Friday 19 June 2015

केदारनाथ सिंह (दिनकर जी के पुत्र )से इंटरव्यू

शाम के सात बजे थे| लगभग नियत समय पर मैं राहुल , दिनकर जी पर आ रही इस पुस्तक के सम्पादक कुमार वरुण और पटना हाईकोर्ट के वकील आलोक जी दो बाइकों पर सवार हो पटना में रामधारी सिंह दिनकर के नामधारी सड़क पर स्थित दिनकर जी के सुपुत्र श्री केदार नाथ सिंह जी के आवास उदयाचल पर पहुंचे| केदार जी कुछ ही दिनों पहले दिल्ली विज्ञान भवन में दिनकर जी पर आयोजित कार्यक्रम से लौटे थे| पत्रकारों से खफा थे जिन्होंने इनका नाम खबार में डालने के बदले लिखा दिनकर जी के परिजनों का भी सम्मान किया गया| जिस करण हमलोगों को भी टालने की कोशिश की कि आपलोग जब आवाज नहीं उठाते हो तो इंटरव्यू क्यों दूँ| खैर मैंने जब बताया कि इस चुनावी रणनीति का पर्दाफाश किया जा रहा है तब वे तैयार हुए| दिनकर जी की भांति ही रोबीला चेहरा बाल उन्होंने पीछे बांध रखे थे, जो बंधने भर ही लम्बे थे| बातचीत शुरू हुई| इंटरव्यू तो मुझे ही लेना था मगर जिज्ञासा वश साथ के लोगों ने भी प्रश्न पूछे....
*पिता दिनकर किस प्रकार याद आते हैं?
के.- पिताजी की पहली तस्वीर जो हमारे जेहन में आती है वो मेरे ख्याल से १९४२ हो या १९४५ हो | उन दिनों पिता जी सीतामढ़ी में पोस्टेड थे| सरकारी कवार्टर था| बरामदे पर कपडे वाली आराम कुर्सी थी| बरामदा छोटा सा था| उसी कुर्सी पर पिता जी सुबह बैठा करते थे और चाय पीते थे| उस समय मैं चार वर्ष का रहा होऊंगा| उसी समय छोटी बहन विभा का जन्म हुआ था| पिता जी उस सुबह भी वहीँ बैठे थे| मैंने जाकर पिता जी से कहा "हमरा बहिन भेलई हन| {मुझे बहन हुई है|} पिताजी बोले हम्म बहिन .. कि नाम रखबहीं ? {क्या नाम रखोगे?} मुझे क्या पता था |मैंने जवाब नहीं दिया| पिता जी बोले विभा नाम रख देहीं| {विभा नाम रख दो}" उसके बाद विभा से सम्बंधित कुछ पंक्तियों का पाठ किया| कोई कविता जैसी पढ़ी जिसमे कि विभा शब्द का प्रयोग था| यह चित्र एक आता है| उसके बाद उसी कम्पाउंड में थोड़ी जमीन थी | उसमें सब्जी उगने का काम करते थे| एक दृश्य यह आता है| एक दृश्य आता था कि ऑफिस से लौट कर आये थे| ऊपर का भाग नग्न था और चिनिया बदाम के पौधे पर मिटटी चढ़ा रहे थे| वे लुंगी की लुंगी नहीं पहनते थे धोती को लुंगी बना कर पहनते थे|
* स्वभाव से दिनकर जी कैसे जीव थे?
के.- स्वभाव तो सामान्य किस्म का ही था| बच्चों के प्रति अगाध स्नेह था | हमारे चचेरे भाइयों को भी साथ रखते थे| बच्चे पढ़ें इसका ख़ास ख्याल रखा जाता था| हैण्डराइटिंग अच्छी हो इसपर बहुत जोर देते थे|व्यायाम पर भी ध्यान देते थे|
    कोई भी चीज अतिवादी ढंग से उनके स्वभाव में नहीं थी | हर चीज अपने-अपने ढंग से सामान्य रूप में आती थी|
* क्या आपको राष्ट्रकवि दिनकर और पिताजी दिनकर में कोई ख़ास फर्क नजर आया?
के.- परिवार की अपनी जरूरतें होतीं हैं| लेकिन राष्ट्र के लिए जैसे नागरिक की कल्पना उनके मन में रही होगी| निश्चित रूप से वे चाहते थे उनके बच्चे अछे नागरिक बनें|
* दिनकर जी के समकालीन उनके साहित्यिक मित्र रहे होंगे | उनका आना - जाना लगा रहता होगा |इस सम्बन्ध में कोई ऐसी महत्वपूर्ण यादें जो आप साझा करना चाहते हो?
के.- एक तो कामेश्वर शर्मा कमल थे| सुल्तानपुर मोकामा के पास एक बस्ती है वहीँ रहते थे| पिता जी जब पढ़ा करते थे तो सुल्तानपुर आना-जाना होता था| मोकामा सुबह जाते तो शाम तक लौट आते |कभी रुकना हुआ तो कमल जी के यहाँ रुकते थे| उनके दूसरे मित्र थे शिव कुमार शर्मा| हमारे सिमरिया ग्राम के ही थे| रिश्ते में हमलोग उनके भाई लगते हैं|
   किसी साहित्यकार का घर अप आना जाना उस तरह से तो नहीं हुआ , लेकिन १९४८ या ४९ में शायद पटना में हिन्दी साहित्य का बड़ा आयोजन हुआ था| उसमें पन्त जी और डॉ. नगेन्द्र भी आये थे|वे दोनों हमारे घर रुके थे| इनके अलावे बेनीपुरी जी , गंगाशरण सिंह जी, धनराज शर्मा जो कांग्रेस के बड़े नेता थे उस माया के और दरभंगा इलाके में मशहूर थे उनका आना-जाना हुआ था | 
*मोकामा आना-जाना नाव से होता होगा?
के.- हाँ गंगा से लगाव तो था लेकिन दिलचस्प बात यह थी कि वे तैरना नहीं जानते थे|
* उनकी रचनाओं से जुड़ा कोई संस्मरण याद है आपको?
के.- १९४८ से ५२ तक रश्मिरथी के रौ में थे| रश्मिरथी छाया हुआ था|उससे पहले कुरुक्षेत्र ,४५ में | ४५-४६ का दौर होगा |हमलोग मीठापुर (पटना ) में रहते थे| ऊपर एक हॉल था | उसमें ये कविता सुना रहे थे| कुरुक्षेत्र |सुनाते -सुनाते उनका मुंह सूखने लगता |
    रश्मिरथी का तीसरा सर्ग उन्होंने रांची में, पांचवां सर्ग पूर्णियां में जनार्दन प्रसाद द्विज के यहाँ और सातवाँ सर्ग मुजफ्फरपुर में लिखा था| सातवाँ सर्ग लिखने के बाद जब ये कमरे से बाहर निकले तो आवेश में आँखें लाल| दो दफा पिताजी को भावप्रवणता में रोता हुआ देखा था| पहली दफा देखा था जब गाँधी जी मारे तब|
* उनकी लिखने की शैली क्या थी?
के.- वे लेटकर सीने के नीचे तकिया या मसनद लगा कर लिखते थे| वक्त कोई ख़ास तय नहीं था, लेकिन जब नौकरी करते थे तो वक्त सुबह और रात में मिल पाता था| हाँ, सुबह छह बजे रोज जग जाया करते थे|
* सुना जाता है अंतिम समय में वो बड़े परेशानियों में घिरे रहे | ख़ास कर आर्थिक| आप इस सम्बन्ध में कुछ बताना चाहेंगे?
के.- नहीं, नहीं ऐसा कुछ नहीं है| आर्थिक परेशानी तो नहीं थी, लेकिन जब रिटायर होकर घर आये तो उन्हें थोडा लगा कि अब वे किसी काम के नहीं रहे|
*राजनीति के प्रति दिनकर जी का क्या नजरिया था?
के. साहित्य क्या राजनीति के बिना चल सकता है? नहीं| वे कांग्रेस के चवन्नियां सदस्य भी थे| इसी दिलचस्पी के करण वे राज्यसभा भी गये|
*आखिर क्या वजह थी कि उन्होंने राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था?
के. यही सोचने वाली बात है कि उनकी बेसिक थिंकिंग क्या थी| वे चाहते थे छात्रों का विकास हो देश का विकास हो| इसके लिए उन्होंने राज्यसभा को छोड़कर युनिवर्सिटी को चुना|
    लेकिन बाद में यूनिवर्सिटी की ओछी राजनीति से परेशान हो कर दिल्ली चले गए| उन्हें लगा कि अब लिखने के हिसाब से दिल्ली ज्यादा सही है|वे कहा करते थे "वहां नहीं होता तो संस्कृति के चार अध्याय नहीं लिख पाता | वहां की लाइब्रेरी बहुत रिच है इस मामले में|
*हिन्दी के आलोचकों पर यह आरोप लगता रहा है कि उन्होंने दिनकर की बहुत उपेक्षा की है| दिनकर जी ने अपने समय में कभी इसका जिक्र आपसे किया?
के.-  पिता जी ने जब हरे के हरिनाम लिखा तो सबसे ज्यादा हंगामा मचा कि पुरुषार्थ के कवि हारे को हरिनाम लिख रहा है|
                एक दिन मैं और पिता जी दोनों रिक्शे से कहीं जा रहे थे कि अचानक पिता जी बोल पड़े कि हारे को हरिनाम को लेकर कुछ निगेटिव बातें आ रहीं हैं| हलांकि मैं बोलने का अधिकारी नहीं था फिर भी मैंने कहा कि इससे बड़ा पुरुषार्थ क्या होगा कि जिसने जिन्दगी भर पुरुषार्थ का गीत गाने वाला धर्म की बातें कर रहा है| हारे को हरिनाम गा रहा है| अपनी सारी ख्याति या कहें तो जो जड़ था उससे ही इनकार कर रहा है|इस जवाब से शायद उन्होंने थोडा संतुष्ट सा महसूस किया| १९३६ के प्रलेस के प्रथम अधिवेशन में पिता जी स्वागत सदस्यों में थे| वहां किसी ने कहा कि प्रगतिशील कवियों को चाहिए कि हारे के हरिनाम को सिराहने रख कर सोयें|
*पिछले दिनों भाजपा सरकार ने विज्ञान भवन दिल्ली में दिनकर जी की दो कृतियाँ परशुराम की प्रतीक्षा और संस्कृति के चार अध्याय का स्वर्ण जयंती दिवस मनाया | क्या आप भी वहां थे| क्या आपको इस कार्यक्रम में चुनावी बू नहीं आती| आप इसे कैसे देखते हैं?
के.- मुझे इसमें कोई नुकसान नहीं दिखता| इसी बहाने साहित्य में कोई न्य विवाद या विमर्श बढ़ता है तो इसमें कोई हर्ज नहीं है|
*21 वीं सदी में आप पाठकों के बीच दिनकर को कहाँ देखते हैं साथ ही आपकी क्या अपेक्षाएं हैं? 
के.- अब जैसे पहले होता था |कोर्स में डॉ कविताएँ कवि से परिचय के लिए पर्याप्त होतीं थीं| अब ऐसा हो गया है कि सूर और तुलसी को ही जब स्थान नहीं मिल पा रहा है| पुराने कवियों को हटा रहे हैं | नए कवियों को रख रहे हैं इसमें क्या कहा जाय|
*आपने इतनी सारी बातें बताईं , संस्मरण सुनाये आपका बहुत बहुत धन्यवाद |

के. - धन्यवाद 

दंगा (1) अरमान आनन्द

मेरा कुसूर था
कि मेरे चेहरे पर दाढ़ियाँ थीं
मूंछे नहीं थी

मेरा कुसूर था कि
मेरे माथे पर लाल रोड़ी का तिलक लगा था

हमने अपनी कुसुरवारी की सजा कुछ मासूम बच्चों को दी
हमने एक दूसरे की औरतों को नंगा किया

हम अपना वीर्य
अपने अपने शक्तिशाली ईश्वर को बचाने में खर्च करते रहे।

हमने कुछ पागल बनाए हैं
जिन्होंने तुम्हारी सरकार बनाई है।

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