राजेन्द्र यादव :व्यक्तित्व एवं विचार
दुनिया में एक धर्म ऐसा भी है जिसका मानना है कि दुनिया शैतान ने बनायी है| राजेन्द्र यादव को पढ़ते- सुनते हुए कुछ कुछ ऐसा ही महसूस होता है| क्योंकि अपने विरोधियों और समाज के सामंतों के लिए वे किसी शैतान से कम नहीं थे |मगर साहित्य की एक अपनी दुनिया जो उन्होंने तैयार की, वह बेहद जीवंत और क्रान्तिकारी मूल्यों से भरपूर थी|सच है की विवादों ने राजेन्द्र जी का साथ कभी नहीं छोड़ा , परन्तु विवादों के भय से कभी अपने शर्तों से समझौता किया हो ,ऐसा भी नहीं हुआ | राजेन्द्र यादव का कार्य क्षेत्र हिंदी साहित्य को एक अमूल्य धरोहर है | साहित्य में राजेन्द्र यादव की अपनी एक दुनिया का निर्माण किया , उनका एक पूरा का पूरा स्कूल था |जिसने शिखर के साहित्य और साहित्यकार हिन्दी को दिए|
राजेन्द्र यादव का जन्म २८ अगस्त १९२९ को आगरा में हुआ था|इनके पिता मिश्री लाल यादव डॉक्टर थे| माता का नाम श्रीमती तारा देवी था|सुरीर नमक जगह से मिडिल की परीक्षा पास करने के बाद ये चाचा के पास मवाना (मेरठ )आ गये|यहीं हॉकी खेलते हुए इनके पांव में चोट लगी |हड्डी निकालनी पड़ी और आजीवन विकलांगता के दंश को झेलना पड़ा|इस दौरान इन्होने काफी साहित्यिक पुस्तकों का अध्ययन किया |झाँसी से उन्होंने १९४४ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की|आगरा विश्वविद्यालय से १९४९ में बी.ए.और १९५१ में एम.ए .की डिग्री हासिल की|एम. ए.में इन्होने प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त किया|१९५४ में कलकत्ता गए और ६४ तक व हीँ रहे|कलकत्ता में ही ज्ञानोदय में दो बार अल्पावधि के लिए नौकरी भी की|१९६४ में राजेन्द्र जी दिल्ली आ गए और अक्षर प्रकाशन की स्थापना की|उनका विवाह मन्नू भंडारी के साथ२२ नवम्बर १९५९ को हुआ था|१५८-५९ में जवाहर चौधरी के साथ अक्षर प्रकाशन की स्थापना की और करीब २५० पुस्तकों का प्रकाशन किया|१९८६ में अक्षर प्रकाशन बंद कर दिया और ज्यादतर किताबें राधाकृष्ण प्रकाशन को दे सोवियत संघ की यात्रा पर निकल गए |१९८९-९० में आई.आई.टी.कानपुर में अतिथि लेखक के रूप में प्रवास किया | १९४७ में इनकी पहली कहानी प्रतिहिंसा आयी|प्रेत बोलते हैं शीर्षक से पहला उपन्यास लिखा जो बाद में सारा आकाश के नाम से प्रकाशित हुआ|इन्होने अपने जीवन काल में अनेक पुस्तकों की रचना की|
कृतित्व:-
कहानी संग्रह- देवताओं की मूर्तियाँ १९५१ ,खेल -खलौने १९५३,जहाँ लक्ष्मी कैद है १९५७,अभिमन्यु की आत्महत्या १९५९ ,छोटे -छोटे ताजमहल १९६१, किनारे से किनारे तक १९६२ ,टूटना १९६६,चौखट तोड़ते त्रिकोण १९८७,श्रेष्ठ कहानियां,प्रिय कहानियाँ, प्रतिनिधि कहानियां,प्रेम कहानियां चर्चित कहानियां ,मेरी पच्चीस कहानियां,ये जो आतिश ग़ालिब २००८ |
उपन्यास - सारा आकाश १९५९ ,उखड़े हुए लोग १९५६,कुलटा १९५८,शह और मात १९६९ ,अनदेखे अनजान पुल १९६३,एक इंच मुस्कान मन्नू भंडारी के साथ१९६३,मन्त्र-विद्ध१९६७,एक था शैलेन्द्र २००७,
कविता संग्रह - आवाज है तेरी२०६०
समीक्षा निबंध - कहानी :स्वरुप और संवेदना १९६८,प्रेमचन्द की विरासत १९७८,अठारह उपन्यास १९८१,कांटे की बात (बारह खण्ड )१९९४,कहानी :अनुभव और अभिव्यक्ति१९९६, उपन्यास -स्वरुप और संवेदना १९९८,आदमी की निगाह में औरत २००१,वे देवता नहीं हैं २००१,मुड़-मुड़ के देखता हूँ २००२,अब वे वहां नहीं रहते २००७,
साक्षात्कार-मेरे साक्षात्कार१९९४,जवाब दो विक्रमादित्य २००७ (साक्षात्कार),काश मैं राष्ट्रद्रोही होता२००८ .यातना संघर्ष और स्वप्न २०१०
संपादन-प्रेमचंद द्वारा स्थापित पत्रिका हंस का अगस्त १९८६ से मृत्युपर्यंत संपादन,एक दुनिया समानांतर१९६७ , कथा दशक हिंदी कहानियां(१९८१-९०) ,आत्मतर्पण१९९४,दिल्ली दूर है १९९५,काली सुर्खियाँ १९९५(अश्वेत खानी संग्रह ),कथा यात्रा १९६७ औरत:उत्तर कथा २००१,अतीत होती सदी और त्रासदी का भविष्य २०००,,देहरी भई बिदस,कथा जगत की बागी मुस्लिम औरतें ,हंस के शुरूआती चार साल २००८,वह सुबह कभी तो आएगी २००८ (साम्प्रदायिकता पर लेख )
अनुवाद :टक्कर-चेखव ,हमारे युग का नायक-लार्मंतोव,प्रथम-प्रेम-तुर्गनेव,वसंत-प्लावन -तुर्गनेव,एक मछुआ-एक मोती -स्टाइनबैक,अजनबी-कामू,नरक ले जाने वाली लिफ्ट २००२,स्वस्थ आदमी के बीमार विचार-२०१२
नाटक-चेखव के तीन नाटक (सीगल,तीन बहने,चेरी का बागीचा)
राजेन्द्र यादव से सम्बंधित रचनाएँ-
हमारे युग का खलनायक राजेन्द्र यादव -साधना अग्रवाल ,शिल्पायन प्रकाशन , दिल्ली, २००५
२३ लेखिकाए और राजेन्द्र यादव -संपादन -गीताश्री किताबघर प्रकाशन नईदिल्ली २००९
राजेन्द्र यादव मार्फ़त मनमोहन ठाकौर -कमला ठाकौर राधाकृष्ण प्रकाशन १९९९
राजेन्द्र यादव का साहित्य में योगदान और हंस (आलेख isahitya.com ब्लॉग पर )
इनका निधन २८ अक्टूबर २०१३ को रात्रि के बारह बजे हुआ |
सात्र ने कहा था-" किसी व्यक्ति के विचारों की समीक्षा उसकी मृत्यु के बाद ही की जा सकती है"|साहित्य में उनके महत्वपूर्ण योगदान पर जब बात की जाए तो कमलेश्वर और मोहन राकेश के साथ नई कहानी के नायक के रूप में राजेन्द्र यादव को याद किया जायेगा,साथ ही हिंदी साहित्य में दलित और स्त्री विमर्श के प्रथम पैरोकार के रूप में उनकी छवि दिखती है||तीसरा सबसे बड़ा और यादगार योगदान है हंस का २८ वर्षों तक सफल रूप से संपादन |प्रेमचंद ने अपने आखिरी दिनों में दो चिंताएं जाहिर कीं|पहला तो यह की उन्होंने जैनेन्द्र को कहा अब आदर्श से काम नहीं चलेगा और दूसरा शिवरानी से हंस को उनकी याद के रूप में चलते रहने की गुजारिश की|इस सम्बन्ध में प्रकाश चन्द्र गुप्त लिखते हैं ...इसके लिए उन्हें अंग्रेज सरकार को एक हजार रूपये की जमानत भी देनी पड़ी तथा हंस का स्वामित्व भारतीय परिषद् से वापस अपने हाथों में लेना पड़ा| इन्हीं दिनों 'हंस' से एक हजार रूपये की जमानत मांगी गयी |सरकार ने सेठ गोविन्ददास के एक नाटक पर आपत्ति की थी |भारतीय परिषद् ने पत्र को बंद करने का निश्चय किया और इस आशय की सूचना भी प्रेमचंद के हस्ताक्षर से दे दी|प्रेमचंद ने गाँधी जी को इस सम्बन्ध में पत्र लिखा |गाँधी जी का निर्णय था-"यदि प्रेमचंद हंस को प्रकाशित करते रहना चाहें ,तो करें|" प्रेमचंद ने हंस को अपने हाथों में ले लिया और जमानत की रकम जमा करवा दी गई|उन्होंने शिवरानी से कहा "रानी तुम हंस की जमानत करवा दो ,चाहे मैं रहूँ या न रहूँ , 'हंस' चलेगा |यदि मैं जिन्दा रहा ,तो सब प्रबंध कर दूंगा |यदि मैं चल दिया तो यह मेरी यादगार होगी| (पृष्ठ सं.-५१ भारतीय साहित्य के निर्माता प्रेमचन्द -प्रकाशचन्द्र गुप्त,२००८ संस्करण ,साहित्य अकादमी ) प्रेमचंद के बाद हंस को उनके पुत्र अमृत राय ने चलाया|बाद के दिनों में यह पत्रिका बंद हो गयी|राजेन्द्र यादव ने प्रेमचन्द के मानस पुत्र के रूप में इस पत्रिका को चलाने का बीड़ा उठाया और प्रेमचन्द की इच्छा का सम्मान करते हुए अगस्त १९८६ से हंस पत्रिका पुनः आरम्भ की, साथ ही उनके अंतिम वाक्य को अपना सूत्र वाक्य भी बनाया की सिर्फ आदर्श से काम नहीं चलेगा|हंस संपादन के दौरान उन्होंने ढूंढ -ढूंढ कर अनछुए यथार्थ को ढूँढ निकला , लिखा और लिखवाया|मैत्रेयी पुष्पा लिखती हैं ...."जब मैंने उपन्यास लिखना शुरू किया ,तो उन्होंने एक खास सलाह मुझे दी|उन्होंने कहा ,ग्रामीण स्त्री के बारे में तुम लिखती हो ,यह मैदान खाली है |तुम्हारा यह जो अनुभव है , इसे यदि तुम अपने लेखन में इस्तेमाल करो तो तुम सबको पछाड़ सकती हो |उसके बाद मैं गांव की हो गई|मैंने गांवों को छान डाला और गांवों में समा गई|" (हिन्दुस्तान सम्पादकीय लेख न जाने कैसा दिल था दिल राजेन्द्र यादव का-मैत्रेयी पुष्पा ३० अक्तूबर २०१३ से )राजेन्द्र यादव न केवल विषय और शैली बल्कि लेखक के व्यक्तिव निर्माण पर भी काफी ध्यान देते थे|विमर्शों को व्यक्तित्व में रूपांतरित होते देखना उनका सपना था|इसी लेख में मैत्रेयी लिखती हैं ..."मैं दो घंटे तक बहार बैठी रही |जब उन्हें बताया ,तो वह बोले ,'बेवकूफ हो क्या ? दो घंटे तक बाहर बैठी रही अन्दर क्यों नहीं आ गयी?वह जो कुछ पूछते मैं सर नीचे करके जवाब देती|थोड़ी देर बाद उन्होंने कहा,'सर उठा कर बात करो'|सर उठा कर बात करने की उनकी वह सलाह मेरे लिए एक सबक थी|" नए लेखकों के प्रति उनके समर्पण एवं विश्वास के बारे में स्वयं उनकी पत्नी मन्नू भंडारी लिखती हैं - "अपने लेखन के प्रति ये जितने निष्ठावान हैं दूसरों को लेखक बना देने की दिशा में में भी उतने ही उत्साही|यदि किसी में जरा सी भी प्रतिभा दिखाई दे जाए तो उसे हर प्रकार से मदद करना ,प्रेरित करना ,उसके साथ घंटों बर्बाद करना इन्हें नहीं अखरता |कलकत्ते में जब नया -नया घर बसाया था ,संयोग से नौकर भी कहानीकार ही मिला था |जिस दिन इस रहस्य का उद्घाटन हुआ था ,उसके दूसरे दिन ही इन्होने उसकी सारीकहानियाँ सुनीं,फिर दो घंटे बैठकर कहानी की टेक्नीक पर भाषण देते रहे ..."
यथार्थवादी ,प्रगतिशील एवं लोकतान्त्रिक होने के बावजूद राजेन्द्र यादव परंपरा और क्लासिक का एक बारगी तिरस्कार नहीं करते थे ,उन्हें सिर्फ सामंती परंपरा से चिढ थी| धरोहरों के प्रति उनके मन में अगाध सम्मान था | इतिहास के बरक्श आधुनिकता की इस खोजी प्रवृति के वे धनी व्यक्ति थे|इस सम्बन्ध में विचार रखते हुए हंस के छब्बीसवें वर्ष के पहले अंक के संपादकीय (हंस, अगस्त २०११)में राजेन्द्र जी ने लिखा था .."सही है की क्लासिकल संगीत या आधुनिक चित्रकला में मेरी गति नहीं है|मगर यह कहना ज्यादती है की मैं इन्हें सामंती कह कर तिरस्कृत करता हूँ , सूर्य मंदिर ,अजंता ,एलोरा या ताजमहल हमारी ऐसी धरोहर हैं ,जिनपर हमें गर्व है|निश्चय ही मैं वहां अकेला या मित्रों के साथ जाऊंगा और अपने को उस युग में स्थानांतरित करके एक नई उर्जा और प्रेरणा के साथ लौटूंगा |हो सकता है आज के लिए कुछ उपयोगी को भी मन में बाँध लाऊं|मगर निश्चय ही मैं अपना घर बना कर वहां रहने नहीं जाऊंगा |वे किसी भी क्लासिक ग्रन्थ की तरह मेरे पास सुरक्षित हैं और उनका वहां हों ही मुझे आश्वस्ति और बल देता है| " कहीं एक वाक्या सुना था कि एक बार एक लेखक की कोई रचना छपी थी, तो उन्होंने अपने गुरूजी को गाँव में फोन करके बताया की उनकी रचना छपके आई है|गुरु जी ने तपाक से पूछा हंस में आयी है क्या? यह है हंस की लोक व्याप्ति और राजेन्द्र यादव का संपादकीय कौशल |जमाना था की लोग तब तक किसी को लेखक नहीं मानते जब तक वह हंस में न छपता|दूसरी बड़ी बात यह थी की हंस के असाहित्यिक पाठकों की भी बड़ी संख्या थी|यह एक मात्र साहित्यिक पत्रिका है, जिसे सुदूर गांवों में भी देखा जा सकता है|मुझ जैसे न जाने कितने साहित्यिक व्यक्ति होंगे जिनका साहित्य के प्रति अनुराग हंस को पढ़-पढ़ कर पैदा हुआ है|प्रख्यात आलोचक मैनेजर पाण्डेय इस बाबत बात करते हुए लिखते हैं -राजेन्द्र यादव के हंस विवेक को प्रभावशाली बनाने में मदद करती है उनकी जानदार और असरदार भाषा |राजेन्द्र यादव के सम्पादकीयों की भाषा जनतांत्रिक है और संवादधर्मी भी|(पृष्ठ -४५, राजेन्द्र यादव का हंस-विवेक,पाखी पत्रिका ,सितम्बर २०११ ) खुद राजेन्द्र यादव भी भाषा के बारे में अपने विचार स्पष्ट करते हुए कहते हैं "व्यक्तिगत रूप से मैं नहीं मानता की विचार की संश्लिष्टता और भाषा की जटिल दुरूहता एक दुसरे के पर्याय हैं| भाषा तभी उलझती है जब या तो विचारों की अस्पष्टता हो ,या अंग्रेजी में सोचा हुआ वाक्य ज्यों का त्यों हिंदी में उतार देने की जिद हो |"(पृष्ठ८५ ,कांटे की बात -४ )भाषा और विचार के संबंधों के उदाहरण के तौर पर मैं प्रेम जैसे क्लिष्ट विषय का उदाहरण दे रहा हूँ ,जिसे पारिभाषित करने के लिए सदियों लिखा जा रहा है और सदियों तक लिखा जायेगा|परन्तु राजेन्द्र जी जब इसे व्यख्यायीत करते हैं, तो कहते हैं -"प्रेम वह है जो हमें सोलह-सत्रह साल की अवस्था में पड़ोस के छत वाली लड़की से हो जाता है|"... हंस के सम्बन्ध में हमेशा से एक सवाल उठता रहा है की क्या हंस वही हंस है जो प्रेमचंद का था ?मेरे विचार से तो नहीं ,क्योकि पत्रिकाओं का स्वरूप तो समाज और वैचारिकी की दिशा और दशा तय करती है|प्रेमचंद ने अपने आखिरी दिनों में जैनेन्द्र से कहा अब वैचारिकी से काम नहीं चलेगा मतलब जिस आदर्श की वकालत वो सम्पूर्ण जीवन करते रहे अंत समय में उसे ख़ारिज कर दिया |राजेन्द्र यादव का हंस उत्तरोतर समाज का हंस है ,जिसकी अपनी वैचारिकी और दिशा है|राजेन्द्र यादव अपने हंस में भी परिवर्तन की मांग को लेकर काफी उत्सुक थे |उन्होंने लिखा .."हंस के छब्बीसवें वर्ष के पहले अंक से ही यह सवाल भी जुदा है की क्या अब पत्रिका के चले आ रहे रूप में कुछ बदलाव आएगा या वहां कुछ परिवर्तन होंगे? सच पूछा जाय तो परिवर्तन तो होते रहे हैं ...(हंस पत्रिका ,अंक ,अगस्त २०११ ) आलोचक मैंनेजर पाण्डेय कहते है.."राजेन्द्र यादव के हंस के हर अंक में उसे 'जन चेतना का प्रगतिशील कथा मासिक ' कहा जाता है|इस कथन में जो प्रगतिशील है वह राजेन्द्र यादव के हंस को प्रेमचंद के हंस से जोड़ता है|तो क्या राजेन्द्र यादव के हंस की प्रगतिशीलता वही है जो प्रेमचंद के हंस की थी|जी नहीं ,प्रेमचन्द की प्रगतिशीलता भारत में और हिंदी में आधुनिकता के आरम्भिक काल की प्रगतिशीलता थी, उसका सम्बन्ध प्रगतिशील आन्दोलन के आरंभिक दौर से भी था, जबकि राजेन्द्र यादव की प्रगतिशीलता उत्तर आधुनिक समय की है,अस्मिता विमर्श के दौर की |मैं पहले भी लिख चुका हूँ की प्रेमचंद के हंस और राजेन्द्र यादव के हंस में वही फर्क है जो प्रेमचंद और राजेन्द्र यादव के बीच है|"(पृष्ठ -४५, राजेन्द्र यादव का हंस-विवेक,पाखी पत्रिका , सितम्बर २०११ )
राजेन्द्र यादव ने भारत की दो अभिशप्त जातियों को उद्धार का भी रास्ता दिखाया ,वे हैं स्त्री जाति और दलित जाति|अपने उपन्यासों और हंस के द्वारा उन्होंने एक वैचारिकी पैदा की जिससे इन दोनों जातियों में समर्थ और प्रतिबद्ध लेख और लेखक पैदा हुए |स्त्रीवादी विमर्शकार लान्का ने कहा था "WOMEN DOES NOT EXIST".ओशो इसी को व्याख्यायित करते हुए अपने शब्दों में कहते हैं-'नारी और क्रांति ',स्त्री मुक्ति के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था - इस सम्बन्ध में बोलने को सोचता हूँ ,तो पहले यही ख्याल आता है कि नारी कहाँ है? नारी का कोई अस्तित्व ही नहीं है |माँ का अस्तित्व है,बहन का अस्तित्व है,बेटी का अस्तित्व है,पत्नी का अस्तित्व है,नारी का कोई भी अस्तित्व नहीं है|(सम्पादकीय ,नारी और क्रांति -ओशो,हिन्द पॉकेट बुक्स) राजेन्द्र यादव इस सम्बन्ध में कहते हैं-"पुरुष की अपेक्षा स्त्री देह में ज्यादा कैद है|वह अपने देह से ऊपर उठाना या उसे भूलना भी चाहे ,तो न प्रकृति उसे ऐसा करने देगी ,न समाज |उसका सारा सामाजिक मूल्यांकन ,सबसे पहले उसके शरीर का मूल्यांकन है| गुण तो बाद में आते हैं |वह एक ऐसी दृश्य वास्तु है जिसे अपनी सार्थकता पुरुष की निगाह से सुन्दर और उपयोगी लगने में ही है |" (कांटे की बात -३ पृष्ठ १५६ ) यह व्यंगोक्ति एक बड़ी वीभत्स सामजिक मानसिकता की तरफ इशारा करती है|जिससे स्त्री मुक्त करने का सपना राजेन्द्र यादव ने देखा था |एक दलित विमर्शकार के तौर पर राजेन्द्र यादव साम्प्रदायिकता और ब्राह्मणवाद दोनों के धुर विरोधी व्यक्ति थे |दलित प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में शीर्षक आलेख में बजरंग बिहारी तिवारी लिखते हैं -''धर्म का उन्मादी आग्रह जब राजनीतिक शब्दावली अख्तियार करता है , उग्र राष्ट्रवाद की सृष्टी होती है |इसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कहते हैं |राजेन्द्र यादव इसे सवर्ण पुरुष सत्ता का दुश्चक्र मानते हैं |इसमें पिसती हैं स्त्रियाँ ,अल्पसंख्यक और दलित|दलित विमर्श सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से जूझे बिना आगे नहीं बढ़ सकता ?लेकिन क्या दलित लेखन में ऐसी तैयारी दिखाई पड़ती है?इस प्रश्न को राजेन्द्र जी भविष्य पर छोड़ देते हैं|हिंदूवादी राष्ट्रवाद से जुड़े खतरों की पहचान करते -कराते रहना उन्हें अलबत्ता जरूरी कार्यभार लगता है|उनके सम्पादकीय भगवा ब्रिगेड को हर वक्त हित करते रहते हैं|'अपना मोर्चा' कालम इसका सबूत है ,अपने विरोधियों को जगह देना ,उनकी बातें छापना ,अधिकांश पाठकों के लेखे राजेन्द्र जी के जनवादी सोच का प्रमाण हैं|...राजेन्द्र जी सत्ता प्रतिष्ठान का विघटन चाहते हैं और फिर उसकी पुनर्रचना |(पृष्ठ-१२० पाखी ,अंक -सितम्बर २०११) दलित लेखक कँवल भारती ने राजेन्द्र यादव को कबीर जैसे तेवर का व्यक्ति बताते हुए लिखा था -राजेन्द्र यादव के पास यह दृष्टी इसलिए है क्योंकि उनके पास साहित्य का एक एजेंडा है -समाज को सुधारने का नहीं ,समाज को बदलने का ,जिसमें दलितों आदिवासियों और स्त्री मुक्ति के सवाल केंद्र में हैं |इस एजेंडे ने हिंदी के उन तथाकथित महान लेखकों को कहीं का नहीं छोड़ा था ,जो अभिजात चिंतन को ही मुख्यधारा का चिंतन समझ रहे थे |उनका सारा भ्रम ही नहीं टूट गया जमीन भी दरक गयी जब राजेन्द्र यादव ने वास्तविक मुख्यधारा का निर्माण शुरू किया |(कबीर जैसा तेवर ,पृष्ठ ११० पाखी सितम्बर २०११ )साम्प्रदायिकता के मामले में राजेन्द्र यादव हिन्दू और मुस्लिम दोनों कट्टरपंथियों का विरोध करते थे |सीबा असलम फहमी और तसलीमा के आलेखों को हंस में स्थान देकर उन्होंने इस बात की पुष्टि की |राजेन्द्र यादव के प्रतिरोधी स्वर की बात जब भी प्रियदर्शन उठाते हैं तो कहते हैं -उनकी निगाह में वर्चस्व के तीन रूप प्रमुख हैं -तीन सत्ताएँ जो इस समाज में अन्याय और गैर बराबरी की बड़ी वजह बनी हुई हैं |राजनैतिक सत्ता ऐसी पहली सत्ता है|दूसरी सत्ता धर्म की है -जिसे ईश्वर नाम के सम्राट के सेनापति और अनुचर चलाते हैं, और तीसरी सत्ता पुरुष वर्चस्व की है जो सदियों में आधी आबादी को गुलाम बनाये रखने में कामयाब रही है |जब इन तीनों सत्ताओं को चुनौती देने की कोशिश की जाती है ,तो समाज के ताकतवर तबके इसके विरूद्ध खड़े हो जाते हैं |हंस भी ऐसी बगावतों का गुनाहगार माना जाता रहा है|धार्मिक और नैतिक सत्ताएँ हंस के हमलों से तिलमिलाती रही हैं...(राजेन्द्र यादव होने का मतलब पृष्ठ, ७८ पाखी,अंक सितम्बर २०११ )
अब अंत में:-
एक आलेख में इतने उर्वर मस्तिष्क को समेटना बहुत मुश्किल है|शेष फिर कभी.. आज राजेन्द्र यादव हमलोगों के बीच नहीं हैं |उनके वैचारिक आयाम और प्रतिबद्धता उनकी रचनाओं और हंस के पन्नों में बिखरी पड़ी है|वे खुले जीवन और वैचारिकी में विश्वास रखने वाले व्यक्ति थे| जरुरत है आज उस वैचारिक विरासत को आगे बढ़ाने की |समाज और साहित्य के प्रति किये गए उनके प्रतिदान की अहमियत को बनाये और बचाए रखने की |मैं यह सोचता हूँ कि आवारा मसीहा या गुनाहों का देवता भाग दो लिख दी ही जाये |राजेन्द्र राव ने तो उन पर गुनाहों का देवता नाम ने संस्मरणात्मक आलेख पाखी के सितम्बर २०११ में लिख ही मारा है|परन्तु मेरा मानना है की कथा नायक के रूप में राजेन्द्र यादव का आना काफी दिलचस्प होगा|एक उपन्यास और एक नायक के सारे कंटेंट राजेन्द्र यादव में मिलते हैं|८४ साल तक जवानी को जीने वाले और समाजिक वर्जनाओं को तोड़ कर गिरा देने वाले उस योद्धा के लिए मशहूर कथाकार संजीव ने कहा था..राजेन्द्र यादव के न होने से फर्क पड़ता है|....
अरमान आनंद (शोध-छात्र ,हिंदी विभाग बी.एच.यू.)
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