Monday, 16 July 2018

चन्द्रकला त्रिपाठी की कविता

चिड़िया
शाख पर उतरती है नृत्य में घूमती हुई सी
समेटती पंख
और उड़ान
उड़ती है मगर चलना भी नहीं भूलती
मुडेर पर
जमीन पर कोना कोना थहाती परखती चंचल
सामने खुला अजगर का विकराल जबड़ा हो तो भी
वह जिंदा रहने को किसी पैतरे में नहीं आजमाती

उड़ती है पंख सलामत रहने तक
थिरकती है
और ज्यादा कोमल हो जाते हैं पेड़
और ज्यादा मधुर हो जाती हैं ध्वनियां
तब और जब
चहक कर लहरा उठती है किसी अंत में डूबते समय को न जानती हुई वह
एक नहीं अनेक होकर जीने के रंग में प्रेम भी
कलह भी
छेड़ भी
छीन झपट भी

ढेर सारी हैं ऐसी अमर नश्वरताएं
एक चिड़िया और अनेक चिड़िया की
मौत
कब की हार चुकी ऐसे
भरपूर जीने से

चंद्रकला त्रिपाठी

No comments:

Post a Comment

Featured post

व्याकरण कविता अरमान आंनद

व्याकरण भाषा का हो या समाज का  व्याकरण सिर्फ हिंसा सिखाता है व्याकरण पर चलने वाले लोग सैनिक का दिमाग रखते हैं प्रश्न करना  जिनके अधिकार क्षे...