इक्कीसवीं सदी का दूसरा दसक राष्ट्रवादी बहसों का रहा है और यह देश इसकी प्रयोगशाला। राष्ट्रीयता के बौद्धिक मूल्यांकन भी हुए और राजनीतिक अभ्यास भी। आखिर राष्ट्रीयता के मानक क्या हैं, यह बहुत गंभीर विषय है। समान्यतः राष्ट्रीयता किसी देश की पहचान होती है। यह पहचान बहुत स्वाभाविक और निरंतरता की विराटता या वैभव के रूप में अपनी स्थापना करती है।
स्थापित पहचान और स्थापना के मूल्यों में एक खाई बनने का खतरा इसका सबसे खतरनाक पहलू रहा है। स्थापित पहचान बनाने में स्थापना के मूल्यों का ही योग होता है। लेकिन दिक्कत तब होती है जब स्थापित पहचान को एक विशेष वर्ग हथिया लेता है और दूसरा वर्ग जो स्थापना के मूल्यों को लेकर जीता-मरता है, ठगा रह जाता है। इसे शास्त्र और लोक के द्वंद्व में भी देखा जा सकता है।
हिंदी कविता में राष्ट्रीयता की प्रवृत्ति का एक लंबा इतिहास है। इस प्रवृत्ति के प्रतिनिधि के तौर पर हम रामधारी सिंह ‘दिनकर’ को देखते हैं। दिनकर राष्ट्रीयता की स्थापित पहचान और स्थापना के मूल्यों के दोआब हैं। सच में यहीं से कोई कवि या चिंतक राष्ट्रीय भारतीयता को प्रस्तुत कर सकता है। इस अर्थ में दिनकर भारतीय राष्ट्रीयता से बढ़ कर राष्ट्रीय भारतीयता के कवि है।
दिनकर की कविताओं में राष्ट्रीय चेतना समग्रता में दिखाई देती है। क्योंकि वह पहले भारतीयता के कवि हैं जो बाद में राष्ट्रीयता के रूप में पहचान बन कर प्रवृत्ति के रूप में उभरती है। वह राष्ट्रीयता की आड़ में भारतीय नहीं, उनकी भारतीयता राष्ट्रीयता के रूप में अपनी पहचान बनाती है। इसलिए उन्होंने उन सत्ताधीशों के खिलाफ बेबाक होकर लिखा लिखा है, जो राष्ट्रीयता के रंगे चोले में अभारतीयता को ढके रहते हैं।
जो जनता के जीवन से खिलवाड़ करते है, जिनके लिए लोकतन्त्र सिर्फ नाटकीयता की वस्तु भर है, जो गरीबों का स्वाभिमान अपने सुख के लिए बेच देते हैं, जो देश की लौकिकता को दरकिनार कर सत्ता के लिए किसी भी हद तक गिर सकते हैं, जिन्होंने अपने लोलुप झूठ के लिए देश को कत्लगाह बना दिया, जो सरकार बचाने के लिए किसानों और मजदूरों के जवान बेटों को युद्धों में झोंक दिया हो- ऐसे राष्ट्रीयता के सौदागरों के लिए दिनकर की कविताएं आज भी झन्नाटेदार सांस्कृतिक तमाचा हैं। बनावटी राष्ट्रवाद पर दिनकर की ये पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं-
"वह कौन रोता है वहां
इतिहास के अध्याय पर
जिसमें लिखा है नौजवानों के लहू का मोल है
प्रत्यय किसी बूढ़े कुटिल नीतिज्ञ के व्यवहार का
जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है
जो आप तो लड़ता नहीं
कटवा किशोरों को मगर
आश्वस्त होकर सोचता
शोणित बहा, लेकिन गई बच लाज सारे देश की "
इन पंक्तियों में दिनकर ने युद्ध की राजनीति को भारतीयता की नजर से देखा है। वे राष्ट्रीयता को भारत की सांस्कृतिक परंपरा की विराट चेतना में निरखते हैं। वे अपने समय के मूल्यांकन के लिए सांस्कृतिक मानस में पैठ कर सवाल करते हैं और विश्वयुद्धों की विभीषिका को भारतीयता की मिथिकीय चेतना से जोड़ते हैं। भारतीय मिथकीयता की सांस्कृतिक ताकत को समझने के लिए दिनकर बेहतरीन कवि हैं। कुरुक्षेत्र और उर्वशी जैसे काव्य-ग्रंथ उनकी चेतना की कसौटी हैं।
दिनकर ने अपने समय की राजनीति को जनता और सत्ता के बीच खड़े होकर देखा है। उनकी जनतान्त्रिक पक्षधरता सत्ता के अपराध यदि बेबाकी से बेनकाब करती है, तो सही अर्थों में यह राष्ट्रीय चेतना का सबसे जरूरी पहलू है। अपने देश से लगाव और प्रेम की यह संघर्षशील वास्तविकता है।
भारतीयता और राष्ट्रीयता जिन तत्त्वों से निर्मित होती है, उस तात्त्विकता से सराबोर रहने वाला व्यक्ति ही इनका अधिकारी हो सकता है। प्रेम और लगाव कोई थोपी हुई नैतिकता से नहीं पहचाना जाता, उसके लिए सहजता, स्वाभाविकता, संवेदनशीलता की हार्दिक पात्रता जरूरी है। स्वतन्त्रता आंदोलन में गांधी की भूमिका क्यों आज सबसे बड़ी दिखाई देती है, उनकी भारतीय पैठ सिर्फ भारतीय जनता तक नहीं उससे बाहर भी है।
यह गांधी के जीवन मूल्य ही हैं जो उन्हें भारतीय राष्ट्रीयता से जोड़ते हैं। क्यों गांधी की लोकप्रियता के स्तर को कोई दूसरा नेता नहीं छू पाया, इसके पीछे भी वही कारण थे कि गांधी भारतीय मानस के मूल्यों को सहजता, स्वाभाविकता और संवेदनशीलता से जीने वाले प्रतिनिधि थे। भारतीय राजनीति के फलक पर एक बहुत भयावह दुर्गघटना गांधी की हत्या थी।
जिसने गांधी की हत्या की वह हत्यारा भी भारतीय राष्ट्रीयता को लेकर विकल दिखाई देता है। गांधी और उनके हत्यारे की राष्ट्रीयता के बीच का फर्क देखना जरूरी है। उस हत्यारे की राष्ट्रीयता भारतीयता से अपरिचित राष्ट्रीयता थी। उसमें सहजता, स्वाभाविकता और संवेदनशीलता की जगह संकीर्णता, कट्टरता और कुटिलता थी। यह राष्ट्रीयता की खाल में अभारतीयता का उन्माद भर था।
जिसने गांधी की हत्या की वह हत्यारा भी भारतीय राष्ट्रीयता को लेकर विकल दिखाई देता है। गांधी और उनके हत्यारे की राष्ट्रीयता के बीच का फर्क देखना जरूरी है। उस हत्यारे की राष्ट्रीयता भारतीयता से अपरिचित राष्ट्रीयता थी। उसमें सहजता, स्वाभाविकता और संवेदनशीलता की जगह संकीर्णता, कट्टरता और कुटिलता थी। यह राष्ट्रीयता की खाल में अभारतीयता का उन्माद भर था।
आज दिनकर की कविताएं पढ़ कर राष्ट्रीयता को भारतीयता के जामे में लाने की जरूरत है। उनकी कविताएं बताती हैं कि भारतीयता कैसे राष्ट्रीय को सकती है। आज भारतीय होने से पहले जो राष्ट्रीय होने का दंभ इस देश में भर रहे हैं, वह हमारे सांस्कृतिक इतिहास को कलंकित ही करेंगे। अपने लोक और देश से विमुख व्यक्ति भारतीय नहीं हो सकता और भारतीयता से अपरिचित राष्ट्रीय कैसे ?
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के एक निबंध में यह बात बहुत सलीके से समझाई गई है- “यदि किसी को अपने देश से प्रेम है तो उसे अपने देश के मनुष्य, पशु, पक्षी, लता, गुल्म, पेड़, पत्तों, वन, पर्वत, नदी, निर्झर सबसे प्रेम होगा, सबको वह चाहभरी दृष्टि से देखेगा, सबकी सुध करके वह विदेश में आँसू बहाएगा। जो यह भी नहीं जानते कि कोयल किस चिड़िया का नाम है, जो यह भी नहीं सुनते कि चातक कहाँ चिल्लाता है, जो ऑंख भर यह भी नहीं देखते कि आम प्रणय सौरभपूर्ण मंजरियों से कैसे लदे हुए हैं, जो यह भी नहीं झाँकते कि किसानों के झोंपड़ों के भीतर क्या हो रहा है, वे यदि दस बने ठने मित्रों के बीच प्रत्येक भारतवासी की औसत आमदनी का परता बताकर देशप्रेम का दावा करें तो उनसे पूछना चाहिए कि, 'भाइयों ! बिना परिचय का यह प्रेम कैसा? जिनके सुख दु:ख के तुम कभी साथी न हुए उन्हें तुम सुखी देखना चाहते हो, यह समझते नहीं बनता। उनसे कोसों दूर बैठे बैठे, पड़े पड़े या खड़े खड़े, तुम विलायती बोली में अर्थशास्त्र की दुहाई दिया करो, पर प्रेम का नाम उसके साथ न घसीटो। प्रेम हिसाब किताब की बात नहीं है। हिसाब किताब करनेवाले भाड़े पर भी मिल सकते हैं पर प्रेम करनेवाले नहीं। हिसाब किताब से देश की दशा का ज्ञान मात्र हो सकता है। हित चिंतन और हित साधन की प्रवृत्ति इस ज्ञान से भिन्न है।”
दिनकर को जिस नजरिए से देख कर मास्टर साहब राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाया करते हैं, दरअसल वही उनकी राष्ट्रीयता नहीं, बहुत सतही सुविधानुसार परिभाषा है। यह देखना बहुत जरूरी है कि राष्ट्रीयता आई कहाँ से है, उसका विस्तार कितना है। दिनकर की राष्ट्रीयता कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, परशुराम की प्रतीक्षा में एका-एक नहीं प्रकट हुई है, उसके पीछे और आगे भी भारतीयता और मनुष्यता के विराट स्वप्न निहित हैं।
आज हिंदी के कवि सम्मेलनों में ओज और पौरुष से चर्राए तमाम नर-पुंगव आप को गली-गली मिल जाएंगे, उनमें भारतीयता का लोप जितना अधिक होगा, उतना ही अधिक राष्ट्रीयता का कट्टर अभिमान। यह क्षुद्रताएँ समय की सतहों में कभी अपने निशान नहीं छोड़ पातीं, हाँ उनकी कलंकित दुर्घटना पीढ़ियों को भ्रष्ट कर जाती हैं।
आज देश को दिनकर की राष्ट्रीयता को समझने की बहुत जरूरत है। उनकी राष्ट्रीयता की जमीन वह तमाम कविताएं हैं जो बालक-वृद्ध, नर-नारी सबके लिए सहज अनुभूति से मनुष्यता के और निकट पहुंचती हैं, वह उन्हें स्मरण करते हैं।
दिनकर की कविताओं में- चाँद का कुर्ता, नमन करूँ मैं, सूरज का ब्याह, चूहे की दिल्ली यात्रा, कलम आज उनकी जय बोल, बालिका से बधू इत्यादि सैकड़ों ऐसी कविताएं हैं जो दिनकर की भारतीयता को राष्ट्रीयता तक लाती हैं। ‘चाँद का कुर्ता’ दिनकर की अत्यंत लोकप्रिय बाल कविता को देखिए, भारतीय बाल मन का कितना सहज और उदात्त चित्र है। दिनकर की भारतीयता यहाँ के जन-जीवन और प्रकृति में प्रेम और लगाव की है, इसी से हमारे सांस्कृतिक मूल्य बने हैं। दिनकर इन्हीं अर्थों में राष्ट्रीय है क्योंकि वह इससे पहले भारतीय हैं, भारतीय लोक के हैं, भारतीय जन के हैं।
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