Sunday 20 January 2019

कविताएं पर्यावरण के लिए

1.

हमीं
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हमीं दफना जाएँगे
सारे खेत
और बाग
सारी फसलों, जंगलों को
हमीं लगा जाएँगे आग

हमीं सोख जाएँगे
सारा पानी
पेट्रोल
सारा लोहा सोना कोयला
हमीं कर जाएँगे गोल

जब तू आएगा, मेरे लाल
दुनिया रहेगी
ठन-ठन गोपाल!

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युवा कवि राकेश रंजन के काव्य संग्रह 'दिव्य कैदखाने में' से साभार

2

तुम्हारी इच्छाओं से
कम होती जा रही पृथ्वी की परिधि
तुम्हारी इच्छाओं से प्रदूषित हो रहा क्षितिज
जहां आकाश से धरती के मिलने की संभावना
अपवित्र होती जा रही
और सुनो कवि
पृथ्वी पर दुबारा मिलना
अब इतना कठिन है
की उसकी व्याख्या
वर्तमान में कोई कविता नही कर सकती

आर्य भारत

Thursday 10 January 2019

आगवानी में पुत्र- राजीव रंजन प्रसाद

आगवानी में पुत्र
..........
(अरुणाचल आ रहे अपने पिता की पहली यात्रा के निमित्त)

पापा! आप आ रहे हैं
बेटे के पास
उस बेटे के पास
जिसे आपने अपने पाँव पर चलना सिखाया

पापा! आप आ रहे हैं,
बेटे के पास
उस बेटे के पास
जिसे आपने अपनी राह खोजना सिखाया

पापा! आप आ रहे हैं,
बेटे के पास
उस बेटे के पास
जिसे आपने खुद पर हौसला रखना सिखाया 

पापा! आप आ रहे हैं,
बेटे के पास
उस बेटे के पास
जिसे आपने अपनी ग़लती स्वीकारना सिखाया

पापा! आप आ रहे हैं,
बेटे के पास
उस बेटे के पास
जिसे आपने अच्छे के आगे झुकना सिखाया

पापा! आप आ रहे हैं,
बेटे के पास
उस बेटे के पास
जिसे आपने जीने के लिए लड़ना सिखाया

पापा! आप आ रहे हैं,
बेटे के पास
उस बेटे के पास
जिसे आपने हमेशा ऊँचा होना सिखाया

पापा! आप आ रहे हैं
बेटे के पास
उस बेटे के पास
जिसे आपने संतान के लिए पिता होना सिखाया

(राजीव रंजन प्रसाद)

चिट्ठी एक अध्यापक की- राजीव रंजन प्रसाद

चिट्ठी एक अध्यापक की
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प्रिय विद्यार्थियों ,

सफलता और असफलता ज़िन्दगी के चित्त-पट हैं। पर अक्सर हमारी आकुलता या कहें सारी बेचैनी सफलता पाने को लेकर ही परेशां-हाल रहती है। हम किसी भी चीज को अच्छे से जाने बगैर आगे बढ़ जाने को अपनी सफलता मान लेते हैं। हमें सिर्फ अपने बढ़े हुए पाँव और इसके बीच नापी गई ज़मीन से मतलब होता है; किन्तु हम यह नहीं देख पाते कि इस दरम्यान हमने नया क्या सीखा, नया क्या जाना? यह भी कि जो जाना उसे ग्रहण किस प्रकार किया है, साधा कैसे है? कई चीजें छुटी भी, जिन्हें सहेजना जरूरी था। गुजरते वक़्त की स्मृति में बहुत कुछ शामिल होता है जिससे हमारे ज़िन्दगी के असल ‘कैरेक्टर’ बनते हैं।

इन दिनों फेसबुक, इंस्टाग्राम, वाट्स अप, ट्वीटर, यू ट्यूब आदि तो हमारे ज़िन्दा होने के असल पर्याय सिद्ध होने लगे हैं। यह सनक गंभीर है और इसका लती हो जाने पर हमारे व्यवहार का असामान्य और दिनचर्या का गड़बड़ हो जाना तय बात है। आज के किशोरवय का तकनीकी-प्रौद्योगिकी के प्रति यह मोहग्रस्तता चरम पर है। वे जाने-अनजाने इन अत्याधुनिक साधनों के चंगुल में है। कई बार तो इनकी वजह से उनकी जान पर भी बन आती है। ‘ब्लू व्हेल’ गेम के शिकार हुए भारतीयों बच्चों में विडियो आॅनलाइन गेम का खतरनाक परिणाम देखे जा चुके हैं। इसी तरह फेसबुक जैसे सोशल मीडिया में दोस्तीबाजी की आड़ में ‘साइबर क्राइम’ के कई सारे केसेज सामने आ चुके हैं।

मुख्य बात यह है कि संचार-माध्यमों की इन दिनों बड़ी धूम है। इनसे हमारा रिश्ता-वास्ता हर रोज का है; लेकिन संचार-यंत्रों का सामान्य इतिहास-बोध भी क्या हमको पता होता है? जैसे-हम आसानी से ई-मेल सुविधा का लाभ उठाते हैं, तो क्या यह जानते हैं कि किसके दिमाग में पहली बार ‘इलेक्ट्राॅनिक मेल’ का विचार आया होगा। वह व्यक्ति क्या भारतीय था; अगर हाँ तो उसका नाम क्या था या उसने कब इसका पहली बार प्रयोग किया आदि-आदि। ऐसे ही कई सवाल जब तक हमारे जे़हन में नहीं उमड़ेंगे-घूमेंगे हम कुछ नया नहीं सीख पाएँगे; उल्टे जो सीखा है उसको भी बिसार देंगे। आजकल अपनी चीजों को गँवाना आसान है, लेकिन उसके महत्त्व को कायम रखना बेहद मुश्किल और जोख़िम भरा दायित्व है। कारण कि हम सब वर्तमानजीवी होने का आदी हो चुके हैं। हमारे घंटे-मिनट की सुई बेकार हो गई है और हम हर काम को ‘फ्रैक्शन आॅफ सेकेण्ड’ में करने का जुनूनी हो गए हैं। यह प्रवृत्ति खतरनाक है, जिससे बचा जाना आवश्यक है।

आजकल किशोर बच्चे सामान्य हिसाब-किताब करने में कमजोर हैं। उन्हें दस-बारह वस्तुओं की अलग-अलग कीमत जोड़ने को कह दें, तो उनके चेहरे का भाव ऐसा बनेगा कि मत पूछिए। कुछ तो तुरंत स्मार्ट कैलकुलेटर निकाल लेंगे। अरे! ये क्या हुई बात? आपको आगे चलकर बनना इंजीनियर है, भारत के सबसे टाॅप रैंकेस्ट इंस्टीट्यॅट में दाख़िला लेना है और आप अभी से सामान्य-बोध में फिसड्डी साबित हो रहे हैं। इसी तरह कई बच्चों को यह याद रखना बोरिंग मालूम देता है कि किस चीज में कौन-सी विटामिन है और क्या चीज होने से हमारे शरीर को फायदा होता है और उनके न होने से कौन-सी विशेष तरह की बिमारी होती है या हो सकती है। दरअसल, हम यह भूलते जा रहे हैं कि सीखने से समझ बनती हैं; जानने से ज्ञान का विस्तार होता है। इसी ज्ञान-विवेक से तर्कसहित निर्णय करने की योग्यता विकसित होती है। और योग्यता अंकों की मग़जमारी से नहीं बल्कि जाने-समझे गए हुनर-कौशल से हमारे व्यक्तित्व में निखार लाता है; हमें सबका प्रिय बनाता है। दूसरे का विश्वास हम पर तभी जगता है या भरोसा कायम होता है जब हम अपने काम को सही-सटीक ढंग से करते हैं; किसी समस्या को हल करने से भागते नहीं, बल्कि उनसे जूझते हुए सदैव उचित समाधान निकालने की कोशिश करते हैं। करने की चाहत होने से क्या संभव नहीं है। हमने अपने बचपन में बड़े-बुजुर्गों को यह कहते सुना है-‘करत-करत अभ्यास से, जड़मति होत सुजान। रसरी आवत-जात से, शील पर पड़त निशान।।‘ नेपोलियन बोनापार्ट के बारे में प्रायः कहा जाता है कि उसने कहा था कि-‘उसकी डिक्शनरी में असंभव नाम का कोई शब्द नहीं है’। यह कहने का हिम्मत-हौसला उसी में होता है जिसकी इच्छाशक्ति मजबूत होती है; जिसका अपना निर्णय संकल्पवान होता है। इसी से हममें लगकर काम करने की प्रवृत्ति पैदा होती है। हम परिश्रमपूर्वक उन चीजों को पाने का हरसंभव प्रयत्न करते हैं जिसे पाने की अभिलाषा हमारे मन में पैठी होती है। इस तरह की सोचावट होने से हमारे अंदर अपने काम के प्रति लगाववृत्ति पैदा होती है। हम अपने काम को बोझ नहीं समझते हैं, बल्कि उसके प्रति हमारी जो टान या कहें कि अटूट निष्ठा है वह हमसें अमुक काम करा लेती है। हम पूरे आशा और उत्साह के साथ जब अपने काम को पूरा करते हैं, तो हमें दोहरी खुशी मिलती है। हमारी आत्मसंतुष्टि दुनिया की सर्वोत्तम उपहार है या कह लें अमूल्य भेंट।

कौन कहता है कि बच्चे इतिहास नहीं रचते या अपनी तरह से अपने समय का दस्तावेजीकरण नहीं करते। एनी फ्रैंक का नाम आज पूरी दुनिया जानती है। तेरहवर्षीय एनी फ्रैंक की लिखी डायरी ‘द डायरी आॅफ ए यंग गर्ल’ की चर्चाएँ अक्सर सुनने को मिल जाती है। लेखन में रूचि रखने वाली इस बहादुर लड़की ने 1942 से लेकर 1944 के बीच के समयांतराल का वर्णन किया है जिन दिनों एनी का बचपन हिटलर के नाजी हुकूमत का शिकार हुआ था।

सौ बात की एक बात कि हम अध्यापकों को भी अपने बच्चों के भावनाओं की गरिमा को भी ध्यान में रखना होगा। उनके इरादों अथवा पसंद-नापसंद को तरज़ीह देना होगा। हमें स्वयं ऐसी हरक़तों से परहेज़ करना होगा जैसा व्यवहार उनसे न करने की हम अपेक्षा करते हैं या उम्मीद रखते हैं। हम अक्सर अपने सयानेपन के आगे उनकी बात को महत्त्व नहीं देते हैं या चाहे-अनचाहे उनके कहे को अनसुना कर डालते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि समय बितने के साथ वे भी बड़े हो रहें हैं। उनमें भी विचार और तर्क करने की क्षमता और योग्यता विकसित हो रही है। वह हमारी भाषा के मायने और सन्दर्भ समझ रहे हैं। यह भी ध्यान देना होगा कि ज्ञान पाने या अर्जित करने का अर्थ केवल किताबों के संग-साथ होना या बस्ते का बोझ ढोना नहीं है। जब तक हमारे बच्चों की सार्गिदगी में वे चीजें शामिल नहीं होंगी जिनके बीच उनका जीवन फल-फूल रहा है; वह सच्चा मनुष्य नहीं बन पाएँगे। अपने आस-पड़ोस या इर्द-गिर्द के वातावरण से कटकर हम अपने बच्चों को, किशोरों को दुनिया भर से यांत्रिक सम्बन्ध बनाने का अवसर तो उपलब्ध करा सकते हैं, मनोरंजन सम्बन्धी गैजेट्स तो उनको दिला सकते हैं; लेकिन हम उन्हें ज़िन्दगी की वास्तविकताओं से मरहूम कर देंगे। इन्हीं चीजों में आवश्यकता से अधिक रमे रहने से यह तय है कि वे अपनी प्राथमिकताओं को भूल जाएँ। यानी मूल्य, संस्कार, नैतिक-बोध, भाईचारा, साझेदारी, सामंजस्य इत्यादि जो मानव-विशेष की मूलप्रवृत्तियाँ होती हैं; उससे हमारी भावी पीढ़ी सर्वथा अनभिज्ञ मालूम दे। बड़ी से बड़ी घटनाओं, त्रासदियों आदि का उनके मानस-पटल पर कोई असर ही न पड़े। हिंसा, हत्या, लूट, अपराध, बर्बरता, दुष्कर्म जैसी जघन्यतम घटनाओं से वे स्पंदित-संवेदित ही न हों। ऐसा हो सकता है जब हम भौतिक-संसाधनों के कृत्रिम विलासिता को अपना सर्वस्व घोषित कर दें और भावी पीढ़ी को भी उसी खूँटे में बाँधकर रखने लग जाएँ।

अतः जरूरी है कि हमसब एक-दूसरे से जुड़े रहे, आपस में प्रेम और अपनापे के मजबूत बंधन में बँधे रहे। अध्यापक हों, पैरेंट्स हो या बच्चें; सबको यह समझना होगा कि अपनी ही भावनाओं की तरह औरों की भावनाओं का कद्र करना ही दुनिया का सबसे बेहतरीन विचार है। अपने दुख-सुख की तरह ही औरों की आवश्यकताओं-जरूरतों को महसूस करना ही इंसानियत का सबसे बड़ा धर्म है। धर्म अपने मूल अर्थों में ‘सबको संग साथ’ धारण करने, अपनाने, स्वीकार करने से अभिप्रेत है; इसलिए इस धर्म को ही अपनी ज़िन्दगी का मुख्य उद्देश्य बना लेना आज की दौड़ती-भागती-बदलती दुनिया का मुख्य दर्शन है, तज़रबा या कह लें फ़लसफ़ा है।

इस साल के मुसकान के साथ आगामी वर्ष की शुभकामनाओं सहित,

आपका टीचर

मीडिया गुलामगिरी के इस दौर में : डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद

मीडिया गुलामगिरी के इस दौर में : डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद
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आजकल सोशल मीडिया से लगायत अधिसंख्य मीडियाहाउस ज्यादा, शोख, बदमिज़ाज़ और नकचढे़ किस्म का हो चले हैं। कहने को तो जनमाध्यम है, पर लोगों से सरोकार लेशमात्र भी नजर नहीं आता। किसी जमाने की मिशनधर्मी पत्रकारिता अपने मुख्य लक्ष्य से भटकते हुए आज प्रायोजित राजनीति, सिरफिरे निर्णय, भ्रष्ट शासन-तंत्र, सेक्स, हिंसा तथा हल्के व फुहड़ किस्म के मनोरंजन का ठेकेदार बन चुकी है। किसान, युवा, विद्यार्थी, दलित, पीड़ित जनसमाज ख़बर से बाहर धकेले जा चुके हैं; वह भी इरादतन। लिहाजा, सैद्धांतिक मूल्य तथा नैतिक-बोध जैसी कोई स्पष्ट लक्ष्मण-रेखा दूर-दूर तक नजर नहीं आती, जिस से यह अनुमान लगाया जा सके कि हम कहाँ कौन सी भूल कर रहे हैं?

नये निर्धारित मानदंड के मुताबिक संपादकीय विशेषाधिकार प्रबंधकीय जिम्मेदारी के पाले में चला गया है। मीडियावी पद और रुतबा पाकर बौराए नौसिखिओं की कारगुजारियाँ भयावह और देश के लिए त्रासद है, यह मीडिया और राजनीति के मिलीभगत से स्वतः ज़ाहिर है। आज मीडिया ने संपादकीय सत्ता एवं पत्रकारीय वजूद को खंडित-मंडित करते हुए पत्रकारिता के मूल-स्वर को ही विलुप्त कर डाला है। नामचीन और अभिजनवादी मीडिया प्रशिक्षण केन्द्रों/ मैनजमेंट स्कूलों से प्रबंधन का गुर सीख मीडिया के उच्चतम पदों पर आसीन लोगों के लिए पत्रकारिता एक पैकेजिंग आइटम है जिसे कलात्मक ढंग से एक उत्पाद माफिक बेचा जाना है।

स्वाधीनता से ठीक पहले पत्रकारिता में ओज और सत्य के प्रति जो दृढ़ आग्रह दिखलाई पड़ता है। उसका अंशमात्र प्रभाव भी आज की पत्रकारिता में नहीं है। जनहित और जनकल्याण को अपना प्राथमिक दायित्व मानने वाली यह पत्रकारिता असल में गाँधी के ‘सर्वोदय पत्रकारिता’ तो डाॅ. अम्बेडकर के ‘बहिष्कृत भारत’ का  उदाहरण है। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाएँ भी इन जननायकों का समर्थन करती दिखती हैं। एक जमाने में दैनिक समाचार पत्र का उद्देश्य लोगों में सूचना, शिक्षा एवं स्वस्थ मनोरंजन को अधिकाधिक विकसित करना था। यह आम से खास वर्ग तक एकसमान पहुँच को प्रदर्शित करने का उपयुक्त जरिया थी। उनका यह दृढ़विश्वास था कि पत्रकारिता समाज में जागरूकता और जागृति लाने का सशक्त हथियार है जो व्यक्ति की आंतरिक खूबसूरती को निखारते हुए उसे कला-साहित्य व ज्ञान-क्षेत्र की बौद्धिक दुनिया से परिचित कराता है। इस दौर की पत्रकारिता महज सूचना-स्रोत का अथाह सागर न हो कर जनचेतना, जनवाणी और जनसमृद्धि का विकासमान प्रतीक मानी जा चुकी थी। नामों की फेहरिस्त में प्रमुखता से शामिल भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालमुकुन्द गुप्त, बालकृष्ण भटृ, प्रताप नारायण मिश्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, गणेश  शंकर विद्यार्थी, बाबूराव पराड़कर, माखनलाल चतुर्वेदी, प्रेमचंद, तिलक, गाँधी अम्बेडकर आदि ऐसे पत्रकार थें, जिनके लिए मुनाफे की बात कौमी एजेंडे अथवा धार्मिक फलसफ़े के आगे तुच्छ और अस्वीकार्य थी।

लेकिन आज पत्रकारिता में फायदे की बात सर्वोपरि है। आप चाहे कितने भी कुशल, दक्ष और सक्षम क्यों न हो? आपकी पूछ तभी होगी, जब आप अखबारी संस्थान को मोटी आय उपलब्ध कराने में सफल हों। अन्यथा आप से बेहतर कई जन अपने भरे-पूरे रिज्यूम के साथ लाइन में खड़े हैं। कड़ी प्रतिस्पर्धा के इस कठिन दौर में अखबारी दफ्तर अब हाईटेक बन चुका है। अब पहले माफिक एक कोठरीनुमा जगह से अखबार निकालना संभव नहीं है। अब आडम्बर का प्रक्षेपण किया जा रहा है जिसमें प्रस्तुत छवियाँ निहारने वाले को इतना मोहित कर ले कि उसका विवेक काम करना स्वतः बंद कर दे। वह कहे को सुने ही नहीं, सच मान लें; यह जानते हुए कि यह सबकुछ फंतासी है, वाग्जाल है।

वह दौर बीत गया जब घाटे का सौदा जानकर भी पत्र या पत्रिका निकालने की एक अदद कोशिश होती थी। श्रमजीवी पत्रकार की भूमिका निभाते हुए औने-पौने मेहनताना पर संपादक और पत्रकार बनने की होड़ मची रहती थी। जबकि अब संपादक या उपसंपादक का मतलब एक ढंग का बंगला, लग्जरी कार और अत्याधुनिक सामानों की पूरी फौज साथ होना है। महत्त्वाकांक्षी संपादक या पत्रकार अब सुविधाभोगी हो गया है, और सरकारी उच्छिष्टों का तलबगार भी। समय ने शहरी जीवनशैली को इतना बदल दिया है कि मीडियाकर्मी इन सब चीजों से कट कर रह ही नहीं सकता है।

गौरतलब है कि आज के मीडियाकर्मियों की खुद की परेशानी और तकलीफ कम नहीं है। चौबीसों घंटे वह काम करने का दबाव झेल रहा है। नौकरी हर पल एक चैलेंज सामने रखती है। व्यावसायिकता के बवंडर ने उसकी व्यक्तिगत सोच, विवेक और दृष्टि को मानों सोख लिया है। उस पर हर कीमत पर सबसे पहले ख़बर हासिल करने और दिखाने का दबाव है। ऐसी खबर जिसके अंदर हंगामा खड़ा कर सकने की कुव्वत हो तथा बहुतांश लोगों में सनसनी फैला देने का दमखम हो। क्योंकि आम-आदमी की हकीकत दिख-दिखाकर और उसे बार-बार दुहरा कर उन्हें अपना बिजनेस चौपट नहीं करना है।

अतएव, सिर्फ यह कह चुप्पी साध लेना कि आज की पत्रकारिता नीलाम हो रही है या फिर हाशिए पर ठेली जा रही है, तर्कसंगत नहीं है। निःसंदेह पत्रकारिता द्वारा पूर्व-स्थापित मानदंडों में बदस्तूर गिरावट जारी है तथा ख़बरों में मानवीय सोच, संवेदना और दिशा-दृष्टि का पूर्णतः अभाव है; फिर भी हमें मीडिया के अंदर के ‘पॉलिटिक्स’ को नए तरीके से समझने की जरूरत है। अंदरूनी समीकरण को जब तक दुरुस्त नहीं किया जाता हम मीडिया पर एकतरफा आक्षेप या आरोप मढ़कर खुश अवश्य हो सकते हैं, किंतु सार्थक उपाय ढूँढ पाना बेहद मुश्किल है। अतः आधुनिक पत्रकारिता के खिलाफ हल्लाबोल किस्म का प्रोपगेंडा फैलाने की बजाय इस बारे में पूरी गंभीरता के साथ सोचा जाना ही श्रेयस्कर है। हमें इस व्यवस्था के अंदर काम कर रहे लोगों की मजबूरियों पर भी दृष्टिपात करना होगा जिनके लिए हाल और हालात ने ऐसी परिस्थितियाँ रच दी है कि उसकी मुखालफत कर कोई भी पत्रकार या मीडियाकर्मी एक ढंग का ठौर ठिकाना हासिल नहीं कर सकता है।

लोभ-स्वार्थ, घृणा-महत्वाकांक्षा तथा झूठ-फरेब से भरे इस दौर में मीडिया के अंदर स्वस्थ-सृजन हो, सूचना-संवेदन हो, ज्ञान-विवेक हो, वैज्ञानिक-दृष्टि हो; इसके लिए जरूरी है-सरकारी प्रयास, समर्थं ढाँचा, बेहतर वेतनमान, पारदर्शी कानून और स्वैच्छिक अचारसंहिता। मीडिया बिकाऊ है, क्योंकि उसमें निवेशित पूँजी सरकारी कम विदेशी अधिक है। जहाँ सीधे ऐसा नहीं है वहाँ वह सरकार की परिचारिका है; उसका पालतू ‘हियरिंग डाॅग’ है। अन्तरराष्ट्रीय पूँजीदारों ने लोकतांत्रिक सरकार तक की बोली लगाकर खरीदी कर ली है, यही सचाई है। अतः आज हर दल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ‘एजेण्ट’ हैं और जो इस तरह के कतार में शामिल नहीं हैं वे या तो बौने करार दिए जा रहे हैं या उनकी शक्ल पर अक्लमंदी का ताला जड़ दिया गया है।

युवा जाति नहीं जमात देखें, नागार्जुन का आह्वान सुनें: डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद

युवा जाति नहीं जमात देखें, नागार्जुन का आह्वान सुनें: डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद
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जनकवि नागार्जुन स्वातंन्न्योत्तर भारत के जननायक हैं और जननेता भी। उनकी अंतश्चेतना में लोक-जन की छवि कैसी है? एक लेखक उनका परिचय देते हुए कहते हैं-‘‘नागार्जुन ने अपनी काव्य-कृतियों और कथा-कृतियों में जीवन को उसके विविध रूपों में, जटिल संघर्षों को, राजनीतिक विकृतियों को, मजदूर आन्दोलनों को, किसान-जीवन के सामान्य दुःख-सुख को पहचानने और उसे साहित्य में अभिव्यक्त करने का सृजनात्मक उत्तरदायित्व बखूबी निभाया है। वे प्रगतिशील चेतना के वाहक, जनचेतना के पक्षधर, निम्नवर्गीय व्यक्तियों के प्रति करुणाशील, उदार मानवतावाद के पोषक, स्वस्थ प्रेम के व्याख्याता, प्रखर व्यंग्यकार और जीवन के प्रति आस्थावान होने के कारण सच्चे प्रगतिशील, सर्जनात्मक क्रांति के संवाहक, मानवता के प्रतिष्ठापक और अशिव के ध्वंस पर शिव का निर्माण करने वाले कवि हैं।’’

यह परिचय नागार्जुन के भरे-पूरे कवित्व का संकेतक मात्र है; न कि पूरी सचबयानी। नागार्जुन अपनी रचनाधर्मिता में समदर्शी हैं, विचार की धरातल पर साफगोईपसंद यानी स्पष्टवक्ता हैं, तो अपनी रचना के रचाव-बनाव और पहिराव में निछुन्ना सादा, सहज, सरल, सपाट या कह लें एकदम सामान्य वेशधारी हैं। उनकी एक बड़ी खूबी यह कही जा सकती है कि वह समय की विद्रूपता या नग्नता से घबड़ाते अथवा भयभीत नहीं होते हैं; बल्कि वे निर्भयमना होकर उन आताताइयों के ऊपर सही कटाक्ष और सटीक प्रहार करते हैं जो ‘सत्यमेव जयते’ तथा ‘अहिंसा परमो धर्मः’ के नाम पर ढोंग और ढकोसला करते हैं; कभी वामपंथ, तो कभी दक्षिणपंथ और यदि न हुआ तो धर्मनिरपेक्ष होने/बनने का हवाला देकर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकते हैं। रोमा रोलां का कहा मानें, तो-‘ओह! स्वतंत्रता, दुनिया में सबसे अधिक छल तुम्हारे नाम पर ही हुआ है।’

नागार्जुन भारतीय मानस के सन्दर्भ में ‘स्वाधीनता’ शब्द के प्रयोग को लक्ष्य करते हुए कहते हैं : जमींदार है, साहूकार है, बनिया है, व्यापारी है/अंदर-अंदर विकट कसाई, बाहर खद्दरधारी है।/माताओं पर, बहनों पर, घोड़े दौड़ाए जाते हैं/मारपीट है, लूटपाट है, तहस-नहस बरबादी है।/जोर जुलम है, जेल सेल है, वाह खूब आजादी है।'

यह प्रहसन अक्षर, शब्द, पद, वाक्य, अर्थ इत्यादि के भाषिक-विन्यासों अथवा व्याकरणिक कोटियों का ढेर-बटोर मात्र नहीं है। यह आज के शिगूफेबाज़ राजनीति का जोड़-घटाव, भाग-गुणनफल, दशमलव-प्रतिशत, लाभ-हानि भी नहीं है जिसकी चोट से घवाहिल हमसब है; लेकिन बाहरी मुखौटे पर अद्भुत खामोंशी है, विराट मौन है, निर्विघ्न सन्नाटा है। वस्तुतः उनकी यह बात संविधान की उस मूल अभिव्यक्ति को प्रश्नांकित करती है जो छापे का अक्षर पढ़ने पर सब अर्थ देती हैं; लेकिन आचरण-व्यवहार में उसका कोई निर्णायक अर्थ-औचित्य सिद्ध नहीं होता है। उत्तर आधुनिक सहस्त्राब्दी का यह दूसरा दशक समाप्ति पर है जिसमें तीसरी मर्तबा लोकसभा चुनाव सम्पन्न हुए हैं; लेकिन मूल सवाल ज्यों का त्यों है कि इस जनादेश में जनता कहाँ है? अगर है भी तो उसके होंठ खुले क्यों नहीं हैं? उसकी जीभ हिल क्यों नहीं रही है? कहीं ऐसा तो नहीं कि वे सचमुच मिसिर बाबा की कविताई का अकार-आकृति हो गए हैं जिसका शीर्षक ही है-‘खुले नहीं होंठ हिली नहीं जीभ’। इस कविता में जनता की देहभाषा मानों जीवंत हो उठी हो; वे कहते हैं : 'खुले नहीं होंठ/हिली नहीं जीभ/गतिविधि में उभरी/संशय की गंध/इंगितों में छलका अविश्वास/अनचाहे भी बहुत कुछ/कह गई फीकी मुसकान/लदी रही पलकों पर देर तक झेंप/घुमड़ता रहा देर तक/साँसों की घुटन में/बेचैनी का भाफ/बनती रही, मिटती रही/देर तक भौंहों की सिकुड़न/हिली नहीं जीभ/खुले नहीं होंठ'।

दरअसल, हमारी मौजूदा दुनिया कपटपूर्ण अधिक है, मानवीय बेहद कम। इस पारिस्थितिकी-तंत्र में हमारा संवेदनहीन, स्पंदनच्यूत और स्फोटरहित होना हमारी नियति का अंगीभूत/अंगीकृत सत्य बन चुका है। इस नियति का सर्जक अथवा निर्माता कोई और नहीं है। पुरानी पीढ़ी के वे लोग या उनकी संतान-संतति ही हैं जो कभी देश के लिए अपना सबकुछ न्योछावर कर देने पर आमादा थे। आज राजनीतिक घरानों या कि वंशवादी राजशाहियों का चलन आम हो चुका है। नई पीढ़ी में शामिल अधिसंख्य जन स्वार्थ, लोभ, धनाकांक्षा आदि के प्रपंच-पाखंड में बुरी तरह जकड़े हुए हैं। जनसमाज के प्रति गहरी निष्ठा और निश्छल प्रेम दूर की कौड़ी हो चली है। छलकते सहानुभूति यदा-कदा दिख जाते हैं जबकि वे अपनी मूलप्रकृति में अत्यंत ठिगनी हैं।

समाज में स्त्री-विभेद और लैंगिक असमानता इतनी जबर्दस्त है कि इन्हें देखते हुए हमारे भीतर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि-‘क्या भारतीय मानुष सचमुच देवियों की पूजा-अर्चना करते हैं? क्या वे सचमुच नारी-शक्ति के प्रति श्रद्धानत और उनका कोटि-कोटि ऋणी हैं? वर्तमान में जिस तरह ममतामयी स्त्रियों के ममत्वपूर्ण चरित्र का सायासतः खलनायकीकरण या बाज़ारूकरण किया गया है; वह भारतीय स्त्रियों का किसी भी रूप में सम्मान अथवा उनकी प्रतिष्ठा में इज़ाफा नहीं है। आज की स्त्री लोकतांत्रिक रूप से छली गई एक ऐसी प्रतिरूप/आकृति है जिसकी वंदना सबलोग सार्वजनिक रूप से करने में नहीं अघाते हैं और उसकी आत्मा को प्रताड़ित करने में भी पीछे नहीं रहते हैं। लिहाजा, इस घड़ी जिन लड़कियों/युवतियों के बाबत सवाल उठते हैं वह सिर्फ और सिर्फ सांस्कृतिक विमर्श का ढकोसला है जिससे होना-जाना कुछ नहीं है; लेकिन नाम गवाना और ढोल-पिटना इन्हीं सब से है।

आजकल अधिकतर चर्चा इस बात की होती है कि बाज़ार ने भारतीय युवक-युवतियों को फैशनेबुल अधिक बना दिया है उन्हें अपने प्रति जवाबदेह और जागरूक कम रहने दिया है। लेकिन इन बातों के प्रस्तोता यह भूल जाते हैं कि यह जाल-उलझाव किनका पैदा किया हुआ है जिसके सर्वाधिक गिरफ़्त में आज के युवजन हैं? वस्तुतः जागरूक और जवाबदेह होना इस बात पर निर्भर करता है कि मौजूदा पीढ़ी के बीच देश-काल-परिवेश, कला-साहित्य-संस्कृति, समाज-संस्कार-सरोकार इत्यादि से सम्बन्धित विचार-विमर्श, वाद-विवाद-संवाद, स्वप्न-कल्पना-आकांक्षा, चिंतन-दृष्टिकोण आदि किस तरह के चल रहे हैं? उनकी बल, त्वरा, शक्ति और ऊर्जा कितनी ज़मीनी और अनुभवी है?

दरअसल, आज की मौजूदा पीढ़ी में ऐसी उपस्थिति और साहचर्य का घोर अभाव है। नतीजतन, आज के युवक-युवतियाँ अपने समकाल और समकालीन यथार्थ-बोध से कम संलग्न हैं उनसे विरत अधिक हैं। ऐसे कठिन मोड़ पर हमें नार्गाजुन का सच्चा वारिस खोजने होंगे जो यह ललकार कर कह सके :

'आओ, खेत-मजदूर और
भूमिदास नौजवान आओ/
खदान श्रमिक और
फैक्ट्री वर्कर नौजवान आओ
कैंपस के छात्र और
फैकल्टियों के नवीन प्रवीण प्राध्यापक
हाँ, हाँ
तुम्हारे ही अंदर तैयार हो रहे हैं
आगामी युगों के लिबरेटर!'

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