Saturday 17 October 2015

क्षणिकाएँ

रेत पर मेरी कुछ क्षणिकाएँ

1.

उस दिन रेत

इंतज़ार में थी

ढेर बनी गुमसुम

उदास

उसे सीमेंट गिट्टी ईंट का इंतज़ार रहा होगा

ताकि रेत

एक मुकम्मल घर बन सके

2.

रेत

इंतज़ार में थी

कुछ बच्चों के

ताकि

रेत बन सके एक घरौंदा

3

रेत

एक साजिश है

जो गिरे हुए पुल में उतनी ही मिली है

जितना

ठीकेदार ने बजट से निकाल कर अफसर को दिया है


4


रेत

चाहे किउल नदी की हो

दुर्गावती की

सोन की हो

उड़ेलती रहती है

अपनी ही नदी में रक्त

रेत

गवाह है

लालची और हत्यारी पूरी एक कौम की


5


रेत

चांदनी रात में

अलसायी नदी का प्रेमी है


6.


रेत

को देखो

चांदनी रात में

चांदनी रात में रेत

बिखरा हुआ ताजमहल है


7.


रेत

शिव है

नश्वरता का शाश्वत इष्ट है

बनता है

बिखर जाता है

माथे के फूल उसे ढूंढते इधर उधर भटकते हैं इसी रेत पर


8.


रेत

आखिरी पड़ाव है

इस दुनिया को अलविदा कहने के पहले का

क्षणिका

दिमाग के आनंद कानन में
जैसे किसी शानदार केले के वन में
आता है एक हाथी
आता है
आता है
आता है
सब तहस नहस कर के चला जाता है

Monday 24 August 2015

भ्रान्ति कविता



भीड़ पगला गई थी
उसने बन्दूक को अपना नेता
और बूटों को अपना ताज घोषित कर दिया था
लोग नींद में क्रांति क्रांति बडबडा रहे थे
मांओं ने अपनी रौंदी हुई छातियों को अफवाहों के हवाले कर दिया था
अफीम की खेतों में लेटे हुए किसान
तोप से सूरज के निकलने का इन्तजार कर रहे थे
सामंतों और सेठों का दलाल नेता का वेश बनाकर
कह रहा था
अबकी सुबह होगी शाम के तुरंत बाद |

अरमान



Wednesday 1 July 2015

कविता


तुम इतनी शिद्दत से मुझे चाहती हुई
खुदा घोषित करने ही वाली थी
कि मैं
मैंने तुम्हे धोखा दे दिया
साथ ही सच कर दिया उस दावे को
जिसे तुम झुठलाने के आख़री पायदान पर दी
सच्चा प्यार किस्से कहानियों की बातें हैं
और फिर मैं पुरुष हूँ
ये दम्भ मुझे कहाँ सिर्फ तुम्हारा होने देता है

कविता


हताशाएं होंगी

निराशाएं होंगी

सभ्यताओं ने छीनी हैं खुशियाँ

भूल गए हम लड़ने-जीने का हुनर

दुनिया का अंत तय है

लेकिन न तारीखों में

न विश्वयुद्ध में पानी के लिए

पानी की नदियों से ज्यादा आँखों में जरूरत है

एक दिन नींद की गोलियों में सो जायेगी दुनियां

आत्महत्याओं में ख़त्म हो जायेगी ये दुनियां

Friday 19 June 2015

केदारनाथ सिंह (दिनकर जी के पुत्र )से इंटरव्यू

शाम के सात बजे थे| लगभग नियत समय पर मैं राहुल , दिनकर जी पर आ रही इस पुस्तक के सम्पादक कुमार वरुण और पटना हाईकोर्ट के वकील आलोक जी दो बाइकों पर सवार हो पटना में रामधारी सिंह दिनकर के नामधारी सड़क पर स्थित दिनकर जी के सुपुत्र श्री केदार नाथ सिंह जी के आवास उदयाचल पर पहुंचे| केदार जी कुछ ही दिनों पहले दिल्ली विज्ञान भवन में दिनकर जी पर आयोजित कार्यक्रम से लौटे थे| पत्रकारों से खफा थे जिन्होंने इनका नाम खबार में डालने के बदले लिखा दिनकर जी के परिजनों का भी सम्मान किया गया| जिस करण हमलोगों को भी टालने की कोशिश की कि आपलोग जब आवाज नहीं उठाते हो तो इंटरव्यू क्यों दूँ| खैर मैंने जब बताया कि इस चुनावी रणनीति का पर्दाफाश किया जा रहा है तब वे तैयार हुए| दिनकर जी की भांति ही रोबीला चेहरा बाल उन्होंने पीछे बांध रखे थे, जो बंधने भर ही लम्बे थे| बातचीत शुरू हुई| इंटरव्यू तो मुझे ही लेना था मगर जिज्ञासा वश साथ के लोगों ने भी प्रश्न पूछे....
*पिता दिनकर किस प्रकार याद आते हैं?
के.- पिताजी की पहली तस्वीर जो हमारे जेहन में आती है वो मेरे ख्याल से १९४२ हो या १९४५ हो | उन दिनों पिता जी सीतामढ़ी में पोस्टेड थे| सरकारी कवार्टर था| बरामदे पर कपडे वाली आराम कुर्सी थी| बरामदा छोटा सा था| उसी कुर्सी पर पिता जी सुबह बैठा करते थे और चाय पीते थे| उस समय मैं चार वर्ष का रहा होऊंगा| उसी समय छोटी बहन विभा का जन्म हुआ था| पिता जी उस सुबह भी वहीँ बैठे थे| मैंने जाकर पिता जी से कहा "हमरा बहिन भेलई हन| {मुझे बहन हुई है|} पिताजी बोले हम्म बहिन .. कि नाम रखबहीं ? {क्या नाम रखोगे?} मुझे क्या पता था |मैंने जवाब नहीं दिया| पिता जी बोले विभा नाम रख देहीं| {विभा नाम रख दो}" उसके बाद विभा से सम्बंधित कुछ पंक्तियों का पाठ किया| कोई कविता जैसी पढ़ी जिसमे कि विभा शब्द का प्रयोग था| यह चित्र एक आता है| उसके बाद उसी कम्पाउंड में थोड़ी जमीन थी | उसमें सब्जी उगने का काम करते थे| एक दृश्य यह आता है| एक दृश्य आता था कि ऑफिस से लौट कर आये थे| ऊपर का भाग नग्न था और चिनिया बदाम के पौधे पर मिटटी चढ़ा रहे थे| वे लुंगी की लुंगी नहीं पहनते थे धोती को लुंगी बना कर पहनते थे|
* स्वभाव से दिनकर जी कैसे जीव थे?
के.- स्वभाव तो सामान्य किस्म का ही था| बच्चों के प्रति अगाध स्नेह था | हमारे चचेरे भाइयों को भी साथ रखते थे| बच्चे पढ़ें इसका ख़ास ख्याल रखा जाता था| हैण्डराइटिंग अच्छी हो इसपर बहुत जोर देते थे|व्यायाम पर भी ध्यान देते थे|
    कोई भी चीज अतिवादी ढंग से उनके स्वभाव में नहीं थी | हर चीज अपने-अपने ढंग से सामान्य रूप में आती थी|
* क्या आपको राष्ट्रकवि दिनकर और पिताजी दिनकर में कोई ख़ास फर्क नजर आया?
के.- परिवार की अपनी जरूरतें होतीं हैं| लेकिन राष्ट्र के लिए जैसे नागरिक की कल्पना उनके मन में रही होगी| निश्चित रूप से वे चाहते थे उनके बच्चे अछे नागरिक बनें|
* दिनकर जी के समकालीन उनके साहित्यिक मित्र रहे होंगे | उनका आना - जाना लगा रहता होगा |इस सम्बन्ध में कोई ऐसी महत्वपूर्ण यादें जो आप साझा करना चाहते हो?
के.- एक तो कामेश्वर शर्मा कमल थे| सुल्तानपुर मोकामा के पास एक बस्ती है वहीँ रहते थे| पिता जी जब पढ़ा करते थे तो सुल्तानपुर आना-जाना होता था| मोकामा सुबह जाते तो शाम तक लौट आते |कभी रुकना हुआ तो कमल जी के यहाँ रुकते थे| उनके दूसरे मित्र थे शिव कुमार शर्मा| हमारे सिमरिया ग्राम के ही थे| रिश्ते में हमलोग उनके भाई लगते हैं|
   किसी साहित्यकार का घर अप आना जाना उस तरह से तो नहीं हुआ , लेकिन १९४८ या ४९ में शायद पटना में हिन्दी साहित्य का बड़ा आयोजन हुआ था| उसमें पन्त जी और डॉ. नगेन्द्र भी आये थे|वे दोनों हमारे घर रुके थे| इनके अलावे बेनीपुरी जी , गंगाशरण सिंह जी, धनराज शर्मा जो कांग्रेस के बड़े नेता थे उस माया के और दरभंगा इलाके में मशहूर थे उनका आना-जाना हुआ था | 
*मोकामा आना-जाना नाव से होता होगा?
के.- हाँ गंगा से लगाव तो था लेकिन दिलचस्प बात यह थी कि वे तैरना नहीं जानते थे|
* उनकी रचनाओं से जुड़ा कोई संस्मरण याद है आपको?
के.- १९४८ से ५२ तक रश्मिरथी के रौ में थे| रश्मिरथी छाया हुआ था|उससे पहले कुरुक्षेत्र ,४५ में | ४५-४६ का दौर होगा |हमलोग मीठापुर (पटना ) में रहते थे| ऊपर एक हॉल था | उसमें ये कविता सुना रहे थे| कुरुक्षेत्र |सुनाते -सुनाते उनका मुंह सूखने लगता |
    रश्मिरथी का तीसरा सर्ग उन्होंने रांची में, पांचवां सर्ग पूर्णियां में जनार्दन प्रसाद द्विज के यहाँ और सातवाँ सर्ग मुजफ्फरपुर में लिखा था| सातवाँ सर्ग लिखने के बाद जब ये कमरे से बाहर निकले तो आवेश में आँखें लाल| दो दफा पिताजी को भावप्रवणता में रोता हुआ देखा था| पहली दफा देखा था जब गाँधी जी मारे तब|
* उनकी लिखने की शैली क्या थी?
के.- वे लेटकर सीने के नीचे तकिया या मसनद लगा कर लिखते थे| वक्त कोई ख़ास तय नहीं था, लेकिन जब नौकरी करते थे तो वक्त सुबह और रात में मिल पाता था| हाँ, सुबह छह बजे रोज जग जाया करते थे|
* सुना जाता है अंतिम समय में वो बड़े परेशानियों में घिरे रहे | ख़ास कर आर्थिक| आप इस सम्बन्ध में कुछ बताना चाहेंगे?
के.- नहीं, नहीं ऐसा कुछ नहीं है| आर्थिक परेशानी तो नहीं थी, लेकिन जब रिटायर होकर घर आये तो उन्हें थोडा लगा कि अब वे किसी काम के नहीं रहे|
*राजनीति के प्रति दिनकर जी का क्या नजरिया था?
के. साहित्य क्या राजनीति के बिना चल सकता है? नहीं| वे कांग्रेस के चवन्नियां सदस्य भी थे| इसी दिलचस्पी के करण वे राज्यसभा भी गये|
*आखिर क्या वजह थी कि उन्होंने राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था?
के. यही सोचने वाली बात है कि उनकी बेसिक थिंकिंग क्या थी| वे चाहते थे छात्रों का विकास हो देश का विकास हो| इसके लिए उन्होंने राज्यसभा को छोड़कर युनिवर्सिटी को चुना|
    लेकिन बाद में यूनिवर्सिटी की ओछी राजनीति से परेशान हो कर दिल्ली चले गए| उन्हें लगा कि अब लिखने के हिसाब से दिल्ली ज्यादा सही है|वे कहा करते थे "वहां नहीं होता तो संस्कृति के चार अध्याय नहीं लिख पाता | वहां की लाइब्रेरी बहुत रिच है इस मामले में|
*हिन्दी के आलोचकों पर यह आरोप लगता रहा है कि उन्होंने दिनकर की बहुत उपेक्षा की है| दिनकर जी ने अपने समय में कभी इसका जिक्र आपसे किया?
के.-  पिता जी ने जब हरे के हरिनाम लिखा तो सबसे ज्यादा हंगामा मचा कि पुरुषार्थ के कवि हारे को हरिनाम लिख रहा है|
                एक दिन मैं और पिता जी दोनों रिक्शे से कहीं जा रहे थे कि अचानक पिता जी बोल पड़े कि हारे को हरिनाम को लेकर कुछ निगेटिव बातें आ रहीं हैं| हलांकि मैं बोलने का अधिकारी नहीं था फिर भी मैंने कहा कि इससे बड़ा पुरुषार्थ क्या होगा कि जिसने जिन्दगी भर पुरुषार्थ का गीत गाने वाला धर्म की बातें कर रहा है| हारे को हरिनाम गा रहा है| अपनी सारी ख्याति या कहें तो जो जड़ था उससे ही इनकार कर रहा है|इस जवाब से शायद उन्होंने थोडा संतुष्ट सा महसूस किया| १९३६ के प्रलेस के प्रथम अधिवेशन में पिता जी स्वागत सदस्यों में थे| वहां किसी ने कहा कि प्रगतिशील कवियों को चाहिए कि हारे के हरिनाम को सिराहने रख कर सोयें|
*पिछले दिनों भाजपा सरकार ने विज्ञान भवन दिल्ली में दिनकर जी की दो कृतियाँ परशुराम की प्रतीक्षा और संस्कृति के चार अध्याय का स्वर्ण जयंती दिवस मनाया | क्या आप भी वहां थे| क्या आपको इस कार्यक्रम में चुनावी बू नहीं आती| आप इसे कैसे देखते हैं?
के.- मुझे इसमें कोई नुकसान नहीं दिखता| इसी बहाने साहित्य में कोई न्य विवाद या विमर्श बढ़ता है तो इसमें कोई हर्ज नहीं है|
*21 वीं सदी में आप पाठकों के बीच दिनकर को कहाँ देखते हैं साथ ही आपकी क्या अपेक्षाएं हैं? 
के.- अब जैसे पहले होता था |कोर्स में डॉ कविताएँ कवि से परिचय के लिए पर्याप्त होतीं थीं| अब ऐसा हो गया है कि सूर और तुलसी को ही जब स्थान नहीं मिल पा रहा है| पुराने कवियों को हटा रहे हैं | नए कवियों को रख रहे हैं इसमें क्या कहा जाय|
*आपने इतनी सारी बातें बताईं , संस्मरण सुनाये आपका बहुत बहुत धन्यवाद |

के. - धन्यवाद 

दंगा (1) अरमान आनन्द

मेरा कुसूर था
कि मेरे चेहरे पर दाढ़ियाँ थीं
मूंछे नहीं थी

मेरा कुसूर था कि
मेरे माथे पर लाल रोड़ी का तिलक लगा था

हमने अपनी कुसुरवारी की सजा कुछ मासूम बच्चों को दी
हमने एक दूसरे की औरतों को नंगा किया

हम अपना वीर्य
अपने अपने शक्तिशाली ईश्वर को बचाने में खर्च करते रहे।

हमने कुछ पागल बनाए हैं
जिन्होंने तुम्हारी सरकार बनाई है।

Monday 11 May 2015

आज जाने की जिद न करो

आज जाने की जिद न करो

यूं ही पहलू में बैठे रहो

आज जाने की जिद न करो

कि तुम जो रुक जाओ

आज

आज की साँझ ढलेगी नहीं

यहीं किसी मेज के नीचे से निकल आएगी यमुना

और विस्की की ये बोतल

बदल जायेगी बांसुरी में

इस कैंडल की लाइट

भक्क से टूटेगी

और आसमान में आधे चाँद सा

उल्टा लटक जायेगी

आज जाने की जिद न करो

यूँ ही पहलू में बैठे रहो

आज जाने की....




रहने दो

कि मम्मी डैडी को समझा लेना कुछ बहानों से

कह देना

नेहा की बर्थडे पार्टी थी

और शबाना आंटी ने रोक लिया था

डैडी से कहना एग्जाम की तैयारी के लिए रुक रही हो आज की रात

किसी सहेली के घर पर

खुद से भी कह देना एक झूठ

कि तुम

नशे में थी

कि आज जाने क़ी ज़िद न करो




निकालो

अपनी जीन्स से रेशमी रुमाल

और फैला दो अपने आँचल की तरह

इससे पहले कि हमें कोई बोरियत के मायने समझाए

कुछ देर तलक हम बेतरह प्यार करें

इस से पहले कि हमारे झगडे मतभेदों में बदल जाए

हमें लगने लगे कि हम शायद एक दूसरे के लिए नहीं बने थे

और यह बार बार हो

हर एक बार हो

और जब हम पर

मैं

हाई हील वाली सैंडल पहन कर इतराने लगे

और तुम

मुझे सिर्फ इस लिए छोड़ दो

कि मैंने सलमान की जगह

मनोज वाजपेयी की फ़िल्म तुम्हे दिखा दी

इससे पहले कि तुम्हे पता चले

मैंने अपने पिता की 10 बीघे की जमीन

जिसके चार पटीदार हैं

तुम्हें 1000 एकड़ की बताई है

इस दफे गेहूँ को भी तुम्हारे मनपसंद रेन डांस के रेन ने तबाह कर दिया है।

बाबूजी का दिल इसी गम में झट्के ले रहा है

जैसे पुराने एम्बेसडर के करबोरेटर में कचड़ा फंस गया हो

तुम्हे पता है?

मैं बिहार से दिल्ली उसी तरह पढ़ने आया हूँ

जैसे

हावड़ा अमृतसर से पंजाब

और जनसाधारण में पटना से दिल्ली मजदूर आते हैं

इससे पहले कि तुम यह जान लो

आइसा मेरी मजबूरी है और तुम्हारा शौक

दोस्त के कमरे पे उधार में रहकर खाना बनाने के बदले

मिल जाती है उसकी बाइक

जिसपर मैं तुम्हे

मैं चाँद के पार ले जाने के सपने देखता हूँ।

कल तुम्हे डिस्को लेजाने के लिए

मैंने अपने स्पर्म और खून बेचे हैं।

ये जानने से पहले

कि मेरा इश्क मेरे पॉकेट में रोशनाई छोड़ चुकी कलम और

मेरी कमर के फाड़े में खोंसा हुआ कट्टा है

ये सब जानने से पहले आज

बस आज

तुम जाने की जिद न करो

आज जाने की जिद न करो




सहम जाता हूँ

जब किसी हंक और स्टड को तुम देखती हो

मेरी बाइक के पीछे बैठ बी एम् डब्ल्यू पर नजर फेंकती हो

देखो मैंने खरीदी है लिए

ये ड्रेस

इसमें तुम्हारे वक्ष आजादी की लड़ाईयां लड़ रहे हैं

मैंने इस अप्रैल कोई किताब नहीं खरीदी

मैंने बहुत कुछ किया है

जो तुम्हारी नजर में कुछ भी नहीं हो सकता है

इस लिए आज

आज जाने की जिद न करो

यूं ही पहलू में बैठे रहो

हम तो मर जायेंगे

हम किधर जायेंगे

ऐसी बातें किया न करो

आज जाने की जिद न करो...




अरमान आनंद

Sunday 5 April 2015

बनारस वाया बजरडीहा

बजरडीहा 

नल का पानी
जहाँ उतरकर सड़क पर जमे
और शर्म से काला पड़ जाये
जहाँ मर्द आंत के रेशों को बुन कर
संसार की सबसे सुन्दर स्त्री के लिए साड़ियाँ तैयार करते हों
औरतें
हया को जरुरत मानकर
चिथड़ों में लिपटी हुई
धागों के थान लपेट रही हों
दुनियां के ट्रेडमिल पर हांफने के साथ जहाँ
रात की रोटी
अगली सुबह के लिए पानी में गर्क कर दी जाती हो
जहाँ करघों के खटर-पटर में दुधमुहें की आवाज
अनंत कालों के लिए दबा दी जाती हों
जहाँ करघा ही मां है बाप है भाई है
स्कूल है
नवाजुद्दीन की किसी फिल्म का डायलोग है
करघे का चलना सांसों का चलना है
करघे का बंद होना
किसी कुपोषित बच्चे का अनाथ होना है
अच्छे दिन जहाँ दिन में भी झाँकने नहीं आते
अच्छे दिन के लिबास वहीँ से जाते हैं
ये वही बजरडीहा है
ऐ मेरे मदमस्त बनारस
बता न
बजरडीहा में तेरा पता क्या है? 

:अरमान आनंद 

Thursday 12 March 2015

आगरे का पागलखाना (गल्प) - अरमान आनंद

14को आगरा जा रहा हूँ। बेरोजगारी का फायदा ये कि आपको घूमने के खूब मौके मिलते हैं। बेरोजगारी और आवारगी का सम्बन्ध जीजा साली वाला है। रंगीन और संगीन।
आगरे में तीन चीज़े प्रसिद्ध हैं। पेठा, पागलखाना, और ताजमहल। ताजमहल और पेठा कैसे बना ये तो सब जानते हैं। पागलखाना कैसे बना ये बताता हूँ। एक बार एक अंग्रेज अधिकारी आगरा  पहुंचा। पेठा खा के मस्त हो गया।  फिर शाम को बग्ग्घी से ताजमहल देखने निकला। ताजमहल देखा तो दंग रह गया। उसने कारिंदों को कहा मेरा सामान गेस्ट हाउस से ले आओ। अब हम इसी महल में रहेंगे। गाइड ने कहा सरकार ये महल नहीं कब्र है। यहाँ नहीं रह सकते। गाइड ने आगे बताया राजा ने रानी को खूब प्यार किया , जिससे रानी बच्चा पैदा करते करते मर गई। फिर उसकी याद में राजा ने ताजमहल बनवाया। ताजमहल बनवाने के बाद राजा ने यहीं ताज बनाने वाले कारीगर के हाथ भी काटा था। जिससे कि वो कोई दूसरा ताज न बना सके।
अंग्रेज ने कहा इस शहर को पागलखाने की जरुरत है। जल्दी से पागलखाना बनवाया जाय।
फिर क्या था आगरा का पागलखाना तैयार हो गया और जब से पागलखाना बना दूसरा ताजमहल नहीं बना। मन हो तो भिजिट(विजिट) कर आइये।

Tuesday 24 February 2015

सत्ता और साहित्य



सत्ता और साहित्य


सत्ता, वर्चस्व और प्रतिरोध के समेकित अन्तः क्रियाओं का नाम है| मानवीय सभ्यता की शुरुआत से ही सत्ता मनोवृति के रूप में मानव व्यवहार श्रृंखला में शामिल हो गई है| आज के समय में पूँजीवाद, बाजार और वैश्वीकरण ने मानव सभ्यता को एक गहरे संकट के मुहाने ला खड़ा किया है| विश्व की बड़ी जनसंख्या गरीबी और अवसाद से ग्रस्त है| मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं का भयंकर ह्रास हुआ है| ऐसे में बहुत आवश्यक है कि इन समस्याओं की जड़ तक पहुंचा जाये और मनुष्य की समस्याओं का समाधान उसके व्यवहारों के अध्ययन से ही संभव है | इसके लिए साहित्य से बेहतर साधन नहीं हो सकता| साहित्य की प्रसिद्ध परिभाषा को याद करें “किसी भी देश का साहित्य वहां की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है”- आचार्य रामचंद्र शुक्ल की इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि साहित्य समाज की चित्त-वृत्तियों का आख्यान है, अर्थात् साहित्य समाज की सत्ता संरचना का व्याख्याता भी है| इसलिए किसी भी समाज की चित्त-वृत्ति और विकास को समझने के लिए वहां के साहित्य को समझना अति आवश्यक है| “सत्ता भी एक मनोवृति है , जो मनुष्य के व्यवहार में परिलक्षित असंख्य अलग-अलग हुए अनुभवों के करण हुई असंख्य अलग-अलग इच्छाओं के जोड़ के कारण नहीं बल्कि स्वाभाविक रूप में और लगातार मनुष्य सत्ता की इच्छा करता है|” 1 मनुष्य अपनी इसी वृति के कारण आजीवन संघर्ष और द्वन्द में जीता है| उसकी दो इच्छाएं हमेशा साथ साथ चलती हैं| पहली स्थायित्व जिसका अगला चरण प्रभुत्व में परिवर्तित होता जाता है| दूसरा किसी भी प्रकार के दबाव या प्रभुत्व का प्रतिरोध| स्वच्छंदता मनुष्य की आदिम चेतना रही है| वह किसी भी प्रकार के बंधन से मुक्त रहना चाहते है| परन्तु स्थायित्व और प्रभुत्व की इच्छा उसे दूसरों पर अपने वर्चस्व को स्थापित करने की प्रेरणा देता है| फलतः एक अनवरत चलने वाले संघर्ष की उत्त्पति होती है| वर्चस्व और प्रतिरोध के इसी द्वन्द पर मार्क्स अपना पक्ष रखते हुए कहते हैं: “आजतक का अस्तित्वमान समस्त समाज का इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास है|” 2कार्ल जे. फ़्राईडरिक ने constitutional government and democracy (pp.12-14) में सत्ता को ‘किसी प्रकार के मानव सम्बन्ध के वर्णन’ से जोड़ा है| यही सत्ता और सत्ता विमर्श का मूल है| यह मानवीय संबंधों की व्याख्या करने का सफल औजार है|3 मिशेल फूको सत्ता का स्पष्टीकरण देते हुए कहते हैं “सत्ता ‘हम क्या हैं? उसका निर्धारण करती है| 4 एक ही वाक्य में फूको सत्ता के सम्पूर्ण चरित्र का उद्घाटन कर देते हैं कि सत्ता मूलतः अस्तित्वमूलक शब्द है| यही अस्तित्व स्थायित्व पाकर वर्चस्व में परिणत हो जाता है| मिशेल फूको फिर कहते हैं "सत्ता वह मूलभूत तत्व है जो संसार की प्रत्येक वस्तु में बराबर रूप से विद्यमान है |" 5


अर्थात यहाँ यह कहना होगा कि प्रत्येक व्यक्ति में सत्ता अस्तित्वमूलक प्रवृति में तो है ही साथ ही प्रत्येक मनुष्य में सत्ता वर्चस्व की आकांक्षा के रूप में भी पलती है| तात्पर्य यह कि वर्चस्व और प्रतिरोध दोनों साथ-साथ चलते और पलते हैं| Where there is power, there is resistance 6 


अंतोनियो ग्राम्शी भी इस विचार से सहमत होते हुए लिखते हैं “प्रत्येक मनुष्य चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, वर्चस्व के प्रभाव से युक्त होता है | हालांकि हर मनुष्य का अलग- अलग उद्देश्य पूर्ण जीवन होता है , जो कि अन्य से अलग होता है | परन्तु सामाजिक स्तर पर वह सांस्कृतिक वर्चस्व का हिस्सा होने से बच नहीं सकता, और जब तक कोई मनुष्य सामाजिक संरचना में शामिल है वह समाज में अन्तर्निहित सांस्कृतिक वर्चस्व को समझने में उसके प्रतिकार में असमर्थ है|7 हिन्दी का सत्ता विमर्श अंग्रेजी के पॉवर डिस्कोर्स का पर्याय है| पॉवर को हम शक्ति के रूप में समझते हैं| परन्तु सामाजिक और राजनीति विज्ञान में इसे सत्ता कहा गया है|


साहित्य में सत्ता की भूमिका को लेकर लगातार सवाल उठते रहे हैं| समाज में साहित्य की क्या भूमिका हो? ऐसे समय में जब हर तीसरा आदमी लिख रहा है तो किसे साहित्य की श्रेणी में माना जाय| किस वैचारिकी में पिरोया गया शब्द साहित्य की संज्ञा प्राप्त करने की क्षमता रखते हैं आदि-आदि| तो उत्तर यह है कि साहित्य की सत्ता प्रतिरोध की सत्ता है जो हमेशा वर्चस्व के विरोध में रची जाती है| "कला कला के लिए" की मान्यता से हट कर कला में उपयोगितावाद या कला समाज के लिए की सैद्धांतिकी इसी तरफ ले जाती है| हालाँकि वर्चस्ववादी सत्ता कला का इस्तेमाल अपने लिए वर्चस्व के अदृश्य हथियार के रूप में करती है| रामस्वरूप चतुर्वेदी नया सहस्त्राब्द और साहित्य शीर्षक आलेख में लिखते हैं "साहित्य को यों खतरा अब उपसाहित्य से है जो या तो सत्ता से अनुशासित होता है या फिर बाज़ार से|"8 रामस्वरूप चतुर्वेदी उस साहित्य को उपसाहित्य का दर्जा देते हैं जो मूल साहित्य के साथ-साथ साहित्य की मूल चेतना और सरोकारों पर घाट करता हुआ चलता है| बाजारवादी संस्कृति की ऐसी मुश्किल घड़ी में में साहित्य को दो कार्य करने होंगे | पहला यह की साहित्य को अपनी प्रतिबद्धता बनाये रखने के लिए जोर शोर से काम करना होगा दूसरा नकली साहित्य का पर्दाफाश करना होगा | कला का मूल धर्म प्रतिरोध है| कला का रवैया हमेशा जड़ता के विरुद्ध रहा है| बी. क्रिलोव इस सम्बन्ध में लिखते हैं: मार्क्सवाद के संस्थापकों ने इस बात पर जोर दिया कि कला वर्गों के बीच विचारधारात्मक संघर्ष में महत्वपूर्ण अस्त्र है| वह शोषकों की शक्ति पुख्ता बना सकती है,तो उसकी जड़ भी खोद सकती है, वह यदि वर्ग उत्पीडन की रक्षा का काम दे सकती है,तो इसके उलट मेहनतकश जनसाधारण की शिक्षा और उनकी चेतना के विकास में योग दे सकती है तथा उन्हें अपने उत्पीड्कों पर विजय के समीप पहुंचा सकती है|9 जब तक आम जनता की पीड़ा और करुणा के साथ साहित्य स्वर में स्वर नहीं मिलाता हम उसे कैसे साहित्य की परिभाषा पर खरा उतरा हुआ मानेंगे| मोनालिजा प्रतिरोध के सम्बन्ध में कहती हैं “प्रतिरोध उत्तर साम्राज्यवादी दौर की अवधारणा है, उत्तर साम्राज्यवादी सत्ता को दर्शाती है| 10 वहीँ प्रतिरोध के सम्बन्ध में मदन सोनी अपने आलेख प्रतिरोध और सहित्य में लिखते हैं: "प्रतिरोध की अवधारणा, एक गहरे अर्थ में ,मनुष्य के साथ जन्मी और मनुष्य की अवधारणा से अभिनाभव जुड़ी प्रतीत होती है|मनुष्य जैसे अपनी परिभाषा में ही एक प्रतिरोधक प्राणी प्रतीत होता है| अगर उसके द्वारा गढ़ी गई सभ्यता और संस्कृति का इस ख़ास दृष्टि से मूल्यांकन करें, तो उसकी इस रचनात्मकता के पूरे इतिहास को प्रतिरोध के इतिहास के रूप में देखा जा सकता है|"11जार्ज लूकाच वर्चस्व और प्रतिरोध के इस संघर्ष में साहित्य की भूमिका को मार्क्सवादी नजरिये से देखते हुए लिखते हैं: “इस तरह साहित्य के अस्तित्व, महत्त्व,उत्थान, और प्रभाव की व्याख्या समूची व्यवस्था के समग्र ऐतिहासिक सन्दर्भ में ही की जा सकती है|साहित्य का उद्भव और विकास समग्र ऐतिहासिक सामाजिक प्रक्रिया का अंग है| साहित्यिक रचनाओं का सौन्दर्यगत सारतत्व और मूल्य और इसलिए उनका प्रभाव उस सामान्य और समन्वित सामाजिक प्रक्रिया का अंग है ,जिसमें मनुष्य चेतना के जरिए दुनिया को अपने काबू में करता है|”12 साहित्य और सत्ता के सम्बन्ध की व्याख्या करते हुए कात्यायनी लिखती हैं: “कविता जो स्वयं मानवीय जरुरत रही है, मानवीय जरूरतों की तड़प पैदा करती हुई, वह प्रकृति से वर्चस्व-विरोधी होती है, और एक औजार भी होती है, राज्य के रहस्य को भेदने समझने का, जैसे कि जीवन के तमाम भेदों को जानने-समझने का|”13 कविता जो मनुष्य के पक्ष में खड़ी है| वह अंतिम शोषित और प्रवंचित के साथ है| वह सत्ता के विरुद्ध है|वह बाज़ार को पहचानती है|वह किसी भी तरह के उपनिवेश का प्रतिरोध करती है| वह अपना स्वाभिमान रचती और मानव के स्वाभिमान के लिए लड़ती है| प्रथमतः और अंततः वह मनुष्य विरोधी ताकतों को निस्तोनाबूद करने का महास्वप्न देखती है|इसलिए पूरी सदी में फैली उसकी भूमिका को आज और आनेवाले कल के लिए देखना प्रासंगिक है| 14 


सत्ता विमर्श ही साहित्य और समाज के सारे विमर्शों का मूल है | समाज की मूल समस्या वर्ग समस्या है| वर्चस्व और प्रतिरोध कहें या शोषक और शोषित मामला वही है| आप स्त्री विमर्श कहें ,दलित विमर्श कहें या आदिवासी विमर्श साहित्य में आप किसी न किसी वर्चस्ववादी प्रवृति के खिलाफ खड़े होते हैं |


















































































1. पृष्ठ 668 समकालीन राजनीतिक सिद्धांत –जे. सी. जौहरी स्टर्लिंग पब्लिशर्स प्रा. लि. नई दिल्ली 2007


2. पृष्ठ ३० मार्क्स एंगेल्स कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस 2013


3. पृष्ठ 663 समकालीन राजनीतिक सिद्धांत –जे. सी. जौहरी स्टर्लिंग पब्लिशर्स प्रा. लि. नई दिल्ली 2007


4. {http://www.powercube.net/other-forms-of-power/foucault-power-is-everywhere/} 


5. page 93 history of sexuality volume 1 Michel Foucault, Pantheon Books1978 New York ISBN 0-394-41775-5


6. Page 93 History of Sexuality Volume 1 Michel Foucault, Pantheon Books1978 New York ISBN 0-394-41775-5


7. Page 233-38 Antoniyo Gramsci Prision Note Books 1992 Buttigieg , Joseph A, Ed, Newyork City Columbia Univertsty 


8. पृष्ठ 288 हिन्दी साहित्य संवेदना और विकास लोकभारती प्रकाशन 2004


9. पृष्ठ 28-29 भूमिका - बी. क्रिलोव मार्क्स–एंगेल्स साहित्य और कला, राहुल फाउन्डेशन, लखनऊ 2006


10. page 4 monalizza editor Christopher kullenberg resistance studies magazine 


11. http//pratilipi.in/2008/04/pratirodh-aur-sahitya-madansoni


12. पृष्ठ 445 सौंदर्यशास्त्र के बारे में मार्क्स और एंगेल्स के विचार- जार्ज लूकाच, भूमिका - बी. क्रिलोव मार्क्स–एंगेल्स साहित्य और कला, राहुल फाउन्डेशन, लखनऊ २००६


13. पृष्ठ 5 कवि ने कहा [चुनी हुई कविताएँ] :कात्यायनी, 


14. कविता के सौ बरस, सम्पादकीय ,संपादक लीलाधर मंडलोई, शिल्पायन,दिल्ली 2008 


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