गद्य कविता का इतिहास सौ वर्षों से अधिक की उम्र तय कर चुका है, परन्तु अभी तक इसकी कोई सुगठित सैद्धान्तिकी,कोई व्याकरण या मान्य नियम तय नहीं हुआ है।एक तरह से बेनियम व्याप्त है-गद्य कविता के परिदृश्य में।इसका परिणाम है-घोर सृजनात्मक अराजकता।जिसका खामियाजा हिन्दी ही नहीं, भारत और विश्व की तमाम भाषाओं को भुगतना पड़ रहा है। यह लेख गद्य कविता के कद को खड़ा करने का एक प्रस्ताव है।उसके ढांचे में जोड़ घटाव लाकर एक चमकदार ,आकर्षक स्वरूप देने का मंथन है। यह लेख एक स्वप्न देना चाहता कि क्या गद्य कविताई के गौरव को क्लासिकी की ऊंचाई तक पहुंचाया जा सकता है???【】【】【】बेलीक राहों की तलाश में!!【】【】【】【】समय-समय पर अभिव्यक्ति की शैलियों में परिवर्तन मनुष्य के मस्तिष्क में आई बदलाहट की सूचना है। बिल्कुल अचानक यह बदलाव घटित नहीं होता, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियाँ और दैनिक घटनाएं भी अभिव्यक्ति की मानसिकता पर निरन्तर दबाव बनाती रहती हैं। लम्बे समय तक यह दबाव जब पुकार बन जाता है, तब किसी न किसी नवोन्मेषी, मौलिक और दुस्साहसी सर्जक के माध्यम से प्रकट होता है। प्रायः हर अभिनव प्रयोग अस्वीकृत होता है, निंदित होता है और महत्वहीन घोषित होता है, क्योंकि पिछली अभिव्यक्ति की शैलियाँ जो आदत बन चुकी हैं, जो सृजन के श्रेष्ठ मानक स्थापित कर चुकी हैं, इतनी आसानी से नहीं बदलतीं। न केवल साधारण मनुष्य बल्कि सर्जक, विचारक और प्रखर प्रतिभाएं भी न्यूनाधिक मात्रा में मन में लीक बना चुकी आदतों के अधीन होती हैं। न केवल सोचने, व्यवहार करने और बोलने की एक तय आदत पड़ जाती है, बल्कि किसी खास वस्तु, घटना या व्यक्ति के बारे में निर्णय लेने की भी एक आदत पड़ जाती है। आदत पकड़ लेना मनुष्य का आदिम स्वभाव है, जबकि परिवर्तन आदतें तोड़ने की शर्त पर संभव होता है। पूजा-पाठ, प्रार्थना, नमाज, सिजदा, कर्मकांड सभी धर्म के द्वारा इजाद आदतें हैं। चरणस्पर्श, अभिवादन या अलविदा कहना सामाजिक जीवन के लिए इजाद आदतें। इसी तरह सृजन के क्षेत्र में अभिव्यक्तिगत आदतों का जन्म हुआ। कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना, संस्मरण, निबंध, जीवनी या आत्मकथा जिसे हम साहित्य की नायाब विधाएं मानते हैं, एक प्रकार की सृजनात्मक आदतें ही हैं, जिन्हें हम परम्परागत विधाएं कह सकते हैं। मौजूदा वक्त में गद्यात्मक कविता-भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर कविता की मान्य और स्थापित विधा है, जिसे स्थापित होने के पहले इंकार और घोर आलोचना की कठिन आग से गुजरना पड़ा। निराला ‘छंदों के बंधन को तोड़ने’ की वकालत करते हुए गद्य कविता के आगामी युग की ही घोषणा कर रहे थे। छंदबद्ध कविता जिसकी हजार साल या उससे भी ज्यादा की बेहद समृद्ध, गहरी और श्रेष्ठ परम्परा रही है, अचानक गैर प्रांसगिक मानी जाने लगी। छंद की मर्यादा में कविताएं रचना गैर आधुनिक कहा जाने लगा, किन्तु जिस गद्यशैली में हम कविता को खड़ा करने जा रहे थे, उसकी न कोई मर्यादा थी, न नियम, न व्याकरण और न ही सैद्धांतिकी। काव्यशास्त्रियों ने छन्दशास्त्र का अपूर्व विकास करते हुए लगभग 55 प्रकार के छंदों का निर्माण किया और उनकी तथ्यपरक, बारीक परिभाषाएं सुनिश्चित कीं। आचार्य पिंगल द्वारा रचित ‘छन्दशास्त्र’ छन्दों के व्याकरण का सबसे प्राचीन उपलब्ध ग्रंथ है। इसे ‘पिंगलशास्त्र’ भी कहते हैं।आश्चर्यजनक रूप से गद्य कविता का सम्यक् व्याकरण या मानक सैद्धांतिकी निर्मित न हो सकी, इसीलिए काव्य सृजन की इस शैली में अराजकता, बेतरीका और मनमानापन व्याप्त है। यह तो सुनिश्चित है कि तीव्र गति से करवट बदलते वक्त ने कविता पर जो दबाव बनाया है, उसको कुशलतापूर्वक संभालने में गद्यात्मकता सर्वाधिक सक्षम और सशक्त है। गद्य की मूल शक्ति है- वैचारिकता, स्पष्टता, बोधगम्यता ओर हस्तक्षेप। ये गुण छन्दबद्ध कविताओं में भी रहे हैं, किन्तु मूल उद्देश्य की तरह नहीं- विशेष गुणों की तरह। जबकि गद्य कविता के मूलभूत लक्ष्य हैं ये। किन्तु वैचारिकता के घोर आग्रह ने कविता की तासीर को लगभग समाप्त कर दिया, स्पष्टता और बोधगम्यता खांटी भावहीन सपाटबयानी का पर्याय बन गयी और हस्तक्षेप के नाम पर केवल तीर मारते रहना कवियों का फैशन बन गया। इसीलिए कविता की गद्य शैली को आकंठ स्वीकार करने के बावजूद इस पर दायित्वपूर्ण चिंतन करना अनिवार्य है कि उसकी व्यापक लोकप्रियता को पुनः स्थापित करने के लिए क्या परिवर्तन लाया जाय ? वह कौन सी संरचनात्मक समृद्धि लायी जाए कि समकालीन गद्य कविता हृदयाकर्षक ऊँचाई और अर्थवत्ता हासिल कर सके। बेशक यह चुनौतीपूर्ण है, परन्तु असंभव नहीं, क्योंकि समाधान भी प्रश्न की कोख से जन्म लेते हैं। हर चिन्ता अपने भीतर अभिनव विवेक का रत्न छिपाए हुए है। रास्ते जहाँ समाप्त होते हैं, वहीं से नये रास्तों का चिंतन शुरू होता है। पहले तो गद्य कविता को सपाटबयानी से मुक्त करना अनिवार्य है। नैरेशन, बतकही, संवाद या वर्णनबाजी नहीं है-कविता। वह अपनी मौलिक प्रकृति में मंत्र, बीज, गूंज और संगीत है। संकेतधर्मी स्वभाव की होती है श्रेष्ठ कविता। यद्यपि स्पष्टता, वर्णनात्मकता और संवादधर्मिता भी समसामयिक कविता के गुण बनते चले गये। यह मंत्रधर्मिता, गूंजपन और संगीतात्मकता क्यों ? यह प्रतीकात्मकता का आग्रह किसलिए ? क्योंकि ये ही वे मौलिक तत्व रहे हैं, जिनके बल पर कविता ने लगभग एक हजार सालों तक अपना शिखरत्व कायम रखा। मंत्र में अविस्मरणीयता की शक्ति होती है, जो ‘गागर में सागर’ की क्षमता धारण करता हुआ चित्त पर चढ़ जाता है। इसी तरह कवितार्थ की गूंज यदि हृदय में स्थिर हो गयी तो अपना प्रभाव जीवनपर्यन्त बरकरार रखती है। इसी तरह कविता की बीजधर्मिता। बीज में जिस तरह वृक्षत्व, छायापन, सुगंध, हरियाली और फल देने की संभावना अनिवार्यतः मौजूद है- उसी तरह अत्यन्त सघन, सूक्ष्म और मितभाषी कविता में भी। कविता की यदि एक पंक्ति है- ‘मनुष्य का व्यक्तित्व मन के समुद्र में उठा हुआ द्वीप है’ तो यह बीज कविता है। इसी तरह यह वाक्य कि ‘पकना अनिवार्य है फल बनने के लिए।’ ‘सुगंध बनना है तो शून्य में मिटना सीखो’। कविता चाहे छन्दबद्ध हो या गद्यात्मक- दोनों की प्राणशक्ति है- नवोन्मेष, अभिनवदृष्टि, जिसे हम मौलिक उद्भावना, ताजा विचार या मार्मिक चेतना भी कह सकते हैं। आधुनिक गद्यबद्ध कवियों में मुक्तिबोध से लेकर रघुवीर सहाय, शमशेर, अज्ञेय, नागार्जुन, त्रिलोचन, कुंवर नारायण, धूमिल और केदारनाथ सिंह तक जितने भी स्थायी महत्व के नाम हैं- सबमें यह शक्ति काव्यस्थ है। सवाल है- यह अभिनव दृष्टि आती कहाँ से है ? कैसे इसका जन्म संभव होता है ? लीक त्यागने के साहस से अभिनव दृष्टि जन्म लेती है, नये प्रयोग का खतरा उठाने से मौलिकता संभव होती है, बनी-बनाई राह इंकार करने और दर हकीकतों से गहनतः टकराने, मथने, आत्मसंघर्ष करने से नयेपन का बीज कविता में अंकुरित होता है। इसके अतिरिक्त अंतःसंवाद का अनेक आयामीपन इस अनछुई, अज्ञात किन्तु बेमिसाल दृष्टि का रहस्य है। वस्तु को देखते, सोचते, चाहते, आत्मस्थ करते-करते कवि की एक मनोदशा वह भी आती है- जब वह वस्तु के मूल्य को समयबद्ध होकर नहीं, कालातीत होकर देखता है। न्यूनाधिक मात्रा में इस परम सूक्ष्म दृष्टि की सक्रियता के बगैर मौलिक दृष्टि असंभव है। जब कवि सांसारिक परिभाषाओं को चुनौती देता है, तब अपने श्रेष्ठ रूप में होता है। जब दुनियावी पहचान, मानव जनित नियम, शास्त्र, सिद्धांत में उलटफेर करने को कमर कसता है-तब सृजन के श्रेष्ठ स्वरूप में है। आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य है कि निजी जीवन में भी कवि बेहद परिवर्तनशील मानस, हृदय और जिद का धनी हो। बासी, खोखले और समाज-घातक संस्कारों, मर्यादाओं और षट्कर्मों से चिपका हुआ या सिर पर ढोता हुआ कवि नवोन्मेषी निगाह का अभय उद्घोषक नहीं बन सकता। व्यक्तित्व और कलम की फाँक कवि के सृजन की ऊँचाई या बौनेपन का निर्धारक है। चूंकि समकालीन कवि सफलता का आकाश चूमने के लिए दिनरात पेशेवर होते चले गये, इसीलिए बलखाती भावधारा से शून्य हमारा कवि बेमिसाल मौलिकता से लबरेज सृजनशक्ति खो बैठा। मौजूदा हिन्दी कविता से क्लासिकी समाप्त हो जाने का मूल कारण भी यही है। अन्वेषी मानसिकता, संकल्प और कल्पनाशीलता का व्यक्ति बहुत सहजतापूर्वक मौलिक सृजन का सूत्रधार बन जाता है- इसके दो उदाहरण हैं- निराला और मुक्तिबोध। बहुदिशात्मक सृजन क्षमता से सम्पन्न। रवीन्द्रनाथ और खलील जिब्रान इन दोनों कवियों से भी आगे। नैसर्गिक अभिनव दृष्टि से सम्पन्न कवि चित्रात्मक कल्पना शक्ति की विलक्षण प्रतिभा होता है। वह ऐसी अनजानी, नयी किन्तु बहुमूल्य कल्पना कर लेता है- जो सामान्य स्तर के सर्जकों के लिए दूर-दूर तक असंभव है। उसके लिए समूची सृष्टि मानो सृजन की प्रयोगशाला हो। वह गोताखोर की तरह उतरता है-सृष्टि के समुद्र में। वह चींटी की तरह निकल पड़ता है- बेलीक राहों के फासलों में। वह मकड़ी की प्रकृति का है-जो अपनी हुनर के बल पर हृदयाकर्षक तानाबाना बुनता है- सृजन का। नित नये अर्थों की खेाज में रमा हुआ कवि मन में उठे हुए भावों को चित्र का आकार देता है- वेदना का चित्र, प्रतिरोध का चित्र, समर्पण का चित्र, प्रतिबद्धता का चित्र, अपराजयेता का चित्र। किन्तु यह रचनात्मक चित्रमयता सामान्य मस्तिष्क का चित्र नहीं, बल्कि सृजनावेशित परम जागरूक और उर्जस्वित मानस का चित्र है- एक प्रकार से बादल के स्वभाव का, जो अर्थसिक्त श्ब्दों और वाक्येां की बारिश करने के लिए लबालब भरा हुआ है। मानस में उठा हुआ यह काव्य चित्र कई रचनात्मक युक्तियों से मिलकर बना है- जिसमें हैं- सर्जक के रैशनल विचार, प्रखर और पारगामी संवेदनशीलता, सुई की नोक से भी बारीक तीक्ष्ण एकाग्रता और जड़ सत्ता में प्राण भरने वाली करुणा। यदि सृजन का चित्र निर्मित करने वाली यह दुर्लभ योग्यता कवि या लेखक में आ जाय, तो वह नायाब कृतियाँ खड़ा कर सकता है- संदेह नहीं।सृजन का समयजयी तानाबान केवल चित्रात्मक क्षमता के बूते खड़ा नहीं होता। उसके लिए चाहिए अनजाने प्रतीकों की श्रृंखला, नये से नये उपमानों की बानगी और अनछुए, कोरे, ताजा सौन्दर्य का रस। कविता का वाक्य जादू की छड़ी जैसा होना चाहिए, जिसमें शब्द-शब्द मंत्र की तरह पिरोए गये हों, जो मुँह से उच्चरित होते ही- मोहक अन्तध्र्वनि बन जाएं, चिपक जाएँ आत्मा से, मथने, विचलित करने लगें समूचे वजूद को। एक-एक वाक्य में इतने नायाब और गहरे मर्म कसे हुए हों- मानो वह कोई स्थापत्य की नींव-दर-नींव हो। ऐसा मर्ममय वाक्य संभव होता है- सार्थक किन्तु नये प्रतीकों से, अज्ञात उपमानों से और अपरिचित-बेमिसाल बिम्बों से। जैसे उदाहरण के लिए- ‘‘मानस क्षितिज में कल्पना का सूर्य सदा अमिट चमकता है।’’ ‘‘मौन में पुकारती ऐसी माँ है प्रकृति, जिसे भीतरी कानों से ही सुना जा सकता है।’’ ‘‘परिवर्तन का चक्र अदृश्य है, किन्तु कितना सार्वभौमिक और कालजयी ?’’कविता में अन्तर्दृष्टि की यह बेमिसालियत बहुगामी भाव-प्रवणता से संभव होती है, जिसमें अहैतुक प्रेम, सर्वग्राही करुणा और अपराजेय उदारता घुलीमिली रहती है। अन्तःव्यक्तित्व की विशालता और दृश्य-दृश्य में, रूप-कुरूप में, गुमनाम-प्रसिद्ध में, जीव-निर्जीव में, रोचक-अरुचिकर में घुसपैठ लगाने की जिद और संकल्पी आकांक्षा के चलते यह मौलिक अन्तर्दृष्टि हासिल होती है। फिर तो अभिव्यक्ति चाहे अनगढ़ हो या गद्यात्मक, साहित्यिक भाषा में हो या सामान्य व्यवहार की भाषा में- वह चित्ताकर्षक ही होगी, टिकाऊ और उम्रदार होगी। कविता वह अस्तित्व है, जो शरीर की तरह पंचभूतों से निर्मित होती है। वे पंचभूत हैं - संवेदना, कल्पना, रससिक्त विचार, रसमय भाषा और प्राणवान शिल्प। शेष-प्रतीक, बिम्ब, रूपक इत्यादि सहायक तत्वों की भूमिका निभाते हैं।नयी सदी की कविता अपनी अस्थिर सैद्धांतिकी के कारण संकटग्रस्त है ही, स्वाध्याय के अकाल के कारण और भी शक्तिहीन है। समकालीन विश्व-कवियों में नाजिम हिकमत, ब्रेख्त, शिंबोस्र्का, पाब्लोनेरुदा, महमूद दरवेश, रिल्के, यहूदा अमीखाई जैसे अनेक हस्ताक्षर हैं- जिन्होंने बिना सुनिश्चित व्याकरण दिए अपनी कविताओं के द्वारा गद्य कविता का मानक तय किया। जिसमें जागरण, आह्वान, प्रतिरोध, पक्षधरता और पराजित जनहृदय की पुकार गूंजती है। ऐसे शीर्षस्थ कवियों की कलम में उन्मुक्त चेतना ही कविता का नियम है, कहने का बेखौफ साहस ही कविता का व्याकरण है और अलक्षित मर्मों का सशक्त प्रकाशन ही कविता का सिद्धांत है, मौलिक चिंतन को संवादधर्मी पंक्तियों में उड़ेल देना कविता की नींव है। समकालीन हिन्दी कविता में धूमिल, गोरख पांडे, कुंवर नारायण, मंगलेश डबराल, भगवत रावत और राजेश जोशी अपनी गद्यबद्ध कविताई के द्वारा एक सृजन सैद्धांतिकी का अनजाने में ही निर्माण कर रहे थे। विनोद कुमार शुक्ल अपने ढंग के अलहदा गद्य कवि सिद्ध हुए। नयी सदी की युवा पीढ़ी एक दिशाहीनता के दौर से गुजर रही है- दो मत नहीं। अभी-अभी चंद रोज पहले कोई नवकवि दस-बीस कविताएं खालिस गद्यात्मक अंदाज में परोसते हुए स्टार बन सकता है। कोई युवा कवि शाब्दिक रहस्यों का भ्रमजाल रचते हुए अचानक प्रतिभा का अपूर्व अवतार घोषित हो सकता है। यहाँ तक कि पाठकों के हृदय में हलचल मचाए बगैर अचानक कोई कवि परिदृश्य में छा सकता है और यह सब गैर साहित्यिक तौर तरीके से होना शुरु हो चुका है। सोशल मीडिया के प्रभुत्व ने सृजन की धारा को गजब का मटमैला बनाया है, जिसमें अनुशासन, स्तर, मानक और विजन गायब है। जहाँ कविताएं दैनिक समाचार जैसी हवाहवाई घटनाएं बन गयी हैं, और कवि अपनी-अपनी कला और करतब दिखाने के लिए तैनात अभिनेता।लय, नाद, रस और संगीत का विलुप्त हो जाना गद्य कविता की दुर्बलता का कारण बना ही, गूढ़ार्थ पैदा करने की शक्ति का लोप होना सबसे मूल कारणों में सिद्ध हुआ। गूढ़ार्थ में दर्शन खिलता है, वेदना की रागिनी झंकृत होती है, दूर-दूर तक जाने वाली चेतना गूंजती है। यह गूढ़ार्थ छिपाने से प्रकट है और प्रकट करने से मुरझा जाता है। यह गूढ़ार्थ शब्दों के गैप में मौजूद होता है, कवि जहाँ कहते-कहते चुप हो जाता है, ठीक वहीं गूढ़ार्थ जन्म लेता है। दैनिक जीवन में हम जैसे बेलगाम, बेफिक्र बोलते हैं, सविस्तार वर्णन करते या कचहरी करते हैं- कविता में ठीक ऐसा नहीं कर सकते। परन्तु कुयोग से यह खालिस, सपाट वर्णनधर्मिता बढ़ती ही जा रही है। ऐसी एकरेखीय सीधी कविता में दरसत्य की आहट है, मर्म को छूने वाले दृश्य हैं, मस्तिष्क पर चोट करती असह्य घटनाओं की आंच है और समय की धीमी धड़कन है- फिर भी इसे ‘आजजीवी’ कविताएं ही कहा जाएगा। जिस तरह हवा का झोंका तत्काल रोमांचित कर देता है, जिस तरह सामने दिखते चेहरे की मौन पुकार हृदय को खींच लेती है, जिस तरह रेाज-रोज घट रही घटनाएं हमारे मस्तिष्क को सोचने, बोलने को विवश किए रहती हैं- उसी तरह ये आजजीवी कविताएं, जो माह भर बाद कहाँ विलुप्त हो गयीं- न कवि को ख्याल रहा, न भूरि-भूरि प्रशंसक को, न परिदृश्य में उछालने वाले आलोचक को। प्रतिदिन शताधिक संख्या में गढ़ी, तराशी जा रही ‘दैनिकजीवी’ कविताओं की यही नियति है।जबकि होना यह चाहिए था कि हम गद्य कविता को अन्तर्दृष्टि, गहन वेदना, विलक्षण कल्पनाधर्मिता, अभिनव बिम्बात्मकता और सार्वभौमिक चेतना के बूते अक्षय आयु सौंपते। उसमें अचूक दृष्टि की ऐसी गहराई लाते जो काल को भेदती हुई असंख्य हृदयों का मार्गदर्शन, करती। कविता कोई आजमाइश नहीं, वह तो सभ्यता, समाज, मनुष्यता को गढ़ने, तराशने चमकाने और सुरक्षित करने वाले समर्पित शिल्पकारों का लौह-शस्त्र है।सदी के नवसर्जक को सीखना होगा कि दृश्य को दृष्टि में, ज्ञान को संवेदना में और अनुभव को अनुभूति में कैसे रूपान्तरित किया जाय। इसका सूत्र है- गहनतम एकाग्रतापूर्वक सुमिरन। यदि दृश्य को ध्यानस्थ अवस्था में बार-बार याद किया जाय, अपने प्राण में प्रतिष्ठित किया जाय, तो वह दृष्टि का प्रकाश बन जाता है। इसी तरह हम जो भी ज्ञान अर्जित करते हैं- यदि उसमें अन्वेषक आत्मा को शामिल कर लें, हृदय से आप्लावित कर लें, चेतना से संवार लें- वह केवल बुद्धिबद्ध न रह जाय तो- स्थायी रूप से शरीर के कोने-कोने में तरंगित होने वाली वेदना हो जाएगा- ज्ञान। हमारा अनुभव अधकचरा है, अधूरा और अपरिपक्व है- यदि अनुभूति में तब्दील नहीं हो जाता। अनुभूति में रूपान्तरण का अचूक उपाय है- अनुभूत तथ्य, सत्य, चरित्र या घटना को अपना बना लेना। भेद, पृथकता, अजनबीपन का भाव हद दर्जे तक मिटा देना, स्वयं उसका हिस्सा बन जाना। दर्शक नहीं भोक्ता की भूमिका में तत्पर होना। हमारा कवि विषयों से आत्माकार होने की कला न सीख सका, यह उसके सृजन की असफलता का कारण है। सृजन की परिधि में मृत, निर्जीव, मूल्यहीन कुछ भी नहीं। सब प्राणवान हैं, अमूल्य हैं- चाहे कंकड़ हो, पीला पत्ता हो, कूड़ा हो या प्रकृति का प्रलयंकर स्वरूप। व्यक्ति सही-गलत, श्रेष्ठ-निकृष्ट का निर्धारण हमेशा अपने स्वार्थवादी चश्मे से करता है, जबकि सर्जक या कवि यह निर्धारण निरपेक्ष, स्वार्थमुक्त विवेक के शिखर पर बैठकर। कवि की असीम सहानुभूति, करुणा और आत्मीयता वहाँ भी बरसती है- जहाँ स्नेह की एक बूंद गिराना भी सामान्य मनुष्य बेकार समझते हैं। कई बार सृजन की यात्रा वहाँ से आरंभ होती हैं, जहाँ से संसारवादी आदमी पीछे लौट चलते हैं। इसीलिए अपनी असाधारण संवेदना शक्ति के दम पर दृश्य-दृश्य में, बेनाम, गुमनाम में, अजनबी, पराए में प्राण-प्रतिष्ठा करना सबसे पहली अनिवार्यता है- वर्तमान कवि के लिए। जिसके हृदय में बीता कुछ भी नहीं, जो है- सब वर्तमान है, चाहे हजार साल पुराना हो- वह सिद्ध सर्जक है। ‘बेलीक राहों की तलाश’ का भूखा होना पड़ेगा हमारे कवि को। ‘एक पैर रखता हूँ कि सौ राहें फूटतीं।’ यह मुक्तिबोध की घोषणा मात्र नहीं, परम सजग चित्त का आत्म संकल्प भी है। जब कवि लिखने की पूर्व शैली को इंकार करता है- तो वह अपना मार्ग पाने की ओर है। जब वह सृजन की पुरानी भाषा को छोड़ रहा है, तोड़ रहा है - तब वह अपनी काव्य भाषा अर्जित करने वाला है। एक समय में सर्वप्रचलित और स्वीकृत काव्य परम्परा को बदलना, मोड़ पैदा करना, निर्णायक परिवर्तन लाना बेहद कठिन और चुनौतीपूर्ण है, किन्तु सर्जक कहलाने की सार्थकता इसी में छिपी है। लगभग पचास वर्षों से गद्य शैली का साम्राज्य कायम है, जिसमें अत्यंत सार्थक बदलाव लाना अनिवार्य बन चुका है। छन्द की ओर लौटना न केवल असंभव बल्कि सृजन-घातक भी है। तो क्या मार्ग होगा- भविष्य की कविता का ? वह मार्ग है- लय का धारा प्रवाह, वह पथ है- मौलिक दृष्टि और ताजा संवेदना से लबरेज तरंग कौशल, वह उपाय है- शब्द-शब्द के साथ मंत्र जैसा बर्ताव करता हुआ गद्य-लाघव। असंभव नहीं कि नयी सदी की कविताई छायावाद के शिखरत्व को पाले, किन्तु हमारे कवि को अपनी खोई, सोयी और निष्क्रिय मनुष्यता को प्रज्ज्वलित करना होगा। स्थापना, प्रसिद्धि, प्रशंसा, पुरस्कार से बहुत ऊपर और ऊँची है- सृजन के समर्पित कवि की मनुष्यता। बड़ी से बड़ी कलाकृति का जन्म इस असीम, अपरिभाषेय मनुष्यता के बिना असंभव है। कहना जरूरी है अपने वक्त के कवियों से कि मात्र कवि बनने के लिए कविता लिखना बंद कीजिए, सृष्टि के मस्तक पर, गुमनाम के चेहरों पर स्थायी चमक लाने के लिए कलम को सुमिरिए। भक्तिकाल खुद आकर उपस्थित नहीं हो गया। जब उसे कबीर जैसे फक्कड़ साधक, सूर जैसी जाग्रत आत्मा और तुलसी जैसी सुसंगठित प्रतिभा मिली, तब जाकर खड़ा हुआ है- भक्तिकाल। रहस्य स्पष्ट है, जिस दिन हमारा कवि अपने व्यक्तित्व को वह दुर्लभ तराश देने में संलग्न हो जाएगा, एक और मानक युग साकार होगा।अक्टूबर, 2021भरत प्रसादहिन्दी विभागपूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालयशिलांग
Monday, 1 November 2021
बेलीक राहों की तलाश में: भरत प्रसाद
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