एक चाकू की मौत ।
रामपुरिया कहते हीं जेहन में चाकू उभरता है । पता नहीं कैसे ताऊ ने रामपुरिया अपना तखल्लुस रखा है ? गुण्डे बादमाश अक्सर कहते हुए सुने जाते थे - रामपुरिया घुसेड़ दूंगा । 60-80 के दशक में फिल्मी दुनियां में रामपुरिया छायी रही थी । राजकुमार का एक प्रसिद्ध डाॅयलाॅग उन्हीं दिनों काफी लोक प्रिय हुआ था । राजकुमार अपने हाथ में रामपुरिया चाकू लेकर कहते हैं- "यह बच्चों के खेलने की चीज नहीं है । हाथ कट जाए तो खून निकल आता है ।" अमिताभ बच्चन ने भी बहुत रामपुरिया हवा में लहराए हैं । जया भादुड़ी ने भी "चक्कू छूरिया तेज करा लो " गाते हुए रामपुरिया को मशीन पर तेज किया है । आज के डाॅन दाऊद भी अपनी प्रेमिका की सगाई हो जाने पर रामपुरिया लेकर उसके घर पहुंच गये थे ।
हमारे दौर के बिगड़ैल छात्र रामपुरिया की मदद से नकल करते थे । नकल की सामग्री खुले आम मेज पर रखी होती थी । रामपुरिया बगल में रुमाल से ढकी पड़ी होती थी । जितना बड़ा चाकू , उतना बड़ा रुमाल । रुमाल का आकार चाकू के आकार के समानुपाती होता था । यदि कक्ष निरीक्षक सख्त जान हुए तो उन्हें रुमाल हटाकर रामपुरिया का दर्शन करा दिया जाता था । उसके बाद कक्ष निरीक्षक महोदय धृतराष्ट्र हो जाते थे । वे अंधे हीं नहीं गूंगे बहरे भी हो जाते थे । छात्र रामपुरिया के बल पर अपनी धाक जमा लेते थे । वे खुलकर नकल करते थे । कहते हैं कि नकल करने के लिए भी अकल की जरुरत होती है । वह अकल उनके पास नहीं थी । इसलिए वे लिख आते थे - जैसा का पृष्ठ संख्या 57 के चित्र में दर्शाया गया है या जैसा कि आप पिछले अध्याय में पढ़ चुके हैं ।
अठारहवीं सदी तक पूरे भारत में आग उगलने हथियार रायफल , मशीन गन और बंदूकों का आविष्कार हो गया था , लेकिन ये हथियार क्लोज बैटल ( नजदीकी लड़ाई ) में कामयाब नहीं थे । इसलिए रामपुर के नवाब ने चाकू को नजदीकी लड़ाई में शामिल करने की सोची । कारीगरों ने मोर्चा सम्भाल लिया । रामपुर शहर में चाकूओं की धड़ाधड़ दुकानें खुल गईं । इन दूकानों से रामपुर शहर में एक बाजार हीं बन गया , जिसे चाकू बाजार कहा जाने लगा । रामपुरिया चाकू को नवाबी सेना में शामिल कर लिया गया । देश आजाद होने पर भी ये चाकू बनते रहे । इनकी मांग कलकत्ता, मुम्बई, पटना , नैनीताल और शिमला तक होती थी ।
1990 के बाद से सरकार ने 4" से ज्यादा बड़े चाकुओं पर बैन लगा दिया था । इसलिए रामपुरिया चाकू बहुत कम बनने लगे । इस चाकू को वही बना सकता था , जिसके पास लाइसेंस हो । वही खरीद भी सकता था , जिसके पास लाइसेंस हो । ऐसा बढ़ते अपराधों पर रोक लगाने के नियत से किया गया था । रामपुरिया का कारोबार चौपट हो गया । चाकू बाजार बंद हो गया । चाकू बाजार का नाम अब टीपु सुल्तान बाजार रख दिया गया । जब चाकू हीं नहीं बनते तो चाकू बाजार का औचित्य हीं क्या रह जाता है ? आए दिन हुई पुलिस की छापेमारी ने भी कारीगरों को चाकू उद्योग से विमुख कर दिया । अब कारीगरों ने रिक्शा चलाना या मजदूरी करना शुरु कर दिया है ।
यामीन अंसारी एक अकेले कारीगर रह गये हैं, जिनके पास रामपुरिया चाकू बनाने का लाइसेंस है । यामीन अंसारी के पास जब कोई लाइसेंस धारक आता है तो वे रामपुरिया बना देते हैं, अन्यथा सब्जी काटने वाला चाकू बनाकर अपनी जीविका चलाते हैं । वैसे छुपे तौर पर यह उद्योग अब भी फल फूल रहा है । अभी फरवरी 2018 में जी आर पी ने 750 अवैध रामपुरिया अमृतसर में पकड़ा था । लगता है कि अलीगढ़ के ताले , मुरादाबाद के पीतल , फिरोजाबाद की चूड़ियां और मेरठ की कैंची की तर्ज पर रामपुर भी रामपुरिया चाकुओं के लिए हमेशा हमेशा के लिए प्रसिद्ध रहेगा ।
No comments:
Post a Comment