Thursday 23 July 2020

कुँवर नारायण की रचना आत्मजयी आज के मनुष्य को बेहतर अभिव्यक्ति देने का एक बेहतर उदाहरण है : अरुणाभ सौरभ

कुँवर नारायण की आत्मजयी को प्रकाशित हुए पचास साल से ज्यादा हो चुके हैं। इन पचास सालों में कुँवर जी ने कई महत्त्वपूर्ण कृतियों से भारतीय भाषा का मान बढ़ाया है । आत्मजयी काव्य इनकी सर्जना का एक बेहतरीन उदाहरण है। जीवन और मृत्यु के अंतर्संबंधों की बुनियाद पर इस कविता की रचना हुई है। इसकी भूमिका में कुँवर जी लिखते हैं-

''नचिकेता की चिन्ता भी अमर जीवन की चिन्ता है। ‘अमर जीवन’ से तात्पर्य उन अमर जीवन-मूल्यों से है जो व्यक्ति-जगत् का अतिक्रमण करके सार्वकालिक और सार्वजनिक बन जाते हैं। नचिकेता इस असाधारण खोज के परिणामों के लिए तैयार है। वह अपने आपको
कुँवर नारायण
इस धोखे में नहीं रखता कि सत्य से उसे सामान्य अर्थों में सुख ही मिलेगा, लेकिन उसके बिना उसे किसी भी अर्थ में सन्तोष मिल सकेगा, इस बारे में उसे घातक सन्देह है। यम से-साक्षात् मृत्यु तक से-उसका हठ एक दृढ़ जिज्ञासु का हठ है जिसे कोई भी सांसारिक वरदान डिगा नहीं सकता।''

'आत्मजयी' में मृत्यु से साक्षात को कठोपनिषद की कथा को अपनी व्याख्या के साथ कुँवर जी ने प्रस्तुत किया है ।  नचिकेता अपने पिता की आज्ञा, 'मृत्य वे त्वा ददामीति' अर्थात मैं तुम्हें मृत्यु को देता हूँ, को शिरोधार्य करके यम के द्वार पर चला जाता है, जहाँ वह तीन दिन तक भूखा-प्यासा रहकर यमराज के घर लौटने की प्रतीक्षा करता है। उसकी इस साधना से प्रसन्न होकर यमराज उसे तीन वरदान माँगने की अनुमति देते हैं। नचिकेता इनमें से पहला वरदान यह माँगता है कि उसके पिता वाजश्रवा का क्रोध समाप्त हो जाए।

        ‘आत्मजयी’ ने ना सिर्फ़ हिन्दी अपितु भारतीय भाषाओं में अपनी एक खास उपस्थिति दर्ज़ की है और सर्वत्र प्रशंसित हुआ है। इसका मूल कथासूत्र कठोपनिषद् में नचिकेता के प्रसंग पर आधारित है।  एक आख्यान के पुराकथात्मक पक्ष को कवि ने आज के मनुष्य की जटिल मनःस्थितियों से जोड़ा है। आज के मनुष्य को बेहतर अभिव्यक्ति देने का एक बेहतर उदाहरण आत्मजयी है । जीवन के साथ-साथ उसकी अनश्वरता, जीने की उत्कट लालसा और मृत्यु की उदात्त भारतीय प्रेरणा इसके मूल में है । एक ऐसे सत्य से साक्षात कराती कविता है यह जिसमें मरणधर्मा व्यक्ति जीवन से बड़ा, या चिरस्थायी हो। यही मनुष्य को सांत्वना दे सकता है कि मर्त्य होते हुए भी वह किसी अमर अर्थ में जी सकता है। 

पिछली पूजाओं के ये फूटे मंगल-घट।
किसी धर्म-ग्रन्थ के
पृष्ठ-प्रकरण-शीर्षक-
सब अलग-अलग।
वक्ता चढ़ावे के लालच में
बाँच रहे शास्त्र-वचन,
ऊँघ रहे श्रोतागण !...

ओ मस्तक विराट,
इतना अभिमान रहे-
भ्रष्ट अभिषेकों को न दूँ मस्तक 
न दूँ मान..
इससे अच्छा
चुपचाप अर्पित हो जा सकूँ
दिगन्त प्रतीक्षाओं को....

                   मनुष्य जीवन से केवल कुछ पाने की ही आशा पर चलने वाला प्राणी होगा तो वह सिर्फ़ असहाय होगा । जब वह जीवन को कुछ दे सकने वाला  मनुष्य होगा तभी जीवन की समर्थता को समझेगा। फिर यह चिन्ता सहसा व्यर्थ हो जाएगी कि जीवन कितना असार है-उसकी मुख्य चिन्ता यह होगी कि वह जीवन को कितना सारपूर्ण बना सकता है। मुक्तिबोध की इन पंक्तियों की तरह- ''अब तलक क्या किया जीवन क्या जीया''। ‘आत्मजयी’ मूलतः मनुष्य की रचनात्मक सामर्थ्य में आस्था की पुनःप्राप्ति की कहानी है। यह कविता अपने साथ कुछ मूलवर्ती आस्थाओं को साथ लेकर चलती है ।  आज का मनुष्य केवल लघुमनाव नहीं है । वह जीवन की जटिलताओं और अर्थों से संवाद करता है। उसकी नियति जटिल है,परिणति भी जिसको समझते हुए इस कविता में जटिल नियति से गहरा काव्यात्मक आत्मसाक्षात्कार है।

''मेरे उपकार-मेरे नैवेद्य-
समृद्धियों को छूते हुए
अर्पित होते रहे जिस ईश्वर को
वह यदि अस्पष्ट भी हो
तो ये प्रार्थनाएँ सच्ची हैं...इन्हें
अपनी पवित्रताओं से ठुकराना मत,
चुपचाप विसर्जित हो जाने देना
      समय पर....सूर्य पर...''

कुँवर जी ने भूमिका में लिखा है-
''‘आत्मजयी’ में ली गयी समस्या नयी नहीं-उतनी ही पुरानी है (या फिर उतनी ही नयी) जितना जीवन और मृत्यु सम्बन्धी मनुष्य का अनुभव। इस अनुभव को पौराणिक सन्दर्भ में रखते समय यह चिन्ता बराबर रही कि कहीं हिन्दी की रूढ़ आध्यात्मिक शब्दावली अनुभव की सचाई पर इस तरह न हावी हो जाये कि ‘आत्मजयी’ को एक आधुनिक कृति के रूप में पहचानना ही कठिन हो। उपनिषद् यम, नचिकेता, आत्मा, मृत्यु, ब्रह्म...किसी भी नये कवि के लिए इन प्राचीन शब्दों की अश्वत्थ जड़ें, प्रेरणा शायद कम, चेतावनी अधिक होनी चाहिए। फिर भी मैंने यदि इस बीहड़ वन में प्रवेश करने का दुस्साहस किया, तो उसका एक कारण यह भी था कि मुझे ये शब्द वास्तव में उतने बीहड़ नहीं लगे जितने उन्हें ठीक से न समझने वाले व्याख्याकारों ने बना रखा है। उन्हें आधुनिक व्यक्ति की मानसिक अवस्थाओं के सन्दर्भ में भी जाँचा जा सकता है। ऐसी आशा ने भी इस ओर प्रेरित किया''

            आत्मजयी के मूल में आधुनिक मनुष्य का द्वन्द्वग्रस्त मन है ।विचारशील मनुष्य कहाँ तक जाकर सोच सकता है, इसकी पूरी परिणति कविता का ऊत्स है ।  कुंवर नारायण अपनी रचनाशीलता में इतिहास और मिथक के माध्यम से वर्तमान को देखने के लिए जाने जाते है। उनका रचना संसार इतना व्यापक एवं जटिल है कि उसे किसी खाँचों में नहीं बाँटकर देख सकते। मिथकों का सर्वाधिक सार्थक उपयोग आधुनिक हिन्दी कविता में कुँवर जी ही करते हैं । पर हाँ मिथकों के उपयोग केआर समय भी उनकी दृष्टि सर्वथा आधुनिक भारतीय बुद्धिजीवी की रहती है। आधुनिक हिन्दी कविता में इतनी वस्तु व्यंजकता भी अकेले कुँवर जी के पास है । इतिहास और पुराख्यान को कथातत्त्वों से बुनकर उन्होने सधी हुई कविता की है। बहुलार्थ तत्त्वों की प्रधानता इनकी रचनात्मक विशेषता है। एक खास बात कुँवर जी के पास है कि पुराख्यान और मिथकों कि कथावस्तु को उठाते समय वो सिर्फ़ भारतीय कथाख्यानों तक सीमीत ना रहकर ग्रीक की, लैटिन की ज़मीन से अपनी कथा को जोड़ते हैं। यही एक खास वजह है जिससे उनकी कविता कहीं से भी भटकती नहीं है। और अपनी अनथक यात्रा पूरी कर लेती है, जिसकी स्वाभाविक माँग कविता से थी । आत्मजयी की भूमिका में ही कुँवर जी लिखते हैं -

''यूनानी पुरा कथाओं की ही तरह भारतीय पुराकथाएँ भी आरम्भ में रहस्यवादी ढंग की नहीं थीं, मनुष्य और प्रकृति के बीच बड़े ही घनिष्ठ सम्बन्धों का रोचक और जीवन्त कथा—रूप थीं। लेकिन आज हिन्दू धर्म  और हिन्दू पौराणिक अतीत को अलग कर सकना लगभग असम्भव है; जबकि ग्रीक पुराकथाएँ ईसाई धर्म और यूरोपीय रहस्यवाद से लगभग अछूती रहीं। भारतीय पुराकथाओं पर परिवर्ती धार्मिक रंग इतना गहरा है कि उसे विशुद्ध मानवीय महत्त्व दे सकना  कठिन लगता है। ग्रीक पुराकथाओं में आदि-मानव की अन्तः प्रकृति का अधिक अरंजित रूप सुरक्षित मिलता है। इसीलिए कामू का ‘सिसीफ़स’ या जेम्स जॉयस का ‘यूलिसिस’ पुराकथात्मक चरित्र होते हुए भी धार्मिक चरित्र नहीं लगते—उन्हें ‘साहस’ जैसे नितान्त मानवीय गुण का प्रतीक मानकर चलने में उस प्रकार का धार्मिक व्यवधान बीच में नहीं आता, जैसा अवतारवाद के कारण भारतीय देवी-देवताओं के साथ आता है।'' 

                 आत्मजयी में रहस्यवाद के धुंधलकों को पाटकर शास्वत मूल्यों की तलाश की गयी है। यह एक विराट कविता है । विराटता को प्रमाणित करने हेतु इसमें कई अर्थ संदर्भ हैं। पुराख्यान होकर भी कुँवर जी की दृष्टि कहीं से भी धार्मिक नहीं लगती । धार्मिकता और रहस्यों के आवरण से इस कविता को मुक्त रखा गया है। दार्शनिक विवेचन की चरम परिणति तक कविता जाती है । दार्शनिक सूत्रों और प्रमेयों के बीच कई जगह पर कविता अबूझ भी हो जाती है । कविता की असफलता भी इसकी दार्शनिक विवेचना है। जीवन-मृत्यु और आज के मनुष्यों की स्वाभाविकता को बनाए रखने के संतुलन के बीच आत्मजयी कविता कई जगह पर असंतुलित भी हुई है। कई जगहों पर टूटती है, बिखरती है । फिर भी संभलकर कवि पुरा कथा को फिर से कविता की तरफ खींचता है । कुँवर जी के बहुधा अधीत मानस होने के कारण ही ऐसा संभव हुआ । 

 ओ मस्तक विराट,

अभी नहीं मुकुट और अलंकार।
अभी नहीं तिलक और राज्यभार।

तेजस्वी चिन्तित ललाट। दो मुझको
सदियों तपस्याओं में जी सकने की क्षमता।
पाऊँ कदाचित् वह इष्ट कभी
कोई अमरत्व जिसे
सम्मानित करते मानवता सम्मानित हो।

                            इतिहास और दार्शनिकता के स्थान पर कुँवर जी की मूल चिंता इस कविता में नचिकेता के मानवीय स्वरूप को स्थापित करना है। जिसे उन्होने इसकी भूमिका में स्पष्ट कर दिया है --''

नचिकेता का प्रसंग इस दृष्टि से मुझे विशेष उपयुक्त लगा कि वह मुख्यतः धार्मिक क्षेत्र का न होकर दार्शनिक क्षेत्र का ही रहा, जहाँ वैचारिक स्वतन्त्रता के लिए अधिक गुंजाइश है। दूसरे, नचिकेता के बाद में जो थोड़ा-बहुत साहित्य लिखा भी गया है उसकी ऐसी साश्वत परम्परा नहीं जो उसे फिर कोई नया साहित्यिक रूप देने में बाधक हो—न अब तक इस आख्यान के पुराकथात्मक पक्ष को ही इस प्रकार लिया गया है कि वह आज के मनुष्य की जटिल मनःस्थितियों को बेहतर अभिव्यक्ति दे सके। इसीलिए मैंने ‘आत्मजयी’ के धार्मिक या दाशर्निक पक्ष की विशेष चिन्ता न करके उन मानवीय अनुभवों पर अधिक दबाव डाला है जिनसे आज का मनुष्य भी गुज़र रहा है, और जिनका नचिकेता मुझे एक महत्त्वपूर्ण प्रतीक लगा।''

                               नचिकेता,यम और पिता वाजश्रवा ये तीन पात्र ही इस विराट कविता मुख्य पात्र हैं । जब कुँवर जी वाजश्रवा का चित्र खींचते हैं तो स्पष्ट हो जाता है -

"पिता, तुम भविष्य के अधिकारी नहीं, 
क्योंकि तुम ‘अपने’ हित के आगे नहीं सोच पा रहे,
न अपने ‘हित’ को ही अपने सुख के आगे।
तुम वर्तमान को संज्ञा देते हो, पर महत्त्व नहीं।
तुम्हारे पास जो है, उसे ही बार-बार पाते हो 
और सिद्ध नहीं कर पाते कि उसने 
तुम्हें सन्तुष्ट किया।
इसीलिए तुम्हारी देन से तुम्हारी ही तरह फिर पानेवाला तृप्त नहीं होता,
तुम्हारे पास जो है, उससे और अधिक चाहता है,
विश्वास नहीं करता कि तुम इतना ही दे सकते हो।

पिता, तुम भविष्य के अधिकारी नहीं, क्योंकि 
तुम्हारा वर्तमान जिस दिशा में मुड़ता है 
वहां कहीं एक भयानक शत्रु है जो तुम्हें मारकर तुम्हारे संचयों को तुम्हारे ही मार्ग में ही लूट लेता है, और तुम खाली हाथ लौट आते हो।''
               1965 में जब आत्मजयी छपकर आई तो हिन्दी आलोचना ने इस कृति के साथ स्वाभाविक न्याय नहीं किया । इस तरह से इसपर अस्तित्त्ववाद के मुहर लग गए कि फिर प्रगतिशील हिन्दी आलोचना को इधर देखने की जरूरत ही नहीं महसूस हुई । और फिर एक चूक हिन्दी आलोचना से हो गयी जिसकी भरपाई अब संभव हो सकती है । अपने हित के आगे,सुखों के आगे नचिकेता अपने  विवश पिता को देखता है । यम से मिलने जाना और वहाँ से वरदान  लेना अद्भुत घटना है । मृत्यु को भारतीय वाङ्ग्मय और धर्मशास्त्रों में परम सत्य माना है। कठोपनिषद का एक श्लोक है-

येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।
एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं वराणामेष वरस्तृतीय: ॥२०॥

मृतक मनुष्य के संबंध में यह जो संशय है कि कोई कहते हैं कि यह आत्मा(मृत्यु के पश्चात) रहता है और कोई कहते हैं कि नहीं रहता, आपसे उपदेश पाकर मैं इसे जान लूं, यह वरों मे तीसरा वर है |

 कुँवर नारायण ने हिन्दी कविता के पाठकों में  नई तरह की सोच-समझ विकसित की। नचिकेता के पुराख्यान पर आधारित आत्मजयी को आधार बनाकर एक बार फिर उन्होने नयी कृति की सर्जना की। वह कृति  कुँवर नारायण की 2008 में आई, 'वाजश्रवा के बहाने', उसमें उन्होंने पिता वाजश्रवा के मन में जो उद्वेलन चलता रहा उसे अत्यधिक सात्विक शब्दावली में काव्यबद्ध किया है। इस की विशेषता
डॉ अरुणाभ सौरभ
यह है कि 'अमूर्त' को एक अत्यधिक सूक्ष्मता के साथ संवेदनात्मक शब्दावली के साथ नए उत्साह और जिजीविषा को वाणी दी है। जहाँ एक ओर आत्मजयी में कुँवर नारायण ने मृत्यु जैसे विषय का निर्वचन किया है, वहीं इसके ठीक विपरीत 'वाजश्रवा के बहाने' कृति में अपनी विधायक संवेदना के साथ जीवन के आलोक को रेखांकित किया है। आत्मजयी मृत्यु से मृत्यु को जीतने की वैचारिक कवायद है। इसकी भाषा में संस्कृत शब्दों की बहुलता है । पुरा कथा होने के कारण संसकृत शब्दों की बहुलता है। कविता का शिल्प इतना सुघड़ है कि क्षण-क्षण में कविता पाठकों को बांध कर रखती है । आत्मजयी हिन्दी के विरल की अनूठी कृति है । आधुनिक हिन्दी कविता की विशिष्टतम उपलब्धि है- आत्मजयी !

अरुणाभ सौरभ

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