बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का
अभी हाल में आलोचक-मित्र आशुतोष कुमार ने यह दावा किया था कि "आज की हिंदी की समूची पीढ़ी नामवर सिंह के कुर्ते की जेब से निकली है"।(नवभारतटाइम्स, 21 फरवरी, 2019) अपनी इस मान्यता को उन्होंने अन्यत्र भी एकाधिक बार दुहराया। असल मे यह वक्तव्य महान रूसी कथाकार तुर्गनेव की एक अभिव्यक्ति से प्रेरित है। तुर्गनेव ने कभी कहा था कि 'हमारी पीढ़ी गोगोल के ओवरकोट से निकली है'। संदर्भ गोगोल की प्रसिद्ध कहानी "ओवरकोट" का था, जिसका परवर्ती पीढ़ियों पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा था। इस कथन में गोगोल की कहानी के नाम का उपयोग संश्लिष्ट अर्थ में हुआ है, इसलिए रूपक बन जाता है, और बात सार्थक हो जाती है। लेकिन आशुतोष कुमार के वक्तव्य में इसका अभाव है। अगर कोई कहे कि 'हिंदी की आधुनिक कहानीकारों की पीढ़ियाँ प्रेमचंद के क़फ़न से निकली हैं', और दूसरा कहे कि 'वे उनकी बंडी की जेब से निकली हैं', तो दोनों की बात में जो अंतर होगा, कमोबेश वही अंतर इन दोनो वक्तव्यों में है।
बहरहाल, इस प्रसंग में लेखक ने नामवर सिंह की आलोचना के बारे में और क्या कहा है, देखें: "उनकी आलोचना-दृष्टि को समझने के लिए ज्ञानोदय में प्रकाशित उनके प्रसिद्ध लेख 'नंगी और बेलौस आवाज़' को पढ़ने की ज़रूरत है। भारत-चीन युद्ध के समय राष्ट्रवाद का ज्वार उमड़ पड़ा था। बड़े-बड़े प्रगतिशील कवि भी भावनाओं के उस ज्वार में
बहरहाल, इस प्रसंग में लेखक ने नामवर सिंह की आलोचना के बारे में और क्या कहा है, देखें: "उनकी आलोचना-दृष्टि को समझने के लिए ज्ञानोदय में प्रकाशित उनके प्रसिद्ध लेख 'नंगी और बेलौस आवाज़' को पढ़ने की ज़रूरत है। भारत-चीन युद्ध के समय राष्ट्रवाद का ज्वार उमड़ पड़ा था। बड़े-बड़े प्रगतिशील कवि भी भावनाओं के उस ज्वार में
कृष्ण मोहन |
"आलोचना"60 में भी आशुतोष कुमार ने लिखा कि "नामवर सिंह में यह साहस था कि एक अज्ञात कवि धूमिल की कविता को अपने प्रिय शमशेर जैसे स्थापित कवि की कविता से बड़ी बता सकें और उसे रातोरात हिंदी का सितारा बना दें।"
नामवर सिंह के लेख 'नंगी और बेलौस आवाज़' का शमशेर की कविता से सम्बंधित अंश देखें: " 'बात बोलेगी हम नहीं' के कवि शमशेर से पहले ही से कौन आश्वस्त न होगा कि वे शोर मचाने वालों में नहीं हो सकते! 'मौन' का कवि और शोर! आकर्षण स्वाभाविक है। कविता में भी 'सत्य' और 'सच्चाई' (कवि का प्रिय शब्द) एक बार नहीं अनेक बार। इतने पर भी कोई कमी दिखे तो कविता का अंत देखिए, सत्यमेव जयते, सत्यमेव जयते,सत्यमेव जयते का तीन बार उद्घोष! नाटकीयता की पराकाष्ठा, भाषण कला का उच्चतम आदर्श! लेकिन कविता के अंदर 'तुम मूर्ख हो', 'धन्यवाद पशु', 'आवारा प्रेत', 'मार्क्स को जला दो', 'लेनिन को उड़ा दो' वगैरह-वगैरह। इस प्रकार कवि कुछ कहता है, कविता कुछ! पाठक किसका विश्वास करे? कहते हैं, थोथा चना बाजे घना! कवि को स्वयं बोलना पड़े तो समझिए कि कविता की वाणी को पक्षाघात है! यह कैसा 'रेटरिक' कि भाषा शब्द से अपशब्द के स्तर तक स्खलित हो गई। 'सत्यमेव जयते' की पुष्टि तो बाद में होगी यहाँ तो 'काव्यमेव जयते' में ही सन्देह है!"
इस टिप्पणी की तेरह पंक्तियों में से आठ के अंत में आया विस्मयबोधक चिह्न यह बताता है कि इसका लेखक किसी वजह से अपनी बात पर अतिरिक्त जोर देना चाहता है, लेकिन पूरी कोशिश करके भी संतुष्ट नहीं है। वह पाठकों को अपनी "खोज" से विस्मित कर देना चाहता है, जिसके लिए ख़ुद विस्मित होने का अभिनय किए जा रहा है। अपनी बात के खोखलेपन का एहसास होने पर ऐसी ही हास्यास्पद हरकत हो जाती है। न केवल इस अंश में बल्कि पूरे लेख में ही नामवर सिंह ने इसी तरह मुद्राओं और भंगिमाओं से काम चलाया है। इस संदर्भ में शमशेर की कविता पर आने से पहले कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह की एक कविता "विषयांतर" को उद्धृत करके वे उस पर जो टिप्पणी करते हैं, उसे देखते चलें:
"बिना किसी हिचक के कह सकता हूँ कि चीनी हमले पर अभी तक जितनी कविताएँ सामने आई हैं उनमें यह सर्वोत्तम है। यदि इसमें कोई कमजोरी है तो हिंदी कविता के वर्तमान समय या 'कन्वेंशन' की, जैसे प्रतीक-पद्धति। परन्तु प्रतीक-बोध से मुक्त होकर भी एक 'विषयांतर' के रूप में कविता का स्वाद लिया जा सकता है----ख़ास तौर से 'हवा का रुख और मौसम का रंग बदल गया' के आगे। कहने की आवश्यकता नहीं कि कविता के सम्पूर्ण भाव या अर्थ को ग्रहण करने के लिए बराबर 'विषयांतर' के सन्दर्भ को ध्यान में रखना होगा। कहाँ अन्य कवियों का भावावेश और कहाँ इस कविता का परिपक्व स्वर: 'यह कुछ नहीं था जो हुआ!' पूरी कविता के लय-विन्यास में स्वर की यह परिपक्वता व्याप्त है। चीनी आक्रमण से स्थिति में जो परिवर्तन आया, उसके बारे में जहाँ दूसरे लोग कयामत की तुरही बजा रहे थे वहाँ मद्धिम स्वर कुमारेन्द्र केवल इतना कहते हैं: 'चाँदनी के धरती पर पड़ने में फ़र्क़ ज़रा पड़ गया' और 'कणिका का ताप सहसा कुछ बढ़ गया!' कौन कह सकता है कि इस 'अंडरस्टेटमेंट' में तार-स्वर से कम शक्ति है---शक्ति और समझ! शीर्षक इसका 'सत्यमेव जयते' भले न हो किन्तु यहाँ सत्य की जीत होती है, वास्तविकता कविता के कथ्य का समर्थन ही नहीं करती, बल्कि इस काव्य-सत्य को पुनः प्राप्त करके हमारी दृष्टि में कहीं अधिक निखर उठती है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सत्य का ढोल न पीटते हुए भी कवियों की नई पीढ़ी आज सत्य के कथन में अधिक समर्थ है। जितनी सीधी-सादी यह भाषा है, उतनी ही सीधी-सादी दृष्टि। इसके मूल में निश्चय ही एक निर्भीक नैतिकता अथवा नैतिक साहस है।"
यही नामवर सिंह की आलोचना की शैली है। कविता की पद्धति की आलोचना कर दी, लेकिन उसके आशयों के बारे में एक शब्द नहीं कहा। कविता की पंक्ति को उद्धृत करके उसे 'परिपक्व स्वर' का उदाहरण बताया और फिर किसी विलक्षण तरकीब से 'पूरी कविता के लय-विन्यास' में उसे व्याप्त बता दिया। लेकिन यह पता नहीं चल पाया कि 'यह कुछ नहीं था जो हुआ' में परिपक्व क्या है, अर्थ, स्वर, या लय। 'हवा का रुख और मौसम का रंग' क्या था जो 'बदल गया'? 'जो हुआ' वो क्या था, और क्या नहीं था? 'चाँदनी के धरती पर पड़ने' का क्या अभिप्राय है, और वह 'ज़रा-सा फ़र्क़' क्या है, जो 'पड़ गया? 'कणिका का ताप' क्या है जो 'सहसा कुछ बढ़ गया'? कौन सी 'वास्तविकता' किस 'कथ्य' का समर्थन करती है और फिर किस 'काव्य-सत्य' को पुनः प्राप्त करके निखर उठती है, कुछ पता नहीं चलता। और तो और , आलोचक महोदय ने कविता के शीर्षक का भी दो बार इस्तेमाल किया, लेकिन एक बार भी यह पता नहीं लगने दिया कि उनकी नज़र में यह कैसा विषयांतर है, किस विषय से किस दूसरे विषय मे प्रवेश कर रहे हैं। कविता की अपनी व्याख्या हम सभी कर सकते हैं, लेकिन आलोचक जब कविता के नाम पर बड़ी-बड़ी बातें बना रहा हो तो उससे यह न्यूनतम उम्मीद की जाती है कि उसकी बात जिन पंक्तियों पर आधारित है, उसका अर्थ उसने क्या समझा, इसे ज़रूर बताए। "प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो" की यह शैली, दरअसल, नामवर सिंह की प्रतिनिधि शैली है।
बहरहाल, हमें देखना चाहिए कि शमशेर की कविता में ऐसा क्या है जो नामवर सिंह के मुताबिक इस क़दर आपत्तिजनक है। नामवर सिंह ने कविता से जो कुछ शब्द और वाक्य उद्धृत किए हैं, जिनमें अतिरिक्त भावावेश की कल्पना करते हुए उन्होंने उन्हें अपशब्द मान लिया है, उनमें 'मार्क्स को जला दो', 'लेनिन को उड़ा दो' जैसे वाक्यों पर ही यह शक किया जा सकता है। बाक़ी, 'मूर्ख', 'पशु' या 'आवारा प्रेत' कहने में कठोर निर्णय का संकेत भले ही मिलता है, अविचारित अभिव्यक्ति का नहीं। इसलिए हम यहाँ इन्हीं वाक्यों पर विचार करेंगे ताकि नामवर सिंह की आलोचकीय क्षमताओं का कुछ और परिचय प्राप्त कर सकें। कविता का वह अंश देख लें जिसमें ये पंक्तियाँ आई हैं:
"क्या बुद्ध का नाम हिमालय के पार भी
लोग लेते हैं?
अगर तोपों के मुँह में ज़बान है
सच्चाई की,
और बम्बार ही भाई-भाई को पहचानेंगे;
तो
तो---मार्क्स को जला दो! लेनिन को उड़ा दो!
माओ के क्यून-ल्यून को
प्रशांत महासागर में डुबा दो!
लोग लेते हैं?
अगर तोपों के मुँह में ज़बान है
सच्चाई की,
और बम्बार ही भाई-भाई को पहचानेंगे;
तो
तो---मार्क्स को जला दो! लेनिन को उड़ा दो!
माओ के क्यून-ल्यून को
प्रशांत महासागर में डुबा दो!
हिमालय पहाड़ कोई चीन की दीवार तो नहीं
जिसे लाँघ जाओ!"
जिसे लाँघ जाओ!"
साहित्य का कोई सामान्य विद्यार्थी भी देख सकता है कि नामवर सिंह ने मार्क्स-लेनिन से सम्बंधित पंक्तियों को इस तरह से प्रस्तुत किया है मानो साम्यवादी चीन पर क्रोधावेश के कारण शमशेर मार्क्स और लेनिन को आग में जलाने या बम से उड़ाने का आह्वान कर रहे हों। किसी समय कम्यून में रहने वाले और अपनी मार्क्सवादी प्रतिबद्धता को प्रकट करने में कभी न हिचकने वाले कवि शमशेर पर उनका यह आरोप कितना घातक रहा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। बहरहाल, अगर सचमुच कोई कवि किसी को "जलाने या उड़ाने" का आह्वान करे तो उस पर अवश्य आपत्ति की जा सकती है। सवाल है, क्या शमशेर वही कह रहे हैं, जो नामवर सिंह हमें इशारों-इशारों में बताना चाहते हैं।
बुद्ध का नाम हिमालय के पार न केवल लिया जाता है, स्वयं चीन में भी कन्फ्यूशियस के बाद वे सम्भवतः सर्वाधिक सम्मानित विचारक हैं। भारत और चीन के बीच प्राचीन काल से स्थापित सांस्कृतिक रिश्ते की यह एक सामान्य अभिव्यक्ति है। बुद्ध के साथ अहिंसा का सिद्धांत भी अनिवार्यतः जुड़ा हुआ है। ऊपर उद्धृत अंतिम पंक्ति से स्पष्ट है कि यह कथन चीनियों के प्रति है, भारतीयों के प्रति नहीं। चीनियों से बाक़ायदा मुख़ातिब होकर कवि उनसे तोपों और बमवर्षक विमानों की बाबत सवाल करता है----अगर वे इन्हीं के माध्यम से इंसानी रिश्तों और सचाई के तक़ाज़ों को समझते हैं तो उन्हें अपने मार्गदर्शक आधुनिक विचारकों मार्क्स और लेनिन को भी मटियामेट कर देना चाहिए, क्योंकि व्यवहार में वो ऐसा पहले ही कर चुके हैं। बुद्ध को तो उन्होंने पहले ही त्याग दिया है।
कहना अनावश्यक है कि शमशेर की इस कविता में अंधराष्ट्रवाद जैसा कुछ भी नहीं था। अगर कुछ था तो छले जाने का एहसास था। जिस मित्रता से बहुत उम्मीद थी, उसके टूटने से पैदा हुई हताशा और आक्रोश, जिसकी अभिव्यक्ति तीखी वैचारिक बहस के साथ आरोप-प्रत्यारोप में हो रही थी। लेकिन किसी को गिराने और किसी को उठाने के अभियान पर निकले आलोचक को यह सब देखने की न तो फ़ुर्सत थी, न ज़रूरत।
बहरहाल, शमशेर की इस कविता के मुकाबले नामवर सिंह ने धूमिल की जिन कविता-पंक्तियों को श्रेयस्कर माना था, उन्हें उन्होंने "स्वयं कवि के मुँह से सुनी" थी:
"मुझमें सारे समूह का भय
चीख़ता है
दिग्विजय! दिग्विजय!!"
चीख़ता है
दिग्विजय! दिग्विजय!!"
इन पंक्तियों पर नामवर सिंह की टिप्पणी भी देख लें, जो बिना कुछ कहे बहुत कुछ कहता हुआ दिखने की उनकी शैली के अनुरूप ही है:
"भय चीख़ता है दिग्विजय! भय और दिग्विजय। क्या इस विडम्बना में कोई वास्तविकता नहीं है? इन तीन पंक्तियों में जितनी बड़ी विडम्बना को व्यक्त कर दिया गया है वह लम्बे-लम्बे दर्जनों वीर-गीतों से कहीं अधिक काव्यात्मक है और उससे भी अधिक काव्यात्मक है नई पीढ़ी के एक दूसरे कवि श्री कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह की इसी विषय से सम्बद्ध कविता 'विषयान्तर'..."
नामवर सिंह ने "कविता की वाणी को पक्षाघात" का ज़िक्र किया था, जिसकी असलियत हम देख चुके हैं। लेकिन उनकी आलोचना की भाषा यहाँ पक्षाघात की वास्तविक शिकार मालूम पड़ती है। किसी भी वाक्य में वास्तविकता का कोई न कोई पहलू अवश्य होता है, इसलिए उनका पहला प्रश्न तब तक निरर्थक है जब तक वे उस वाक्य में किस वास्तविकता के दर्शन कर रहे हैं, नहीं बताते।'विडम्बना' है लेकिन उसकी वस्तुगतता के नाम पर केवल उसके आकार का पता चलता है, यानी वह 'बड़ी' है। बड़ी होते होते वह अचानक 'काव्यात्मक' होने लगती है और इतनी 'काव्यात्मक' हो जाती है कि 'दर्जनों वीर-गीत' पीछे छूट जाते हैं। तभी अचानक एक उससे भी 'अधिक काव्यात्मक' कविता आ जाती है, जिसके बारे में उनके विचारों से हम पहले ही परिचित हो चुके हैं। यही है नामवर सिंह की बहुश्रुत आलोचना का सच। रचना का सामना होने पर वे उस डॉक्टर की तरह व्यवहार करते हैं जिसे चिकित्सा-शास्त्र का ज्ञान तो है, लेकिन मरीज़ की नब्ज़ देखना नहीं आता, और जब वह मर्ज़ की पहचान नहीं कर पाता तो दवाई छोड़कर ओझाई करना शुरू कर देता है।
बहरहाल, धूमिल की ऊपर दी हुई पंक्तियों पर विचार करें तो पता चलता है कि 'दिग्विजय' के आग्रह का औचित्य 'समूह के भय' की प्रकृति पर टिका हुआ है। अगर भय का कारण कवि की दृष्टि में वास्तविक है, तो दिग्विजय का आग्रह भी अनुचित न होगा। इन पंक्तियों से इस विषय में कोई स्पष्ट सूचना नहीं मिलती, लेकिन अगर पूरा समूह भयभीत है तो सम्भावना इसी बात की अधिक है कि भय का कोई न कोई ठोस कारण है। धूमिल का इस विषय में और क्या सोचना था, इसका पता उनकी एक अन्य कविता 'पटकथा' से चलता है। कुछ पंक्तियाँ देखें:
"मैंने देखा कि मैदानों में
नदियों की जगह
मरे हुए साँपों की केंचुलें बिछी हैं
पेड़---
टूटे हुए रडार की तरह खड़े हैं
दूर-दूर तक
कोई मौसम नहीं है
लोग---
घरों के भीतर नंगे हो गये हैं
और बाहर मुर्दे पड़े हैं
विधवाएँ तमगा लूट रही हैं
सधवाएँ मंगल गा रही हैं
वन महोत्सव से लौटी हुई कार्यप्रणालियाँ
अकाल का लंगर चला रही हैं
जगह-जगह तख़्तियाँ लटक रही हैं---
'यह श्मशान है, यहाँ की तस्वीर लेना मना है'।"
नदियों की जगह
मरे हुए साँपों की केंचुलें बिछी हैं
पेड़---
टूटे हुए रडार की तरह खड़े हैं
दूर-दूर तक
कोई मौसम नहीं है
लोग---
घरों के भीतर नंगे हो गये हैं
और बाहर मुर्दे पड़े हैं
विधवाएँ तमगा लूट रही हैं
सधवाएँ मंगल गा रही हैं
वन महोत्सव से लौटी हुई कार्यप्रणालियाँ
अकाल का लंगर चला रही हैं
जगह-जगह तख़्तियाँ लटक रही हैं---
'यह श्मशान है, यहाँ की तस्वीर लेना मना है'।"
फ़िलहाल, 'विधवाएँ तमगा लूट रही हैं' जैसी उक्तियों में निहित भावभूमि को किसी अन्य मौक़े पर विचार के लिए छोड़कर हम यहाँ इन पंक्तियों में व्याप्त देश की दुर्दशा के चित्र पर ध्यान केंद्रित करते हैं। 'समूह का भय' इसी परिस्थिति की देन है, क्योंकि दोनों का सन्दर्भ भारत-चीन युद्ध है, जिसका पता कुछ ही पंक्तियों बाद के अंश से चलता है:
"मैंने अचरज से देखा कि दुनिया का
सबसे बड़ा बौद्ध-मठ
बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है
अखबार के मटमैले हाशिये पर
लेटे हुए, एक तटस्थ और कोढ़ी देवता का
शांतिवाद, नाम है"
सबसे बड़ा बौद्ध-मठ
बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है
अखबार के मटमैले हाशिये पर
लेटे हुए, एक तटस्थ और कोढ़ी देवता का
शांतिवाद, नाम है"
बुद्ध की ओर संकेत, चीन के संदर्भ में, शमशेर ने भी किया था, लेकिन पंचशील, शांति और अहिंसा जैसी अवधारणाओं का प्रेरक होने के कारण धूमिल को वे "कोढ़ी देवता" मालूम पड़ते हैं। पहचान के लिए 'लेटे हुए' कहकर वे उनके अंतिम समय की कुशीनगर स्थित लेटी हुई मुद्रा को भी याद करते हैं। बौद्ध मठ को 'बारूद का गोदाम' बताकर उन्होंने अपने आशय को और स्पष्ट किया है। कविता में इससे पहले तत्कालीन भारतीय नेतृत्व की छवि का अंकन करते हुए उन्होंने अपने ख़ास अंदाज़ में 'पंचशील' के सिद्धांत को ख़ारिज़ किया था:
"मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे
उसी लोकनायक को
बार-बार चुनता रहा
जिसके पास हर शंका और
हर सवाल का
एक ही जवाब था
यानी कि कोट के बटन-होल में
महकता हुआ एक फूल
गुलाब का।
वह हमें विश्वशांति और पंचशील के सूत्र
समझाता रहा।"
उसी लोकनायक को
बार-बार चुनता रहा
जिसके पास हर शंका और
हर सवाल का
एक ही जवाब था
यानी कि कोट के बटन-होल में
महकता हुआ एक फूल
गुलाब का।
वह हमें विश्वशांति और पंचशील के सूत्र
समझाता रहा।"
कहने की ज़रूरत नहीं कि धूमिल का विचार यहाँ अंधराष्ट्रवाद से आगे बढ़कर धर्म-आधारित वैमनस्य की हद को छू रहा है। यही उनकी सुसंगत वैचारिक स्थिति थी। शायद इसी वजह से '63 में उनसे सुनी कुछ पंक्तियों के आधार पर उन्हें अग्रणी कवि के रूप में प्रस्तुत कर चुके नामवर सिंह की देखरेख में जब उनका पहला संग्रह 'संसद से सड़क तक' '72 में छपा (भारत यायावर, 'नामवर होने का अर्थ', पेज 375) तो उसमें यह कविता नहीं थी। नामवर सिंह इसकी जो व्याख्या कर चुके थे, 'पटकथा' के साथ छपने पर उसकी निरर्थकता उजागर हो जाती।
एक बात और। एक जमाना था जब किसी को 'रातोरात सितारा' बनाने का कारनामा उपेक्षा के योग्य समझा जाता था। अब शायद इसे साहसिकता की मिसाल माना जाता है। दुनिया परिवर्तनशील है। लेकिन हर बदलाव के बावजूद कुछ चीज़ें कभी नहीं बदलतीं। जोश मलीहाबादी ने ऐसी ही किसी स्थिति पर क्या ख़ूब चुटकी ली है:
"बेहोश होके जल्द तुझे होश आ गया
मैं बदनसीब होश में आया नहीं हनोज़"
मैं बदनसीब होश में आया नहीं हनोज़"
कृष्ण मोहन
प्रोफेसर
हिन्दी विभाग
बीएचयू वाराणसी
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