Thursday 9 July 2020

रश्मि भारद्वाज की कविता पति की प्रेमिका के नाम पर आलोचक प्रो. गोपेश्वर सिंह की टिप्पणी

पति की प्रेमिका के नाम
                         :  रश्मि भारद्वाज

सोचती हूँ कि तुम्हें एक घर तोड़ने का इल्ज़ाम दूँ
या कि उस पुरुष के कहीं रिक्त रह गए हृदय को भरने का श्रेय 
जो घर गृहस्थी के झमेलों में 
शायद मेरे प्रेम को ठीक से ग्रहण नहीं कर पाया था,
तुम्हारे और मेरे मध्य
एक-दूसरे से बंधने के कई कारण थे
हम उसी पुरुष से जुड़े थे
जो मुझे रिक्त कर 
तुममें ख़ुद को खाली कर रहा था

तुम्हारे पास जो आया था
वह मेरे प्रेम का शेष था
हमारे संबंध की बची रह गई
इच्छाओं का प्रेत,
यह कितना कठिन रहा होगा
कि तमाम समय मुझ सा नहीं होने की चेष्टा में
मैं मौज़ूद रहती होऊँगी तुम्हारे अंदर
और उसकी सुनाई कहानियों के साए
आ जाते होंगे तुम्हारे बिस्तर तक

तुम मुझसे अधिक आकर्षक
अधिक स्नेहिल 
अधिक गुणवती होने की अघोषित चेष्टा में
ख़ुद को खोती गई 
और मुझसे मेरा जब सब छिन गया
मैं ख़ुद को खोजने निकली

हमने जी भर कर एक-दूसरे को कोसा
एक-दूसरे के मरने की दुआएँ माँगी,
हमारे मध्य एक पुरुष के प्रेम का ही नहीं
घृणा का भी अटूट रिश्ता था

मेरे पास था 
एक प्रेम का अतीत
एक बीत गई उम्र
और एक बीतती जा रही देह के साथ
उसके प्रणय का प्रतीक
एक और जीवन 

तुम्हारे पास था
एक प्रेम का वर्तमान
यौवन का उन्माद
देह का समर्पण
अपने रूप का अभिमान
और मेरे लिए एक चुनौती

लेकिन अपना भविष्य तो हम दोनों ने
किसी और को सौंप रखा था

यह होता कि तुमने मेरा अतीत
और मैंने तुम्हारे वर्तमान का साझा दुख पढ़ा होता 
काश कि हमें दुखों ने भी बाँधा होता।   

                         

 यह कविता मैंने बार - बार पढ़ी और याद करने की कोशिश की कि इस विषय पर कोई और कविता हिन्दी में है या नहीं? है भी तो इतनी रचनात्मक संवेदना से वह भरी - पूरी भी है?
अनेक लोक गीतों- लोक कथाओं की याद आई। अनेक फ़िल्मों की याद आई। कुछ कहानियां, कुछ उपन्यासों की भी याद आई। पितृसत्तात्मक समाज में प्रेयसी के रूप- जाल में बंधे हुए पति याद आए। रोती - बिसुरती पत्नियां भी  याद आईं। प्रेमिका से अपने बच्चों,  अपने सुहाग की आंचल पसार कर भीख मांगती पत्नियों की भी याद आती रही। उन आधुनिक स्त्री चरित्रों की भी याद आई, जिन्होंने अपने ऐसे पतियों का त्याग कर दिया। लेकिन पति की प्रेमिका से इतने ऊंचे मानवीय धरातल पर संवाद करने वाली कोई पत्नी नहीं याद आई।
कोई शोर नहीं। कोई आरोप - प्रत्यारोप नहीं। बहुत सधे और सीधे अंदाज़ में पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री की नियति को प्रश्नांकित करती यह कविता स्त्री - मन का और उसके दुखों का कितना बड़ा संसार समेटे हुए है! कितना कुछ कह जाने का कलात्मक सलीका है इसमें !
 'मैंने अपनी मां को जन्म दिया है' संग्रह को पढ़ते हुए इस या इस जैसी कई कविताएं अपनी नई भंगिमा के कारण पाठक को बार - बार रोक लेती हैं।शुक्रिया रश्मि भारद्वाज

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