Friday, 1 November 2019

तिब्बत की स्वाधीनता का स्वप्न है मेरा भविष्य - तेन्ज़िन च़ुन्डू

तिब्बत की स्वाधीनता का स्वप्न है मेरा भविष्य  - तेन्ज़िन  च़ुन्डू
तेन्ज़िन च़ुन्डू निर्वासित तिब्बतियों की भू- राजनीतिक जनांकाक्षाओं की न केवल साहित्यिक आवाज़ है,बल्कि वह एक जांबाज़ क्रांतिकारी एक्टिविस्ट के रूप में ज़्यादा जाने और सराहे जाते हैं ।
 
 तिब्बती कवि एक्टिविस्ट तेन्ज़िन  च़ुन्डू और हिन्दी के कवि अग्निशेखर
धर्मशाला में उनकी पहचान माथे पर बंधी लाल पट्टी वाले तिब्बती एक्टिविस्ट के रूप में है।सन् 1959 में तिब्बत से करीब एक लाख लोगों के निर्वासित होने के करीब डेढ़ दशक के बाद तेन्ज़िन च़ंडू  का जन्म सड़क  मज़दूरी करने वाले शरणार्थी माता -पिता के यहाँ मनाली में हुआ। देश के अलग अलग राज्यों में शिक्षा पाई।

तेन्ज़िन च़ुन्डू एक अत्यंत संवेदनशील, प्रश्नाकुल कवि तो हैं हीं जो निर्वासन की चेतना से ओतप्रोत तिब्बत के प्रश्न पर बड़े बड़े जोखिम उठाते रहे हैं । चीन की तानाशाही और छिन चुके तिब्बत में जारी उसकी विध्वंसक कार्यकलाप  का विरोध करने वालों में वह अग्रणी हैं ।
आम तिब्बती लामाओं की तरह उनके चेहरे पर अवसाद और सौम्य खामेशी नहीं  बल्कि एक मुखर बांकपन है। तिब्बत उनके रोम रोम में है ,उनकी आंखों में है। वह तिब्बत के बारे में देश में जगह जगह जाकर जागरूकता के अभियान में लगे रहते हैं ।अंग्रेज़ी में लिखने वाले तेन्ज़िन च़ंडू की चार पुस्तकें हैं ।
मैंने धर्मशाला जाकर उनके जीवन, उनके स्वप्न, संघर्ष और उनकी साहित्यिक यात्रा के कई पहलुओं पर एक विस्तृत बातचीत की ।
अग्निशेखर  : आपसे यदि अपना परिचय देने को कहें तो क्या कहेंगे अपने बारे में ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू : मैं जवाब में अपनी कविता 'शरणार्थी ' का एक अंश सुनाता हूँ आपको।
       जब मेरा जन्म  हुआ
       कहा मेरी माँ ने
       एक शरणार्थी हो तुम
       बर्फ में धंसा सड़क किनारे
       तंबु हमारा
       तुम्हारी भौंहों के बीच
       एक 'R' है अंकित
       कहा मेरे शिक्षक ने..
यानी मैं एक पैदाइशी शरणार्थी हूँ  जिसके  माता पिता सन् 1960 में किशोर अवस्था में तिब्बत पर चीनी आक्रमण के बाद जान बचाकर भारत आए । यहाँ उन्होंने कुली का काम किया । रास्ते बनाने की मज़दूरी की। पिता लद्दाख के रास्ते से भाग आए थे और अन्य तिब्बती अरुणाचल,नेपाल,भूटान,सिकिम से आए थे। माता पिता अलग अलग कैंपों में रहे । कुली का काम खत्म होने पर वे अन्य तिब्बती शरणार्थियों की तरह कर्णाटक चले गए।इस तरह मेरी शिक्षा दीक्षा भी अलग अलग जगहों पर हुई।
अग्निशेखर  : आपने अपनी एक कविता में कहा है कि आप उस देश के लिए लड़ते हुए थक गये हैं जिसे आपने कभी नहीं देखा है ।
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : यह एक फ्रस्ट्रेशन की अभिव्यक्ति है ।एक घुटन है।हम दशकों से जुलूस निकालते हैं।संघर्ष करते हैं ।लेकिन बदलता कुछ नहीं । कोई हमारा साथ नहीं देता। मैक्लोडगंज,कुल्लू,
  मनाली,दिल्ली या कहीं भी आप जब जुलूस निकालते हैं तो सब किनारे से तमाशा देखते हैं ।शामिल नहीं होते।आपको लग सकता है कि यह एक अनुष्ठान है,एक अलग तरह रिवाज है ।विरोध नहीं ।इसलिए एक फ्रस्ट्रेशन सी होती है कि हो कुछ नहीं रहा।
लेकिन हम लड़ना जारी रखे हुए हैं ।उसका कोई विकल्प नहीं है ।भले ही मैंने अपनी मातृभूमि देखी नहीं है , मैं उसके लिए लड़ रहा हूँ फिर भी ।
अग्निशेखर  :आपने सन् 2002 में तत्कालीन चीनी राष्ट्रपति के भारत आगमन के अवसर पर मुम्बई में ओबेराय टावर्स की चौदहवीं मंज़िल पर ' तिब्बत को आज़ाद करो' अंकित तिब्बती झंडा और बैनर फहराया था।कुछ प्रकाश डालेंगे उस जोखिम भरी घटना पर ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : यह तिब्बत को चीन द्वारा हड़प लिए जाने और उसकी मुक्ति के उद्देश्य से प्रेरित एक कदम उठाया था मैंने ताकि संसार का ध्यान आकर्षित हो हमारे साथ हुए अन्याय के प्रति ।
मुझे याद है कैसे मुम्बई में छः सौ तिब्बती युवा भूख हड़ताल पर बैठे थे।मैं चुपचाप ओबेराॅय होटल की 14वीं मंज़िल  की स्कैफ़ोल्डिंग पर तिब्बत का राष्ट्रीय झंडा फहराया।वहाँ तत्कालीन चीनी राष्ट्रपति भारतीय व्यापारियों को संबोधित कर रहे थे।मैंने "तिब्बत को मुक्त करो"  का नारा लगाया।। हवा में करीब 500 पर्चों की वर्षा की। गिरफ्तार हुआ।
फिर जब सन् 2006 में चीन के तत्कालीन राष्ट्रपति का भारत दौरा था , मुझे 14 दिन तक धर्मशाला में पुलिस ने हिरासत में रखा।ऐसे किसी भी आंदोलन से जुडे किसी प्रतिबद्ध कवि- कार्यकर्ता के लिए आम बात होती हैं।किसी भी हद तक जाया जा सकता है ।आपतो भली भांति जानते हैं यह सब।
अग्निशेखर: तो " मैं थक गया हूँ " , जिसे आप एक तरह ऊब या फ्रस्ट्रेशन कहते हैं, कविता को क्या आपकी पीढ़ी की समकालीन सोच माना जाए ,जिन्होंने तिब्बत नहीं देखा ..परंतु उसके लिए लडे जा रहे हैं?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू : हाँ ..बिलकुल ।
अग्निशेखर: आप अपनी अग्रज पीढ़ी के संघर्ष को कैसे देखते हैं  ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  :  उस पीढ़ी में नॉस्टेल्जिया बहुत है।वे लोग तिब्बत में रहे।वहाँ पैदा हुए।पले बढे..और उनको मातृभूमि छोड़कर आना पढ़ा।उनके त्रासद अनुभव हैं जो सीधे हैं । वे पहाडों पहाडों भारत आते हैं ।उनका शरीर यहाँ रहता है लेकिन उनकी आत्मा तिब्बत में रहती है ।
अग्निशेखर  : और आप कहाँ रहते हैं ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : दोनों दुनियाओं में ।यहाँ भी और वहाँ भी। जहाँ हमारे माँ- बाप,हमारी अग्रज यादों में रहते हैं ,वहीं हम सपनों में रहते हैं ।दोनों तिब्बत में रहते हैं ।
हममें बचपन में एक दिन तिब्बत वापस जाने का सपना बोया गया ।वो सपना हमारे लिए भविष्य है और तिब्बत की यादें हमारे बडों के लिए अतीत ।दो सोच हैं और साफ साफ हैं।
अग्निशेखर  : इन दोनों संघर्षरत पीढियों में आपसे में तिब्बत को लेकर कोई संवाद है ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : है..लेकिन अब उन्हें लगने लगा है कि वे वापस नहीं पहुँचने वाले। वे बूढे हो गये हैं,उनके घुटने दुखने लग गये हैं । उनके हाथों से सब कुछ निकलता जा रहा है । अब वे नहीं उनके बच्चे यानी हमारी पीढ़ी जाएगी एक दिन ।इसलिए जब मैं थकने की बात करता हूँ तो वो अस्थायी मानसिक अवस्था है,हताशा नहीं।
अग्निशेखर  : कुछ याद है कि बचपन में  तिब्बत आपकी चेतना में कब आया ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : बचपन में नानी से सुनी   की कहानियों से मेरे अंदर तिब्बत साकार हुआ। वह ऊंचा पर्वतक्षेत्र है।वहाँ याक और ड्री नाम के विशेष जानवर होते हैं ।वहाँ दही और पनीर बनाती थी नानी।हमारी वेशभूषा और भाषा तिब्बती है।
मैं नानी से पूछा करता था कि फिर हमारे कैंप के बाहर ये जो भारतीय लोग रहते हैं इनके चेहरे,इनकी भाषा और वेशभूषा अलग क्यों हैं ?
मज़ेदार बात यह कि मैं नानी से पूछता कि ये भारतीय लोग यहाँ क्यों हैं? फिर हर शनिवार और रविवार को एक कन्नडिगा स्त्री हमारी बस्ती में इडली बेचने आती थी ।हम बच्चे दौड़ कर जाते इडली खाने।
इस तरह समझ में आया कि हम तिब्बत से भागकर यहाँ आए हैं ..हम शरणार्थी हैं ।एक बच्चे को जब यह पता चले कि हम यहाँ के नहीं हैं किसी अन्य देश से आए हैं ..उसपर क्या गुज़रती होगी ..कोई कल्पना कर सकता है ? फिर बडे होने पर समझ में आया कि हम हर साल 'तिब्बती विद्रोह दिवस' क्यों मनाते हैं उन हज़ारों  शहीदों की याद में जिन्हें  सन् 1959 में चीनी आक्रमणकारी सेनाओं ने मार डाला।
अग्निशेखर  : मैं यह अच्छे से  समझ सकता हूँ, यह शरणार्थी कैंपों में  हमारे   बच्चों का भी अनुभव है ।
●तेन्ज़िन च़ुन्डू : तो हमारे माता-पिता  को बेबस और अपमानित होकर अपना देश छोड़कर भागना पड़ा है ; और एक बच्चे के लिए संसार में उसके माता-पिता ही पहला गौरव होते हैं ।और अब हम किसी अन्य देश में शरणार्थी हैं ।किसी की सहानुभूति और दया पर रहते हैं और यदि उनका मन बदले तो हमें यहाँ से  जाना होगा ।इस तरह बचपन में एहसास हुआ कि मैं एक शरणार्थी हूँ ।
और शरणार्थी होना कोई शर्म नहीं,क्योंकि  इसके लिए हम ज़िम्मेदार नहीं । शरणार्थी बनने को मैं एक सुअवसर के रूप में देखता हूँ ।आप के लिए भगतसिंह या गाँधी बनने के रास्ते भी खुल सकते हैं । जैसे मेरे पास तीन भाषाएँ हैं ।मातृभाषा जिसमें मैं गाता हूँ, स्थानीय भाषा के अतिरिक्त तीसरी भाषा है -
"रंगज़ेन" (Rangzen) अर्थात् मुक्ति ।रंगज़ेन विमर्श के तौर पर मेरी भाषा है।
अग्निशेखर  : एकबार आप चोरी छिपे तिब्बत पहुँच  गये थे और वहाँ पकड़े भी गये थे। वो सब कैसे हुआ था ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : यह तब की बात है जब मुझ पर अपनी मातृभूमि तिब्बत की एक झलक देखने का जुनून हावी हो गया। तिब्बत केवल मेरी सोची हुई दुनिया में था।मैंने लद्दाख के उत्तरी मैदान  से हिमालय लांघकर अवैध रूप से  तिब्बत में प्रवेश किया और मन बनाया अब तिब्बत में ही बसूंगा।मुझे चीन की सेना ने पकड़ लिया।मेरी पिटाई की । गिरफ्तार किया गया ।और एक दिन किसी तरह मैं उनकी जेल से रिहा हुआ।
अग्निशेखर : आपने शुरु से ही अंग्रेज़ी में लेखन किया अथवा पहले तिब्बती में लिखते थे ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू : मैं शायद तिब्बती भाषा में बेहतर लिख सकता था।लेकिन हमें शुरू से ही बताया गया था कि दुनिया को हमारे बारे में कुछ पता नहीं है ।इसलिए मैंने  बचपन से ही तय किया था कि अंग्रेज़ी में ही लिखूंगा।यों दावा नोरबु के बाद  जमियंग नोरबू, थिरिंग वांग्याल ,तुंडुप जैसे मेधावी बुद्धिजीवी ने ही अंग्रेज़ी में लिखने की सुदृढ़ नींव डाली।
अग्निशेखर  : चूंकि चीन की तानाशाही और उसकी विस्तारवादी नीति के चलते तिब्बत में एक जीनोसाइड हुआ है।आप इसपर क्या कहना चाहेंगे ?
● तेन्ज़िन च़ुन्डू  :  चीन की कोशिश जारी है कि वह तिब्बत में हमारे इतिहास को ,हमारी संस्कृति और आबादी को पूरी तरह से नष्ट करे ।उसने साठ लाख तिब्बती नागरिकों में से दस-ग्यारह लाख लोगों  का जनसंहार किया है ।
इतने भर से उसका पेट नहीं भरा।चीन ने हमारी तिब्बती भाषा और संस्कृति पर धावा बोला है।आप जानते होंगे कि चीन ने तिब्बत में सांस्कृतिक संहार के चलते छः हज़ार बौध विहार नष्ट किए हैं। प्राचीन पांडुलिपियां जला डाली हैं ।कुछ पांडुलिपियां लामा लोग यहाँ साथ ले आए। 'कल्चरल रिवोल्यूशन' के दौरान चीन ने यही नीति चीन में अपनायी।चीन के लोगों के पास उसकी बर्बरता से निपटने का कोई विकल्प न था।तिब्बत में चीन इस दृष्टि से पूर्ण रूप से सफल न हो सका ।
अग्निशेखर  : सो कैसे  ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : इधर सन् 1981-82 के बाद से सुनने में आया कि तिब्बत में लोग अपने बुद्ध धर्म,अपनी संस्कृति और भाषा की ओर फिर से मुड गए हैं ।
अग्निशेखर : कविता के अलावा गद्य की अन्य विधाओं की क्या स्थिति है  तिब्बती  निर्वासन साहित्य में?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : भले ही कम लिखा जा रहा हो, लेकिन कहानी, आत्मकथा,जीवनी, निबंध खूब लिखे गये हैं ।जमियंग नोरबू ने
नाटक लिखे ,उपन्यास लिखे।आपको आश्चर्य होगा कि साहित्य की अपेक्षा हमारे यहाँ संगीत अभिव्यक्ति का सर्वाधिक सशक्त माध्यम है ।लोक साहित्य भी लोकप्रिय माध्यम बना हुआ है। लोग पारंपरिक गीत गाएँगे, 'बोली' करेंगे,नाटक करेंगे । इसी में ज़्यादातर तिब्बत की स्मृति है।उसका बिछोह है।
अग्निशेखर  : कोई उदाहरण देंगे ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : एक लोकगीत गाया जाता है -"एक दिन गुरूजी ( दलाईलामा) को साथ लेकर हम अपने देश वापस जाएँगे।"
पारंपरिक धुनों में नये भावबोध के प्रार्थना गीत गाये जाते हैं-" गुरुजी तिब्बत आ जाएँ ..."
एक लोकगीत में दलाईलामा और पेंचनलामा (मृत्यु 1988) को नायकत्व दिया गया है ।दलाईलामा  स्वाधीनता की मणि की खोज में तिब्बत छोड़ कर गये हैं और उन्होंने अपने पीछे तिब्बती में  प्रजा की देखभाल के लिए पेंचनलामा को रखा है।यह सब पूर्वजन्म के  कर्मों का खेल है ।इस लोकगीत में दलाईलामा के मुंह से कहलवाया गया है कि मेघों के पीछे ढका हुआ सूर्य अवश्य फिर से निकलेगा ।
अग्निशेखर  : क्या निर्वासन की यह केंद्रीय संवेदना चित्रकारों  के यहाँ भी देखने को मिलती है?आपके यहाँ तो थन्का पेंटिंग की समृद्ध परंपरा है।
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : हमारे अधिकांश चित्रकारों ने इधर जो चित्र बनाए हैं उनमें अक्सर प्रतीक रूप में "पोताला" (दलाईलामा का प्राचीन महल), उनका चित्र और तिब्बत का राष्ट्रीय ध्वज भी बनाया हुआ मिलेगा।अमेरिका में हमारे अनेक चित्रकार सक्रिय हैं ।आस्ट्रेलिया में कर्मा फिन्सुक सृजनरत  हैं।
अग्निशेखर  : तिब्बती समाज में साहित्यिक  पत्र पत्रिकाएँ हैं क्या ?
तेन्ज़िन च़ुन्डू  :बहुत ज़्यादा जानकारी नहीं है । एक ज़माने में 'नोरबलिंगा',  'चिलू मेलों','  'सोशल मिरर' साहित्यिक होते थे। तिब्बत लाइब्रेरी का एक ' तिब्बत जर्नल' निकला करता था। उनका एक साहित्यिक ग्रुप होता था -" अनिमाची " जो पुरस्कार भी देते थे।
अग्निशेखर  : आपको कभी कोई सम्मान मिला है ?
तेन्ज़िन च़ुन्डू  : मेरी कोई अपेक्षा भी नहीं ..चार पुस्तकें  लिखी हैं ।
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