Saturday 20 January 2018

अनिल सूर्यधर की कविता : रेत शक़्ल-दर-शक़्ल

रेत शक़्ल-दर-शक़्ल (कविता)
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19 जनवरी 2018 की एक भींगी सी दोपहर थी
मगहर की बलुई जमीन पर कुछ लोग
रेत की शक्लें तैयार कर रहे थे
तरबूज के बेलों सी जिन्दगी के फ़लसफ़े दूर तक फैले हुए थे
हाथों में औजार लिए  कुछ कलाकार
सपनो की खेती कर रहे थे
सपने
जो कुछ टूट गए थे
उधड़ गए थे
कुछ जिन्हें सिल सिल कर दुबारा इस लायक बनाया गया कि
कोई नाउम्मीदी की सर्द हवा कहीं से घुस न जाये
बूढ़ा समय  गंगा में अपनी शक्ल निहार रहा था
गंगा के गंदले पानी मे
एक बूढी झुर्रीदार
कटी फटी सी शक्ल
जिस पर न जाने
कितने युद्ध
नरसंहारों
और विश्वासघातों के चिन्ह थे
गंगा
का बहुत पानी
बह चुका था
बहुत सारे खून के दाग धोये जा चुके थे
अधेड़ सभ्यता थी
जो अब भी हमारा साथ नहीं छोड़ रही थी
कुछ परम्पराएं थी जिसे काठ मार गया था
संस्कृति
वेश्या सी टांगें पसारे
चौखट पर
बैठी थी
बाज़ार
गुलकंद चबाए
और चमेली के फूल लिए
अपनी जेबें टटोलता चला आ रहा था
मेरे भीतर और भी बहुत कुछ था
जो घट रहा था
आज v2 मॉल के sell की आखिरी तारीख थी
उसकी 50 प्रतिशत की छूट पर जान अटकी हुई थी
लंका के गेट पर
कुछ दोस्त होठों में सिगरेट दबाये मेरा इंतज़ार कर रहे थे
एक पत्नी थी
जिसे प्रेमिका होना था
एक प्रेमिका थी
जो अब कहीं नहीं थी
एक प्रेम था
जो कभी था ही नहीं
सब कुछ मेरे ही समय मे घट रहा था
जहां मैं था
और जहाँ मैं नहीं था
लेकिन इन सबके बीच
मेरी आँखें रेत की शक्लों पर अटकी हुई थीं
वे मुझे निगलना चाहते थे
मैं रेत सा
अब भरभराया
कि तब भरभराया
रेत एक सच की तरह उभर रहा था
उन चेहरों की अपनी भाषा थी
उनका अपना साहित्य था
एक मनुष्यता थी
जो बार बार एजेंडे की तरह सामने आ खड़ी हो रही थी
मेरी आँख से टपका एक आंसू
रेत निगल चुका था
आंसू अब रेत की शक्ल में उभरता है
गंगा अब भी बहती चली जाती है
हमारी सभ्यताओं के किताब में न जाने कितने शक्लें हैं
स्याही की गिरफ्त में शक्लें
खूबसूरत और वाहियात शक्लें
खून और आंसू में उतराती हुई शक्लें
थूकों से नहाई हुई शक्लें
शक्लों की भीड़
और भीड़ की शक्लें
शक्लें मेरी हमशक्ल हैं
शक्लें जो मौका देख कर उभरती
और उछाली जाती हैं
रेत पर शक्लें
शक्लों की निशान हैं
गंगा गुजरेगी
तो सब बराबर कर देगी
   "अनिल सूर्यधर"

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