Tuesday 19 June 2018

युवा कवयित्री ज्योति साह की छः कविताएँ


1.
माँ
मुझे नहीं जाना स्कूल 
जंगल के रास्ते होते हैं सुनसान, 
युवा कवयित्री ज्योति साह
माँ 
मुझे मत ले जा हाट-बाजार
नहीं खरीदना मुझे लाल-पीले रिबन
नहीं खाना चाट-पापड़ी
घूरते हैं लोग
चाक-चौराहे पर बेहिसाब, 
माँ
सहम जाती हूँ उस वक्त 
जब बकरी को लाते हुऐ 
पीछे किसी को नहीं पाती
दौड़ती हूँ, गिरती हूँ 
द्वार पर आकर
दम भर सांस लेती हूँ,
माँ
सुबह तुम और बप्पा
जब खेत जाते हो
घर की चार दीवारी भी
डराती है मुझे 
एकटक देखती हूँ चारोओर
कौन किधर से आकर नोंच खाये
घबरा जाती हूँ मैं, 
माँ
मत जाया करो
सात कोस दूर पहाड़ चढ़ पानी लाने
प्यास बुझाकर भी घुट जाती हूँ मैं, 
माँ
नहीं पढ़ना / नहीं  बढ़ना
ना ही पंख चाहिए 
ना खुला आसमान, 
माँ
मार दिया होता कोख में ही मुझे 
तकलीफ ना होती इतनी
घुट-घुट कर होती है जितनी,
बप्पा
कब तक स्कूल पहुँचाओगे
छुट्टी में भी लेने आओगे
मजदूरी कटती है तुम्हरी
भरपेट ऱोटी मिलना होता मुश्किल, 
माँ 
तुम कहती ब्याह दो इसे
जाने फिर घरवाला इसका
अब ना हमसे सँभलेगी
नौ बरस अभी हुआ है  मेरा,
माँ 
सच ही तो कहती हो तुम
कर दो ब्याह 
ले लो आज़ादी
फिर मैं उस जानुं या करम ही जाने
क्या होगा ये धरम ही जाने???

2.
एक समय
जब माँऐं रातों में 
बार-बार उठकर
देखे बेटी को, 
जब पिता 
बार-बार
पूछे पत्नी से
गुड़िया घर पर ही है ना
घर पर ही रखना, 
जब माँऐं
खुद ही
लगाने लगे पहरे 
बेटियों पर,
शाम होते ही
वापस लौट आने की
देने लगे नसीहत, 
हर कदम पर 
साथ रहने की सोचे,
जब पिता लाडली को 
स्कूटी से आना-जाना 
बंद करवा दे, 
भाई खुले बालों से ऐतराज़ करे, 
जब लड़कियाँ 
देव-स्थलों में भी
मूर्तियों के सामने
रौंदी जाये
और देवता
असहाय.. अपाहिज हो जाये,
जब लड़कियाँ
स्कूल-कॉलेज
दोस्तों के बीच
असुरक्षित-सी रहने लगे,
अपनों के साथ भी 
असहज महसूस करे
ममत्व भरे स्पर्श से
कतराने लगे,
जब बेटियाँ 
सहमी-सहमी-सी
बंद कमरे में 
सिसकने लगे,
तो समझो
कठिन समय से
गुजर रही है लड़कियाँ... |
चुप रहना.....।।
ये कैसी आज़ादी..?
ना बोलने की..
ना लिखने की..
ना जीने की..
है ये कैसी आज़ादी..?
निरंकुश शासक बैठा है वहाँ..
देखो बस चुप रहना..
कलम को रख दो किनारे
लिखना अब जायज नहीं
पहले फिरंगी थे
अब अपने हैं
मुँह के अंदर 
अनेकों दाँत छिपाये
थोड़ा सावधान रहना
हो सके तो विदेश घूम आओ
परंतु देश में चुप रहना..।।
*पत्रकारिता पर

4.

पिता...
हाँ पिता हूँ मैं
सख्त हैं हाथ मेरे
पसीने से नहाया
खुद से बुदबुदाता
उलझा-उलझा सा रहता
पिता हूँ मैं,
रसोई की नमक
तुम्हारी किताबें
माँ की दवाई
बाबूजी के फटे जूते
पत्नी से रोजमर्रा की पर्ची लेकर
रोज सुबह घर से निकलता
पिता हूँ मैं,
घर - बाहर
हर बात की परेशानी से लड़ता
धूप-धुआँ-बारिश से जूझता
शाम ढले
झोले में राशन खरीद
पुरिये में लेमनचूस लिये
घर लौटता
पिता ही हूँ मैं,
अधपके बालों से लैश
खुद के बारे में जो कभी सोचता नहीं
पीछे खड़े होकर
बच्चों की कामयाबी पर मुस्कुराता है बस
पत्नी के शरमाने पर बच्चा बन जाता जो
दसवीं पास करने पर
बाबूजी के दिये घड़ी को पहना हुआ
हाँ पिता हूँ मैं,
रोज सुबह अखबार पढ़ता
नीम के पेड़ को देखता 
माँ-बाबूजी की तबियत पूछता
बच्चों को नसीहतें देता
हाँ पिता ही तो हूँ मैं||


5.

स्त्रियां
दिख रही है मुझे
आत्मविश्वास से लबरेज स्त्रियां
देहरी लांघ
घूँघट से निकल
हर क्षेत्र में पहचान बनाती स्त्रियां
तवे पर रोटी सेंकती
और सेंसेक्स का ज्ञान रखती स्त्रियां
बच्चे को कंधे पे लाद
घर-आँगन-द्वार
हर जगह उपस्थिति दर्ज कराती स्त्रियां
घर संभालती
बच्चे पालती
वक्त निकालकर खुद भी पढ़ती
और टॉप टेन में आती स्त्रियां
बडें-बुढ़े,आस-पड़ोंस
सबका ख्याल करती
और फिर एकांत में
काव्य रचना करती स्त्रियां,
हर मसालें का स्वाद पहचानती
स्वादिष्ट खाना पकाती
रिश्तों में जान डालती स्त्रियां,
माँ का घर छोड़
पति के घर जाती
नये घर में सामांजस्य बैठाती
दिन-रात खुद को सेवा में लगाती
हरैक के खुशी का ख्याल रखती
और फिर....
"पूरे दिन क्या करती हो?"
का तमगा पाती है स्त्रियां,
बैंको में नोट गिनती
पैप्सीको की CEO बनती
रसोई से संसद तक पहुंचती स्त्रियां,
कहानी लिखती
उपन्यास लिखती
गद्य-पद्य-छंद में
घुल-मिल जाती स्त्रियां,
रसोई में बेलन संग डोलती
फिर स्टेज पर पहुंच
वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाती स्त्रियां,
दिख रही है मुझे
आत्मविश्वास से लवरेज स्त्रियां।।
#ज्योति साहू
हिन्दी प्राध्यापिका
बिहार\झारखंड।।
6.

गली से NH 33
-----------------------

ये जो संकरी गली से
चलकर कुछ दूर
रास्ता निकलता है
NH 33 का
ले जाता है
किशोर से ज़वानी
के बीच के देहातियों को
उड़न खटोले पे बैठा
उस छोर पे
जहाँ की दूधिया/चिकमिक रोशनी
भौचक्क आँखें
ये चकाचक दुनिया
जहाँ सब मिलता/दिखता है
अरे बाप रे!!
लड़कियों की तो पूछो ही मत
आँखें फटी-की-फटी
एक मारता कुहनी
क्या देखता है बे....
दूसरा शरमाता 
जैसे लुगाई 
और बेफिक्र लड़कियाँ
ऊँची हील से 
ठक-ठक किये
निकल जातीं है
बहुत दूर
बेचारा ठगा-सा
गली से NH 33
हाय.......!!
ज्योति साह

पता -ज्योति साह
हिंदी अध्यापिका 
रानीगंज, अररिया
बिहार 854334
8252613779

Saturday 16 June 2018

गंगा

माँ गंगा
हमें क्षमा करना
हम
मनुष्य
बिच्छुओं के वंशज हैं
हम अपनी जननी को ही खा जाते हैं
और हम
सुरक्षा देने वाले साधू को भी
डस लेते हैं

अरमान आनंद

Friday 15 June 2018

युवा कवि रोहित ठाकुर की छः कविताएँ

      1
  टेराकोटा 

 जैसे साईकिल की उतर जाती है चेन
रोहित ठाकुर
ठीक उसी तरह  धरती की चेन क्यों नहीं उतर जाती है
हर बलात्कार के बाद
सभी लड़कियाँ  लड़ रही हैं विश्वयुद्ध
अपने शरीर और आत्मा के बीच
किसी घुसपैठिया के खिलाफ़
हम सब से तुम कोई उम्मीद मत रखना
हम सब टेराकोटा की टूटी हुई मूर्तियाँ हैं   ।।

                  2
अप्रैल तुम फिर कभी मत आना 

अपने कालेज के दिनों में मार्च के बाद
गाँव से पटना आने पर
बस से उतरते ही गला सूखने लगता था
मैंने अप्रैल को कभी पसंद नहीं किया
मैंने यही नापसंदगी कई राहगीरों के चेहरे पर देखा 
मैं अप्रैल से बाहर निकल नहीं सका
अप्रैल मुझे डराता रहा है अब तक
मेरा गला अब भी सूखता है इस महीने में 
अप्रैल कितना अभागा है इस बरस
तुम्हारा हर एक दिन
बर्बरता का नया प्रयोग है हमारी बेटियों पर
एक दिन अप्रैल तुम मरोगे अपने ही यातना गृह में    ।।
             3
          कीलें
मेरी चप्पलों में ठुकी हुई हैं कीलें
मैं कीलों के साथ इस धरती का चक्कर लगा रहा हूँ
मेरी गर्दन में एक झोला टंगा है
मुझे हर जगह दिखाई दे रही है कीलें
बित्ते भर की जगह खाली नहीं है
मैं एक कील चाँद पर ठोक दूंगा
मैं अपना झोला चाँद पर टांग दूंगा 
चाँद की यात्रा पर मेरे साथ होगी कीलें
मैं कीलों को मानता हूँ नियति
मेरे जैसे लोगों के भीतर जो लोहा है
उससे कोई कीलें ही बनायेगा
इस नुकीले समय में
मैं यही उम्मीद करता हूँ   ।।
          4
       संसद 
 संसद कितना असंवेदनशील है
संसद की दीवार कितनी मोटी है
संसद एक उड़नतश्तरी है
मेरे जैसे लोगों के लिए 
एक भूखा आदमी
 समय को चक्रवात के रूप में परिभाषित करता है
एक आदमी अपनी जमीन बेच कर आया है
उसे लगता है कि भूकंप का केंद्र उसके पांव के नीचे है 
सुबह से शाम तक एक आदमी लाइटर बेचता है
एक आदमी बेचता है हवा मिठाई
मैं उन दोनों से आँख मिलाने से बचता हूँ
उनके जीवन में आग और हवा का समीकरण
लगभग चूक गया है  
एक आदमी कहता है की अब क्रांति नहीं होगी
आगे लिखा है कि रास्ता बंद है
एक आदमी पेशाब करते हुए अपने गुस्से को थूक देता है
फिर वह नब्बे के दशक का कोई गाना गुनगुनाता है  
इस संक्रमण काल में जब खतरा बना रहता है
सीटी की आवाज सायरन की तरह सुनाई देती है
बच्चों की टोली हँस रही है
उन्होंने अपने सपने में बहते देखा है भात की नदी को   ।।
         5
        पेड़ 
पेड़ तुम कितने भले हो
तुम्हारी छाँव में बैठते हैं
औरत और मरद जात
गाय - गोरू
बच्चा लोग खेलता है
बारात पार्टी  सुस्ताता है
यह सब देखकर
बहुत अच्छा लगता है 
पेड़ तुम कितने
बुरे लगते हो
जब तुम पर झुलती है
किसी लड़की की लाश
तुम्हारे डाल से लटक कर
किसान आत्महत्या करता है
तुम्हारे डाल से लटका देता है
सबल निर्बल को मारकर 
तुम्हारी जड़ों से होकर
पाताल लोक तक जाता है
मनुष्य का रक्त       ।।
           6
          बसें 
कितनी बसें हैं जो छूटती है
इस देश में
कितने लोग इन बसों में चढ़ कर
अपने स्थान को छोड़ जाते हैं
हवा भी इन बसों के अंदर पसीने में बदल जाती है
इन बसों में चढ़ कर जाते लोग
जेल से रिहा हुए लोगों की तरह भाग्यशाली नहीं होते
ये लोग मनुष्य की तरह नहीं सामान की तरह यात्रा में हैं
ये लोग एक जैसे होते हैं
मामूली से चेहरे / कपड़े / उम्मीद के साथ
जिस शहर में ये लोग जाते हैं
वह शहर इनका नाम नहीं पुकारता
भरी हुई बसों में सफर करता सर्वहारा
नाम के लिए नहीं मामूली सी नौकरी के लिए शहर आता है
ये बसें यंत्रवत चलती है
जिसके अंदर बैठे हुए लोगों के भीतर कुछ भींगता रहता है
कुछ दरकता सा रहता है  ।।
रोहित ठाकुर
परिचय:
नाम  रोहित ठाकुर 
जन्म तिथि - 06/12/ 1978
शैक्षणिक योग्यता  -   परा-स्नातक राजनीति विज्ञान
विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित
विभिन्न कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ 
वृत्ति  -   सिविल सेवा परीक्षा हेतु शिक्षण  
रूचि : - हिन्दी-अंग्रेजी साहित्य अध्ययन 
पत्राचार :- जयंती- प्रकाश बिल्डिंग, काली मंदिर रोड,
संजय गांधी नगर, कंकड़बाग , पटना-800020, बिहार 
मोबाइल नंबर-  7549191353
ई-मेल पता- rrtpatna1@gmail.com 

Wednesday 6 June 2018

वरिष्ठ कवि पंकज चतुर्वेदी की कविता मुग़लसराय सिर्फ़ किसी स्टेशन का नाम नहीं

मुग़लसराय सिर्फ़ किसी स्टेशन का नाम नहीं
---------------------------------------------------

कई बार रेलवे स्टेशन का
प्रतीक्षालय भी
मुझे घर जैसा लगा है
बेशक कम सुविधा
कम इतमीनान
कम समय के लिए
कुछ लोगों का साथ
रहता है

अगर हम वहाँ
रह नहीं सकते
तो घर भी बार-बार
लौट आने के लिए है
रह जाने के लिए नहीं

घर एक सराय है
और दुनिया भी

आराम की जगह
सफ़र में पड़नेवाला
मक़ाम है

इसलिए मुग़लसराय
सिर्फ़ किसी स्टेशन का
नाम नहीं
भारतीय इतिहास की
महान यादगार है

उस नाम को
मिटाने का मतलब है
तुम नहीं चाहते
कि लोग जानें :
कोई यहाँ
कभी आया था
ठहरा था
उसने भी इस देश से
मुहब्बत की थी
इसे बनाया था

तुमको यह भी लगता है
कि तुम इस दुनिया में
रह जाओगे
और जो चले गये
वे कम समझदार थे

पंकज चतुर्वेदी

5 अगस्त, 2017

Tuesday 5 June 2018

राजेश जोशी की कविता एक कवि कहता है

एक कवि कहता है

नामुमकिन है यह बतलाना कि एक कवि
कविता के भीतर कितना और कितना रहता है

एक कवि है
जिसका चेहरा-मोहरा, ढाल-चाल और बातों का ढब भी
उसकी कविता से इतना ज्यादा मिलता-जुलता सा है
कि लगता है कि जैसे अभी-अभी दरवाजा खोल कर
अपनी कविता से बाहर निकला है

एक कवि जो अक्सर मुझसे कहता है
कि सोते समय उसके पांव अक्सर चादर
और मुहावरों से बाहर निकल आते हैं
सुबह-सुबह जब पांव पर मच्छरों के काटने की शिकायत करता है
दिक्कत यह है कि पांव अगर चादर में सिकोड़ कर सोये
तो उसकी पगथलियां गरम हो जाती हैं
उसे हमेशा डर लगा रहता है कि सपने में एकाएक
अगर उसे कहीं जाना पड़ा
तो हड़बड़ी में वह चादर में उलझ कर गिर जायेगा

मुहावरे इसी तरह क्षमताओं का पूरा प्रयोग करने से
आदमी को रोकते हैं
और मच्छरों द्वारा कवियों के काम में पैदा की गयी
अड़चनों के बारे में
अभी तक आलोचना में विचार नहीं किया गया
ले देकर अब कवियों से ही कुछ उम्मीद बची है
कि वे कविता की कई अलक्षित खूबियों
और दिक्कतों के बारे में भी सोचें
जिन पर आलोचना के खांचे के भीतर
सोचना निषिद्ध है
एक कवि जो अक्सर नाराज रहता है
बार-बार यह ही कहता है
बचो, बचो, बचो
ऐसे क्लास रूम के अगल-बगल से भी मत गुजरो
जहां हिंदी का अध्यापक कविता पढ़ा रहा हो
और कविता के बारे में राजेंद्र यादव की बात तो
बिलकुल मत सुनो।

राजेश जोशी

वरिष्ठ कवि राज्यवर्धन की कविताएँ

    1

दोमुँहा
-----------
बजबजा रहे हैं-
दोमुँहे लोग
कल तक जिस मुख से
कुछ कह रहे थे
अब उस मुँह को सिल लिये हैं
दूसरी दिशा के श्रीमुख को
चालू कर लिये हैं

अंड बंड सण्ड  कुछ बक रहै हैं
ये क्या कह रहे हैं
समझने की चेष्टा कर रहा हूँ क्योंकि
शब्द इनके बदल गए हैं
पहले तो ये हाथ में झंडा लिए
जोर जोर से कह रहे थे
लाल सलाम लाल सलाम
कोरस में  मिलकर गा रहे थे-
हम होंगे कामयाब एक दिन
अब शायद  कह रहे हैं
जय श्रीराम जय श्रीराम
हिंदुस्तान में रहना होगा
बन्दे मातरम कहना होगा

तब भी शायद कुछ पाने की आस में हीं
झंडा को थामें होंगे


अब उन्हें लगता है कि
कारवां में कहीं पीछे न छूट न जायें
इसलिये बहुत तेजी से रेंग रहे हैं
मेरुदंड नहीं न हैं इनके

बीच बीच में ये उछल कूद भी कर रहे हैं
मंच के  पास तेजी से पहुँचने के प्रयास में
सुना है वहाँ प्रधान के उप मुख्य के अनुचर के सहायक
पुरस्कार और पद  का वितरण कर रहे हैं
आसन्न  देवासुर संग्राम को देखते हुए

लोभ लाभ की आशा में ये यहाँ भी
निष्ठा और लगन केे साथ
दोहरा रहे हैं
शपथ की पंक्तियां

भौचक्क मत होइये
इन दो मुँहों को देखकर
नशेड़ी हैं
सत्ता के नशा के  बिना ये एक पल  भी नहीं रह  सकते
सत्ता में सेंघमारी की कला में
पारंगत हैं
भोज के आगे हमेशा यही आपको मिलेंगे!

- राज्यवर्द्धन
  5.6.2018
(चित्र:श्यामल दत्ता राय,सभार गूगल)

           2

झूठा सच
------------

वह झूठ को
इस कदर पेश करता है कि
लोगो को सच प्रतीत होता है
फिर उसे इतनी बार  दोहराता कि
सत्य
विस्थापित हो जाता है

और जब वह सच बोलेगा
तो कोई भी नहीं पतियायेगा

एक  दिन
गड़ेरिया के लड़के की तरह
ईशप की कहानियों का शेर
उसे खा जायेगा
और तब
गांव  से बचाने
कोई भी  नही आएगा।

राज्यवर्द्धन
3जून'2015
(चित्र:पिकासो,गूगल सभार)



   3

बाजार

बाजार  शत्रुओं  को  निबटना जनता है
बाजार सत्ता के साथ मिलकर विरोधियों को
निबटा देता है

सत्ता डरती है तो सिर्फ संगठित जनता से
क्योंकि सत्ता को तब
अपनी सत्ता खोने का भय सताता है

विकास
मायावी बाजार का मायाजाल है
सत्ता का ढोल है
मानवता विरोधी विकास
मुट्ठी भर लोगों के काम का है
यदि  बाजार को हराना है तो
संगठित होना होगा जन को
समझना होगा कि
धर्म,जाति,भाषा, प्रांतियता के नाम पर
जो करता है गोलबंद
वह मानवता विरोधी है
हमें एक -दूसरे से लड़ाकर
अपना उल्लू सीधा कर रहे  हैं

जागो
पहचानो अपने  दोस्त को
अपने दुश्मन को

बाजार ने तो चुन लिया है
अपना दोस्त
अपना दुश्मन।

------------
राज्यवर्द्धन
3.6.2016


4

गाय पर मास्टर जी का निबंध
-------------------------------
                     
#बचपन में मास्टर जी ने
गाय पर निबंध लिखने को कहा था
और बताया था कि
गाय एक पालतु चौपाया जानवर है
जिसकी दो आँख ,दो कान और एक पूंछ होती है

गाय दूध देती है
दूध से दही ,छेना ,खोवा और
तरह-तरह की मिठाइयाँ बनती है

गाय गोबर देती है
जिससे खाद बनता है
गोबर की खाद से फसल अच्छी होती है

मास्टर जी ने यह भी बताया था कि
गाय एक परोपकारी जानवर है
जो मरकर भी लोगों को लाभ पहुंचाती है

मारे हुए गाय की खाल से
चमड़ा बनता है
जिससे जूते और चप्पल बनाए जाते हैं

मास्टर जी की बताई बातों को
निबंध में लिखने के बाद
पता नहीं क्यों हमलोग कक्षा में
कोरस में गाते थे-
“गाय हमारी माता है
हमको कुछ नहीं आता है
बैल हमारा बाप है
नंबर देना पाप है!”
और खूब तालियाँ बजाते थे
हँसते थे

गाय पर निबंध लिखाकर मास्टर जी ने
निबंध सिखाने की शुरुआत किए थे

पर पता नहीं क्यों
फिर मास्टर जी ने किसी पालतू जानवर –
भेड़,बकरी या सूअर पर
निबंध लिखने को नहीं कहा

अब देखता हूँ कि
मास्टर जी की सीधी-साधी गाय
चौपाया जानवर से
धीरे-धीरे ताकतवर पशु में तब्दील हो गयी है
पालतू से संसदीय हो गयी है
राजनेता बता रहे है कि
गाय हमारी संस्कृति है
गाय की रक्षा करना
भारतीय सभ्यता और संस्कृति की रक्षा करना है
गौ-मांस को खाने वाले
भारतीय संस्कृति के दुश्मन है

गाय अब भी दूध देती है
गाय की दूध से अब भी मिठाइयाँ बनती है
पर उन मिठाइयों से ज्यादा
गौ-माँस की चर्चा होती है

गौ-माँस  खाने के शक में
किसी की हत्या हो सकती है

गौ-माँस से बने व्यंजन बेचने के जुर्म में पुलिस
किसी भी रेस्त्रां या होटल की तलाशी ले सकती है

गौ-माँस की दावत देकर कोई भी छुटभैया नेता
अपने विरोधी दल को चिढ़ा सकता है
अपनी सियासत चमका सकता है

गौ-माँस खाकर कोई भी अपने को
प्रगतिशील साबित कर सकता है

गौ-माँस
सत्ता और विपक्ष
दोनों के हाथों का हथियार बन गयी है

मेरे देशवासियों !
गाय अब वोट बैंक बन गयी है
मास्टर जी को शायद उस समय पता नहीं था
कि गाय भविष्य में एक राजनीतिक पशु बनने वाली है
नहीं तो जरूर संकेत करते
हो सकता है कि आने वाले दिनों में
शेर के बदले
गाय को राष्ट्रीय-पशु घोषित कर दिया जाय              

-राज्यवर्धन

Saturday 2 June 2018

पंकज चतुर्वेदी की प्रेम कविता मैंने उसे देखा

मैंने उसे देखा

मैंने उसे देखा :
सुंदरता में संपूर्ण
और निरभिमान

जैसे कोई फूल
अपनी पंखुड़ियों की
आभा से अनजान

ठहरी हुई हवा में भी
पीपल के पत्तों का
चंचल और
संगीतमय स्वभाव
या दुख के समुद्र पर
तिरती हुई
प्रसन्नता की नाव

तब यही मेरा प्यार था
कि मैंने अपनी
तकलीफ़ों के
ज़िक्र से उसे
उदास करना नहीं चाहा

अंगिका भाषा मा कैलाश झा किंकर के हाइकु

अंगिका
हाइकु

1
ढूँढ़ै पति में
अनुपम व्यक्तित्व
सब्भे औरत।

2
अप्पन दोष
नज़र नै आबै छै
विचित्र बात ।

3
मौका मिलतें
बदलै छै आदमी
टपकै लार ।

4
दोस्ती के हाथ
हजार के हजार
तैय्यो कंगाल ।

5
कवि के हाल
के पूछै ले बैठल
मरो कि जीओ।

6
स्याही के क्रांति
अहिंसक लड़ाय
एक्के उपाय ।

-कैलाश झा किंकर

Friday 1 June 2018

अरमान आनंद की कविता डायन

मैं हंसूंगी तुम्हारे ऊपर
लगाउंगी अट्टहास
आज होगी मौत मेरे हाथों
तुम्हारी बनायी हुई औरत की
और हो जाउंगी आजाद 
बेख़ौफ़
मैं आजाद स्त्री हूँ
मेरे बाल खुले हैं 
सिन्दूर धुले हैं
मैंने स्तनों को कपड़ों में नहीं बाँधा 
पांव में पायल नहीं पहने
मेरे वस्त्र लहरा रहे है।
तुम मुझे डायन कहोगे
कहोगे मेरे पाँव उलटे है
हाँ मेरे पाँव तेरे बनाये गलियों से उलट चलते हैं
मेरे हाथ लम्बे हैं 
मैं छू सकती हूँ आसमान
मैं निकलूंगी अंधियारी रात में 
बेख़ौफ़ 
तेरे चाँद को कहीं नाले में गोंत कर
और तेरे चेहरे पर ढेर सारी कालिख पोत कर

पत्नी पीड़ित पुरुष आश्रम , औरंगाबाद ( महाराष्ट्र )- Er S. D. Ojha

पत्नी पीड़ित पुरुष आश्रम , औरंगाबाद ( महाराष्ट्र )।
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कौवे में नर कौवा हीं बच्चों को पालता है , जब कि मादा कौवा अण्डे देने के बाद कहीं अन्यत्र चली जाती है । इस हिसाब से कौवा पत्नी पीड़ित हुआ । लेकिन जिस मुस्तैदी से नर कौवा बच्चों का लालन पालन करता है , उससे लगता नहीं कि वह दुःखी है । उसी प्रकार पुरुष भी बहुत हीं चुस्ती फुर्ती से रहते हैं , वे कहीं से भी जाहिर नहीं होने देते कि वे पत्नी पीड़ित हैं ।" "मर्द को दर्द नहीं होता " की तर्ज पर वे घर की विखरी हुई चीजों को सहेजते रहते हैं । वे सोचते हैं कि वे अपना दर्द किसी और के पास लेकर जाएंगे तो लोग हंसेगे ।

खिल्ली उड़ाएंगे । कोई भी यकीन नहीं करेगा कि पति भी पीड़ित हो सकता है ! उसे भी प्रताड़ना मिल सकती है । यही मनोभाव पतियों को जुबां सी लेने के लिए मजबूर करता है । पति चुप रहता है , पत्नियां अपनी मनमानी करती रहती हैं । लेकिन अब समय आ गया है कि पति भी खुलकर अपना दुःख दर्द बयां कर सकते हैं । उनके लिए मसीहा बनकर उभरे हैं भारत फुलारे , जो स्वंय भी पत्नी पीड़ित रह चुके हैं ।
           औरंगाबाद महाराष्ट्र से 12 किलोमीटर दूर शिरडी - मुम्बई हाई वे मार्ग पर भारत फुलारे का पत्नी पीड़ित आश्रम बना है । भारत फुलारे ने अपने 1200 वर्ग गज जमीन पर तीन कमरे का एक मकान बनवाया है । एक कमरा तो आश्रम का कार्यालय है , जिसमें थर्माकोल का एक बहुत बड़ा कौवा रखा गया है । इसे सुबह शाम धूप बत्ती दिखायी जाती है । यह इस पत्नी पीड़ित आश्रम का प्रतीक चिन्ह है । इस आश्रम में प्रवेश करने के अपने कुछ नियम हैं । वे पुरुष हीं इस आश्रम में प्रवेश के हकदार हैं  जिन पर पत्नी ने 20 से अधिक केस कर रखे हैं या वे पुरुष जो पत्नी को गुजारा भक्ता न देने की वजह से जेल जा चुके हों । वे पुरुष भी इस आश्रम में प्रवेश के हकदार हैं जिनकी नौकरी पत्नी की शिकायत करने पर चली गयी हो । भारत फुलारे ऐसे पतियों की बकायदा फाइल तैयार करवाते हैं । उन्हें कानूनी सलाह मुहैय्या करवाते हैं । अब तक हजार से ऊपर लोग भारत फुलारे के आश्रम में आ चुके हैं ।
यह आश्रम लोगों द्वारा दिए गये अनुदान से चल रहा है । आश्रम के लोगों को खाना बनाने में प्रवीणता होना भी जरुरी है । कम से कम उन्हें दलिया खिचड़ी तो अवश्य बना लेना चाहिए । यहां जो भी आता है उसे खिचड़ी खिलाकर आश्रम में प्रवेश दिलाया जाता है । पीड़ा के इस संसार में फंसे पुरुषों को हफ्ते में दो दिन काऊंसलिंग की जाती है । उनके अंतर्मन में बहुत गहरे तक पैठे अवसाद को बाहर निकालने की कोशिश की जाती है । आश्रम का सारा खर्च स्वयं आश्रमवासी हीं उठाते हैं । पीड़ा के इस अद्भुत संसार में सब एक दूसरे की मदद करते हैं । भारत फुलारे नहीं चाहते कि कोई और भी उनकी तरह हीं परेशान हो । भारत फुलारे की पत्नी ने जब उनके ऊपर केस किया था तो सारे नाते रिश्तेदार कन्नी काट गये थे । वे बड़ी मुश्किल से उस परेशानी से मुक्त हुए थे ।

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