Sunday 14 April 2019

बेगुसराय को जानिये - संजीव कुमार

बेगुसराय_को_जानिये 1
-----------------------------
मैं बेगूसराय से हूँ. बचपन से लेकर जवान होने तक पटना में रहा, पर अपना पुश्तैनी इलाक़ा होने के कारण बेगूसराय मेरे अन्दर है. यह इलाक़ा अपनी लंठई के लिए इतना कुख्यात है कि वहाँ का होने के नाम पर पटना में किराए का मकान मिलना मुश्किल होता था. लेकिन मेरे पिता बेगूसराय की लंठई का जो चरित्र-चित्रण करते हैं, वह दिलचस्प है.

बेगूसराय की लंठई का चरित्र यह है कि अगर आप किसी बेगुसरैया के साथ तेवर दिखाएंगे तो वह आपसे दुगुना तेवर दिखाएगा और अगर आप सज्जनता से पेश आयेंगे तो वह सज्जनता की इन्तेहाँ कर देगा. मान लीजिये किसी सड़क के किनारे एक पान दूकान पर कोई पान लगवा रहा है और उसकी सायकिल आधी सड़क को छेंक कर खड़ी है. एक कार वाला उधर से गुज़रते हुए अटक जाता है और चिल्ला कर कहता है, ‘अरे, किसका सायकिल है, हटाओ बीच सड़क से!’ तो सौ फ़ीसद तय है कि सायकिल नहीं हटेगी. पान दूकान पर खड़ा युवक कहेगा, ‘सड़क तुम्हरे बाप है? दिखता नय है, पान खा रहे हैं?’ इसके बाद कार वाले को जो उखाड़ना हो, उखाड़ ले!

लेकिन अगर कार वाले ने कहा, ‘हो भाय जी, सायकिल तनी सरका लेते त गाड़ी निकल जाता,’ तो समझिये, काम फ़ौरन से पेशतर होगा. अगर सायकिल वाला पसीना पोंछ रहा है, तो तुरंत गमछी फेंककर आयेगा सायकिल हटाने और साथ में दो मीठे बोल भी बोलेगा, ‘एह:! लै न एक मिनट में (अरे,अरे, लीजिये न एक मिनट में हटा जाता है).’ दूसरों को भी झिड़केगा, ‘रे धीचोदा, बेंच सोझ कर न रे, गाड़ी केना निकलतय? (एक भारी गाली के साथ ‘बेंच सीधा करो ना, गाड़ी कैसे निकलेगी?)’

इसीलिये अभी पूरा बेगूसराय कन्हैया के लिए एकजुट है. वे भी जो मोदी के प्रेमी रहे है. उन्हें उन संघी वकीलों को मज़ा चखाना है जिन्होंने कोर्ट परिसर के भीतर पुलिस संरक्षण में जाते कन्हैया पर हमला किया. उन्हें उस दिल्ली पुलिस को मज़ा चखाना है जिसने झूठे मामले बनाकर उनके यहाँ से पढ़ने के लिए गए दिल्ली गए एक युवक को फँसाया.

सज्जनता से कहते कि लड़का देशद्रोही हो गया तो मान लेते, साथ में भारत माता की जय भी बोलते, पर लंठई करके कहोगे तो कौन बेगुसरैया बर्दाश्त करेगा?

गिरिराज सिंह इस बात को समझता है. इसीलिए, सुना है, हर जगह रो-गाकर वोट मांग रहा है. उसकी जो लंठई टीवी चैनलों पर दिखती रही है, उसका लेश भी उसके कैंपेन में नहीं है.

#बेगूसराय_को_जानिये 2
--------------------------------

(मुझे कन्हैया का प्रचारक बनने का कोई शौक नहीं, पर जो बात है सो तो हइए है!)

बेगूसराय को एक समय बिहार का मास्को कहा जाता था| कोई पूछे कि आज क्या हाल हैं, तो मेरा उत्तर होता है, ‘तब का बगूसराय तब का मास्को था, आज का बेगूसराय आज का मास्को है|’

सुनकर कभी कोई नहीं हंसा| पता नहीं, आपको हंसी आयी या नहीं!

बिहार के पहले मुख्यमंत्री बाबू श्रीकृष्ण सिंह बेगूसराय के जी डी कॉलेज को कम्युनिस्ट बनाने का कारख़ाना कहते थे और उस कॉलेज से उनकी नाराज़गी वैसी ही थी जैसी आज आरएसएस वालों की जनेवि से है| दिलचस्प है कि श्रीकृष्ण सिंह जाति से भूमिहार थे और बेगूसराय के कम्युनिस्ट आन्दोलन के नेतृत्व का बहुलांश भी इसी जाति में जन्मे नेताओं के हाथ में था| यह दिलचस्प इसलिए है कि जब लोग जाति के आधार पर वहाँ के कम्युनिस्ट आन्दोलन का विश्लेषण करते हैं, तब यह बात भूल जाते हैं कि उस आन्दोलन की लड़ाई जिन भूस्वामियों से थी, वे भी बड़ी संख्या में भूमिहार ही थे| बिना वर्गीय कोण के, सिर्फ जातिगत आंकड़ेबाज़ी के आधार पर आप उसे नहीं समझ सकते| विडंबना है कि हम लोग वर्ग और जाति की कोटियों का इस्तेमाल अक्सर आड़ के रूप में करते हैं; वर्गीय कोण को छुपाने के लिए जाति की आड़ और जातिगत कोण को छुपाने के लिए वर्ग की आड़| गांजा तस्कर कामदेव सिंह भी भूमिहार था और बेगूसराय में हर राजनीतिक दल ने कम्युनिस्टों को शिकस्त देने के लिए कामदेव सिंह का इस्तेमाल किया, कांग्रेसियों ने भी और सोशलिस्टों ने भी| जनसंघ तो वहाँ था ही नहीं| कामदेव सिंह बूथ लूटने से लेकर थोक कम्युनिस्ट वोटरों यानी शूद्रातिशूद्रों का बूथ पर न पहुंचना सुनिश्चित करने तक, हर तरह से इन राजनीतिक आकाओं की मदद करता था और बदले में ये लोग उसे कानून से सुरक्षा प्रदान करते थे| उसे ऐसी सुरक्षा प्रदान करने में जिस-जिस तरह की हस्तियाँ शामिल रही हैं, उनके नाम न ही लिए जाएँ तो बेहतर| उसे अपने ठिकाने पर पड़ने वाली हर दबिश की ख़बर पहले से होती थी| अगर कम्युनिस्ट सांसद सूर्यनारायण सिंह उसकी गिरफ्तारी की मांग को लेकर आमरण अनशन पर न बैठते और केन्द्रीय बल स्थानीय पुलिस को बिना पूर्व-सूचना दिए दबिश न करती तो कामदेव सिंह अपनी उम्र पूरी करके ही मरता| वह भी एक ही दयनीय आदमी था| गंगा के रास्ते कलकत्ता से आनेवाला माल गंगा घाट से अपनी पीठ पर ढोकर अपनी बैलगाड़ी पर लादना और उसे बाज़ार में गद्दियों पर पहुंचाना उसका काम था| यही करते-करते वह तस्करी के धंधे में लग गया| पहले नेपाल से गांजा और फिर हर तरह का सामान| अब ग़ैर-क़ानूनी धंधा करना है तो चुंगी-नाकों पर हर तरह के उपाय भी आज़माने होंगे| इस चक्कर में मर्डर भी करने पड़े| नेपाल से तस्करी का माल लाने के साथ-साथ परिष्कृत हथियार भी वह लाने लगा| इसने उसे हर मुकाबले में आगे रहने की काबिलियत दी, जैसे घोड़ों ने आर्यों को दी थी, और उसके इन गुणों ने कम्युनिस्ट विरोधियों को पर्याप्त आकर्षित किया| अनपढ़ आदमी था| हर नेता उसके पास पहुँच कर समझा देता कि जीतकर आते ही तुम्हारे ऊपर लगे सारे केस वापस करवा देंगे, मेरी मदद करो| बस, कामदेव सिंह मदद में जुट जाता| उसे पता नहीं था कि केस, और वो भी मर्डर केस, वापस करवाना आकाश कुसुम लाने जैसा है| नेता बेवकूफ बनाते रहे, वह बनता रहा| एक टिपिकल लुम्पेन सर्वहारा| अलबत्ता, जब वह नेताओं के काम आ रहा था, उस समय वह कहीं से सर्वहारा नहीं था| उसके कई पेट्रोल पम्प थे और काली कमाई से इकट्ठा की हुई अकूत दौलत थी, जिसे भोगने की निश्चिंतता उसकी ज़िंदगी में बिलकुल नहीं थी और जिसे उसकी मृत्यु के बाद भोगने वाला कोई वारिस नहीं था, क्योंकि उसके बेटे ने इस संपत्ति को हाथ लगाने से भी इनकार कर दिया| कहते हैं, कामदेव सिंह के बेटे के रूप में परिचय दिया जाना उसे सख्त नापसंद था/है| उसने बाप से जुड़े अपने पूरे अतीत को लात मार दी और एक साधारण, गुमनाम, मध्यवर्गीय जीवन का वरण किया|

जो राजनेता कम्युनिस्टों के ख़िलाफ़ कामदेव सिंह का इस्तेमाल करते थे, वे भी बड़ी संख्या में भूमिहार थे| उन्होंने ही उभरते हुए कम्युनिस्ट युवकों की हत्या की सुपारी देनी शुरू की| कम्युनिस्ट भी जवाबी खूनी संघर्ष में उतरे| यह 70 और 80 के दशक का क़िस्सा है| कम्युनिस्टों ने गलती यह कर दी कि मार्क्सवाद में दीक्षित अपने काडर को हथियारबंद करने के बजाये अक्सर गुंडों को काडर बनाने का काम किया| शासक वर्ग दुर्निवार रूप से तुम्हें हिंसा में खींच लेगा, इस बात को सिद्धांत रूप में दुहराने वाले कम्युनिस्टों के पास उस शासक वर्गीय हिंसा से निपटने की तैयारी न थी| नतीजा? रेडीमेड उपाय| जो पहले से हथियारबंद है, उसे अपने झंडे के नीचे ले आओ| जिन गुंडों को दूसरे दलों का वरदहस्त मिला हुआ था, उनके विरोधी गुंडों को कम्युनिस्टों ने अपने साथ ले लिया और हिंसा-प्रतिहिंसा का सिलसिला चल पड़ा जिसमें कम्युनिस्टों की ओर से भी ऐसी वारदातें हुईं जिनका कोई औचित्य बताने की स्थिति में वे नहीं थे| मारने गए एक हत्यारे और अपने राजनीतिक दुश्मन को, नहीं मिला तो मार आये उसके निरीह हरिकीर्तनिया पिता को—ऐसी घटनाएं सामने आने लगीं| इस तरह शासक वर्गीय चाल कामयाब हुई| वे चाहते थे कि कम्युनिस्ट अपने मुद्दों से हटकर जान लेने और जान बचाने की व्यस्तताओं में गर्क़ हो जाएँ| वही हुआ और आधार कमज़ोर पड़ता गया| पुराने प्रतिबद्ध कार्यकर्ता निष्क्रिय होते गए| डॉ. पी. गुप्ता जैसी बेमिसाल शख्सियत को बेगूसराय छोड़कर पटना स्थानांतरित होना पड़ा| डॉ. गुप्ता सीपीआई के ज़बरदस्त कार्यकर्ता और बड़े ही लोकप्रिय डॉक्टर थे| दो रुपये फीस लेते थे और जिस समय बड़े डॉक्टर लोग 100-150 लेने लगे थे, उस समय भी उनकी फीस दो रुपये ही थी (पटना आने के बाद वे दस रुपये लेने लगे)| गरीब लोग उन्हें मसीहा मानते थे| ऐसे आदमी को जान के डर से बेगूसराय छोड़ना पड़ा, इसी से समझा जा सकता है कि हालत कैसे हो गए थे| ठीक-ठीक कौन-सा समय था जब वे पटना शिफ्ट हो गए, यह मेरी जानकारी में नहीं है, पर शायद वह लेट 80s या शरुआती 90s की बात है|

संसदीय राजनीति में कम्युनिस्ट को चित्त करने का नायाब उपाय है, उसे उसके मुद्दों पर फोकस न करने देना| वह मुद्दों पर ही अपना जनाधार निर्मित करता है, जाति और समुदाय के नाम पर नहीं करता| उसे उसके मुद्दों से खिसका कर किसी और झमेले में डाल दो और अपने पक्ष में लामबंदी के उन पारंपरिक आधारों का दोहन करो जिनका दोहन करने में कोई एड़ी-चोटी का जोर नहीं लगाना पड़ता; तुम किस जाति या समुदाय में पैदा हुए हो, यही काफ़ी होता है| बेगूसराय में इस उपाय ने अपना काम कर दिखाया|

पर आधार ख़त्म नहीं हुआ| यह सोचने की बात है कि जब उसी बेगूसराय में वोटरों के बीच तीखा ध्रुवीकरण हुआ, भूमिहार और अन्य सवर्ण बड़े पैमाने पर भाजपा के वोटर हो गए और पिछड़ा वर्ग तथा मुसलमान बड़े पैमाने पर राजद के वोटर हो गए, तो वे डेढ़ लाख लोग कौन थे जिन्होंने पिछले संसदीय चुनाव में तीसरे नंबर पर रहने वाले सीपीआई के उम्मीदवार को वोट दिया?  जाति-धर्म से परे लाल झंडे की ओर देखने वाला यह एक बड़ा तबका है जो सामान्यतः हताश रहा है|

कन्हैया की उम्मीदवारी ने इस बड़े वामी तबके में जान फूंक दी है| जनेवि प्रकरण के समय वह हिस्सा करवट लेकर उठ बैठा था| अब वह बाहर आकर ललकार रहा है| वह सिर्फ वोट देने के दिन निकलता तो कुल गिनती डेढ़ लाख पार न कर पाती| लेकिन पहले से उसके निकल पड़ने का मतलब है कि अब गिनती कोई भी हद पार कर सकती है|

तो इसी नाम पर आइसेन्स्टाइन के इन तीन शेरों से मिलिए| पहले वाले को  5 साल पहले का समझिये, दूसरे वाले को 2016 के घटनाक्रम के बाद का, और तीसरे को आज का|

#बेगूसराय_को_जानिये 3

पिता संस्मरणों की खान हैं| उनका पेन नेम ‘संस्मरण खान’ हो सकता है| उनसे बेगूसराय की कहानियां सुनते हुए उस शहर के गुज़रे दौर की तस्वीरें उधेड़ता बुनता रहता हूँ| डॉ. पी. गुप्ता के बारे में, जिनका ज़िक्र पिछली पोस्ट में था, मैंने उनसे ही सुना| उनके पटना आने का किस्सा उस पोस्ट में आधा-अधूरा था| अब पूरा किये देता हूँ|  

छोटे शहरों में सच्चे कम्युनिस्ट की यह पहचान होती थी कि आप उनका पता साथ में लिए बगैर उस शहर में पहुँच जाएँ, कोई-न-कोई कुली, मज़दूर, रिक्शेवाला आपको उनके घर पहुंचा देगा| बेगूसराय में डॉ. पी. गुप्ता ऐसी ही शख्सियत थे| बेगूसराय के ग़रीब-गुरबा उन्हीं से इलाज कराते थे| दो रुपये फीस थी जिसमें सालों-साल कोई बढ़त नहीं हुई| और यह फीस देना भी अनिवार्य नहीं था| जेब में फूटी कौड़ी न हो, तब भी डॉ. गुप्ता से आप इलाज करवा सकते थे| और इलाज अव्वल दर्जे का|

बेगूसराय में खून-ख़राबे की शुरुआत के बाद उनकी जान पर गंभीर ख़तरा बन आया| उनकी लोकप्रियता कम्युनिस्ट पार्टी के लिए जितनी फ़ायदेमंद थी, प्रतिद्वंद्वियों के लिए उतनी ही नुकसानदेह| अंततः उन्हें (संभवतः) अस्सी के दशक के आख़िर में पटना स्थानांतरित होना पड़ा| बेगूसराय में रहते तो किसी भी दिन मारे जा सकते थे|

वैसे पटना बेगूसराय से मात्र 120 किलोमीटर दूर है| मोटरसायकिल रिंगाते-हन्हनाते आप आराम से ढाई घंटे में पहुँच सकते हैं| कोई जान से मारना ही चाहे तो पटना तक पहुँचने में क्या लगता! उसी पटना में बेगूसराय के कॉमरेड जोगी को अजय भवन के बाहर चाय दुकान पर गोली मार दी गयी| बेगूसराय में विरोधी पार्टी के गुंडों से हथियारबंद मुकाबला करने की ज़िम्मेदारी कॉमरेड जोगी के हाथ में थी| जी डी कॉलेज से निकला एक प्रखर छात्र-नेता, जिसने बाकायदा मार्क्सवाद आदि का अध्ययन करने के बाद पार्टी की हिफ़ाज़त के लिए हथियार थामा था| हाँ, उसने जल्दी में ऐसे तमंचेबाजों से अपनी सेना बनाने की गलती ज़रूर की जिन्हें भाड़े के शूटर और एक कम्युनिस्ट लड़ाके का फ़र्क पता नहीं था, जो वर्ग-संघर्ष का ‘व’ भी नहीं जानते थे| जब कामरेड जोगी अपनी तैयारी के साथ पार्टी की हिफ़ाज़त के संग्राम में उतर पड़े, तब उन्हें शायद महसूस हुआ कि यह एक अंधी गली है| सुनते हैं, एक बार किसी ने कहा कि जोगी, बहुत हो गया, अब लौट आओ| जोगी बोले, इस लड़ाई से तो अब लाश ही निकलेगी| इसमें घुसने का रास्ता तो था, वापस आने का नहीं है| आख़िरकार, उनकी लाश ही निकली| पार्टी के राज्य मुख्यालय पटना गए हुए थे, अजय भवन के ठीक बाहर नुक्कड़ पर मार गिराए गए| 

तो फिर उसी पटना में डॉ. पी. गुप्ता को सुरक्षा का आश्वासन क्यों था?

असल में, डॉ. गुप्ता का मामला जोगी से अलग था| उनकी जान को ख़तरा किसी गैंगवारनुमा लड़ाई के कारण नहीं, अपनी लोकप्रियता के कारण था| बड़ी संख्या में मेहनतकश लोग उनके मरीज़ बनकर कम्युनिस्ट पार्टी के करीब आते थे| उन्हें रास्ते से हटाने की ज़रूरत इसलिए थी| ज़ाहिर है, उनका बेगूसराय से हट जाना ही प्रतिद्वंद्वियों के लिए काफ़ी था| उन्हें खा-म-खा मारकर क्या मिलता!  

खैर, जब उन्हें पटना आए कुछ समय गुज़र चुका था तब, जैसा कि एक सच्चे कम्युनिस्ट के साथ होना चाहिए, उनके पटना में होने की जानकारी मेरे पिता को हमारे घर में काम करनेवाली मोनी माई (यानी मोनी की माँ) से मिली| उन्होंने बताया कि बहुत बढ़िया डॉक्टर आये हैं, दस रुपया लेते हैं (तब पटना के अच्छे डॉक्टर्स 100-150 लेते थे), दवाई भी एकदम सस्ती लिखते हैं, और इलाज पक्का| पिता ने नाम पूछा, तो पता चला डॉ. पी. गुप्ता| उनके पुराने कामरेड| दोनों ने सालों कम्युनिस्ट पार्टी में साथ काम किया था| गहरी छनती थी| साथ-साथ एक स्कूल खोलने का प्रयोग भी कर चुके थे| उन दिनों उनके बीच एक निजी मुहावरा हुआ करता था, ‘ग्राउंडिल घींच (खींच) लेना’| कचहरी के चक्कर लगाने वाले एक साथी ने किसी वकील की बड़ाई करते हुए बहुत जादुई अंदाज़ में हाथ आगे निकाल कर पीछे खींचते हुए कहा था, ‘ऊ तो सीधा दूसरे वकील के बात में से ग्राउंडिल ही घींच लिया’| वहीं से यह मुहावरा पकड़ में आया था|

अब 20 साल से ऊपर हो चले थे मेरे पिता को पार्टी छोड़े| और बेगूसराय छोड़े तो और भी ज़्यादा| इस बीच डॉ. गुप्ता से मुलाक़ात नहीं हुई थी|

मिलने पहुंचे| कमरे में घुसे और डॉ. गुप्ता की परिचय-प्रदर्शन से रिक्त, स्थिर निगाह का सामना करते हुए पूछा, ‘डॉक्टर साहब, पहचाने?’

‘आइये, बैठिये| हम तो,’ डॉक्टर साहब ने हाथ आगे निकाला और एक बार गोल घुमाकर पीछे खींचते हुए कहा, ‘एक नज़र में सीधा ग्राउंडिल ही घींच लिए|’

दिल्ली में रहते हुए मैंने कई बार योजना बनाई कि पटना जाकर डॉ. पी. गुप्ता से मिलूँगा और बेगूसराय की कहानी सुनूँगा; शायद बेगूसराय के लाल दौर का ग्राउंडिल घींच पाऊँ| पटना से मेरे परिवार का डेरा-डंडा उठ चुका था और डॉ. गुप्ता का कोई संपर्क नंबर पास में न था, लेकिन यह पता था कि आद्री (एक शोध-संस्थान) के निदेशक शैवाल गुप्ता उनके बेटे हैं| सोचा था, शैवाल जी के माध्यम से मिलना हो ही जाएगा| लगभग डेढ़ साल पहले आद्री की ओर से एक सेमीनार में पेपर प्रेजेंट करने का न्योता भी मिला, पर विषय के मिज़ाज को देखते हुए मुझे लगा नहीं कि न्याय कर पाऊंगा, इसलिए अपनी स्वीकृति नहीं भेजी| तो मिलने का मामला टलता ही गया|

अब मैं नहीं जानता कि कितनी देर हो चुकी है| यह तो पता चला था कि वे पार्किन्संस के शिकार हो गए हैं| ईश्वर (?!) करे, बहुत ज़्यादा देर न हुई हो!

(संजीव कुमार देशबंधु कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)
फेसबुक से साभार

No comments:

Post a Comment

Featured post

कथाचोर का इकबालिया बयान: अखिलेश सिंह

कथाचोर का इकबालिया बयान _________ कहानियों की चोरी पकड़ी जाने पर लेखिका ने सार्वजनिक अपील की :  जब मैं कहानियां चुराती थी तो मैं अवसाद में थ...