Wednesday, 24 April 2019

दिनकर की कविताएं भारतीयता से राष्ट्रीयता तक ले जाती हैं...

इक्कीसवीं सदी का दूसरा दसक राष्ट्रवादी बहसों का रहा है और यह देश इसकी प्रयोगशाला। राष्ट्रीयता के बौद्धिक मूल्यांकन भी हुए और राजनीतिक अभ्यास भी। आखिर राष्ट्रीयता के मानक क्या हैं, यह बहुत गंभीर विषय है। समान्यतः राष्ट्रीयता किसी देश की पहचान होती है। यह पहचान बहुत स्वाभाविक और निरंतरता की विराटता या वैभव के रूप में अपनी स्थापना करती है।
स्थापित पहचान और स्थापना के मूल्यों में एक खाई बनने का खतरा इसका सबसे खतरनाक पहलू रहा है। स्थापित पहचान बनाने में स्थापना के मूल्यों का ही योग होता है। लेकिन दिक्कत तब होती है जब स्थापित पहचान को एक विशेष वर्ग हथिया लेता है और दूसरा वर्ग जो स्थापना के मूल्यों को लेकर जीता-मरता है, ठगा रह जाता है। इसे शास्त्र और लोक के द्वंद्व में भी देखा जा सकता है।
 हिंदी कविता में राष्ट्रीयता की प्रवृत्ति का एक लंबा इतिहास है। इस प्रवृत्ति के प्रतिनिधि के तौर पर हम रामधारी सिंह ‘दिनकर’ को देखते हैं। दिनकर राष्ट्रीयता की स्थापित पहचान और स्थापना के मूल्यों के दोआब हैं। सच में यहीं से कोई कवि या चिंतक राष्ट्रीय भारतीयता को प्रस्तुत कर सकता है। इस अर्थ में दिनकर भारतीय राष्ट्रीयता से बढ़ कर राष्ट्रीय भारतीयता के कवि है।
दिनकर की कविताओं में राष्ट्रीय चेतना समग्रता में दिखाई देती है। क्योंकि वह पहले भारतीयता के कवि हैं जो बाद में राष्ट्रीयता के रूप में पहचान बन कर प्रवृत्ति के रूप में उभरती है। वह राष्ट्रीयता की आड़ में भारतीय नहीं, उनकी भारतीयता राष्ट्रीयता के रूप में अपनी पहचान बनाती है। इसलिए उन्होंने उन सत्ताधीशों के खिलाफ बेबाक होकर लिखा लिखा है, जो राष्ट्रीयता के रंगे चोले में अभारतीयता को ढके रहते हैं। 
जो जनता के जीवन से खिलवाड़ करते है, जिनके लिए लोकतन्त्र सिर्फ नाटकीयता की वस्तु भर है, जो गरीबों का स्वाभिमान अपने सुख के लिए बेच देते हैं, जो देश की लौकिकता को दरकिनार कर सत्ता के लिए किसी भी हद तक गिर सकते हैं, जिन्होंने अपने लोलुप झूठ के लिए देश को कत्लगाह बना दिया, जो सरकार बचाने के लिए किसानों और मजदूरों के जवान बेटों को युद्धों में झोंक दिया हो- ऐसे राष्ट्रीयता के सौदागरों के लिए दिनकर की कविताएं आज भी झन्नाटेदार सांस्कृतिक तमाचा हैं। बनावटी राष्ट्रवाद पर दिनकर की ये पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं-
"वह कौन रोता है वहां
इतिहास के अध्याय पर
जिसमें लिखा है नौजवानों के लहू का मोल है
प्रत्यय किसी बूढ़े कुटिल नीतिज्ञ के व्यवहार का
जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है
जो आप तो लड़ता नहीं
कटवा किशोरों को मगर
आश्वस्त होकर सोचता
शोणित बहा, लेकिन गई बच लाज सारे देश की "
इन पंक्तियों में दिनकर ने युद्ध की राजनीति को भारतीयता की नजर से देखा है। वे राष्ट्रीयता को भारत की सांस्कृतिक परंपरा की विराट चेतना में निरखते हैं। वे अपने समय के मूल्यांकन के लिए सांस्कृतिक मानस में पैठ कर सवाल करते हैं और विश्वयुद्धों की विभीषिका को भारतीयता की मिथिकीय चेतना से जोड़ते हैं। भारतीय मिथकीयता की सांस्कृतिक ताकत को समझने के लिए दिनकर बेहतरीन कवि हैं। कुरुक्षेत्र और उर्वशी जैसे काव्य-ग्रंथ उनकी चेतना की कसौटी हैं। 
दिनकर ने अपने समय की राजनीति को जनता और सत्ता के बीच खड़े होकर देखा है। उनकी जनतान्त्रिक पक्षधरता सत्ता के अपराध यदि बेबाकी से बेनकाब करती है, तो सही अर्थों में यह राष्ट्रीय चेतना का सबसे जरूरी पहलू है। अपने देश से लगाव और प्रेम की यह संघर्षशील वास्तविकता है।
 भारतीयता और राष्ट्रीयता जिन तत्त्वों से निर्मित होती है, उस तात्त्विकता से सराबोर रहने वाला व्यक्ति ही इनका अधिकारी हो सकता है। प्रेम और लगाव कोई थोपी हुई नैतिकता से नहीं पहचाना जाता, उसके लिए सहजता, स्वाभाविकता, संवेदनशीलता की हार्दिक पात्रता जरूरी है। स्वतन्त्रता आंदोलन में गांधी की भूमिका क्यों आज सबसे बड़ी दिखाई देती है, उनकी भारतीय पैठ सिर्फ भारतीय जनता तक नहीं उससे बाहर भी है।
यह गांधी के जीवन मूल्य ही हैं जो उन्हें भारतीय राष्ट्रीयता से जोड़ते हैं। क्यों गांधी की लोकप्रियता के स्तर को कोई दूसरा नेता नहीं छू पाया, इसके पीछे भी वही कारण थे कि गांधी भारतीय मानस के मूल्यों को सहजता, स्वाभाविकता और संवेदनशीलता से जीने वाले प्रतिनिधि थे। भारतीय राजनीति के फलक पर एक बहुत भयावह दुर्गघटना गांधी की हत्या थी।
जिसने गांधी की हत्या की वह हत्यारा भी भारतीय राष्ट्रीयता को लेकर विकल दिखाई देता है। गांधी और उनके हत्यारे की राष्ट्रीयता के बीच का फर्क देखना जरूरी है। उस हत्यारे की राष्ट्रीयता भारतीयता से अपरिचित राष्ट्रीयता थी। उसमें सहजता, स्वाभाविकता और संवेदनशीलता की जगह संकीर्णता, कट्टरता और कुटिलता थी। यह राष्ट्रीयता की खाल में अभारतीयता का उन्माद भर था।
आज दिनकर की कविताएं पढ़ कर राष्ट्रीयता को भारतीयता के जामे में लाने की जरूरत है। उनकी कविताएं बताती हैं कि भारतीयता कैसे राष्ट्रीय को सकती है। आज भारतीय होने से पहले जो राष्ट्रीय होने का दंभ इस देश में भर रहे हैं, वह हमारे सांस्कृतिक इतिहास को कलंकित ही करेंगे। अपने लोक और देश से विमुख व्यक्ति भारतीय नहीं हो सकता और भारतीयता से अपरिचित राष्ट्रीय कैसे ? 
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के एक निबंध में यह बात बहुत सलीके से समझाई गई है- “यदि किसी को अपने देश से प्रेम है तो उसे अपने देश के मनुष्य, पशु, पक्षी, लता, गुल्म, पेड़, पत्तों, वन, पर्वत, नदी, निर्झर सबसे प्रेम होगा, सबको वह चाहभरी दृष्टि से देखेगा, सबकी सुध करके वह विदेश में आँसू बहाएगा। जो यह भी नहीं जानते कि कोयल किस चिड़िया का नाम है, जो यह भी नहीं सुनते कि चातक कहाँ चिल्लाता है, जो ऑंख भर यह भी नहीं देखते कि आम प्रणय सौरभपूर्ण मंजरियों से कैसे लदे हुए हैं, जो यह भी नहीं झाँकते कि किसानों के झोंपड़ों के भीतर क्या हो रहा है, वे यदि दस बने ठने मित्रों के बीच प्रत्येक भारतवासी की औसत आमदनी का परता बताकर देशप्रेम का दावा करें तो उनसे पूछना चाहिए कि, 'भाइयों ! बिना परिचय का यह प्रेम कैसा? जिनके सुख दु:ख के तुम कभी साथी न हुए उन्हें तुम सुखी देखना चाहते हो, यह समझते नहीं बनता। उनसे कोसों दूर बैठे बैठे, पड़े पड़े या खड़े खड़े, तुम विलायती बोली में अर्थशास्त्र की दुहाई दिया करो, पर प्रेम का नाम उसके साथ न घसीटो। प्रेम हिसाब किताब की बात नहीं है। हिसाब किताब करनेवाले भाड़े पर भी मिल सकते हैं पर प्रेम करनेवाले नहीं। हिसाब किताब से देश की दशा का ज्ञान मात्र हो सकता है। हित चिंतन और हित साधन की प्रवृत्ति इस ज्ञान से भिन्न है।”  
दिनकर को जिस नजरिए से देख कर मास्टर साहब राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाया करते हैं, दरअसल वही उनकी राष्ट्रीयता नहीं, बहुत सतही सुविधानुसार परिभाषा है। यह देखना बहुत जरूरी है कि राष्ट्रीयता आई कहाँ से है, उसका विस्तार कितना है। दिनकर की राष्ट्रीयता कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, परशुराम की प्रतीक्षा में एका-एक नहीं प्रकट हुई है, उसके पीछे और आगे भी भारतीयता और मनुष्यता के विराट स्वप्न निहित हैं। 
आज हिंदी के कवि सम्मेलनों में ओज और पौरुष से चर्राए तमाम नर-पुंगव आप को गली-गली मिल जाएंगे, उनमें भारतीयता का लोप जितना अधिक होगा, उतना ही अधिक राष्ट्रीयता का कट्टर अभिमान। यह क्षुद्रताएँ समय की सतहों में कभी अपने निशान नहीं छोड़ पातीं, हाँ उनकी कलंकित दुर्घटना पीढ़ियों को भ्रष्ट कर जाती हैं। 
आज देश को दिनकर की राष्ट्रीयता को समझने की बहुत जरूरत है। उनकी राष्ट्रीयता की जमीन वह तमाम कविताएं हैं जो बालक-वृद्ध, नर-नारी सबके लिए सहज अनुभूति से मनुष्यता के और निकट पहुंचती हैं, वह उन्हें स्मरण करते हैं।
दिनकर की कविताओं में- चाँद का कुर्ता, नमन करूँ मैं, सूरज का ब्याह, चूहे की दिल्ली यात्रा, कलम आज उनकी जय बोल, बालिका से बधू इत्यादि सैकड़ों ऐसी कविताएं हैं जो दिनकर की भारतीयता को राष्ट्रीयता तक लाती हैं। ‘चाँद का कुर्ता’ दिनकर की अत्यंत लोकप्रिय बाल कविता को देखिए, भारतीय बाल मन का कितना सहज और उदात्त चित्र है। दिनकर की भारतीयता यहाँ के जन-जीवन और प्रकृति में प्रेम और लगाव की है, इसी से हमारे सांस्कृतिक मूल्य बने  हैं। दिनकर इन्हीं अर्थों में राष्ट्रीय है क्योंकि वह इससे पहले भारतीय हैं, भारतीय लोक के हैं, भारतीय जन के हैं।

Sunday, 14 April 2019

बेगुसराय को जानिये - संजीव कुमार

बेगुसराय_को_जानिये 1
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मैं बेगूसराय से हूँ. बचपन से लेकर जवान होने तक पटना में रहा, पर अपना पुश्तैनी इलाक़ा होने के कारण बेगूसराय मेरे अन्दर है. यह इलाक़ा अपनी लंठई के लिए इतना कुख्यात है कि वहाँ का होने के नाम पर पटना में किराए का मकान मिलना मुश्किल होता था. लेकिन मेरे पिता बेगूसराय की लंठई का जो चरित्र-चित्रण करते हैं, वह दिलचस्प है.

बेगूसराय की लंठई का चरित्र यह है कि अगर आप किसी बेगुसरैया के साथ तेवर दिखाएंगे तो वह आपसे दुगुना तेवर दिखाएगा और अगर आप सज्जनता से पेश आयेंगे तो वह सज्जनता की इन्तेहाँ कर देगा. मान लीजिये किसी सड़क के किनारे एक पान दूकान पर कोई पान लगवा रहा है और उसकी सायकिल आधी सड़क को छेंक कर खड़ी है. एक कार वाला उधर से गुज़रते हुए अटक जाता है और चिल्ला कर कहता है, ‘अरे, किसका सायकिल है, हटाओ बीच सड़क से!’ तो सौ फ़ीसद तय है कि सायकिल नहीं हटेगी. पान दूकान पर खड़ा युवक कहेगा, ‘सड़क तुम्हरे बाप है? दिखता नय है, पान खा रहे हैं?’ इसके बाद कार वाले को जो उखाड़ना हो, उखाड़ ले!

लेकिन अगर कार वाले ने कहा, ‘हो भाय जी, सायकिल तनी सरका लेते त गाड़ी निकल जाता,’ तो समझिये, काम फ़ौरन से पेशतर होगा. अगर सायकिल वाला पसीना पोंछ रहा है, तो तुरंत गमछी फेंककर आयेगा सायकिल हटाने और साथ में दो मीठे बोल भी बोलेगा, ‘एह:! लै न एक मिनट में (अरे,अरे, लीजिये न एक मिनट में हटा जाता है).’ दूसरों को भी झिड़केगा, ‘रे धीचोदा, बेंच सोझ कर न रे, गाड़ी केना निकलतय? (एक भारी गाली के साथ ‘बेंच सीधा करो ना, गाड़ी कैसे निकलेगी?)’

इसीलिये अभी पूरा बेगूसराय कन्हैया के लिए एकजुट है. वे भी जो मोदी के प्रेमी रहे है. उन्हें उन संघी वकीलों को मज़ा चखाना है जिन्होंने कोर्ट परिसर के भीतर पुलिस संरक्षण में जाते कन्हैया पर हमला किया. उन्हें उस दिल्ली पुलिस को मज़ा चखाना है जिसने झूठे मामले बनाकर उनके यहाँ से पढ़ने के लिए गए दिल्ली गए एक युवक को फँसाया.

सज्जनता से कहते कि लड़का देशद्रोही हो गया तो मान लेते, साथ में भारत माता की जय भी बोलते, पर लंठई करके कहोगे तो कौन बेगुसरैया बर्दाश्त करेगा?

गिरिराज सिंह इस बात को समझता है. इसीलिए, सुना है, हर जगह रो-गाकर वोट मांग रहा है. उसकी जो लंठई टीवी चैनलों पर दिखती रही है, उसका लेश भी उसके कैंपेन में नहीं है.

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(मुझे कन्हैया का प्रचारक बनने का कोई शौक नहीं, पर जो बात है सो तो हइए है!)

बेगूसराय को एक समय बिहार का मास्को कहा जाता था| कोई पूछे कि आज क्या हाल हैं, तो मेरा उत्तर होता है, ‘तब का बगूसराय तब का मास्को था, आज का बेगूसराय आज का मास्को है|’

सुनकर कभी कोई नहीं हंसा| पता नहीं, आपको हंसी आयी या नहीं!

बिहार के पहले मुख्यमंत्री बाबू श्रीकृष्ण सिंह बेगूसराय के जी डी कॉलेज को कम्युनिस्ट बनाने का कारख़ाना कहते थे और उस कॉलेज से उनकी नाराज़गी वैसी ही थी जैसी आज आरएसएस वालों की जनेवि से है| दिलचस्प है कि श्रीकृष्ण सिंह जाति से भूमिहार थे और बेगूसराय के कम्युनिस्ट आन्दोलन के नेतृत्व का बहुलांश भी इसी जाति में जन्मे नेताओं के हाथ में था| यह दिलचस्प इसलिए है कि जब लोग जाति के आधार पर वहाँ के कम्युनिस्ट आन्दोलन का विश्लेषण करते हैं, तब यह बात भूल जाते हैं कि उस आन्दोलन की लड़ाई जिन भूस्वामियों से थी, वे भी बड़ी संख्या में भूमिहार ही थे| बिना वर्गीय कोण के, सिर्फ जातिगत आंकड़ेबाज़ी के आधार पर आप उसे नहीं समझ सकते| विडंबना है कि हम लोग वर्ग और जाति की कोटियों का इस्तेमाल अक्सर आड़ के रूप में करते हैं; वर्गीय कोण को छुपाने के लिए जाति की आड़ और जातिगत कोण को छुपाने के लिए वर्ग की आड़| गांजा तस्कर कामदेव सिंह भी भूमिहार था और बेगूसराय में हर राजनीतिक दल ने कम्युनिस्टों को शिकस्त देने के लिए कामदेव सिंह का इस्तेमाल किया, कांग्रेसियों ने भी और सोशलिस्टों ने भी| जनसंघ तो वहाँ था ही नहीं| कामदेव सिंह बूथ लूटने से लेकर थोक कम्युनिस्ट वोटरों यानी शूद्रातिशूद्रों का बूथ पर न पहुंचना सुनिश्चित करने तक, हर तरह से इन राजनीतिक आकाओं की मदद करता था और बदले में ये लोग उसे कानून से सुरक्षा प्रदान करते थे| उसे ऐसी सुरक्षा प्रदान करने में जिस-जिस तरह की हस्तियाँ शामिल रही हैं, उनके नाम न ही लिए जाएँ तो बेहतर| उसे अपने ठिकाने पर पड़ने वाली हर दबिश की ख़बर पहले से होती थी| अगर कम्युनिस्ट सांसद सूर्यनारायण सिंह उसकी गिरफ्तारी की मांग को लेकर आमरण अनशन पर न बैठते और केन्द्रीय बल स्थानीय पुलिस को बिना पूर्व-सूचना दिए दबिश न करती तो कामदेव सिंह अपनी उम्र पूरी करके ही मरता| वह भी एक ही दयनीय आदमी था| गंगा के रास्ते कलकत्ता से आनेवाला माल गंगा घाट से अपनी पीठ पर ढोकर अपनी बैलगाड़ी पर लादना और उसे बाज़ार में गद्दियों पर पहुंचाना उसका काम था| यही करते-करते वह तस्करी के धंधे में लग गया| पहले नेपाल से गांजा और फिर हर तरह का सामान| अब ग़ैर-क़ानूनी धंधा करना है तो चुंगी-नाकों पर हर तरह के उपाय भी आज़माने होंगे| इस चक्कर में मर्डर भी करने पड़े| नेपाल से तस्करी का माल लाने के साथ-साथ परिष्कृत हथियार भी वह लाने लगा| इसने उसे हर मुकाबले में आगे रहने की काबिलियत दी, जैसे घोड़ों ने आर्यों को दी थी, और उसके इन गुणों ने कम्युनिस्ट विरोधियों को पर्याप्त आकर्षित किया| अनपढ़ आदमी था| हर नेता उसके पास पहुँच कर समझा देता कि जीतकर आते ही तुम्हारे ऊपर लगे सारे केस वापस करवा देंगे, मेरी मदद करो| बस, कामदेव सिंह मदद में जुट जाता| उसे पता नहीं था कि केस, और वो भी मर्डर केस, वापस करवाना आकाश कुसुम लाने जैसा है| नेता बेवकूफ बनाते रहे, वह बनता रहा| एक टिपिकल लुम्पेन सर्वहारा| अलबत्ता, जब वह नेताओं के काम आ रहा था, उस समय वह कहीं से सर्वहारा नहीं था| उसके कई पेट्रोल पम्प थे और काली कमाई से इकट्ठा की हुई अकूत दौलत थी, जिसे भोगने की निश्चिंतता उसकी ज़िंदगी में बिलकुल नहीं थी और जिसे उसकी मृत्यु के बाद भोगने वाला कोई वारिस नहीं था, क्योंकि उसके बेटे ने इस संपत्ति को हाथ लगाने से भी इनकार कर दिया| कहते हैं, कामदेव सिंह के बेटे के रूप में परिचय दिया जाना उसे सख्त नापसंद था/है| उसने बाप से जुड़े अपने पूरे अतीत को लात मार दी और एक साधारण, गुमनाम, मध्यवर्गीय जीवन का वरण किया|

जो राजनेता कम्युनिस्टों के ख़िलाफ़ कामदेव सिंह का इस्तेमाल करते थे, वे भी बड़ी संख्या में भूमिहार थे| उन्होंने ही उभरते हुए कम्युनिस्ट युवकों की हत्या की सुपारी देनी शुरू की| कम्युनिस्ट भी जवाबी खूनी संघर्ष में उतरे| यह 70 और 80 के दशक का क़िस्सा है| कम्युनिस्टों ने गलती यह कर दी कि मार्क्सवाद में दीक्षित अपने काडर को हथियारबंद करने के बजाये अक्सर गुंडों को काडर बनाने का काम किया| शासक वर्ग दुर्निवार रूप से तुम्हें हिंसा में खींच लेगा, इस बात को सिद्धांत रूप में दुहराने वाले कम्युनिस्टों के पास उस शासक वर्गीय हिंसा से निपटने की तैयारी न थी| नतीजा? रेडीमेड उपाय| जो पहले से हथियारबंद है, उसे अपने झंडे के नीचे ले आओ| जिन गुंडों को दूसरे दलों का वरदहस्त मिला हुआ था, उनके विरोधी गुंडों को कम्युनिस्टों ने अपने साथ ले लिया और हिंसा-प्रतिहिंसा का सिलसिला चल पड़ा जिसमें कम्युनिस्टों की ओर से भी ऐसी वारदातें हुईं जिनका कोई औचित्य बताने की स्थिति में वे नहीं थे| मारने गए एक हत्यारे और अपने राजनीतिक दुश्मन को, नहीं मिला तो मार आये उसके निरीह हरिकीर्तनिया पिता को—ऐसी घटनाएं सामने आने लगीं| इस तरह शासक वर्गीय चाल कामयाब हुई| वे चाहते थे कि कम्युनिस्ट अपने मुद्दों से हटकर जान लेने और जान बचाने की व्यस्तताओं में गर्क़ हो जाएँ| वही हुआ और आधार कमज़ोर पड़ता गया| पुराने प्रतिबद्ध कार्यकर्ता निष्क्रिय होते गए| डॉ. पी. गुप्ता जैसी बेमिसाल शख्सियत को बेगूसराय छोड़कर पटना स्थानांतरित होना पड़ा| डॉ. गुप्ता सीपीआई के ज़बरदस्त कार्यकर्ता और बड़े ही लोकप्रिय डॉक्टर थे| दो रुपये फीस लेते थे और जिस समय बड़े डॉक्टर लोग 100-150 लेने लगे थे, उस समय भी उनकी फीस दो रुपये ही थी (पटना आने के बाद वे दस रुपये लेने लगे)| गरीब लोग उन्हें मसीहा मानते थे| ऐसे आदमी को जान के डर से बेगूसराय छोड़ना पड़ा, इसी से समझा जा सकता है कि हालत कैसे हो गए थे| ठीक-ठीक कौन-सा समय था जब वे पटना शिफ्ट हो गए, यह मेरी जानकारी में नहीं है, पर शायद वह लेट 80s या शरुआती 90s की बात है|

संसदीय राजनीति में कम्युनिस्ट को चित्त करने का नायाब उपाय है, उसे उसके मुद्दों पर फोकस न करने देना| वह मुद्दों पर ही अपना जनाधार निर्मित करता है, जाति और समुदाय के नाम पर नहीं करता| उसे उसके मुद्दों से खिसका कर किसी और झमेले में डाल दो और अपने पक्ष में लामबंदी के उन पारंपरिक आधारों का दोहन करो जिनका दोहन करने में कोई एड़ी-चोटी का जोर नहीं लगाना पड़ता; तुम किस जाति या समुदाय में पैदा हुए हो, यही काफ़ी होता है| बेगूसराय में इस उपाय ने अपना काम कर दिखाया|

पर आधार ख़त्म नहीं हुआ| यह सोचने की बात है कि जब उसी बेगूसराय में वोटरों के बीच तीखा ध्रुवीकरण हुआ, भूमिहार और अन्य सवर्ण बड़े पैमाने पर भाजपा के वोटर हो गए और पिछड़ा वर्ग तथा मुसलमान बड़े पैमाने पर राजद के वोटर हो गए, तो वे डेढ़ लाख लोग कौन थे जिन्होंने पिछले संसदीय चुनाव में तीसरे नंबर पर रहने वाले सीपीआई के उम्मीदवार को वोट दिया?  जाति-धर्म से परे लाल झंडे की ओर देखने वाला यह एक बड़ा तबका है जो सामान्यतः हताश रहा है|

कन्हैया की उम्मीदवारी ने इस बड़े वामी तबके में जान फूंक दी है| जनेवि प्रकरण के समय वह हिस्सा करवट लेकर उठ बैठा था| अब वह बाहर आकर ललकार रहा है| वह सिर्फ वोट देने के दिन निकलता तो कुल गिनती डेढ़ लाख पार न कर पाती| लेकिन पहले से उसके निकल पड़ने का मतलब है कि अब गिनती कोई भी हद पार कर सकती है|

तो इसी नाम पर आइसेन्स्टाइन के इन तीन शेरों से मिलिए| पहले वाले को  5 साल पहले का समझिये, दूसरे वाले को 2016 के घटनाक्रम के बाद का, और तीसरे को आज का|

#बेगूसराय_को_जानिये 3

पिता संस्मरणों की खान हैं| उनका पेन नेम ‘संस्मरण खान’ हो सकता है| उनसे बेगूसराय की कहानियां सुनते हुए उस शहर के गुज़रे दौर की तस्वीरें उधेड़ता बुनता रहता हूँ| डॉ. पी. गुप्ता के बारे में, जिनका ज़िक्र पिछली पोस्ट में था, मैंने उनसे ही सुना| उनके पटना आने का किस्सा उस पोस्ट में आधा-अधूरा था| अब पूरा किये देता हूँ|  

छोटे शहरों में सच्चे कम्युनिस्ट की यह पहचान होती थी कि आप उनका पता साथ में लिए बगैर उस शहर में पहुँच जाएँ, कोई-न-कोई कुली, मज़दूर, रिक्शेवाला आपको उनके घर पहुंचा देगा| बेगूसराय में डॉ. पी. गुप्ता ऐसी ही शख्सियत थे| बेगूसराय के ग़रीब-गुरबा उन्हीं से इलाज कराते थे| दो रुपये फीस थी जिसमें सालों-साल कोई बढ़त नहीं हुई| और यह फीस देना भी अनिवार्य नहीं था| जेब में फूटी कौड़ी न हो, तब भी डॉ. गुप्ता से आप इलाज करवा सकते थे| और इलाज अव्वल दर्जे का|

बेगूसराय में खून-ख़राबे की शुरुआत के बाद उनकी जान पर गंभीर ख़तरा बन आया| उनकी लोकप्रियता कम्युनिस्ट पार्टी के लिए जितनी फ़ायदेमंद थी, प्रतिद्वंद्वियों के लिए उतनी ही नुकसानदेह| अंततः उन्हें (संभवतः) अस्सी के दशक के आख़िर में पटना स्थानांतरित होना पड़ा| बेगूसराय में रहते तो किसी भी दिन मारे जा सकते थे|

वैसे पटना बेगूसराय से मात्र 120 किलोमीटर दूर है| मोटरसायकिल रिंगाते-हन्हनाते आप आराम से ढाई घंटे में पहुँच सकते हैं| कोई जान से मारना ही चाहे तो पटना तक पहुँचने में क्या लगता! उसी पटना में बेगूसराय के कॉमरेड जोगी को अजय भवन के बाहर चाय दुकान पर गोली मार दी गयी| बेगूसराय में विरोधी पार्टी के गुंडों से हथियारबंद मुकाबला करने की ज़िम्मेदारी कॉमरेड जोगी के हाथ में थी| जी डी कॉलेज से निकला एक प्रखर छात्र-नेता, जिसने बाकायदा मार्क्सवाद आदि का अध्ययन करने के बाद पार्टी की हिफ़ाज़त के लिए हथियार थामा था| हाँ, उसने जल्दी में ऐसे तमंचेबाजों से अपनी सेना बनाने की गलती ज़रूर की जिन्हें भाड़े के शूटर और एक कम्युनिस्ट लड़ाके का फ़र्क पता नहीं था, जो वर्ग-संघर्ष का ‘व’ भी नहीं जानते थे| जब कामरेड जोगी अपनी तैयारी के साथ पार्टी की हिफ़ाज़त के संग्राम में उतर पड़े, तब उन्हें शायद महसूस हुआ कि यह एक अंधी गली है| सुनते हैं, एक बार किसी ने कहा कि जोगी, बहुत हो गया, अब लौट आओ| जोगी बोले, इस लड़ाई से तो अब लाश ही निकलेगी| इसमें घुसने का रास्ता तो था, वापस आने का नहीं है| आख़िरकार, उनकी लाश ही निकली| पार्टी के राज्य मुख्यालय पटना गए हुए थे, अजय भवन के ठीक बाहर नुक्कड़ पर मार गिराए गए| 

तो फिर उसी पटना में डॉ. पी. गुप्ता को सुरक्षा का आश्वासन क्यों था?

असल में, डॉ. गुप्ता का मामला जोगी से अलग था| उनकी जान को ख़तरा किसी गैंगवारनुमा लड़ाई के कारण नहीं, अपनी लोकप्रियता के कारण था| बड़ी संख्या में मेहनतकश लोग उनके मरीज़ बनकर कम्युनिस्ट पार्टी के करीब आते थे| उन्हें रास्ते से हटाने की ज़रूरत इसलिए थी| ज़ाहिर है, उनका बेगूसराय से हट जाना ही प्रतिद्वंद्वियों के लिए काफ़ी था| उन्हें खा-म-खा मारकर क्या मिलता!  

खैर, जब उन्हें पटना आए कुछ समय गुज़र चुका था तब, जैसा कि एक सच्चे कम्युनिस्ट के साथ होना चाहिए, उनके पटना में होने की जानकारी मेरे पिता को हमारे घर में काम करनेवाली मोनी माई (यानी मोनी की माँ) से मिली| उन्होंने बताया कि बहुत बढ़िया डॉक्टर आये हैं, दस रुपया लेते हैं (तब पटना के अच्छे डॉक्टर्स 100-150 लेते थे), दवाई भी एकदम सस्ती लिखते हैं, और इलाज पक्का| पिता ने नाम पूछा, तो पता चला डॉ. पी. गुप्ता| उनके पुराने कामरेड| दोनों ने सालों कम्युनिस्ट पार्टी में साथ काम किया था| गहरी छनती थी| साथ-साथ एक स्कूल खोलने का प्रयोग भी कर चुके थे| उन दिनों उनके बीच एक निजी मुहावरा हुआ करता था, ‘ग्राउंडिल घींच (खींच) लेना’| कचहरी के चक्कर लगाने वाले एक साथी ने किसी वकील की बड़ाई करते हुए बहुत जादुई अंदाज़ में हाथ आगे निकाल कर पीछे खींचते हुए कहा था, ‘ऊ तो सीधा दूसरे वकील के बात में से ग्राउंडिल ही घींच लिया’| वहीं से यह मुहावरा पकड़ में आया था|

अब 20 साल से ऊपर हो चले थे मेरे पिता को पार्टी छोड़े| और बेगूसराय छोड़े तो और भी ज़्यादा| इस बीच डॉ. गुप्ता से मुलाक़ात नहीं हुई थी|

मिलने पहुंचे| कमरे में घुसे और डॉ. गुप्ता की परिचय-प्रदर्शन से रिक्त, स्थिर निगाह का सामना करते हुए पूछा, ‘डॉक्टर साहब, पहचाने?’

‘आइये, बैठिये| हम तो,’ डॉक्टर साहब ने हाथ आगे निकाला और एक बार गोल घुमाकर पीछे खींचते हुए कहा, ‘एक नज़र में सीधा ग्राउंडिल ही घींच लिए|’

दिल्ली में रहते हुए मैंने कई बार योजना बनाई कि पटना जाकर डॉ. पी. गुप्ता से मिलूँगा और बेगूसराय की कहानी सुनूँगा; शायद बेगूसराय के लाल दौर का ग्राउंडिल घींच पाऊँ| पटना से मेरे परिवार का डेरा-डंडा उठ चुका था और डॉ. गुप्ता का कोई संपर्क नंबर पास में न था, लेकिन यह पता था कि आद्री (एक शोध-संस्थान) के निदेशक शैवाल गुप्ता उनके बेटे हैं| सोचा था, शैवाल जी के माध्यम से मिलना हो ही जाएगा| लगभग डेढ़ साल पहले आद्री की ओर से एक सेमीनार में पेपर प्रेजेंट करने का न्योता भी मिला, पर विषय के मिज़ाज को देखते हुए मुझे लगा नहीं कि न्याय कर पाऊंगा, इसलिए अपनी स्वीकृति नहीं भेजी| तो मिलने का मामला टलता ही गया|

अब मैं नहीं जानता कि कितनी देर हो चुकी है| यह तो पता चला था कि वे पार्किन्संस के शिकार हो गए हैं| ईश्वर (?!) करे, बहुत ज़्यादा देर न हुई हो!

(संजीव कुमार देशबंधु कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)
फेसबुक से साभार

Wednesday, 10 April 2019

बिहार राजनीति और बाहुबल- प्रियदर्शन शर्मा

बिहार_राजनीति_और_बाहुबल -1
आजाद भारत में जब 1951-52 में पहली बार चुनाव हुए उसी समय से बिहार में वर्चस्व के बलबूते चुनाव जीतने का सिलसिला शुरू हुआ। हालांकि 1951-52 के चुनाव में ज्यादातर ऐसे लोग जीते जो स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय थे या जो जमींदार रहे या जमींदारों के खिलाफ आवाज उठाए। उस चुनाव में बाहुबल का सीधा प्रयोग हुआ हो इस पर स्पष्टता नहीं है।
आज के दौर में बिहार में अपराधियों का राजनीतिकरण अपने चरम पर पहुंच चुका है। आप किसी भी दल का नाम ले लें हर दल ने हर जाति के अपराधियों को अपनी जरुरत के

प्रियदर्शन शर्मा
हिसाब से खूब पालपोस कर रखा है। लेकिन, आपको पता है कि 1957 के लोकसभा चुनाव से ही बाहुबल के बलबूते बिहार में चुनाव जीतने की शुरूआत हुई थी।
इतिहास की कही सुनी बातों को अगर सच मान लें तो देश को बूथ लूटने का रास्ता भी बिहार ने दिखाया। आज की तारीख में जो बेगूसराय कन्हैया और गिरिराज के बीच चुनावी समर के कारण राष्ट्रीय सुर्खियां बना हुआ है, उसी बेगूसराय ने 1957 में देश में बूथ लूट की पहली घटना के कारण सुर्खियां बटोरी थी। हालांकि इतिहास यह भी कहता है कि उसी दौर में आंध्रप्रदेश के कुछ इलाकों में भी बूथ कब्जा करना की घटना हुई थी लेकिन बूथ लूट का पहला मामला बेगूसराय से ही जुड़ा रहा।
कहते हैं, बिहार में पहली बार बूथ लूटने की घटना पुराने मुंगेर और वर्तमान बेगूसराय के रामदीरी गाँव में हुई थी। वह भी साल 1957 में। तब रचियाही गांव के कछारी टोला में सरयुग प्रसाद सिंह के लिए बूथ कैप्चरिंग हुआ। वह देश के इतिहास में पहली घटना रही जब खुलेआम बूथ लूट ने राष्ट्रीय सुर्खियों में जगह बनाई। उस समय कम्युनिस्ट नेता चंद्रशेखर सिंह पुराने मुंगेर से निर्वाचित हुए थे।
बिहार की राजनीति में यह पहली घटना हुई जिसने चुनावी जीत के लिए बाहुबल का इस्तेमाल करना सिखाया। फिर तो जैसे बेगूसराय की क्रांतिकारी भूमि से निकला यह रोग पूरे बिहार को संक्रमण की चपेट में ले लिया। चुनाव दर चुनाव हर बार बूथ कब्जा और लूट की घटनाओं का आंकड़ा बढता ही गया। यह संक्रमण पूर्वांचल से लेकर पश्चिम बंगाल तक एक असाध्य रोग के रूप में फैला और करीब वर्ष 2000 के बाद तक यह सिलसिला अनवरत चलता रहा।
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राजनीति की पथरीली राह को सुगम बनाना हो तो उसमें छल और बल दोनों ही सबसे कारगर हथियार है। राजनीति धन के बलबूते नहीं की जाती उसके लिए तो छल और बल ही चाहिए। तो 1957 में जब बिहार में बूथ लूट की पहली घटना हुई उसने कई नेताओं को लठैत रखने के लिए प्रेरित किया। लठैत यानी जो गांव या समाज-क्षेत्र में सबसे उदंड हो।
कहते हैं कि राजनीति तभी हावी होती है जब नेतृतव कमजोर हो जाता है और श्रीबाबू के बिहार के मुख्यमंत्री पद से विदा होने के बाद कांग्रेस का नेतृत्व कमजोर होने लगा। इसी कमजोरी का फायदा उठाकर सरकार के समानांतर सरकार चलाने वाले कुछ बाहुबली 1960 के दशक में पांव पसारने लगे। राजनीति को बाहुबल का चस्का लग चुका था तो हर कोई अब अपने क्षेत्र में बाहुबली बनाने और पालने की जुगत में लग गया। यह महज संयोग था कि बाहुबली की पहली पौध का जन्म भी उसी जाति के अंदर हुआ जो जाति आज बाहुबली नेताओं की वजह से राजनीति के रसातल में पहुंच चुकी है।
हालांकि बाद के दौर में जिस क्षेत्र में जो जाति बहुसंख्यक या सामाजिक रूप से सशक्त रही उस क्षेत्र में उस जाति के बाहुबली की तूती बोली। कायदे से कहा यह जाना चाहिए कि आज भी हर क्षेत्र में जाति विशेष के बाहुबली विराजित हैं और वे अपने क्षेत्र में सरकार के सामानांतर सरकार चला ही रहे हैं। बाकायदा अच्छा-भला या बुरा कहरकर समाज भी उन्हें स्वीकारे हुए है। इसके कई सामाजिक कारण भी रहे।
बाहुबल का जो बीजारोपण 1960 के दशक में हुआ वह बाद के दशकों में हर जाति में फैला। फिर चाहे भूमिहार हो या यादव, ब्राह़्मण हो या राजपूत, मुसलमान से मुसहर तक में बाहुबली हुए। कोई बड़ा नाम वाला तो कोई अपने गांव समाज में भी तोप बना घूमता फिरा या फिर रहा है।
और इन सबसे जिसको सबसे बड़ा नुकसान हुआ वह बिहार की राजनीति को, बिहार के विकास को, बिहार की छवि को। आपके लिए जो बाहुबली आपके हीरो बने उन्हीं के कारण पूरे देश में बिहार की बदहाली बयां हुई।
खैर अगली कड़ी में होगी बात बिहार के उस बाहुबली की जिसका नाम ही उसके उसके ‘कामो’ की पहचान थी ...
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जिस बेगूसराय में 1957 में बूथ लूट की पहली घटना हुई उसी बेगूसराय में  हुए कामदेव सिंह। बिहार ने कई बाहुबली देखे, बिहार की राजनीति में कई बाहुबली हुए और हैं लेकिन बिहार में जो रुतबा कामदेव सिंह का रहा, वहां तक पहुंचना आज तक किसी तथाकथित बाहुबली के लिए संभव नहीं हुआ।
कामदेव सिंह को लेकर कई किस्से हैं कुछ मनगढं़त तो कुछ सच्ची। कहते हैं कि उस दौर में पुलिस महकमे में कामदेव सिंह की जलवा था। अगर नौबत आ जाए कि सरकार का कोई मंत्री और कामदेव सिंह दोनों किसी सरकारी दफ्तर में एक साथ प्रवेश करते तो अधिकारी पहले कामदेव सिंह को बैठने कहता। पता नहीं कितना सच है या झूठ लेकिन किस्से यूं ही नहीं निकलते। पहली तारीख को कामदेव सिंह का लिफाफा कई सर-सिपाही-मंत्री-संतरी तक पहुंच जाता वह भी उतना जितना उनका वेतन नहीं था। इसी कारण कामदेव सिंह के ट्रक नेपाल से चलकर कलकता तक बिना रोकटोक पहुंच जाते। दुनिया का हर प्रतिबंधित सामान उन ट्रकों में भरा रहता।
पटना से टाइम्स ऑफ इंडिया का संस्करण जब निकला तब पहली खबर ही कामदेव सिंह के इतिहास को खंगाल कर लिखी गई। कहते हैं ‘कामदेव सिंह’ के गोदाम के गेटकीपर के पास भी आज पटना में करोड़ों की धन संपदा है। वो खुद बेगूसराय के रोबिनहुड थे। हर साल अपने क्षेत्र में सैकड़ों गरीब बाप की बेटी की शादी का पूरा खर्च उठाते थे। क्या बेगूसराय, पटना  हो या नेपाल से कलकता और मुंबई हर जगह कामदेव सिंह की उस समय चर्चा थी। हो भी क्यों न क्योंकि लोग कहते हैं कि इंदिरा गांधी का आशीर्वाद मिला था कामदेव सिंह को। जब इंदिरा गांधी बिहार आयीं, तब उन्होंने एक नंबर से लेकर सौ तक, सभी सफेद एंबेसेडर से उनका स्वागत किया था। भला जिसकी ऐसे हैसियत हो उसे कौन छू लेगा।
तो इस कामदेव सिंह को लेकर यह भी कहा गया कि उस दौर में जिस नेता को लगता था कि वह चुनाव हार जाएगा वह कामदेव सिंह से संपर्क करता और कामदेव की ऐसी माया चलती कि उस प्रत्याशी की जीत तय हो जाती।
इंडिया टुडे ने अपने एक लेख में लिखा था,
The man is Kamdeo Singh, his activities are centered in the Begusarai district of Bihar, and his hobby is to fight communists and 'bless' politicians during elections. "Even a rat can win the elections and enter legislature with his blessings but if anybody dare challenge him, his days are numbered," say the people in Begusarai and police records confirm it.

लेकिन कहते हैं कि राजनीति किसी की सगी नहीं है। तो केंद्र में इंदिरा कमजोर हुई और राज्य में जगनाथ मिश्र अपना वर्चस्व स्थापित करने में लगे थे। इस दौरान केंद्रीय गृह मंत्री ज्ञानी जेल सिंह का पटना आना हुआ। मेरे एक मित्र ने लिखा था ज्ञानी जेल सिंह ने अपनी तिरछी भौं कामदेव सिंह की तरफ की और मुख्यमंत्री डॉ जगनाथ मिश्र से भेंट के रूप में - कामदेव सिंह का मृत शरीर माँगा। डॉ जगनाथ मिश्र ने नजरें झुका अपनी हामी भरी... कल तक डॉ जगनाथ मिश्र का दाहिना हाथ अब राजनीति को भेंट चढने वाला था।
गोवा मूल के मेरे फोटोग्राफर मित्र एंडी उस दौर में कामदेव सिंह पर स्टोरी करने बेगूसराय गए थे।  एंडी ने बड़ी मुश्किल से कामदेव सिंह से मुलाकात की। पिछले महीने ही उन्होंने मुझे बताया था कामदेव सिंह को शौक था कि एक बार मुंबई में उन्हें कुछ फिल्मी सितारों से मिला दूं। (आदमी के क्या क्या शौक नहीं होते हैं) इसी शर्त पर एंडी से कामदेव मिले थे। एंडी ने कहा कि मुलाकात के दूसरे दिन उनकी बरौनी से दिल्ली के लिए ट्रेन थी लेकिन कामदेव सिंह तो एंडी से मुंबई की रंगीन गलियों की खबर पूछते रहे। एंडी ने जब बताया कि मेरी ट्रेन कुछ समय बाद बरौनी से छूटने वाली है तब कामदेव सिंह ने उस ट्रेन को दो घंटे तक स्टेशन पर रुकवा दिया कि जब तक एंडी नहीं पहुंचेंगे तब ट्रेन नहीं छूटेगी। ऐसी हनक वाला बाहुबली आज के दौर में शायद ही कोई हो।
राजनीति की नजरें इनायत नहीं रह गई थी कामदेव सिंह पर। बाहुबल का जो वर्चस्व कामदेव सिंह ने कायम किया था वह किला अब भरभराने वाला था। लेकिन कामदेव सिंह को मारना भी इतना आसान नहीं था। जाति चरम पर थी और कामदेव को निपटाने के लिए उसकी जाति पर भरोसा करना सरकार चाह नहीं रही थी। अंत में डॉ जगनाथ मिश्र ने अपने ‘स्वजातीय’ राम चन्द्र खां को बेगूसराय भेजा और दो साल की घेराबंदी के बाद तीन तरफ से घिर चुके कामदेव सिंह जब गंगा में छलांग लगाने वाले थे तब उनकी पीठ में गोली मार दी गई। हाालांकि लहूलुहान कामदेव सिंह को पुलिस पकड़ नहीं पाई और वे गंगा में ही डूब गए।
उस दिन कामदेव सिंह की मौत के बाद सत्ता के गलियारों में बैठे लोगों ने सिर्फ कामदेव सिंह को गाली नहीं दी बल्कि कामदेव की पूरी जाति को गरियाया  गया था। उसकी पूरी जाति को गाली देकर कामदेव सिंह की मौत का जश्न मनाया जा रहा था। सत्ताधारियों ने वहीं से एक जाति को निशाना बनाकर अपनी राजनीति चमकानी शुरू की। लोग भले कहते हैं कि लालू ने जातिवादी राजनीति की शुरूआत की जबकि जाति की राजनीति के असली सूत्रधार तो जगनाथ मिश्र ही रहे।
कामदेव सिंह वह बाहुबली रहे जिसे मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक ने पाला भी और मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं हैं कि तर्ज पर कामदेव के बहाने उसकी पूरी जाति से बदला भी लिया।
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कामदेव सिंह की मौत ने बिहार की राजनीति को हिला कर रख दिया। दरअसल कामदेव सिंह से कांग्रेस की दूरी बनाने की एक बड़ी वजह रही कामदेव का जनता पार्टी के नेताओं के संपर्क में आना। अब भला एक म्यान में दो तलवार कैसे संभव था तो राजनीति ने कामदेव की बलि ले ली।
दरअसल देखा जाए तो बिहार में बाहुबल को राजनीति में प्रशय देने का काम भी कांग्रेस के कारण ही हुआ। कहा जाता है कि 1975 में आपतकाल लगने और 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद बिहार में कांग्रेस पूरी तरह से कमजोर हो चुकी है। ऐसे में पार्टी को मजबूत करने के लिए कुछ ऐसे चेहरों की जरुरत थी जिनसे मतदाता डरे भी और वे वोटबैंक भी मजबूत करें।
मेरे एक साथी ने एक बार कहा था कि तब धीरेंद्र ब्रह्मचारी पर संजय गांधी को सबसे ज्यादा भरोसा था। धीरेंद्र ब्रह्मचारी की इंदिरा गांधी के यहां क्या हैसियत थी इसे लेकर कई किस्से हैं। योग गुरु से लेकर आम्र्स डीलर के रूप में जाने जाने वाले धीरेंद्र ब्रह्मचारी के दरबार में शायद ही कोई बिहार का बाहुबली हो जो सिर नहीं झुकाता था। कहते हैं यहीं से बिहार में बाहुबल को राजनीति में लाने का काम शुरू हुआ। संजय गांधी जानते थे कि बिहार और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस जब तक कमजोर रहेगी तब तक केंद्र की सत्ता उसके लिए आसान नहीं है। तो बिहार में अपनी उखड़ चुकी जड़ों को जमाने के लिए अब कांग्रेस ने दूसरा रास्ता अपनाया। पार्टी ने कई ऐसे बाहुबलियों को पैदा करने का काम किया जो या तो कांग्रेस के उम्मीदवारों को जिताने का काम करते या फिर कुछ को सीधे टिकट देकर चुनाव में उतार दिया गया।
आपातकाल के बाद जब जगनाथ मिश्र बिहार के मुख्यमंत्री बने तब इस बाहुबल को और ज्यादा मजबूती मिल गई। जगन्नाथ को लेकर कई किस्से हैं। चाहे बिना नकदी से झोला भरे दातून नहीं करने का हो या खुद को राजा समझने की भूल का। ऐसे में जगन्नाथ अपने सपनों को पूरा करने के लिए अब बाहुबल से खुलकर गलबहियां कर चुके थे।
बाहुबल का लोकतंत्र में प्रवेश हुआ तो इसकी चमक दमक सबको आकर्षित कर रही थी। हर जाति को अब इसका चस्का लग चुका था। एक प्रकार से बिहार में यह हीरोइज्म की भांति हो गया। 980 से 1990 के बीच हर जिले में कोई न कोई बाहुबली विधायक बना। सिर पर राजनेताओं का हाथ और ठेकेदारी अब उनको ही मिलने लगी।  सरकार के खजाने की लूट में नेता , अफसर के साथ साथ बाहुबली का भी हिस्सा निकलने लगा। 
वीर मोहबिया 'क्राम क्राम' जो पागल हाथी के शौकीन होते थे।  रोहतास के वीरेन्द्र सिंह, गोपालगंज के काली पाण्डेय और न जाने कितने - विधानसभा को सुशोभित करने लगे।
बड़े नेताओं के स्वागत में रायफलों की फौज आने लगी। और बिहार की मिट्टी की तासीर तो है ही ऐसी कि बंदूक से उसे खूब मोहब्बत है। तो ऐसे बाहुबली नेताओं को देखने भीड़ बढने लगी।  सरकार के अफसर कहीं किसी कोने में दुबकने लगे  और यहां तक बाहुबली के पसंद के अफसर तैनात होने लगे। इन सबके बाद भी  अभी तक राजनीति ही इनपर हावी रहती थी। यानी बाहुबली जितना उछल लें लेकिन राजनेताओं की पांव की जूती बराबर ही उनकी औकात थी।
एक इंटरव्यू में जगन्नाथ मिश्र ने माना था कि बाहुबलियों को राजनीति में लाकर कांग्रेस ने गलती की।
Mishra, who was chief minister thrice - twice in the 1980s - called himself "guilty".
"I concede that I had to tolerate two to three criminal-turned-MLAs such as Bir Bahadur Singh of Hajipur because the Congress gave them tickets. But it was during my time that the Criminal Control Act and provisions to extern a criminal from the district or state was made.  
खैर मिश्रा के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद बिहार की फिजां बदल चुकी थी अब बिहार में बाहुबली ही सरकार बनाने और बिगाडऩे का खेल कर रहे थे। इस दौर में एक ऐसा मुख्यमंत्री बिहार की गद्दी पर बैठा जिसने राजनीति का ही अपराधीकरण कर दिया। बिहार में अब एके-47 और एके-56 जैसे हथियार आ गए।
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मंडल-कमंडल की आग झुलसने के बाद 1990 में बिहार में मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठे लालू यादव के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी अपना आधार मजबूत करने की। लालू ने इसके लिए अपने पूर्ववर्ती के पदचिन्हों पर ही चले। जातिवाद चरम पर था तो लालू ने यादव और मुसलमान का समीकरण बनाया यानी एमवाई समीकरण और वोटरों को हांकने के लिए बाहुबलियों की कतार खड़ी कर दी।
नब्बे के उस दौर में बिहार ने पहली बार देखा कि कैसे जीप और एंबेसडर में बैठे लोग बंदूक लहराते हुए पटना पहुंचते और एक अणे मार्ग पहुंचकर दरबारी बन जाते। जिसने भी उस दौर में एक अणे मार्ग जाकर लालू के सामने समर्पण किया वही उस दौर का सबसे बड़ा बाहुबली बना। लालू राज में चाहे बिहार का सीवान हो या सीमांचल, मगध के इलाके हों या मिथिला, शाहाबाद के जिलों से लेकर साहेबगंज तक हर जगह लालू ने अपने लिए कई ऐसे बाहुबली तैयार कर दिए जिनके आतंक का असर समाज पर दिखता।
लालू के बाहुबलियों में हर जाति के लोग रहे। फिर चाहे वह मुसलमान शहाबुद्दीन हो या भूमिहार अनंत सिंह। राजपूत आनंद मोहन हो या यादव पप्पू यादव। ऐसे दर्जनों नाम लालू राज में ही उभरे जो बाद के वर्षों में विधायक से लेकर सांसद तक बने। बिहार के लिए 1990 से 2005 का वह दौर बदनुमा इतिहास बन गया। एके 56 जैसे हथियार बिहार के दर्जनों बाहुबलियों के पास पहुंच चुका था।
जगन्नाथ मिश्रा के राज में बाहुबली हुए लेकिन सत्ता की जूती के नीचे दबे रहे लेकिन लालू राज में यह बदल गया। लालूराज में जिस बाहुबली ने सबसे ज्यादा खौभ कायम किया उनमें सब से पहला नाम आता है बिहार के बाहुबली राजद के सांसद शहाबुद्दीन का, जिसका पार्टी में एक अपना अलग रसूख था। शहाबुद्दीन का आतंक पूरे बिहार में फैला हुआ था लोग उनके नाम सुनते हैं दहशत में आ जाते हैं। आम लोगों की तो छोडिए पुलिस वाले भी इसके नाम से डरते रहते थे। यू कहें कि राबड़ी देवी जब बिहार के मुख्यमंत्री थीं तो शहाबुद्दीन बिहार के सुपर अपराधी सीएम हुआ करते थे। पुलिस अधिकारियों को थप्पड़ मारने से चर्चित हुए शहाबुद्दीन के खिलाफ दर्जनों हत्या, अपहरण, रंगदारी और लूट के मामले दर्ज हैं। सबूत होने के बाद भी पुलिस गिरफ्तार करने के लिए हिम्मत नहीं जुटा पाती थी। जैसे ही लालू शासन का अंत हुआ शहाबुद्दीन के आतंकी सामराज की उल्टी गिनती शुरू होने लगी और कुछ ही दिनों में लालू के खास कहे जाने वाले शहाबुद्दीन पुलिस के शिकंजे में कैद हो गया।
उसके खिलाफ जमीन विवाद को लेकर तीन भाइयों की तेजाब से नहलाकर हत्या का आरोप था। चंदा बाबु के बेटों को तेजाब से नहलाकर मारने के आरोप में हाईकोर्ट ने उसकी उम्र कैद की सजा बरकरार रखी है। फिलहाल वह सीवान से निकलकर दिल्ली के तिहाड़ जेल में कैद है और अपने गुनाहों की सजा काट रहा है।
लालू बिहार के लिए गाली बन चुके थे। पलायन अपने चरम पर पहुंच चुका था। चुनावों में हत्याएं ऐसे होती कि मानों प्रशासन नाम की कोई चीज नहीं रह गई। 1957 में बेगूसराय से जो बूथ लूट की घटना शुरू हुई थी वह लालूराज में चरम सीमा पर पहुंची। बड़े से बड़ा आइएएस और आइपीएस अधिकारी लालू दरबार में सिर झुकाकर खड़ा रहता। अधिकारियों के अपमानित होने के कई किस्से उस दौर में आए। हत्या और बलात्कार भी लालू के लिए चौंकाने वाली खबर नहीं बनती। बनती भी क्यों , आखिर यह सब किया भी तो सत्ता के इशारे पर ही जा रहा था।
बिहार को जाति के खांचों में बांटकर उसका लाभ लालू ले रहे थे। गली मोहल्ले में पनपते हर एक गुंडा तत्व का संरक्षक अंतत: लालू ही रहे। मेरे एक मित्र ने एक बार कहा था कि लालू इस बात को समझ चुके थे जिसके पास आर्थिक तंत्र पर कब्जा है वही राज करेगा। लालू ने इसलिए सबसे पहले बाहुबलियों के लिए एक ऐसा अर्थतंत्र तैयार किया जिसमें भय भी था। कहते हैं लक्ष्मी के दरवाजे पर सबका सर झुकता है। पुरुषो की दो सबसे बड़ी कमजोरी - सेक्स और पैसा ... और इसमें कोई जाति नजर नहीं आती  । लालू ने बाहुबलियों की फसल उगाते हुए इसका खूब ध्यान रखा।
तो लालू के दौर में ही बिहार में एके-47 से हत्याएं होनी शुरू हुई और लालू के दौर में ही चुनाव आयोग भी सख्त हुआ। बड़ी दिलचस्प कहानी थी वह भी।
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सन् 1990 का दशक बिहार में निरंकुश, जातिवादी और दिशाहीन सत्ता तथा एके-47 की गर्जना के लिए जाना गया।
दरबारी सुने हैं न। यानी जो सत्तासीन का वफादार बनने का स्वांग रचाता हो। तो 1980-90 में बाहुबलियों की जो फसल बिहार में उगी थी उसने अब सत्ताधारियों से ही सत्ता में हिस्सेदारी मांगनी शुरू कर दी। कहा जाता है कि बिहार में पहली बार अशोक सम्राट ने एके-47 से हत्या की।
बिहार बदल चुका था। अब अपराधियों का रुतबा उनके पास कितने  एके-47 हैं उससे होने लगी थी और इसका फायदा भी राजनेता ही उठा रहे थे। बिहार के अपराध जगत में 1990 के आसपास पहली बार अत्याधुनिक एके 47 की इंट्री हुई थी।
कहते हैं बिहार में एके 47 से पहली हत्या धनबाद में हुई और उसके ठीक बाद बेगूसराय में। धनबाद में कोयला माफिया के बीच वर्चस्व की अदावत में एके 47 तरतरा रहे थे तो बेगूसराय में बाहुबल की दुनिया में उभरा नया नाम अशोक सम्राट एके 47 लेकर आया।
सबसे पहले उत्तर बिहार के डॉन अशोक सम्राट (बेगूसराय) के पास एके 47 की खेप पहुंची थी। बरौनी जीरोमाइल के पास एक ठेकेदार की हत्या में सम्राट की एके-47 को लहराया गया था। इसके बाद हाजीपुर में अनिल शर्मा गिरोह ने विरोधियों को निशाना बनाया था। कहते हैं अशोक सम्राट तक एके-47 बेगूसराय के रामदीरी के मुन्ना सिंह के माध्यम से पहुंचा। पता नहीं कितना सच झूठ है लेकिन कुछ वर्ष पूर्व जब मुन्ना सिंह की हत्या हुई तब यह बात फिर से ताजा हो गई।
खैर, अशोक सम्राट अब बेगूसराय से निकलकर मुजफ्फरपुर, मोकामा, पटना तक पांव पसार चुका था। कोयला और रेलवे के टेंडर में वह लगातार अपनी पहुंच बढ़ा था। निःसंदेह इन सबके पीछे राजनीतिक समर्थन भी था। फिर मुजफ्फपुर विश्वविद्यालय परिसर के पीजी-3 पर कब्जा जमा कर अपना गैंग चलानेवाले मिनी नरेश की हत्या सरस्वती पूजा के समय 10 फरवरी 1989 को कर दी गयी. पीजी-5 में सरस्वती पूजा का संचालन कर रहें मिनी नरेश पर अपराधियों ने बम से हमला कर उसकी इहलीला समाप्त कर दी थी।
  मिनी नरेश की हत्या के बाद यहां  वर्चस्व की लड़ाई में पहली बार एके-47 का इस्तेमाल हुआ था बेगूसराय में। तब अशोक सम्राट ने छाता चौक के ठेकेदार चंदेश्वर सिंह को सरस्वती पूजा के दिन ही एके-47 से भून दिया था। काजीमुहम्मपुर थाना के ठीक सामने चंदेश्वर सिंह का आवास था। बताया जाता है कि हत्याकांड के दौरान चली  एके-47 के ब्लास्ट की आवाज सुनते ही पुलिसकर्मी थाने के अंदर घुस गये थे। इसके बाद यहां अशोक सम्राट का वर्चस्व स्थापित हुआ।
उधर मुजफ्फरपुर में गीता सिंह, मिनी नरेश, चंद्रेश्वर सिंह, छोटन शुक्ला, भूटकन शुक्ला जैसे कई नाम हुए। यह 1980-90 का ही दौर था। और कहा जाता है इन सबके रिंग मास्टर हुए रघुनाथ पांडेय। बाद में मुन्ना शुक्ला विधायक बने।
इधर अशोक सम्राट की बढ़ती हनक अब राजनेताओं से लेकर पुलिस महकमे तक के लिए परेशानी का सबब बन गया था। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि लालू की मर्जी के बगैर कोई ऐसा बाहुबली बिहार में सिर उठा रहा था जो अब लालू को राजनीति में प्रवेश कर चुनौती देने की तैयारी में था। अब भला लालू जैसे 'बाहुबली' को यह कैसे गंवारा रहता।
सन 2000 के विधानसभा चुनाव में लालू के विरोध में कई बाहुबली विधायक बने लेकिन कायदे से इसका सूत्रपात अशोक सम्राट ने ही किया था।
टेलीग्राफ ने अपनी एक खबर में लिखा था ... 
The alleged gangster Ashok Samrat, who contested elections in north Bihar, summed it up best: “Politicians make use of us for capturing the polling booths and for bullying the weaker sections. But after the elections they earn the social status and power and we are treated as criminals. Why should we help them when we ourselves can contest the elections, capture the booths and become MLAs and enjoy social status, prestige and power? So I stopped helping the politicians and decided to contest the elections.”

और राजनेता यह नहीं चाहते कि उनका दरबारी उनके सामने सिर उठाये । फिर अशोक सम्राट को सत्ता कैसे बर्दाश्त करती। बिहार में अशोक सम्राट का इनकाउंटर एक इतिहास बन गया।
बिहार पुलिस के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट रिटायर्ड डीएसपी शशिभूषण शर्मा ने एक बार कहा था बिहार में पहली बार 1994 में एके 47 की बरामदगी हुई थी। तब हाजीपुर में इंडस्ट्रियल एरिया से लेकर छितरौरा गांव तक साढ़े चार घंटे तक अशोक सम्राट गैंग व पुलिस के बीच हुई मुठभेड़ में अशोक सम्राट व चार अन्य अपराधी मारे गए थे।
लेकिन अशोक सम्राट ने बिहार को जो एके 47 की आदत लगाई वह आगे चलकर बिहार के हर कोने में पहुंच गया। साथ ही जिस राजनीति में अशोक सम्राट खुली भागीदारी चाहते थे बाद के वर्षों में वह भी सच साबित हुआ।
खैर लालू गाथा बड़ी उलझी चीज है....
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बिहार की राजनीती में बाहुबलियों के प्रवेश पर लिखी जा रही श्रृंखला में किसी ने यह भेजा है।  पढ़ा जाये कि कैसे ज्ञान भूमि मुजफ्फरपुर बिहार में अंडर  वर्ल्ड का केंद्र बन गया और इसका बड़ा कारण रहे। ..उस समय के  बिहार के चर्चित नेता हेमंत शाही और  उत्तर बिहार के सबसे दबंग नेता रघुनाथ पांडे का।
बिहार में अंडरवर्ल्ड के इतिहास में मुजफ्फरपुर का अलग स्थान रहा है। इस धरती पर जहां कई क्रांतिकारियों ने जन्म लिया, वहीं अंडरवर्ल्ड के कई बड़े डॉन ने मुजफ्फरपुर को अपना ठिकाना बनाया। जिस दौर में भारत के बड़े माफियाओं के पास भी एके-47 जैसे अत्याधुनिक हथियार नहीं थे, उस दौर में मुजफ्फरपुर में इसकी गर्जना सुनी जाने लगी थी। एके 47 से बिहार में संभवत: पहली हत्या 1990 में हुई थी। अंडरवर्ल्ड डॉन अशोक सम्राट ने अपने प्रिय रहे मिनी नरेश की हत्या का बदला लेने के लिए छाता चौक पर एके 47 की हनक दिखाई थी। बिहार में पहली बार एके 47 से हत्या हुई थी। एके 47 की हनक का आलम यह था कि छाता चौक पर काजी मोहम्मदपुर थाने के ठीक सामने दिन दहाड़े मिनी नरेश की हत्या के मुख्य आरोपी डॉन चंद्रश्चर सिंह की हत्या की गई थी। इसके बाद न तो अशोक सम्राट ने पीछे मुड़कर देखा और न एके 47 की हनक ने। अंडरवर्ल्ड डॉन की लाश तो बिछती गई, लेकिन एके 47 की हनक आज तक कायम है।
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि मुजफ्फरपुर में माफिया, गुंडागर्दी, अंडरवर्ल्ड चाहे कोई और नाम दे दीजिए, इसकी कहानी बिहार के सबसे प्रतिष्ठित कॉलेज लंगट सिंह महाविद्यालय से शुरू होती है। इस कॉलेज कैंपस से शुरू हुई वर्चस्व की जंग में अब तक सैकड़ों लाश गिर चुकी है। इसी कैंपस से निकले कई छात्रों ने अंडरवर्ल्ड में दशकों तक राज किया है।
दरअसल उत्तर बिहार के सबसे बड़े शहर मुजफ्फरपुर को शैक्षणिक गढ़ भी माना जाता था। दो बड़े कॉलेज लंगट सिंह कॉलेज और रामदयालू कॉलेज के अलावा यहां बिहार यूनिवर्सिटी थी। जिसके कारण आसपास के सैकड़ों छात्र यहां शिक्षा ग्रहण करने आते थे। इन छात्रों में क्षेत्रवाद और जातिवाद बुरी तरह हावी था। इसके कारण यहां पढ़ने वाले छात्र कई गुटों में विभाजित रहे। हजारों एकड़ में फैले लंगट सिंह कॉलेज कैंपस में शुरुआती दौर में तीन हॉस्टल थे। जिसमें ड्यूक हॉस्टल का अपना वर्चस्व था। हॉस्टल में 60 के दशक से वर्चस्व की जंग शुरू हुई। जंग शुरू करने वालों में शामिल थे बेगूसराय और मुंगेर अंचल से आए छात्र। इनकी अदावत थी मुजफ्फरपुर जिले के स्थानीय युवाओं से। भुमिहार और राजपुतों के साथ शुरू हुई वर्चस्व की जंग में कैंपस में पहली लाश गिरी 1978 में। हालांकि इससे पहले साठ और सत्तर के दशक में भी कैंपस में मारपीट होती थी, पर किसी छात्र या दबंग की हत्या नहीं हुई थी। कॉलेज कैंपस में पहली बार बम और गोली भी चलाई थी बेगुसराय के छात्र ने ही। साल 1971-72 में बेगुसराय निवासी कम्युनिस्ट नेता सुखदेव सिंह के पुत्र वीरेंद्र सिंह ने अपनी दबंगई कायम करने के लिए पहली बार कैंपस में बम और गोली चलाई थी। ड्यूक हॉस्टल पर बम और गोलियों से हमला किया गया था। इस वारदात के बाद एलएस कॉलेज कैंपस में हर दूसरे महीने बम के धमाके सुने जाने लगे। धीरे-धीरे वर्चस्व की लड़ाई तेज होती गई। साल 1978 में कॉलेज कैंपस में पहली लाश गिरी मोछू नरेश के रूप में। यह वर्चस्व की जंग में पहली हत्या थी।
दबंग छात्र रहे मोछू नरेश की हत्या ने कॉलेज और यूनिवर्सिटी कैंपस को आतंक का गढ़ बना दिया। मोछू नरेश की हत्या में नाम आया बेगूसराय के कामरेड सुखदेव सिंह के पुत्र वीरेंद्र सिंह का। कैंपस में हत्याओं की नींव डाली बेगूसराय के छात्रों ने ही। पर सबसे बड़ा तथ्य यह है कि सबसे अधिक लाश भी गिरी बेगुसराय के छात्रों की ही। मोछू नरेश के बाद कैंपस में दबंगई कायम की मिनी नरेश ने। मोछू नरेश की गद्दी संभालते ही मिनी नरेश कैंपस में अपनी दहशत कायम की। उसे राजनीतिक और बाहरी संरक्षण भी मिला। जिसके कारण विरेंद्र सिंह को शांत होना पड़ा। पर अंदरूनी अदावत जारी रही। दोनों का ठिकाना कॉलेज और यूनिवर्सिटी हॉस्टल ही रहा।
मोछू नरेश की गद्दी संभाल रहे मिनी नरेश ने कॉलेज कैंपस से ही अपना वर्चस्व कायम किया। उसे अशोक सम्राट जैसे अंडरवर्ल्ड डॉन का समर्थन प्राप्त था। यह वह दौर था जब बिहार यूनिवर्सिटी का कई सौ एकड़ में अपना कैंपस बन रहा था। एलएस कॉलेज कैंपस से सटे इस नए साम्राज्य का विस्तार हो रहा था। इस साम्राज्य पर भी अपने अधिकार का जंग शुरू हो गया था। मिनी नरेश ने कई हॉस्टल और डिपार्टमेंट का ठेका भी लिया। इसमें मोटी कमाई हो रही थी। अशोक सम्राट का अपने ऊपर हाथ होने के कारण मिनी नरेश ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1983 में मिनी नरेश ने ठेकेदार रामानंद सिंह की हत्या कर दी। इसी दौर में मोतिहारी से मुजफ्फरपुर में आ बसे चंदेश्वर सिंह अपना वर्चस्व कायम कर रहा था। उसके रास्ते का सबसे बड़ा कांटा बना था वीरेंद्र सिंह। 1983 में चंदेश्वर सिंह ने छाता चौक पर वीरेंद्र सिंह की हत्या कर मुजफ्फरपुर के डॉन के रूप में अपनी दस्तक दी।
एलएस कॉलेज और बिहार यूनिवर्सिटी कैंपस से शुरू हुई अंडरवर्ल्ड की कहानी से इतर कैंपस से बाहर भी अंडरवर्ल्ड की दूसरी कहानी चल रही थी। इस कहानी के नायक थे बाहूबली अंडरवर्ल्ड डॉन अशोक सम्राट और एलएस कॉलेज कैंपस से ही निकले छोटन शुक्ला। वैशाली जिले के साधारण परिवार से आने वाले छोटन शुक्ला ने 12वीं की पढ़ाई के लिए एलएस कॉलेज में नामांकन करवाया। इसी वक्त उनके पिता की हत्या हो गई। कलम थामने के लिए उठे हाथ ने बंदूक थाम ली। छोटन शुक्ला ने काफी तेजी से अंडरवर्ल्ड की दुनिया में अपनी दबंगता कायम की। यह वह दौर था जब पूरे तिरहुत प्रमंडल में ठेकेदारी में वर्चस्व की जंग चल रही थी। अशोक सम्राट का यहां एकछत्र राज था। उन्हें राजनीति संरक्षण मिला था बिहार के चर्चित नेता हेमंत शाही का। उधर मोतिहारी से मुजफ्फरपुर आए चंदेश्वर सिंह ने भी शहर में अपनी दहशत कायम कर ली थी। चंदेश्वर सिंह के ऊपर हाथ था उत्तर बिहार के सबसे दबंग नेता रघुनाथ पांडे का। चंदेश्वर सिंह के नाम से पूरा शहर कांपने लगा था। ठेकेदारी में सबसे अधिक पैसा था। इसलिए हर कोई इसमें वर्चस्व चाहता था। वर्चस्व की जंग में लाशें गिरनी शुरू हो गई थी। एक दूसरे के कारिंदों पर गोलियां दागी जाने लगी थी। पर सबसे बड़ी लाश गिरी चंदेश्वर सिंह के बेटे के रूप में।
बिहार यूनिवर्सिटी कैंपस के पीजी ब्वॉयज हॉस्टल नंबर तीन से अपना गिरोह संचालित कर रहे मिनी नरेश ने कैंपस में एकाधिकार जमा लिया था। हाल यह था कि एलएस कॉलेज और यूनिवर्सिटी में मिनी नरेश का ही आदेश चलता था। एक दशक से अधिक समय तक मिनी नरेश ने कैंपस में राज किया। उस दौर में कैंपस में सरस्वती पूजा का जबर्दस्त क्रेज था। हजारों रुपए का चंदा जमा होता था। सबसे बड़ी और भव्य पूजा पीजी हॉस्टल नंबर पांच में होती थी। यह पूजा पूरी तरह मिनी नरेश के संरक्षण में होती थी। दस फरवरी 1989 को ठीक सरस्वती पूजा के दिन ही पीजी हॉस्टल नंबर पांच बम और गोलियों के धमाके से गूंज उठा। हर तरफ से बमों के धमाकों की आवाज आ रही थी। चंदेश्वर सिंह और उसके गुर्गों ने मिनी नरेश को संभलने का मौका तक नहीं दिया। सरस्वती पूजा के दिन कैंपस में मिनी नरेश की हत्या कर दी गई। बेगूसराय के राहतपुर निवासी मिनी नरेश की हत्या के बाद कई दिनों तक कैंपस खाली रहा। हॉस्टल विरान हो गए। किसी बड़ी अनहोनी की आशंका में क्लास तक नहीं चले। चंदेश्वर सिंह के अलावा इस हत्याकांड में पहली बार नाम आया छोटन शुक्ला का।
जिस फिल्मी और बेखौफ अंदाज में मिनी नरेश की हत्या हुई थी उसने बिहार के अंडरवर्ल्ड को हिला कर रख दिया था। बताया जाता है कि उस वक्त हॉस्टल नंबर पांच में हर जगह बम के छर्रे के निशान थे। करीब दो सौ बम दागे गए थे। मिनी नरेश की हत्या के बाद चंदेश्वर सिंह अंडरग्राउंड हो गए थे। मिनी नरेश के आका रहे अशोक सम्राट ने बदला लेने का खुला ऐलान कर रखा था। यही वह दौर था जब बिहार के अंडरवर्ल्ड में एके 47 पहुंच चुका था, लेकिन अब तक उसका इस्तेमाल नहीं हुआ था। अशोक सम्राट ने ठीक एक साल बाद 1990 में उसी फिल्मी अंदाज में ठीक सरस्वती पूजा के दिन ही छाता चौक पर दिनदहाड़े चंदेश्वर सिंह की हत्या कर दी। छाता चौक पर ही काजी मोहम्मदपुर थाना है। पर एके 47 की गूंज ने पुलिसवालों को भी ठिठकने पर मजबूर कर दिया। बिहार के अपराध के इतिहास में पहली बार एके 47 का इस्तेमाल हुआ था। चंदेश्वर सिंह को करीब 40 गोलियां मारी गई थी। इस हत्या ने एक झटके में अशोक सम्राट को उत्तर बिहार का बेताज बादशाह बना दिया। यह एके 47 की धमक ही थी पूरे बिहार का अंडरवर्ल्ड अशोक सम्राट के नाम से कांपने लगा था। मिनी नरेश की हत्या का बदला ले लिया गया था। चंदेश्वर सिंह की हत्या ने छोटन शुक्ला को विचलित कर दिया था। इसके बाद दोनों तरफ लाशें गिरने लगी। अशोक सम्राट और छोटन शुक्ला की अदावत खुलकर सामने आ गई थी। ठेकेदारी के वर्चस्व से शुरू हुई लड़ाई अब अंडरवर्ल्ड में बादशाहत तक आ गई थी। एक दूसरे के करीबियों को चुन चुन कर मारा जाना लगा। अगली बड़ी लाश गिरी थी गब्बर सिंह की। लंगट सिंह कॉलेज कैंपस में ठीक महात्मा गांधी की मूर्ति के सामने। इस लाश का तात्लुक भी बेगुसराय से ही था।

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