Tuesday 24 February 2015

सत्ता और साहित्य



सत्ता और साहित्य


सत्ता, वर्चस्व और प्रतिरोध के समेकित अन्तः क्रियाओं का नाम है| मानवीय सभ्यता की शुरुआत से ही सत्ता मनोवृति के रूप में मानव व्यवहार श्रृंखला में शामिल हो गई है| आज के समय में पूँजीवाद, बाजार और वैश्वीकरण ने मानव सभ्यता को एक गहरे संकट के मुहाने ला खड़ा किया है| विश्व की बड़ी जनसंख्या गरीबी और अवसाद से ग्रस्त है| मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं का भयंकर ह्रास हुआ है| ऐसे में बहुत आवश्यक है कि इन समस्याओं की जड़ तक पहुंचा जाये और मनुष्य की समस्याओं का समाधान उसके व्यवहारों के अध्ययन से ही संभव है | इसके लिए साहित्य से बेहतर साधन नहीं हो सकता| साहित्य की प्रसिद्ध परिभाषा को याद करें “किसी भी देश का साहित्य वहां की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है”- आचार्य रामचंद्र शुक्ल की इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि साहित्य समाज की चित्त-वृत्तियों का आख्यान है, अर्थात् साहित्य समाज की सत्ता संरचना का व्याख्याता भी है| इसलिए किसी भी समाज की चित्त-वृत्ति और विकास को समझने के लिए वहां के साहित्य को समझना अति आवश्यक है| “सत्ता भी एक मनोवृति है , जो मनुष्य के व्यवहार में परिलक्षित असंख्य अलग-अलग हुए अनुभवों के करण हुई असंख्य अलग-अलग इच्छाओं के जोड़ के कारण नहीं बल्कि स्वाभाविक रूप में और लगातार मनुष्य सत्ता की इच्छा करता है|” 1 मनुष्य अपनी इसी वृति के कारण आजीवन संघर्ष और द्वन्द में जीता है| उसकी दो इच्छाएं हमेशा साथ साथ चलती हैं| पहली स्थायित्व जिसका अगला चरण प्रभुत्व में परिवर्तित होता जाता है| दूसरा किसी भी प्रकार के दबाव या प्रभुत्व का प्रतिरोध| स्वच्छंदता मनुष्य की आदिम चेतना रही है| वह किसी भी प्रकार के बंधन से मुक्त रहना चाहते है| परन्तु स्थायित्व और प्रभुत्व की इच्छा उसे दूसरों पर अपने वर्चस्व को स्थापित करने की प्रेरणा देता है| फलतः एक अनवरत चलने वाले संघर्ष की उत्त्पति होती है| वर्चस्व और प्रतिरोध के इसी द्वन्द पर मार्क्स अपना पक्ष रखते हुए कहते हैं: “आजतक का अस्तित्वमान समस्त समाज का इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास है|” 2कार्ल जे. फ़्राईडरिक ने constitutional government and democracy (pp.12-14) में सत्ता को ‘किसी प्रकार के मानव सम्बन्ध के वर्णन’ से जोड़ा है| यही सत्ता और सत्ता विमर्श का मूल है| यह मानवीय संबंधों की व्याख्या करने का सफल औजार है|3 मिशेल फूको सत्ता का स्पष्टीकरण देते हुए कहते हैं “सत्ता ‘हम क्या हैं? उसका निर्धारण करती है| 4 एक ही वाक्य में फूको सत्ता के सम्पूर्ण चरित्र का उद्घाटन कर देते हैं कि सत्ता मूलतः अस्तित्वमूलक शब्द है| यही अस्तित्व स्थायित्व पाकर वर्चस्व में परिणत हो जाता है| मिशेल फूको फिर कहते हैं "सत्ता वह मूलभूत तत्व है जो संसार की प्रत्येक वस्तु में बराबर रूप से विद्यमान है |" 5


अर्थात यहाँ यह कहना होगा कि प्रत्येक व्यक्ति में सत्ता अस्तित्वमूलक प्रवृति में तो है ही साथ ही प्रत्येक मनुष्य में सत्ता वर्चस्व की आकांक्षा के रूप में भी पलती है| तात्पर्य यह कि वर्चस्व और प्रतिरोध दोनों साथ-साथ चलते और पलते हैं| Where there is power, there is resistance 6 


अंतोनियो ग्राम्शी भी इस विचार से सहमत होते हुए लिखते हैं “प्रत्येक मनुष्य चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, वर्चस्व के प्रभाव से युक्त होता है | हालांकि हर मनुष्य का अलग- अलग उद्देश्य पूर्ण जीवन होता है , जो कि अन्य से अलग होता है | परन्तु सामाजिक स्तर पर वह सांस्कृतिक वर्चस्व का हिस्सा होने से बच नहीं सकता, और जब तक कोई मनुष्य सामाजिक संरचना में शामिल है वह समाज में अन्तर्निहित सांस्कृतिक वर्चस्व को समझने में उसके प्रतिकार में असमर्थ है|7 हिन्दी का सत्ता विमर्श अंग्रेजी के पॉवर डिस्कोर्स का पर्याय है| पॉवर को हम शक्ति के रूप में समझते हैं| परन्तु सामाजिक और राजनीति विज्ञान में इसे सत्ता कहा गया है|


साहित्य में सत्ता की भूमिका को लेकर लगातार सवाल उठते रहे हैं| समाज में साहित्य की क्या भूमिका हो? ऐसे समय में जब हर तीसरा आदमी लिख रहा है तो किसे साहित्य की श्रेणी में माना जाय| किस वैचारिकी में पिरोया गया शब्द साहित्य की संज्ञा प्राप्त करने की क्षमता रखते हैं आदि-आदि| तो उत्तर यह है कि साहित्य की सत्ता प्रतिरोध की सत्ता है जो हमेशा वर्चस्व के विरोध में रची जाती है| "कला कला के लिए" की मान्यता से हट कर कला में उपयोगितावाद या कला समाज के लिए की सैद्धांतिकी इसी तरफ ले जाती है| हालाँकि वर्चस्ववादी सत्ता कला का इस्तेमाल अपने लिए वर्चस्व के अदृश्य हथियार के रूप में करती है| रामस्वरूप चतुर्वेदी नया सहस्त्राब्द और साहित्य शीर्षक आलेख में लिखते हैं "साहित्य को यों खतरा अब उपसाहित्य से है जो या तो सत्ता से अनुशासित होता है या फिर बाज़ार से|"8 रामस्वरूप चतुर्वेदी उस साहित्य को उपसाहित्य का दर्जा देते हैं जो मूल साहित्य के साथ-साथ साहित्य की मूल चेतना और सरोकारों पर घाट करता हुआ चलता है| बाजारवादी संस्कृति की ऐसी मुश्किल घड़ी में में साहित्य को दो कार्य करने होंगे | पहला यह की साहित्य को अपनी प्रतिबद्धता बनाये रखने के लिए जोर शोर से काम करना होगा दूसरा नकली साहित्य का पर्दाफाश करना होगा | कला का मूल धर्म प्रतिरोध है| कला का रवैया हमेशा जड़ता के विरुद्ध रहा है| बी. क्रिलोव इस सम्बन्ध में लिखते हैं: मार्क्सवाद के संस्थापकों ने इस बात पर जोर दिया कि कला वर्गों के बीच विचारधारात्मक संघर्ष में महत्वपूर्ण अस्त्र है| वह शोषकों की शक्ति पुख्ता बना सकती है,तो उसकी जड़ भी खोद सकती है, वह यदि वर्ग उत्पीडन की रक्षा का काम दे सकती है,तो इसके उलट मेहनतकश जनसाधारण की शिक्षा और उनकी चेतना के विकास में योग दे सकती है तथा उन्हें अपने उत्पीड्कों पर विजय के समीप पहुंचा सकती है|9 जब तक आम जनता की पीड़ा और करुणा के साथ साहित्य स्वर में स्वर नहीं मिलाता हम उसे कैसे साहित्य की परिभाषा पर खरा उतरा हुआ मानेंगे| मोनालिजा प्रतिरोध के सम्बन्ध में कहती हैं “प्रतिरोध उत्तर साम्राज्यवादी दौर की अवधारणा है, उत्तर साम्राज्यवादी सत्ता को दर्शाती है| 10 वहीँ प्रतिरोध के सम्बन्ध में मदन सोनी अपने आलेख प्रतिरोध और सहित्य में लिखते हैं: "प्रतिरोध की अवधारणा, एक गहरे अर्थ में ,मनुष्य के साथ जन्मी और मनुष्य की अवधारणा से अभिनाभव जुड़ी प्रतीत होती है|मनुष्य जैसे अपनी परिभाषा में ही एक प्रतिरोधक प्राणी प्रतीत होता है| अगर उसके द्वारा गढ़ी गई सभ्यता और संस्कृति का इस ख़ास दृष्टि से मूल्यांकन करें, तो उसकी इस रचनात्मकता के पूरे इतिहास को प्रतिरोध के इतिहास के रूप में देखा जा सकता है|"11जार्ज लूकाच वर्चस्व और प्रतिरोध के इस संघर्ष में साहित्य की भूमिका को मार्क्सवादी नजरिये से देखते हुए लिखते हैं: “इस तरह साहित्य के अस्तित्व, महत्त्व,उत्थान, और प्रभाव की व्याख्या समूची व्यवस्था के समग्र ऐतिहासिक सन्दर्भ में ही की जा सकती है|साहित्य का उद्भव और विकास समग्र ऐतिहासिक सामाजिक प्रक्रिया का अंग है| साहित्यिक रचनाओं का सौन्दर्यगत सारतत्व और मूल्य और इसलिए उनका प्रभाव उस सामान्य और समन्वित सामाजिक प्रक्रिया का अंग है ,जिसमें मनुष्य चेतना के जरिए दुनिया को अपने काबू में करता है|”12 साहित्य और सत्ता के सम्बन्ध की व्याख्या करते हुए कात्यायनी लिखती हैं: “कविता जो स्वयं मानवीय जरुरत रही है, मानवीय जरूरतों की तड़प पैदा करती हुई, वह प्रकृति से वर्चस्व-विरोधी होती है, और एक औजार भी होती है, राज्य के रहस्य को भेदने समझने का, जैसे कि जीवन के तमाम भेदों को जानने-समझने का|”13 कविता जो मनुष्य के पक्ष में खड़ी है| वह अंतिम शोषित और प्रवंचित के साथ है| वह सत्ता के विरुद्ध है|वह बाज़ार को पहचानती है|वह किसी भी तरह के उपनिवेश का प्रतिरोध करती है| वह अपना स्वाभिमान रचती और मानव के स्वाभिमान के लिए लड़ती है| प्रथमतः और अंततः वह मनुष्य विरोधी ताकतों को निस्तोनाबूद करने का महास्वप्न देखती है|इसलिए पूरी सदी में फैली उसकी भूमिका को आज और आनेवाले कल के लिए देखना प्रासंगिक है| 14 


सत्ता विमर्श ही साहित्य और समाज के सारे विमर्शों का मूल है | समाज की मूल समस्या वर्ग समस्या है| वर्चस्व और प्रतिरोध कहें या शोषक और शोषित मामला वही है| आप स्त्री विमर्श कहें ,दलित विमर्श कहें या आदिवासी विमर्श साहित्य में आप किसी न किसी वर्चस्ववादी प्रवृति के खिलाफ खड़े होते हैं |


















































































1. पृष्ठ 668 समकालीन राजनीतिक सिद्धांत –जे. सी. जौहरी स्टर्लिंग पब्लिशर्स प्रा. लि. नई दिल्ली 2007


2. पृष्ठ ३० मार्क्स एंगेल्स कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस 2013


3. पृष्ठ 663 समकालीन राजनीतिक सिद्धांत –जे. सी. जौहरी स्टर्लिंग पब्लिशर्स प्रा. लि. नई दिल्ली 2007


4. {http://www.powercube.net/other-forms-of-power/foucault-power-is-everywhere/} 


5. page 93 history of sexuality volume 1 Michel Foucault, Pantheon Books1978 New York ISBN 0-394-41775-5


6. Page 93 History of Sexuality Volume 1 Michel Foucault, Pantheon Books1978 New York ISBN 0-394-41775-5


7. Page 233-38 Antoniyo Gramsci Prision Note Books 1992 Buttigieg , Joseph A, Ed, Newyork City Columbia Univertsty 


8. पृष्ठ 288 हिन्दी साहित्य संवेदना और विकास लोकभारती प्रकाशन 2004


9. पृष्ठ 28-29 भूमिका - बी. क्रिलोव मार्क्स–एंगेल्स साहित्य और कला, राहुल फाउन्डेशन, लखनऊ 2006


10. page 4 monalizza editor Christopher kullenberg resistance studies magazine 


11. http//pratilipi.in/2008/04/pratirodh-aur-sahitya-madansoni


12. पृष्ठ 445 सौंदर्यशास्त्र के बारे में मार्क्स और एंगेल्स के विचार- जार्ज लूकाच, भूमिका - बी. क्रिलोव मार्क्स–एंगेल्स साहित्य और कला, राहुल फाउन्डेशन, लखनऊ २००६


13. पृष्ठ 5 कवि ने कहा [चुनी हुई कविताएँ] :कात्यायनी, 


14. कविता के सौ बरस, सम्पादकीय ,संपादक लीलाधर मंडलोई, शिल्पायन,दिल्ली 2008 


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