ब्रेस्ट कैंसर पर हर्ष भारद्वाज की विलक्षण कविता। इस कविता में जहाँ केंसर की भयावहता स्पष्ट हुई है वहीं माँ के माध्यम से दुनिया भर स्त्रियों की पीड़ा और दुर्गति की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है।
माओं की बीमारियों का संक्षिप्त इतिहास
***
अपने देह के व्याकरण को समझे बगैर
हमारी माँएं ब्याह दी गईं;
जवानी की दहलीज के इस पार होते हुए भी
वो अपने ही भार से थरथराती खड़ी रहीं
हमें अपने कोख में लिए;
उसने हमारे लिए घोला
अपने स्तन में मिश्री।
लेकिन हम अपनी माओं के उतने कभी नहीं हुए
जितनी वो हमारी हुई।
जिन स्तनों ने हमें
उम्र भर की मजबूती दी
हम उसका नाम लेने भर से लजाने लगे
और उनमें पनप रहे किसी घाव से बेखबर
माँएं सोती रही ईश्वर के भरोसे।
हम अपनी माओं के उतने कभी नहीं हुए
जितनी वो हमारी हुईं
हम पढ़ लिख कर बड़े हुए
लेकिन विज्ञान के अंधेरे में
माँ सिर्फ बीमार हुई।
उसके स्तनों की गिठलियाँ खून उगलती रही
और हमने उसपे बात करना भी
शर्मनाक समझा।
ये माँएं जो भागी थी
हमें हिरोशिमा से लेकर,
लाइबेरिया के आदमखोरों से बचाकर,
अमेरिकी बमों के फटने से पहले ही वे
हमें फिलिस्तीन से लेकर भागीं
और जब उन्हें मालूम हुआ
कि माओं का नहीं होता कोई देश
तो वो समस्त प्रकृति हो गयी।
समस्त प्रकृति हो गई वो
और हम समझ भी न पाए,
लड़ते रहे युद्ध, करते रहे धुआं
उसकी देह पर
और हम खुद हो गए उसका कैंसर।
प्रकृति
तब भी हमारी माँ ही रही।
लेकिन हमने कभी अपनी माओं को
मौका नहीं दिया
अपने देह के व्याकरण को समझने का
और फिर किसी दिन वो
लड़खड़ा कर गिर पड़ी
अपने सीने के दर्द से ऐसे
मानों जैसे
जीवन की सभी संभावनाएं
किसी पहाड़ सी टूट गई हो
या हो गई
जलमग्न!
हर्ष भारद्वाज
No comments:
Post a Comment