Thursday, 23 July 2020

चन्द्रकान्त देवताले की कविताएं

1

पत्थर की बेंच
....................
पत्थर की बेंच
जिस पर रोता हुआ बच्चा
बिस्कुट कुतरते चुप हो रहा है

जिस पर एक थका युवक
अपने कुचले हुए सपनों को सहला रहा है

जिस पर हाथों से आंखें ढांप
एक रिटायर्ड बूढ़ा भर दोपहरी सो रहा है

जिस पर वे दोनों
जिंदगी के सपने बुन रहे हैं

पत्थर की बेंच
जिस पर अंकित हैं आंसू, थकान
विश्राम और प्रेम की स्मृतियां

इस पत्थर की बेंच के लिए भी
शुरू हो सकता है किसी दिन
हत्याओं का सिलसिला
इसे उखाड़कर ले जाया
अथवा तोड़ा भी जा सकता है
पता नहीं सबसे पहले कौन आसीन हुआ होगा
इस पत्थर की बेंच पर।

2

नींद और कवि

रात पत्थरों को पीसती है
बिखरता रहता है पत्थरों की छाती में छिपा
पानी का उदास संगीत

और नींद है अंधेरे में बिल्ली की चमकती आंख

एक घुड़सवार रौंदता है सपनों को
कवि दर्ज करता है कविता में
कुत्तों के रुदन का प्राचीन शिलालेख
और घोड़े की नाल ठुक जाती है ज़ख्म के ऊपर

धीवर की फटी आंखों में लेटा समुद्र
करवट तक नहीं बदलता
पियक्कड़ों से बेखबर आसमान
देखता रहता है जलता हुआ पहाड़
एक अकेला आदमी खोदता रहता है अपने भीतर
किसी अज्ञात अकेली औरत का सन्नाटा

कवि बिल्ली को पुचकारना चाहता है
पर वह पीती रहती है शब्दों का दूध।

3

शब्दों की पवित्रता के बारे में

रोटी सेंकती पत्नी से हंसकर कहा मैंने
अगला फुलका बिलकुल चंद्रमा की तरह बेदाग हो तो जानूं

उसने याद दिलाया बेदाग नहीं होता कभी चंद्रमा

तो शब्दों की पवित्रता के बारे में सोचने लगा मैं
क्या शब्द रह सकते हैं प्रसन्न या उदास केवल अपने से

वह बोली चकोटी पर पड़ी कच्ची रोटी को दिखाते
यह है चंद्रमा-जैसी, दे दूं इसे क्या बिन आंच दिखाए ही

अवकाश में रहते हैं शब्द शब्दकोश में टंगे नंगे अस्थिपंजर
शायद यही है पवित्रता शब्दों की
अपने अनुभव से हम नष्ट करते हैं कौमार्य शब्दों का
तब वे दहकते हैं और साबित होते हैं प्यार और आक्रमण करने लायक

मैंने कहा सेंक दो रोटी तुम बुढ़िया कड़क चुंदड़ीवाली
नहीं चाहिए मुझको चन्द्रमा जैसी!

4

इतनी पत्थर रोशनी

बजते हुए पानी के पठार के
इस बाजू इच्छाओं का जंगल
दूध के पहाड़
दौड़ते खुशबुओं के घोड़े

तुम उस बाजू
कब तक चंद्रमा से
धोती रहोगी आंखें

मैं कब तक पीता रहूंगा
इतनी पत्थर रोशनी
यहां चुपचाप।




चन्द्रकान्त देवताले

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