आज हमारे अध्यापक साथी नंदकिशोर नवल का जन्मदिन है. यह पहला जन्मदिन है , जब वे हमारे बीच नहीं है. जब मैं पटना में था तो आज के दिन नवल जी के घर बढ़िया भोजन मिलता था और हम देर तक गपशप करते थे. ...उनके निधनोपरांत 'आजकल' ने अपना इस महीने का अंक नवल जी पर केंद्रित किया है. इस अंक में मेरा भी एक लेख है जिसके जरिए मैंने आलोचक नंदकिशोर नवल को वस्तुपरक ढंग से समझने की यथासंभव कोशिश की है. उस लेख के साथ नवल जी की स्मृति को प्रणाम .
नंदकिशोर नवल:आधुनिक कविता के आलोचक :गोपेश्वर सिंह
लिखने के लिए नंदकिशोर नवल ने कई विधाओं में लिखा है, लेकिन वे मूलतः कविता के आलोचक हैं. कविता में भी छायावाद और उसके बाद के काव्य परिदृश्य में उनकी विशेष रूचि थी. उन्होंने निराला की कविता पर शोध -कार्य किया था. निराला की कविता का प्रभाव उनके ऊपर ऐसा पड़ा कि वह उनके रूचि- निर्माण का वह मुख्य आधार बन गया. वैसे उनके अध्ययन का दायरा बहुत व्यापक था. वे संस्कृत भाषा के कालिदास से लेकर अपभ्रंश के कवियों पर बात कर सकते थे. वे सरहपाद, विद्यापति, तुलसीदास, बिहारी, निराला से लेकर आधुनिक काल तक के
कवियों के काव्य-वैशिष्ट्य पर समान रूप से लिखते- बोलते थे. वे यदि निराला के काव्य की अर्थ छवियों को खोलते थे तो संजय कुंदन, राकेश रंजन आदि युवा कवियों के काव्य-वैशिष्ट्य को भी . हिंदी कविता पर इतने विस्तार से लिखने वाले और बातचीत करनेवाले आलोचक के रूप में नामवर सिंह के बाद सहज ही नंदकिशोर नवल का नाम याद आता है.
नवल जी ने सूरदास, तुलसीदास, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, अज्ञेय, नागार्जुन आदि पर स्वतंत्र पुस्तकें लिखी हैं और उनकी कविता का नया मूल्यांकन प्रस्तुत करने की कोशिश की है. उन्होंने रघुवीर सहाय, कुँवर नारायण, राजकमल चौधरी, केदारनाथ सिंह आदि पर भी लम्बे-लम्बे लेख लिखे हैं. उन्होंने ‘आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास’ लिखा है और अपनी पसंद के कवियों का मूल्यांकन किया है. ‘हिंदी कविता अभी, बिलकुल अभी’ जैसी पुस्तक भी लिखी है और आठवें दशक के प्रमुख कवियों का मूल्यांकन किया है. इसके अतिरिक्त कविता और कवियों पर लिखे हुए निबंधों की उनकी अनेक किताबें हैं. उन्होंने ‘निराला रचनावली’ का तो संपादन किया ही है, कुछ और पुस्तकों का भी संपादन किया है. कुल मिलाकर यह कि नंदकिशोर नवल ने कविता पर प्रचुर मात्रा में लेखन कार्य किया है, लेकिन आलोचक के रूप में उनकी कीर्ति का मूल आधार ‘मुक्तिबोध: ज्ञान और संवेदना’ तथा ‘निराला: कृति से साक्षात्कार’ नामक दो पुस्तकें हैं. अन्य कवियों पर उनके लिखे हुए की कोई भले अनदेखी कर जाए, लेकिन जिसकी भी रूचि निराला और मुक्तिबोध में है, उसे नवल जी की आलोचना से गुजरना ही होगा. जिस तैयारी के साथ नवल जी ने मुक्तिबोध के कवि- मन में प्रवेश किया है और उनके काव्य- मर्म को उद्घाटित किया है, वह अपूर्व है. लिखने के लिए मुक्तिबोध पर उनके पूर्व रामविलास शर्मा, नामवर सिंह आदि ने भी लिखा है. लेकिन नवल जी ने जितने विस्तार और गहराई से मुक्तिबोध के मनस्विन रूप की खोज की है, वह मुक्तिबोध को नए रूप में हमारे सामने रखता है. इसी तरह निराला पर रामविलास शर्मा का प्रबंधात्मक लेखन है. अन्य लोगों की लिखी हुई पुस्तकें भी हैं. लेकिन ‘निराला: कृति से साक्षात्कार’ के जरिए नवल जी ने निराला की कविताओं की जो पाठ आधारित आलोचना लिखी है, वह निराला संबंधी समझ को बदलनेवाली और विकसित करनेवाली है.
नवल जी का मानना है कि ‘कुछ कवि भावना के साथ ज्ञान को भी महत्त्व देते हैं, कुछ जितना भावना को महत्त्व देते हैं, उतना ज्ञान को नहीं.’ इन दोनों तरह के कवियों के उदाहरण हिंदी कविता के इतिहास में मिल जाएँगे. लेकिन नवल जी की नजर में मुक्तिबोध ऐसे कवि थे जिनकी कविता में ज्ञान और भावना दोनों समान रूप से मौजूद हैं.
नवल जी का कहना है- ‘मुक्तिबोध कविता में संवेदना के साथ ज्ञान को अनिवार्य मानते थे. इसी कारण उन्होंने कवि द्वारा अपने भीतर विश्व-दृष्टि विकसित करने पर बहुत बल दिया है.’ नवल जी का मानना है कि मुक्तिबोध यथार्थवादी कविता के पक्षधर थे, लेकिन उन्होंने आत्मपरकता का निशेष नहीं किया है. नवल जी के अनुसार मुक्तिबोध ‘व्यक्तिबद्ध पीड़ाओं से हटकर’ रची गई कविताओं को महत्त्व देनेवाले कवि थे. मुक्तिबोध जीवन के साथ कविता का अनिवार्य संबंध मानते थे. लेकिन कविता को जीवन का इतिवृत बनाने के पक्ष में वे नहीं थे. नवल जी के अनुसार मुक्तिबोध का लेखन प्रगतिशील चेतना का है, लेकिन उसमें परंपरागत प्रगतिशीलता का आधार नहीं खोजा जा सकता. नवल जी के अनुसार मुक्तिबोध बहुत ही गहरे अर्थों में राजनीतिक कवि थे. लेकिन उनकी राजनीति रोजमर्रा की राजनीति नहीं थी. उनकी राजनीति के मूल में विश्व के शोषित-पीड़ित मनुष्य की मुक्ति का प्रश्न अंतर्निहित है. उनकी दृष्टि व्यापक है और विश्व मानवता से प्रतिबद्ध है. इस कारण मुक्तिबोध की कविता में ‘महाकाव्यात्मक औदात्य और ओजस्विता’ संभव हो सकी है और वे हिंदी कविता का नए रूप में विस्तार करते हैं.
रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘नई कविता और अस्तित्ववाद’ में मुक्तिबोध की बहुत ही ‘आत्मपरक’ आलोचना की थी. रामविलास जी ने मुक्तिबोध को न सिर्फ अस्तित्ववाद से प्रभावित माना था, बल्कि उन्हें सिजोफ्रेनिक भी करार दिया था. नवल जी ने मुक्तिबोध का मूल्यांकन करते हुए रामविलास शर्मा का न सिर्फ खंडन किया, बल्कि यह भी साबित किया कि मुक्तिबोध अस्तित्ववाद के विरोधी थे. इसी के साथ उनकी कविता की विशेषता बताते हुए नवल जी ने लिखा है: “मुक्तिबोध की कविता जिस तरह अज्ञेय की कविता की तरह ‘जड़ाऊ’ नहीं, उसी तरह वह नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन की कविता की तरह सरल भी नहीं. इसका एक मुख्य कारण यह है कि वह प्रायः आकार में लम्बी ही नहीं, प्रकार में जटिल भी है. इस जटिलता का कारण वह गहन वैचारिकता है, जो ‘प्रसाद’ और ‘निराला’ के बाद सिर्फ मुक्तिबोध में ही दिखलाई पड़ती है, न अज्ञेय में, न किसी अन्य प्रतिष्ठित प्रगतिशील कवि में ही.”
मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ की अनेक व्याख्याएँ हुई हैं. रामविलास शर्मा ने इसे कवि के विभाजित व्यक्तित्व का परिणाम माना है. वे ‘अँधेरे में’ को असफल कविता मानते हैं. नामवर सिंह ने ‘अँधेरे में’ को ‘व्यक्ति अस्मिता की खोज’ कहा है. लेकिन नवल जी ने इस कविता की बिल्कुल अलग व्याख्या की है. इस कविता की रचना के पीछे वे फासीवाद की मुख्य भूमिका मानते हैं. यह व्याख्या पिछली सभी व्याख्याओं से अलग है और मुक्तिबोध की इस महान कविता को सही परिप्रेक्ष्य में रखने का काम करती है. आगे चलकर नामवर सिंह ने भी नवल जी की व्याख्या को सही माना और इसकी पृष्ठभूमि में फासीवाद की आशंका से इन्कार नहीं किया.
मुक्तिबोध के प्रसंग में आत्म-संघर्ष की बहुत चर्चा होती है. उनके आत्म-संघर्ष की तरह-तरह से व्याख्याएँ हुई हैं. उनके आत्म-संघर्ष वाले पक्ष पर विचार करते हुए नवल जी ने लिखा है: “मुक्तिबोध को आत्म-संघर्ष का कवि माना जाता है. वे मध्यवर्गीय संस्कारों और सीमाओं से मुक्त होकर सर्वहारा वर्ग से तादात्म होना चाहते थे, लेकिन चूँकि यह काम आसान नहीं था, इसलिए वे आत्म-संघर्ष में गिरफ्तार थे. एक तरफ़ अपने व्यक्तित्त्व का मोह और दूसरी तरफ़ उसके विसर्जन की आकांक्षा- इसने उन्हें विकट अंतर्द्वंद्व में डाल रखा था.... हमारा निष्कर्ष यह है कि मुक्तिबोध का आत्म-संघर्ष उनका अपना संघर्ष होते हुए भी पूरे सचेत प्रगतिशील मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी समुदाय का संघर्ष है और उसका संघर्ष होते हुए भी वह उनका अपना संघर्ष हैं. यह संघर्ष वस्तुतः वर्ग संघर्ष की छाया है, जिसकी द्वंद्वात्मकता उनके यथार्थबोध के साथ बढ़ती गई है.” मुक्तिबोध के भीतर मौजूद इस द्वंद्व की चर्चा नवल जी ने ठीक ही की है, लेकिन उनके यहाँ ‘अन्तःकरण’ की बात भी बार- बार आती है, उसकी अनदेखी अन्य लोगों की तरह नवल जी ने भी की है.
मुक्तिबोध की कविता में प्रगीतात्मक तत्त्व की नवल जी ने चर्चा की है. यह उनकी कविता की विशेषता है. नवल जी के अनुसार: “उनमें वस्तुपरकता और आत्मपरकता का जटिल संयोग देखने को मिलता है, यह तथ्य है. इस कारण उन्होंने न केवल लम्बी कविताओं की रचना की है, बल्कि छोटी कविताएँ भी अच्छी संख्या में लिखी हैं और उनकी लम्बी कविताओं में भी प्रगीतात्मक संवेदना के खंड पिरोए हुए हैं.” प्रगीतात्मकता के साथ विश्व-दृष्टि मुक्तिबोध की कविता का वह पक्ष है, जिस कारण उनकी कविता का विचार फलक बहुत व्यापक दिखाई देता है. मुक्तिबोध की विश्व-दृष्टि पर विचार करते हुए नवल जी ने लिखा है: “मुक्तिबोध की विश्व-दृष्टि असंदिग्ध रूप से मार्क्सवादी थी, लेकिन यह मार्क्सवाद उनके लिए जितना पराया था, उतना ही वह उनका अपना था. वह उनके लिए कोई जड़ सूत्र या रूढ़ विचार प्रणाली तो कतई नहीं था, जो व्यक्ति की अनुभूति, कल्पना और चिंतन शक्ति को मुक्त करने की जगह परतंत्र बना देती है.” इसी के साथ यह कहना जरुरी है कि मार्क्सवादी विश्व-दृष्टि के बावजूद मुक्तिबोध कम्युनिस्ट रेजिमेंटेशन के खिलाफ़ थे. वे पूँजीवाद का विरोध करते थे और मार्क्सवाद में उनकी आस्था थी. प्रश्न है कि किस कम्युनिस्ट रेजिमेंटेशन के ? सिर्फ हिंदी में जारी रेजिमेंटेशन के या सोवियत संघ समेत अन्य कम्युनिस्ट देशों में हुई कम्युनिस्ट परिणतियों के भी? नवल जी के मुक्तिबोध सम्बन्धी लेखन में इन प्रश्नों के उत्तर प्राय: नहीं मिलते हैं.
प्रारंभ में नंदकिशोर नवल की आलोचना पर प्रगतिशील आलोचना खासतौर से रामविलास शर्मा की आलोचना का गहरा प्रभाव था. जाहिर है कि कंटेंट और फॉर्म के रूढ़ विभाजन के जरिए कविता को समझने की कोशिश उनकी आलोचना में मुख्य रूप से दिखाई देती है. यथार्थवादी दृष्टि से कविताओं का मूल्यांकन और उससे प्राप्त निष्कर्ष प्राय: कविता के साथ न्याय नहीं करते. कविता संबंधी नवल जी की आलोचना का पूर्व पक्ष यथार्थवादी दृष्टि की सीमाओं से घिरा हुआ लगता है. लेकिन धीरे-धीरे वे इस प्रभाव से मुक्त होते हैं और उनका झुकाव पाठ केन्द्रित आलोचना की ओर होता है. उनके लेखन में यह मोड़ सोवियत संघ के पतन के बाद आता है. उनके इस आलोचनात्मक प्रयत्न का सर्वोत्तम उदाहरण ‘निराला: कृति से साक्षात्कार’ नामक क़िताब है. इसके अतिरिक्त अन्य पुस्तकें भी हैं, जो उनके आलोचनात्मक लेखन में आए तेज और झटकेदार मोड़ का प्रमाण देती हैं. आगे का उनका आलोचनात्मक लेखन इसी दिशा में है. हालाँकि पाठ आधारित आलोचना की अपनी सीमाएँ हैं. उसके जरिए कविता के पूरे आशय को नहीं समझा जा सकता. यह बात नवल जी जानते हैं और उन्होंने यह बात स्वीकार भी की है: “पाठ आधारित आलोचना की अपनी सीमाएँ हैं. इसमें रचना की जो क्लोज स्टडी की जाती है, वह अध्येता को इसकी इजाजत नहीं देती कि रचना को उससे हटकर, दूर स्थित होकर, सम्पूर्ण रूप में देखा जा सके. अध्येयता प्रायः रचना के छोटे-छोटे और नजदीकी ब्यौरों में उलझकर रह जाता है. यह आलोचना रचना के अदृश्य पक्षों का उद्घाटन नहीं कर पाती, नहीं वह आलोचक की अंतर्दृष्टि से रचना की सर्वथा नवीन व्याख्या कर पाठकों को चमत्कृत कर पाती है.” यह स्वीकार करने के साथ नवल जी ने निराला की कुछ प्रसिद्ध कविताओं की व्याख्या की है. नवल जी का मानना है कि निराला की कविता पर कालिदास, तुलसीदास, रवीन्द्रनाथ और शेली का गहरा प्रभाव है. निराला की शब्दावली और बिम्बों से लेकर उनके भावलोक तक पर इन कवियों का प्रभाव है. लेकिन इसी के साथ यह भी सही है कि निराला ने अपने कवि- व्यक्तित्त्व का स्वतंत्र विस्तार किया है.
‘जूही की कलि’, ‘बादल राग’, ‘जागो फिर एक बार’, ‘तुलसीदास’, ‘मित्र के प्रति’, ‘सरोज स्मृति’, ‘प्रेयसी’, ‘राम की शक्तिपूजा’, ‘सम्राट एडवर्ड अष्टम के प्रति’ और ‘वन-बेला’ इन दस कविताओं की पाठ आधारित आलोचना करते हुए नंदकिशोर नवल ने बहुत गहराई से इन कविताओं का अर्थ- संधान किया है. इन कविताओं की जो व्याख्याएँ उन्होंने की हैं, वे पूर्ववर्ती आलोचकों की व्याख्याओं से अलग और अधिक विश्वसनीय है. जैसे ‘राम की शक्तिपूजा’ की श्रेष्ठता का कारण नवल जी उसमें पाई जाने वाली ‘नाटकीयता’ को मानते हैं. उनका कहना है: “यह नाटकीयता इसकी घटनाओं में भी है, इसके चरित्रों में भी, इसके भाव में भी और इसमें प्रयुक्त संवादों की भाषा में भी. पूरी कविता एक नाटक की तरह है, जिसमें क्रम-क्रम से सारे दृश्य रंगमंच पर प्रत्यक्ष होते हैं.” इसी के साथ नवल जी इस कविता में पाई जाने वाली उदात्तता की भी चर्चा करते हैं. नवल जी का कहना है: “शक्तिपूजा पत्नी प्रेम की कविता है, जिसका एक अत्यंत व्यापक संदर्भ है- आधुनिक युग में उत्पन्न जनतांत्रिक चेतना. इसी ने इस कविता को वह सुविस्तृत भावभूमि प्रदान की है, जिससे यह अत्यंत उदात्त हो गई है.” अपनी व्याख्या का अंत करते हुए नवल जी ने लिखा है: “राम की शक्तिपूजा आज खड़ी बोली की सर्वोत्कृष्ट काव्य कृति ही नहीं, सर्वाधिक उदात्त काव्य कृति के रूप में भी मान्य है. उदात्त कृति की एक पहचान यह भी है कि भिन्न रूचि और संस्कार के व्यक्तियों के भीतर भी वह प्रखर सौन्दर्यानुभूति उतपन्न करने में समर्थ होती है.”
हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं का इतना विकास हो चुका है कि अब किसी एक व्यक्ति के लिए अकेले इसका इतिहास लिखना संभव नहीं है. हिंदी कविता का भी परिसर इतना विस्तृत हो चुका है कि एक पुस्तक के जरिए उसके इतिहास को किसी एक व्यक्ति द्वारा प्रस्तुत नहीं किया जा सकता. इसलिए अब समय आ गया है कि अलग-अलग कालखंडों का और अलग-अलग विधाओं का इतिहास अलग-अलग विद्वानों द्वारा लिखा जाए. शायद इसी को ध्यान में रखते हुए नंदकिशोर नवल ने ‘आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास’ नामक पुस्तक लिखी है, जिसमें भारतेंदु से लेकर साठोत्तरी पीढ़ी के धूमिल तक को शामिल किया गया है. इसमें शुक्ल जी के इतिहास की तरह प्रवृत्तियों के आधार पर काल विभाजन न करके हिंदी कविता के विकास क्रम के आधार पर कवियों का विवेचन किया गया है. कोई चाहे तो इसे ‘आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास’ न कहकर ‘आधुनिक हिंदी कविता का विकास’ कह सकता है. सही अर्थों में यह पुस्तक इतिहास न होकर आधुनिक हिंदी कविता के विकास के पड़ावों को समझने का एक प्रयास है. साहित्य के इतिहास में इतिहासकार की रूचि के महत्त्व से इंकार नहीं किया जा सकता. लेकिन वह रूचि कुछ कवियों को शामिल करने और कुछ कवियों को छोड़ देने की दिशा में सक्रिय दिखे तो वह इतिहास की बड़ी सीमा बन जाती है. आधुनिक हिंदी कविता के इस इतिहास को पढ़ते हुए यह बात ध्यान में आती है.
‘हिंदी कविता: अभी, बिलकुल अभी’ नवल जी की महत्त्वपूर्ण आलोचना पुस्तक है. इसमें आठवें दशक के महत्त्वपूर्ण नौ कवियों- विनोद कुमार शुक्ल, विष्णु खरे, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, आलोक धन्वा, श्याम कश्यप, ज्ञानेंद्रपति, उदय प्रकाश और अरुण कमल- की काव्य- यात्रा का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है. हर दौर अपना आलोचक लेकर आता है. एक ही आलोचक हर पीढ़ी के साथ न्याय नहीं कर सकता. कहा जा सकता है कि नंदकिशोर नवल आठवें दशक की कविता के विशिष्ट आलोचक हैं. यह आलोचना- पुस्तक इन कवियों का अलग-अलग काव्य संसार लेकर हमारे सामने तो आती ही है, वह हिंदी कविता में आए नए बदलावों को भी रेखांकित करती है. जिन कवियों को नवल जी ने शामिल किया है और जिन कवियों को छोड़ दिया है, उनमें से कुछ नामों को लेकर बहस हो सकती है और कहा जा सकता है कि यह आलोचक की निजी पसंद है. कोई पूछ सकता है कि श्याम कश्यप क्यों शामिल किए गए हैं और वीरेन डंगवाल, गिरधर राठी आदि क्यों छोड़ दिए गए हैं? बावजूद इसके कहा जा सकता है कि धूमिल के बाद के कवियों को और काव्य विकास को समझने में नंदकिशोर नवल की लिखी हुई इस आलोचना का विशेष महत्त्व है.
‘हिंदी कविता: अभी, बिलकुल अभी’ में पहला निबंध विनोद कुमार शुक्ल पर है. धूमिल के बाद आए कवियों में विनोद कुमार शुक्ल का अलग महत्त्व है. उनकी काव्य शैली सबसे अलग और ध्यान आकृष्ट करनेवाली है. आमतौर से माना जाता है कि वे रूपवादी कवि हैं. लेकिन नवल जी ने यह संकेत किया है कि वे प्रगतिशील कवि हैं. उनकी प्रगतिशीलता का ढाँचा केदार, नागार्जुन और त्रिलोचन वाला नहीं है. वे शमशेर और मुक्तिबोध की तरह जटिल वितान वाले कवि हैं. नामवर सिंह का एक कथन है- ‘यथार्थवाद कोई शैली नहीं, बल्कि जीवन-दृष्टि है’. नवल जी कहते हैं कि इसको ध्यान में रखते हुए विचार करें तो हम पाएँगे कि विनोद कुमार शुक्ल पारिभाषिक रूप से भले ही प्रगतिशील या जनवादी कवि न हों, लेकिन वे सामाजिकता के व्यापक दायरे के करीब है. नवल जी ने लिखा है: “सामाजिकता या सामाजिक चेतना कोई संकीर्ण वस्तु नहीं है. वह मुट्ठी बाँधकर और गला फाड़कर क्रांतिकारी नारा लगाने में भी नहीं हैं. वह अत्यंत व्यापक है, आकाश की तरह, जो हमारे भीतर भी है और बाहर भी है. वस्तुतः समाज से बाहर कुछ भी नहीं है.” इस तरह व्यापक अर्थों में विनोद कुमार शुक्ल को प्रगतिशील कवि मानते हुए नवल जी का कहना है कि उनकी प्रगतिशीलता किसी साँचे में ढली हुई नहीं है.
विष्णु खरे को नवल जी ने ‘हिंदी की प्रचलित काव्य-भाषा के फॉर्म को तोड़ने वाला कवि’ कहा है. नवल जी के अनुसार भाषा के फॉर्म को तोड़ने का मतलब उसकी व्याकरणिक व्यवस्था को तहस-नहस करना नहीं है, बल्कि भाषा का नया इस्तेमाल करते हुए इस तरह कविता लिखना है, जिस तरह अब तक नहीं लिखी गई थी. इसी के साथ नवल जी का यह भी मानना है कि खरे की कविता में यथार्थ चित्रण इतना गहरा होता है कि उन्हें फैंटेसी लिखने की ज़रूरत नहीं होती. राजेश जोशी पर लिखते हुए नवल जी ने कहा है कि धूमिल के बाद की कविता को नया अर्थ देने वाले कवियों में राजेश जोशी प्रमुख हैं. धूमिल में ‘आत्मीयता का अभाव’ था. राजेश की पीढ़ी ‘आत्मीयता और सहजता’ लेकर आई. राजेश की कविता में एक ऐसा जादू है जिसके सौंदर्य का विश्लेषण आलोचक के लिए चुनौती है. इसी के साथ नवल जी ने राजेश की कविता में रुमानीपन को रेखांकित किया है और कहा है- ‘रुमानीपन राजेश की कविता की बहुत बड़ी ताकत है. वह उनकी दृष्टि को धुंधलाता नहीं, बल्कि उसी के कारण उनके यथार्थ के बिम्बों में एक ताजगी और अनुभूति में एक नवीनता संभव हुई है’.
मंगलेश डबराल की कविता पर विचार करते हुए नवल जी का कहना है कि ‘उनमें राजेश जोशी वाली आत्मीयता और सहज सम्प्रेषणीयता नहीं है’. इसी के साथ नवल जी यह भी कहते हैं कि ‘मंगलेश में चीख और रुदन जिस मात्रा में हैं, उस मात्रा में भूख और दुःख नहीं हैं’. मंगलेश की कविताओं में ‘रक्तक्रांति’ के दर्शन करनेवाले नवल जी तीन कारणों से मंगलेश को महत्त्वपूर्ण कवि मानते हैं- ‘एक कारण तो यह कि उन्होंने बड़ी सावधानी से अपनी कविताओं को विचारधारा के आरोपण से बचाया है; दूसरा कारण यह कि उन्होंने अनेक बार संकेतों से भी काम लिया है और तीसरा कारण यह कि उन्होंने कभी-कभी सबसे मुक्त होकर जीवन की कविता लिखी है, जो अपने-आप में बेजोड़ है’. आलोक धन्वा को नवल जी ‘गतिशील काव्य संवेदना का कवि’ मानते हैं. ‘संप्रेषणीयता’ नवल जी की नजर में आलोक का सबसे बड़ा गुण है. पहले नवल जी मानते थे कि आलोक धन्वा की कविता में रेटॉरिक का गुण है. बाद के वर्षों में नवल जी को आलोक में रेटॉरिक की जगह संप्रेषणीयता का गुण दिखने लगा.
ज्ञानेंद्रपति की कविता में ‘एक ताजगी’ दिखाई देती है. इसी के साथ ‘नई भाषा, नए बिम्ब और नई कल्पना-शक्ति के भी दर्शन होते हैं.’ नवल जी के अनुसार ज्ञानेंद्रपति की काव्य- भाषा मूलतः बिम्बात्मक है. अरुण कमल की कविता के बारे में नवल जी का कहना है: ‘सर्जनात्मक कल्पना के योग से उन्होंने जो बिम्ब बनाए हैं, वे मोहक तो है ही, इस बात का भी प्रमाण देते हैं कि उनका इन्द्रीयबोध आज के कवियों में सर्वाधिक तीक्ष्ण है.’ अरुण कमल को नवल जी ‘स्वतंत्र स्फुट कविताओं का कवि’ कहते हैं. नवल जी यह भी कहते हैं कि ‘अरुण जी बिम्ब-कुशल ही नहीं, शब्द-कुशल भी हैं’. अरुण कमल की कविता में नवल जी ‘आत्मपरकता’ का गुण पाते हैं. लेकिन यह आत्मपरकता ‘आत्मग्रस्तता’ नहीं है, जिसके कारण अरुण कमल की कविता नया प्रभाव पैदा करती है.
यूँ तो हिंदी ‘कविता: अभी, बिलकुल अभी’ में श्याम कश्यप और उदय प्रकाश पर भी लेख हैं. लेकिन आज हिंदी कविता जिस मुकाम पर है वहाँ से देखने पर पता चलता है कि यह आलोचक की निजी पसंद है जो आलोचक की आत्मग्रस्तता की देन है. एक समय में उदय प्रकाश की कविताओं की चर्चा थी. लेकिन बाद में कहानी उनकी मुख्य विधा हो गई. कई अन्य कवियों की अनदेखी करके नवल जी ने श्याम कश्यप को रखा है. इसका कारण किसी की भी समझ में शायद ही आए! नवल जी ने राजेश जोशी, उदय प्रकाश और अरुण कमल की ‘कवि- त्रयी’ भी बनाई है, जिससे आज शायद ही कोई सहमत हो. समकालीन कविता के आलोचक के रूप में यह उनकी परख की सीमा है.
नवल जी अपनी स्थापनाओं के जरिए हिंदी कविता का नैरेटिव बदलने की जगह उसके पाठ के परिप्रेक्ष्य को सही करनेवाले आलोचक हैं. उनकी आलोचना पढ़ी तो खूब गई, लेकिन हिंदी कविता के प्रति पूर्व की धारणा को बदलने में कितनी सहायक हुई, यह कहना अभी मुश्किल है. उन्होंने हिंदी की महत्त्वपूर्ण लम्बी कविताओं की जो त्रयी बनाई वह हमारा ध्यान खींचती है. उस त्रयी में ‘राम की शक्तिपूजा’, ‘अँधेरे में’ और ‘मुक्ति प्रसंग’ (राजकमल चौधरी) की इतनी गहन और आत्मीय व्याख्या नवल जी ने की है जिसे पढ़कर हिंदी कविता के विकास का एक नया रूप पाठक के सामने उपस्थित होने लगता है.
‘हिंदी कविता: अभी, बिलकुल अभी’ के प्रारंभ में अपने प्रिय कवि मुक्तिबोध की कुछ काव्य- पंक्तियाँ नंदकिशोर नवल ने उद्धृत की है-
राहगीर को जैसे राहगीर मिल जाए,
बंजारे को गाहक,
पंडित को लघुसिद्धांतकौमुदी
वैसे ही तुम मिले मुझे यह काफी;
भूल-चूक की माफ़ी!
क्या यह एक आलोचक की पसंद की घोषणा है? अपनी पसंद को लेकर क्या उसके भीतर संशय है? अपनी आलोचना पर की गई क्या यह उनकी अपनी ही टिप्पणी है? अपनी पसंद की आत्मपरकता का भान क्या आलोचक को खुद है? ऐसी आत्मपरकता क्या वस्तुपरक आलोचना के मार्ग में बाधक नहीं है? नंदकिशोर नवल की आधुनिक कविता पर किए गए लेखन के संदर्भ में ये प्रश्न उठेंगे.
गोपेश्वर सिंह
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साभार गोपेश्वर सिंह फेसबुक आईडी