाम' की बात में व्यंग्य और विडंबना है। अव्वल तो वह पहले से अलग है नहीं, और फिर उसे आज़ाद करने वाला समझा जा रहा है जबकि वह ग़ुलामी ही को और गहराई देता है।

दूसरे शेर में इसी परिस्थिति से उपजी मन:स्थिति का बयान है। इस स्थिति में हर कराह के साथ दिल का एक टुकड़ा बाहर आ जाता है। इससे प्रभावित व्यक्ति की सांस का हर तार मानो कमान बन गया है, जिससे छूटने वाला तीर उसके दिल में पैबस्त हो जाता है। 

तीसरे शेर में भी इसी तकलीफ़देह सचाई पर प्रतिक्रिया व्यक्त किया है---ऐ दिल की शांति तू अपनी राह ले और ऐ व्यवस्था तू चलती रह। आंसुओं की बाढ़ आज घर-बार को ढा देने पर उतारू है। व्यवस्था यानी वही 'नया बंदोबस्त'। उसे चलते रहना है क्योंकि कोई और विकल्प नहीं है, लेकिन उसके साथ शांति का बने राह पाना नामुमकिन है। अशांति होकर रहेगी। दुख के इस पहाड़ का मुकाबला आँसुओं की नदी में आई बाढ़ ही कर सकती है। यही बाढ़ अन्याय पर आधारित इस घर की दीवारों को ढाने में कामयाब हो सकती है।

                              #ऐजाज़_अहमद_का_मार्क्सवाद  (4)

हिंदी-उर्दू साहित्य में राष्ट्रीय रूपक की मौजूदगी के विषय पर बहुत विस्तार से बात की जा सकती है लेकिन मैं यहाँ नमूने के बतौर ही कुछ कहने तक ख़ुद को सीमित रखूँगा। ग़ालिब के बाद बीसवीं सदी के हिंदी कवि मुक्तिबोध का एक अंश और अब्दुल्लाह हुसैन के उपन्यास 'उदास नस्लें' के बारे में कुछ वाक्य। मुक्तिबोध की कविता 'ब्रह्मराक्षस' की ये अंतिम पंक्तियां हैं:

'पिस गया वह भीतरी
औ' बाहरी दो कठिन पाटों बीच, 
ऐसी ट्रैजेडी है नीच ! !

बावड़ी में वह स्वयं 
पागल प्रतीकों में निरन्तर कह रहा 
वह कोठरी में किस तरह 
अपना गणित करता रहा
औ' मर गया..
वह सघन झाड़ी के कँटीले
तम-विवर में
            मरे पक्षी-सा
            बिदा ही हो गया
वह ज्योति अनजानी सदा को सो गयी 
यह क्यों हुआ !
क्यों यह हुआ ! !
मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य
होना चाहता
जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य, 
उसकी वेदना का स्रोत
              संगत, पूर्ण निष्कर्षों तलक
                       पहुँचा सकूँ।'

यहाँ 'ब्रह्मराक्षस' नाम का यह पात्र ज्ञान के लिए उन्मुख भारतीय परंपरा का ही रूपक है जो आंतरिक स्तर पर सामंती और बाहरी स्तर पर औपनिवेशिक, दो कठिन पाटों के बीच पिस कर ख़त्म हो जाता है।

ऐजाज़ अहमद ने जिन रचनाकारों का नाम अपने मत के समर्थन में लिया है, उनमें अब्दुल्लाह हुसैन भी हैं। क्लासिक का दर्जा रखने वाले उनके उपन्यास' 'उदास नस्लें' को वर्षों तक मैं विश्वविद्यालय की कक्षाओं में पढ़ाता रहा हूँ और ये दावे के साथ कह सकता हूँ कि राष्ट्रीय रूपक के बतौर पढ़े बग़ैर इस उपन्यास में आने वाले घटनाक्रमों— 1857 के विद्रोह में एक सरकारी कर्मचारी रोशन अली ख़ाँ के हाथों कर्नल जानसन की जान बचने, फिर इस सेवा के बदले ब्रिटिश सरकार से मिली ज़मीन पर 'रोशनपुर' के बसने, उस नए बसे गाँव में रोशन अली ख़ाँ का अपने मुग़ल दोस्त मिर्ज़ा मुहम्मद बेग को रहने के लिए आमंत्रित करने, मुहम्मद बेग का अच्छी खासी जमींदारी के बावजूद लोहे की शिल्पकारी शौक़िया करने, उनकी मौत के बाद उनके बेटे नियाज़ बेग को इसी शिल्पकारी के कारण राजद्रोह के आरोप में जेल जाने, और उसके बेटे नईम का अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आज़ादी की जंग में शामिल होने जैसे प्रसंगों की कोई सार्थक व्याख्या नहीं हो सकती। यह आम तौर पर समूची 19वीं सदी में और ख़ास तौर पर '57 के विद्रोह के दमन के बाद अंग्रेज़ों के हाथों अपने वफ़ादार लोगों के माध्यम से पुनर्गठित हिंदुस्तान की कथा है। 

रोशनपुर इसी नए हिंदुस्तान का रूपक है। इसकी अपनी प्रभुत्वशाली परंपरा अंग्रेज़ों के एहसानमन्द और उनकी दी हुई जागीरों और वजीफ़ों पर पलने वालों की है तो दूसरी वास्तविक भारतीयता की परंपरा भी है जो इससे बेनियाज़ होकर अपनी मेहनत से सच्चे हिंदुस्तानी की तरह जीने वाले लोगों के जीवन में दिखती है। इसकी नुमाइंदगी मुग़ल परिवार करता है। शिल्पकारी का शौक़ एक ऐसा सूत्र है जो उन्हें भारतीयता से जोड़ता है। हमारे देश में शास्त्रज्ञान का उतना ही महत्व रहा है, जितना कि कला कौशल का। अपने काम मे दक्ष कोई किसान, कोई शिल्पकार, कोई जुलाहा, कोई राजमिस्त्री, या कोई कातिब किसी विद्वान से कम नहीं समझा जाता था। किसानों, श्रमिकों, और शिल्पकारों ने मध्यकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी की भूमिका निभाई थी। कबीर आदि निर्गुण संत कवियों की वाणी में उन्हीं की भावना व्यक्त होती है। जातीय श्रेष्ठता की सामाजिक प्रणाली से इसका सहज विरोध का संबंध था, भले ही इसने निर्णायक संघर्ष का रूप न पकड़ा हो। शिल्प और कला का असाधारण विकास शिल्पकारों के सम्मान के बग़ैर नहीं हो सकता। औपचारिक शिक्षा को एकमात्र शिक्षा पद्धति का दर्जा देने में अंग्रेजों ने परंपरागत प्रणाली को नष्ट करने के बाद ही कामयाबी पाई।  

किस्सा कोताह यह कि अंग्रेज़ों की बनाई हुई व्यवस्था में केवल औपचारिक शिक्षा को मान्यता मिली, और बाकी सबको अशिक्षित और अज्ञानी मान लिया गया। रोशनपुर का यह मुगल परिवार शिल्पकारी में दक्ष है। आगे चलकर मुहम्मद बेग का बेटा नियाज़ बेग लोहे की खूबसूरत बंदूकें बनाने लगता है, जिसे पुलिस की चेतावनी के बावजूद नहीं छोड़ता और राजद्रोह के आरोप में तेरह साल की सज़ा काटता है। ध्यान रहे कि हिंदुस्तान के लोगों के हथियार रखने के हक़ को ब्रिटिश सरकार ने ही छीना था। आज जिस लाइसेंस प्रणाली को हम स्वाभाविक समझते हैं, वह ग़ुलाम देशों की ही ख़ासियत है जो अब तक चली आई है। बहरहाल, आगे चलकर ये दोनों परंपराएँ परस्पर घुलती-मिलती हैं, आज़ादी के लिए लड़ती हैं, और अपनी राष्ट्रीय नियति में साझेदारी करती हैं।

कहने का आशय यह कि रूपक एक शैली है जिसमें आधुनिक युग के अनुरूप भी रचनाकर्म होता है। उस पर मध्ययुग का ठप्पा लगा देना उचित नहीं है। जेम्सन ने जिस संदर्भ में कहा है कि पूर्वऔद्योगिक समाजों में व्यक्तिगत कथा में सामूहिक कथा शामिल होती है, वह समझ में आने वाली बात है। पूर्वआधुनिक परंपराओं में व्यक्तिगत की चेतना भी नहीं होती और समूह के अंश के रूप में ही व्यक्ति के अस्तित्व की चरितार्थता संभव होती है। यही समाज उपनिवेशवाद से लड़ाई के दौरान अपने अंदर एक नई, राष्ट्रीय पहचान विकसित करता है। विकसित औद्योगिक समाज बनने तक उसकी चेतना में नई व पुरानी दोनों प्रकार की सामूहिकताएँ सक्रिय रहती हैं। लेकिन उपनिवेशवाद-विरोधी और साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना उसे लगातार आधुनिक दिशा में उन्मुख करती है। इसी पृष्ठभूमि में जेम्सन तीसरी दुनिया की रचनाओं को राष्ट्रीय रूपक के बतौर 'पढ़ने' की वक़ालत करते हैं। ध्यान दें, कि वे ऐसा 'लिखने' का आग्रह नहीं कर रहे हैं। सिर्फ़ पढ़ने के आग्रह में यह निहित है कि पुरानी सामूहिकताओं के नज़रिए से लिखी हुई रचनाओं में भी नई सामूहिकता यानी राष्ट्र के आग्रह स्वाभाविक रूप से शामिल होंगे। अब क्योंकि यह नई चीज है और सबसे मूल्यवान भी, इसलिए हमें चाहिए कि पढ़ते समय इसके प्रति विशेष रूप से सचेत हों, अन्यथा हम इसकी पहचान करने से चूक सकते हैं।

इस बहस का केंद्रीय मुद्दा यह है कि जो देश उपनिवेशवाद से मुक्त हुए हैं उन्हें समाजवाद में संक्रमण का संभावित उम्मीदवार माना जाए या साम्राज्यवाद से जूझते राष्ट्रवाद के रूप में देखा जाए। ऐजाज़ अहमद के विश्लेषण से ऐसा लगता है कि एक बार औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त होने के बाद उन्हें कथित तौर पर पूंजीवादी पहली या समाजवादी दूसरी दुनिया के अंग के रूप में अपनी भूमिका तय कर लेनी चाहिए, वरना वे तीसरी दुनिया की त्रिशंकु नियति को ही प्राप्त होंगे। इस मान्यता के पीछे जो सबसे बड़ी वजह दिखती है वह यह कि राष्ट्रवाद को वे व्यवहारतः राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के नेतृत्व में चलने वाला विचार ही मानते हैं, सैद्धांतिक गुंजाइशें चाहे जो हो। यानी, तीसरी दुनिया में राष्ट्रवाद के होने का एकमात्र अर्थ है कि वहां सर्वहारा वर्ग पूंजीपति का अनुगामी है, और समाजवाद के लिए संघर्ष नहीं हो पा रहा है। 

ग़ौरतलब है कि यह सारा विश्लेषण उन्होंने तब किया जब चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में जनता के लोकतांत्रिक गणतंत्र की स्थापना हो चुकी थी, 'पूंजीवादी पथिकों' (कैपिटलिस्ट रोडर्स) के विरुद्ध दस साल तक 'सांस्कृतिक क्रांति' चलाने के बाद उसे वापस ले लिया गया था, और माओ ने कहा था कि यह पूंजीवाद और समाजवाद के बीच संघर्ष की संक्रमणकालीन स्थिति है। यह संघर्ष लंबा चलेगा और अंत में कौन जीतेगा यह अभी से नहीं कहा जा सकता। रूस समेत जिन देशों में समाजवाद आया उनमें से कोई विकसित पूंजीवादी देश (जैसी कि मार्क्स ने कल्पना की थी) नहीं था। पिछड़ी हुई उत्पादन पद्धतियों वाले समाज में क्रांतियाँ संपन्न हुईं। रूस में 1917 की अक्टूबर क्रांति के सिर्फ़ एक साल के अंदर लेनिन 'नई आर्थिक नीति' लेकर आए जिसमें पूंजीवादी उत्पादन संबंधों को एक स्तर पर पुनर्स्थापित किया गया ताकि उत्पादक शक्तियों के विकास में मदद मिल सके। उस दौर के समाजवाद को इसीलिए 'राजकीय पूंजीवाद' और 'पूंजीपति के बगैर पूंजीवाद' कहां गया। मार्क्स के दिए नारे--- 'सबसे उसकी योग्यता के अनुसार और सबको उसकी आवश्यकता के अनुसार'--- से अलग लेनिन के समाजवाद की पहचान बन चुका नारा--- 'सबसे उसकी योग्यता के अनुसार और सबको उसके काम के अनुसार'--- पूंजीवादी लूट और शोषण के विरुद्ध अवश्य है, लेकिन बेशी मूल्य के आधार पर पूंजी के संचय के विरुद्ध नहीं है। ख़ुद ऐजाज़ अहमद के विश्लेषण में एक जगह यह सचाई झलक जाती है, जब वे लेनिन की छोटे बुर्जुआ वर्ग के लिए जगह बनाने वाली 'नई आर्थिक नीति' को पलटने और 'नियंत्रित अर्थव्यवस्था' की नीति अपनाने के स्तालिन के रवैये को 'विकृति' कहते हैं:

'बदले में इसका नतीजा यह हुआ कि स्तालिनीय नौकरशाहीवाद की सबसे बुरी संभावनाएँ सामने आईं, जिन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर न केवल विरोध को दबा दिया बल्कि अर्थव्यवस्था में व्यापक विकृतियों को जन्म दिया, जिसमें भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद में पतन भी शामिल था। असहनीय बाहरी दबाव और नियंत्रित अर्थव्यवस्था--- जिसे स्तालिन शासन ने नई आर्थिक नीति को हटाकर लागू किया और बाद में पूर्वमध्य यूरोप के कोमेकान (परस्पर आर्थिक सहयोगी, पूर्वसमाजवादी) देशों तक पर थोप दिया था और जो समाजवादी निर्माण का मॉडल बन गया था--- के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं थी। कहना मुश्किल है कि बाहरी दबाव ने आंतरिक विकृतियों को किस हद तक निर्धारित किया।' (वही, पृ. 22-3)

दूसरी बात यह कि जेम्सन के सूत्रीकरण में यह निहित है कि तीसरी दुनिया का सीधा संघर्ष साम्राज्यवाद से है। लेकिन इस समीकरण को बायनरी विपरीत का मामला बताकर ऐजाज़ अहमद खारिज कर देते हैं क्योंकि तीसरी दुनिया को साम्राज्यवाद या राष्ट्रवाद में से एक विकल्प चुनना पड़ता है। वे मानते हैं कि समाजवाद का सीधा संघर्ष साम्राज्यवाद से है और तीसरी दुनिया भी उस संघर्ष में शामिल है, यानी मूल लड़ाई समाजवाद बनाम पूंजीवाद है। उन्हें एतराज है कि इस सिद्धांत में समाजवाद को साम्राज्यवाद के विकल्प के रूप में क्यों नहीं रखा गया है। ध्यान दें कि साम्राज्यवाद से सीधे टकराव में अगर कामयाबी नहीं मिलेगी तो तीसरी दुनिया के देशों को उसका अंग बनना ही पड़ेगा। इसे अलग से कहने की भी जरूरत नहीं है। लेकिन अगर संघर्ष में कामयाबी मिलेगी तो जाहिर है कि देश के अंदर की समाजवादी प्रवृत्तियां मजबूत होंगी। ऐसी स्थिति में त्रिशंकु बनने की आशंका उचित नहीं है।

ऐसा लगता है कि ऐजाज़ अहमद यह कल्पना ही नहीं करते कि मजदूर वर्ग कभी राष्ट्रवाद का चैंपियन बन सकता है। यह भूमिका वे राष्ट्रीय पूंजीपति के लिए सुरक्षित रखते हैं, जबकि साम्राज्यवाद के युग में यह संभव ही नहीं है कि वह राष्ट्रीय हितों के लिए समझौताहीन संघर्ष कर सके। हर जगह उसे जनता के अधिकारों में कटौती करनी पड़ेगी, राष्ट्रवाद की जगह अंधराष्ट्रवाद लागू करना पड़ेगा, और साम्राज्यवाद को अधिक से अधिक छूट देते हुए अपनी जनता की मुश्कें कसने का काम करना होगा। इसी परिस्थिति से जूझते हुए किसी देश के अंदर की समाजवादी शक्तियां मजबूत होती हैं और राष्ट्रवाद तथा जनतंत्र के लिए संघर्ष की अगुवाई करती हैं। पिछड़े हुए विकासशील देशों के समाजवादी दिशा अपनाने का यही वास्तविक तरीका है, ऐजाज़ अहमद जिसकी अनदेखी करते हैं। 

एक और बात जिसके लिए उन्होंने जेम्सन को आड़े हाथों लिया है कि वे राष्ट्रों को उत्पादन प्रणाली के आधार पर नहीं, अंतरराष्ट्रीय प्रभुत्व के संबंधों के 'अनुभव' के आधार पर वर्गीकृत कर रहे हैं। यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी नवस्वतंत्र देश के इतिहास में उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के 'अनुभव' का अर्थ कोई संवेदनात्मक अनुभूति नहीं है। इसका सीधा संबंध उत्पादन प्रणाली, उत्पादन संबंध, स्वामित्व और वितरण के तरीकों से होता है। उपनिवेशवाद का अनुभव भारत जैसे देश में पुरानी उत्पादन प्रणाली के विनाश, संरक्षणवादी नीतियों के माध्यम से देश को कच्चे माल की मंडी में बदलना, भूमि संबंधों में बदलाव, देश के नियम कानून में बदलाव, शिक्षा, प्रशासन और राजनैतिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन आदि के रूप में दिखाई पड़ता है। यानी, किसी पिछड़े हुए उत्पादन संबंध वाले नवस्वतंत्र देश के लिए उपनिवेशवाद का 'अनुभव' 'अंतरराष्ट्रीय प्रभुत्व संबंध' का अध्ययन नहीं है। यह उत्पादन संबंधों का ही अध्ययन है।
कृष्ण मोहन

साभार      

कीर्तिगान उपन्यास हमारे समाज में जारी साम्प्रदायिक उन्माद और फ़ासिस्ट राजनीति को साहित्य की ओर से दिया हुआ जवाब है :कृष्ण मोहन

'कीर्तिगान' चंदन पांडेय का दूसरा उपन्यास है। इससे पहले 'वैधानिक गल्प' में उन्होंने एक ऐसे युवा मुस्लिम अध्यापक रफ़ीक की कहानी बयान की थी, जो लोकचेतना को जगाने वाले नाटकों को अपने विद्यार्थियों के साथ तैयार करके उनका प्रदर्शन करता है। इस प्रक्रिया में वह स्थानीय शक्तिशाली सामाजिक समूहों और निहित स्वार्थों को खटकने लगता है, जो बदलते हुए समय के साथ कथित धर्मनिरपेक्ष राजनीति को तिलांजलि देकर साम्प्रदायिक राजनीति के उभार के दौर में बढ़ चढ़ कर उसकी अगुवाई करने में लगे हुए हैं। एक निर्णायक प्रदर्शन से पहले रफ़ीक और उसकी टीम की सदस्य एक छात्रा अचानक गायब हो जाते हैं। उस छात्रा से जोड़कर उसके ग़ायब होने की अनेक व्याख्याएँ समाज मे फैला दी जाती हैं, जिनपर विश्वास करने को हमारा समाज मानो तैयार बैठा रहता है। उसकी पत्नी का मित्र, एक लेखक जब उसकी खोज में उतरता है तो उसके सामने रफ़ीक के सहयोगी अध्यापकों से लेकर पुलिस, दंगाई समूहों, राजनेताओं और सोशल मीडिया तक के गठजोड़ का दृश्य धीरे धीरे उभरता है।

यह उपन्यास हिंदी जगत में एक परिघटना की तरह आया और अत्यंत चर्चित और प्रशंसित हुआ। इसके पीछे वजह यही थी कि हमारे समाज के मौजूदा दौर में ज़मीनी स्तर पर चलने वाली साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया और उसको संचालित करने वाले निहित स्वार्थों की कार्यप्रणाली को कथा-साहित्य में पहली बार विश्वसनीय और कलात्मक ढंग से चित्रित किया जा सका था। साहित्य के पाठकों ने अपने ज्ञान से अधिक अपनी संवेदना से इस चुनौतीपूर्ण कथा की रचना में आने वाले कलात्मक जोख़िम को महसूस किया था।

बहरहाल, लेखक का अगला उपन्यास 'कीर्तिगान' इस मामले में एक बहुत बड़ी लकीर खींचता हुआ दिखाई पड़ता है। 'वैधानिक गल्प' में मॉब लिंचिंग की भूमिका-सी बनती है और एकाध इसके प्रयास भी होते हैं, लेकिन उसकी कथा प्रायः समाज की ऊपरी सतह पर जारी सॉफिस्टिकेशन के पाखंड को अनावृत करती है। इस अगले उपन्यास में हमारे समाज का यह लोमहर्षक यथार्थ  अपने सर्वग्रासी अंदाज़ में प्रकट होता है। अपनी आँखों के सामने सतत जारी इस हत्यारे सिलसिले को कला-रचना में ढालने का फ़ैसला करना एक अकल्पनीय चुनौती को आमंत्रित करने जैसा था। हिंदी-उर्दू के कथा-साहित्य में एक मंटो को छोड़कर दूसरा कोई नाम याद नहीं आता जिसने समाज में जारी ऐसे पाखंड और पागलपन की विकराल विभीषिका को, उसकी मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और ऐतिहासिक गहराई में जाकर, कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करने की चुनौती स्वीकार की हो। लेखक ने न केवल इसे स्वीकार किया है बल्कि बहुत बड़ी हद तक इसे सफलतापूर्वक निभाया है। इसका अर्थ है कि इस भीषण यथार्थ के सतही आयामों तक सीमित होकर नहीं, बल्कि इसके गहन आंतरिक आयामों का स्पर्श करते हुए कथा को बुद्धि-संवेदना-गम्य बनाया है। मेरी नज़र में यह एक हैरतअंगेज़ कारनामा है जो हमारे कथा-साहित्य में संभव हुआ है। उपन्यास अभी आया ही है, इसलिए इसकी विषयवस्तु के बारे में और कुछ कहना अभी उचित नहीं है। मैं यही कह सकता हूँ कि यह उपन्यास हमारे समाज में जारी साम्प्रदायिक उन्माद और फ़ासिस्ट राजनीति को साहित्य की ओर से दिया हुआ जवाब है। यह हमारी इस समझ को बल देता है कि रात जितनी ही अँधेरी और काली होती है, उसके सुबह में बदलने की संभावना उतनी ही निकट होती है।

अपूर्वानन्द की किताब 'सुंदर का स्वप्न' : कृष्ण मोहन

#सुंदर_का_सत्य

अपूर्वानन्द की किताब 'सुंदर का स्वप्न'

सचाई जब कड़वी हो जाती है, तो शासकवर्गीय विचारक सौंदर्य के पैमानों पर बहस छेड़ते हैं, और सत्य को व्यक्त करने के आग्रह पर कुढ़ने लगते हैं। जब उस सचाई को कला में ढालकर पेश किया जाता है तो वे उससे नाक़ाबिले बर्दाश्त होने की मांग करते हैं, और ऐसा न होने को कला की असफलता कहते हैं। असल में ऐसे विचारक रंगे सियार की तरह होते हैं, जो सत्ता के विरोधी होने का स्वांग भरते हैं, लेकिन जब भी मुँह खोलते हैं तो अपनी असलियत उजागर कर देते हैं। समय-समय पर इनकी चर्चा करनी पड़ती है, ताकि लेखकों की इस प्रजाति को पहचानना हम भूल न जाएं।

आधुनिक युग में सौन्दर्यशास्त्र के अस्तित्व में आने की एक दिलचस्प वजह बताते हुए अपूर्वानन्द अपनी किताब 'सुन्दर का स्वप्न' (वाणी प्रकाशन) के आरम्भिक पृष्ठों पर कहते हैं– "हम देखते हैं कि प्रायः हर समय शासक वर्गों के प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रोत्साहन पर सर्वसम्मति का एक स्तर खोजने की कोशिश चलती रहती है।... सौन्दर्यानुभूति के इस स्तर से गुजरकर ही किसी भी राजनीतिक या सामाजिक व्यवस्था का तर्क मान्यता प्राप्त करने में सफल होता है।... अर्थशास्त्र और नीतिशास्त्र की दुनिया अमूर्त तर्कों से अलग अनुभूति का एक सम्पूर्ण लोक है, जिसे समझना किसी सामाजिक व्यवस्था की आवश्यकता है। अठारहवीं सदी के यूरोपीय दार्शनिक अनुभूति के उस लोक का अपना तर्कशास्त्र गढ़ने की जरूरत महसूस करने लगे जो मानवीय चिन्तन द्वारा निर्मित नीतिशास्त्र, राजनीतिशास्त्र या तर्कशास्त्र से अलग अस्तित्व रखता हो। इसी प्रयास में सौन्दर्यशास्त्र का जन्म हुआ।" (पृ. 18-19)

लेकिन विकास के क्रम में सिक्के का दूसरा पहलू भी सामने आता है-- "सौन्दर्यशास्त्र ने अठारहवीं सदी में जहाँ एक नई सामाजिक-आर्थिक शक्ति के औचित्य के लिए आधार प्रस्तुत किया, वहीं आगे चलकर उसकी क्रूरता से विद्रोह किया, उसके असली चेहरे को बेनकाब किया और यह बताया कि एक ऐसा क्षेत्र बचा हुआ है जहाँ मनुष्य अपनी रचनात्मकता की शक्ति के साथ उस व्यवस्था का मुकाबला कर सकता है।" (पृ. 29)

बुनियादी तौर पर सौन्दर्य के शास्त्र के निर्माण या विवेचन का कोई भी प्रयास इन्हीं दोनों दिशाओं में से किसी एक के निकट होगा। इस किताब के उपशीर्षक में इसे मार्क्सवादी सौन्दर्य-दृष्टि से सम्बन्धित माना गया है, इसलिए इस परिप्रेक्ष्य में भी इसकी जाँच-परख अनिवार्य है। कुल मिलाकर सौन्दर्य को परिभाषित करने के इस आग्रह की राजनीति क्या है और यह स्वयं सौन्दर्य की कसौटी पर कितना खरा उतरा है, यही इस लेख का विषय है।

मार्क्सवादी सौन्दर्य-चेतना का पुनरुद्धार करने के क्रम में लेखक के हाथ एक अत्यन्त मौलिक सूत्र लगा है जिसे वह इन शब्दों में प्रस्तुत करता है- "मार्क्स और एंगेल्स की रचनाओं को आत्मीयता से पढ़नेवाला व्यकि यह देखे बिना नहीं रह सकता कि उनके आदर्श मानवीय जीवन का लक्ष्य जितना सत्य की प्राप्ति नहीं, सुख, आनन्द या लोगों की भलाई है।" (पृ. 37) मार्क्स को इस किताब में किसी सौन्दर्यशास्त्री जैसे उच्चतर आसन पर प्रतिष्ठित किया गया है क्योंकि उनका पूरा प्रयास मानवीय श्रम को पूंजीवादी उपयोगितावाद की अनिवार्यता से मुक्त कराकर उसे सुख और आनन्द की ऐच्छिकता के हवाले करता है और इस प्रकार पूंजीवादी उत्पादन पद्धति में अजनबियत का शिकार होकर गुम हो गए मानव-व्यक्तित्व को उसे वापस करता है। पूर्णता और सौन्दर्य का यह लक्ष्य निश्चय ही मार्क्स के बुनियादी लक्ष्यों में से एक है, लेकिन अपूर्वानन्द के विश्लेषण में मार्क्स को यह श्रेय महंगे दामों मिलता है। उसके लिए उन्हें सबसे पहले सत्य की भारी कीमत चुकानी पड़ती है। उपयुक्त उद्धरण में सुख या आनन्द, जिसे किताब में प्रायः सौन्दर्य के पर्याय के रूप में व्यवहृत किया गया है और लोगों की भलाई यानी लोककल्याण एक तरफ है और सत्य दूसरी तरफ। यह खेमेबन्दी रणनीतिक है जिसका रहस्य आगे चलकर खुलता है।

भारतीय परम्परा में सत्य और शिव को सुन्दर से अभिन्न माना गया है, लेकिन यहाँ अगर वे अलग-अलग दिखते हैं तो यह अकारण नहीं है। 'सच्चे' सौन्दर्य की स्थापना सत्य के मानमर्दन के बगैर नहीं हो सकती। साहित्य और कला के क्षेत्र में, जिसे सौन्दर्यशास्त्र का विशिष्ट क्षेत्र माना गया है, सत्य को अंतर्वस्तु तथा सौन्दर्य को रूप के द्वारा पहचाना जाता है। अन्तर्वस्तु की अवहेलना करके रूप के महत्व पर आत्यंतिक जोर देनेवाले विचार, रूपवाद का समर्थन करने के लिए बहुत खोजबीन कर मार्क्स की निम्नलिखित गवाही जुटाई गई है। रूपवाद को मार्क्सवाद का शत्रु घोषित करने और तमाम तथाकथित गैरयथार्थवादियों की आलोचना करनेवाले अगर मार्क्स के इस उद्धरण को देखें तो उन्हें अपनी गलती का अहसास शायद हो सके-- "सत्य में सबका साझा होता है- यह मेरी मिल्कियत नहीं है। इस पर हर किसी का हक है। मुझ पर वह नियन्त्रण रखता है। मैं उसे नियन्त्रित नहीं करता, मेरी सम्पत्ति बस रूप ही है-- यानी मेरी मानसिक और बौद्धिक विशिष्टता।" (वही, पृ. 47 )

मार्क्स के इस कथन से रूपवाद को तो शायद ही कोई राहत मिल सके, हाँ सत्य के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का पता अवश्य चल जाता है। अपने इतने उत्साही समर्थकों के प्रयासों पर मार्क्स की ऐसी ठंडी प्रतिक्रिया देखकर उनके एक समकालीन मिर्ज़ा ग़ालिब होते तो कहते:

'शौक हर रंग रक़ीबे सरो सामां निकला 
क़ैस तस्वीर के पर्दे में भी उरियाँ निकला'

मज़े की बात यह है कि लेखक अपनी उपलब्धि का श्रेय ख़ुद लेने में संकोच करता है और अत्यंत उदारतापूर्वक उसे पूँजीवाद को प्रदान कर देता है– "पूँजीवादी समाज में सत्य और सुन्दर अलग-अलग हैं, वे अलग-अलग मूल्य हैं। पूँजीवादी व्यवस्था में जो सत्य है, वह सुन्दर नहीं क्योंकि मानवीयता से रहित हुए बिना सच का सामना
नहीं किया जा सकता।" (पृ. 55) जाहिर है कि यह विलक्षण पूंजीवाद 'मानवीयता' को 'सत्य' से अलगाकर 'सुन्दर' के साथ जोड़ देता है जिससे दोनों के बीच मूल्यगत अलगाव पैदा हो जाता है। पूँजीवाद यह कैसे करता है, इसका मर्मस्पर्शी वर्णन देखें-- "इसी लिहाज से यह मान लिया जाता है कि सत्य का अनुधावन तो विज्ञान का काम है, लेकिन सौन्दर्य कला का लक्ष्य होता है। सत्य और सुन्दर के बीच जो सख्त अलगाव माना जाता है, उसकी वजह यह है कि सौन्दर्य-भावना का मानवीय आकांक्षाओं की पूर्ति से सम्बन्ध है जबकि इस समाज में जो वस्तुनिष्ठ सत्य है, वह अनेक बार इस मानवीय अभिलाषा के विपरीत, उसे कुचलते हुए अपनी सत्ता स्थापित करता है। इसीलिए पूँजीवाद की खासियत है कि यथार्थलोक में जो अभिलाषाएँ पूरी नहीं हो सकतीं, उनकी पूर्ति के लिए वह एक कल्पना लोक का निर्माण करता है और जनसामान्य को उसमें सन्तुष्टि हासिल करने को प्रेरित करता है। इस प्रकार सौन्दर्य - भावना की प्रबलता की जाँच मनुष्य को अधिक से अधिक यथार्थ-विस्मृत करने या अचेत बनाने की उसकी क्षमता से की जाती है।" (वही)

इस उद्धरण से किसी को भी यह भ्रम हो सकता है कि लेखक पूँजीवाद की इन कारस्तानियों असन्तुष्ट है, लेकिन वह तो इनकी पुष्टि के लिए मार्क्सवादी तर्कों की तलाश में है। पहले जैसे उसने मार्क्स को उद्धृत किया था, उसी तरह अब क्रिस्टोफर कॉडवेल को उद्धृत करते हुए 'सुन्दर' को समाज से काटने की जुगत भिड़ाता है। कॉडवेल कहते हैं कि "सौन्दर्य में बदलाव का कारण समाज है, उसी की वजह से नए सौन्दर्य का भी जन्म होता है। सौन्दर्य जिस वस्तुनिष्ठ परिवेश में अवस्थित होता है वह प्राकृतिक से ज्यादा सामाजिक है। यानी सौन्दर्य का निर्धारण दूसरे असौन्दर्यात्मक गुणों के द्वारा होता है और वे ही इसके अस्तित्व में आने और फिर विलीन हो जाने, इसके अन्दर तब्दीली का और इसके विकास का कारण बता सकते हैं... ये समाज वैज्ञानिक शक्तियाँ हैं।... ये समाज वैज्ञानिक गुण सौन्दर्यात्मक नहीं हैं: सौन्दर्यशास्त्र का एक अलग ही क्षेत्र है।" (वही, पृ. 56)

कॉडवेल के इस वक्तव्य से पता चलता है कि सौन्दर्य का आधार समाज है, वही उसमें परिवर्तन और विकास का कारण है, लेकिन उसकी व्याख्या के नियम समाज की व्याख्या के नियमों से अलग होंगे। कला का गतिविज्ञान सामाजिक गतिविज्ञान से अलग है; इससे लेखक यह निष्कर्ष निकालता है कि, "सौन्दर्यशास्त्र को बलपूर्वक समाजशास्त्र से अलग करने के उनके आग्रह को कभी भी नजरअन्दाज नहीं किया जाना चाहिए।" इसी तरह 'कला के तर्कशास्त्र' की व्याख्या करते हुए कॉडवेल तर्कणापरक के बजाय सौन्दर्यात्मक विश्वदृष्टि की आवश्यकता बताते हुए तर्कणापरक को 'वैज्ञानिक' (इनवर्टेड कामा लगाकर किसी विशिष्ट अर्थ में) कहते हैं। अपूर्वानन्द इससे झट निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि 'वैज्ञानिकता को सौन्दर्यात्मकता के बर-अक्स खड़ा करके कॉडवेल कला के अपने तर्कशास्त्र, यानी सौन्दर्यशास्त्र की विशिष्टिता को चिह्नित करते हैं।"

यहाँ कॉडवेल के विचारों की विवेचना का अवकाश नहीं है, लेकिन अपूर्वानन्द मार्क्स से लेकर कॉडवेल तक के वक्तव्यों से 'बलपूर्वक' वे सारे निष्कर्ष निकालते हैं जिसकी ज़िम्मेदारी उन्होंने पूँजीवाद पर डाली थी। इस प्रकार उन्होंने सौन्दर्य को अपने ही शब्दों में 'अधिक से अधिक यथार्थ-विस्मृत या अचेत बनाने की क्षमता' से सम्पन्न कर लिया। उनकी योजना बिल्कुल स्पष्ट है, हालाँकि उसे छिपाने के लिए उन्होंने ढेरों मार्क्सवादी पापड़ बेले हैं।

आन्तरिक संगति, सामंजस्य, लय और एकता सौन्दर्य के सम्भवत: सर्वाधिक पहचाने गए अवयवों में से कुछ एक हैं। लेकिन इस किताब में वर्णित सौन्दर्य हमेशा किसी न किसी का मुकाबला करते, उसे अपदस्थ करते हुए आता है। पहले उसने मनुष्यता को साथ लेकर सत्य को पछाड़ा, फिर भावना को साथ लेकर विचार को अपदस्थ करने की योजना बनाई। सन्दर्भ से कटे हुए उद्धरणों की कमज़ोर नींव पर खड़ा होने के कारण पहले की तरह ही इस उपलब्धि का श्रेय लेने का साहस भी लेखक नहीं कर सका और निहायत सादगी के साथ इसका जिम्मा एक बार फिर उसने पूँजीवाद के सिर मढ़ लिया। रिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत न गई। मुलाहजा फरमाएं– "भारतीय पूँजीवाद का विकास इस स्तर तक हो चुका था, जहाँ जाकर वह मानवीय व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के उन वायदों के खिलाफ काम करता हुआ दिखाई देने लगा था, जो अपने आरम्भिक काल में उसने किए थे। भारतीय मनुष्य के भावलोक और विचारलोक में एक दरार-सी पड़ गई थी और यह अहसास तेज हो गया था कि यह विकास सहज मानवीय भावनाओं को कुचलकर आगे बढ़ रहा है।" (पृ. 92)

यहाँ ग़ौरतलब है कि भावलोक और विचारलोक में दरार डालनेवाला पूँजीवाद सिर्फ़ भावनाओं को कुचलकर आगे बढ़ रहा है। संकेत साफ है, विचारों पर पूँजीवाद के समर्थन का आग्रह। इस प्रकार पूँजीवाद को दोषी ठहराने वाली भंगिमा में दरअसल उसके द्वारा डाली गई फाँक को और गहरा किया जा रहा है और उसी के आधार पर अपनी रणनीति को व्यवस्थित किया जा रहा है। इस बार आचार्य शुक्ल 'आत्मीयता' से भरी व्याख्या के शिकार बनते हैं– 'अपनी भाषा पर विचार' शीर्षक अपने निबन्ध में वे लिखते हैं "भाषा का प्रयोग मन में आई हुई भावनाओं को प्रदर्शित करने के लिए होता है।" इसके बाद आचार्य शुक्ल भावनाओं को विचारों से अलगाते हुए उसे रेखांकित करते हैं। लेखक का निष्कर्ष है– "भाषा को विचारों की जगह भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम मानने पर शुक्लजी का बल एक नई दृष्टि का परिचायक है। जिस तरह पाश्चात्य दर्शन में सौन्दर्यशास्त्र का विकास ऐन्द्रिय संवेदन पर बल देने के कारण हुआ उसी प्रकार शुक्लजी का सम्पूर्ण साहित्य-चिन्तन 'भावनाओं' को केन्द्र में रखकर होता है।" (पृ. 92)

इस मासूम से दिखनेवाले निष्कर्ष में एक तीर से दो शिकार किए गए हैं। एक तरफ विचारों को शुक्लजी के चिन्तन में हाशिए पर धकेला गया है, तो दूसरी तरफ ऐन्द्रिय संवेदन को पश्चिम की राह दिखाई गई है। फिर भी एक सवाल उठता है कि अगर भावना विचारों से इतनी अलग है और भाषा में उसी की अभिव्यक्ति होती है तो स्वयं शुक्लजी भाषा में किस चीज को व्यक्त कर रहे थे और क्या यह उचित न होगा कि उन्हें विचारक की भ्रामक श्रेणी से हटाकर भावक (या भावुक!) की समुचित कोटि में स्थापित कर दिया जाए। इसका उत्तर पाने के लिए आइए एक बार शुक्लजी के उस स्पष्टीकरण को भी देखें जिससे लेखक ने उक्त निष्कर्ष निकाला है– "स्मरण रखिए यह बात मैंने भावनाओं (Impressions) के विषय में कही है, विचारों (General notion) के विषय में नहीं।" (वही)

ऐसा लगता है कि शुक्लजी को अपने विचारों के अन्यथाकरण की कुछ आशंका थी, इसीलिए उन्होंने अपने शब्दों के साथ अंग्रेजी पर्यायों को भी देना ज़रूरी समझा। अंग्रेजी के 'इम्प्रेशन' का सबसे प्रचलित अर्थ 'प्रभाव' है जो वैचारिक भी हो सकता है। यहाँ तक कि उसका एक अर्थ स्वयं 'विचार' या 'नोशन' भी है। शुक्लजी के दिमाग में ये सारे अर्थ थे, इसीलिए उन्होंने 'नोशन' के साथ 'जनरल' लगाया, यानी सामान्य, आमफ़हम विचार। इससे अलग 'इम्प्रेशन' या 'भावना' को वह अभिव्यक्तिकर्ता की विशिष्ट मनोभूमि से जोड़ना चाहते थे। भाषा में अभिव्यक्ति की विशिष्टता से सम्बन्धित उनके इस कथन को मार्क्स के उस पूर्वोक्त वक्तव्य से जोड़कर देखा जा सकता है जिसे लेखक ने रूपवाद का समर्थन करने के लिए उद्धृत किया था। आचार्य शुक्ल ने ही कहीं कहा है कि सत्य सबका एक होता है और झूठ सबके अलग-अलग होते हैं। प्रत्यक्षं किं प्रमाणम्।

आचार्य शुक्ल के विचार इस विषय में पर्याप्त स्पष्ट हैं। स्वयं लेखक ने उनके जो उद्धरण दिए हैं, उनसे भी यह बात साफ हो जाती है। 'भाव या मनोविकार' शीर्षक लेख का एक उद्धरण देखें– "नाना विषयों के बोध का विधान होने पर ही उनसे सम्बन्ध रखनेवाली इच्छा की अनेकरूपता के अनुसार अनुभूति के भिन्न-भिन्न योग संघटित होते हैं जो भाव या मनोविकार कहलाते हैं।" ज़ाहिर है कि बोध की बुनियाद पर ही इच्छा और अनुभूति के रास्ते भावों का गठन होता है। यह बोध गहरे पानी पैठकर किए जानेवाले मन्थन से आता है। विचार तो उन लहरों की तरह हैं जो इस मन्थन से पैदा होते हैं। कुछ लोगों को साहित्य में इन्हीं विचारों से तकलीफ़ होती है। दरअसल यह तकलीफ़ बोध और चेतना से है। वे साहित्य को विचारों से 'इन्सुलेट' करके 'शुद्ध' बनाना चाहते हैं ताकि वह 'मनुष्य को अधिक से अधिक यथार्थ-विस्मृत या अचेत' कर सके।

आचार्य शुक्ल न केवल बुद्धि और हृदय की भूमिकाओं की विशिष्टता को समझते और उसकी रक्षा करते हैं, बल्कि सभ्यता के विकास के साथ साहित्य - व्यापार में बुद्धि की भूमिका को बढ़ाने के आग्रही हैं। 'कविता क्या है' शीर्षक निबन्ध से उद्धृत यह वक्तव्य देखें--"ज्यों-ज्यों सभ्यता बढ़ती जाएगी.. मनुष्य के हृदय की वृत्तियों से सीधा सम्बन्ध रखनेवाले रूपों और व्यापारों को प्रत्यक्ष करने के लिए उसे बहुत से परदों को हटाना पड़ेगा। ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नए-नए आवरण चढ़ते जाएँगे त्यों-त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जाएगी, दूसरी ओर कवि-कर्म कठिन होता जाएगा।... आरम्भ में मनुष्य जाति की चेतना सत्ता इंद्रियज ज्ञान की समष्टि के रूप में ही अधिकतर रही। अब मनुष्य का ज्ञान-क्षेत्र बुद्धि व्यवसायात्मक या विचारात्मक होकर विस्तृत हो गया है। अत: उसके विस्तार के साथ हमें अपने हृदय का विस्तार भी बढ़ाना होगा।" (वही, पृ. 100 )

कहना न होगा कि इन स्थितियों में विचारों के अवमूल्यन की कोई भी प्रवृत्ति 'भावना' के नाम पर मूलवृत्तियों और संवेगों की तरफ़ ही जाएगी और इस उलटी यात्रा से न तो साहित्य का कोई भला होगा, न सौन्दर्य का।

शुक्लजी के विचारों की मनचाही व्याख्या कर चुकने के बाद लेखक एक बार फिर मार्क्सवाद के समर्थन में ज़मीन-आसमान के कुलाबे मिलाता है और हिन्दी के मार्क्सवादी लेखकों का कुछ इस उत्साह से समर्थन करता है कि मन आशंकित हो उठता है। ख़ासतौर पर मुक्तिबोध को जब वह मार्क्सवादी सौन्दर्य-मूल्यों के लिए संघर्षरत योद्धा के रूप में चित्रित करता है और उनके सुपरिचित विचारों का परिचय अनपेक्षित विस्तार से देने लगता है तब यह आभास हो जाता है कि इसी विवरण के बीच कहीं कोई गाँठ ऐसी लगी होगी जिससे आगे चलकर मुक्तिबोध की 'मुक्ति' का ऐलान भी सम्भव हो सकेगा। उस गाँठ की तलाश भूसे के ढेर में सुई ढूँढ़ने जैसी थी। समूचे लेख से गुज़रने के बाद पता चला कि लेखक ने हाथ-पाँव तो बहुत मारा, मुक्तिबोध के विचारों में कोई ऐसा बिन्दु नहीं मिला जहाँ सूराख हो पाता। इसी खीज का नतीजा अन्त में जाकर इस आरोप में निकला-- "लेकिन यह भी सही है कि एकाधिक स्थल पर, अपनी व्यावहारिक समीक्षाओं और आलोचनाओं में मुक्तिबोध स्वयं एक विशेष प्रकार की सौन्दर्याभिरुचि के दायरे में घुसते नजर आते हैं। और प्रायः वे रचनाओं के विचार पक्ष या नैतिक अन्तर्वस्तु पर ही अधिक ध्यान केन्द्रित करते हैं" (वही, पृ. 158)।

इस आरोप की पुष्टि के लिए लेखक मुक्तिबोध के 'कामायनी : एक पुनर्विचार' के कुछ उद्धरणों का सहारा लेता है– " 'कामायनी' में व्यक्त विचारधारा को स्पष्ट तौर पर अस्वीकार करते हुए वे यह कहते हैं कि 'साहित्यिक सौन्दर्य के बारे में दो मत नहीं हो सकते।' लेकिन वे यह भी कहते हैं कि 'भावना या प्रभावोत्पादकता वह कसौटी नहीं है, जिससे हम जीवन के प्रति कवि-दृष्टि के औचित्य या अनौचित्य की जाँच कर सकें। कभी-कभी होता यह है कि भावना की रसात्मकता वस्तु-तत्त्व के अनौचित्य को ढाँक लेती है।' इन वाक्यों से यह निष्कर्ष निकालना बहुत गलत न होगा कि रचना में व्यक्त विचारधारा और उसकी कलात्मक प्रभावोत्पादकता, मुक्तिबोध के अनुसार, दो एकदम अलग-अलग चीजें हैं। किसी भी कलाकृति में व्यक्त विचारधारा वास्तव में एक सौन्दर्यात्मक समस्या है और उसके प्रभाव से उसका गहरा सम्बन्ध है। फिर यह कहना कहाँ तक उचित है कि कलात्मक सौन्दर्य का विश्लेषण एक अलग काम है और अन्तर्वस्तु का विश्लेषण जो कि विचारों से सम्बन्धित होता है, एक अलग काम है?" (वही)

यहाँ विचार और भावना यानी अन्तर्वस्तु और सौन्दर्य की एकता और अखंडता का नारा लगानेवाले अपूर्वानन्द का मार्क्स, कॉडवेल और आचार्य शुक्ल के सन्दर्भ में इन्हें अलग-अलग करना और एक की क़ीमत पर दूसरे को स्थापित करने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाना हम पहले ही देख चुके हैं। मुक्तिबोध ने जब इनके जैसे 'सच्चे सौन्दर्यशास्त्रियों' के मर्मस्थल पर चोट कर दी तो इन्हें एकता याद आने लगी। कहाँ तो विचार और भावना का अलगाव 'एक नई दृष्टि का परिचायक' नज़र आ रहा था और कहाँ अब दोनों का अलग-अलग विश्लेषण भी भारी गुज़र रहा है। उन्हें यह याद दिलाना तो गुस्ताख़ी ही होगी कि रूप और अन्तर्वस्तु में द्वन्द्वात्मक एकता होती है और कृति के समग्र मूल्यांकन के लिए उसके अवयवों का विश्लेषण करने के बाद ही संश्लेषण की क्रिया सम्पन्न होती है। रचना सुन्दर होकर भी नुकसानदेह हो सकती है। बकौल तुलसी–- 'विष रसभरा कनक घट जैसे'। स्वयं लेखक भी, मुक्तिबोध की ही तरह, सौन्दर्य की अचेतनकारी भूमिका की चर्चा कर चुका है, लेकिन संगति की अपेक्षा करना ही सम्भवतः उसके साथ ज़्यादती है।

कुल मिलाकर यह किताब तमाम देशी और विदेशी लेखकों के उद्धरणों और उनकी उबाऊ व्याख्याओं को बटोरकर हिन्दी में शास्त्र-निर्माण के नाम पर चलनेवाले कुंजी-लेखन का अच्छा नमूना है। इसका जो भी महत्व है वह इसमें सावधानीपूर्वक गूंथे गए मन्तव्यों के कारण है, जिनका थोड़ा परिचय यहाँ दे दिया गया है। इन विचारों का व्यावहारिक प्रयोग शमशेर की कविता पर जिस हल्के ढंग से किया गया है वह अपने आत्मविश्वास के कारण हास्यास्पद है। शमशेर की कविता के बारे में इससे शायद ही कोई अन्तर्दृष्टि मिलती है। हाँ, कवि के ही शब्दों और उनके शब्दकोषीय अर्थों के सहारे उनकी व्याख्या का छद्म ज़रूर रचा गया है, जिसकी परिणति प्रायः गूँगे के गुड़ जैसी अनुभूति में होती है। बहरहाल, सौन्दर्यशास्त्र में रुचि रखनेवाले प्रत्येक लेखक और पाठक को एक बार इस किताब को ज़रूर पढ़ना चाहिए ताकि पता लग सके कि सौन्दर्यशास्त्र पर बात किस तरह नहीं करनी चाहिए। नकारात्मक रूप में ही सही, लेकिन यह भी इस किताब का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है।

साभार

नामवर सिंह के कुर्ते की जेब से निकले आलोचक-संपादक का नया कारनामा, बक़ौल अवनीश पांडेय

नामवर सिंह के कुर्ते की जेब से निकले  आलोचक-संपादक का नया कारनामा, बक़ौल अवनीश पांडेय

आलोचना पत्रिका के संपादक और आलोचक आशुतोष कुमार जी( Ashutosh Kumar Ji) ने पिछले दिनों अपनी एक फेसबुक पोस्ट के जरिये चिंता जाहिर की "हिंदी के शुद्ध साहित्यिक हलकों में आखिर बड़ी बहस कब और किस मुद्दे पर हुई थी" आगे लिखा कि "आलोचना के ही पिछले दो सालों में आए छः अंकों में हर अंक में दो-एक लेख तो ऐसे थे ही,जिन पर गंभीर बहस होनी चाहिए,जिन पर बहस की सख़्त जरूरत थी" इसी क्रम में उन्होंने 'देव की कविताई पर मृत्युंजय' के लेख का जिक्र किया।
इस लेख से बहस करते हुए फ़ेसबुक पर ही मैंने एक लंबी टिप्पणी  "आलोचना पत्रिका का 61वां अंक -देव की कविताई और आलोचक मृत्युंजय का लेख" नाम से लिखा था।नीचे स्क्रीन शॉट केवल इसलिए कि संपादक महोदय की नजर में यह बात है और उन्होंने  इसे पत्रिका में जगह देने और बहस को आगे बढाने की बात भी की थी।उन्हीं के शब्दों में "किसी जीवंत साहित्यिक समाज को झकझोरने के लिए इतना काफी होना चाहिए।किसी को लगना चाहिए कि जब तक इस सवाल को किसी सिरे न पहुंचा लिया जाए तब तक चैन नहीं लिया जा सकता।"
क्या यह हिंदी समाज का दोहरा चरित्र नहीं है कि एक तरफ तो हम किसी मुद्दे पर गंभीर बहस चाहते हैं और दूसरी तरफ हम जानबूझकर नजरअंदाज करते हैं ताकि सचमुच कहीं कोई बहस न खड़ी हो जाए ।दाग़ देहलवी ने क्या ख़ूब लिखा है -
ख़ूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं 
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं

#आलोचनापत्रिका_का_61वां_अंक
#देव_की_कविताई_और_आलोचक_मृत्युंजय_का_लेख 

आलोचक मृत्यंजय का यह कहना सच है कि ,"रीतिकालीन कविता पर बहस करते हुए उसके विरोधी और समर्थक दोनों एक खास किस्म के अपराध बोध से भरे हुए दिखते हैं, विरोधी तो विरोधी समर्थक भी इस बात से मुतमइन हैं कि इस कविता का आधुनिक देश काल से कोई लेना-लादना नहीं है ।"
दरअसल इस लेख में आलोचक मृत्युंजय ने भी रीतिकालीन कविता को ना समझे जाने पर तो सवाल उठाया है लेकिन जवाब नहीं दे पाए हैं ।उन्होंने रीतिकालीन कविता की अब तक हो रहे दो तरह के पाठ का पहला,"समकालीन सामाजिक स्थितियों के बीच रखकर कविता का पाठ" और दूसरा," कविता को ख़ालिस सौंदर्य की वस्तु मानकर पढ़ना" की तरफ ध्यान दिलाते हुए बतलाया है कि ,"देव समेत सभी रीतिकालीन कवियों के आधुनिक पाठक का काव्य-बोध औपनिवेशिकता के सघन माध्यम से छनकर बना हुआ है ।इस नाते वह कविता की उस रवायत परंपरा वा रीति से नावाकिफ है जो पूर्व- उपनिवेश की दुनिया में कायम थी ।इसीलिए आधुनिक पाठक अपने खाकों में रीतिकालीन कविता को बैठाने की कोशिश करता है और परस्पर विरोधी निष्कर्ष निकालने से अचकचा जाता है ।"
दरअसल ये दोनों बातें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और आलोचक देव की कविता की व्याख्या करते समय इन्ही बातों में फंसा रह जाता है ।व्याख्या की हड़बड़ी में गड़बड़ी कर देता है ।देव के एक प्रसिद्ध छंद की व्याख्या में आलोचक द्वारा हुई गड़बड़ी का एक उदाहरण देखिए -

"धार में धाय धँसी निराधार ह्वै आय फँसी उकसी न उधेरी
री अँगराय गिरी गहिरी गहि फेरे फिरि न घिरी नहीं घेरी
देव कछू अपनों बस ना रस लालच लाल चितै भई चेरी
बेगि ही बूड़ि गई पंखियाँ अँखियाँ मधु की मंखियाँ भई मेरी "

इस कविता की व्याख्या करते हुए आलोचक ने लिखा है कि ,"इस कविता का केंद्रिय बिम्ब तभी खुल सकेगा जब पाठक मिठाई की मक्खी और शहद की मक्खी का अंतर समझे ।.........यह बिम्ब दीपक -पतंगे वाले बिम्ब की तरह ही है जहाँ पतिंगा मर जाता है ।शहद की मक्खी भी शहद में डूबकर मर जाती है।"

पहली बात तो यह की शहद की मक्खी शहद में डूबकर मरती नहीं है। वह उसे पैदा करती है ।यहाँ तक कि सामान्य मक्खी भी डूबने के बाद उड़ जाती है। देव की कविता को समझने के लिए आलोचक को लोकजीवन का न्यूनतम ज्ञान होना चाहिए। दूसरी बात यह कि यहाँ बिम्ब पतिंगे के मर जाने जैसा नहीं है  ।इस बात को समझने के लिए बिहारी का यह दोहा बेहतर होगा -

"तन्त्री- नाद कवित्त रस सरस राग रतिरंग
अनबूड़े बूड़े तिरे जे बूड़े सब अंग"

असल में रीतिकाल समेत हर युग में प्रेम जैसे गहरे मनोभावों के प्रसंग में जुनून और दीवानगी का गहराई तक जाने और डुबकी लगाने का एक खास अर्थ है, जो बिहारी के इस दोहे में भी है और देव के ऊपर उद्धृत छंद में भी।कबीर ने इसी अर्थ में कहा था --- "जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ"। यहाँ सारा मामला इसी का है ।

आलोचक द्वारा देव के एक और महत्वपूर्ण छंद की व्याख्या में हुई गड़बड़ी का एक उदाहरण देखिए -

"पावक मैं बसि आँच लगै न बिना छत खांड़े कि धार पै धावै
मीत सों भीत अभीत अमीत सों दुक्ख सुखी सुख मैं दुःख पावै
जोगी ह्वै आठ हूं जाम जगै  अठजामिनी कामिनी सौं मनु लावैं
आगिलो पाछिलो  सोचि सबै फल कृत्य करै तब भृत्य कहावैं"

आलोचक मृत्युंजय लिखते हैं ,"इस छंद में भृत्य होने की शर्तें बताई गई हैं। पहली नजर में यह छंद सलाह की तरह लगता है कि भृत्य को कैसा होना चाहिए। यह सूची शुरू होती है : 

"आग में रहे पर आँच न लगे,तलवार की धार पर दौड़े, मालिक के दोस्त से डरे, दुश्मन से न डरे, मालिक के दुःख में सुखी और सुख में दुःखी रहे। योगी की तरह रहे और कामिनी की तरह भी। साथ ही अगला- पिछला सब भूलकर निपट वर्तमान में रहे ।"

यहाँ आश्चर्यजनक रूप से भृत्य के बारे में जो कुछ कहा गया है उसे मृत्युंजय जी ने भृत्य से की गई अपेक्षा कहा है, जबकि देव की पंक्तियाँ कुछ और ही कहती हैं । पहली पंक्ति में खांड़े की धार पे दौड़ने का बिम्ब भृत्य के जीवन की चुनौती का संकेत करता है ।दूसरी पंक्ति में स्वामी के मित्र से डरने और दुश्मनों से निडर रहने के कथन में तलवार की धार पर दौड़ने का यही कौशल दीख पड़ता है। स्वामी का मित्र उसका शुभचिंतक होता है। उससे डरने की जरूरत उस सेवक को क्यों पड़ेगी जो स्वामिभक्त है। स्वामी के दुश्मन से न डरना दोनों ही स्थितियों में हो सकता है। स्वामी का हितचिंतक है तो निडर रहेगा और उससे जला भुना है तो उसके शत्रु में अपना संभावित मित्र देखेगा ।
इसी पंक्ति में बात को खोलकर कह दिया है कि जो स्वामी के दुःख में सुखी होता है और सुख में दुःखी। आश्चर्य है कि आलोचक ने इसका शाब्दिक अर्थ तो ठीक लिखा है लेकिन व्याख्या असंगत कर दिया है ।यही दुर्घटना अंतिम पंक्ति के साथ भी हुई है ।

"आगिलो पाछिलो सोचि सबै फल" का अर्थ आलोचक ने "अगला पिछला सब भूलकर निपट वर्तमान में रहे" करता है जबकि इस पंक्ति का सीधा सा अर्थ है ,अतीत और भविष्य के सभी संभावित नतीजों के बारे में सोचकर ही जो अपना काम करता है , वहीं सेवक है ।
स्पष्ट है कि कविता सेवक के जीवन की त्रासदी और उसकी विवशता के बारे में बात करती है,जो किसी हद तक आधुनिक व्यथा है जबकि आलोचक ने उसे भृत्य की स्वामिभक्ति के पुराने ढांचे में ही समझा है। इस प्रकार वह खुद उसी भटकाव का शिकार हो जाता है जिसकी चर्चा उसने लेख के शुरू में की थी ।

और आखिर में आलोचक ने रीतिकालीन कविता को  जिस "विक्टोरियाई नैतिक मूल्य" से न देखने की बात की है, इसकी चर्चा तो आलोचक वर्षों से कर रहे हैं ।बेहतर होता कि इस लेख में विक्टोरियाई नैतिक मूल्यों की भी पड़ताल की जाती ।कविता के भीतर से ही उसको पढ़ने के नए औजार विकसित करने की जो बात हो रही है वह इस लेख में भी दिखाई पड़ती। मुट्ठी भी तनी रहे और कांख भी ढँकी रहे वाली शैली से पाठक ऊब चुका  है ।

यह भी था और वह भी था पर था क्या : कृष्ण मोहन

यह भी था और वह भी था पर था क्या 
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आधुनिक युग में विकास के वैज्ञानिक नियम के बतौर द्वन्द्वात्मकता को पर्याप्त स्वीकृति प्राप्त हो गई है। हिन्दी में भी अब इस पर कोई विवाद नहीं रह गया है। लेकिन इस सर्वस्वीकार के आवरण में हमारे विद्वानों और विचारकों ने इसके मूलभूत चरित्र की ही अनदेखी कर दी है। नाम-रूप में स्वीकार और अन्तर्वस्तु में निषेध ही द्वंद्वात्मकता के साथ हमारे व्यवहार की विशिष्टता बन गई है। आश्चर्य की बात यह है कि बाक़ायदा घोषित द्वन्द्ववादियों ने भी इसमें कोई कोताही नहीं की है। यह मसला चूँकि अत्यन्त बुनियादी क़िस्म का है इसलिए इसे ठीक से समझना जरूरी है।

किसी भी विकासोन्मुख और जीवन्त वस्तु (व्यक्ति, विचार, स्थिति या परिघटना) का गठन उसमें सक्रिय परस्पर द्वन्द्वरत तत्वों से होता है। उनमें से कुछ तत्व परस्पर अंतर्विरोधी होते हैं जिनके आपसी रिश्तों के कारण वस्तु के अन्दर बहुस्तरीय अंतर्विरोध सक्रिय होते हैं। इन अंतर्विरोधों के बारे में जानने योग्य सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि एक समय में इनमें से कोई एक ही प्रमुख अंतर्विरोध होता है जो वस्तु के मूल चरित्र को निर्धारित करता है। मुख्य अंतर्विरोध के सशक्त पक्ष के अनुरूप इसका निर्धारण होता है, लेकिन जद्दोजहद के दौरान दूसरा पक्ष भी भारी पड़ सकता है। तब वस्तु अपने विपरीत में बदल जाती है। इसके अलावा समय के साथ मुख्य अंतर्विरोध अपनी प्रमुखता खो सकता है और कोई गौण अंतर्विरोध मुख्य हो सकता है। ऐसी स्थिति में भी वस्तु का मूल चरित्र बदल जाता है, भले ही यह बदलाव विपरीत दिशा में हो। यही नहीं, क्रमिक विकास भी किसी एक बिन्दु पर जाकर गुणात्मक छलांग में बदल जाता है जिससे वस्तु अपने विकास की अगली अवस्था में चली जाती है और उसके आंतरिक अंतर्विरोधों का क्रम बदल जाता है।

कहने का आशय यह है कि परिवर्तनशीलता ही द्वन्द्ववाद का सारतत्व है और यह तभी संभव है जब किसी समय विशेष में वस्तु का कोई मूलभूत चरित्र हो। अगर कोई मूल चरित्र होगा ही नहीं तो बदलेगा क्या? इसी बिन्दु पर संशयवाद का टकराव द्वन्द्ववाद से होता है। यह वस्तु के किसी मूलभूत स्वरूप को मानने से  इनकार कर देता है और इसके तमाम संघटक तत्वों की छानबीन में ही लगा रहता है। इसका प्रतिनिधित्व हमारे समय में उत्तर-आधुनिकता करती है। यही वजह है कि अन्य तत्वों के दमन की आशंका की आड़ में उत्तर-आधुनिकता वस्तु के किसी संघटक तत्व की प्रधानता की संभावना से इनकार कर देती है। परिणामस्वरूप दमन की पुरानी व्यवस्था बनी रहती है और उसमें परिवर्तन की हर संभावना का निषेध हो जाता है। दूसरे शब्दों में, जब वे अपने उत्तर-आधुनिक युग में किसी महाख्यान (मेटानैरेटिव) की संभावना से इनकार करते हैं तो इसका अर्थ होता है कि साम्राज्यवाद इस युग का अकेला महाख्यान बना रहेगा और उसके विरोधियों में से किसी को उसके मुकाबले के लिए शक्तिशाली बनकर प्रमुखता पाने का प्रयास नहीं करना चाहिए अन्यथा साम्राज्यवाद के अन्य विरोधियों का 'दमन' हो जाएगा। इसीलिए यह विचारधारा अमरीका समेत तमाम विकसित पूंजीवादी देशों की अकादमिक दुनिया में महत्व पाती रही है। ख़ास बात यह है कि हिंदी की आधिकारिक मार्क्सवादी आलोचना भी इससे बुरी तरह से ग्रस्त रही है, क्योंकि इसका अवसरवाद इसे कोई एक मज़बूत स्टैंड लेने से रोकता रहा है। मजबूरी में इसे नरो - कुंजरो शैली से ही काम चलाना पड़ता है।

हिन्दी-उर्दू क्षेत्र में 19वीं सदी में हुए नवजागरण (जिसे कुछ लोग 'हिन्दी नवजागरण' कहते हैं), के आकलन के संबंध में उपरोक्त संशयवाद का चमत्कार दिखाई पड़ता है। ब्रिटिश राजभक्ति और देशभक्ति के बीच इस नवजागरण की त्रिशंकु स्थिति के कारण हमारे इतिहासकार किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में नाकाम रहे और इन दोनों आग्रहों की मौजूदगी और उनके बीच संघर्ष की स्वीकृति को ही द्वन्द्ववाद का पर्याय समझते रहे। नवजागरणयुगीन चेतना के चुक जाने और सांप्रदायिक फासीवाद के आगे हथियार डाल देने के कारण इसका आकर्षण घटने और नई परिस्थिति में नए और मूलगामी चिंतन से प्रेरित पहलकदमियों ने नवजागरणवादियों को काफी कुछ रक्षात्मक स्थिति में डाल दिया है और बार-बार उन्हें अपने औचित्य और प्रासंगिकता की घोषणा करनी पड़ रही है। ऐसी ही घोषणा मार्क्सवादी आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने 'समकालीन जनमत' के मार्च 2004 के अंक में प्रकाशित इण्टरव्यू में की है। प्रेमशंकर के सवालों के जवाब में उन्होंने नवजागरण के समर्थन में बोलते हुए भी उसकी अनेक कमज़ोरियों को उजागर कर दिया है। इसी के साथ छपे नामवर सिंह के इण्टरव्यू में हालांकि नवजागरण को लेकर कुछ विचारणीय स्थापनाएँ दी गई हैं, लेकिन प्रस्तुत लेख के आरम्भ में द्वन्द्वात्मकता के प्रति हमारे जिस रुख़ का ज़िक्र किया गया है उसका पर्याप्त प्रमाण उनकी बातों से भी मिलता है।

साम्प्रदायिक फ़ासीवाद के बरक्स नवजागरण और उसके पुरोधाओं के चरित्र पर पुनर्विचार के प्रश्न पर अपना पक्ष रखते हुए मैनेजर पाण्डेय नवजागरण के प्रतीक पुरुष भारतेन्दु का 'हिन्दू मानसिकता' के सवाल पर बचाव करते हैं। वे यह बताते हैं कि भारतेन्दु ने 'कुरान शरीफ़' का अनुवाद किया, 'पवित्रात्मा' नामक किताब लिखी जिसमें इस्लाम के पाँच बड़े लोगों की जीवनी और तारीफ थी। यही नहीं वे 'रसा' नाम से उर्दू में शायरी करते थे। इस तर्क-प्रक्रिया का विकास करते हुए वे भारतन्दु के नाटक 'भारत दुर्दशा' के एक दृश्य के शीर्षक 'किताबखाना' का ज़िक्र भी कर डालते हैं। आशय वही है, उर्दू के प्रति लगाव का। सांप्रदायिकता के संदर्भ में कोई विचारक अगर उर्दू शब्दों के प्रयोग को इतना महत्व दे रहा है, तो यह समझा जा सकता है कि उसे अपने पक्ष पर कितना भरोसा है। मैनेजर पाण्डेय कहते हैं “नवजागरण के संबंध में रामविलास जी की निंदा करने वाले घुमा-फिराकर वहीं काम करते हैं, जो उन्होंने किया। रामविलास जी ने नवजागरण के किसी अंतर्विरोध पर ध्यान देने की ज़रूरत नहीं महसूस की। उनको यह महसूस नहीं होता कि भारतेन्दु के यहाँ दोनों तरह की चीजें पड़ी हैं।... रामविलास जी हिन्दी नवजागरण के सिर्फ पाजिटिव देखा करते थे और विरोधी केवल निगेटिव देखते हैं।"

'दोनों तरह की चीज़ें', यानी सांप्रदायिक भी और धर्मनिरपेक्ष भी। आगे चलकर वे नवजागरण में सांप्रदायिकता की बीज रूप में मौजूदगी को स्वीकार करते हैं और इसके खिलाफ संघर्ष को महत्व देते दीख पड़ते हैं। वे इस बात की क़तई चिन्ता नहीं करते कि नवजागरण अपने मूल चरित्र में क्या था? हाँ, वह क्या नहीं था, इसके लिए तमाम कच्चे-पक्के सबूत ज़रूर जुटाते हैं। जाहिर है कि अंतर्विरोधों की मौजूदगी की साहसिक घोषणा के बावजूद वे द्वन्द्ववाद के नियम की अवहेलना करते हैं। इतिहास को केवल पाजिटिव अथवा केवल निगेटिव रूप में देखना उतना ही गलत है जितना उसे पाजिटिव और निगेटिव के पुलिन्दे के रूप में देखना!

ज्ञानमीमांसा के साथ यहाँ इतिहासबोध का प्रश्न भी खड़ा होता है। क्या ऐतिहासिक परिघटनाओं को समझने में सकारात्मक-नकारात्मक, शुभ-अशुभ और उचित-अनुचित जैसी नैतिक श्रेणियाँ हमारी कुछ मदद कर सकती हैं? इससे भी बढ़कर यह कि इतिहास को समझने के लिए हमारा रवैया वस्तुगत होना चाहिए या आत्मगत। वाल्टर बेंजामिन को उद्धृत करते हुए वे कहते हैं कि 'अतीत का ऐतिहासिक रूप वह नहीं है जैसा वह था बल्कि वह है जैसा वह ख़तरे के वक्त याद आता है।'

कहना न होगा कि यह विशुद्ध रूप से आत्मनिष्ठ और प्रत्ययवादी दृष्टिकोण है। बेंजामिन ने किस संदर्भ में यह बात कही थी इसे देखना होगा, लेकिन मौजूदा प्रसंग में यह बिलकुल अस्वीकार्य है। यह इतिहास को 'पाठ' और 'आख्यान' बना देने के उत्तर-आधुनिक नज़रिए के समतुल्य है। फिर, ख़तरे के वक़्त व्यक्ति की स्मृति तो ख़तरे के प्रति उसके रिस्पांस से निर्धारित होगी। फासिज़्म की चुनौती के सामने नवजागरण की स्मृति हममें एक भारी भूल और भटकाव के रूप में कौंधती है तो हम क्या करें? भूकंप के पहले ही झटके में जो घर गिरने-गिरने को हो आया, उसकी मज़बूती की बात करना जले पर नमक छिड़कना है। 

इसके साथ ही मैनेजर पाण्डेय ने 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' को नष्ट करने और तसलीमा नसरीन की किताब पर प्रतिबंध लगाने का हमारे समय में कट्टरतावाद की दो प्रमुख अभिव्यक्तियों के रूप में उल्लेख किया है। एक हिन्दू कट्टरवाद और एक मुस्लिम कट्टरवाद। हिसाब बराबर! सतह की चीजें ऐसी ही दिखती हैं। महाराष्ट्र में इंस्टीट्यूट को नष्ट करने का दण्ड उन अपराधियों को नहीं मिला। वह मिला उस लेखक को जिसकी किताब के ख़िलाफ़ यह कारनामा किया गया था। महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार ने उस किताब पर प्रतिबंध लगा दिया। आम विश्वास के विपरीत, वे अपराधी शिवसैनिक नहीं थे, बल्कि नवजागरण की मुख्यधारा की प्रतिनिधि कांग्रेस सरकार के ही उकसावे पर काम करने वाले उपद्रवी थे जो उग्र हिंदुत्ववादी तेवर से शिवसेना -भाजपा को हक्का-बक्का कर देना चाहते थे। रहा सवाल तसलीमा नसरीन का तो उनकी किताब पर प्रतिबंध भी नवजागरण की धारा के प्रतिनिधि वामपंथियों की सरकार ने लगाया है और उसकी शह पाकर ही कट्टरपंथियों का हौसला बढ़ा है। अगर ये बातें महज़ तात्कालिक लग रही हों तो हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न पर नवजागरण, स्वाधीनता आंदोलन और आज़ाद भारत की सरकारों की भूमिका की एक बार फिर छानबीन कीजिए। नवजागरण का मूल चरित्र सामने आ जाएगा।

इण्टरव्यू के अंत तक आते-आते मैनेजर पाण्डेय नवजागरण के मूल्यांकन के प्रतिमान के रूप में हमारी स्मृति के साथ-साथ 19वीं सदी के लेखकों की चेतना के अवगाहन का प्रस्ताव करते हैं- "इन सबकी मुख्य चिंता साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष और मुक्ति की कामना ही थी।" हमें इस पर यही कहना है कि अगर ऐसी कोई कामना या चिंता थी भी तो यह देखना होगा कि वस्तुगत स्तर उसका नतीजा क्या निकला। जिस आज़ादी को हम इस नवजागरण की सबसे बड़ी भेंट मानते हैं क्या वह सांप्रदायिक बँटवारे की शर्त पर नहीं आई। और क्या यह सच नहीं है कि आज़ाद भारत के नागरिक समाज में लोकतान्त्रिक अवकाश लगातार छीजता गया और विभाजन की दीवार और ऊँची होती गई। आत्मगत स्तर पर हमारी और उनकी कामना और चेतना चाहे जो हो, इस वस्तुगत सचाई का मतलब क्या है? लाख टके का सवाल यह है कि नवजागरण के चरित्र के निर्धारण में आत्मनिष्ठ कारकों की भूमिका प्राथमिक होगी या वस्तुनिष्ठ कारकों की।

इसी तरह नामवर सिंह ने 13वीं-14वीं शताब्दी को ही नवजागरण युग मानने पर ज़ोर दिया है तथा नवजागरण की 'डायलेक्टिक्स' को समझने का भी आग्रह किया है। मूलतः यह अवधारणा रामविलास शर्मा की है। उन्होंने ही इस दौर को 'लोकजागरण' का काल कहा था। इस अवधारणा में ख़ास तौर पर मध्यकाल की बेहतर समझ हासिल करने की गुंजाइश है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सांस्कृतिक और सामाजिक स्तर पर तत्कालीन समाज में आधुनिकता की दिशा में प्रयाण के अनेक ठोस संकेत मिलते हैं। मगर नामवर सिंह अपनी इस स्थापना को तार्किक परिणति तक ले जाने में हिचक जाते हैं और 1857 की जंग के मूल चरित्र को लेकर असमंजस में फँस जाते है, क्योंकि उसमें सामंतों की भागीदारी थी। यहाँ एक बार फिर आत्मगत चेतना और इच्छा का वस्तुगत सचाई से टकराव होता है। उस विद्रोह में निजी तौर पर कोई किसी लक्ष्य को लेकर लड़ रहा हो, समग्रता में वह उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ जंग थी, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। यही नहीं उसमें एक भारतीय ढंग की संवैधानिक राजतंत्रात्मक व्यवस्था का स्वरूप उभर रहा था। उसकी अधिकांश घोषणाओं और माँगों की लोकतांत्रिक दिशा भी निर्विवाद है। ऐसी स्थिति में इन आशंकाओं का क्या मतलब है? क्या किसी गुलाम का आज़ादी के लिए लड़ना अपने आप में प्रगतिशील क़दम नहीं है? क्या कोई उपनिवेशवादी ताक़त अपने उपनिवेशों को आधुनिक और प्रगतिशील युग में ले जाती है, अथवा ले जा सकती है? आजकल कुछ ऐसा ही तर्क इराक़ में अमरीका के ढँके-छिपे समर्थक भी दे रहे हैं। 'इण्डिया टुडे' जैसी पत्रिकाएँ खुलेआम इराक़ी लड़ाकों को 'प्रतिक्रियावादी' घोषित कर रही हैं। कल्पना कीजिए कि अगर ये विद्रोही सफल नहीं रहे, तो इराक़ की आने वाली पीढ़ियाँ भी क्या यही मानने को तैयार नहीं हो जाएँगी।

विडंबना तो यह है कि इसी इंटरव्यू में चीन के जिस 'अफीम युद्ध' को डॉ. नामवर सिंह ने आदर्श माना है वह पूरी तरह सामंतों के सहारे लड़ा गया ऐसा युद्ध था जिसका अंत समझौते में हुआ था। इसके बावजूद चीन के इतिहास में उसका गौरवपूर्ण स्थान है। रूस में 1825 का कुलीन सैन्याधिकारियों का 'दिसंबरवादी' विद्रोह भी इसी श्रेणी में आता है। फिर भी अगर हम 1857 की अपनी परंपरा को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं तो इसके लिए निश्चय ही पिछले 150 साल की औपनिवेशिक परंपरा ज़िम्मेदार है।
कृष्ण मोहन

(एक विद्यार्थी के संस्मरण में उल्लिखित मैनेजर पाण्डेय और नामवर सिंह से संबंधित मेरी एक टिप्पणी को लेकर अनेक विद्वानों और विदूषियों में यह भ्रम पैदा हो गया कि शायद मैंने ऐसी कोई टिप्पणी पहली बार क्लास में शिक्षक के रूप में अपने विशेषाधिकार का फ़ायदा उठाकर कर दी है। इसका निराकरण करने के लिए मैं अत्यंत विनम्रतापूर्वक यह बताना चाहता हूँ कि मैंने इन महानुभावों के बारे लिखते हुए सैकड़ों पेज काले किये हैं। इनमें से एक निहायत छोटी सी टिप्पणी वर्ष २००४ की यहाँ दे रहा हूँ, जो इलाहाबाद से उस समय निकलने वाली 'बतकही' नाम की पत्रिका में छपी थी। बाद में यह मेरी किताब 'आईनाख़ाना' में भी संकलित हुई- कृष्ण मोहन
साभार फेसबुक

मौलिक होने की शर्त - अभिषेक कुमार वर्मा

मौलिक होने की शर्त
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किसी पर भी बातचीत करने के दौरान उससे जुड़े पहलुओं को खोजकर प्रकट करना एक बात है और उन्हीं पहलुओं को स्वयं से ख़ोज लेना दूसरी बात। पहली कोटि मात्र संपादन या किसी विकिपीडिया की नकल मात्र है और दूसरी स्वतंत्र चिंतना की। अनेकानेक संदर्भो को जुटाकर अपनी बात कहने के रूप में जो ढोंग का सिलसिला चल पड़ा है, ध्यान से देखने पर उसमें मौलिकता कुछ भी नहीं मिलेगी। क्योंकि उसके मूल में ही मौलिकता का अभाव होता है और उपस्थिति होती भी है तो मात्र एक खाली जगह को जैसे-तैसे भर देने की। 

कई कूड़ा-कबाड़ लेख इसी तरह के हैं जो विषयाबद्ध धरती का बोझ बने पड़े हैं। इनका सफ़ाया होना चाहिए। इनमें स्थूलता, वह भी औपचारिकता मात्र, कूट-कूट कर भरी है। सूक्ष्म विश्लेषण और उसकी परिणति के रूप में नवीन ख़ोज का नितान्त अभाव है। कोई यदि इसी पर शोध कर डाले तो बड़ी क्रांतिकारी सफलता उसके हाँथ लगेगी। लगे भी क्यों न ? हमारे शोधक अब कबाड़ बीनने वाली बोरिया मात्र जो बन गए हैं।

ख़ैर अब हमारी स्वतंत्र चिंतना का विकास अवरुद्ध हो गया-सा नज़र आता है। मानो ऋषि चिन्तन की उस मौलिक परंपरा ने सरकारी छुट्टी पा ली हो, जिसके पास ठोस आधार के रूप में यदि कुछ न भी होता तो भी चिन्तन के कई आयाम प्रतिपादित कर लेने का सामर्थ्य जिसमें था। कुछ लोग सोचते होंगे कि मैं हवा में चिंतन और उसके बाद ख़ोज प्रकट कर देने की बात कह रहा हूँ। ऐसा कतई नहीं। चिंतन कभी हवा में नहीं हो सकता। यहाँ तक कि हवा में प्रतीत होने-सी वाली बात में भी ठोस आधार हो सकते हैं। कोई न कोई आधार तो चाहिए, किन्तु वह आधार दूसरे का खोजा गया ही क्यों हो? दूसरे की जूठन को ही हम अपनी थाली में क्यों लें ? हम क्यों उसी के पिछलग्गुआ बनें ? यदि हमको आधार चुनना भी है तो मूल को ही क्यों न चुनें ?  इने-गिने प्रतिपादित आयामों को ही क्यों चुने ? भले ही हाँथ कुछ न लगे। बात थोड़ी समझदारी की नहीं है पर है तो किसी बड़ी समझ हासिल करने की। कौन-सी ? 

बहुत ज़्यादा यही तो होगा कि समय लगेगा और चुनौतियाँ बेमतलब के सिर पर आ धमकेंगी। पर,वह तो सहना ही होगा। यदि चिन्तन की स्वतंत्र परंपरा डालना है तो होम में हाँथ जलाने ही होंगे। कोई करे न करे, तुम्हें तो करना ही है। यह तुम्हारे होने की शर्त भी हो सकती है। नहीं ? एक बार अपने अस्तित्व को सामने लाकर खड़ा करो। शायद कुछ हाँथ लग जाए।

बात यही है कि सम्पादन जैसा डिब्बा बनके चलना कहाँ तक उचित है ? (ध्यान रहे कि मैं उस सम्पादन की बात कतई नहीं कर रहा जो लेखक लोग करते हैं अपितु उस प्रवृत्ति की ओर इशारा कर रहा हूँ जिसकी आड़ लेकर कूड़ा-करकट भरा जा रहा है ) तो डिब्बा बनके चलने के क्या लाभ ? एक ख़ासा शब्दकोष हो जाना क्या तुम्हारी चिंतना का परिचय होना चाहिए ? किसी संग्रहपात्र की तरह मात्र चीज़ें सुरक्षित रखने की पहचान होनी चाहिए ? विचार करो। 

एक विशाल विकीपीडिया का बहुत भरा हुआ डिब्बा होने से कहीं अधिक अच्छा है एक छोटी-सी तनिक-सी भरी मौलिक विषयवस्तु का होना। हममें से कितने लोग ऐसे हैं, ज़रा सोचें। सबके सब तो गूगल की तरह संग्रहक बने पड़े हैं। गूगल तो फ़िर भी अपने संपादन के मामले में मौलिक-सा जान पड़ता है। पड़ेगा ही क्योंकि जब स्वतंत्र चिन्तना पलायन करेगी तो कृत्रिम पात्र उसका स्थान लेंगे ही।

क्यों ऐसा न हो कि चिन्तन के व्यापक आयामों को खोजने के लिए इधर-उधर की बातचीत हासिल करने के जो प्रयास किये जाते हैं उनके स्थान पर वही बातचीत हम स्वयं खोज निकालें ? बगैर किसी दूसरे के खोजे गए आधार के आधार पर। चार लेखों की महती सामग्री सामने पड़ी है। हम क्यों उठाएं ? चिन्तना को ही वहाँ तक पहुँचाये कि चार लेखों की सामग्री उसके एक कोने में पड़ी मिल जाए। इसके लिए संपादकत्व का डिब्बा बनने के स्थान पर स्वतंत्र चिंतक बनने की परंपरा डालनी होगी। कितनों का यह भाएगा, कहना मुश्किल है। शायद बहुत कम। क्योंकि बेमतलब की पेचीदगी क्यों हाँथ लगाई जाए ? पर, कुछ तो होने ही चाहिए। उनकी ख़ोज भी क्या करूँ। वो अपने रास्ते पर होंगे और मैं अपने रास्ते। पर, कुछ तो ऐसे होंगे ही जो आर्यभट्ट को पढ़ने के बाद अपनी बातचीत न निकालेंगे अपितु गहन स्वतंत्र चिन्तन के बाद निकाले गए निष्कर्षों से आर्यभट्ट के निष्कर्ष से मिलान करेंगे और तुलना से स्वयं की मौलिक खोज का आनंद लूटेंगे।

                       -अभिषेक कुमार वर्मा 
" परास्नातक हिन्दी साहित्य अध्येता,काशी हिन्दू विश्वविद्यालय"

'अँधेरे में' कविता पर एक विचार- अभिषेक कुमार वर्मा

  "

1.

यह लेख अँधेरे में कविता पर है। ऐसी कविता जिसके विषय में कठिनाई का बोलबाला आद्यन्त बना रहा, उस पर एक संक्षिप्त टिप्पणी है। कविता के सम्बंध में अब तक बातचीत का क्या इतिहास रहा है, मैं उस पर जाना नहीं चाहता। एक सीमा तक असमर्थ भी हूँ। शायद इसलिए भी। 

अध्ययन के दौरान जो सीखा-समझा, संवाद की प्रक्रिया में जो निकलकर आया और चिंतन के दौरान जो हासिल हुआ, यह इन तीनों का सम्मिलित रूप है। कविता के आठ प्रकरण हैं, लेख भी इसी क्रमानुसार रहेंगे। सुभीते के क्रम में यह मुझे समयानुकूल लगा। अस्तु इन्हें पेश करता हूँ।

कविता में नाटकीयता आद्यन्त बनी रही है। शुरुआत भी ऐसे ही होती है। एक काव्यनायक है जिसे अपनी एकांतिक अवस्था में किसी दूसरे के होने का बोध होता है। वह उसे रहस्यमय लगता है। उसकी आवाज़ रह-रहकर उसे सुनाई देती है। किसी जादुई गुफा में वह क़ैद है। ढूँढने पर भी उसे नहीं मिलता। न ही दिखाई देता। क्योंकि गुफ़ा बाहर है ही नहीं। उसे तो कवि ने रूपक के तौर पर इस्तेमाल किया है। यह मन के एक हिस्से का प्रतीक है। आमतौर पर जैसे हम लोगों के भीतर से कई आवाज़ें आती रहती हैं जिनसे हम कभी-कभी बात भी करने लगते हैं। वैसे ही काव्यनायक के साथ भी है। बस वह अतिशय चिंता में रहा है और बेहद आत्ममंथन करता रहा है। इसलिए मन के भीतर ही किसी के होने का बोध उसे होता है।

चूँकि आवाज़ भीतर से ही आ रही है इसलिए उससे बच जाने का कोई उपाय नहीं है। वह अनिवार है। ऐसे में काव्यनायक किसी आशंका से घिर जाता है। तभी बाहर सचमुच की दीवार पर सीमेंट की पपड़ी ख़िरने लगती है और इस तरह से खिरती है कि ध्यान से देखने पर वह किसी का चेहरा लगे। काव्यनायक को चूँकि पहले से ही किसी के होने का बोध है। अस्तु उसके लिए तो सहज है कि दीवार में उसे किसी का चेहरा दिखेगा ही। यह भीतर की परिस्थितियों का बाहर के परिवेश में दिखना है। एक अर्थ में आभ्यंतर का बाहय रूप। 

इसे ऐसे समझते हैं। कई बार हम आकाश की ओर नज़र गड़ाए कुछ सोच रहे होते हैं और भीतर बहुत कुछ हमारे चल रहा होता है। हम प्रायः पाते हैं कि जैसा भीतर चल रहा होता है उसी का कोई न कोई स्वरूप हमें बादलों में बनता नज़र आएगा। इसका मतलब यह नहीं कि सचमुच ही बादल में कोई चेहरा है। काव्यनायक के साथ भी ऐसा ही है। भीतर किसी के होने का बोध हुआ है। इसलिए बाहर के परिवेश में भी उसकी उपस्थिति दिखाई देती है।

जो चेहरा दीवार पर बना, वह बेहद मजबूत है। काव्यनायक उसे पहचानने का प्रयत्न करता है। उससे जाना नहीं जाता। उसके परिचय में जितने लोग हैं उनसे रहस्यमय चेहरा नहीं मिलता। इसलिए वह सवाल करता है कि वह कौन मनुष्य है जो उससे जाना नहीं जा रहा ? इसमें इतनी ही बात है बस। कामायनी के मनु के चक्कर लगाने से कोई लाभ नहीं। 

एक नाटकीय दृश्य और। फ़िर एक थीम बनता है। बाहर पहाड़ी के पार तालाब में कोई कुहरीला चेहरा फैलता है। काव्यनायक के अनुसार वह अपनी पहचान बताने का यत्न करता है। पर काव्यनायक तो इस बात से हतप्रभ है कि वह उसे जान क्यों नहीं पा रहा ? एकाएक फ़िर दूसरा दृश्य। आसपास के पेड़ों में डालियों की चींख पुकार मच गई है। यहाँ कवि ने थोड़ा सा असहज कर देने वाला परिवेश बाँधा है। ताकि पाठक का ध्यान खिंच जाए। क्योंकि आगे उसे कुछ ऐसा बताना है जिसके बताए बिना विषयवस्तु पर ध्यान नहीं खिंच पाएगा। 

कई बार फिल्मों में कुछ महत्व का बताने के पहले दर्शक वर्ग को खींच कर एक जगह पर लाने के लिए ऐसा करते हुए पाया जाता है। यहाँ पर भी वही है। काव्यनायक देखता है कि उस चींख पुकार में एक शिला का द्वार धड़ से खुलता है और उसमें से लाल रौशनी से नहाया-सा कोई व्यक्ति नज़र आता है। उसके अनुसार रहस्य खुल जाता है और कह बैठता कि-

"वह रहस्यमय व्यक्ति अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है"

असल में काव्यनायक को जैसा चेहरा दिखा और जैसा उसका स्वरूप प्रकट हुआ, उससे काव्यनायक एकदम निश्चिंत हो गया। क्योंकि कहीं न कहीं उसका एकांतिक अवस्था मे जा घुसा मन इसी तरह की बहिर्मुखता चाहता है। इसका एक प्रमाण यह भी है कि उस रहस्यमय व्यक्ति में काव्यनायक अपनी पूर्ण अवस्थाओं, निज संभावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिभाओं, परिपूर्ण के आविर्भाव और हृदय में काफ़ी लम्बे अरसे से इकट्ठे हो रहे तनाव  की अभिव्यक्ति देखता है। शब्दों की ही नहीं वरन् सम्पूर्ण कार्यव्यापार की। वह उसमें अपनी आत्मा का साक्षात प्रतिबिम्ब दिखता है। 

लेक़िन उसे देखकर बड़ा आश्चर्य होता है। तमाम सवाल उठते हैं। क्योंकि इतना मजबूत व्यक्ति इस फटेहाल में ? उसके मजबूत वक्ष पर घाव क्यों ? वह आख़िर इस अवस्था को पहुँचा कैसे ? और ऐसी स्थिति में उसका पोषण कौन करता रहा ? 

काव्यनायक के सवाल असल में उस प्रवृत्ति से जाकर टकराते हैं जो अपने को संघर्ष से अलग थलग कर एकांत में ले जाती है। जो सुविधाओं से जोड़े रहती, अलग नहीं करा पाती और अन्ततः गिरी हालत को प्राप्त होती है। जिस संघर्ष से पीछा छुड़ाकर वह एकांत में ला बैठी है उसका भी हस्र वही होना है जो औरों का बुरे (दमनकारी) किन्तु समर्थ लोगों से लड़ने पर हुआ। मान लें कि यदि बच भी गए तो भी आत्ममंथन से उनकी यही गति होनी है। 

परन्तु काव्यनायक देखता है कि उस रहस्यमय व्यक्ति के चेहरे पर कोई दुःख की रेखा नहीं अपितु मुस्कान है। वह प्रचण्ड शक्तिमान है। क्योंकि उसे बोध हो गया है कि उसे क्या करना है। उसे भय नहीं है। उसे अपने मिट्टी के कणों में विश्वास हो चला है। वह जान चुका है कि एकांत में रह लेने से कुछ न हासिल होगा। उसे अपनी उस विचार परम्परा का बोध हो गया है जो कब्र में दफन तो है किंतु मरी नहीं है। 
औपनिवेशिक दौर में दमनकारी सत्ता ने पूरी कोशिशें की जनाकांक्षाओं के उस विद्रोह की प्रवृत्ति को दबाने की और बहुत हद तक दबा भी दिया किन्तु फिर भी वह मिट नहीं गयी। हाँ, दब जरूर गयी। आवरण जरूर पड़ गया। एक सच्चाई के तौर पर वह हमें देकर भी चले गए। काव्यनायक को विश्वास है कि वह पुनः जीवित होकर उठेगी। उस अभिव्यक्ति को खोजना है बस।

ऐसे कई सवाल थे जो काव्यनायक पूछना चाहता था। लेक़िन बाहर की हवा ने आकर उस ज्योति को बुझा दिया। काव्यनायक कुछ उसमें रम पाया था। अपनी अभिव्यक्ति को कुछ समझ रहा था कि सब ग़ायब। मानो उसे किसी ने पुनः उस पुरानी अवस्था में डाल दिया। 
यह भी कवि की नाटकीयता ही है। सब कुछ तो एकसाथ प्रकट नहीं हो सकता। समय तो चाहिए ही।

यह एक छोटी सी पृष्टभूमि भी मानी जा सकती है। इतनी बातें मोटे तौर पर याद रखनी हैं। आगे के प्रकरणों में इनका इस्तेमाल होना है। इसमें दो व्यक्ति साफ़ तौर पर दिखाई दे गए हैं। एक काव्यनायक और दूसरा रहस्यमय व्यक्ति। काव्यनायक एकांतिक अवस्था में है और आशंका से घिरा है। रहस्यमय व्यक्ति ठीक इसके उलट बहिर्मुखी है और स्वतंत्र होकर मुस्कानमय है। काव्यनायक को उस रहस्यमय व्यक्ति में स्वयं के होने का अनुभव हुआ है क्योंकि अन्ततः उसकी भी खोज यही होनी है। 

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दूसरा प्रकरण शुरू होता है। एक नाटकीय व्यापार पुनः कवि ने रचा है। काव्यनायक अपने एकांत कारावास में पड़ा है। अँधेरे खड्डे में उसे किसी ने डाल दिया है। या यूँ कहे कि उसने जानबूझ कर स्वयं ही अपने को उसके सुपुर्द कर दिया है अपनी कमजोरियों के चलते। 

परिवेश अँधेरे से घिरा है। कुछ-कुछ आवाज़ें आती रहती हैं। हृदय कभी उससे डर कर धक-धक करने लगता है। आशंका एकदम घिरी हुई है। इतने में वह देखता है कि बाहर कोई खड़ा है जो उसकी सांकल खटखटा रहा है। पर वह जाने से इनकार करता है। स्वयं से ही पूछता भला इतनी रात गए कौन होगा ? इतने घने अँधेरे में कौन आया मुझसे मिलने ? फ़िर स्वयं ही कह उठता कि मैं जानता हूँ यह वही व्यक्ति है जो मुझे जादुई गुफ़ा में मिला था। प्रचंड शक्तिमान। इस चमकदार चेहरे को मैं पहचानता हूँ।

असल में काव्यनायक के मन के भीतर एक लम्बे अरसे से उधेड़बुन चल रही है। वह अपने ही भीतर के व्यक्तित्व का बार-बार निषेध कर रहा है। मन ही बहुत कुछ बड़बड़ा रहा है। शायद कोई सच बाहर लाने के लिए ? बाहर कहीं कोई दरवाजा नहीं है और न ही सांकल। वह अँधेरा कमरा भी भीतर है और उसके बाहर खड़ा व्यक्ति भी। सांकल भीतर से ही बज रही है। आत्मा से ही आवाज आ रही है जो सोए हुए निसंग काव्यनायक को रह-रह पुकार रही है। उसकी कमज़ोरी को उसके सामने प्रकट कर रही है। 

लेक़िन काव्यनायक है कि उससे भागता है। वह अपनी मध्यवर्गीय कमज़ोरी को साफ़ प्रकट करता है। नहीं चाहता कि किसी बड़े आन्दोलन में वह शामिल हो। वह अपनी सुविधाओं को नहीं छोड़ सकता। अपने ही वर्ग से धोखा करके असंग रहना उसे अधिक प्रिय है। इसलिए कहता कि यह वही व्यक्ति है जो मेरी सुविधाओं का तनिक भी ख़याल नहीं रखता और धमक पड़ता। किसी भी समय अवसर-अनवसर प्रकट हो ही जाता। चाहे-अनचाहे मुझे अपना संदेश सुना ही देता। अरे! मैं उसे नहीं सुनना चाहता। वह तमाम उलूल-जुलूल बातें कहकर मेरे हृदय को बिजली के झटके-से देता। 

पर, मध्यवर्गीय व्यक्ति की सर्वहारा के प्रति सहानुभूति तो छिपी नहीं रही। इसलिए काव्यनायक उसे छोड़ भी नहीं सकता। वह रहस्यमय व्यक्ति उसे बेहद प्रिय भी लग रहा है क्योंकि आख़िर उसमें वही गुण है जो जनता के भावी नेतृत्व में होने चाहिए। उस रहस्यमय व्यक्ति की कर्ममय सहानुभूति सर्वहारा के पक्ष में है और उसकी अभिव्यक्ति भी मुखर। वह निसंग नहीं है। चेतनायुक्त होते हुए सक्रिय है। अपने संज्ञायुक्त होने को प्रमाणित कर रहा है। इसलिये काव्यनायक उसे छोड़ नही सकता। चाहता कि कस कर उसे गले लगा लूँ। बाहों में कस लूँ। घुलमिल कर एक हो जाऊं। 
यहाँ भय और प्रीति का सम्मोहमिलन मध्यवर्गीय मन के भीतरी अंतर्द्वंद्व को प्रकट करता है। सर्वहारा के प्रति सहानुभूति, किन्तु पूँजी वर्ग जैसे सपनों के प्रति चाहतें। सच्चाई के प्रति आत्मा का गहरा रिश्ता किन्तु बुराई से लड़ने में स्वार्थमय इनकार।

इस तरह वह उससे एक हो जाना चाहता है। मग़र कैसे हो ? काव्यनायक तो असंग पड़ा है। संघर्षों से अलग-थलग तथाकथित अपनी सुविधा भोग रहा है। वह कहता भी कि शक्ति ही नहीं है कि उठ सकूँ ज़रा भी। फ़िर तुरंत ही कहता कि यह भी तो सही कि मुझको कमजोरियों से ही लगाव है। 

यहाँ नायक ने खुलकर अपनी पट्टी खोल दी। वह इसलिए टालता भी रहता है। अंतर्मन की सच्चाई को नकारता भी रहता है। कहीं तो वह उससे भयभीत भी हो उठता। क्योंकि वह रहस्यमय व्यक्ति एकांत भोग रहे काव्यनायक को संघर्षों के खुले मैदान में ला छोड़ता है। कहता कि स्वयं पार करो, पर्वत-संधि के गह्वर/ रस्सी के पुल पर चलकर/ दूर उस शिखर कगार पर स्वयं ही पहुँचो। 

भला काव्यनायक से यह कैसे हो सकेगा ? उसे तो ऊंचाइयों से डर लगता है। वह नहीं चाहता शिखरों की यात्रा, फिर भले ही दुर्दांत आत्माएं लगातार जनता के कणों को कूटती-पीसती रहें। 
वह नकार देता है अपने अंतर्मन की सांकल को। निषेध कर देता उसका। पड़ा रहता उसी खड्डे में दिन-रात अपने दुःख को समेटे। सच से आँख चुराने का ढोंग करने लग जाता है। 
 
असल में, कवि उस काव्यनायक रूपी समूचे मध्यवर्ग की नि:संगता को कटघरे में खड़ा करता है। यह कविता अन्ततः उसी निःसंगता को तोड़कर काव्यनायक को जनमय होने और खो गयी अभिव्यक्ति को बगैर किसी भय के मुखर होने में परिणत करती प्रतीत होती है। संज्ञाहीन होने का ढोंग मचाने के बजाय संज्ञायुक्त होने की सक्रिय विरोधमय अभिव्यक्ति में प्रतिफलित होती है।

काव्यनायक उससे दूर तो भागता है किन्तु वह अपनी इस कमजोरी को समझता भी है। इसलिए जब वह कहता कि "क्या करूँ, क्या नहीं करूँ मुझे बताओ", तब इसमें उस कसमकस का अनुभव किया जा सकता है जो एक असंग पड़े व्यक्तित्व के भीतर मची है। 
रहस्यमय व्यक्ति के उद्देश्य इतने बड़े हैं और उसकी की हुई जगत समीक्षा इतनी व्यापक है कि उसके लिए काव्यनायक तैयार नहीं है। उसका दिया हुआ संदेश बहुत भीषण लगता है उसे। उसका विवेक विक्षोभ बेहद महान है। काव्यनायक तो उसे कम से कम इस अवस्था में सह नहीं सकता।  

लेक़िन फिर भी वह तैयार होता अपने भीतरी अंतर्द्वंद्व को सुनने के लिए। फ़िर भी वह घिसटने को आतुर हो उठता किसी सच्चाई को जान लेने के लिए। वह उसे अँधेरे में टटोल-टटोलकर उस सांकल को खोलने चल पड़ता है जो लम्बे अरसे से न खोली गई। निरन्तर अब तक जिसका निषेध ही होता आया। इस कारण उसमें जंग लग गयी है। उसके भीतर सच के अनुभव-स्पर्श मात्र से ही  सत-चित-वेदना जल उठी। पर ये क्या ? दरवाजा खुला तो बाहर कोई नहीं। मन के भीतर से आया हुआ सच अभिव्यक्त करने वाला रहस्यमय व्यक्ति तो कहीं ग़ायब हो गया। 

यहाँ सत-चित-वेदना का प्रयोग कवि ने किया है नाकि सत-चित-आनंद का। एक तो दार्शनिकता से अलगाव प्रकट करने के लिए और दूसरा यह कि वेदना एक समय में आनन्द का ही पर्याय होती है। सत्य का बोध कर चेतनायुक्त होना और फिर  समूचे जनकणों की वेदना से जुड़कर उसकी मुखर अभिव्यक्ति देना।

ख़ैर काव्यनायक बाहर देखता है। अँधेरे कमरे के बाहर का परिवेश तो बेहद सुनसान है। कहीं कोई नहीं है। कहाँ गया ? वहीं भयानक सर्द। वही टकटकी लगाये देखते तारे। अंधियारे में पीपल खड़ा पहरा देता। कुछ साँवली सी सियारों की धुन। बहरहाल काव्यनायक को कुछ भी हाँथ न लगा। वह अब किसी विचारमय स्थिति में है कि अचानक रात का पक्षी आकर चीख गया कि वह रहस्यमय व्यक्ति चला गया है। दूर किसी दूसरे शहर में, गाँव में। उसको तुम खोजो। उसका शोध करो। यह तुम्हारे लिए बेहद ज़रूरी भी है कि जिसे तुम पुनः प्राप्त करो। क्योंकि उसमें तुम्हारी पूर्णतम अभिव्यक्ति है। वह जगत की परम अभिव्यक्ति है। तुम उसके शिष्य हो।
वह रहस्यमय व्यक्ति चला गया है अन्यों तक संदेश पहुंचाने। जहाँ -जहाँ भी असंग व्यक्तित्व पड़े हैं उन सबों को जगाने। ऐसे सभी साथियों को इकट्ठे करने जिनसे सच्चाई को स्थापना मिलनी है। रात का पंक्षी कहता कि उसके विचारों में तुम्हारे भी विचार है। जिस सच को तुम अनुभव करते हो वह भी करता है। जैसी सहानुभूति तुम्हारी है वैसी ही उसकी भी। जो अब तक खोया हुआ है और जिसे खोजना है मिलकर, वह भी खोज रहा है। पर, तुम उसका सदा ही निषेध करते आये हो। तुम निसंग पड़े हो। वह नहीं।

यहाँ रात का पंक्षी भी एक रूपक है किसी पवित्र और निष्पक्ष आत्मा का। जो नायक को उसकी देरी का अनुभव कराने के प्रयत्न के क्रम में कविता में आया है। वास्तव में यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा कि कभी हम असल जिंदगी में किसी बात के लिए देरी कर देते हैं या फिर हमसे कुछ अनुचित हो जाता है तो हमारे भीतर का ही एक हिस्सा हमें तुरन्त हमारी गलती का एहसास कराने आ जाता है। आत्मा से ही आवाज आती है कि अमुक काम को करने में तुमने देरी कर दी। अब तुम स्वयं ही इसे भुगतो। इसलिए काव्यनायक के भीतर से ही कोई आवाज उसकी कमी को बताने आयी है। यहाँ रूपक के तौर पर वही पक्षी है। इसे अन्यथा न लिया जाये।

इस तरह काव्यनायक को किसी सच का अनुभव कराने वह रहस्यमय व्यक्ति आता है। उसकी सांकल खटखटाता है। पर काव्यनायक उसे पाने में असमर्थ रह जाता। इसी परिच्छेद में काव्यनायक अपनी वर्गीय कमजोरी और संज्ञायुक्त होने के बावजूद असंग पड़े रहने की कलई खोलता है। 
इससे कुछ बातें निकलकर आ जाती हैं। एक तो वह रहस्यमय व्यक्ति एकांत भोग रहे व्यक्ति को किसी सच्चाई से रूबरू करवाना चाहता है। इस रूप में समूचे वर्ग को। किसी भावी कार्यक्रम के लिए काव्यनायक को एकांतिकता से मुक्त कराने में भी। किसी दमित अभिव्यक्ति की खोज करने के लिए भी। अपने भीतर प्रकट हो रहे सच को भी स्वीकार करने के लिए।  

लेख-३.   " अँधेरे में...."

अँधेरे में कविता पर यह तीसरा आलेख है। काव्यनायक आत्मनिर्वासन की अवस्था में है। वह रहस्यमय व्यक्ति उसकी सांकल खटखटाने आता है। ताकि असंग जागृति की नींद से उसे जगा सके। पर काव्यनायक है कि निरंतर उसका निषेध करता जाता है। लम्बी उधेड़बुन के बाद वह बाहर निकलकर आता है। सांकल खोलता है। कहीं कोई नहीं है। भीतर से आवाज़ आकर उसकी देरी प्रकट कर जाती। उसे स्वयं ऐसे सच को ख़ोज निकालने को कहती है जिसका उससे खासा वास्ता है। काव्यनायक तैयार होता है। भीतर फिर कुछ गर्माहट। कोई विचारणा।

काव्यनायक अब सच के प्रकट होने का कुछ कुछ अनुभव करने लगा है। वह सोचता कि यह स्वप्न ही है या फिर जागृति। समझ नहीं आता। पर, अभी भी वह आशंका से ग्रस्त है। यूँ कहें और भी अधिक। क्योंकि वह सच जिसका निषेध करता काव्यनायक अब तक आया है, रह रह प्रकट होने वाला है। उसे तो स्वयं ही खोजना है। यह भी परिचय हो गया है कि वह जो कुछ भी है असल में अपने व्यक्तित्व की ही पूर्ण अभिव्यक्ति है। उससे कैसे बचा जाए ? इस स्थिति में उसे अपना चेहरा भी वीराना लगता है। शायद किसी भूत जैसा। पूछता क्या वह मैं हूँ ? 

इतने में काव्यनायक के मत्थे पर चिंता के अंक उभरते हैं। उसे लगता है कि कुछ ऐसा होने वाला है जो अनअपेक्षित है। भयानक आवाज़ें आती हैं। भारी गड़गड़ाहट के साथ। स्वर अत्यंत भीषण। वह देखता कि टालस्टाय उसे दीख गए। अरे! अरे! वह कैसे यहाँ ? आख़िर क्या होने वाला है ? कहीं कोई युद्ध जैसा ? आख़िर वह इधर क्यों आये ? क्या कुछ अशांत है या होने वाला है ? समझ नहीं आता। 

पर, तुरन्त ही सामान्य। वह टालस्टाय नुमा आदमी कोई और है। काव्यनायक को लगता कि वह आदमी उसके उपन्यास का केंद्रीय संवेदन है। उसकी भीतरी अभिव्यक्ति है जो अब तक उपेक्षित पड़ी रही। जिसको उसने अब तक आकार न दिया। अपनी कमजोरियों से ही उसको फुर्सत न मिली। जबकि उसे पता था कि वह उसकी मूल बात है जो लोगों तक जानी बेहद जरूरी थी। उसके ज़रिए लोगों तक शक्ति पहुँचनी थी। पर उसे नजरअंदाज किया। जनता के हित में उसका उपयोग न किया। दूर पड़ा रहा उनसे। अपनी तथाकथित सुविधा भोगता रहा। हाय! हाय! क्या अनर्थ हुआ ? यह मेरी नहीं वरन् समूचे वर्ग की बात है। अकेले होती तो चल जाती। 

अब काव्यनायक को पास से आती हुई कोई ध्वनि सुनाई देती है। इतने रात गए किसी बैंड की। वह भी क्रम से। वह बाहर निकलता है। देखता कि सब कुछ वीरान है। सड़कें किसी मरी खिंची हुई जीभ की तरह पड़ी हैं। अपनी आँखों आँसू रोती। तेज नीला प्रकाश दिखाई पड़ता। काव्यनायक को जिसका भय था वही होने लगा। न जाने क्या ? क्यों उसे इसके पहले टालस्टाय दीख गए थे ? नीली-नीली लाइटें उसके पोर-पोर में धँसने लगी। कोई बड़ा-सा जुलूस दिखता। एक बड़ी सेना उसके साथ है। बड़ी ही मजबूत ,काले घोड़ों के जत्थे के साथ। मानों किसी मृत्यु-दल की शोभा यात्रा हो। जैसे किसी बड़ी जनाकांक्षा को कुचलने हेतु शूटबूट पहनकर तैयार खड़ी है। भई ख़ूब! अब स्वार्थ वस्त्र हटेगा। झोल ढीली पड़ेगी। 

यह सब काव्यनायक के गहरे अवचेतन में चल रहा है। उसे लगता कि सारा शहर सोया हुआ है। फ़िर यह सब क्या है ? इतनी सारी तैयारी किसके लिए हो रही है। सैनिक गण अपनी पूरी ड्रेस के साथ इसमें शामिल हैं। पर उनके चेहरे ख़ुश नज़र नहीं आते। वह बेहद पथराए हुए हैं। मानो मजबूरन उन्हें शामिल कर लिया गया हो। या अपने उचित नेतृत्व के अभाव में प्रतीक्षा करते-करते थक गए हों। लगा कि असंगता अपनी सीमा पार जा चुकी है। नहीं आएगी अब समीप वह। सैनिक भर्राए हुए हैं। उनके हाँथों में गहरे चमकदार अस्त्र हैं। पीछे-पीछे और तमाम लोग शामिल हैं।  

काव्यनायक बड़े ध्यान से देखता है। अरे! ये क्या ? कई चेहरे तो जाने-पहचाने हैं। कइयों से मेरा ख़ासा परिचय है। सेना के अधिकारी, मंत्री, उद्योगपति, नामी आलोचक, विचारक, और जगमगाते कवि गण। अरे! ये सब शामिल ? यहाँ तक कि उनमें शहर का कुख्यात हत्यारा डोमा जी उस्ताद भी। 

ध्यान देने योग्य बात है कि जिन्हें जनता के साथ होना चाहिए, वह नपुंसक बनकर जनविरोधियों के साथ हैं। इतना ही नहीं वह एकदम सामने हैं। असल चेहरा अभी भी कैद है। उसके भेद को वह भेद न सके। या यूँ कहें कि जानकर भी अभेदी बने रहे। अपने वर्गीय चरित्र को वह पार न कर सके। इसी कारण विफल हुआ किसी बड़ी अभिव्यक्ति का विधान। अब कुचला जा रहा है मिट्टी के कणों को। सैनिक भी इसी कारण थर्राए हुए हैं। अपनों के ही विरुद्ध उन्हें सन्नद्ध होना जो पड़ा है। अपनों के दमन के लिए असल चरित्र ने शहर के कुख्यात हत्यारे से भी हाँथ मिला लिए हैं। भई वाह! संज्ञायुक्त लोग अभी भी असंग झोल ओढ़े पड़े हैं।

काव्यनायक ने यह क्या देख लिया। ये वही लोग हैं जो जनता के हितैषी बने फिरते थे। अरे! इन सबों का स्वार्थ खुल गया। देख लिया मैंने। इनका उद्देश्य खुल गया। इतने में कोई आवाज आती है। नायक को लगता कि उसे किसी ने देख लिया है। अब उस पर आक्रमण होने वाला है। वह भागता है एकदम पेलमपेल। कहाँ छुपे-छुपे वह जा रहा था और कहाँ यह सब ? हाय! हमने तो न चाहा था। हम तो खोल कर भी आँख बंद किये रहे थे। नंगी आँखों देख लिया। अब मुझे सजा मिलेगी। काव्यनायक आशंका से सराबोर कि एकाएक उसे लगता कि मानो कोई स्वप्न टूट गया हो। सारा कुछ छिन्न भिन्न हो चला हो। कई चित्र अब भी दिमाग़ में। जागने पर देखता कि ये वही मृत आत्माएं हैं जो दिन में तो घरों-दफ्तरों में षड्यंत्र रचा करती हैं जबकि हर रात जुलूस में शामिल होती हैं। 

मुक्तिबोध ने यहाँ पहले शुरुआत की पंक्तियों में 'मृत्यु-दल' और बाद  की पंक्तियों में 'मृत-दल' शब्द का प्रयोग किया है। पहले का संदर्भ यह है कि जो जुलूस चल रहा है वह किसी बड़ी जनक्रांति को कुचलने हेतु तत्पर है। उसका लक्ष्य जनाकांक्षा को मौत के घाट उतारने का है। इस रूप में वह मृत्यु दल है। 

जबकि दूसरे का संदर्भ यह है कि वह पूरा का पूरा जुलूस किसी मरे हुए ढेर के समान है। भले ही अभी वह सब चल रहे हैं। भले ही उनके पास अभी बड़ी शक्तियाँ हैं। पर क्योंकि उन सबों ने अपनी आत्मा को गिरवी रख दिया है। उसका हनन कर दिया है। इसलिए वह मरे हुए के ही समान हैं। वह समय दूर नहीं जब उनका शरीरान्त भी होगा। इस रूप में वह मृतदल हैं। यहाँ मुक्तिबोध ने कविता की उस परिणति की ओर इशारा किया है जो बाद में "कहीं गोली चल गयी कहीं आग लग गयी" के टेक के रूप में अन्त में आएगी। जब काव्यनायक जनकणों को इकट्ठे कर उसके साथ एकीकृत होने में दिखता पाया जाएगा। 

इस प्रकार, काव्यनायक को वह रहस्यमय व्यक्ति जिस छोर पर छोड़ कर गया था उसके आगे से सच्चाई को उसे स्वयं खोजना था। जनक्रांति के दमन निमित्त वर्तमान जुलूस उस सच्चाई के एक अंश का प्रतिरूप है। काव्यनायक उसके करीब पहुँच रहा है। साथ ही साथ अपने वर्गीय पहलुओं और समाज के बड़े-बड़े तथाकथित जिम्मेदार लोगों के सच से भी परिचित होता जा रहा है। किंतु खुलकर अभी भी उसका स्वयं से साक्षात्कार न हुआ है। आगे के प्रकरणों में पागल के उद्बोधमयी गीत के प्रभाव से वह भी होगा। 

कविता के इस प्रकरण में और इसके पहले भी वातावरण के 'अँधेरे' की सार्थक भूमिका है। अँधेरे में चीज़ें उतनी ही दिखाई पड़ती हैं जितने से उसका आशय साफ़ हो। टालस्टाय और जुलूस जैसी फैंटेसी का भी रचनात्मक उपयोग किया गया है। किसी सच्चाई को सामने लाने के लिए एक अठोस विधान उपस्थित किया गया है। कुल मिला कर इतना कि दोनों की सार्थक भूमिका है।

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मुक्तिबोध की 'अँधेरे में' कविता जिस नाटकीय कौशल से शुरू होती है, अपने चौथे प्रकरण में वह विस्तार पाती है। यह आलेख उसी विस्तार पर केंद्रित है।

अपनी खोई हुई अभिव्यक्ति को पाने के लिए आतुर काव्यनायक अपने अन्तर्व्यक्तित्व से उधेड़बुन करता है। मन के तमाम कोनों से सवाल-जवाब करता वह क्षत-विक्षत है। इसी अवस्था में नगर के भीतर आधी रात में सम्पन्न हो रहे किसी जुलूस का स्वप्न देखता है। उसमें जनविरोधियों का एक पूरा का पूरा तांता-सा लगा है। सत्ता के तमाम पदाधिकारियों से लेकर उद्योगपति, मंत्री, आलोचक, पत्रकार व जगमगाते कविगण और यहाँ तक कि शहर का सबसे कुख्यात हत्यारा डोमा जी उस्ताद भी उसमें शामिल हैं। 

मुक्तिबोध ने यहाँ इस तथ्य को उकेरने की कोशिश की है कि समय के फेर में सत्ता निहायत चालाक और क्रूर हो गयी है। जहाँ पहले वह मात्र अपने अधिकारियों, पुलिस, प्रशासन व सिपाहियों द्वारा जनाभिव्यक्ति को दबाने का प्रयास करती थी वहीं अब तमाम बुध्दिजीवी और न जाने कौन-कौन से लोग उसके मजबूत दमन में शामिल हो गए हैं। यह बात न केवल सत्ता के जनविरोधी होने की पुष्टि करती है वरन् इन निहायत अवसरवादियों के भी उनके पक्ष में होने की पोल खोलती है।

उसी जुलूस में से ही काव्यनायक को कोई देख लेता है और 'मारो गोली, दागो स्साले को एकदम' की आवाज़ से उसकी नींद खुल जाती है। अचानक उसका यह स्वप्न भंग हो जाता है। वह सोचता है कि मैंने उनको नंगी आँखो देख लिया। अब मुझे इसकी सजा मिलेगी।
ध्यान देने योग्य है कि यह बात काव्यनायक तब कहता है जब स्वप्न से अलग चेत अवस्था में लौट आता है। जागृत अवस्था में उसे स्वप्न का पुनः बोध होता है। स्वप्न में से निकलकर जुलूस उसे मारने आने वाला नहीं। फिर सजा का डर क्यो ? वह इसलिए कि अब उसे सजा सत्ता या उसकी दमन निमित्त बनाई गई व्यवस्था से नहीं मिलने वाली है अपितु अपने ही भीतर बैठे आत्मनिषेधी के विरोध में अस्तित्वमान किसी इतर व्यक्तित्व से मिलने वाली है। परिणामतः वह आशंका से घिरता नज़र आता है और स्वर में हाय-हाय की चीत्कार दीख पड़ती है।

इसी अवस्था में रात के अँधेरे में चार का गजर कहीं खड़का। काव्यनायक सहम जाता है। आशंका की काली-काली हायफने और डैश उसके भीतर घुसने लगती हैं। अपनी आत्मनिर्वासन की समाधि तोड़ता हुआ वह देखता है कि सड़कों पर सिपाहियों की पाँत खड़ी है। किसी जनक्रांति को कुचलने हेतु जनविरोधियों ने मार्शल लॉ लगा रखा है। 

काव्यनायक उसे देख भयभीत हो गया। मारे भय के ज़माने की जीभ निकल पड़ी है। उसके पैर एक जगह टिक नहीं रहे है। कई गलियां, कई सड़कें वह घूम गया। उसे लगता कि कोई है जो मेरे पीछे लगा हुआ है। वह मुझे सजा देगा। वह कहता- "भागता मैं दम छोड़ घूम गया कई मोड़।"

इस पंक्ति से उन कारणों की ठीक-ठीक पहचान होती है जिनके कारण अभिव्यक्ति ने अपनी दिशा कहीं खो दी है। सत्ता के भयानक दमन चक्र के कारण ही मध्यवर्गीय जीवन भय खाकर असंग गुहावास भोग रहा है। इस कारण ही उसने स्वयं को आत्मनिर्वासित कर रखा है। सर्वहारा के पक्ष में होने का मजबूत संकल्प करने के बाद भी वह बार-बार पीछे लौट पड़ता है। मुक्तिबोध ने ठीक मौके पर इस पंक्ति को कविता में लाकर अस्मिता के लुप्त होने के वस्तुगत कारणों को संगति प्रदान की है।

ख़ैर आगे देखिए। काव्यनायक के भयभीत होकर भागने के क्रम में उसे दूर कहीं बरगद दिखाई पड़ता है। जोकि गरीबों और वंचितों के आश्रयस्थल के रूप में आया है। वही उन सबों का एकमात्र घर है। आख़िर रक्तपिपासु जनविरोधियों के इस शासन में उनके घर कहाँ दीख पड़ेंगे। 
इसके अलावा बरगद अतीत और वर्तमान, आदर्श और व्यवहार, तथा परंपरा और आधुनिकता इन तीनों ही के साक्षी के रूप में आया माना जा सकता है। कारण, किसी समय में बरगद अपने लम्बे अनुभवों में इतिहास और सामाजिक गतिविधियों का अड्डा हुआ करते थे। 

यहाँ इसे इस रूप में देखा जा सकता है कि बरगद ने अब तक स्वाधीनता के समूचे दौर में अभिव्यक्ति के मुखर होने और पुनः उसके खो जाने को देखा है। उस दमन को देखा है जिसे औपनिवेशिक सत्ता ने धनबल के प्रभाव से बुरी तरह से दबा दिया। बरगद उसका साक्षी रहा है। पर, उसे विश्वास है कि वह पुनः खाद-पानी मिलने पर हरी-भरी हो उठेगी। और कब्र में दफन होने के बावजूद भी ऊपर निकल कर अपने को मुखर करेगी। 

बहरहाल काव्यनायक देखता है कि उसी बरगद की शाखाओं में किसी सिरफिरे के फटे सुथन्ने लटके हैं और उसकी छाँव में कोई सिरफिरा आत्मोद्बोधमय गीत गा रहा है। एकदम ऊची तान में। काव्यनायक उसे सुनता है। उसे लगता है कि मानो वह भी बुद्धि से जागृत हो गया है। जान गया हो कि नगर में सैनिक शासन लगा है। वह जो गीत गा रहा उसका गद्यानुवाद यह रहा-

ओ मेरे आदर्शवादी मन और सिद्धांतवादी मन अब तक क्या किया ? जीवन तुमने क्या जिया ?...लोगों के लिए क्या किया तुमने ? किस-किसके दुख में एकीकृत हुए तुम ? किसके साथ कंधे-से-कंधे लगाकर चले ? अपनी सुविधाओं से इतर किसकी जरूरत के लिए दौड़ पड़े तुम ? 
तुम्हारे जन पिसते रहे। उन्हें माल की तरह कूटा-पीसा जाता रहा। तुम उनको युहीं देखते रहे! तुम उनसे क्यों न एक हुए ?  उनके साथ विरोध को एक स्वर क्यों न दिया? वो शोषित होते रहे और तुम अपना असंग भोगते रहे!! क्यों अपनी जिम्मेदारी से हट गए पीछे ? उलटे कर ली तुमने शोषकों से ही साँठ-गाँठ। तर्कों को खा गए, आदर्शों को पी डाला, और अपनी आत्मा को मार डाला!! क्या मिला तुम्हें ? 

इस तरह की तमाम बातें हैं जिन्हें फेरबदल कर पेश किया है। यहाँ पागल के गीत का प्रभाव काव्यनायक पर अत्यंत व्यापक पड़ा। उसे लगा कि मानो "मैं खड़ा हो गया/ किसी छाया मूर्ति-सा समक्ष स्वयं के।" मुक्तिबोध ने यहाँ पागल के बहाने मध्यवर्गीय मन की कमजोरियों को उकेरा है। न केवल उसकी गंभीर आलोचना प्रस्तुत की वरन् एक गलती कर देने वाले बच्चे को सीख देने के जैसे उससे आत्मीयता भी स्थापित की। 

असल में है तो यह काव्यनायक के प्रतिनिधित्वमूलक मन की खरी आलोचना ही। पर, किसी सुधार के उद्देश्य से। किसी महान प्रयोजन में लगाने से पूर्व उसको तैयार करने के उद्देश्य से। आखिर आगे चलकर उसे एक बड़ी जिम्मेदारी का वहन जो करना है। याद कीजिए उस पंक्ति को जिसमें वह कहता- "वह रहस्यमय व्यक्ति अब तक न पायी गई मेरी अभिव्यक्ति है/ पूर्ण अवस्था वह/ निज संभावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिभाओं की/ मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव/ हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह/ आत्मा की प्रतिमा। "

कविता में पागल को लेकर जो विवादित बातचीत है उसे भी समझ लेना जरूरी है। पागल के क्रम में एक पंक्ति आयी है- "व्यक्तित्व अपना ही, अपने से खोया हुआ/ वही उसे अकस्मात मिलता था रात में/ पागल था दिन में/ सिर-फिरा मस्तिष्क।"
यहाँ 'उसे' पर ध्यान देना जरूरी है जो पागल के लिए ही सर्वनाम रूप है। ना कि काव्यनायक के लिये, कि काव्यनायक ही दिन में पागल रहता था और रात में उसे जागृत बुद्धि मिलती थी। इसलिए मेरी समझ में इसे काव्यनायक का प्रतिरूप नहीं मानना चाहिए। कविता में ही काव्यनायक की आगे की पंक्ति- "मैं इस बरगद के पास खड़ा हूँ" से भी यह पुष्ट होता है। क्योंकि काव्यनायक साफ़ तौर पर उस गीत की धुन को अलग बरगद के पास स्वतंत्र रूप से सुनता हुआ खड़ा है। 

कुछ लोगों ने झट से मान भी लिया है क्योंकि इससे मुक्तिबोध के काव्य को विक्षिप्त देन सिद्ध करने का चुटीला अवसर जो मिल जाता है। एक दूसरे बड़े आलोचक ने भी पागल को काव्यनायक का प्रतिरूप मान लिया है।
हम बस इतना कहेंगे कि जिस तरह से पहले प्रकरण में आये "कौन मनु" वाले प्रसंग में मनु शब्द पर पृथक रूप से जोर देने के कारण कामायनी कृत मनु के नए संस्करण के चक्कर लगाने पड़े, उसी तरह यहाँ पर भी काव्यनायक पर अतिशय ध्यान होने के कारण 'उसे' शब्द को उसी के संदर्भ में सर्वनाम के तौर पर ग्रहण करने को मजबूर होना पड़ा। 
इसके अलावा एक स्थान पर यह लिखा क्या मिल गया कि "मैं खड़ा हो गया/ छाया मूर्ति-सा स्वयं के" कि महोदय को पूरा विश्वास हो चला कि वह पागल 'मैं' और 'वह' का ही प्रतिरूप है। 

लेकिन इतना तो है कि काव्यनायक के चेतन मन पर उस सिरफिरे के गीत का प्रभाव अत्यन्त गहरा पड़ा। उसके कारण जिस तरह की आत्महीनता का बोध काव्यनायक में पैदा हुआ, असल में मुक्तिबोध उसी को बाहर लाना चाहते थे। व्यक्तित्वान्तरण की प्रक्रिया की शुरुआत उसमें सही मायने में यहीं से होने लगती है। 

वह कह बैठता कि "मानो मेरे कारण ही लग गया/ मार्सल-लॉ वह/ मानो मेरी निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया/ मानो मेरे कारण ही दुर्घट हुई यह घटना।" इस तरह का आत्मालोचन वस्तुतः वाचक के द्वारा अपने आत्मनिषेधी व्यक्तित्व का ही निषेध करके उसके जनमय की ओर उन्मुख होने में सार्थक बन पड़ा है। असल में यहीं से काव्यनायक उस सच से, जिसे खोई हुई अभिव्यक्ति भी कहा गया है, से धीरे-धीरे परिचित होने लगता है। 

काव्यनायक को अब मद्धिम रूपों में उस परम अभिव्यक्ति के अपने आस-पास होने के संकेत मिलने लगे हैं। जिसकी मौजूदगी सब स्थानों पर है। उसे लगता है कि- "रात्रि के श्यामल ओस से क्षालित/ कोई गुरु-गंभीर महान अस्तित्व/महकता है लगातार...../ मात्र सुंगध है सब ओर/पर,उस महक--लहर में/ कोई छिपी वेदना, कोई गुप्त चिंता/छटपटा रही है।" 

यहाँ जो छिपे तौर पर वेदना और कोई चिंता छटपटा रही है वह वही अभिव्यक्ति है जिसे खोजा जाना है। जिसके मिलने से ही जनता के वास्तविक गुणों से एकाकार हुआ जा सकेगा।  काव्यनायक उसी महान अस्तित्व को अपने पास महसूस करने लगा है। यह इस ओर भी संकेत है कि वह अस्मिता की खोज के एक नए धरातल पर आ पहुंचा है।

ध्यान देने योग्य बात है कि यहाँ अभिव्यक्ति का आशय मात्र शब्दों की अभिव्यक्ति से नहीं है। उससे तो है ही, साथ ही कर्म, विचार, आकांक्षा, व अपनी विरोधमय जीवंत परंपरा से जुड़ाव इत्यादि से भी है। आगे के अंशों में यह और साफ़ होगा। फिलहाल यह लेख यहीं तक। शेष अगले में....

                  -अभिषेक कुमार वर्मा
परस्नातक हिन्दी साहित्य अध्येता, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय

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