Friday 31 July 2020

प्रेमचंद की नज़र में राष्ट्र - प्रो गोपेश्वर सिंह

प्रेमचंद की नज़र में राष्ट्र  : गोपेश्वर सिंह

रामविलास शर्मा ने 1936 ई. को इस अर्थ में विशिष्ट माना है कि इस वर्ष तीन ऐसी रचनाएँ प्रकाशित हुईं जिनमें भविष्य के भारत का सपना था। इनमें पहली रचना आधुनिक भारत के निर्माता जवाहर लाल नेहरू की ‘आत्मकथा’ है। दूसरी रचना लोकनायक जयप्रकाश नारायण की ‘समाजवाद ही क्यों?’ (‘why socialism?’) है जबकि तीसरी रचना प्रेमचंद का निबंध ‘महाजनी सभ्यता’ है। पहली दोनों रचनाएँ पुस्तक रूप में थीं और अंग्रेजी में लिखी गई थीं। ‘आत्मकथा’ सिर्फ नेहरू की निजी कथा न होकर स्वतंत्रता आन्दोलन और स्वतंत्र भारत के आधुनिक जनतांत्रिक सपने की भी कथा है। ‘समाजवाद ही क्यों?’ भारत में समाजवादी व्यवस्था की आवश्यकता पर जोर देने वाली पहली व्यवस्थित पुस्तक है। नेहरू और जे.पी. प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी, अपने-अपने समय के युवा ह्रदय सम्राट तथा गाँधी के बाद देश के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता थे। ऐसे महानों की अति प्रसिद्ध पुस्तकों के साथ रामविलास जी ने हिंदी के लेखक प्रेमचंद के एक निबंध को याद किया है तो इसका विशेष अर्थ है| वे ऐसे लेखक थे जिनकी नजर वर्तमान के साथ बेहतर भविष्य पर भी थी। इसलिए यह अकारण नहीं है कि नेहरू और जे.पी. की पुस्तकों के साथ रामविलास शर्मा प्रेमचंद के निबंध का नाम लेते हैं जो उनकी लेखकीय दृष्टि को समझने के खयाल से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। महाजनी सभ्यता यानी पूँजीवादी सभ्यता। पूँजीवाद के पहले सामंतवादी सभ्यता थी। ये दोनों सभ्यताएँ जनता के शोषण और सामजिक भेदभाव पर आधारित थीं। जो सभ्यता शोषण और भेदभाव पर आधारित हो वह प्रेमचंद को किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं थी। उन्होंने उस सभ्यता का स्वागत किया जिसका सूर्य पश्चिम में उग रहा था। निस्संदेह पश्चिम के उस सूर्य से तात्पर्य रूस में स्थापित समाजवादी व्यवस्था से है। प्रेमचंद ने पूँजीवादी सभ्यता की कठोरतम आलोचना करने के बाद लिखा: “परन्तु अब नई सभ्यता का सूर्य सुदूर पश्चिम से उदय हो रहा है जिसने इस नारकीय महाजनवाद या पूँजीवाद की जड़ खोदकर फेंक दी है जिसका मूल सिद्धांत यह है कि प्रत्येक व्यक्ति, जो अपने शरीर या दिमाग से मेहनत करके कुछ पैदा कर सकता है, राज्य और समाज का परम सम्मानित सदस्य हो सकता है और जो दूसरों की मेहनत या बाप-दादों के जोड़े हुए धन पर रईस बना फिरता है वह पतीततम प्राणी है।”1 
प्रेमचंद भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के गर्भ से पैदा हुए ऐसे लेखक थे जिसके लिए स्वतंत्रता का अर्थ राजनीतिक मुक्ति के साथ सामजिक और आर्थिक मुक्ति भी है। वे पूँजीवादी व्यवस्था के जितने खिलाफ थे, उतने ही सामंती व्यवस्था के भी। जाति, संप्रदाय और गरीबी के सवाल उनके शब्द-कर्म के जरूरी एजेंडे थे। पुराना क्या है जो अप्रासंगिक हो चुका है और नया क्या है जो प्रासंगिक है, उसकी जितनी साफ़ समझ उनके पास थी, वैसी हिंदी के उनके समकालीन किसी दूसरे लेखक के पास शायद ही हो! वे यदि 1936 में ‘महाजनी सभ्यता’ का क्रीटिक तैयार करते हैं तो इसका कारण यह है कि वे पुराने समय और नए समय में फर्क करना ठीक से जानते हैं। 1919 में प्रकाशित उनके ‘पुराना जमाना: नया जमाना’ शीर्षक निबंध को देखने से पता चलता है कि 1936 में वे जहाँ पहुंचे थे उसकी तैयारी वे बहुत पहले से कर रहे थे। अपने उस निबंध में वे लिखते हैं: ”आने वाला जमाना अब जनता का है, और वह लोग पछताएंगे जो ज़माने के कदम-से-कदम मिलाकर न चलेंगे।”2 
ज़माने के कदम-से-कदम मिलाकर चलने की जो सबसे बड़ी कसौटी प्रेमचंद की थी वह थी किसानों की हालत। उनके सारे रचनात्मक और वैचारिक लेख के मूल में किसान जीवन की वास्तविकता और उनकी चिंता सर्वोपरि है। जैसे महात्मा गाँधी के ‘स्वराज’ के केंद्र में गाँव था और गाँव के किसान थे, वैसे ही प्रेमचंद के लेखकीय चिंतन के केंद्र में किसान हैं। ‘पूस की रात’ का हलकू हो या ‘गोदान’ का होरी या उनका वैचारिक लेखन, किसान जीवन की दशा-दुर्दशा और उसका भविष्य उनकी सजग-सचेत नजर से कभी ओझल नहीं होता। ‘पुराना जमाना, नया जमाना’ का एक अंश इस दृष्टि से देखा जा सकता है:  ”क्या यह शर्म की बात नहीं कि जिस देश में नब्बे फीसदी आबादी किसानों की हो उस देश में कोई किसान सभा, कोई किसानों की भलाई का आन्दोलन, कोई खेती का विद्यालय, किसानों की भलाई का कोई व्यवस्थित प्रयत्न न हो... मगर नए ज़माने ने नया पन्ना पलटा है। आने वाला जमाना अब किसानों और मजदूरों का है। दुनिया की रफ़्तार इसका साफ़ सबूत दे रही है। हिंदुस्तान इस हवा से बेअसर नहीं रह सकता। हिमालय की चोटियाँ उसे इस हमले से नहीं बचा सकतीं। जल्द या देर से, शायद जल्द ही, हम जनता को केवल मुखर ही नहीं, अपने अधिकारों की माँग करने वाले के रूप में देखेंगे और तब वह आपकी किस्मतों की मालिक होगी।”3 
प्रेमचंद जिस आधुनिक भारत का सपना देख रहे थे वह ऐसा राष्ट्र-राज्य है जिसमें किसान-मजदूर खुद अपनी किस्मत के मालिक होंगे। वे यह तो मानते हैं कि ‘वर्तमान सभ्यता का सबसे अच्छा पहलू राष्ट्रीयता की भावना का जन्म लेना है।’4 लेकिन सच्ची राष्ट्रीयता उनकी नजर में तब तक नहीं आ सकती जब तक कि सामजिक, आर्थिक और शैक्षणिक गैर बराबरी जनता में है। वे कहते हैं: ”आपका आधुनिक शिक्षा से वंचित भाई आपको इस ठाट में देखता है और यह समझता है कि यह आदमी हममें नहीं है, हम उनके नहीं हैं। फिर चाहे आप कितनी बुलंद आवाज से राष्ट्रीयता की हाँक लगाएँ।”5 वे ‘राष्ट्रीयता’ को आधुनिक सभ्यता का सबसे अच्छा पहलू कहते हैं लेकिन वे यह भी बताते चलते हैं कि ‘जनतांत्रिक’ का समावेश ‘आधुनिक सभ्यता का सबसे प्रधान गुण है।”6 इससे पता चलता है कि प्रेमचंद के लिए जो भविष्य का भारत है उसका ताना-बाना ‘जनतांत्रिकता’ और ‘आधुनिकता’ के रेशे से निर्मित है जिसमें ‘किसान-मजदूर अपनी किस्मत के मालिक’ हैं। लगभग सौ वर्ष पूर्व देखा गया भारतीय राष्ट्र-राज्य का प्रेमचंद का सपना मुहावरे के अर्थ में अब भी सपना है! किसान मजदूर अब भी अपनी किस्मत के मालिक नहीं हैं! हमारी जनतांत्रिक आकांक्षाओं पर अब भी पहरेदारी है! आर्थिक और शैक्षणिक गैर बराबरी की तो बात ही मत पूछिए! “किसानों की हालत और खराब है. गरीबों और अमीरों के बीच खाई और चौड़ी हो चुकी है. समाजवादी दुनिया बिखर चुकी है. ऐसे पूँजीवाद की उनके द्वारा की गई आलोचना का महत्त्व और बढ़ गया है. रामविलास शर्मा ने ठीक ही गणेश शंकर विद्यार्थी के बाद प्रेमचंद को पूँजीवाद का सबसे महत्त्वपूर्ण आलोचक कहा है|7
भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में प्रेमचंद सदेह शामिल नहीं थे। कुछ लोगों को आश्चर्य हो सकता है कि जनता की मुक्ति की बात करने वाला लेखक जनता के मुक्ति-संघर्ष में सदेह शामिल क्यों नहीं होता? उस ज़माने में हिंदी व विभिन्न भारतीय भाषाओं के अनेक लेखक स्वतंत्रता संग्राम में सदेह शामिल थे और उस कारण उन्हें तरह-तरह की यातनाएँ भी झेलनी पड़ीं। ऐसे सभी लेखकों से भारत के मुक्ति-संग्राम को बल मिला। उनके कर्म से भी और उनके शब्द से भी। लेकिन ऐसे भी बहुतेरे लेखक थे जो स्वतंत्रता संग्राम में सदेह शामिल न होकर मनसा-वाचा शामिल थे। उनके लिखे से भारतीय राष्ट्र-राज्य का नया रूप बन रहा था। उनका एक-एक शब्द हजारों-लाखों को प्रेरित-प्रभावित कर रहा था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ऐसे ही लेखक थे जिनसे भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम को नयी ऊर्जा मिलती थी। प्रेमचंद भी ऐसे ही लेखक थे जो भारतीय समाज और राष्ट्र की मुक्ति के मार्ग में बाधक सभी तत्त्वों से लड़ते रहे। अमृत राय ने ‘कलम का सिपाही’ नाम से उनकी जीवनी लिखी है। सही अर्थों में वे कलम के सिपाही थे। वे कलम से स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने वाले हिंदी के सबसे बड़े लेखक थे।
कलम से जिस तरह जनता और राष्ट्र की मुक्ति की लड़ाई प्रेमचंद लड़ रहे थे, उसका सही पता-ठिकाना तभी चलता है जब हम उनके रचनात्मक साहित्य के साथ उनके वैचारिक लेखन को भी देखते हैं। अपने लेखन काल के प्रारंभ से लेकर मृत्यु पर्यंत लगभग तीन दशक का उनका जो वैचारिक लेखन है वह भारत की स्वतंत्रता, स्वावलंबन, आर्थिक-सामजिक गैरबराबरी और विश्व बंधुत्व जैसी अनेक चिंताओं से मुठभेड़ का प्रतिफल है। हम अक्सर उन्हें आर्य समाजी, गाँधीवादी और मार्क्सवादी प्रभावों के सन्दर्भ में देखते-दिखाते हैं। उनके साहित्य पर इनके प्रभाव से किसी को इंकार भी नहीं है। लेकिन उनकी चेतना सबसे अधिक स्वतंत्रता आन्दोलन के मूल्यों से संचालित है। विदेशी दासता से मुक्ति के लिए स्वशासन जरूरी था। लेकिन कैसा स्वशासन? वे सही अर्थों में जनता के शासन के पक्ष में थे और जनता का शासन तब आएगा जब बेजबानों की ताकत जाहिर होने लगेगी। उन्हीं के शब्द देखें...”अब एक फाकाकश मजदूर भी अपनी अहमियत समझने लगा है और धन-दौलत की ड्योढ़ी पर सर झुकाना पसंद नहीं करता। उसे अपने कर्त्तव्य चाहे न मालूम हों लेकिन अपने अधिकारों का पूरा ज्ञान है। वह जानता है कि इस सारे राष्ट्रीय वैभव और प्रभुत्व का कारण मैं हूँ। यह सारा राष्ट्रीय विकास और उन्नति मेरे ही हाथों का करिश्मा है। अब वह मूक संतोष और सर झुकाकर सबकुछ स्वीकार कर लेने में विश्वास नहीं रखता।”8 तो प्रेमचंद इसी मजदूर की हिस्सेदारी ‘स्वशासन’ में सुनिश्चित करना चाहते थे। 
‘स्वदेशी आन्दोलन’ स्वतंत्रता संग्राम का एक बड़ा एजेंडा था। स्वदेशी के बिना भारत राष्ट्र के रूप में खड़ा नहीं हो सकता था। स्वतंत्रता आन्दोलन में महात्मा गाँधी के प्रवेश के बहुत पहले स्वदेशी की माँग जोर-शोर से उठने लगी थी। महात्मा गाँधी के आने के बाद इस आन्दोलन ने और जोर पकड़ा जब वे 1915 में भारत आए। प्रेमचंद 1905 में ‘देशी चीजों का प्रचार कैसे बढ़ सकता है’9  शीर्षक निबंध लिखकर घरेलू उद्योग-धंधों के विकास और उनकी मार्केटिंग के मार्ग में आने वाली बाधाओं की चिंता करते हैं। वे उसी वर्ष ‘स्वदेशी आन्दोलन’ की वकालत करते हैं और उसे ‘देशभक्तिपूर्ण आन्दोलन’10 की संज्ञा देते हैं। ‘स्वराज से किसका अहित होगा?’ (1930) शीर्षक अपने निबंध में वे निर्भय होकर इस संग्राम में सम्मिलित होने की मांग करते हैं। 1931 में ‘देश की वर्त्तमान परिस्थिति’ की चर्चा करते हुए वे किसानों से अपील करते हैं कि ‘महात्मा जी के मार्ग’ से यदि वे हटे तो उन्हें पछताना पड़ेगा। ‘स्वदेशी आन्दोलन’ का जबर्दस्त समर्थन करने के साथ प्रेमचंद भारत और पूरी दुनिया में गोरी जातियों की सभ्यता के अन्यायपूर्ण आचरण और दमन-शोषण की आलोचना करते हैं और उनके पाखंड पर चोट करते हैं। ‘गोरी जातियों का प्रभाव क्यों कम है’ (1931) शीर्षक निबंध में वे लिखते हैं कि “...गोरों ने आदि से ही प्रेम के बल पर नहीं, आतंक के बल पर संसार पर प्रभुत्व जमाया है। वह कालों की नज़रों से अपने ऐबों को छिपाकर अपनी नीतिमता की साख बिठाये थे|”11 अंग्रेजों की अन्यायपूर्ण नीति और गरीब जनता को टैक्स के जरिए लूटने की उनकी आदत के कारण प्रेमचंद को ‘स्वराज की कामना’ का भारतीय जन में ‘जन्म लेना’ स्वाभाविक जान पड़ता है। 
 प्रेमचंद के लिए राष्ट्र का अर्थ सिर्फ कोई निश्चित भू-भाग ही नहीं, उसके आगे भी बहुत कुछ है। उनके लिए राष्ट्र का अर्थ सबसे पहले उस भू-भाग की शोषित, पीड़ित जनता है। ‘नवयुग’ (1932) शीर्षक अपने एक निबंध में राष्ट्र और राष्ट्रीयता की ओर संकेत करते हुए वे लिखते हैं: “राष्ट्र केवल एक मानसिक प्रवृत्ति है। जब यह प्रवृत्ति प्रबल हो जाती है तो किसी प्रांत या देश के निवासियों में भ्रातृभाव जागरित हो जाता है। तब उनमें रुढियों से पैदा होने वाले भेद, पुराने संस्कारों से उत्पन्न होनेवाली विभिन्नताएँ और ऐतिहासिक तथा धार्मिक विषमताएँ, एक प्रकार से मिट जाती हैं।”12 जब तक ‘विविधताएँ’ और ‘विषमताएँ’ किसी राष्ट्र में मौजूद हैं तब तक वह सही अर्थों में राष्ट्र नहीं है। जनता का जिस तरह शोषण है, गरीबी का जैसा साम्राज्य है, गाँवों की जो हालत है, उस पर वे ‘दमन की सीमा’ (1932) शीर्षक निबंध में गंभीर और तल्ख़ टिप्पणी करते हैं। ब्रिटिश सरकार, प्रशासन और जमींदारों को कठघरे में खड़ा करते हुए कहते हैं: “देहात से, सुधार और सहयोग और शिक्षा और स्वास्थ्य और सभी आयोजनाएँ, जिनसे राष्ट्र बनता है, जिनसे उसका विकास होता है, लापता हैं।”13 इसीलिए औरों के लिए राष्ट्र और राष्ट्रीयता का जो भी अर्थ हो, प्रेमचंद के लिए उसका ठेठ भारतीय अर्थ है। उनकी दो टूक राय है,  “राष्ट्रीयता की पहली शर्त वर्ण-व्यवस्था, ऊँच-नीच के भेदभाव और धार्मिक पाखण्ड की जड़ खोदना है।”14 
 जाति भेद की समस्या को भारतीय राष्ट्रीयता की केन्द्रीय समस्या मानते हुए ऐसे लोगों पर प्रेमचंद जोरदार हमला करते हैं जो जाति की श्रेष्ठता और धार्मिक विद्वेष की भावना से भरे हुए हैं। राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद के नकली प्रवक्ताओं को ‘क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं?’ (1934) शीर्षक निबंध लिखकर वे कठघरे में खड़ा करते हैं। वे लिखते हैं: “हम अभी तक केवल मुँह से राष्ट्र-राष्ट्र का गुल मचाते हैं, हमारे दिलों में अभी वही जाति भेद अन्धकार छुपा हुआ है। और यह कौन नहीं जानता कि जाति भेद और राष्ट्रीयता दोनों में अमृत और विष का अंतर है।”15 इसलिए जो पुजारी, पुरोहित और पंडे जातिभेद करते हैं उन्हें वे ‘टके पंथी’ और ‘हिन्दू जाति का कलंक’ कहकर संबोधित करते हैं।
 भारत का विशाल भू-भाग, शस्य श्यामला धरती और यहां की पुरानी अच्छी बातें उन्हें भाती हैं। इस अर्थ में वे सच्चे देश-प्रेमी हैं। इसलिए वे औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति की बात जोरदार ढंग से उठाते हैं। काँग्रेस और महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चलने वाले राष्ट्रीय आन्दोलन की जोरदार वकालत करते हैं। इस विषय पर लिखते हुए उनका राष्ट्रवादी रुझान और उनकी राष्ट्रीयता पूरी बुलंदी पर है। इसलिए ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ जैसी भावना प्रधान देशभक्तिपूर्ण कहानी हो या ‘कर्मभूमि’ जैसा स्वाधीनता संग्राम के झंझावतों से भरा उपन्यास, ‘देशी चीजों का प्रसार कैसे बढ़ सकता है’ (1905) और ‘स्वदेशी आन्दोलन’ (1905) जैसे प्रारम्भिक वैचारिक लेख हों या आर्य समाज, गाँधीवाद और मार्क्सवाद जैसी विचारधाराओं के प्रभाव से गुजरने के बाद अंतिम दिनों के लेख, प्रेमचंद साम्राज्यवाद से भारत की मुक्ति के हमेशा पक्षधर हैं। लेकिन मुक्ति से प्रेरित उनकी राष्ट्रीयता सिर्फ कुछ प्रतीकों तक सीमित नहीं है। वे सिर्फ अपनी सरकार बन जाने से संतुष्ट होने वाले राष्ट्रप्रेमी नहीं हैं। राष्ट्र, जो मेहनतकश जनता से बनता है, वे उस राष्ट्र की मुक्ति के पक्षधर हैं। इसलिए ऐसे राष्ट्रवादियों को जिनके एजेंडे में भेदभाव मिटाना नहीं है, फटकार लगाते हुए वे कहते हैं “राष्ट्रीयता की पहली शर्त है, साम्य का दृढ होना। इसके बिना राष्ट्रीयता की कल्पना ही नहीं की जा सकती।”16  
 सच्ची राष्ट्रीयता का विकास कब होगा? जब समतामूलक समाज बनेगा, जब जाति भेद न होगा। प्रेमचंद हिंदी के इस अर्थ में अकेले लेखक हैं जो जीवन भर जातिप्रथा का विरोध करते रहे। उनका सारा साहित्य जातिप्रथा के विरुद्ध सतत संघर्ष का साहित्य है। सामजिक समता के लिए संघर्ष करते हुए वे कभी आर्थिक गैर बराबरी को नहीं भूलते। इसीलिए वे ‘स्वराज्य’ के साथ-साथ ‘आर्थिक स्वराज्य’ का प्रश्न उठाते हैं। अपनी एक टिप्पणी ‘आर्थिक स्वराज्य’ (1933) में वे आर्थिक और राजनैतिक स्वराज्य दोनों को एक-दूसरे का पूरक मानते हुए दिखाई देते हैं। उसी वर्ष की अपनी एक दूसरी टिप्पणी ‘अविश्वास’ में वे यही बात और साफ़ तरीके से कहते हुए दिखाई देते हैं। वे लिखते हैं “अधिकांश भारतीय स्वराज्य इसलिए नहीं चाहते कि अपने देश के शासन में उनकी आवाज ही पहले सुनी जावे, पर स्वराज्य का अर्थ उनके लिए आर्थिक स्वराज्य होता है। अपने प्राकृतिक साधनों पर अपना अधिकार, अपनी प्राकृतिक उपजों पर अपना नियंत्रण, अपनी वस्तुओं का स्वच्छंद उपभोग और अपनी पैदावार पर अपनी इच्छानुसार मूल्य लेने का स्वत्व- यही उनकी सबसे बड़ी, सबसे पहली, सबसे उत्कृष्ट माँग है। यह माँग स्वराज्य का अंग नहीं, स्वराज इसी माँग का अंग है।”17 इस तरह प्रेमचंद का स्वराज्य, उनके भारत का सपना, आर्थिक आत्मनिर्भरता से अलग नहीं था। भारत में आज भी किसानों-मजदूरों और आदिवासियों की आर्थिक पर निर्भरता, उनके अपने ही साधनों पर अपने अधिकार न होने पर हिंदी के कितने लेखक चिंतित दिखाई देते हैं? प्रेमचंद स्वराज्य के साधन के रूप में सबसे पहला स्थान इसीलिए ‘स्वावलंबन’ को देते हैं।18 
यह सही है कि प्रेमचंद भारत के लिए जिस स्वराज्य का स्वप्न देखते थे, वह ‘आर्थिक स्वराज्य’ से भिन्न न था। लेकिन वे उसके आगे सोशलिज्म का समर्थन करते हुए भी देखे जाते हैं। अपनी एक टिप्पणी ‘रूस में समाचार पत्रों की उन्नति’ (1933)  में जहाँ वे सोवियत संघ की प्रशंसा करते हैं, वहीँ वे भारत के नेताओं में जवाहरलाल नेहरू की उनके समाजवादी विचारों के लिए खुलकर तारीफ़ करते हैं। नेहरू के एक व्याख्यान की चर्चा करते हुए लिखते हैं, जैसे नेहरू उनके ही मन की बात कह रहे हों। प्रेमचंद के शब्द हैं, “श्री जवाहर लाल नेहरू ने अपने व्याख्यानों में वैज्ञानिक साम्यवाद (साइंटिफिक सोशलिज्म) शब्द का प्रयोग किया। आपका अभिप्राय यह था कि वर्तमान समाज में मनुष्य-मनुष्य में जो भीषण असमानता है, वह दूर हो। यह ठीक नहीं है कि एक मनुष्य के पास अथाह धन भरा पड़ा हो और दूसरा मनुष्य भूखा मरता हो। समाज का इस प्रकार संगठन होना चाहिए जिससे कोई मनुष्य भूखा न रहने पावे, सबको पर्याप्त अन्न और वस्त्र मिले और सबको उन्नति करने का समान अवसर हो।”19 1930 के दशक में जवाहर लाल नेहरू की जो छवि जनता में थी वह प्रेमचंद के उक्त कथन में दिखती है। 
 प्रेमचंद की राष्ट्रीय भावना कभी अंध-राष्ट्रवाद का रूप ग्रहण नहीं करती। वे अपने राष्ट्र से प्रेम तो करते हैं, पर विश्वबंधुत्व की भावना को तिलांजलि देकर नहीं। वे राष्ट्रीय आन्दोलन के समर्थक हैं, लेकिन उस अंध-राष्ट्रवाद के समर्थक नहीं हैं जो विश्वबंधुत्व का शत्रु है। इसीलिए वे अंध-राष्ट्रवाद की आलोचना करते हैं और अंतरराष्ट्रीयता को भारत के पुरातन सन्देश ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ से जोड़कर देखते हैं। राष्ट्र की सेवा, उसकी स्वतंत्रता आदि सवालों को वे राष्ट्रीय भावना के अंतर्गत रखते हैं, लेकिन जब हमारा राष्ट्रीय हित पड़ोसी मुल्क के हित के खिलाफ हो जाए, दूसरे देशों के अस्तित्व के लिए खतरा हो जाए तो वह अंध-राष्ट्रवाद में बदल जाता है। प्रेमचंद ऐसी अन्ध-राष्ट्रीयता के विरोध में हैं। अपनी एक टिप्पणी ‘राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता’ (1933) में वे अंध-राष्ट्रीयता की तुलना मध्ययुगीन साम्प्रदायिकता से करते हैं। वे लिखते हैं: “राष्ट्रीयता वर्त्तमान युग का कोढ़ है, उसी तरह मध्यकालीन युग का कोढ़ साम्प्रदायिकता थी। नतीजा दोनों का एक है। साम्प्रदायिकता अपने घेरे के अन्दर पूर्ण शांति और सुख का राज्य स्थापित कर देना चाहती थी, मगर उस घेरे के बाहर जो संसार था उसको नोचने-खसोटने में उसे जरा भी मानसिक क्लेश न होता था। राष्ट्रीयता भी अपने अपरिमित क्षेत्र के अन्दर रामराज्य का आयोजन करती है। उस क्षेत्र के बाहर का संसार उसका शत्रु है। सारा संसार ऐसे ही राष्ट्रों या गिरोहों में बंटा हुआ है और सभी एक-दूसरे को हिंसात्मक संदेह की दृष्टि से देखते हैं और जब तक इसका अंत न होगा संसार में शांति का होना असंभव है। जागरुक आत्माएँ संसार में अंतरराष्ट्रीयता का प्रचार करना चाहती है और कर रही हैं। लेकिन राष्ट्रीयता के बंधन में जकड़ा हुआ संसार उन्हें ड्रीमर या शेखचिल्ली समझकर उनकी उपेक्षा करता है।”20 उसके आगे वे लिखते हैं: “इसमें तो कोई संदेह नहीं कि अंतरराष्ट्रीयता मानव संस्कृति और जीवन का बहुत ऊँचा आदर्श है और आदि से संसार के विचारकों ने इसी आदर्श का प्रतिपादन किया है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ इसी आदर्श का परिचायक है।”
 अंतरराष्ट्रीयता के सम्बन्ध में प्रेमचंद की यह धारणा अचानक नहीं बनती है। देश में जो स्वाधीनता संघर्ष चल रहा था उसका लक्ष्य निश्चित रूप से स्वतंत्रता की प्राप्ति था। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारतवासियों में राष्ट्रीय भावना का जागरण आवश्यक था। किन्तु हमारे राष्ट्र नायकों ने दूसरे राष्ट्रों की कीमत पर अपने राष्ट्र की मुक्ति और उन्नति की कामना नहीं की। उसका प्रभाव भारतीय साहित्य और हिंदी साहित्य पर भी पड़ा। हिंदी साहित्य की चेतना स्वस्थ राष्ट्रीयता के साथ उदार अंतरराष्ट्रीयता से निर्मित हुई। प्रेमचंद की राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता उसी चेतना की उपज है। इस सम्बन्ध में प्रेमचंद के पूर्ववर्ती महावीर प्रसाद द्विवेदी के भी विचारों को देखना उचित होगा। राष्ट्र-प्रेम जब संकुचित होकर दूसरे देश के विरोध में चला जाए, इसको द्विवेदी जी ‘धूर्तों के भयंकर ढोंग’ के अंतर्गत रखते हुए अंतरराष्ट्रीयता को प्रमुखता से रेखांकित करते हैं और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के प्राचीन भारतीय आदर्श को आधुनिक सन्दर्भ में प्रासंगिक बताते हैं।21 द्विवेदी जी ने ठीक ही इस सम्बन्ध में रवीन्द्रनाथ ठाकुर को भी याद किया है जिनका चिंतन राष्ट्रीयता के साथ अंतरराष्ट्रीयता के विचारों को पुष्ट करता है। द्विवेदी जी अंधराष्ट्रीयता को यूरोप की देन मानते हैं और इसे भारत की स्वाभाविक वृत्ति नहीं मानते। कहने की जरुरत नहीं कि प्रेमचंद उसी धारा से निकले हिंदी चेतना के मुखर स्वर हैं। 
 एक तरफ काँग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन चल रहा था तो दूसरी तरफ मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की सांप्रदायिक राजनीति थी। प्रेमचंद लीग और सभा दोनों की सांप्रदायिक राजनीति का विरोध करते हैं और कांग्रेस के नेतृत्व में चलने वाले मुक्ति संघर्ष के पक्ष में खड़े रहते हैं। साम्प्रदायिकता को वे राष्ट्रीयता का शत्रु मानते हैं और सभी सम्प्रदायों के बीच मेल मुहब्बत का माहौल बनाने में अपनी सारी लेखकीय ऊर्जा झोंक देते हैं। वे धर्म के आधार पर आधुनिक राष्ट्र-राज्य की कल्पना के विरुद्ध हैं। अपनी एक टिप्पणी ‘पाकिस्तान की नयी उपज’ (1933) में वे न सिर्फ मुहम्मद इकबाल के धर्म के आधार पर पाकिस्तान के निर्माण संबंधी प्रस्ताव का विरोध करते हैं, बल्कि यह भी कहना नहीं भूलते कि धर्म राष्ट्र निर्माण का आधार नहीं हो सकता।”22 वे धर्म के ऊँचे भावों का सम्मान करते  हैं, उसे जीवन में उतारने की बात करते भी हैं, लेकिन उसके संकीर्ण अर्थ का हमेशा विरोध करते हैं। 
 सांप्रदायिक ढंगों पर, हिन्दू-मुस्लिम समस्याओं पर उन्होंने जितनी अधिक मात्रा में जोरदार टिप्पणियाँ लिखी है, उतनी और वैसी हिन्दी के किसी दूसरे लेखक ने शायद ही लिखी हों। सांप्रदायिकता को ‘विष’ समझनेवाले प्रेमचंद सांप्रदायिक राजनीति के पीछे की उस चतुराई को भी बेनकाब करते हैं जो संस्कृति का रूप धारण कर तरह-तरह से राष्ट्रीय जीवन में जहर घोलने का काम करती है। ‘सांप्रदायिकता और संस्कृति’(1934) नामक अपने प्रसिद्ध निबंध में उन्होंने साफ शब्दों में कहा है: “सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जानवरों पर रौब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है। अब संसार में केवल एक संस्कृति है और वह है आर्थिक संस्कृति मगर हम आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोए चले जाते हैं।“23 सांप्रदायिकता, अंधविश्वास आदि की आलोचना करते हुए वे आगे लिखते हैं: “ये जमाना सांप्रदायिक अभ्युदय का नहीं है। ये आर्थिक युग है और आज वही नीति सफल होगी जिससे जनता अपनी आर्थिक समस्याओं को हल कर सके, जिससे ये अंधविश्वास और ये धर्म के नाम पर किया गया पाखंड या नीति के नाम पर गरीबों को दुहने की कथा मिटाई जा सके।”24
  प्रेमचंद का एक प्रसिद्ध वाक्य कहावत की तरह हिंदी समाज में लोगों की जुबान पर है, जो उनकी कहानी ‘आहुति’ का है: “ऐसे स्वराज का आना व्यर्थ है जिसमें जॉन की जगह गोविंद गद्दी पर बैठ जाए।” इसीलिए ठीक ही रामविलास शर्मा ने उन्हें ‘स्वाधीनता-संग्राम के सैनिक साहित्यकार’25 के रूप में याद किया है|उनके मन में ‘स्वराज’ और ‘राष्ट्र’ का जो चित्र था वह बहुत साफ था। वे सिर्फ पात्र परिवर्तन के नहीं, व्यवस्था परिवर्तन के हिमायती थे। वे जाति-भेद के सवाल पर अम्बेडकर की तरह, संप्रदाय-भेद पर गाँधी की तरह और अमीरी-गरीबी के सवाल पर एक समाजवादी की तरह सोचते थे। जीवन, समाज और राष्ट्र के इतने व्यापक धरातल को छूने वाले वे हिंदी के सबसे बड़े लेखक थे। गाँधी के नेतृत्व में काँग्रेस ने प्रस्ताव पारित कर स्वराज के जिस रूप का संकल्प लिया था, उस पर प्रेमचंद ने अपनी एक टिप्पणी ‘काँग्रेस’ (1931) में लिखा: “अब काँग्रेस का ध्येय राष्ट्र के सामने है। वह गरीबों की संस्था है, गरीबों के हितों की रक्षा उसका प्रधान कर्तव्य है। उसके विधान में मजदूरों, किसानों और गरीबों के लिए वही स्थान है जो अन्य लोगों के लिए। वर्ग, जाति, वर्ण आदि के भेदों को उसने एकदम मिटा दिया है।”26 प्रेमचंद की नजर में ‘स्वराज्य’ के लिए लड़ने वाली काँग्रेस का यही रूप था! अफसोस यह है कि यह देखने के लिए वे जीवित न रहे ! ‘स्वराज्य’ तो आया किन्तु भारत वैसा राष्ट्र-राज्य नहीं बन सका जिसका वे सपना देखते थे| 
संदर्भ सूची:
1. Anavaratblogspot.in
2. विविध प्रसंग; भाग-1, पृष्ठ- 269 
3. वही, पृष्ठ- 268
4. वही, पृष्ठ- 259
5. वही
6. वही
7. भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद, पृष्ठ- 275
8. वही, पृष्ठ- 264 
9. वही, पृष्ठ- 15
10. वही, पृष्ठ- 20 
11. विविध प्रसंग; भाग-2, पृष्ठ- 77-78 
12. वही, पृष्ठ- 98
13. वही, पृष्ठ- 92
14. वही, पृष्ठ- 476
15. वही, पृष्ठ- 470
16. वही, पृष्ठ- 471
17. वही, पृष्ठ- 152
18. वही, पृष्ठ- 272
19. वही, पृष्ठ- 222 
20. वही, पृष्ठ- 334 
21. महावीर प्रसाद द्विवेदी रचना संचयन; संपादक: भरत यायावर, ‘समस्या’ शीर्षक निबंध। 
22. विविध प्रसंग; भाग-2, पृष्ठ- 409-10 
23. Krantiswarblogspot.in
24. वही
25. प्रेमचंद और उनका युग ,पृष्ठ -122
26. वि.प्र.,भाग-2, पृष्ठ-75  
Add: 38/4, छात्र मार्ग,
दिल्ली विश्वविद्यालय                                                                                                                                              दिल्ली- 110007
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Thursday 23 July 2020

कुँवर नारायण की रचना आत्मजयी आज के मनुष्य को बेहतर अभिव्यक्ति देने का एक बेहतर उदाहरण है : अरुणाभ सौरभ

कुँवर नारायण की आत्मजयी को प्रकाशित हुए पचास साल से ज्यादा हो चुके हैं। इन पचास सालों में कुँवर जी ने कई महत्त्वपूर्ण कृतियों से भारतीय भाषा का मान बढ़ाया है । आत्मजयी काव्य इनकी सर्जना का एक बेहतरीन उदाहरण है। जीवन और मृत्यु के अंतर्संबंधों की बुनियाद पर इस कविता की रचना हुई है। इसकी भूमिका में कुँवर जी लिखते हैं-

''नचिकेता की चिन्ता भी अमर जीवन की चिन्ता है। ‘अमर जीवन’ से तात्पर्य उन अमर जीवन-मूल्यों से है जो व्यक्ति-जगत् का अतिक्रमण करके सार्वकालिक और सार्वजनिक बन जाते हैं। नचिकेता इस असाधारण खोज के परिणामों के लिए तैयार है। वह अपने आपको
कुँवर नारायण
इस धोखे में नहीं रखता कि सत्य से उसे सामान्य अर्थों में सुख ही मिलेगा, लेकिन उसके बिना उसे किसी भी अर्थ में सन्तोष मिल सकेगा, इस बारे में उसे घातक सन्देह है। यम से-साक्षात् मृत्यु तक से-उसका हठ एक दृढ़ जिज्ञासु का हठ है जिसे कोई भी सांसारिक वरदान डिगा नहीं सकता।''

'आत्मजयी' में मृत्यु से साक्षात को कठोपनिषद की कथा को अपनी व्याख्या के साथ कुँवर जी ने प्रस्तुत किया है ।  नचिकेता अपने पिता की आज्ञा, 'मृत्य वे त्वा ददामीति' अर्थात मैं तुम्हें मृत्यु को देता हूँ, को शिरोधार्य करके यम के द्वार पर चला जाता है, जहाँ वह तीन दिन तक भूखा-प्यासा रहकर यमराज के घर लौटने की प्रतीक्षा करता है। उसकी इस साधना से प्रसन्न होकर यमराज उसे तीन वरदान माँगने की अनुमति देते हैं। नचिकेता इनमें से पहला वरदान यह माँगता है कि उसके पिता वाजश्रवा का क्रोध समाप्त हो जाए।

        ‘आत्मजयी’ ने ना सिर्फ़ हिन्दी अपितु भारतीय भाषाओं में अपनी एक खास उपस्थिति दर्ज़ की है और सर्वत्र प्रशंसित हुआ है। इसका मूल कथासूत्र कठोपनिषद् में नचिकेता के प्रसंग पर आधारित है।  एक आख्यान के पुराकथात्मक पक्ष को कवि ने आज के मनुष्य की जटिल मनःस्थितियों से जोड़ा है। आज के मनुष्य को बेहतर अभिव्यक्ति देने का एक बेहतर उदाहरण आत्मजयी है । जीवन के साथ-साथ उसकी अनश्वरता, जीने की उत्कट लालसा और मृत्यु की उदात्त भारतीय प्रेरणा इसके मूल में है । एक ऐसे सत्य से साक्षात कराती कविता है यह जिसमें मरणधर्मा व्यक्ति जीवन से बड़ा, या चिरस्थायी हो। यही मनुष्य को सांत्वना दे सकता है कि मर्त्य होते हुए भी वह किसी अमर अर्थ में जी सकता है। 

पिछली पूजाओं के ये फूटे मंगल-घट।
किसी धर्म-ग्रन्थ के
पृष्ठ-प्रकरण-शीर्षक-
सब अलग-अलग।
वक्ता चढ़ावे के लालच में
बाँच रहे शास्त्र-वचन,
ऊँघ रहे श्रोतागण !...

ओ मस्तक विराट,
इतना अभिमान रहे-
भ्रष्ट अभिषेकों को न दूँ मस्तक 
न दूँ मान..
इससे अच्छा
चुपचाप अर्पित हो जा सकूँ
दिगन्त प्रतीक्षाओं को....

                   मनुष्य जीवन से केवल कुछ पाने की ही आशा पर चलने वाला प्राणी होगा तो वह सिर्फ़ असहाय होगा । जब वह जीवन को कुछ दे सकने वाला  मनुष्य होगा तभी जीवन की समर्थता को समझेगा। फिर यह चिन्ता सहसा व्यर्थ हो जाएगी कि जीवन कितना असार है-उसकी मुख्य चिन्ता यह होगी कि वह जीवन को कितना सारपूर्ण बना सकता है। मुक्तिबोध की इन पंक्तियों की तरह- ''अब तलक क्या किया जीवन क्या जीया''। ‘आत्मजयी’ मूलतः मनुष्य की रचनात्मक सामर्थ्य में आस्था की पुनःप्राप्ति की कहानी है। यह कविता अपने साथ कुछ मूलवर्ती आस्थाओं को साथ लेकर चलती है ।  आज का मनुष्य केवल लघुमनाव नहीं है । वह जीवन की जटिलताओं और अर्थों से संवाद करता है। उसकी नियति जटिल है,परिणति भी जिसको समझते हुए इस कविता में जटिल नियति से गहरा काव्यात्मक आत्मसाक्षात्कार है।

''मेरे उपकार-मेरे नैवेद्य-
समृद्धियों को छूते हुए
अर्पित होते रहे जिस ईश्वर को
वह यदि अस्पष्ट भी हो
तो ये प्रार्थनाएँ सच्ची हैं...इन्हें
अपनी पवित्रताओं से ठुकराना मत,
चुपचाप विसर्जित हो जाने देना
      समय पर....सूर्य पर...''

कुँवर जी ने भूमिका में लिखा है-
''‘आत्मजयी’ में ली गयी समस्या नयी नहीं-उतनी ही पुरानी है (या फिर उतनी ही नयी) जितना जीवन और मृत्यु सम्बन्धी मनुष्य का अनुभव। इस अनुभव को पौराणिक सन्दर्भ में रखते समय यह चिन्ता बराबर रही कि कहीं हिन्दी की रूढ़ आध्यात्मिक शब्दावली अनुभव की सचाई पर इस तरह न हावी हो जाये कि ‘आत्मजयी’ को एक आधुनिक कृति के रूप में पहचानना ही कठिन हो। उपनिषद् यम, नचिकेता, आत्मा, मृत्यु, ब्रह्म...किसी भी नये कवि के लिए इन प्राचीन शब्दों की अश्वत्थ जड़ें, प्रेरणा शायद कम, चेतावनी अधिक होनी चाहिए। फिर भी मैंने यदि इस बीहड़ वन में प्रवेश करने का दुस्साहस किया, तो उसका एक कारण यह भी था कि मुझे ये शब्द वास्तव में उतने बीहड़ नहीं लगे जितने उन्हें ठीक से न समझने वाले व्याख्याकारों ने बना रखा है। उन्हें आधुनिक व्यक्ति की मानसिक अवस्थाओं के सन्दर्भ में भी जाँचा जा सकता है। ऐसी आशा ने भी इस ओर प्रेरित किया''

            आत्मजयी के मूल में आधुनिक मनुष्य का द्वन्द्वग्रस्त मन है ।विचारशील मनुष्य कहाँ तक जाकर सोच सकता है, इसकी पूरी परिणति कविता का ऊत्स है ।  कुंवर नारायण अपनी रचनाशीलता में इतिहास और मिथक के माध्यम से वर्तमान को देखने के लिए जाने जाते है। उनका रचना संसार इतना व्यापक एवं जटिल है कि उसे किसी खाँचों में नहीं बाँटकर देख सकते। मिथकों का सर्वाधिक सार्थक उपयोग आधुनिक हिन्दी कविता में कुँवर जी ही करते हैं । पर हाँ मिथकों के उपयोग केआर समय भी उनकी दृष्टि सर्वथा आधुनिक भारतीय बुद्धिजीवी की रहती है। आधुनिक हिन्दी कविता में इतनी वस्तु व्यंजकता भी अकेले कुँवर जी के पास है । इतिहास और पुराख्यान को कथातत्त्वों से बुनकर उन्होने सधी हुई कविता की है। बहुलार्थ तत्त्वों की प्रधानता इनकी रचनात्मक विशेषता है। एक खास बात कुँवर जी के पास है कि पुराख्यान और मिथकों कि कथावस्तु को उठाते समय वो सिर्फ़ भारतीय कथाख्यानों तक सीमीत ना रहकर ग्रीक की, लैटिन की ज़मीन से अपनी कथा को जोड़ते हैं। यही एक खास वजह है जिससे उनकी कविता कहीं से भी भटकती नहीं है। और अपनी अनथक यात्रा पूरी कर लेती है, जिसकी स्वाभाविक माँग कविता से थी । आत्मजयी की भूमिका में ही कुँवर जी लिखते हैं -

''यूनानी पुरा कथाओं की ही तरह भारतीय पुराकथाएँ भी आरम्भ में रहस्यवादी ढंग की नहीं थीं, मनुष्य और प्रकृति के बीच बड़े ही घनिष्ठ सम्बन्धों का रोचक और जीवन्त कथा—रूप थीं। लेकिन आज हिन्दू धर्म  और हिन्दू पौराणिक अतीत को अलग कर सकना लगभग असम्भव है; जबकि ग्रीक पुराकथाएँ ईसाई धर्म और यूरोपीय रहस्यवाद से लगभग अछूती रहीं। भारतीय पुराकथाओं पर परिवर्ती धार्मिक रंग इतना गहरा है कि उसे विशुद्ध मानवीय महत्त्व दे सकना  कठिन लगता है। ग्रीक पुराकथाओं में आदि-मानव की अन्तः प्रकृति का अधिक अरंजित रूप सुरक्षित मिलता है। इसीलिए कामू का ‘सिसीफ़स’ या जेम्स जॉयस का ‘यूलिसिस’ पुराकथात्मक चरित्र होते हुए भी धार्मिक चरित्र नहीं लगते—उन्हें ‘साहस’ जैसे नितान्त मानवीय गुण का प्रतीक मानकर चलने में उस प्रकार का धार्मिक व्यवधान बीच में नहीं आता, जैसा अवतारवाद के कारण भारतीय देवी-देवताओं के साथ आता है।'' 

                 आत्मजयी में रहस्यवाद के धुंधलकों को पाटकर शास्वत मूल्यों की तलाश की गयी है। यह एक विराट कविता है । विराटता को प्रमाणित करने हेतु इसमें कई अर्थ संदर्भ हैं। पुराख्यान होकर भी कुँवर जी की दृष्टि कहीं से भी धार्मिक नहीं लगती । धार्मिकता और रहस्यों के आवरण से इस कविता को मुक्त रखा गया है। दार्शनिक विवेचन की चरम परिणति तक कविता जाती है । दार्शनिक सूत्रों और प्रमेयों के बीच कई जगह पर कविता अबूझ भी हो जाती है । कविता की असफलता भी इसकी दार्शनिक विवेचना है। जीवन-मृत्यु और आज के मनुष्यों की स्वाभाविकता को बनाए रखने के संतुलन के बीच आत्मजयी कविता कई जगह पर असंतुलित भी हुई है। कई जगहों पर टूटती है, बिखरती है । फिर भी संभलकर कवि पुरा कथा को फिर से कविता की तरफ खींचता है । कुँवर जी के बहुधा अधीत मानस होने के कारण ही ऐसा संभव हुआ । 

 ओ मस्तक विराट,

अभी नहीं मुकुट और अलंकार।
अभी नहीं तिलक और राज्यभार।

तेजस्वी चिन्तित ललाट। दो मुझको
सदियों तपस्याओं में जी सकने की क्षमता।
पाऊँ कदाचित् वह इष्ट कभी
कोई अमरत्व जिसे
सम्मानित करते मानवता सम्मानित हो।

                            इतिहास और दार्शनिकता के स्थान पर कुँवर जी की मूल चिंता इस कविता में नचिकेता के मानवीय स्वरूप को स्थापित करना है। जिसे उन्होने इसकी भूमिका में स्पष्ट कर दिया है --''

नचिकेता का प्रसंग इस दृष्टि से मुझे विशेष उपयुक्त लगा कि वह मुख्यतः धार्मिक क्षेत्र का न होकर दार्शनिक क्षेत्र का ही रहा, जहाँ वैचारिक स्वतन्त्रता के लिए अधिक गुंजाइश है। दूसरे, नचिकेता के बाद में जो थोड़ा-बहुत साहित्य लिखा भी गया है उसकी ऐसी साश्वत परम्परा नहीं जो उसे फिर कोई नया साहित्यिक रूप देने में बाधक हो—न अब तक इस आख्यान के पुराकथात्मक पक्ष को ही इस प्रकार लिया गया है कि वह आज के मनुष्य की जटिल मनःस्थितियों को बेहतर अभिव्यक्ति दे सके। इसीलिए मैंने ‘आत्मजयी’ के धार्मिक या दाशर्निक पक्ष की विशेष चिन्ता न करके उन मानवीय अनुभवों पर अधिक दबाव डाला है जिनसे आज का मनुष्य भी गुज़र रहा है, और जिनका नचिकेता मुझे एक महत्त्वपूर्ण प्रतीक लगा।''

                               नचिकेता,यम और पिता वाजश्रवा ये तीन पात्र ही इस विराट कविता मुख्य पात्र हैं । जब कुँवर जी वाजश्रवा का चित्र खींचते हैं तो स्पष्ट हो जाता है -

"पिता, तुम भविष्य के अधिकारी नहीं, 
क्योंकि तुम ‘अपने’ हित के आगे नहीं सोच पा रहे,
न अपने ‘हित’ को ही अपने सुख के आगे।
तुम वर्तमान को संज्ञा देते हो, पर महत्त्व नहीं।
तुम्हारे पास जो है, उसे ही बार-बार पाते हो 
और सिद्ध नहीं कर पाते कि उसने 
तुम्हें सन्तुष्ट किया।
इसीलिए तुम्हारी देन से तुम्हारी ही तरह फिर पानेवाला तृप्त नहीं होता,
तुम्हारे पास जो है, उससे और अधिक चाहता है,
विश्वास नहीं करता कि तुम इतना ही दे सकते हो।

पिता, तुम भविष्य के अधिकारी नहीं, क्योंकि 
तुम्हारा वर्तमान जिस दिशा में मुड़ता है 
वहां कहीं एक भयानक शत्रु है जो तुम्हें मारकर तुम्हारे संचयों को तुम्हारे ही मार्ग में ही लूट लेता है, और तुम खाली हाथ लौट आते हो।''
               1965 में जब आत्मजयी छपकर आई तो हिन्दी आलोचना ने इस कृति के साथ स्वाभाविक न्याय नहीं किया । इस तरह से इसपर अस्तित्त्ववाद के मुहर लग गए कि फिर प्रगतिशील हिन्दी आलोचना को इधर देखने की जरूरत ही नहीं महसूस हुई । और फिर एक चूक हिन्दी आलोचना से हो गयी जिसकी भरपाई अब संभव हो सकती है । अपने हित के आगे,सुखों के आगे नचिकेता अपने  विवश पिता को देखता है । यम से मिलने जाना और वहाँ से वरदान  लेना अद्भुत घटना है । मृत्यु को भारतीय वाङ्ग्मय और धर्मशास्त्रों में परम सत्य माना है। कठोपनिषद का एक श्लोक है-

येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।
एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं वराणामेष वरस्तृतीय: ॥२०॥

मृतक मनुष्य के संबंध में यह जो संशय है कि कोई कहते हैं कि यह आत्मा(मृत्यु के पश्चात) रहता है और कोई कहते हैं कि नहीं रहता, आपसे उपदेश पाकर मैं इसे जान लूं, यह वरों मे तीसरा वर है |

 कुँवर नारायण ने हिन्दी कविता के पाठकों में  नई तरह की सोच-समझ विकसित की। नचिकेता के पुराख्यान पर आधारित आत्मजयी को आधार बनाकर एक बार फिर उन्होने नयी कृति की सर्जना की। वह कृति  कुँवर नारायण की 2008 में आई, 'वाजश्रवा के बहाने', उसमें उन्होंने पिता वाजश्रवा के मन में जो उद्वेलन चलता रहा उसे अत्यधिक सात्विक शब्दावली में काव्यबद्ध किया है। इस की विशेषता
डॉ अरुणाभ सौरभ
यह है कि 'अमूर्त' को एक अत्यधिक सूक्ष्मता के साथ संवेदनात्मक शब्दावली के साथ नए उत्साह और जिजीविषा को वाणी दी है। जहाँ एक ओर आत्मजयी में कुँवर नारायण ने मृत्यु जैसे विषय का निर्वचन किया है, वहीं इसके ठीक विपरीत 'वाजश्रवा के बहाने' कृति में अपनी विधायक संवेदना के साथ जीवन के आलोक को रेखांकित किया है। आत्मजयी मृत्यु से मृत्यु को जीतने की वैचारिक कवायद है। इसकी भाषा में संस्कृत शब्दों की बहुलता है । पुरा कथा होने के कारण संसकृत शब्दों की बहुलता है। कविता का शिल्प इतना सुघड़ है कि क्षण-क्षण में कविता पाठकों को बांध कर रखती है । आत्मजयी हिन्दी के विरल की अनूठी कृति है । आधुनिक हिन्दी कविता की विशिष्टतम उपलब्धि है- आत्मजयी !

अरुणाभ सौरभ

चन्द्रकान्त देवताले की कविताएं

1

पत्थर की बेंच
....................
पत्थर की बेंच
जिस पर रोता हुआ बच्चा
बिस्कुट कुतरते चुप हो रहा है

जिस पर एक थका युवक
अपने कुचले हुए सपनों को सहला रहा है

जिस पर हाथों से आंखें ढांप
एक रिटायर्ड बूढ़ा भर दोपहरी सो रहा है

जिस पर वे दोनों
जिंदगी के सपने बुन रहे हैं

पत्थर की बेंच
जिस पर अंकित हैं आंसू, थकान
विश्राम और प्रेम की स्मृतियां

इस पत्थर की बेंच के लिए भी
शुरू हो सकता है किसी दिन
हत्याओं का सिलसिला
इसे उखाड़कर ले जाया
अथवा तोड़ा भी जा सकता है
पता नहीं सबसे पहले कौन आसीन हुआ होगा
इस पत्थर की बेंच पर।

2

नींद और कवि

रात पत्थरों को पीसती है
बिखरता रहता है पत्थरों की छाती में छिपा
पानी का उदास संगीत

और नींद है अंधेरे में बिल्ली की चमकती आंख

एक घुड़सवार रौंदता है सपनों को
कवि दर्ज करता है कविता में
कुत्तों के रुदन का प्राचीन शिलालेख
और घोड़े की नाल ठुक जाती है ज़ख्म के ऊपर

धीवर की फटी आंखों में लेटा समुद्र
करवट तक नहीं बदलता
पियक्कड़ों से बेखबर आसमान
देखता रहता है जलता हुआ पहाड़
एक अकेला आदमी खोदता रहता है अपने भीतर
किसी अज्ञात अकेली औरत का सन्नाटा

कवि बिल्ली को पुचकारना चाहता है
पर वह पीती रहती है शब्दों का दूध।

3

शब्दों की पवित्रता के बारे में

रोटी सेंकती पत्नी से हंसकर कहा मैंने
अगला फुलका बिलकुल चंद्रमा की तरह बेदाग हो तो जानूं

उसने याद दिलाया बेदाग नहीं होता कभी चंद्रमा

तो शब्दों की पवित्रता के बारे में सोचने लगा मैं
क्या शब्द रह सकते हैं प्रसन्न या उदास केवल अपने से

वह बोली चकोटी पर पड़ी कच्ची रोटी को दिखाते
यह है चंद्रमा-जैसी, दे दूं इसे क्या बिन आंच दिखाए ही

अवकाश में रहते हैं शब्द शब्दकोश में टंगे नंगे अस्थिपंजर
शायद यही है पवित्रता शब्दों की
अपने अनुभव से हम नष्ट करते हैं कौमार्य शब्दों का
तब वे दहकते हैं और साबित होते हैं प्यार और आक्रमण करने लायक

मैंने कहा सेंक दो रोटी तुम बुढ़िया कड़क चुंदड़ीवाली
नहीं चाहिए मुझको चन्द्रमा जैसी!

4

इतनी पत्थर रोशनी

बजते हुए पानी के पठार के
इस बाजू इच्छाओं का जंगल
दूध के पहाड़
दौड़ते खुशबुओं के घोड़े

तुम उस बाजू
कब तक चंद्रमा से
धोती रहोगी आंखें

मैं कब तक पीता रहूंगा
इतनी पत्थर रोशनी
यहां चुपचाप।




चन्द्रकान्त देवताले

Thursday 9 July 2020

रश्मि भारद्वाज की कविता पति की प्रेमिका के नाम पर आलोचक प्रो. गोपेश्वर सिंह की टिप्पणी

पति की प्रेमिका के नाम
                         :  रश्मि भारद्वाज

सोचती हूँ कि तुम्हें एक घर तोड़ने का इल्ज़ाम दूँ
या कि उस पुरुष के कहीं रिक्त रह गए हृदय को भरने का श्रेय 
जो घर गृहस्थी के झमेलों में 
शायद मेरे प्रेम को ठीक से ग्रहण नहीं कर पाया था,
तुम्हारे और मेरे मध्य
एक-दूसरे से बंधने के कई कारण थे
हम उसी पुरुष से जुड़े थे
जो मुझे रिक्त कर 
तुममें ख़ुद को खाली कर रहा था

तुम्हारे पास जो आया था
वह मेरे प्रेम का शेष था
हमारे संबंध की बची रह गई
इच्छाओं का प्रेत,
यह कितना कठिन रहा होगा
कि तमाम समय मुझ सा नहीं होने की चेष्टा में
मैं मौज़ूद रहती होऊँगी तुम्हारे अंदर
और उसकी सुनाई कहानियों के साए
आ जाते होंगे तुम्हारे बिस्तर तक

तुम मुझसे अधिक आकर्षक
अधिक स्नेहिल 
अधिक गुणवती होने की अघोषित चेष्टा में
ख़ुद को खोती गई 
और मुझसे मेरा जब सब छिन गया
मैं ख़ुद को खोजने निकली

हमने जी भर कर एक-दूसरे को कोसा
एक-दूसरे के मरने की दुआएँ माँगी,
हमारे मध्य एक पुरुष के प्रेम का ही नहीं
घृणा का भी अटूट रिश्ता था

मेरे पास था 
एक प्रेम का अतीत
एक बीत गई उम्र
और एक बीतती जा रही देह के साथ
उसके प्रणय का प्रतीक
एक और जीवन 

तुम्हारे पास था
एक प्रेम का वर्तमान
यौवन का उन्माद
देह का समर्पण
अपने रूप का अभिमान
और मेरे लिए एक चुनौती

लेकिन अपना भविष्य तो हम दोनों ने
किसी और को सौंप रखा था

यह होता कि तुमने मेरा अतीत
और मैंने तुम्हारे वर्तमान का साझा दुख पढ़ा होता 
काश कि हमें दुखों ने भी बाँधा होता।   

                         

 यह कविता मैंने बार - बार पढ़ी और याद करने की कोशिश की कि इस विषय पर कोई और कविता हिन्दी में है या नहीं? है भी तो इतनी रचनात्मक संवेदना से वह भरी - पूरी भी है?
अनेक लोक गीतों- लोक कथाओं की याद आई। अनेक फ़िल्मों की याद आई। कुछ कहानियां, कुछ उपन्यासों की भी याद आई। पितृसत्तात्मक समाज में प्रेयसी के रूप- जाल में बंधे हुए पति याद आए। रोती - बिसुरती पत्नियां भी  याद आईं। प्रेमिका से अपने बच्चों,  अपने सुहाग की आंचल पसार कर भीख मांगती पत्नियों की भी याद आती रही। उन आधुनिक स्त्री चरित्रों की भी याद आई, जिन्होंने अपने ऐसे पतियों का त्याग कर दिया। लेकिन पति की प्रेमिका से इतने ऊंचे मानवीय धरातल पर संवाद करने वाली कोई पत्नी नहीं याद आई।
कोई शोर नहीं। कोई आरोप - प्रत्यारोप नहीं। बहुत सधे और सीधे अंदाज़ में पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री की नियति को प्रश्नांकित करती यह कविता स्त्री - मन का और उसके दुखों का कितना बड़ा संसार समेटे हुए है! कितना कुछ कह जाने का कलात्मक सलीका है इसमें !
 'मैंने अपनी मां को जन्म दिया है' संग्रह को पढ़ते हुए इस या इस जैसी कई कविताएं अपनी नई भंगिमा के कारण पाठक को बार - बार रोक लेती हैं।शुक्रिया रश्मि भारद्वाज

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