आओगे न तुम
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1.
आओगे ना तुम,
बस एक बार.....
उस मंदिर पर या मस्जिद वाले रास्ते पर,
उस दुकान पर या किराये वाले मकान पर,
मेरी छत पर या तुम्हारी छत पर,
बोलो ना,
आओगे ना ...
अपनी बालकनी में,
आ सको तो आना .......
उस नन्हीं सी जान के साथ
चेहरे पर मुस्कान के साथ
पुरानी जान पहचान के साथ
या अौर किसी अन्जान के साथ
बस एक बार...
आना,
देख लेना चुपके से मुझे
या मैं देख लूँगी चुपके से तुम्हें।
आ सको तो आना.......
मेरे घर,
मम्मी से मिलने के बहाने
या पापा को कविता सुनाने
ना हो तो भाई को मैथ्स पढ़ाने
या नाम लेकर मुझको बुलाने
पुराने जख्मों पर मरहम लगाने
या जख्मों को फिर से बढ़ाने
कोरे हदय पर खुद को बनाने
या हदय से खुद को मिटाने
बस एक बार .....
आना,
सुन लेना चुपके से मुझे
या मैं सुन लूँगी चुपके से तुम्हें ।
आ सको तो आना .....
फागुन में ,
रंगे-पुते लड़कों की टोली में
भांग के साथ हँसी ठिठोली में
बचपन वाली हमजोली में
हाँ अबीर लगाने होली में
बस एक बार...
आना,
रंग देना चुपके से मुझे
या मैं रंग दूँगी चुपके से तुम्हें ।
आ सको तो आना .....
बस एक बार ...
आना ,
क्योंकि बात बाकी है
आना ,
क्योंकि याद बाकी है
आना,
क्योंकि साथ बाकी है।
2
प्रेम कविता
---------------
प्रेम...
न जाने कैसी बला है,
मुझे बार-बार हर बार घेर लेती है।
हाँ सच में,
अभी-अभी बिल्कुल अभी
एक हृदय ...
जिसने मेरे हृदय को स्पर्श किया
उसके करीब आये बिना
जैसे मैंनें,
दूर से ही प्रेम की आहट सुनी
शायद बहुत खूबसूरत था वो हृदय
जिसने अपनी बीमार माँ को
प्यार से दुलारा
और जैसे एक पल में,
उनकी सारी चिंताओं को चिता में बदल दिया
और साथ ही,
उनके माथे पर उभरी दर्द की लकीरों को
अपनी उँगलियों से भद्दा करने की
उसने एक नाकाम सी कोशिश की।
मैं निशब्द थी,
और मेरे आँसू उत्तेजित
जैसे फिर ...मेरा बूँद भर दर्द,
उस प्रेम के सागर में विलुप्त हो गया।
मुझे लगा कि जैसे
प्रेम ने एक बार फिर ,
मुझे अपने अस्तित्व का
सबूत देने की कोशिश में ,
मेरे हृदय के दरवाजे पर
दस्तक देने का प्रयास किया ।
मुझे आभास हुआ
कि शायद फिर,
मुझे प्रेम हुआ है
उस हृदय के स्नेह के साथ ।
हाँ सच में ...
मुझे उस प्रेम करने वाले से
निःस्वार्थ प्रेम हो गया था।
और मन कर रहा था
कि काश !मैं भी श़रीक होती
उस प्रेम के उन्वान में,
और चुरा लेती उसमें से
अपने लिए...
प्रेम का बस एक कतरा ।
3
सैनिटरी पैड
-----------------
सैनिटरी पैड खरीदने में
जिन्हें शर्म आती है।
याद करो....
माहवारी का पहला दिन
जब तुम अबोध थी
तुम नहीं जानती थी
कि वो लाल धब्बे,
जो तुम्हारी स्कर्ट पर लगें हैं
वो कैसे लगे
और अब
मम्मी को कैसे बताना है
भाई से कैसे छिपाना है
और हाँ ...
स्कूल से जल्दी घर आने का बहाना,
पापा को भी तो समझाना है।
इतने सवालों के बीच ...
तुम्हारा दर्द भी सहम जाता था
जो पिछली रात से
तुम्हारे बदन पर ग्रहण लगाये बैठा था।
और कभी सूरज का पीलापन बन
तुम्हारे चेहरे पर उतर आता
और जिसका ताप बदन से होकर
धीरे-धीरे पेट के निचले पृष्ठ पर ठहर जाता
जोर से दस्तक देते हुये
पाँव तक भारी हो जाते
और पाँव दर्द के बोझ से
थरथराकर काँपते
और ये दर्द
पूरे शरीर को बेजान करता हुआ
आँखों से रिस-रिस कर
बह निकलता।
हाँ मैं लिख रही हूं
स्त्री के दर्द को
मुझे डर नहीं लगता
माहवारी की बात करने में
मुझे शर्म नहीं आती
सैनेटरी पैड खरीदने में ,
पर ....
सहम जाती हूँ
महीने में पाँच दिन
जो मेरे शरीर में
त्रासदी ला देते हैं।
और दिमाग शून्य कर देते हैं।
साथ ही ,
हजार आडम्बर
जो 'अछूत' जैसे शब्द को मायने देते हैं।
पर शुक्र है...
मैं नहीं मानती
उन रिवाजों को
जो किसी भी स्थिति में
स्त्री को अछूत बनाये।
क्योंकि हम जिंदा हैं
साँस लेती चलती-फिरती कठपुतलियाँ नहीं हैं।
हर्षिका गंगवार
कवयित्री के बारे में -
हर्षिका बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्नातकोत्तर की छात्रा हैं। सामाजिक मुद्दों पर लिखती और जूझती रहती हैं। आंदोलनों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती हैं। हर्षिका ने सामाजिक मुद्दों और प्रेम को अपनी कविता का मुख्य विषय रखा है। पुराना अड्डा साहित्य में इनके योगदान हेतु इन्हें धन्यवाद ज्ञापित करता है साथ ही इनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता है। - अरमान आनंद (संपादक पुराना अड्डा ब्लॉग)
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1.
आओगे ना तुम,
बस एक बार.....
उस मंदिर पर या मस्जिद वाले रास्ते पर,
उस दुकान पर या किराये वाले मकान पर,
मेरी छत पर या तुम्हारी छत पर,
बोलो ना,
आओगे ना ...
अपनी बालकनी में,
आ सको तो आना .......
उस नन्हीं सी जान के साथ
चेहरे पर मुस्कान के साथ
पुरानी जान पहचान के साथ
या अौर किसी अन्जान के साथ
बस एक बार...
आना,
देख लेना चुपके से मुझे
या मैं देख लूँगी चुपके से तुम्हें।
आ सको तो आना.......
मेरे घर,
मम्मी से मिलने के बहाने
या पापा को कविता सुनाने
ना हो तो भाई को मैथ्स पढ़ाने
या नाम लेकर मुझको बुलाने
पुराने जख्मों पर मरहम लगाने
या जख्मों को फिर से बढ़ाने
कोरे हदय पर खुद को बनाने
या हदय से खुद को मिटाने
बस एक बार .....
आना,
सुन लेना चुपके से मुझे
या मैं सुन लूँगी चुपके से तुम्हें ।
आ सको तो आना .....
फागुन में ,
रंगे-पुते लड़कों की टोली में
भांग के साथ हँसी ठिठोली में
बचपन वाली हमजोली में
हाँ अबीर लगाने होली में
बस एक बार...
आना,
रंग देना चुपके से मुझे
या मैं रंग दूँगी चुपके से तुम्हें ।
आ सको तो आना .....
बस एक बार ...
आना ,
क्योंकि बात बाकी है
आना ,
क्योंकि याद बाकी है
आना,
क्योंकि साथ बाकी है।
2
प्रेम कविता
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प्रेम...
न जाने कैसी बला है,
मुझे बार-बार हर बार घेर लेती है।
हाँ सच में,
अभी-अभी बिल्कुल अभी
एक हृदय ...
जिसने मेरे हृदय को स्पर्श किया
उसके करीब आये बिना
जैसे मैंनें,
दूर से ही प्रेम की आहट सुनी
शायद बहुत खूबसूरत था वो हृदय
जिसने अपनी बीमार माँ को
प्यार से दुलारा
और जैसे एक पल में,
उनकी सारी चिंताओं को चिता में बदल दिया
और साथ ही,
उनके माथे पर उभरी दर्द की लकीरों को
अपनी उँगलियों से भद्दा करने की
उसने एक नाकाम सी कोशिश की।
मैं निशब्द थी,
और मेरे आँसू उत्तेजित
जैसे फिर ...मेरा बूँद भर दर्द,
उस प्रेम के सागर में विलुप्त हो गया।
मुझे लगा कि जैसे
प्रेम ने एक बार फिर ,
मुझे अपने अस्तित्व का
सबूत देने की कोशिश में ,
मेरे हृदय के दरवाजे पर
दस्तक देने का प्रयास किया ।
मुझे आभास हुआ
कि शायद फिर,
मुझे प्रेम हुआ है
उस हृदय के स्नेह के साथ ।
हाँ सच में ...
मुझे उस प्रेम करने वाले से
निःस्वार्थ प्रेम हो गया था।
और मन कर रहा था
कि काश !मैं भी श़रीक होती
उस प्रेम के उन्वान में,
और चुरा लेती उसमें से
अपने लिए...
प्रेम का बस एक कतरा ।
3
सैनिटरी पैड
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सैनिटरी पैड खरीदने में
जिन्हें शर्म आती है।
याद करो....
माहवारी का पहला दिन
जब तुम अबोध थी
तुम नहीं जानती थी
कि वो लाल धब्बे,
जो तुम्हारी स्कर्ट पर लगें हैं
वो कैसे लगे
और अब
मम्मी को कैसे बताना है
भाई से कैसे छिपाना है
और हाँ ...
स्कूल से जल्दी घर आने का बहाना,
पापा को भी तो समझाना है।
इतने सवालों के बीच ...
तुम्हारा दर्द भी सहम जाता था
जो पिछली रात से
तुम्हारे बदन पर ग्रहण लगाये बैठा था।
और कभी सूरज का पीलापन बन
तुम्हारे चेहरे पर उतर आता
और जिसका ताप बदन से होकर
धीरे-धीरे पेट के निचले पृष्ठ पर ठहर जाता
जोर से दस्तक देते हुये
पाँव तक भारी हो जाते
और पाँव दर्द के बोझ से
थरथराकर काँपते
और ये दर्द
पूरे शरीर को बेजान करता हुआ
आँखों से रिस-रिस कर
बह निकलता।
हाँ मैं लिख रही हूं
स्त्री के दर्द को
मुझे डर नहीं लगता
माहवारी की बात करने में
मुझे शर्म नहीं आती
सैनेटरी पैड खरीदने में ,
पर ....
सहम जाती हूँ
महीने में पाँच दिन
जो मेरे शरीर में
त्रासदी ला देते हैं।
और दिमाग शून्य कर देते हैं।
साथ ही ,
हजार आडम्बर
जो 'अछूत' जैसे शब्द को मायने देते हैं।
पर शुक्र है...
मैं नहीं मानती
उन रिवाजों को
जो किसी भी स्थिति में
स्त्री को अछूत बनाये।
क्योंकि हम जिंदा हैं
साँस लेती चलती-फिरती कठपुतलियाँ नहीं हैं।
हर्षिका गंगवार
कवयित्री के बारे में -
हर्षिका बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्नातकोत्तर की छात्रा हैं। सामाजिक मुद्दों पर लिखती और जूझती रहती हैं। आंदोलनों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती हैं। हर्षिका ने सामाजिक मुद्दों और प्रेम को अपनी कविता का मुख्य विषय रखा है। पुराना अड्डा साहित्य में इनके योगदान हेतु इन्हें धन्यवाद ज्ञापित करता है साथ ही इनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता है। - अरमान आनंद (संपादक पुराना अड्डा ब्लॉग)
हर्षिका गंगवार |