Wednesday 22 May 2019

नरेंद्र मोदी: एक चमत्कारिक नेता (अंतिम दिन प्रधानमंत्री पर कुछ बातें): अस्मुरारी नंदन मिश्र

नरेंद्र मोदी: एक चमत्कारिक नेता (अंतिम दिन प्रधानमंत्री पर कुछ बातें)
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मुझे यह मानने में कभी गुरेज़ नहीं रहा कि श्री नरेंद्र मोदी एक चमत्कारिक नेता हैं। मैं जब भी उन्हें देखता हूँ और उनके इस विकास पर नज़र डालता हूँ, तो चकित होकर रह जाता हूँ। मुझे लगता है कि जयललिता के लिए जान देनेवालों की बात हटा दी जाए, तो ऐसा दूसरा नेता मैंने नहीं देखा।
मैं नेता का एक बड़ा गुण मानता हूँ कि वह जनमानस को अपने आकर्षण से सम्मोहित कर ले। नरेंद्र मोदी ने यह ख़ूब किया और इसे आश्चर्यजनक
अस्मुरारी नंदन मिश्र
स्तर तक पहुँचाया। यह पहले ऐसे नेता रहे, जिनके बारे में इनके अनुयायी भी कुछ विश्वास के साथ नहीं कह सकते। अनुयायियों की जानकारी से भी बहुत दूर का यह व्यक्तित्व एक ऐसी प्रभा-मंडल बनाता है, जिससे लोग खिंचे चले आए। उसे सुनते हैं, उसे जाँचते नहीं; विश्वास करते चले जाते हैं। यह आदमी सीधे नेता के रूप में अवतरित होता है, उसके पहले का जीवन एक रहस्य-रोमांच से भरा उपन्यास है। इस उपन्यास के पहले लिखा हो या न हो, लेकिन यह तय है कि इसका जीवित और मृत व्यक्ति से किसी तरह का कोई संबंध नहीं है।
यह आदमी जब स्टेशन नहीं बना था, तब वहाँ चाय बेच आता है। न जाने किस हिमालय में कब तक तपस्या-रत रहता है? इसी बीच राजनीति भी करता रहता है। वह अपने कहे के अनुसार ही हाई स्कूल तक, फिर इंजीनियरिंग की और अंततः इंटायर पॉलिटिकल साइंस में पीजी हो जाता है। फिर डिग्री भी उस फाॅण्ट में जारी करवा देता है, जिसे अभी ईजाद होना था। कभी वह ख़ुद को कुंवारा बताता है, कभी शादीशुदा। एक साथ इत‌नी विरोधी बातें बोलता हुआ भी कोई अगर विश्वसनीय बना रहता है, तो इसे चमत्कार न मानें, तो क्या कहें?
उसके बाद इस आदमी का ऐसा अकाट्य प्रभाव है कि गंगा किनारे के
प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी
सिकंदर या बिहार के तक्षशिला से लेकर राडार साइंस और ईमेल-आविष्कार तक की ऐतिहासिक-वैज्ञानिक उटपटांग बातों के बावज़ूद वह एक चिंतक, कवि, विचारक आदि बना रह जाता है और उसका विरोधी पप्पू बना दिया जाता है।
समर्थक तीन तरह के होते हैं। एक तो वे जिनको सीधा लाभ होता है, जैसे कार्यकर्ता अथवा निजी संबंध रखनेवाले या जुड़े ठेकेदार या पूँजीपति। दूसरे वे जो किसी भावनात्मक मुद्दे के कारण जुड़ाव महसूस करते हैं। तीसरा जो वोट भर देते हैं, ऐसे समर्थक सहजता से बदल जाते हैं। नरेंद्र मोदी इसलिए भी चमत्कारिक हैं कि प्रथम दो तरह के लोग लोकतंत्र की कुर्बानी देकर भी मोदी को लाना चाहते हैं। सोशल मीडिया पर ऐसे लोग हर किसी के फ्रेंडलिस्ट में होंगे, जो मोदी जी को तानाशाह रूप में भी देखना पसंद करते हैं। मैंने 'इंदिरा इज़ इंडिया' का समय नहीं देखा है, लेकिन 'मोदी हिंदुस्तान का बाप है' का समय देखा है। बहुत लोग हैं, जिन्हें ऐसे वक्तव्य से किसी तरह की आपत्ति नहीं है‌।यह प्रभाव है।
नरेंद्र मोदी इसलिए चमत्कारिक नेता हैं, क्योंकि इनके समर्थक ख़ुद इनके प्रवक्ता बनने को तैयार बैठे हैं। नोटबंदी से क्या-क्या लाभ हुए, यह जानकारी और विचार उतनी मात्रा में मोदी जी को भी नहीं पता था, जितना उनके समर्थकों को।
मैं बनारस में रहा हूँ। वहाँ यदि 'हर-हर...' का नारा लगा, तो क्या हिन्दू, क्या मुसलमान; क्या आस्तिक, क्या नास्तिक 'महादेव' का उद्घोष कर उठता है। और उसी काशी में महादेव को मोदी से रिप्लेस कर दिया गया, किसी को आपत्ति नहीं हुई। बनारस को चाहे क्योटो बनाइए, चाहे कुबेरपुरी, लेकिन उसके मंदिरों की क्षति वहाँ के लोग बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। मोदी ने वह किया। यहाँ तक कि जब चौदह में जीत मिली तो कुछ लोगों ने कहा कि भारत आज आज़ाद हुआ। ऐसे लोग न केवल आज़ादी के कठिन संघर्ष को नकार चुके थे, बल्कि भाजपा के ही एक सर्वमान्य नेता(प्रधानमंत्री) को भी नकार रहे थे। मोदी ने यह संभव करवाया। धर्म और राष्ट्र दोनों से ऊपर की सत्ता दिखाई। मैं इसे चमत्कार न मानूँ, तो क्या मानूँ?
यहाँ तक कि चौदह के चुनाव प्रचार के लिए जो-जो शब्दावली गढ़ी गयी थी, सब-के-सब किसी कृष्ण-विवर में तिरोहित हो गयी। छोड़िए घोषणापत्र और जुमलों को, वह हर पार्टी और नेता कर रहे हैं, लेकिन गुजरात माॅडल का एक ऐसा स्वर्गीय आदर्श दिखाया गया, मानो वह कोई जादू की छड़ी हो। जादूगर आकर एक बार उसे घुमा देगा, सब कुछ अलौकिक हो जाएगा। लेकन पाँच साल तक यह शब्दावली गधे के सिंग की तरह गायब रहती है। फिर भी समर्थकों के अंदर आलोचकीय कीड़ा नहीं कुलबुलाता।
कहने का मतलब यह कि जो एक साथ इतने लोगों को पप्पू(न जाने यह शब्द अर्थच्युत कैसे हो गया)  बना सकता है, और वह भी इस स्तर तक कि उसी पप्पूपने पर गर्व हो जाए, उसे चमत्कार न कहेंगे, तो क्या कहेंगे?
ऐसा चमत्कारिक व्यक्तित्व दो कारणों से बना- एक धार्मिक कट्टरता और दूसरा पूँजी की सुरक्षित गोद। जब सांप्रदायिकता और पूँजी का कॉकटेल तैयार होता है, तो अकाट्य हो जाता है। देर तक बना रहनेवाला नशा। गुजरात के बाहर मोदी को मान्यता सबसे अधिक गुजरात दंगे ने दिलवाई, लेकिन इस मान्यता से कट्टर समर्थक मिलते हैं, जीत दिलवाने वाले वोटर्स नहीं। पूँजी ने वह काम किया। विकास-पुरुष की ऐसी छवि बनी, जिसके पास सब कुछ ऐतिहासिक था और हरेक समस्या का निदान था। बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, सीमा-सुरक्षा, कृषि, व्यापार सब बदल जाना था। यह अद्भुत था। सभी मीडिया संस्थान एक स्वर से इस देव-पुरुष के चरण चूम लेने की बेताबी में थे और इनके दर्शन से जनमानस को कृतकृत्य करने को तैयार खड़े(या बिछे!) थे। ऐसे ही देवता का अवतार हो सकता है, और हुआ। वैसे भी अब कोई भी देवता कभी खंभे से निकलेंगे, तो खंभा फाड़नेवाला अर्थतंत्र ही होगा। यही सच है।
मोदी की सफलता का एक कारण जनता से संवाद करने का कौशल है। वे जानते हैं किसे कैसे इंप्रेस किया जाए। जब चौदह में कुछ साथी उनके इतिहास ज्ञान पर टिप्पणी कर रहे थे, तब मैंने कहीं लिखा था- "लोग इतिहास की जानकारी चेक करते रहेंगे, यह आदमी इतिहास बना लेगा।" वे इसमें सफल रहे। इधर के उनके राडार वाले ज्ञान को ही समझ लें। वे इस झूठ को जनता तक ले जाना चाहते थे कि मैं एयर स्ट्राइक का नेतृत्व कर रहा था। उन्होंने कह दिया कि हमने ही कहा। जनता रडार साइंस नहीं जानती, उसने सिर्फ़ यही सुना कि प्रधानमंत्री रात दो बजे तक निर्देश देते रहे। उनका काम हो चुका था। जनता को रडार-साइंस पढ़ाने वाला कौन है? इसी तरह यहीं फेसबुक पर उनके(भाजपा के) एक समर्थक ने लिखा मोदी को जाननेवाले जानते हैं कि प्रज्ञा ठाकुर पर उनका बयान एक झूठ है, वे दूसरों को मूर्ख बनाने के लिए ऐसा कर रहे हैं। जिसे ऐसा समर्थन और ऐसे समर्थक मिल रहे हों, उसे चमत्कारिक न कहा जाए, तो क्या कहा जाए?
ऐसा नहीं है कि इस देवता में नकारात्मकता ही थी। सांसदों द्वारा किसी गाँव को गोद लेने की योजना कमाल की है। स्वच्छता पर अतिरिक्त ज़ोर भारत जैसे लापरवाह देश के लिए ज़रूरी है। मैं कहना चाहता हूँ कि स्वच्छता को चेतना के सामने लाने का काम महात्मा गाँधी के बाद नरेंद्र मोदी ने किया। सक्षम व्यक्तियों से सब्सिडी छोड़ने की अपील सही कदम था।(मैं ख़ुद गैस-सब्सिडी छोड़ चुका हूँ। मानता हूँ कि बेवकूफ़ी ही की है।) शौचालय बनवाने में मदद, आयुष्मान योजना आदि कुछ अन्य अच्छे कदम रहे। अच्छाइयाँ और भी हैं लेकिन सच्चाई यह है कि इन योजनाओं में शौचालय को छोड़ बाकी सब नाटक रूप में परिणत होकर रह गये। खु़द सांसद मोदी ने गोद लेकर किस गाँव की तस्वीर बदली, यह सवाल है?
लेकिन यह सवाल नहीं होना ही चमत्कार है।
शक न करें। सामान्य ज्ञान का एक सवाल बिना किसी कन्फ्यूजन के करें कि इक्कसवीं सदी का सबसे चमत्कारिक नेता कौन है-
हर-हर मोदी!
अस्मुरारी नंदन मिश्र
22 मई 2019

Sunday 19 May 2019

निर्मला पुतुल की कविता :उतनी दूर मत ब्याहना बाबा

"उतनी दूर मत ब्याहना बाबा !"
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--निर्मला पुतुल
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बाबा!
मुझे उतनी दूर मत ब्याहना
जहाँ मुझसे मिलने जाने ख़ातिर
घर की बकरियाँ बेचनी पड़ें तुम्हें

मत ब्याहना उस देश में
जहाँ आदमी से ज़्यादा
ईश्वर बसते हों

जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ
वहाँ मत कर आना मेरा लगन

वहाँ तो क़तई नहीं
जहाँ की सड़कों पर
मान से भी ज़्यादा तेज़ दौड़ती हों मोटर-गाड़ियाँ
ऊँचे-ऊँचे मकान
और दुकानें हों बड़ी-बड़ी

उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता
जिस घर में बड़ा-सा खुला आँगन न हो
मुर्गे की बाँग पर जहाँ होती ना हो सुबह
और शाम पिछवाड़े से जहाँ
पहाड़ी पर डूबता सूरज ना दिखे।

मत चुनना ऐसा वर
जो पोचाई और हँडिया में
डूबा रहता हो अक्सर

काहिल निकम्मा हो
माहिर हो मेले से लड़कियाँ उड़ा ले जाने में
ऐसा वर मत चुनना मेरी ख़ातिर

कोई थारी लोटा तो नहीं
कि बाद में जब चाहूँगी बदल लूँगी
अच्छा-ख़राब होने पर

जो बात-बात में
बात करे लाठी-डंडे की
निकाले तीर-धनुष, कुल्हाड़ी
जब चाहे चला जाए बंगाल, आसाम, कश्मीर
ऐसा वर नहीं चाहिए मुझे
और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ
जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाया
फ़सलें नहीं उगाईं जिन हाथों ने
जिन हाथों ने नहीं दिया कभी किसी का साथ
किसी का बोझ नहीं उठाया

और तो और
जो हाथ लिखना नहीं जानता हो "ह" से हाथ
उसके हाथ में मत देना कभी मेरा हाथ

ब्याहना तो वहाँ ब्याहना
जहाँ सुबह जाकर
शाम को लौट सको पैदल

मैं कभी दुःख में रोऊँ इस घाट
तो उस घाट नदी में स्नान करते तुम
सुनकर आ सको मेरा करुण विलाप.....

महुआ का लट और
खजूर का गुड़ बनाकर भेज सकूँ सन्देश
तुम्हारी ख़ातिर
उधर से आते-जाते किसी के हाथ
भेज सकूँ कद्दू-कोहड़ा, खेखसा, बरबट्टी,
समय-समय पर गोगो के लिए भी

मेला हाट जाते-जाते
मिल सके कोई अपना जो
बता सके घर-गाँव का हाल-चाल
चितकबरी गैया के ब्याने की ख़बर
दे सके जो कोई उधर से गुज़रते
ऐसी जगह में ब्याहना मुझे

उस देश ब्याहना
जहाँ ईश्वर कम आदमी ज़्यादा रहते हों
बकरी और शेर
एक घाट पर पानी पीते हों जहाँ
वहीं ब्याहना मुझे !

उसी के संग ब्याहना जो
कबूतर के जोड़ और पंडुक पक्षी की तरह
रहे हरदम साथ
घर-बाहर खेतों में काम करने से लेकर
रात सुख-दुःख बाँटने तक

चुनना वर ऐसा
जो बजाता हो बाँसुरी सुरीली
और ढोल-माँदर बजाने में हो पारंगत

बसंत के दिनों में ला सके जो रोज़
मेरे जूड़े की ख़ातिर पलाश के फूल

जिससे खाया नहीं जाए
मेरे भूखे रहने पर
उसी से ब्याहना मुझे.

Friday 17 May 2019

अरमान आनंद के हाइकू

1

तर्क

दुनियां के हर आतंकवादी के पास
ऐसे तर्क हैं
जिसमे वह बताता है
कि हत्याएं क्यों जरूरी हैं

2

हत्यारों के समर्थक भूत या भविष्य का हत्यारे ही होते हैं

इतिहास के पन्ने पलटते रहने चाहिए

ताकि भविष्य सुरक्षित रहे

क्या लालटेन के साथ गांधी का भी युग चला गया नीतीशजी ! : प्रेमकुमार मणि

क्या लालटेन के साथ गांधी का भी युग चला गया  नीतीशजी ! : प्रेमकुमार मणि

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हर चुनावी सभा में यह जुमला जरूर सुनाते हैं कि लालटेन का युग चला  गया . लालटेन उनके जानी दुश्मन लालू की पार्टी का चुनाव चिन्ह है . नीतीश कुमार की समझदारी पर कोई सवाल नहीं है ,लेकिन एक कहावत है कि किसी को अपना चेहरा नहीं दिखता ,केवल दूसरों का दिखता है . अपना चेहरा भी दिखता तब वह ऐसा कैसे कह सकते थे . क्योंकि उनकी पार्टी का चिन्ह पाषाणकालीन तीर है . वह भी धनुष के बगैर . लेकिन यह सब उन्हें कैसे दिख सकता है ?.
हम लालटेन पर आते हैं . मेरी एक कहानी है - ' लालटेन बाजार ' . कोई चालीस साल पहले लिखी गयी थी और तभी छपी भी थी . नगर के बीच में गरीबों की छोटी -सी बस्ती है . रिक्शा -ठेला चलाने वाले लोग , कुछ अन्य दिहाड़ी मजदूरों के साथ इसमें रहते हैं . बस्ती में बिजली -बत्ती का प्रबंध नहीं है ,इसलिए पूरे नगर में यह मोहल्ला लालटेन बाजार कहा जाता है . लालटेन और गरीबों में एक अंतर्संबंध है . इसीलिए जब लालूप्रसाद  की पार्टी को यह चुनाव चिन्ह मिला था ,तब मैंने कहा था ,यह बहुत ही प्रतीकात्मक है .
लालटेन की प्रतीकात्मकता बहुत कुछ चरखे की तरह है . चरखा पुराने ज़माने का एक यंत्र है ,जिसे अंग्रेजी में मशीन कहते हैं . गाँधी ने उसे  आधुनिक भारत का अभिनव प्रतीक बनाया .जहाँ सुई भी नहीं बनती थी ,वहां चरखे को पुनर्जीवित करना आद्योगिक- क्रांति की बुनियाद रखना था . वह निर्वर्गीकरण अभियान भी था , क्यों इस देश के शोहदे -परजीवी शारीरिक -श्रम को हेय मानते थे .इन तथाकथित कुलीन अशरफ-सवर्णों को गांधी ने अपनी तरकीब से मिहनतक़श जुलाहा बना दिया . लालटेन में भी चरखे जैसा ही कुछ जादू  है . रौशनी का गतिमान छोटा यंत्र ;जिसमे लैंप या चिराग को हवा के थपेड़ों से बचाये रखने की जुगत होती है ,लालटेन है  . पूरी दुनिया में हज़ारो साल तक  इसने मनुष्य का मार्गदर्शन किया . इसकी ही रौशनी में चलकर ह्वेनत्सांग चीन से भारत आया . कहते हैं चीनियों ने ही लैंप को सुरक्षित रखने की युक्ति इज़ाद की थी . फिर यह पूरी दुनिया में लैन्टर्न के नाम से मशहूर हुआ और भारतवासियों ने अपनी बोली में पीट-पाट कर इसे लालटेन बना लिया . बिजली - बल्ब तो एडिसन (1847 -1931 )  ने बस सवा सौ साल पहले ईजाद किया ,उसके पूर्व का और बाद का पूरा जमाना लालटेन की ही रौशनी में आगे बढ़ा . पूरा रेनेसां अथवा नवजागरण और प्रबोधन आंदोलन ,पूरी औद्योगिक- क्रांति इसी लालटेन की रौशनी में आगे बढ़ी . शेक्सपियर के नाटक इसी की रौशनी में खेले गए .   टॉलस्टॉय और चेखब ने इसी की रौशनी में अपनी आत्मा को पन्नों पर उकेरा . अपने देश में टैगोर ने इसकी ही मद्धिम लौ में 'गीतांजलि ' की  रचना की . प्रेमचंद इसी लालटेन की लौ में लेखक बने . कितनों का नाम लें नीतीशजी ! कलेजे पर हाथ रख कहिये ,क्या इसी लालटेन की रौशनी में हम और आप नहीं पढ़े -बढे ?
और आज हम इस लालटेन को गुजरे ज़माने की चीज बताते हैं ,तब मुझे अफ़सोस होता है . यह हमारी सांस्कृतिक कृतघ्नता है . जैसे हम अपने पूर्वजों को गुजरे ज़माने के लोग कहें ,ऐसा . अरबियन नाइट्स में एक कहानी है अलादीन का चिराग . एक गरीब दरजी अलादीन  को एक फ़क़ीर ने दयावश एक लैंप या लालटेन दिया . उसकी जादुई  रौशनी में अलादीन ने खूब तरक्की की और जल्दी ही अमीर बन गया . उसे खूबसूरत बीवी मिली और मौज में उसके दिन कटने लगे . लेकिन इस अमीरी ने उसके मन पर एक दम्भ ला दिया .  अलादीन और उसकी बीवी फ़क़ीर को तो भूल ही गए ,उस लैंप को भी भूल गए . धीरे -धीरे अलादीन फिर गरीब हो गया . उसे फिर से फ़क़ीर की याद आयी और जैसा कि कथाओं में होता है फ़क़ीर उसे पुनः मिल भी जाता है . अलादीन ने याचना भरे शब्दों में फिर से गरीबी दूर करने के मन्त्र देने की बात कही . फ़क़ीर ने पूछा - वह लैंप ,जिसे मैंने दिया था कहाँ है ? लैंप की खोज हुई तब बीवी ने कहा ,पुराने ढंग का लैंप था ,कबाड़ी वाले के हाथ बेच दिया . अलादीन ने फ़क़ीर को बात बतलायी तो फ़क़ीर हँसा - दुःख और संघर्ष के समय और साथियों को भूलने का यही नतीजा होता है . जाओ तुम्हारी कोई मदद नहीं  कर सकता .तुम इसी हाल पर रहने लायक हो .

नीतीशजी ! आप चुनाव लड़िये और भाषण भी दीजिए .लेकिन चक्का ,चरखा ,लालटेन जैसे क्रन्तिकारी यंत्रों का ,जिसने मानव -प्रगति के इतिहास में अमिट छाप छोड़ी है ,मज़ाक मत उड़ाइये . आप तो ऐसे नहीं थे . क्या हो गया है आपको ? कैसी सोहबत में रह रहे हैं आप ? आपके मुंह से ऐसी बातें सुनकर मुझे शर्म आती है .

और हाँ ,आपने लालटेन की तौहीन की तो आपकी सहयोगी पार्टी की एक नेत्री जो इस चुनाव में उम्मीदवार भी हैं ,ने गोडसे को देशभक्त कह कर भगवा  इतिहास की  नयी इबारत लिख दी है . यानी गाँधी की हत्या देशभक्ति थी या है .  कुछ वर्ष पूर्व आप जोर   -शोर  से बिहार में गांधी-उत्सव मना रहे थे . अब गांधी जी की इस तौहीन पर आप चुप क्यों हैं ? दरअसल यह गांधी जी का सवाल भी नहीं है ,यह देश का सवाल है . हम किस रास्ते पर बढ़ रहे हैं ?   एक छोटी -सी बात पर कि मोदी प्रधानमंत्री उम्मीदवार क्यों बने ? आपने 2013 के जून में भाजपा से कुट्टी कर ली थी . लेकिन इतने गंभीर मसले जो कि एक घिनौनी  हरकत भी है ,पर आपकी आत्मा अब क्यों नहीं डोल रही है ?
क्या लालटेन की तरह गांधी का युग भी चला गया नीतीशजी ?

Wednesday 15 May 2019

अनामिका की कविता चुनाव

चुनाव: अनामिका

"अपनी चपलतम मुद्राओं में भी नर्तक
सम तो नहीं भूलता,
पहिया नहीं भूलता धुरा,
तू काहे भूल गई, अनामिका?"
"तू कौन है, याद रख-"
शास्त्रों ने कहा!
तू,-तू-मैं-मैं करती दुनिया ने
उंगली उठाई-
"आखिर तू है कौन-
किस खेत की मूली?"
मैं तो घबरा ही गई,
घबराकर सोचा-
"इस विषम जीवन में
मेरा सम कौन भला?
नाम-तक की कोई चौहद्दी
तो मुझको मिली नहीं-
यों ही पुकारा किए लोग-'अनामिका!'
एक अकेला शब्द 'अनामिका'-
आगे नाथ, न पगहा।
पापा ने तो नाम रखते हुए
की होगी यह कल्पना
कि नाम-रुप के झमेले
बांधें नहीं मुझको
और मैं अगाध ही रहूँ,
आद्या जैसी
घूमूँ-फिरूँ जग में
बनकर जगतधातृ जगत्माता।
चाहती हूँ कि
साकार करूँ-
बेचारे पापा की कल्पना और
भूल जाऊँ घेरेबन्दियाँ, लेकिन हर पग पर हैं बाङे!
अचकचा जाती हूँ
जब पानी पूछते हुए
लोग पूछ देते हैं आज तलक-
"आप लोग होते हैं कौन!"
रह जाती हूँ मौन
अपनी जङें टटोलती!
पर मजे की बात यह है कि
एक खुफिया कार्रवाई
एकदम से शुरू हो जाती है तबसे ही
मेरे उद्गम-स्त्रोतों की
और ताङ से गिरकर
सीधा खजूर पर अटकती हूँ
जब मेरी जातिके लोग
झाड़ देते हैं रहस्यवाद मेरा
और मिलाकर हाथ कहते हैं ऐन चुनाव की घङी,
"हम एक ही तो हैं, मैडम,
एक कुल-गोत्र है हमारा!
अब की चुनाव में खङा हूँ
आपके भरोसे!"
"मत याद रख, भूल जा"-
गाता है जोगी
सारंगी पर गाता!
मुस्काके बढ़ जाती हूँ आगे!

            ●●●
कवयित्री अनामिका के कविता संग्रह  'पानी को सब याद था' से साभार

ज्ञानेंद्रपति की कविता : बनारस में, मलदहिया चौराहे पर

बनारस में, मलदहिया चौराहे पर
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बनारस में, मलदहिया चौराहे पर
चैराहे पर के यातायात-द्वीप में खड़ी
लौह-पुरुष की आदमकद धातुई प्रतिमा के गले में पड़ी
गेंदे के फूलों की माला
बदली जाती है रोज, जी हाँ
लेकिन वह जरा जल्द ही मुरझाती है रोज के रोज़
क्या केवल लौह-पुरुष के दिगन्त-व्यापी प्रताप के अन्तस्ताप से
कि लोक-व्यथा से भी
लौह-पुरुष थे कि नहीं पता नहीं, लोक-पुरुष तो बेशक थे पटेल-
सरदारवल्लभभाई पटेल
प्रथम गृहमन्त्री आजाद भारत के
एक टूटे हुए देश को सँभालना था जिन्हें
खूनी दंगों को रोकना था
हठीली रियासतों को देश के रक्त-जल में मिलाना था
एक था इकलौता लक्ष्य
टूटन से पिराते उन दिनों में
उन्हें निर्णायक होना था
निर्माता होना था

इन दिनों, जब से
गाँव-गाँव से
तनिक नाटकीय ढंग से
कृषि-औजारों के लोहे का अंशदान
इकट्ठा करने की बात चली है
गुजरात में बनने वाली
दुनिया में सबसे ऊँची साबित होने वाली
किसानों के उस अनन्य हितू की प्रतिमा के लिए
कि जिसकी ऊँचाई के लिए अक्सर कहा जाता है सगर्व
अमरीका में की लिबर्टी की प्रतिमा को छोटलाने वाली
भला स्वतन्त्रता की मशाल-भुज प्रतिमा को
छोटी क्यों करना चाहेगी प्रतिमा पटेल की
आखिर वह एक स्वतन्त्रता के उपासक की प्रतिमा है
जानती है बखूबी, मलदहिया चैराहे पर
यातायात-द्धीप के गोलम्बर-बीच खड़ी
आजानुबाहु पटेल-प्रतिमा
सारा खेल वह खूब समझती है
रातों की निस्तब्धता में कान लगा कर सुनती है
अपने खेतों से खदेड़े जाते
लालची पूँजी के नृशंस हाथों असमान युद्ध में असमय खेत आते
भारतीय किसानों के बेघर से उठने वाला
अनसुना रहने वाला
टुअर विलाप
इसीलिए, लगता है, गम और गुस्से से
इधर तनिक उत्तप्त रहने लगा है लहू
इस प्रतिमा का
गले गेंदे के फूलों की माला
कुछ और जल्दी मुरझाने लगी है इन दिनों
बीतते माघ में भी

हालाँकि जानती है बखूबी
यह भी, यह गरिमामयी पटेल-प्रतिमा मलदहिया चैराहे पर की
कि जब भी बनेगी
वह महामूर्ति, गुजरात में
अपना आकाशचुम्बी मस्तक उठाये
भले दे विमानों को चेतावनी
राहगीर पक्षियों के सुस्ताने के लिए
पेश करेगी अपना माथा निरहंकार उदार!
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चंद्रकांत देवताले की कविता : माँ पर नहीं लिख सकता कविता (मातृ दिवस पर विशेष)

'माँ पर नहीं लिख सकता कविता'

माँ के लिए सम्भव नहीं होगी मुझसे कविता
अमर चिऊँटियों का एक दस्ता मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है
माँ वहाँ हर रोज़ चुटकी-दो-चुटकी आटा डाल देती है
मैं जब भी सोचना शुरू करता हूँ
यह किस तरह होता होगा
घट्टी पीसने की आवाज़ मुझे घेरने लगती है
और मैं बैठे-बैठे दूसरी दुनिया में ऊँघने लगता हूँ
जब कोई भी माँ छिलके उतार कर
चने, मूँगफली या मटर के दाने नन्हीं हथेलियों पर रख देती है
तब मेरे हाथ अपनी जगह पर थरथराने लगते हैं
माँ ने हर चीज़ के छिलके उतारे मेरे लिए
देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे
और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया
मैंने धरती पर कविता लिखी है
चन्द्रमा को गिटार में बदला है
समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया
सूरज पर कभी भी कविता लिख दूँगा
माँ पर नहीं लिख सकता कविता!

अरुण शीतांश की कविता दिन

दिन
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यह कैसा दिन है
कैसा मौसम है
और कैसी बरसात है
हम तमाम मौसम में तमाम तरह की बातें करते रहते हैं

हम गांव में रहकर
शहर में रहकर
कस्बे में रहकर
महानगर में रहकर
विदेश में रहकर
विभिन्न तरह की बातें करते रहते हैं

हम जो शुरू में होते हैं
वह अंत में नहीं रहते
हम अंत हो जाते हैं
हम शुरू के अंत नहीं होते

अंत के शुरू होने में देर नहीं लगती
हम फूल की तरह खिलते हैं
और फूल की तरह ही मुरझा जाते हैं
हम बादल की तरह घिर आते हैं
हम बहुत दूर तक जाने की सोचते हैं
जहां बकरियों का झुंड हो
पक्षियों का कलरव हो
खेतों में हरी - भरी फसलें हों
किसान के चेहरे खिले हुए हों
हम एक ऐसे नितांत अकेलेपन में बातें करते हों
जहां पेड़ की पत्तियां किसी बूढ़ी मां की झूलनी की तरह हिलती रहती हों

हम उस नितांत अकेलेपन में भी दौड़ते,हांफते ,हंसते और मुस्कुराते भागते जाते हैं

हमें ऐसी दुनिया की तलाश हैं
जहां बादल से लटकी हुई बूंदें हों
जो कभी भी बरस सकती हों
हम पेड़ के पत्तों पर अटकी हुई बूंद की तरह चमकीले दिखाई दे रहे हों

हम ओस की बूंद की छाया में बैठकर किसी गरीब की झोपड़ी पर बातें कर रहे हों

वैसा भारत का गांव हाई टेक्नोलॉजी और साइबर जोन युक्त
तमाम सुविधाओं से लैस
हमारा जीवन क्षेत्र
पानी के अभाव में जवानी खो रहा हो

वैसे में कौन सी लड़की
किसी युवा से शादी कर सकती है
ना ट्विटर पर
न फेसबुक पर
न क्वेरा पर
या किसी सोशल साइट पर ....
हम ऐसी दुनिया में रह रहे हैं
जहां मौत का कुंआ है
और धुआं है

अरुण शीतांश

ज्योति शोभा की कविताएं

1

अब मेरे पास क्या बचा है कोलकाता

अब मेरे पास क्या बचा है कोलकाता
जिस पर तुम हक़ जताओगे !

मेरी आँखें थी
वो तुमने एक नीलकंठ पर जड़ दी
मेरे कपोल रगड़ दिए
रक्तसिमूलों की देह पर
ग्रीवा पर छाप छोड़ दी अपनी उँगलियों की
जब खींचते थे अशोक की छाँह में
कहा था .. लवों पर रहने दो सूर्य का प्रखर ताप
मगर उसे तुमने भिगो दिया
दुकूल संग टसकती चैत की अपराह्न

चुम्बनों तक को नहीं छोड़ा तुमने
वो मेरी काया में जीवन के एकमात्र लक्षण थे

उसे क्यों दे आये
बाउल गाते मटमैले दान पात्रों में

अब वह क्यों आएगा मेरे पास लौट कर !

कोलकाता अब तुम प्रेम करो मुझे
मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व के एवज में
उससे भी बहुत ज्यादा
मेरी तरह टूट के !

ज्योति शोभा

2

पतले टाट के परदे से आवाज़ आती थी -
वह कह रही है लम्बे बालों वाले प्रेमी से चिपटे हुए
चलो भाग निकलते हैं बंगाल से
रहेंगे दूर जंगलों में
जहाँ नदी को प्यास नहीं लगती है
जहाँ आग के लिए लोग अब भी पत्थर नहीं रगड़ते होंगे पत्थर से
जहाँ कबूतरों को साक्षी नहीं बनाते होंगे
जलते चमड़े और बहते खून के

नहीं छपती हो न छपे तुम्हारी कविताएँ
भाषा परिषद् नहीं होगा तो भी पतली पन्नी में बचे रहेंगे छंद
चिनिया बादाम बचा रहेगा
यहाँ नहीं तो सुदूर दक्षिण के किसी पेड़ पर
जरा फीका और कसैला
किन्तु डरेंगे नहीं दाँतों के बीच रखते

सच है बंगाल ही पढ़ता था ऐसे डूब के कविताएँ
और बंगाल ही देखता है उन्हें जलते हुए

क्या पता आज विद्यासागर को तोड़ा है
कल ठाकुर को गिरा देंगे
फिर तुम्हें प्यार करते हुए किसके नाम की कसम देगी मेरी उँगलियां
किसके नाम से तिरेंगे श्याम नभ पर
रूखे केशों के गुच्छे।

ज्योति शोभा

Monday 6 May 2019

अरमान आनंद की कविता सत्य

सत्य
जब भी समक्ष होगा सत्य
तुम अचेत हो जाओगे
और नही हुए
तो कम से कम लड़खड़ा तो जरूर जाओगे
सत्य तुम्हारी कल्पनाओं के उलट होगा
एक बात और
देखो सत्य का चेहरा
वह कभी भी
खूबसूरत नहीं होगा
सत्य ही अगर देवता है
तो सोचो उन देवताओं के बारे में
जिनके तुमने मनोहारी रूपों के वर्णन सुने

Friday 3 May 2019

बेगूसराय चुनाव-2019 - पत्रकार महेश भारती की कलम से

बेगूसराय चुनाव-2019

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक चुनाव के रिजल्ट को लेकर आंकड़ेबाजों के गुरुर टूट चुके होंगे . निश्छल समर्थकों व भावुक कार्यकर्ताओं के बीच मतगणना तक भ्रम रखने की उनकी कवायद भी तेज हो गई होगी. चुनावी राजनीति के ये आम नुस्खे होते हैं. कोई हारना नहीं चाहता. आज से एक महीना पहले एक पार्टी के चिंतक से जब मैंने बेगूसराय के चुनाव को लेकर चर्चा की और जमीनी हवा, गठबंधन के असर और जिले के चुनावी  इतिहास के सबक को लेकर सच्चाई बयां किया तो उन्होंने कहा चुनाव तक कम से कम ये बात आप न बोलिए.
बेगूसराय में लोकसभा का यह चुनाव काफी चर्चित रहा देश के मीडिया समूहों ने, बुद्धिजीवियों ने ,विभिन्न विचारों के समर्थकों ने आकर इसे दिलचस्प बना दिया. चुनाव के दौरान एक मीडिया चैनल से जुड़े पत्रकार को जब मेंने कहा कि आपलोग सच्चाई से परे खबरें दिखा रहें हैं तो उन्होंने कहा -सर टीआरपी बढाना है कि नहीं. एक खास उम्मीदवार उनके टीआरपी का हिस्सा था. एक चैनल के वरिष्ठ पत्रकार ने कहा-चुनावी रिपोर्टिंग तो है, यहां  कन्हैया के लिए.
चुनाव के इस खेल में शायद ही देश के कोई भी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कर्मी बचे  रह पाएं हों.  उनके कोण में  चाहे जो हों बेगूसराय के चुनाव को धरातलीय भावना से अलग की रिपोर्टिंग के लिए भी जाना जाएगा. एक दिन कुछ पत्रकारनुमा लडकों की एक टीम से भेंट हुई और जब पूछने पर मेंने अपने अनुभवों और समझ को बताया तो वे किसी खास के पेसुआ निकले . पूरे जिले में ऐसी टीमों को लगाया गया था जो यहां के जमीनी सच्चाई से अलग तो थे ही उनके पास अनुभव की भी कमी थी.
लेकिन इन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी.
बेगूसराय की चुनावी चर्चा को लेकर सोशल मीडिया ग्रुप को लडकों का जोश भी अपने समर्थकों को लेकर खासा दिलचस्प रहा. हैं मुंबई और दिल्ली में.यहांतक की विदेश में.  लेकिन चुनाव को लेकर खासे झूठ परोसने से किसी को परहेज नहीं. चुनाव हो चुके हैं. सभी सच्चाई से अवगत भी हैं. वोटों के धु्रवीकरण के सच सामने आ चुके हैं लेकिन ऐसे प्रवासी अभी भी आंकड़े से अपनों को संतुष्ट करने में लगे हैं।

                घड़ी की सुई पीछे घूमती है और बेगूसराय चुनाव को लेकर हमें हरिहर महतो याद आ जाते हैं. जब 1999 लोकसभा चुनाव के संदर्भ में उनहोंने एक उम्मीदवार के बारे में कहा था कि उसे तो सौरी घर में ही नमक चटा दिया गया. इस चुनाव में बेगूसराय में महागठबंधन बनने की प्रक्रिया में टूट ने पहले ही सब कुछ तय कर दिया. वोटों के गणित के जातीय और सांप्रदायिक समीकरण के फुफकार जो बिहार की राजनीति में 1991 के लोकसभा चुनाव से सुनाई पड़ते रहे हैं की प्रयोगशाला में लाल रंग से परहेज की बात उठ गई.
जिसे लेकर पूरे देश के नामी बुद्धिजीवी,संपादक,पत्रकार,कवि,लेखक,फिल्मिस्तानी वर्तमान सरकार की घेराबंदी में लगे थे वह दूध उस फुंकार के विष से यहां फट गया थाः.  हालाँकि सौरी घर में नोन चटे उस बालक की आकृति को लेकर  ये मचलते रहे. बेगूसराय ऐसे लोगों की तीर्थस्थली बन गयी जिसकी संरचना बनने से पहले ही बिगाड़ दी गयी थी और मुर्दा में जान फूंकने की उनकी कवायद जारी रही. राजनीति  े पहले ही खेल बिगाड़ दिया था और ये जानते हुए भी कि सभी मरे हुए हैं  महाभारत के रण में लड रहे थे. ऐसे लोग भी  जो जिले के जातीय और सांप्रदायिक गणित को समझ रहे थे सच्चाई से अवगत भी थे. जिले के एक वडे वामपंथी नेता ने चुनाव के दौरान बातचीत में कहा भी तामझाम तो बहुत है वोट कहां है. हां बाहर से आनेवाले लोगों ने प्रयोगशाला में जमकर प्रयोग किया. अपने अपने तरीके से. जातीय और सांप्रदायिक समूहों में शायद बडी टूट का सपना पाले वे अपने अभियान में सफल भी रहे. लेकिन, बेगूसराय के चुनाव की पटकथा के लेखक ने महागठबंधन की टूटी रस्सी से पहले ही फांसी लगा ली थी. वोटों के गणित के हिसाब हमेशा टेढेमेढे होते हैं.यहां तो सोचनेवाले के लिए ये सीधे थे. जाति, गोत्र, वंश, इस पार उस पार, जिले के बेटे और बाहरी, जैसे सूत्र उछाले तो गए ही .कोई यह नहीं कह सकता कि चुनाव की वैतरणी पार करने के लिए वे बाछी की पूंछ नहीं पकड़े. राजनीति की इस प्रयोग
शाला की धरती पर जब चिंतक, विचारक,   जानकारों को भी भी झूठे प्रलाप करते देखता तो मुझे कभी बडी हंसी आती. वोटों क् गणित के सूत्र फेल हो जाने के बाद भी लोग कैसे झूठ के गणित रटते हैं.
यह बेगूसराय के लोकसभा चुनाव में स्पष्ट था.

        बेगूसराय लोकसभा चुनाव कई मायनों में दिलचस्प रहा. दलों के चुनावी टिकट की होड से लेकर महा गठबंधन बनने की कवायद और टूट तक.
बिहार में जातियों के गणित की चुनावी रणनीति 1990 के दशक से बनने लगी और 2001 आते आते वह जातीय समीकरण के गठजोड़ में तबदील हो गई. बेशरम से जातियों के नेता ने अपने दल बनाए और फिर बडे राजनीतिक दल उनके बाहुपाश में झूलने लगे. सिद्धांत और नैतिकता से भरे नेताओं ने या तो दल छोड़ दिया या फिर उन्हें छोडने को मजबूर किया गया. कई राजनीतिक दल भी हाशिए पर आ गए. उनके समर्थक और वोटर जातीय भावना में जातीय सांप्रदायिक नेताओं की शरण में चले गए . सीट झटकने की छीना झपटी में लग गए. सब अपने जोगाड में.
   बेगूसराय भी इससे भिन्न नहीं रहा. दल के अंदरखाने टिकट पाने की होड और चुनावी गठजोड़ से नाखुश नेताओं की लंबी श्रेणी. टिकट से वंचित नेताओं की लाबी भीतरघात के इतिहास रचने में जुट गई. कोई दल अछूता नहीं. संगठित और अनुशासित दल में पुराने नेताओं की फौज चुनावी परिदृश्य से गायब नजर आए तो नए लोगों का हुजूम सामने आ गया. उनके पास न तो चुनावी अनुभव था न ही धरातलीय चुनाव जीतने के गणित के सूत्र . गुटबाजी चरम पर रही.  कई नेत अंडरग्राउंड हो गए. कई की उम्मीदवार द्वारा पूछ नहीं हुई. टिकट न मिलने से नाराज नेताओं के भीतरघात की कहानी फिर कभी. राजनीतिक गठजोड़ वाले दलों के नेतृत्व व कार्यकर्ताओं की प्रतिबद्धता भी कई जगह नेताओं से भिन्न. महागठबंधन के एक बड़े घटक दल के कई नेता व कार्यकर्ता चुनाव प्रचार के दौरान मिले जो अपने गठबंधन से इतर के उम्मीदवार के लिए वोट मांगते नजर आए. यूं कोई दल इससे अलग  नहीं.  बेगूसराय के चुनावी गणित हल करने के एक माहिर ने बताया यह राजनीतिक संकट का दौर है. जब नेताओं की प्रतिबद्धता नहीं है तो कार्यकर्ता और जनता कहां माननेवाले हैं .बेगूसराय के चुनावी परिणाम को ऐसे लोग प्रभावित तो बहुत ज्यादा नहीं कर पाए. लेकिन, उम्मीदवार और उनके समर्थकों को सशंकित जरूर कर दिया ।
चुनावी विश्लेषण -4
बेगूुसराय चुनाव-2019
बेगूसराय में लोकसभा का चुनाव  राष्टीय मीडिया, बुद्धि्जीवियों ,शासक दल के पदासीन नेताओ, संपूर्ण विपक्ष के चर्चा के केन्द्र बिन्दु में रहा. आखिर क्यों. इसके कारणों की पड़ताल जरूरी है. सिर्फ वैचारिक आंदोलन और मत विरोध की वजह से नहीं चुनावी रणनीति की वजह से भी. बेगूसराय के वामपंथी उम्मीदवार ने कई मिथकों को तोड चुनाव लड़ने के सारे आयुध को अपने चुनावी युद्ध में लाकर विरोधियों की बोलती बंद कर दी. कारपोरेट टाइप चुनाव प्रचार में सारे दलों को पीछे ही नहीं काफी पीछे छोड़ जिले में वामपंथी प्रत्याशी ने नया इतिहास रच दिया. एक पुराने वामपंथी साथी ने कहा इसबार के चुनाव प्रचार के तरीके से आगे किसी वामपंथी का चुनाव लडना कठिन टास्क हो जाएगा. जिस पार्टी के पास कभी एक अदद जीप चुनाव में हुआ करती थी वहां गाडियों का काफिला था. चुनावी खर्च  में भी शासक दल और दूसरे उम्मीदवार से काफी आगे. कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार और नई संस्कृति का प्रादुर्भाव . वोट को समेटने के नए तरीके भी और जाति, धर्म, गोत्र का मंत्र भी.  पूंजीवाद को पानी पी पी कर गाली देनेवाले चुनावी राजनीति  में उस  संस्कृति से थोड़ा भी कम नजर नहीं आए. एक बुजुर्ग वामपंथी ने हमें चुनाव प्रचार के दौरान कहा 1967 से चुनाव देख रहा हूं इस बार ही चुनाव में हमलोगों का समाजवाद आया है.  हर विरोध और समर्थक के मुंह पर हम हैं. हालांकि चुनाव प्रचार में सारे विरोधियों से आगे निकलने के बाद भी वोटों के गुणा भाग में सफलता पर उनका  संदेह बरकरार था.
  बेगूसराय की सीट को लेकर महगठबंधन की राजनीति में सीपीआई को अलग थलग करने में राजद और एनडीए की मिलीभगत की बात भी उठी.  राजद नेताओं ने इसे एक जिले और एक जाति की पार्टी तक कहा. कहने वाले नेता के बाप से भी पहले बननेवाली पार्टी को एक सीट भी देने को वे राजी नहीं हुए तो नवजात पार्टियों को दो से पांच सीटों  का गिफ्ट मिल गया. राज्य की वाम पार्टियां कटोरा लिए अंत तक महा्गठबंधन की आस में रहे. वाम को भाजपा ैसे ज्यादा  अपमान गठबंधन के नेतृत्व से सहना पडा.. लेकिन चुनाव में भाजपा और उसके पीएम हीै निशाने पर रहे .वोटों के गणित पर कल आंदोलन.

             बेगूसराय लोकसभा चुनाव 2019 कई राजनीतिक समीकरण के बनने के लिए याद  किए जाएंगे. चुनावी रिज़ल्ट के पहले और जब रिज़ल्ट को लेकर लोग दावे प्रति दावे तेज किए हों तो उन्हें सच्चाई से अवगत कराने या उनके नजदीक तक पहुंचाना जरूरी होै जाता है. कई लोग ऐसे मुगालते में हैं कि तीसरे पायदान पर रहनेवाले को भी जिताने की गारंटी लिए बैठे हैं. तर्क और गणित का, वोटों की गिनती का उनका अपना हिसाब है.जिताना या हराना हमारा काम नहीं . सिर्फ बेगूसराय के चुनावी गणित पर अपनी बेबाक राय जो तार्किकता से भरा हो और जिन समीकरणों की चर्चा चुनाव के दौरान बनी और  मतदान में जो प्रत्यक्ष हुआ उसकी सत्यता की तह तक पहुंचने की कोशिश जरूरी है.
    पिछले 2014 के चुनाव के रिजल्ट और 2019 के रिज़ल्ट में कोई बड़ा बदलाव नहीं होनेवाला है. वोटरों की संख्या चुंकि बढी है तो आनुपातिक परिवर्तन स्वाभाविक है. पिछले चुनाव की तरह तीन में प्रतियोगिता है. वोटरों का समीकरण भी कमोवेश वही है . राजनीतिक जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी वही देखे गए जो पिछले चुनावों के थे.  पार्टियों के गठबंधन में थोडा अंतर जरूर आया.
     बिहार में पिछले 28 बरसों से जातीय रुझान के वोट हैं. मुसलमानों की सांप्रदायिक सोच पर चर्चा से भागा नहीं जा सकता. चुनाव प्रचार के दौरान प्रसिद्ध पटकथा लेखक जावेद अख्तर ने एक माकूल और ऊंची बात कही. कहा कि मुसलमान मुसलमान प्रत्याशी को इसलिए वोट नहीं दे कि वो उनकी जात के हैं.वे दूसरी जमात को उम्मीदवार को यह कहकर वोट दें कि हम आपके साथ हैं. इससे देश का लोकतंत्र मजबूत होगा और वे आपके एहसानमंद भी होंगे और आपके विकास के भागीदार भी.
यह लोकतंत्र के लिए सच्चा संदेश है. लेकिन खुद जावेद जी को इसलिए बेगूसराय बुलाया गया कि वे मुसलमानों का वोट ठीक कर सकें. जब आप कश्मीर से कन्याकुमारी तक के एक कौम और जाति से जुडे लोगों को इसलिए बुलाते हैं कि उनसे उस कौम या जाति का वोट ठीक हो जाएगा और ऐसे लोग उन्हीं की आबादी में घूमें तो दलों के, नेताओं के ,विचारों के, लोकतंत्र की धज्जियां उड़ रहीं होती है. फिर भी चुनाव जीतने के लिए इसमें कोई किसी से पीछे नहीं.
बेगूसराय का चुनाव इन जातीय और सामाजिक समीकरण के वोटों के गणित में ही उलझा है. सामाजिक जातियों और मुसलमानों के वोट ठीक करने के लिए जब आप अभियान चलाते हैं तो रिज़ल्ट भी उसी के अनुरूप होंगे. कभी जगजीवन राम ने कहा था इस देश की जनता शिक्षित नहीं समझदार बहुत है. तो जातीय समीकरण की राजनीति के इस दौर में जनता का निर्णय भी उसी के पक्ष में जाएगा जिसके सामाजिक जातियों के वोट का दायरा बडा हो.

         बेगूसराय में चुनावी लडाई जाति से उबर नहीं पायी. बडी बडी आबादी वाले  जातियों के वोट बांटने की कोशिश मेंे में सभी दलों के लोग शामिल रहे. जिनका जिन जातियों में आधार रहा वहां उनके वोट बैंक नजर आए. राष्ट्रवाद, विकास, देशद्रोह, सा माजिक न्याय ,समता आदि के नारे तो लगे वे जाति, संप्रदाय से ज्यादा पवित्र नजर नहीं आए. हर ने एक दूसरे के समीकरण में सेंधमारी की भरपूर कोशिश की लेकिन चुनाव में मानसिकता बना चुके वोटर पार्टी के कार्यकर्ताओं और नेताओं से आगे नजर आते रहे.
लफ्ज जबतक वुजू नहीं करते
हम तेरी गुफ्तगू नहीं करते
लाल नवाचारी चुनाव प्रचार व्यवस्था  में प्रतिद्वंदी बैकफुट पर ही नही काफी पीछे नजर आए. प्रचार की सुगठित  शैली में संगठन, तंत्र,धन की जोड के जुटने से वाम का प्रचार जो इतिहास में पिलपिलाता सा नजर आता था इस चुनाव में सबसे तगड़ा बना उच्च शिखर पर नजर आया.गरीब और गरीबों की पार्टी कही जानेवाला मिथक टूट से गए.  विरोधी उम्मीदवार इस मामले में लगभग फिसड्डी नजर आए. चुनावी प्रचार ने वाम में जोश तो भरा लेकिन आधार वोट बैंक की कमी और उम्मीदवार पर जेएनयू के देशविरोधी नारों का ठप्पा लगे रहने और जिले के पुराने नेताओं के साथ तारतम्यता के अभाव ने वोटरों के बीच हमेशा संशय बनाए रखा. बावजूद बडी संख्या में बाहरी प्रचारकों को लाने और युवा जोश को जगाने में उन्हें सफलता मिली. बेगूसराय के लोकसभा चुनाव भाजपा के उग्र राष्ट्रवादी चेहरा और वाम के चर्चित चेहरे के बीच जातिवादी दलों के कथित सामाजिक न्याय के धार्मिक पुट लिए चेहरे के बीच था. लेकिन त्रिकोण के तीनों कोणों के योग की ज्यमितीय व्याख्या जो हो यहां वह व्याख्या राष्ट्रवादी कोण के साथ झुका नजर आया. बरौनी, बछवाडा, बखरी जैसे क्षेत्रों में त्रिकोणीय मुकाबला चेरियाबरियारपुर, मटिहानी, बेगूसराय, साहेबपुरकमाल में काफी पिछड़ता नजर आया. राष्ट्रीय मीडिया से लेकर नीचे की मीडिया मैनेजमैंट में सब पर भारी पड़ वाम और दक्षिण की लड़ाई में सामाजिक न्याय का नारा गुम होते नजर आया. मीडिया ने तो उन्हें पूरे तौर पर नजरंदाज कर दिया, उपेक्षा भी. लेकिन, धरातल पर अपने आधार वोट को समेटने और उन्हें टूटने से बचाने में वे सफल रहे.चुनाव के रिजल्ट में मीडिया को टीआरपी बढाने और विज्ञापन वसूलने के अलावा चुनाव प्रचार के काम में यहां संलिप्तता के लिए भी याद किया जाएगा.

     बेगूसराय लोकसभा क्षेत्र में चुनावी पैटर्न दलीय निषठा औऱ गठबंधन धर्म को तार तार कर गया.  जारी चर्चा और विशलेषण के बीच कल एक कांग्रेसी सज्जन ने मेरे फेसबुक पर आकर कहा कि हमलोग राजद से अलग सीपीआई की मदद में थे. उनका कहना था कि राजद जीते या सीपीआई मदद केन्द्र मे कांग्रेस की ही करेंगे. चुंकि पूरे देश में बेगूसराय का चुनाव कई मायने में भिन्न था औऱ मोदी विरोध के राष्टीय प्रतीक के रूप में चर्चित सीपी आई का चेहरा कांग्रेसियों को ज्यादा मुफीद लगा इसलिये उन्होंने गठबंधन धर्म का पालन नहीं किया. कमोबेश गठबंधन से जुड़े दलों के जातीय गणित भी गडबडा गए और उन्होंने दलीय तानाबाना को छिन्नभिन्न कर अपने पसंदीदा प्रत्याशी के पक्ष में मतदान किया. कांग्रेस के अगडे वोटर सीपीआई के पक्ष में तो मुस्लिम और पिछडे राजद में.
     भाजपा को विकास, मोदी के प्रधानमंत्री चेहरा और सर्जिकल स्टर्राईक के अलावा जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का लाभ भी गांवों मे मिला. मुस्लिम बाहुल्य गांवों में धार्मिक ध्रुवीकरण का असर रहा कि दलितों और पिछड़े ने भाजपा के पक्ष में मतदान कर सारे समीकरण ध्वस्त कर दिए. कई गांवों में वोटर मोदी सरकार की शौचालय, उज्जवला,किसान सम्मान, पेंशन आदि के मोह में मोदी के पक्ष में नजर आए. महिलाओं, दलितों और पिछड़ों की बडी भागीदारी भाजपा के पक्ष में साफ दिखाई दे रही थी.
  यूं सीपीआई कीे युवा प्रचारक टीम भी करिश्माई अंदाज मे  वोटरों को लुभाने में लगी रही. दलित, मुस्लिम, पिछड़े, सवर्ण के गोत्रीय नेता  तक को अपने अपने क्षेत्र में सीपीआई के पक्ष में प्रचार और वोटरों को लुभाने के लिए भेजा गया. राजद के एमवाय के समीकरण बेंधने में सीपीआई को कुछ सफलता जरूर मिली मगर ये मुक्कमल नहीं रहा. राजद इन वोट बैंक के अलावा अगडे विरोध वाले पिछड़े वोट पर कब्जा जमाने में सफल रही.
      भाजपा को जदयू गठबंधन का लाभ भी मिला. स्वजातीय कुर्मी और धानुक मतदाता पर प्रभाव रखनेवाले नीतीश कुमार ने उन्हें लुभाने के लिए जिले में कई सभा भी की.

          चुनावी विश्लेषण के क्रम में आज एक कामरेड ने फोन करके कहा कि आपको पता नहीं है पिछले 2014 के चुनाव में जितने कामरेड भोला बाबू को वोट किए थे इस बार के चुनाव में वे सब लौट आए औऱ उन्होने सीपीआई के  पक्ष मे मतदान किया ही नही अपितु करवाया भी. उन्होंने जोडा और थोड़ी नाराजगी जताते हुए कहा भी, हम जीत रहे हैं . वाह भाई  मैं किसी को जीतने में मना थोड़े करता हूं. तो पिछले चुनाव मे कामरेडों ने अपने उम्मीदवार रहते भी भाजपा प्रत्याशी को वोट किया. यह दल के अंदर के अन्तरविरोध का परिणाम था या फिर  कामरेडों का जातीय या धार्मिक प्रेम.

      मामला जो कुछ हो पिछले चुनाव मे ही भाजपा उम्मीदवार भोला सिंह ने भाजपा को सर्वग्राह्य पार्टी का दर्जा जिला मे दिला  दिया . भोला सिंह ने बरास्ते कम्युनिस्ट होते भाजपा तक की यात्रा की थी.भोला सिंह की जीत सर्व विदित है. इस चुनाव मे भाजपा ने अपने फायर ब्रांड नेता गिरीराज सिंह को बेगूसराय से उम्मीदवार बनाया. काफी नानुकर और मान मनौव्वल के बाद  वे बेगूसराय आए. लेकिन दल का अंतरविरोध साथ लेकर. टिकट न मिलने से नाराज नेताओं ने पहले तो बाहरी भीतरी का नारा उछाला और बाद मे सीपीआई का यह चुनाव प्रचार का पंचलाइन बन गया. चुनाव में जिले का बेटा ,बाहरी भीतरी ,भाजपा के जिले के नेताओं की उपेक्षा का मुद्दा छाया रहा. भाजपा के नाराज नेतागण चुनाव प्रचार से भी अलग दिखे. हालांकि मोदी से प्रभावित वोटरों ने उनके भीतघाती प्लान को असफल कर दिया.

      इसी तरह सीपीआई में बडी संख्या में बाहरी प्रचारक तो आए लेकिन जिले के तपे तपाये और स्थापित पार्टी नेता तथा कार्यकरता पिछले चुनावों के बने अंतरविरोधों से उबर नहीं पाए. कसक तपेतपाये नेता गण को बायपास करने के मामले को लेकर रहा.यूं पार्टी अनुशासन और युवा जोश को देखते उनकी चुप्पी बनी रही. ऐसे नेता पारटी के आधुनिक हाईटेक चुनाव प्रचार से भौंचक भी थे और दबी जबान से आलोचक भी. सीपीआई का 2019 का चुनावी खर्च और प्रचार का ढंग जिले के चुनाव के लिए इतिहास से अलग की वस्तु बनी रही.

     राजद का चुनावी जंग अपने नायक के जेल मे रहने और थके हारे बुझे कार्यकर्ताओं का चुनाव बनकर रह गया. नया नेतृत्व न,ई उर्जा का संचार नहीं करा सका. घिसेपिटे उनके नारे को मोदीब्रांड ने हाईजैक कर पिछडे,अतिपिछडे,दलित जातियों मे अपनी घुसपैठ कर अपने वोट बैंक का दायरा बढाते जीत आसान कर ली.

      चुनाव हो चुके हैं. मत ईवीएम में बंद गर्भगृह में हैं. इससे किनका बच्चा जीवित और किनका मृत निकलता है यह आस लिए सब आकलन में लगे हैं. चुनावी विश्लेषण को जब कोई अपने चश्मे से देखने लगता है तो निष्पक्षता पर शंका स्वभाविक है. चश्मे का दायरा बढाईए . थोडी बात सुनते चलिए.
   कल पूर्व सांसद रामजीवन बाबू से भेंट हुई.  मतदान पर चर्चा के दौरान मैंने उत्सुकतावश पूछा .बेगूसराय से कौन जीतेगा. उन्होंने कहा कौन जीतेगा,यह तो 23 मई को बताया जाएगा, फिलहाल देश के चुनाव मे लोकतंत्र हार गया.और जब लोकतंत्र हार गया तो समाजवाद कैसे आएगा. बिना लोकतंत्र के समाजवाद आ नहीं सकता और बिना समाजवाद के लोकतंत्र टिक नहीं सकता. अच्छे उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अच्छे साधन भी चाहिए, साध्य पूरा करने के लिए साधन की पवित्रता जरूरी है. जब साधन ही अपवित्र हैं तो साध्य का परिणाम कैसा होगा,
        लोकतंत्र को लाने, उसे सुचारू रूप से चलाने तथा मजबूत करने के लिए जनता mass को शिक्षित प्रशिक्षित करना जरूरी है. जनता को शिक्षित करने के लिए लोकतंत्र में दो ही अवसर हैंelection and struggle  चुनाव व जनांदोलन. लेकिन चुनाव के वक्त जनता को शिक्षित करने के बजाय नेता विक्षिप्त कर देते हैं.जाति,धर्म, भाषा, क्षेत्र, संप्रदाय से उतरकर गोत्र तक पर वोट मांगा जाता है. ऐसा इसलिए होता है कि  विचार या सिद्धांत की बात करनेवाले अपने को ही विचार का प्रयाय मान लेते हैं. वे समझते हैँ कि हम नहीं तो जग नहीं. और जिसमें या जब मैं का भाव आ गया तो वहीं से सारी बुराई शुरू हो जाती है.और लोकतंत्र मे ं स्व का कोई स्थान नहीं है. लोकतंत्र की पहली शर्त है स्व का विसर्जन.
     आज यह अंतिम कडी है. बेगूसराय की जनता  ने वोट डाल दिए. निर्णय23 मई को आना है. पिछले आम चुनाव  की तरह  कमल,लालटेन, हंसिया बाली में क्रम बदलता है या फिर  यही रहता है. एक बात और सीपीआई के उम्मीदवार के मत ज्यों ज्यों बढेंगे जीतने और हारने का अंतर भी. ऐसा इसलिए कि वो राजद के वोट बैंक को ही ज्यादा प्रभावित कर रहा है. ऐसा इसलिए कि हम तो डूबे सनम तुझको भी ले डूबे, राजद के नेतृत्व ने महागठबंधन नहीं बनने दिया.एक तरह से आप कह सकते हैं कि जीत की पटकथा तो उसी दिन लिख गया था जब मुकम्मल गठबंधन नहीं हुआ.  जिले में अतिपछडे, व महिलाओं के वोट भाजपा के.खाते में जाने से बेगूसराय का यह चुनाव कई संदेश छोडेगा. चुनावी रिजल्ट का आकलन वोटरों के रुझान पर ही होते हैं.   आप मेरी बात सत्य मत मानिए.लेकिन सत्य हमेशा आकलन का हिस्सा है. रोम के पोप ने जब गैलेलियो  से कहा कि सूर्य पृथ्वी के चारों ओर घूमता है. . तब उसने कहा था यह झूठ है और सच्चाई वही रहेगी. झूठ बोलकर गुमराह करना मेरे लेखन का न हिस्सा रहा है न बनना चाहता हूं.  बेगूसराय जिले पर चुनाव का असर इसका विश्लेषण रिजल्ट बाद.

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