Saturday, 17 May 2014

अरमान आनंद की कविता दंगे के फूल

किताबों ने
अर्थ का अनर्थ कर दिया था
तलवारें
गर्भ से बच्चे निकालने में व्यस्त हो गयीं थीं
चौराहे
जलते हुए टायरों के हवाले कर दिए गए
शहर
कर्फ्यू के शिकंजे में घिग्घिया रहा था
श्री राम और अल्ला हो अकबर के
नारों के बीच
नाड़ों के टूटने की आवाजें
मौत की बाहों में सिमटने से पहले तक सिसक रही थीं
आँखों के पानी के सूखते ही
घर
आग की आगोश में समा गए
इसी सुबह
रधिया की कॉपी पर जुम्मन ने लिखा था
'लभ यू'
दोपहर चौथी घंटी में
जुम्मन के बस्ते के पते पर
इक चिट्ठी आई
जिसमे कुछ हर्फों के साथ उकेरा गया था
साड़ी का किनारा
उगता हुआ सूरज
और एक कमल
शाम होने तक
कमल
राक्षस में बदल गया
और चबा गया जुम्मन का दिल
जिसमे
रधिया के नाम का तीर
रोज कहीं से उड़ता
और आकर
धंस जाता था।
©अरमान आनंद

Thursday, 8 May 2014

जंगल राज

एक जंगल था
एक जंगल का राजा था
राजा चाहता था
जंगल जंगल ही रहे

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