Saturday 4 May 2024

कथाचोर का इकबालिया बयान: अखिलेश सिंह

कथाचोर का इकबालिया बयान
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कहानियों की चोरी पकड़ी जाने पर लेखिका ने सार्वजनिक अपील की : 
जब मैं कहानियां चुराती थी तो मैं अवसाद में थी। मैं काफ़ी अकेलापन महसूस करती थी। मेरे भीतर एक void बन गया था। जिसे मैं कुछ का कुछ करते हुए भरती रहती थी। मैं डिप्रेशन सर्वाइवर हूँ। ...और देखिए तो सुधिजनों! तबसे मेरा बहुत विकास हुआ है। अब मैं इस तरह सत्य आरोपों से भी अपनी अनूठी मौलिक शैली में लड़ सकती हूँ

लोगों ने लेखिका से भिन्न स्वरों में सहानुभूति ज़ाहिर की : 
यू आर अ रियल फ़ाइटर
तुम मेरी (पसंदीदा) हो और रहोगी
चोरी तो वाल्मीकि भी करते थे फिर इतने बड़े राइटर बने कि उन्हें गीता प्रेस ने छापा
आसमान पर थूकने से थूक चिड़िया पर ही गिरेगा
तुम लिखती रहो, मुझे इंतज़ार रहता है
हमारी एकता जिंदाबाद 
शारदीय नवरात्र की शुभकामनाएँ!

घटना के उपसंहार में चोरी जैसे अमर्यादित शब्द को असाहित्यिक घोषित करते हुए, लेखिका ने सबको धन्यवाद कहा।

‘एक विशाल शरणार्थी शिविर में’ : अतुल तिवारी

‘एक विशाल शरणार्थी शिविर में’ 
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किताबों से अधिक ज़रूरत है दवाओं की।
दवाओं से अधिक ज़रूरत है परिचित दिशाओं की।
दिशाओं से अधिक ज़रूरत है एक कमरे की।

किराए का पानी, किराए की बिजली और किराए की साँस लेने के बाद; ख़ुद को किराए पर देने के लिए दाख़िल हुआ। ...और अपने फेफड़े खोल दिए।

महानगर―संपूर्णता का प्रतिबिंब। सजीवता और समृद्धता के आकाश में संभावनाओं की तरह टिमटिमाता हुआ। मूर्ख और मलिन जिसके रूपक थे। दास और हीन जिसके नायक हैं।

ऐसे हुनरमंदों का शहर, जो शीघ्रपतन के इश्तेहारों की खिल्ली उड़ाते हैं और उन पर भरोसा भी करते हैं। ऐसे आतातायियों का शहर जो हर शहर को बुरा-भला कहते हैं। वे सभी, मेरे साथ सुबह की दाढ़ी बनाकर इस शहर की तमीज़ और महीन भाषा सीखने के लिए रिक्शे को हाथ दे चुके हैं। अपनी-अपनी खुरपी लेकर―इस डर के साथ कि कहीं उनका भेद न खुल जाए।

इन सभी विस्थापितों को होना था स्थापित। स्थापित होकर सभी को करना था प्रेम। सभी को है अपनी रात और एकांत का इंतज़ार। सभी को लेना था इतिहास से प्रतिशोध। सभी को चाहिए था सपनों के लिए एक बिछौना―अतीत पर पछताने के लिए एक चादर और नींद के लिए एक सिरहाना। फिसलने के लिए तेल चाहिए था सभी को। सभी को चाहिए था चुल्लू भर पानी और एक कमरा।

कमरा जो उनकी अराजकता को झेल सके। कमरा जो उनके विलाप-गीत सुन सके। कमरा जिससे वे बताएँ अपनी प्रेमिकाओं के बारे में। जहाँ दुनिया की शिकायतों के साथ श्रेष्ठता का स्वाँग रचा जा सके। जहाँ वे उत्तेजनाओं को उगल सकें। नीचता के निचले पायदान पर लोट सकें।

प्रेमिकाओं का प्रवेश वर्जित है―ये बहुमंजिला इमारतों पर अलिखित वाक्य था और ‛कुत्तों से सावधान’―लिखित वाक्य। आवेदन की न्यूनतम योग्यता थी धर्म―यही अधिकतम योग्यता भी थी। इन सबके साथ जातक को साफ़-सुथरा और अंतर्मुखी होना ही चाहिए।

मैंने खोज के इस क्रम में सबसे पहले खोजे किराए के माँ-बाप, किराए के कुत्ते, फिर किराए का एक कमरा—धूल फाँका हुआ कमरा—झाड़ू से ज़्यादा आदमी चाहता हुआ। अपनी ओट में लेने को बेक़रार। आलीशान मोहल्ले के अमीर किराएदारों से उपेक्षित। कम कमाई वालों की राह तकता हुआ―घिघियाता हुआ नहीं।

इसी कमरे में रहकर किसी ने बेचा होगा जीवन-बीमा। किसी ने फूँकी होगी सिगरेट। कुछ प्रेमी यहाँ इस तरह भी सोए होंगे कि सिंगल-बेड पर भी बची रह गई होगी थोड़ी-सी जगह। किसी लड़की ने बना दिया होगा इस कमरे को सिंगार-महल। किसी ने कोसा होगा इसे। असंख्य घटनाओं का साक्षी ये कमरा―इसके किसी कोने में हुआ होगा मोहब्बत का ढोंग।

मेरी तरह शर्मिंदा लोग भी यहाँ ज़रूर रहे होंगे। अनुभवों से भरे इस कमरे और इस शहर ने देखे होंगे असंख्य त्रास और उल्लास। किसी को जीवन की खाद मिली होगी यहाँ, किसी को रोग। किसी ने घंटों रियाज़ किया होगा और किसी ने चिड़चिड़ाकर पटक दिया होगा साज़। किसी कवि की घुटन से खिली होंगी कविताएँ।

दीवारों को देखकर लगता था कि यहाँ पैर छूने से लेकर गला दबाने तक के अभ्यास किए गए हैं। यहाँ जो रहे होंगे वे ट्यूबलाइट ठीक करना भी जानते थे और ट्यूशन पढ़ाना भी। ख़ुश्क आँखों के सहारे इसी कमरे से आसमान में उछाली गई होंगी आठ अरब इच्छाएँ।

कोई धीरे-से बुदबुदाकर सो गया होगा : ‘‘एक दिन मैं ऐसा काम करूँगा कि...’’

कमरे ने मुझे सिखाया था कि बहुत सूझबूझ से यहाँ काम नहीं चलने वाला। उसने मुझे पास बिठाकर बताया था कि थोड़ा-सा प्रेम सीख लो और थोड़ी-सी चुगली। ये भी कि दुनिया चार लोगों की ही है और तुम पाँचवें हो। अपनी आकांक्षाओं को उगलकर शराब पियो और लोगों को शराबी कहो। उसने मुझ पर पंखा झला और राहत पहुँचाई। लड़खड़ाते पैरों को संतुलन दिया।

इसके बाद हम दोनों ने एक दूसरे की कलाई को कसकर पकड़ लिया था।

क़ातिलों में कितनी बची है क्रूरता और बच्चों में कितनी शेष है जिज्ञासा। बुज़ुर्गों में जीवन कितना बचा है। कितनी बची हुई है मनुष्यता इस विशाल शरणार्थी शिविर में? सुविधाओं के निकट जाने को आतुर, दुविधाओं में दौड़ते पैरों के लिए इस शहर में कितने बचे हैं ऐसे भविष्यहीन तंबू?

भारत में जन्म लेने का न सही पर इस शहर में दाख़िल होने का मैं भी कोई मतलब पाना चाहता था।

जाड़े की इस सफ़ेद रात में आलोकधन्वा को शहर में आ रही है जंगल की याद और मुझे मेरे पुराने कमरे की।

(आलोकधन्वा की कविता ‘सफ़ेद रात’ पढ़ने के बाद)


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