बिहार_राजनीति_और_बाहुबल -1
आजाद भारत में जब 1951-52 में पहली बार चुनाव हुए उसी समय से बिहार में वर्चस्व के बलबूते चुनाव जीतने का सिलसिला शुरू हुआ। हालांकि 1951-52 के चुनाव में ज्यादातर ऐसे लोग जीते जो स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय थे या जो जमींदार रहे या जमींदारों के खिलाफ आवाज उठाए। उस चुनाव में बाहुबल का सीधा प्रयोग हुआ हो इस पर स्पष्टता नहीं है।
आज के दौर में बिहार में अपराधियों का राजनीतिकरण अपने चरम पर पहुंच चुका है। आप किसी भी दल का नाम ले लें हर दल ने हर जाति के अपराधियों को अपनी जरुरत के
हिसाब से खूब पालपोस कर रखा है। लेकिन, आपको पता है कि 1957 के लोकसभा चुनाव से ही बाहुबल के बलबूते बिहार में चुनाव जीतने की शुरूआत हुई थी।
प्रियदर्शन शर्मा |
इतिहास की कही सुनी बातों को अगर सच मान लें तो देश को बूथ लूटने का रास्ता भी बिहार ने दिखाया। आज की तारीख में जो बेगूसराय कन्हैया और गिरिराज के बीच चुनावी समर के कारण राष्ट्रीय सुर्खियां बना हुआ है, उसी बेगूसराय ने 1957 में देश में बूथ लूट की पहली घटना के कारण सुर्खियां बटोरी थी। हालांकि इतिहास यह भी कहता है कि उसी दौर में आंध्रप्रदेश के कुछ इलाकों में भी बूथ कब्जा करना की घटना हुई थी लेकिन बूथ लूट का पहला मामला बेगूसराय से ही जुड़ा रहा।
कहते हैं, बिहार में पहली बार बूथ लूटने की घटना पुराने मुंगेर और वर्तमान बेगूसराय के रामदीरी गाँव में हुई थी। वह भी साल 1957 में। तब रचियाही गांव के कछारी टोला में सरयुग प्रसाद सिंह के लिए बूथ कैप्चरिंग हुआ। वह देश के इतिहास में पहली घटना रही जब खुलेआम बूथ लूट ने राष्ट्रीय सुर्खियों में जगह बनाई। उस समय कम्युनिस्ट नेता चंद्रशेखर सिंह पुराने मुंगेर से निर्वाचित हुए थे।
बिहार की राजनीति में यह पहली घटना हुई जिसने चुनावी जीत के लिए बाहुबल का इस्तेमाल करना सिखाया। फिर तो जैसे बेगूसराय की क्रांतिकारी भूमि से निकला यह रोग पूरे बिहार को संक्रमण की चपेट में ले लिया। चुनाव दर चुनाव हर बार बूथ कब्जा और लूट की घटनाओं का आंकड़ा बढता ही गया। यह संक्रमण पूर्वांचल से लेकर पश्चिम बंगाल तक एक असाध्य रोग के रूप में फैला और करीब वर्ष 2000 के बाद तक यह सिलसिला अनवरत चलता रहा।
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राजनीति की पथरीली राह को सुगम बनाना हो तो उसमें छल और बल दोनों ही सबसे कारगर हथियार है। राजनीति धन के बलबूते नहीं की जाती उसके लिए तो छल और बल ही चाहिए। तो 1957 में जब बिहार में बूथ लूट की पहली घटना हुई उसने कई नेताओं को लठैत रखने के लिए प्रेरित किया। लठैत यानी जो गांव या समाज-क्षेत्र में सबसे उदंड हो।
कहते हैं कि राजनीति तभी हावी होती है जब नेतृतव कमजोर हो जाता है और श्रीबाबू के बिहार के मुख्यमंत्री पद से विदा होने के बाद कांग्रेस का नेतृत्व कमजोर होने लगा। इसी कमजोरी का फायदा उठाकर सरकार के समानांतर सरकार चलाने वाले कुछ बाहुबली 1960 के दशक में पांव पसारने लगे। राजनीति को बाहुबल का चस्का लग चुका था तो हर कोई अब अपने क्षेत्र में बाहुबली बनाने और पालने की जुगत में लग गया। यह महज संयोग था कि बाहुबली की पहली पौध का जन्म भी उसी जाति के अंदर हुआ जो जाति आज बाहुबली नेताओं की वजह से राजनीति के रसातल में पहुंच चुकी है।
हालांकि बाद के दौर में जिस क्षेत्र में जो जाति बहुसंख्यक या सामाजिक रूप से सशक्त रही उस क्षेत्र में उस जाति के बाहुबली की तूती बोली। कायदे से कहा यह जाना चाहिए कि आज भी हर क्षेत्र में जाति विशेष के बाहुबली विराजित हैं और वे अपने क्षेत्र में सरकार के सामानांतर सरकार चला ही रहे हैं। बाकायदा अच्छा-भला या बुरा कहरकर समाज भी उन्हें स्वीकारे हुए है। इसके कई सामाजिक कारण भी रहे।
बाहुबल का जो बीजारोपण 1960 के दशक में हुआ वह बाद के दशकों में हर जाति में फैला। फिर चाहे भूमिहार हो या यादव, ब्राह़्मण हो या राजपूत, मुसलमान से मुसहर तक में बाहुबली हुए। कोई बड़ा नाम वाला तो कोई अपने गांव समाज में भी तोप बना घूमता फिरा या फिर रहा है।
और इन सबसे जिसको सबसे बड़ा नुकसान हुआ वह बिहार की राजनीति को, बिहार के विकास को, बिहार की छवि को। आपके लिए जो बाहुबली आपके हीरो बने उन्हीं के कारण पूरे देश में बिहार की बदहाली बयां हुई।
खैर अगली कड़ी में होगी बात बिहार के उस बाहुबली की जिसका नाम ही उसके उसके ‘कामो’ की पहचान थी ...
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जिस बेगूसराय में 1957 में बूथ लूट की पहली घटना हुई उसी बेगूसराय में हुए कामदेव सिंह। बिहार ने कई बाहुबली देखे, बिहार की राजनीति में कई बाहुबली हुए और हैं लेकिन बिहार में जो रुतबा कामदेव सिंह का रहा, वहां तक पहुंचना आज तक किसी तथाकथित बाहुबली के लिए संभव नहीं हुआ।
कामदेव सिंह को लेकर कई किस्से हैं कुछ मनगढं़त तो कुछ सच्ची। कहते हैं कि उस दौर में पुलिस महकमे में कामदेव सिंह की जलवा था। अगर नौबत आ जाए कि सरकार का कोई मंत्री और कामदेव सिंह दोनों किसी सरकारी दफ्तर में एक साथ प्रवेश करते तो अधिकारी पहले कामदेव सिंह को बैठने कहता। पता नहीं कितना सच है या झूठ लेकिन किस्से यूं ही नहीं निकलते। पहली तारीख को कामदेव सिंह का लिफाफा कई सर-सिपाही-मंत्री-संतरी तक पहुंच जाता वह भी उतना जितना उनका वेतन नहीं था। इसी कारण कामदेव सिंह के ट्रक नेपाल से चलकर कलकता तक बिना रोकटोक पहुंच जाते। दुनिया का हर प्रतिबंधित सामान उन ट्रकों में भरा रहता।
पटना से टाइम्स ऑफ इंडिया का संस्करण जब निकला तब पहली खबर ही कामदेव सिंह के इतिहास को खंगाल कर लिखी गई। कहते हैं ‘कामदेव सिंह’ के गोदाम के गेटकीपर के पास भी आज पटना में करोड़ों की धन संपदा है। वो खुद बेगूसराय के रोबिनहुड थे। हर साल अपने क्षेत्र में सैकड़ों गरीब बाप की बेटी की शादी का पूरा खर्च उठाते थे। क्या बेगूसराय, पटना हो या नेपाल से कलकता और मुंबई हर जगह कामदेव सिंह की उस समय चर्चा थी। हो भी क्यों न क्योंकि लोग कहते हैं कि इंदिरा गांधी का आशीर्वाद मिला था कामदेव सिंह को। जब इंदिरा गांधी बिहार आयीं, तब उन्होंने एक नंबर से लेकर सौ तक, सभी सफेद एंबेसेडर से उनका स्वागत किया था। भला जिसकी ऐसे हैसियत हो उसे कौन छू लेगा।
तो इस कामदेव सिंह को लेकर यह भी कहा गया कि उस दौर में जिस नेता को लगता था कि वह चुनाव हार जाएगा वह कामदेव सिंह से संपर्क करता और कामदेव की ऐसी माया चलती कि उस प्रत्याशी की जीत तय हो जाती।
इंडिया टुडे ने अपने एक लेख में लिखा था,
The man is Kamdeo Singh, his activities are centered in the Begusarai district of Bihar, and his hobby is to fight communists and 'bless' politicians during elections. "Even a rat can win the elections and enter legislature with his blessings but if anybody dare challenge him, his days are numbered," say the people in Begusarai and police records confirm it.
लेकिन कहते हैं कि राजनीति किसी की सगी नहीं है। तो केंद्र में इंदिरा कमजोर हुई और राज्य में जगनाथ मिश्र अपना वर्चस्व स्थापित करने में लगे थे। इस दौरान केंद्रीय गृह मंत्री ज्ञानी जेल सिंह का पटना आना हुआ। मेरे एक मित्र ने लिखा था ज्ञानी जेल सिंह ने अपनी तिरछी भौं कामदेव सिंह की तरफ की और मुख्यमंत्री डॉ जगनाथ मिश्र से भेंट के रूप में - कामदेव सिंह का मृत शरीर माँगा। डॉ जगनाथ मिश्र ने नजरें झुका अपनी हामी भरी... कल तक डॉ जगनाथ मिश्र का दाहिना हाथ अब राजनीति को भेंट चढने वाला था।
गोवा मूल के मेरे फोटोग्राफर मित्र एंडी उस दौर में कामदेव सिंह पर स्टोरी करने बेगूसराय गए थे। एंडी ने बड़ी मुश्किल से कामदेव सिंह से मुलाकात की। पिछले महीने ही उन्होंने मुझे बताया था कामदेव सिंह को शौक था कि एक बार मुंबई में उन्हें कुछ फिल्मी सितारों से मिला दूं। (आदमी के क्या क्या शौक नहीं होते हैं) इसी शर्त पर एंडी से कामदेव मिले थे। एंडी ने कहा कि मुलाकात के दूसरे दिन उनकी बरौनी से दिल्ली के लिए ट्रेन थी लेकिन कामदेव सिंह तो एंडी से मुंबई की रंगीन गलियों की खबर पूछते रहे। एंडी ने जब बताया कि मेरी ट्रेन कुछ समय बाद बरौनी से छूटने वाली है तब कामदेव सिंह ने उस ट्रेन को दो घंटे तक स्टेशन पर रुकवा दिया कि जब तक एंडी नहीं पहुंचेंगे तब ट्रेन नहीं छूटेगी। ऐसी हनक वाला बाहुबली आज के दौर में शायद ही कोई हो।
राजनीति की नजरें इनायत नहीं रह गई थी कामदेव सिंह पर। बाहुबल का जो वर्चस्व कामदेव सिंह ने कायम किया था वह किला अब भरभराने वाला था। लेकिन कामदेव सिंह को मारना भी इतना आसान नहीं था। जाति चरम पर थी और कामदेव को निपटाने के लिए उसकी जाति पर भरोसा करना सरकार चाह नहीं रही थी। अंत में डॉ जगनाथ मिश्र ने अपने ‘स्वजातीय’ राम चन्द्र खां को बेगूसराय भेजा और दो साल की घेराबंदी के बाद तीन तरफ से घिर चुके कामदेव सिंह जब गंगा में छलांग लगाने वाले थे तब उनकी पीठ में गोली मार दी गई। हाालांकि लहूलुहान कामदेव सिंह को पुलिस पकड़ नहीं पाई और वे गंगा में ही डूब गए।
उस दिन कामदेव सिंह की मौत के बाद सत्ता के गलियारों में बैठे लोगों ने सिर्फ कामदेव सिंह को गाली नहीं दी बल्कि कामदेव की पूरी जाति को गरियाया गया था। उसकी पूरी जाति को गाली देकर कामदेव सिंह की मौत का जश्न मनाया जा रहा था। सत्ताधारियों ने वहीं से एक जाति को निशाना बनाकर अपनी राजनीति चमकानी शुरू की। लोग भले कहते हैं कि लालू ने जातिवादी राजनीति की शुरूआत की जबकि जाति की राजनीति के असली सूत्रधार तो जगनाथ मिश्र ही रहे।
कामदेव सिंह वह बाहुबली रहे जिसे मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक ने पाला भी और मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं हैं कि तर्ज पर कामदेव के बहाने उसकी पूरी जाति से बदला भी लिया।
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कामदेव सिंह की मौत ने बिहार की राजनीति को हिला कर रख दिया। दरअसल कामदेव सिंह से कांग्रेस की दूरी बनाने की एक बड़ी वजह रही कामदेव का जनता पार्टी के नेताओं के संपर्क में आना। अब भला एक म्यान में दो तलवार कैसे संभव था तो राजनीति ने कामदेव की बलि ले ली।
दरअसल देखा जाए तो बिहार में बाहुबल को राजनीति में प्रशय देने का काम भी कांग्रेस के कारण ही हुआ। कहा जाता है कि 1975 में आपतकाल लगने और 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद बिहार में कांग्रेस पूरी तरह से कमजोर हो चुकी है। ऐसे में पार्टी को मजबूत करने के लिए कुछ ऐसे चेहरों की जरुरत थी जिनसे मतदाता डरे भी और वे वोटबैंक भी मजबूत करें।
मेरे एक साथी ने एक बार कहा था कि तब धीरेंद्र ब्रह्मचारी पर संजय गांधी को सबसे ज्यादा भरोसा था। धीरेंद्र ब्रह्मचारी की इंदिरा गांधी के यहां क्या हैसियत थी इसे लेकर कई किस्से हैं। योग गुरु से लेकर आम्र्स डीलर के रूप में जाने जाने वाले धीरेंद्र ब्रह्मचारी के दरबार में शायद ही कोई बिहार का बाहुबली हो जो सिर नहीं झुकाता था। कहते हैं यहीं से बिहार में बाहुबल को राजनीति में लाने का काम शुरू हुआ। संजय गांधी जानते थे कि बिहार और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस जब तक कमजोर रहेगी तब तक केंद्र की सत्ता उसके लिए आसान नहीं है। तो बिहार में अपनी उखड़ चुकी जड़ों को जमाने के लिए अब कांग्रेस ने दूसरा रास्ता अपनाया। पार्टी ने कई ऐसे बाहुबलियों को पैदा करने का काम किया जो या तो कांग्रेस के उम्मीदवारों को जिताने का काम करते या फिर कुछ को सीधे टिकट देकर चुनाव में उतार दिया गया।
आपातकाल के बाद जब जगनाथ मिश्र बिहार के मुख्यमंत्री बने तब इस बाहुबल को और ज्यादा मजबूती मिल गई। जगन्नाथ को लेकर कई किस्से हैं। चाहे बिना नकदी से झोला भरे दातून नहीं करने का हो या खुद को राजा समझने की भूल का। ऐसे में जगन्नाथ अपने सपनों को पूरा करने के लिए अब बाहुबल से खुलकर गलबहियां कर चुके थे।
बाहुबल का लोकतंत्र में प्रवेश हुआ तो इसकी चमक दमक सबको आकर्षित कर रही थी। हर जाति को अब इसका चस्का लग चुका था। एक प्रकार से बिहार में यह हीरोइज्म की भांति हो गया। 980 से 1990 के बीच हर जिले में कोई न कोई बाहुबली विधायक बना। सिर पर राजनेताओं का हाथ और ठेकेदारी अब उनको ही मिलने लगी। सरकार के खजाने की लूट में नेता , अफसर के साथ साथ बाहुबली का भी हिस्सा निकलने लगा।
वीर मोहबिया 'क्राम क्राम' जो पागल हाथी के शौकीन होते थे। रोहतास के वीरेन्द्र सिंह, गोपालगंज के काली पाण्डेय और न जाने कितने - विधानसभा को सुशोभित करने लगे।
बड़े नेताओं के स्वागत में रायफलों की फौज आने लगी। और बिहार की मिट्टी की तासीर तो है ही ऐसी कि बंदूक से उसे खूब मोहब्बत है। तो ऐसे बाहुबली नेताओं को देखने भीड़ बढने लगी। सरकार के अफसर कहीं किसी कोने में दुबकने लगे और यहां तक बाहुबली के पसंद के अफसर तैनात होने लगे। इन सबके बाद भी अभी तक राजनीति ही इनपर हावी रहती थी। यानी बाहुबली जितना उछल लें लेकिन राजनेताओं की पांव की जूती बराबर ही उनकी औकात थी।
एक इंटरव्यू में जगन्नाथ मिश्र ने माना था कि बाहुबलियों को राजनीति में लाकर कांग्रेस ने गलती की।
Mishra, who was chief minister thrice - twice in the 1980s - called himself "guilty".
"I concede that I had to tolerate two to three criminal-turned-MLAs such as Bir Bahadur Singh of Hajipur because the Congress gave them tickets. But it was during my time that the Criminal Control Act and provisions to extern a criminal from the district or state was made.
खैर मिश्रा के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद बिहार की फिजां बदल चुकी थी अब बिहार में बाहुबली ही सरकार बनाने और बिगाडऩे का खेल कर रहे थे। इस दौर में एक ऐसा मुख्यमंत्री बिहार की गद्दी पर बैठा जिसने राजनीति का ही अपराधीकरण कर दिया। बिहार में अब एके-47 और एके-56 जैसे हथियार आ गए।
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मंडल-कमंडल की आग झुलसने के बाद 1990 में बिहार में मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठे लालू यादव के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी अपना आधार मजबूत करने की। लालू ने इसके लिए अपने पूर्ववर्ती के पदचिन्हों पर ही चले। जातिवाद चरम पर था तो लालू ने यादव और मुसलमान का समीकरण बनाया यानी एमवाई समीकरण और वोटरों को हांकने के लिए बाहुबलियों की कतार खड़ी कर दी।
नब्बे के उस दौर में बिहार ने पहली बार देखा कि कैसे जीप और एंबेसडर में बैठे लोग बंदूक लहराते हुए पटना पहुंचते और एक अणे मार्ग पहुंचकर दरबारी बन जाते। जिसने भी उस दौर में एक अणे मार्ग जाकर लालू के सामने समर्पण किया वही उस दौर का सबसे बड़ा बाहुबली बना। लालू राज में चाहे बिहार का सीवान हो या सीमांचल, मगध के इलाके हों या मिथिला, शाहाबाद के जिलों से लेकर साहेबगंज तक हर जगह लालू ने अपने लिए कई ऐसे बाहुबली तैयार कर दिए जिनके आतंक का असर समाज पर दिखता।
लालू के बाहुबलियों में हर जाति के लोग रहे। फिर चाहे वह मुसलमान शहाबुद्दीन हो या भूमिहार अनंत सिंह। राजपूत आनंद मोहन हो या यादव पप्पू यादव। ऐसे दर्जनों नाम लालू राज में ही उभरे जो बाद के वर्षों में विधायक से लेकर सांसद तक बने। बिहार के लिए 1990 से 2005 का वह दौर बदनुमा इतिहास बन गया। एके 56 जैसे हथियार बिहार के दर्जनों बाहुबलियों के पास पहुंच चुका था।
जगन्नाथ मिश्रा के राज में बाहुबली हुए लेकिन सत्ता की जूती के नीचे दबे रहे लेकिन लालू राज में यह बदल गया। लालूराज में जिस बाहुबली ने सबसे ज्यादा खौभ कायम किया उनमें सब से पहला नाम आता है बिहार के बाहुबली राजद के सांसद शहाबुद्दीन का, जिसका पार्टी में एक अपना अलग रसूख था। शहाबुद्दीन का आतंक पूरे बिहार में फैला हुआ था लोग उनके नाम सुनते हैं दहशत में आ जाते हैं। आम लोगों की तो छोडिए पुलिस वाले भी इसके नाम से डरते रहते थे। यू कहें कि राबड़ी देवी जब बिहार के मुख्यमंत्री थीं तो शहाबुद्दीन बिहार के सुपर अपराधी सीएम हुआ करते थे। पुलिस अधिकारियों को थप्पड़ मारने से चर्चित हुए शहाबुद्दीन के खिलाफ दर्जनों हत्या, अपहरण, रंगदारी और लूट के मामले दर्ज हैं। सबूत होने के बाद भी पुलिस गिरफ्तार करने के लिए हिम्मत नहीं जुटा पाती थी। जैसे ही लालू शासन का अंत हुआ शहाबुद्दीन के आतंकी सामराज की उल्टी गिनती शुरू होने लगी और कुछ ही दिनों में लालू के खास कहे जाने वाले शहाबुद्दीन पुलिस के शिकंजे में कैद हो गया।
उसके खिलाफ जमीन विवाद को लेकर तीन भाइयों की तेजाब से नहलाकर हत्या का आरोप था। चंदा बाबु के बेटों को तेजाब से नहलाकर मारने के आरोप में हाईकोर्ट ने उसकी उम्र कैद की सजा बरकरार रखी है। फिलहाल वह सीवान से निकलकर दिल्ली के तिहाड़ जेल में कैद है और अपने गुनाहों की सजा काट रहा है।
लालू बिहार के लिए गाली बन चुके थे। पलायन अपने चरम पर पहुंच चुका था। चुनावों में हत्याएं ऐसे होती कि मानों प्रशासन नाम की कोई चीज नहीं रह गई। 1957 में बेगूसराय से जो बूथ लूट की घटना शुरू हुई थी वह लालूराज में चरम सीमा पर पहुंची। बड़े से बड़ा आइएएस और आइपीएस अधिकारी लालू दरबार में सिर झुकाकर खड़ा रहता। अधिकारियों के अपमानित होने के कई किस्से उस दौर में आए। हत्या और बलात्कार भी लालू के लिए चौंकाने वाली खबर नहीं बनती। बनती भी क्यों , आखिर यह सब किया भी तो सत्ता के इशारे पर ही जा रहा था।
बिहार को जाति के खांचों में बांटकर उसका लाभ लालू ले रहे थे। गली मोहल्ले में पनपते हर एक गुंडा तत्व का संरक्षक अंतत: लालू ही रहे। मेरे एक मित्र ने एक बार कहा था कि लालू इस बात को समझ चुके थे जिसके पास आर्थिक तंत्र पर कब्जा है वही राज करेगा। लालू ने इसलिए सबसे पहले बाहुबलियों के लिए एक ऐसा अर्थतंत्र तैयार किया जिसमें भय भी था। कहते हैं लक्ष्मी के दरवाजे पर सबका सर झुकता है। पुरुषो की दो सबसे बड़ी कमजोरी - सेक्स और पैसा ... और इसमें कोई जाति नजर नहीं आती । लालू ने बाहुबलियों की फसल उगाते हुए इसका खूब ध्यान रखा।
तो लालू के दौर में ही बिहार में एके-47 से हत्याएं होनी शुरू हुई और लालू के दौर में ही चुनाव आयोग भी सख्त हुआ। बड़ी दिलचस्प कहानी थी वह भी।
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सन् 1990 का दशक बिहार में निरंकुश, जातिवादी और दिशाहीन सत्ता तथा एके-47 की गर्जना के लिए जाना गया।
दरबारी सुने हैं न। यानी जो सत्तासीन का वफादार बनने का स्वांग रचाता हो। तो 1980-90 में बाहुबलियों की जो फसल बिहार में उगी थी उसने अब सत्ताधारियों से ही सत्ता में हिस्सेदारी मांगनी शुरू कर दी। कहा जाता है कि बिहार में पहली बार अशोक सम्राट ने एके-47 से हत्या की।
बिहार बदल चुका था। अब अपराधियों का रुतबा उनके पास कितने एके-47 हैं उससे होने लगी थी और इसका फायदा भी राजनेता ही उठा रहे थे। बिहार के अपराध जगत में 1990 के आसपास पहली बार अत्याधुनिक एके 47 की इंट्री हुई थी।
कहते हैं बिहार में एके 47 से पहली हत्या धनबाद में हुई और उसके ठीक बाद बेगूसराय में। धनबाद में कोयला माफिया के बीच वर्चस्व की अदावत में एके 47 तरतरा रहे थे तो बेगूसराय में बाहुबल की दुनिया में उभरा नया नाम अशोक सम्राट एके 47 लेकर आया।
सबसे पहले उत्तर बिहार के डॉन अशोक सम्राट (बेगूसराय) के पास एके 47 की खेप पहुंची थी। बरौनी जीरोमाइल के पास एक ठेकेदार की हत्या में सम्राट की एके-47 को लहराया गया था। इसके बाद हाजीपुर में अनिल शर्मा गिरोह ने विरोधियों को निशाना बनाया था। कहते हैं अशोक सम्राट तक एके-47 बेगूसराय के रामदीरी के मुन्ना सिंह के माध्यम से पहुंचा। पता नहीं कितना सच झूठ है लेकिन कुछ वर्ष पूर्व जब मुन्ना सिंह की हत्या हुई तब यह बात फिर से ताजा हो गई।
खैर, अशोक सम्राट अब बेगूसराय से निकलकर मुजफ्फरपुर, मोकामा, पटना तक पांव पसार चुका था। कोयला और रेलवे के टेंडर में वह लगातार अपनी पहुंच बढ़ा था। निःसंदेह इन सबके पीछे राजनीतिक समर्थन भी था। फिर मुजफ्फपुर विश्वविद्यालय परिसर के पीजी-3 पर कब्जा जमा कर अपना गैंग चलानेवाले मिनी नरेश की हत्या सरस्वती पूजा के समय 10 फरवरी 1989 को कर दी गयी. पीजी-5 में सरस्वती पूजा का संचालन कर रहें मिनी नरेश पर अपराधियों ने बम से हमला कर उसकी इहलीला समाप्त कर दी थी।
मिनी नरेश की हत्या के बाद यहां वर्चस्व की लड़ाई में पहली बार एके-47 का इस्तेमाल हुआ था बेगूसराय में। तब अशोक सम्राट ने छाता चौक के ठेकेदार चंदेश्वर सिंह को सरस्वती पूजा के दिन ही एके-47 से भून दिया था। काजीमुहम्मपुर थाना के ठीक सामने चंदेश्वर सिंह का आवास था। बताया जाता है कि हत्याकांड के दौरान चली एके-47 के ब्लास्ट की आवाज सुनते ही पुलिसकर्मी थाने के अंदर घुस गये थे। इसके बाद यहां अशोक सम्राट का वर्चस्व स्थापित हुआ।
उधर मुजफ्फरपुर में गीता सिंह, मिनी नरेश, चंद्रेश्वर सिंह, छोटन शुक्ला, भूटकन शुक्ला जैसे कई नाम हुए। यह 1980-90 का ही दौर था। और कहा जाता है इन सबके रिंग मास्टर हुए रघुनाथ पांडेय। बाद में मुन्ना शुक्ला विधायक बने।
इधर अशोक सम्राट की बढ़ती हनक अब राजनेताओं से लेकर पुलिस महकमे तक के लिए परेशानी का सबब बन गया था। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि लालू की मर्जी के बगैर कोई ऐसा बाहुबली बिहार में सिर उठा रहा था जो अब लालू को राजनीति में प्रवेश कर चुनौती देने की तैयारी में था। अब भला लालू जैसे 'बाहुबली' को यह कैसे गंवारा रहता।
सन 2000 के विधानसभा चुनाव में लालू के विरोध में कई बाहुबली विधायक बने लेकिन कायदे से इसका सूत्रपात अशोक सम्राट ने ही किया था।
टेलीग्राफ ने अपनी एक खबर में लिखा था ...
The alleged gangster Ashok Samrat, who contested elections in north Bihar, summed it up best: “Politicians make use of us for capturing the polling booths and for bullying the weaker sections. But after the elections they earn the social status and power and we are treated as criminals. Why should we help them when we ourselves can contest the elections, capture the booths and become MLAs and enjoy social status, prestige and power? So I stopped helping the politicians and decided to contest the elections.”
और राजनेता यह नहीं चाहते कि उनका दरबारी उनके सामने सिर उठाये । फिर अशोक सम्राट को सत्ता कैसे बर्दाश्त करती। बिहार में अशोक सम्राट का इनकाउंटर एक इतिहास बन गया।
बिहार पुलिस के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट रिटायर्ड डीएसपी शशिभूषण शर्मा ने एक बार कहा था बिहार में पहली बार 1994 में एके 47 की बरामदगी हुई थी। तब हाजीपुर में इंडस्ट्रियल एरिया से लेकर छितरौरा गांव तक साढ़े चार घंटे तक अशोक सम्राट गैंग व पुलिस के बीच हुई मुठभेड़ में अशोक सम्राट व चार अन्य अपराधी मारे गए थे।
लेकिन अशोक सम्राट ने बिहार को जो एके 47 की आदत लगाई वह आगे चलकर बिहार के हर कोने में पहुंच गया। साथ ही जिस राजनीति में अशोक सम्राट खुली भागीदारी चाहते थे बाद के वर्षों में वह भी सच साबित हुआ।
खैर लालू गाथा बड़ी उलझी चीज है....
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बिहार की राजनीती में बाहुबलियों के प्रवेश पर लिखी जा रही श्रृंखला में किसी ने यह भेजा है। पढ़ा जाये कि कैसे ज्ञान भूमि मुजफ्फरपुर बिहार में अंडर वर्ल्ड का केंद्र बन गया और इसका बड़ा कारण रहे। ..उस समय के बिहार के चर्चित नेता हेमंत शाही और उत्तर बिहार के सबसे दबंग नेता रघुनाथ पांडे का।
बिहार में अंडरवर्ल्ड के इतिहास में मुजफ्फरपुर का अलग स्थान रहा है। इस धरती पर जहां कई क्रांतिकारियों ने जन्म लिया, वहीं अंडरवर्ल्ड के कई बड़े डॉन ने मुजफ्फरपुर को अपना ठिकाना बनाया। जिस दौर में भारत के बड़े माफियाओं के पास भी एके-47 जैसे अत्याधुनिक हथियार नहीं थे, उस दौर में मुजफ्फरपुर में इसकी गर्जना सुनी जाने लगी थी। एके 47 से बिहार में संभवत: पहली हत्या 1990 में हुई थी। अंडरवर्ल्ड डॉन अशोक सम्राट ने अपने प्रिय रहे मिनी नरेश की हत्या का बदला लेने के लिए छाता चौक पर एके 47 की हनक दिखाई थी। बिहार में पहली बार एके 47 से हत्या हुई थी। एके 47 की हनक का आलम यह था कि छाता चौक पर काजी मोहम्मदपुर थाने के ठीक सामने दिन दहाड़े मिनी नरेश की हत्या के मुख्य आरोपी डॉन चंद्रश्चर सिंह की हत्या की गई थी। इसके बाद न तो अशोक सम्राट ने पीछे मुड़कर देखा और न एके 47 की हनक ने। अंडरवर्ल्ड डॉन की लाश तो बिछती गई, लेकिन एके 47 की हनक आज तक कायम है।
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि मुजफ्फरपुर में माफिया, गुंडागर्दी, अंडरवर्ल्ड चाहे कोई और नाम दे दीजिए, इसकी कहानी बिहार के सबसे प्रतिष्ठित कॉलेज लंगट सिंह महाविद्यालय से शुरू होती है। इस कॉलेज कैंपस से शुरू हुई वर्चस्व की जंग में अब तक सैकड़ों लाश गिर चुकी है। इसी कैंपस से निकले कई छात्रों ने अंडरवर्ल्ड में दशकों तक राज किया है।
दरअसल उत्तर बिहार के सबसे बड़े शहर मुजफ्फरपुर को शैक्षणिक गढ़ भी माना जाता था। दो बड़े कॉलेज लंगट सिंह कॉलेज और रामदयालू कॉलेज के अलावा यहां बिहार यूनिवर्सिटी थी। जिसके कारण आसपास के सैकड़ों छात्र यहां शिक्षा ग्रहण करने आते थे। इन छात्रों में क्षेत्रवाद और जातिवाद बुरी तरह हावी था। इसके कारण यहां पढ़ने वाले छात्र कई गुटों में विभाजित रहे। हजारों एकड़ में फैले लंगट सिंह कॉलेज कैंपस में शुरुआती दौर में तीन हॉस्टल थे। जिसमें ड्यूक हॉस्टल का अपना वर्चस्व था। हॉस्टल में 60 के दशक से वर्चस्व की जंग शुरू हुई। जंग शुरू करने वालों में शामिल थे बेगूसराय और मुंगेर अंचल से आए छात्र। इनकी अदावत थी मुजफ्फरपुर जिले के स्थानीय युवाओं से। भुमिहार और राजपुतों के साथ शुरू हुई वर्चस्व की जंग में कैंपस में पहली लाश गिरी 1978 में। हालांकि इससे पहले साठ और सत्तर के दशक में भी कैंपस में मारपीट होती थी, पर किसी छात्र या दबंग की हत्या नहीं हुई थी। कॉलेज कैंपस में पहली बार बम और गोली भी चलाई थी बेगुसराय के छात्र ने ही। साल 1971-72 में बेगुसराय निवासी कम्युनिस्ट नेता सुखदेव सिंह के पुत्र वीरेंद्र सिंह ने अपनी दबंगई कायम करने के लिए पहली बार कैंपस में बम और गोली चलाई थी। ड्यूक हॉस्टल पर बम और गोलियों से हमला किया गया था। इस वारदात के बाद एलएस कॉलेज कैंपस में हर दूसरे महीने बम के धमाके सुने जाने लगे। धीरे-धीरे वर्चस्व की लड़ाई तेज होती गई। साल 1978 में कॉलेज कैंपस में पहली लाश गिरी मोछू नरेश के रूप में। यह वर्चस्व की जंग में पहली हत्या थी।
दबंग छात्र रहे मोछू नरेश की हत्या ने कॉलेज और यूनिवर्सिटी कैंपस को आतंक का गढ़ बना दिया। मोछू नरेश की हत्या में नाम आया बेगूसराय के कामरेड सुखदेव सिंह के पुत्र वीरेंद्र सिंह का। कैंपस में हत्याओं की नींव डाली बेगूसराय के छात्रों ने ही। पर सबसे बड़ा तथ्य यह है कि सबसे अधिक लाश भी गिरी बेगुसराय के छात्रों की ही। मोछू नरेश के बाद कैंपस में दबंगई कायम की मिनी नरेश ने। मोछू नरेश की गद्दी संभालते ही मिनी नरेश कैंपस में अपनी दहशत कायम की। उसे राजनीतिक और बाहरी संरक्षण भी मिला। जिसके कारण विरेंद्र सिंह को शांत होना पड़ा। पर अंदरूनी अदावत जारी रही। दोनों का ठिकाना कॉलेज और यूनिवर्सिटी हॉस्टल ही रहा।
मोछू नरेश की गद्दी संभाल रहे मिनी नरेश ने कॉलेज कैंपस से ही अपना वर्चस्व कायम किया। उसे अशोक सम्राट जैसे अंडरवर्ल्ड डॉन का समर्थन प्राप्त था। यह वह दौर था जब बिहार यूनिवर्सिटी का कई सौ एकड़ में अपना कैंपस बन रहा था। एलएस कॉलेज कैंपस से सटे इस नए साम्राज्य का विस्तार हो रहा था। इस साम्राज्य पर भी अपने अधिकार का जंग शुरू हो गया था। मिनी नरेश ने कई हॉस्टल और डिपार्टमेंट का ठेका भी लिया। इसमें मोटी कमाई हो रही थी। अशोक सम्राट का अपने ऊपर हाथ होने के कारण मिनी नरेश ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1983 में मिनी नरेश ने ठेकेदार रामानंद सिंह की हत्या कर दी। इसी दौर में मोतिहारी से मुजफ्फरपुर में आ बसे चंदेश्वर सिंह अपना वर्चस्व कायम कर रहा था। उसके रास्ते का सबसे बड़ा कांटा बना था वीरेंद्र सिंह। 1983 में चंदेश्वर सिंह ने छाता चौक पर वीरेंद्र सिंह की हत्या कर मुजफ्फरपुर के डॉन के रूप में अपनी दस्तक दी।
एलएस कॉलेज और बिहार यूनिवर्सिटी कैंपस से शुरू हुई अंडरवर्ल्ड की कहानी से इतर कैंपस से बाहर भी अंडरवर्ल्ड की दूसरी कहानी चल रही थी। इस कहानी के नायक थे बाहूबली अंडरवर्ल्ड डॉन अशोक सम्राट और एलएस कॉलेज कैंपस से ही निकले छोटन शुक्ला। वैशाली जिले के साधारण परिवार से आने वाले छोटन शुक्ला ने 12वीं की पढ़ाई के लिए एलएस कॉलेज में नामांकन करवाया। इसी वक्त उनके पिता की हत्या हो गई। कलम थामने के लिए उठे हाथ ने बंदूक थाम ली। छोटन शुक्ला ने काफी तेजी से अंडरवर्ल्ड की दुनिया में अपनी दबंगता कायम की। यह वह दौर था जब पूरे तिरहुत प्रमंडल में ठेकेदारी में वर्चस्व की जंग चल रही थी। अशोक सम्राट का यहां एकछत्र राज था। उन्हें राजनीति संरक्षण मिला था बिहार के चर्चित नेता हेमंत शाही का। उधर मोतिहारी से मुजफ्फरपुर आए चंदेश्वर सिंह ने भी शहर में अपनी दहशत कायम कर ली थी। चंदेश्वर सिंह के ऊपर हाथ था उत्तर बिहार के सबसे दबंग नेता रघुनाथ पांडे का। चंदेश्वर सिंह के नाम से पूरा शहर कांपने लगा था। ठेकेदारी में सबसे अधिक पैसा था। इसलिए हर कोई इसमें वर्चस्व चाहता था। वर्चस्व की जंग में लाशें गिरनी शुरू हो गई थी। एक दूसरे के कारिंदों पर गोलियां दागी जाने लगी थी। पर सबसे बड़ी लाश गिरी चंदेश्वर सिंह के बेटे के रूप में।
बिहार यूनिवर्सिटी कैंपस के पीजी ब्वॉयज हॉस्टल नंबर तीन से अपना गिरोह संचालित कर रहे मिनी नरेश ने कैंपस में एकाधिकार जमा लिया था। हाल यह था कि एलएस कॉलेज और यूनिवर्सिटी में मिनी नरेश का ही आदेश चलता था। एक दशक से अधिक समय तक मिनी नरेश ने कैंपस में राज किया। उस दौर में कैंपस में सरस्वती पूजा का जबर्दस्त क्रेज था। हजारों रुपए का चंदा जमा होता था। सबसे बड़ी और भव्य पूजा पीजी हॉस्टल नंबर पांच में होती थी। यह पूजा पूरी तरह मिनी नरेश के संरक्षण में होती थी। दस फरवरी 1989 को ठीक सरस्वती पूजा के दिन ही पीजी हॉस्टल नंबर पांच बम और गोलियों के धमाके से गूंज उठा। हर तरफ से बमों के धमाकों की आवाज आ रही थी। चंदेश्वर सिंह और उसके गुर्गों ने मिनी नरेश को संभलने का मौका तक नहीं दिया। सरस्वती पूजा के दिन कैंपस में मिनी नरेश की हत्या कर दी गई। बेगूसराय के राहतपुर निवासी मिनी नरेश की हत्या के बाद कई दिनों तक कैंपस खाली रहा। हॉस्टल विरान हो गए। किसी बड़ी अनहोनी की आशंका में क्लास तक नहीं चले। चंदेश्वर सिंह के अलावा इस हत्याकांड में पहली बार नाम आया छोटन शुक्ला का।
जिस फिल्मी और बेखौफ अंदाज में मिनी नरेश की हत्या हुई थी उसने बिहार के अंडरवर्ल्ड को हिला कर रख दिया था। बताया जाता है कि उस वक्त हॉस्टल नंबर पांच में हर जगह बम के छर्रे के निशान थे। करीब दो सौ बम दागे गए थे। मिनी नरेश की हत्या के बाद चंदेश्वर सिंह अंडरग्राउंड हो गए थे। मिनी नरेश के आका रहे अशोक सम्राट ने बदला लेने का खुला ऐलान कर रखा था। यही वह दौर था जब बिहार के अंडरवर्ल्ड में एके 47 पहुंच चुका था, लेकिन अब तक उसका इस्तेमाल नहीं हुआ था। अशोक सम्राट ने ठीक एक साल बाद 1990 में उसी फिल्मी अंदाज में ठीक सरस्वती पूजा के दिन ही छाता चौक पर दिनदहाड़े चंदेश्वर सिंह की हत्या कर दी। छाता चौक पर ही काजी मोहम्मदपुर थाना है। पर एके 47 की गूंज ने पुलिसवालों को भी ठिठकने पर मजबूर कर दिया। बिहार के अपराध के इतिहास में पहली बार एके 47 का इस्तेमाल हुआ था। चंदेश्वर सिंह को करीब 40 गोलियां मारी गई थी। इस हत्या ने एक झटके में अशोक सम्राट को उत्तर बिहार का बेताज बादशाह बना दिया। यह एके 47 की धमक ही थी पूरे बिहार का अंडरवर्ल्ड अशोक सम्राट के नाम से कांपने लगा था। मिनी नरेश की हत्या का बदला ले लिया गया था। चंदेश्वर सिंह की हत्या ने छोटन शुक्ला को विचलित कर दिया था। इसके बाद दोनों तरफ लाशें गिरने लगी। अशोक सम्राट और छोटन शुक्ला की अदावत खुलकर सामने आ गई थी। ठेकेदारी के वर्चस्व से शुरू हुई लड़ाई अब अंडरवर्ल्ड में बादशाहत तक आ गई थी। एक दूसरे के करीबियों को चुन चुन कर मारा जाना लगा। अगली बड़ी लाश गिरी थी गब्बर सिंह की। लंगट सिंह कॉलेज कैंपस में ठीक महात्मा गांधी की मूर्ति के सामने। इस लाश का तात्लुक भी बेगुसराय से ही था।
प्रियदर्शन शर्मा, आपकी कहानी में लालू ही लालू है।
ReplyDeleteबाकी सब भालू है।
आपका लेख बता रहा है की आप भूमिहार है।वैसे भी भूमिहार किसी सगा नही होता तो इस लेख का सगा कैसे हो सकता है।
apni bahan se shaadi karwa ke dekhiye pata chalega bhumihaar saga hota hai ya nahi
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