Saturday, 9 November 2024

व्याकरण कविता अरमान आंनद

व्याकरण

भाषा का हो या समाज का 
व्याकरण
सिर्फ हिंसा सिखाता है

व्याकरण पर चलने वाले लोग
सैनिक का दिमाग रखते हैं

प्रश्न करना 
जिनके अधिकार क्षेत्र से बाहर की चीज़ है
और
हिंसा
एक आदेश

व्याकरण की रक्षा करना
भविष्य और संभावनाओं हत्या करना है

अरमान आनंद

Friday, 1 November 2024

श्री प्रकाश शुक्ला की अजब गजब कहानी: प्रेम कुमार

13 जून 1998 की शाम के आसपास पटना के आईजीएमएस हॉस्पिटल में तीन चार दिन से फर्जी रोगी के रुप में भर्ती श्रीप्रकाश शुक्ल और उसके साथियों ने एके 47 से बेतहाशा गोलीबारी कर लालू जी के सबसे नजदीकियों में एक और तत्कालीन मुजफ्फरपुर से भूमिहारों का वर्चस्व खत्म कर उभरे पिछड़ों के रंगदार बृजबिहारी प्रसाद को ढ़ेर कर दिया जो उस समय लालूजी की सरकार के कद्दावर मंत्री भी थे.

कहते हैं तब अशोक सम्राट की मौत के बाद गोरखपुर से गौहाटी तक रेलवे ठेकों का निरापद राज भोग रहे सूरजभान जी को बृजबिहारी से खतरा महसूस हो रहा था सो उसे रास्ते से हटाना जरुरी था. और गोरखपुर में रेलवे के टेंडर के दौरान वीरेंद्र शाही के खिलाफ एकजुट हुए पवन पाण्डेय के गैंग को हथियार यानी एके 47 उपलब्ध करा कर सूरजभान ने सब का दिल जीत लिया था और सबसे ज्यादा सूरजभान के फैन हो चुके थे उस गैंग के नए नवेले श्रीप्रकाश शुक्ल जिन्होंने सीधे सूरजभान को दादा संबोधित करते हुए अपने आप को उनका छोटा भाई बना लिया था.
वहीं सूरजभान भी लखनऊ में श्रीप्रकाश शुक्ल द्वारा एके 47 से सौ के लगभग गोली मारकर वीरेंद्र शाही की हत्या के बाद भी अपने क्रोध की नेग के तौर पर नाइन एमएम पिस्टल से शाही की आँखों में अलग से पांच सात गोली मारने की शुक्ल की अदा के फैन हो चुके थे.

सो श्रीप्रकाश सूरजभान दादा के कहने पर उनके लिए दुखहर्ता बनते और बृजबिहारी जैसे कांटों को खत्म करते,बदले में एके 47 और जब जरुरत होती मोकामा में सूरजभान के घर पर अभेद्य सुरक्षा में ठिकाने का सुख भोगते.

उसी दौरान कहते हैं सीपीएम के भयंकर लोकप्रिय नेता अजीत सरकार से पप्पू यादव बड़े भयभीत चला करते थे क्योंकि 1989 में पूर्णिया लोकसभा चुनाव में अजीत सरकार दूसरे स्थान पर रहे थे,1991के लोकसभा चुनाव में झंझट की वजह से रिजल्ट होल्ड पर चला गया था जिसमें पप्पू यादव निर्दलीय खड़े थे मजेदार बात यह कि चार साल बाद 1995 में टेक्निकल तौर पर पप्पू को आयोग ने विजयी घोषित कर दिया था लेकिन 95 में ही फिर आए विधानसभा चुनावों के रिजल्ट में पप्पू पूर्णिया और सिंहेश्वर दोनों विधानसभा से हार गए थे फिर 1996 में लोकसभा चुनाव में पप्पू ने भाजपा के उम्मीदवार को हराकर जीत तो हासिल कर ली लेकिन फरवरी 1998 के लोकसभा चुनाव में हार गए और इन सबका सबब बने अजीत सरकार इसलिए अजीत सरकार का मरना पप्पू जी की राजनीतिक जिंदगी के लिए बेहद जरुरी हो गया था.

तत्कालीन बिहार में हथियार और संसाधन के मामले में सूरजभान राजा थे इसलिए पप्पू जी ने उनसे हमेशा बना कर ही रखा था सो 13 तारीख को  बृजबिहारी को मारने वाली श्रीप्रकाश शुक्ल,राजन तिवारी आदि की टीम को रवाना कर दिया गया उधर अजीत सरकार की रेकी कर के रखी गई थी सो अगले ही दिन यानी 14 जून 1998 को  पूर्णिया के पास अजीत सरकार को 107 गोलियाँ मार कर भरपूर मौत दे दी गई.
यह टिपिकल श्रीप्रकाश स्टाइल था पप्पू बस सुविधा प्रदान कर्ता की भूमिका में ही रहे होंगे क्योंकि ऐसा करना उनके बूते से बाहर की बात थी.बाद में शायद ऐसे ही ग्राउंड पर पप्पू जी को अदालत में भी फायदा मिला.
अजीत सरकार के मर्डर के बाद शुक्ला की टीम उधर ही से निकलते विराटनगर नेपाल चली गई जहां उनका ठिकाना था.
अब मजेदार बात यह जानिए की श्रीप्रकाश शुक्ल उत्तर प्रदेश के संपूर्ण इतिहास में कुछ गिने-चुने दुर्दांत और डेयरिंग क्रिमिनल्स में एक तो थे ही साथ ही जबरदस्त दिलफेंक आशिक भी थे. जबर स्मार्टनेस के स्वामी शुक्ला जी को खूबसूरत लड़की देखते ही प्यार हो जाता था.
सो बृजबिहारी की हत्या के पहले सूरजभान द्वारा करवाए जुगाड़ पर श्रीप्रकाश शुक्ल ने आईजीआईएमएस हॉस्पिटल में जब रेकी करते या मर्डर के लिए लॉजिस्टिक्स सेट करते चार पांच रोज फ़र्जी रोगी के तौर पर गुजारे थे उसमें उन्हें उसी अस्पताल की एक खूबसूरत डॉक्टरनी से एकतरफा प्यार हो गया उन्होंने जब पता कराया तो पता चला वो डॉक्टरनी पप्पू यादव की बहन थीं. फिर भी जो श्रीप्रकाश शुक्ला पदासीन मुख्यमंत्री को हत्या की धमकी दे सकता था वो पप्पू से तो डरता नहीं इसलिए शुक्ला जी ने तय किया कि जब बृजबिहारी हत्याकांड की गर्मी घटेगी तो वो फिर लौट कर उसी अस्पताल में इश्क लड़ाने आएंगे और यकीन मानिए महीना गुजरते ही शुक्ला लौट कर आईजीआईएमएस पटना आए डॉक्टरनी को अप्रोच किया जब उसने अपने भाई पप्पू यादव का धौंस दिखाया तो सीधे साधे शुक्ला जी ने छूटते ही अपनी वुड बी प्रेमिका को जवाब दिया कि पप्पू बीच में आया तो उसपर एके 47 का एक पूरा चैंबर खाली कर देंगे.
अब इतनी गहराई का इश्क कलेजे में दबाए श्रीप्रकाश शुक्ल सूरज दा कि मेहमाननवाजी का आनंद उठाते लगातार पप्पू यादव की बहन डॉक्टर साहिबा को फोन करते थे और उनके परिवार में आतंक का सबब बन गए. 
कहते हैं पप्पू जी ने सूरजभान से अपने इस मामले में न्याय की गुहार लगाई सूरजभान तो पहले से ही अपने प्यारे श्रीप्रकाश को लड़की से दूर रहने की सलाह देते ही आए थे सो फिर समझाया शुक्ला रुके तो नहीं पर इश्क की एक्सिलरेटर पर पैर थोड़ी ढ़ीली जरुर की.
इस बीच लखनऊ में दिनदहाड़े भयंकर गोलीबारी के बीच लखनऊ के दिल हजरतगंज में एक दारोगा को ही श्रीप्रकाश शुक्ल ने निपटा दिया जिसके बाद यूपी एसटीएफ ने उन पर भयंकर दवाब बढ़ाया जिसमें श्रीप्रकाश की कॉल डिटेल्स का पीछा शुरु किया गया जिसके क्रम में डिटेल्स खंगालते खंगालते एसटीएफ टीम पटना पँहुची पप्पू जी को खबर हुई तो वो दौड़े एसटीएफ टीम से मिलने होटल पँहुचे अपना दुखड़ा रोया और बदले में अपने घर के नंबर पर श्रीप्रकाश शुक्ल का फोन आने पर उससे बातचीत को ज्यादा देर खींचने की हिदायत पाई ताकि कॉल ट्रेस की जा सके.
बाद में चीजें और तेजी से बदलीं और श्रीप्रकाश शुक्ल पुलिस मुठभेड़ में मारे गए.
 पूरे उत्तर प्रदेश के व्यापारियों, नेताओं,पैसे वालों और पुलिस के साथ पप्पू जी के परिवार ने भी चैन की सांस ली.

20-25 बरस के यूपी के लड़कों को जब रंगदारी और डेयरिंग पर उदाहरण देते और तमाम आंडु पांडु लोगों का .... तौलते देखता हूँ तो अंदर से आवाज आती है कि हा हतभागियों तुमने असल कलेजा और डेयरिंग तो देखा ही नहीं जब एक 34-35 बरस का जवान "वर्चस्व" की चाहत में कुर्सी पर बैठे मुख्यमंत्री को निपटा देने की खुलेआम धमकी देने का कलेजा रखता था.

मैं जब भी लखनऊ के चारबाग स्टेशन से लौटता हूँ तो महाराणा प्रताप की मूर्ति वाले चौराहे के पास स्थित दीप होटल और ग़ज़ल बार को देखकर भावुक हो जाता हूँ और आंखों को बंद कर महसूस करने की कोशिश करता हूँ की विधानसभा का सत्र चलने के दौरान ही विधानसभा से मात्र चार पांच सौ मीटर दूर इस होटल में जब दिनदहाड़े श्रीप्रकाश शुक्ल ने एके 47 से गोलियों की दस मिनट तक बरसात की थी तब उस गोलीबारी का संगीत उस गज़ल बार से सिंक कर रहा था या नहीं.

(बहुत चीजें तब की देखी और जी गई है जो याद है बाकी पढ़ने के लिए भी बहुत कुछ माल है सो अपनी अल्पज्ञता का भार मुझसे बहस कर मेरे कंधों पर ना लादें)


प्रेम कुमार

मैं वहीं मिलूंगा : अरमान आनंद

मुझे न ढूंढ
खो जा

मैं वहीं मिलूंगा
जहां
न तू पहुंच सके
न मैं आ सकूं
मिलूंगा
जहाँ
सब कुछ
 नहीं है

मुझे न ढूंढ
खो जा

गहरे सन्नाटे में
पदचाप की तरह
चला जा

मेरा हाथ न थाम
मेरी आत्मा में घुल
मेरी साँसों में मिल
मेरी आँखों में खिल

मुझे मृत्यु दे
मुझे जी
मुझे पहन
ओढ़
बिछा

जा
चला जा
मेरे साथ बिखर जा
संवर जा
बह जा

मुझे न ढूंढ

खो जा

अरमान आनंद

नया रंग : अरमान आनंद



दीवारों की तरह
इंसानों के भी रंग उतरते हैं

नया रंग भरते रहिए

Friday, 4 October 2024

“पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता” सदानन्द शाही की कविताओं के विशेष संदर्भ में - रीता दास राम

“पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता” 
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मित्रो, पिछले चार साल से आप स्त्री दर्पण की गतिविधियों को देखते आ रहे हैं। आपने देखा होगा कि हमने लेखिकाओं पर केंद्रित कई कार्यक्रम किये और स्त्री विमर्श से संबंधित टिप्पणियां और रचनाएं पेश की लेकिन हमारा यह भी मानना है कि कोई भी स्त्री विमर्श तब तक पूरा नहीं होता जब तक इस लड़ाई में पुरुष शामिल न हों। जब तक पुरुषों द्वारा लिखे गए स्त्री विषयक साहित्य को शामिल न किया जाए हमारी यह लड़ाई अधूरी है, हम जीत नहीं पाएंगे। इस संघर्ष में पुरुषों को बदलना भी है और हमारा साथ देना भी है। हमारा विरोध पितृसत्तात्मक समाज से है न कि पुरुष विशेष से इसलिए अब हम स्त्री दर्पण पर उन पुरुष रचनाकारों की रचनाएं भी पेश करेंगे जिन्होंने अपनी रचनाओं में स्त्रियों की मुक्ति के बारे सोचा है। इस क्रम में हम हिंदी की सभी पीढ़ियों के कवियों की स्त्री विषयक कविताएं आपके सामने पेश करेंगे। हम अपने वरिष्ठ कवियों से यह सिलसिला शुरू करेंगे और उसके बाद आज की पीढ़ी के कवियों की कविताएं लेकर आएंगे। 

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‘पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता’ शृंखला स्त्री विमर्श में अपने विशेष स्थान होने का संज्ञान लेती है। यह एक आकृष्ट करता ऐसा विषय है जो स्त्री-पुरुष दोनों के जुडते परिदृश्य पर नज़र रखता है और उनके अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य को व्यक्त करता है। पुरुष के मन्तव्य, वैचारिकता एवं दृष्टिकोण वैशिष्ट्य स्त्री विमर्श के उस रिक्त को भरते हैं जिसका खामोश इंतजार हमेशा रहा है। पुरुष प्रधान समाज में पुरुष कवियों की ‘स्त्री विषयक कविताएं’ समाज में स्त्रियों की स्थिति एवं विशेषता दर्शाती है। ये कविताएं, पुरुषों के स्त्री संबंधी मानसिकता की रूपरेखा का साक्षात्कार ही नहीं, उनके सोच का सूक्ष्म निरीक्षण भी है। कठघरे में खड़ा ‘पुरुष’ स्त्री विमर्श का ध्येय नहीं बल्कि पुरुष कवियों के स्त्री विषयक भीतरी सौन्दर्य का मूल्यांकन भी अहम है।  

पुरुष कवियों की ‘पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता’ शृंखला की शुरुआत वरिष्ठ कवियों से की गई हैं। शृंखला में कवियों का क्रम वरिष्ठता का सम्मान है। वसंत पंचमी के दिन युगप्रवर्तक कवि निराला की कालजयी रचनाओं में उनकी स्त्री विषयक कविताओं को प्रस्तुत करने के बाद समकालीन कवियों में सर्वप्रथम प्रसिद्ध कवि विनोद कुमार शुक्लजी की कविताओं से शृंखला का शुभारंभ किया गया। उनके बाद प्रसिद्ध कवियों में नरेश सक्सेना, प्रयाग शुक्ल, ऋतुराज, लीलाधर जगूड़ी, इब्बार रब्बी, अशोक बाजपेयी, राजेश जोशी, गिरधर राठी, आलोक धन्वा, नरेंद्र जैन विनोद भारद्वाज, विजय कुमार, विष्णु नागर, हृदयेश मयंक, उदय प्रकाश, लीलाधर मंडलोई, अरुण कमल, मदन कश्यप, असद ज़ैदी, स्वप्निल श्रीवास्तव, विनोद दास, अजामिल, सुभाष राय, कुमार अंबुज, अष्टभूजा शुक्ल, कृष्ण कल्पित, लाल्टू, राजीव कुमार शुक्ल, हेमंत शेष, नवल शुक्ल, अनूप सेठीजी की कविताएँ आप पाठकों के समक्ष प्रस्तुत की गई। आभारी हैं के आप पाठकों ने पसंद किया। आपने बहुमूल्य विचारों, प्रतिक्रिया, टिप्पणी द्वारा प्रोत्साहित किया आगे भी आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार है। इस शृंखला में वरिष्ठ कवि अनूप सेठी के बाद अगले प्रसिद्ध कवि सदानन्द शाही हैं। पुरुष कवियों के भाव-बोध की गहराई में उतरते संवेदना को विस्तार देते उनके अनुभव द्वारा उद्घाटित उनकी स्त्री विषयक दृष्टि हम उनकी रचनाओं में पाते हैं जो उनके विचारों और आत्मबोध के वैचारिक परिदृश्य का विस्तार भी है।  

इस शृंखला में चयनित की गई वरिष्ठ कवि सदानन्द शाहीजी की कविताएं क्रमानुसार इस प्रकार हैं, 1 चालीस पार करती कुँवारी लड़कियां 2 देवी का प्रतिमा विसर्जन 3 वह बिगड़ैल लड़की 4 ज़िद 5 करती रही इन्तजार 6 एक स्त्री को जानना 7 पत्नी होने की अनिवार्य शर्त 8 सोने का पिंजरा 9 मझली मामी 10 धिक्कार है 11 वह तीन नामों वाली लड़की 12 नए के आरंभ में 13 बस कोई दिन 14 वाल्मीकि की बेटियाँ 15 औरतों की जीभ। वरिष्ठ कवि सदानन्द शाहीजी की इन कविताओं को “पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता” शृंखला में समाहित किया गया हैं जो आप पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं।   

कविताओं पर टिप्पणी : 

कवि स्त्री को अपने स्वतंत्र अस्तित्व के लिए संघर्षरत पाते हैं। कवि के अनुसार स्त्री अपने विवाहित और अविवाहित ठहरे समय को में ताने ऊब, संयम से गुजरती निराशा का कोलाज देखते हुए भी समय से मुठभेड़ करती है। देवीय कल्पना से होते हुए विशिष्टता के बोध को कर किनारा प्रत्यक्ष वर्तमान धरातल पर उतर आई स्त्री कवि को चुनौती से भरी दिखाई देती है। पितृसत्तात्मक समाज में बेबाक समझौते को धता बताकर गर एक स्त्री पुरुषों के बनाए पिंजड़े से आजाद होती है जिसे बिगड़ैल शब्द से नवाजा जाता है। दुनिया स्त्री को बनाती रही लेकिन अब स्त्री दुनिया को बदलना चाहती है। सीता, अहिल्या, द्रौपदी बनी स्त्रियों को कथाओं में भी पुरुष के ठोकरों से साधा जाना प्रश्न बोता है कवि जिस पर अपनी दृष्टि रखते हैं। स्त्री को जानने के लिए स्त्री के दुखों के साथ कवि स्त्री के सपने, उल्लास, आनंद से रूबरू होना जरूरी समझते हैं। स्त्री और पुरुष के संबंधों में स्त्री का आर्थिक रूप से सशक्त होना भी रिश्ते को बचा नहीं पाता बल्कि धोखा खाती स्त्री समाज में पुरुषों की चालाकी को झेलती आई है। कवि के अनुसार स्त्री अपनी शक्ति को पहचानने लगी है, वह अब बंधन का मतलब समझने लगी है। कवि कहते है शहर से अंजान गाँव में भी पुरुष शराब की लत लगाए रहते है और स्त्री संयम, सहनशील, हँसमुख बने रहना जीवन भर सहेजती है। छल, फरेब, बलात्कार और गर्भपात को झेलती स्त्री प्रेम, ईश्वर, जाति और अहंकार के बल पर पुरुषों द्वारा छले जाने को समझते हुए उसे धिक्कारती है जिसे पुरुष ने अनसुना किया है। स्त्रियों के ‘बेनाम’ होने के किस्से समाज में स्त्री की परिवार में स्थिति को सामने रखते हैं जाहीर है यह पुरुषसत्तात्मक समाज है। कुछ नया होने की आस में जीवन जीती स्त्री कवि की निगाहों से नहीं बच पाती। अग्नि परीक्षाएं और लक्ष्मण रेखाएं स्त्री अब पुरुषों के लिए चाहती है ताकि उसमें इस तकलीफों को जीने के अनुभव का स्वाद उन्हें भी मिले। कवि के अनुसार वाल्मीकि की बेटी सीता समाज का ऐसा उदाहरण जिसे समाज ने मानक की तरह लिया। कवि कटाक्ष करते हैं जीभ को कटने से बचाने के लिए स्त्री का चुप रहना जरूरी है और इस तरह समाज में स्त्रियों पर हो रहे अत्याचारों छुपे रहेंगे। 
पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं वरिष्ठ कवि सदानन्द शाहीजी की स्त्री को विशेषता प्रदान करती उनकी पंद्रह कविताएं, जो तय करेंगी उनकी कविताओं में होना ‘स्त्री’ विशेष का।   

- रीता दास राम    

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सदानन्द शाही की कविताएँ -
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1 चालीस पार करती कुँवारी लड़कियां 
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वजह चाहे जो हो 
पिता की बेबसी, उदासीनता या प्रेमी का छल 
या अदृश्य जंजीरों को 
तोड़ने के साहस का अभाव 
वे चालीस की उमर में भी कुंवारी 
रह गई हैं
हाँलाकि कुँवारी रहना 
कोई जुर्म नहीं है 
पर हजारों प्रश्नवाचकों की तलवारें 
सहानुभूति के बाण 
अनाप-शनाप किस्से 
बुढ़ाये अघाये, ऊबे चटे सहकर्मियों की सम्भावना तलाशती नजरें 
कुंवारेपन को जुर्म से भी बड़ा बना ही देती हैं
इसलिए वे संयम से रहती हैं
देर तक आईने के सामने खड़ी होकर 
बालों में उग आई चांदी से लड़ती हैं 
खिड़की के बाहर दूर क्षितिज को निहारती हैं
क्षितिज हमेशा की तरह उम्मीद और निराशा का कोलाज नजर आता है
वे हड़बड़ाकर अपने कमरों में लौटती हैं 
टी. वी. आन करके देखने लग जाती हैं 
समय का कोई चालू सीरियल।

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2 देवी का प्रतिमा विसर्जन 
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अपनी ही प्रतिमा को छिन्न-भिन्न करती हुई 
वह निकल आयी है बाहर
अक्षत, चन्दन, धूप, दीप, नैवेद्य को तिलांजलि देकर
रोली, कुंकुम और रेशमी अंगवस्त्रम के माया जाल की 
ऐसी तैसी करते हुए
मंदिर के ऊंचे सिंहासन पर प्रस्तरीभूत श्रद्धास्पदता के 
निष्प्राण भजन कीर्तन को मीलों पीछे छोड़ 
विशिष्टता की चमक-दमक को चीरते हुए 
उतर आयी है
जीवन के उबड़-खाबड़ में
हाड़, मांस और रक्त की ऊष्मा से भरपूर 
तेज साँस और धड़कती हुई छाती के साथ 
महज दृश्य होने की नियति को धता बताते हुए
आ खड़ी हुई है 
ऐन दर्शकों के बीच
दुनिया उसे अब दृश्य की तरह नहीं 
चुनौती की तरह देख रही है।

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3 वह बिगड़ैल लड़की 
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हाथ के तोते 
खुद ही उड़ाकर 
खुश हो सकती है 
कि चलो 
तालियां तो बजा सकते हैं
समझदारों के हर सुझाव के ठीक 
उलट चलकर 
जड़ सकती है तमाचा
ऐसी हर समझदारी के मुंह पर 
जो समझौते से आती है
हथेली पर इंद्रधनुष उगाने का 
सपना लिए 
लगा सकती है पृथ्वी के पूरे सात चक्कर 
और खाली हाथ लौटकर भी 
खिलखिला सकती है
घर हो या घरौंदा 
किसी पिंजड़े में नहीं बसते 
उसके प्राण
आकाश के इस छोर से 
उस छोर तक 
विचरते हैं।
शताब्दियां बीत गईं 
जमाने से लड़ते हुए 
थके नहीं उसके पांव
पुरुषों के बियाबान जंगल में 
सीधी तनी हुई 
चलती चली जा रही है
वह बिगड़ैल लड़की।

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4 ज़िद 
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वह दुनिया को प्रेम करने लायक बनाती रही
और 
दुनिया उसे अपने लायक बनाने में लगी रही 
उसके सपनों की दुनिया बन नहीं पायी 
और
दुनिया उसे अपनी तरह बदल नहीं पायी 
दोनों अपनी अपनी ज़िद पर कायम हैं।

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5 करती रही इन्तजार 
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जब मैं सीता थी 
अपने वनवासी पति का सिर गोद में लिए 
बैठी ही तो थी भविष्य की बाट जोहती 
देवताओं के राजा इन्द्र के बेटे जयन्त ने 
मेरी छातियों को लहूलुहान कर दिया
जब मैं अहिल्या थी 
अपनी कुटिया में सोई आधी नींद में 
पति गौतम का इन्तजार करती हुई 
देवताओं के राजा इन्द्र के 
छलात्कार का शिकार बनी
आकाश में चमकने वाला चन्द्रमा 
सिर्फ गवाह नहीं था 
पूरे वाकये में शामिल था
देवताओं का देवत्व 
इस कदर बरपा 
कि मैं 
पथरा गई
जब द्रौपदी हुई 
अपने पाँचों पतियों की अनुगामिनी 
(सनद रहे 
कि मैंने नहीं वरा था पाँच पतियों को 
माता कुन्ती के आदेश से 
बाँट दी गई बराबर-बराबर)
मैं नहीं खेल रही थी जुआ 
सिर्फ दाँव पर चढ़ा दी गई थी 
मैं हारी नहीं थी 
सिर्फ जीत ली गई थी 
लायी गयी दुर्योधन की सभा में 
पाँचों पतियों के साथ 
और दुःशासन के पशुबल से 
अपमानित हुई
कोई साधारण सभा नहीं थी वह 
वहाँ पितामह भीष्म थे 
वहाँ द्रोणाचार्य थे 
वहाँ कृपाचार्य थे 
और जाने कौन कौन से आचार्य थे सब धृतराष्ट्र थे एक स्त्री निर्वस्त्र की जा रही थी 
और वह महान सभा देख रही थी 
महारथी चुप थे 
रश्मिरथी चुप थे 
आचार्य चुप थे 
इतिहासवेत्ता 
नीति निर्माता 
सब चुप थे
सोचती हूँ क्यों चुप थे सब !
कि दोष मेरा ही था
कि मेरे परिधान दोषी थे
नहीं तो मेरे स्त्री शरीर का दोष तो 
होगा ही होगा
मैं इस स्त्री शरीर का क्या करूँ 
जिसको लिए दिए
देवताओं 
महारथियों 
आचार्यों के 
कल, बल, छल का 
शिकार होती रही 
पत्थर बनती रही 
मुक्ति के लिए 
किसी पुरुष के पैरों की ठोकर का 
करती रही इंतजार। 

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6 एक स्त्री को जानना 
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मैंने एक स्त्री को जानना चाहा 
उसके दुखों के सहारे 
और नहीं जान पाया
मुझे 
एक समूचा जीवन यह जानने में लग गया 
कि एक स्त्री को जानना 
केवल उसके दुखों को जानना नहीं है 
एक स्त्री को जानना 
उसके सपनों को जानना है 
उसके उल्लास को 
और आनंद को 
जानना है.

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7 पत्नी होने की अनिवार्य शर्त 
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वे पत्नी हैं 
एक उच्चकुलीन घर की बेटी 
निखालिस कन्नौजिया 
उत्तर प्रदेश के एक बडे शहर के 
बडे कालेज में पढाती हैं
पत्नी होने के लिए 
एक अदद पति का होना आवश्यक है 
खट्टू हो या निखट्टू 
इसलिए एक पति पाला
उच्च कुल का पुरुष 
कुल ही उसकी योग्यता 
कुल ही उसकी ट्रेनिंग 
उसे 
रोजी रोटी के लिए 
और कुछ करने की जरूरत ही नहीं थी
अत्यंत कुलीन 
कुल का होने के बावजूद 
उसने उदारतापूर्वक 
बीबी को नौकरी करने की इजाजत दे रखी थी 
यही क्या कम था
वैसे तो उसने 
और भी बहुत सारे काम अपने हाथ में ले रखे थे 
जैसे बीबी का बैंक एकाउण्ट 
पैसे का हिसाब-किताब 
खरीद-फरोख्त 
और सबसे बढकर 
बीबी की निगरानी 
जिसे वह पूरी मुश्तैदी से करता था 
वह कब किससे 
मिलीं मिलीं तो क्यों
जैसी पूछताछ के साथ 
गाली-गलौज 
मारपीट 
सब शामिल
उसने कार खरीदवाई 
अपने नाम से 
घर खरीदा 
अपने नाम से 
तर्क यह कि 
तुम कहां कोर्ट कचहरी जाओगी
एक अदद पति को बनाये 
और बचाये रखने के लिए 
उसने सब किया 
सब सहा 
लेकिन सब व्यर्थ
बीबी के पैसे से खरीदे गये घर में 
दूसरी औरत ले आया 
अब बीबी एक कोने में रहती है 
और सब कुछ सहती है
जैसा भी हो 
पति है 
पत्नी होने की अनिवार्य शर्त ।

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8 सोने का पिंजरा 
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हम आसमानों को थाहने निकली हैं 
हमें हमारे पंख लौटा दो 
अपना 
सोने का पिंजरा अपने पास रखो।

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9 मझली मामी 
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वे जब व्याह कर आयीं थीं
तब हम छोटे बच्चे थे
वे बेहद खूबसूरत थीं
इतनी कि
उस बचपन में
वे हमें
मैदे के लोई की तरह लगतीं
गोरी चिट्टी और मुलायम
छू दो तो मैली हो जायें
बाद में समझ आया कि नहीं
वे ताजे सेब की तरह थीं
छू 
दो
तो रस निकल आये
वे पढ़ी-लिखी नहीं थीं
शहराती भी नहीं थीं
हमारी तब की दुनिया में
शहराती औरतें थीं भी नहीं
न पढ़ी लिखी औरतों से हमारा पाला पड़ा था
लेकिन अपनी देहाती धज में
वे यों चलतीं
जैसे सीधे पल्ले की साड़ी पहने चाँद आ- जा रहा हो
उनके सौन्दर्य की सहजता से
हम सब अभिभूत थे
इसी बीच एक-एक कर
चार बच्चों को जन्म दिया
बेटे दो
बेटियां दो
एक से एक सुंदर
उनके सौन्दर्य की आभा में चलता रहा
मेरे ननिहाल का जीवन
गो उनका खुद का जीवन जैसा बीता
उसे बहुत अच्छा
या अच्छा नहीं कह सकते
हुआ यह कि
पति अपनी असफल महत्त्वाकांक्षाओं के दाग
शराब से धोकर साफ करने लगे
इसी में
खेत बिके
मान सम्मान बिका
मनहूसियत ने
घर में
घर कर लिया
वे उन बातों के लिए ताने सुनती रहीं
जिनसे उनका वास्ता नहीं था
सब देखती रहीं
सब सुनती रहीं
सब बीतता रहा
सब बीत ने दिया
बहुत कोशिश की कि पति सुधर जाय
शराब छोड़ दें
चुपके-चुपके
ओझा सोखा, झाड़ फूंक, दवा बिरो
सब करती रहीं
वे कोई पूजा पाठी नहीं थीं
लेकिन उनके भी अपने भगवान थे
जिन से वे सुख-दुख बतियातीं
कहतीं और कुछ नहीं
बस ये पहले जैसे हो जायं
लेकिन सब बेकार
जिनको पहले जैसा होना था
वे नहीं हुए पहले जैसे
पति की दुनिया अपने ढंग से चलती रही
और उस चलते हुए के साथ
घिसटता रहा उनका अपना जीवन
आखिर एक दिन आया
जब पति ने शराब छोड़ दी
पर बहुत देर से आया
इस बात को यों भी कह सकते हैं कि
पतिदेव ने दुनिया से
शराब की हस्ती मिटा देने का
जो बीड़ा उठाया था
उसे उठा लिया
बड़े बेटे ने
अब तक जो झाड़ फूंक पति के लिए होती रही
वही होने लगी बेटे के लिए
फर्क इतना था
कि अब पति भी शामिल थे
इस अभियान में
लेकिन यह कोशिश भी बेकार जानी थी
गयी
जहरीली शराब ने
एक दिन बड़े बेटे के गोरे शरीर को
नीला और ठंडा कर दिया
बात यहीं पर नहीं रुकी
पिता और बड़े भाई के अधूरे काम को पूरा करने के लिए
छोटा बेटा सामने आया
और बहुत जल्दी
वह भी जहरीली शराब का
शिकार हुआ
इस तरह उजड़ती गयी
उनकी दुनिया
और वे इस उजाड़ की
गवाह बनी रहीं
लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी
यह बीहड़ उजाड़
उनके सौन्दर्य को नहीं उजाड़ पाया
उनके नितांत खाली हाथों
और खाली जीवन में
एक सरल मुस्कान बची हुई थी
सौन्दर्य की मद्धिम रोशनी बिखेरती
इसी से वे
सभी अभावों
सभी विपत्तियों का
करतीं रहीं सामना
एक बार कभी उनसे कहा था-
जितनी सुंदर हैं आप
उतनी ही सुन्दर है आपकी मुस्कान
उनके चेहरे पर उतर आयी थी एक करुण मुस्कान
एक दीर्घ नि:श्वास के साथ उनका यह वाक्य
कि भाग्य नहीं था सुंदर
स्मृति में टंक गया
न विपत्तियों का सिलसिला थमा
न उनका सामना करनेवाली वह मुस्कान कम हुई
जो कुछ बाकी बचा था
उसे अब होना था
एक दिन
उनकी जुबान पर एक फुंसी निकल आयी
और देखते देखते
कैंसर में बदल गयी
इलाज शुरू हुआ
लगातार कीमोथेरपी
और रेडियो थेरपी की कष्टप्रद प्रक्रिया
दर्द का इलाज
इलाज का दर्द
मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों ज्यों दवा की
इस बेइंतहा दर्द के बीच
लगातार बनी रही उनकी मुस्कराहट
न गिला न शिकवा 
बस मुस्करा देना
बीमारी आखिरी स्टेज पर पहुंच गई थी
कहते हैं
एक रात वे चुपके से उठीं
और देर तक ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी
काजल लगाती रहीं
अपनी सुंदर आंखों को
काजल से सजाना
उन्हें बेहद पसंद था
वे आखिरी सांस तक लगाती रहीं काजल
पानी और काजल के अलावा
कोई सौन्दर्य प्रसाधन नहीं था उनके पास
और न ही जरूरत थी
मृत्यु तेजी से क़रीब आ रही थी
चेहरा काला पड़ गया था
सारे जीवन का काजल
चेहरे में उतर आया था
पहले उनके चेहरे से सुंदरता गयी
फिर वे गयीं 
जब वे गयीं
उनके बिस्तर पर
दो ही चीजें छूट गयीं थीं
एक छोटा सा कजरौटा
और एक करुण सी मुस्कान
जब वे ले जायी गयीं
अंतिम यात्रा के लिए 
छोटी गंडक के किनारे
साथ साथ चली जा रही थी
वह करुण मुस्कान
उनके मृत्युभोज के लिए
सफेद कागज पर
शोक संदेश मिला
तब जाकर मालूम हुआ
जिन्हें
हम सिर्फ मझली मामी के संबोधन से जानते आये थे
उनका नाम प्रीतिबाला है 

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10 धिक्कार है 
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धिक्कार है
तुम्हारे प्रेम को
तुम्हारी कसमों को
तुम्हारे ईश्वर को
धिक्कार है
तुम्हारी जाति को
तुम्हारे कुल को
धिक्कार है
तुम्हारे अहंकार को
तुम्हारी आन बान शान को
धिक्कार है
तुम्हारी ऊंची नाक को
जिसका तुम्हें इतना गुमान है
ध्यान से देखो
मेरी जूतियों पर रगड़ते-रगड़ते
घिस गई है तुम्हारी नाक
उसका गंध बोध खत्म हो गया है
मिट गया है
पसीने और पेशाब का फर्क
धिक्कार है
तुम्हारी दुनिया पर
जो सिमट गई है
छल और फरेब में 
बलात्कार और गर्भपात में 
धिक्कार है
तुम्हारे अस्तित्व पर
तुम्हारे होने पर
थूकती हूँ मैं
आक्क थू 

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11 वह तीन नामों वाली लड़की 
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(अनूप श्री विजयिनी के लिए)
मां सिर्फ मां थी
दादी सिर्फ दादी
नानी का भी यही हाल था
दीदी हद सेहद दिदिया हो जाती थी
मौसी ,बुआ और काकियां भी
बेनाम रहती चली आईं थी
कभी-कभी इनके साथ
जगहें जुड़ जाती थीं
मसलन -
कोई छपरा वाली
कोई हरैया वाली
कोई पटना वाली
और जगहों के सहारे
वे जानी जाती रहीं
कभी-कभी किसी नाम का
तमगा लग जाता
किसी की बीवी
किसी की बेटी
किसी की बहू
या 
किसी की बुआ होती थीं वे
इस तरह बेनाम रहकर
जीना सीख आई थीं
कुल खानदान की
सारी की सारी औरतें
बेनाम औरतों की कहानियां सुन सुनकर
उदास हो चली थी वह
एक सुबह वह उठी
और अचानक घुस गई
नामों के कोठार में
अपने लिए उठा लाई
तीन नाम
और ऐलान कर दिया कि लो -
तुम एक नाम नहीं दे रहे थे
और मैं उठा लाई
तीन-तीन नाम
हालांकि आसान नहीं था यह
तरह-तरह से मजाक बनाया गया
ताने मारे गए
फिर भी
अपने तीन नामों के साथ घूमती रही
इस राजधानी से
उस राजधानी तक
खाक छानती रही
खाक छानते हुए भी खुश थी
कि उसके पास तीन-तीन नाम है
जिसमें अतीत की गुमनामी है
जिसमें वर्तमान की जद्दोजहद है
और भविष्य की विजय गाथा है
इस तरह मिली
अपने तीनों नामों को उजागर करती हुई
वह तीन नामों वाली लड़की।

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12 नए के आरंभ में 
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उसके सपने पूरे नहीं हुए थे
अधूरे रह गए थे मिशन
हसरतें
बस हसरतें बनकर रह गई थीं
बालों में उतर आई सफेदी
गजर की तरह बजी जा रही थी
इन सबसे बेपरवाह
आज भी वह जुटी है
किसी नए के आरंभ में
(24.09.2019 )

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13 बस कोई दिन 
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रोज ही स्त्री सुबोधिनी पढाई जाती है
रोज ही लक्ष्मण रेखाओं से उलझती हूं
घर लौटने पर
रोज-रोज की
अग्नि परीक्षाएं
कोई दिन तुम भी पढ लो स्त्री सुबोधिनी
रह जाओ लक्ष्मण रेखा के भीतर
दे डालो अग्निपरीक्षा....
बस कोई दिन। 

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14 वाल्मीकि की बेटियाँ 
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वाल्मीकि की बेटियां
लौटकर राजधानी नहीं आतीं
राजा से दया की भीख नहीं मांगती
सिंहासन की
आँखों में आँखें डालकर बात करती हैं
वाल्मीकि की बेटियाँ
वन में रह जाती हैं
कुश पर सोती हैं
कांटे पर चलती हैं
आग में जल जाती हैं
पानी में डूब जाती हैं
धरती में समा जाती हैं
वाल्मीकि की बेटियां
सच से समझौता नहीं करतीं
वाल्मीकि की बेटियां
वे जब धरती में समा जाती हैं
बहुत देर तक हिलती रहती है
धरती।
*
(2021)

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15 औरतों की जीभ
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बहुत बढ़ गयी है
औरतों की जीभ
बहुत बोलने लगीं हैं औरतें
हक जताने लगीं हैं औरतें
मुनासिब नहीं है
औरतों का बोलना
और हक जताना
यह एक सामाजिक अपराध है
यह एक धार्मिक अपराध है
औरतों के बोलने से
हिल जाते हैं
सिंहासन
औरतों के बोलने से
हिल जाती है
धर्म की ध्वजा
भंग हो जाती हैं
महामुनि की महान तपस्याएँ
औरतों की बढ़ी हुई जीभ
धर्म की हानि है
इसे हजारों साल पहले ही
जान लिया गया था
जब-जब बढ़ जाती है
औरतों की जीभ
काट ली जाती है।

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कवि परिचय – 
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सदानन्द शाही। जन्म 7 अगस्त 1958। ग्राम सिंगहा जनपद कुशीनगर उप्र। साहित्यिक पत्रिका साखी और कर्मभूमि के सम्पादक। कविताओं के चार संग्रह। कुछ और पुस्तकें :कविताओं के उड़िया, बांग्ला, नेपाली,  मराठी, अंग्रेज़ी और इतालवी में अनुवाद। बीएचयू में हिन्दी के अध्यापक रहे। सम्प्रति “बुद्ध की धरती पर कविता” आयोजन शृंखला का आयोजन। कबीर, रैदास और प्रेमचन्द पर कुछ काम प्रका़शित। जर्मनी, फ़्रांस, इटली, अमेरिका, सिंगापुर, मारीशस आदि देशों की यात्राएँ। DAAD Fellow के रूप में हाइडेलवर्ग विश्वविद्यालय में फेलो। 

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आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को बताने वाले आचार्य रामचन्द्र तिवारी- सदानंद शाही

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को बताने वाले आचार्य रामचन्द्र तिवारी 

आज आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जन्मदिन है लेकिन लिख रहा हूँ रामचन्द्र तिवारी के बारे में ।रामचन्द्र शुक्ल और रामचन्द्र तिवारी केवल नाम साझा नहीं करते जन्म तिथि भी इस मायने में साझा करते हैं कि शुक्ल जी की जन्मतिथि 4अक्टूबर है तो तिवारी जी की 4 जून। रामचन्द्र तिवारी ने आचार्य शुक्ल   की व्याख्या में पूरा जीवन यों ही नहीं लगाया था।इसलिए आचार्य शुक्ल की जन्मतिथि पर उनकी ही परम्परा के आलोचक और उनके अनन्य अध्येता को याद करने की संगति बनती है। बक़ौल कबीर गुरू गोविंद दोऊ खड़े वाली बात है।पिछले दिनों गोरखपुर से लौटकर मैंने यह चित्र लगाया था और एक छोटी सी टिप्पणी भी लिखी थी। यह चित्र 1985 - 86 के किसी दिन का है।इसमें भगवती प्रसाद सिंह रामचन्द्र तिवारी को उत्तरीय देकर सम्मानित कर रहे है।हम लोगों ने उसी साल एम ए की परीक्षा उत्तीर्ण की थी जिस साल तिवारी जी रिटायर हुए ।चूँकि हम लोग आख़िरी बैच के विद्यार्थी थे इसलिए हमें तिवारी जी का स्नेह भी भरपूर मिला।
हम लोगों ने अपने प्रिय अध्यापक प्रो रामचन्द्र तिवारी की षष्ठिपूर्ति के अवसर पर राष्ट्रीय संगोष्ठी और सम्मान समारोह आयोजित किया था।यह हम छात्रों द्वारा आयोजित पहला कार्यक्रम था।हमें नहीं मालूम था कि हम अध्ययन अध्यापन की दुनिया का हिस्सा बन जायेंगे और इतनी दूर तक चलते चले आयेंगे… हमें यह भी आभास नहीं था कि विश्वविद्यालय के शिक्षकों की दुनिया बहुस्तरीय क्षुद्रताओं से भरी है…. आयोजन के दौरान विलक्षण क्षुद्रताओं से साक्षात्कार हुआ …. और अब इतनी यात्रा के बाद यह देखकर किंचित् आश्चर्य और दुख की अनुभूति होती है कि तमाम ऊँचाइयाँ हासिल करने के बाद भी क्षुद्रताओं का छिछलापन जस का तस है… बावजूद इसके हम गाँधी की बात पर अमल करते रहे हैं कि पाप से घृणा करो पापी से नहीं । हमने छिछलेपन और क्षुद्रताओं से परहेज़ किया… हमारे मन में क्षुद्र लोगों के लिए भी सद्भावना ही रही ,हम उनकी दयनीयता पर दया करते रहे… आज भी हम यही कामना करते हैं कि बड़े से बड़े पदों पर पहुँच जाने के बावजूद जिनकी क्षुद्रताएँ अक्षुण्ण बनी हुई हैं जाती हुई बरसात का पानी उनके मन का कलुष धोए और थोड़ा बहुत मनुष्य होने की इज़्ज़त बख्शे।…भवति सब्ब मंगलम्।

बात साथ के चित्र की हो रही है जिसमें भगवती प्रसाद सिंह रामचन्द्र तिवारी का सम्मान करते हुए दिखाई पड़ रहे हैं ।भगवती प्रसाद सिंह रामचन्द्र तिवारी के ठीक पहले अध्यक्ष थे।कुछ लोग तिवारी जी के सम्मान समारोह का विरोध इसलिए कर रहे थे कि सम्मान होना ही है तो पहले सिंह साहब का होना चाहिए ।हमारे मन में सिंह साहब के प्रति भी पर्याप्त सम्मान और आदर था।लेकिन वे प्रत्यक्ष तौर पर हमारे गुरू नहीं थे।ज़ाहिर है उनका सम्मान उन लोगों को करना चाहिए था जो हमारे आयोजन का विरोध कर रहे थे।वे लोग सिंह साहब के लिए सम्मान समारोह आयोजित करने की जगह तिवारी जी के लिए आयोजित होने वाले समारोह में बाधा बन रहे थे।तर्क यह था कि सिंह साहब को कितना बुरा लगेगा। हम सीधे पहुँचे सिंह साहब के पास ।उनसे कार्यक्रम के बारे में बताया और अनुरोध किया कि वे सम्मान सत्र की अध्यक्षता करें और तिवारी जी को सम्मानित करें।उन्होंने हमारा अनुरोध सहर्ष स्वीकार कर लिया और ख़ुशी ख़ुशी सम्मान समारोह में शामिल हुए ।यह चित्र आज भी इस बात की गवाही दे रहा है।
कुछ लोग इस बात से नाराज़ थे कि रिटायर होने वाले व्यक्ति का नहीं बल्कि आगामी अध्यक्ष का सम्मान होना चाहिए ।हालाँकि उन्हें ऐसा करने से किसी ने मना नहीं किया था पर वे बिना हर्रे फिटकिरी के रंग चोखा करना चाहते थे।बाद में हमें समझ आया कि वे ऐसी प्रजाति के लोग थे जिन्हें हर अध्यक्ष से कुछ काम निकालना रहता और इसके लिए उसे खुश रखना होता था।आने वाले अध्यक्ष को खुश करने का एक ही तरीक़ा उन्हें आता था ‘ विदा हो रहे अध्यक्ष को अपमानित करो’। दोनों तरह के महानुभावों के बावजूद हम वह सम्मान समारोह कर पाये तो इसलिए कि दृश्य में कुछ ऐसे लोग थे जिनमें मानवीय संवेदना थी और थी व्यक्तित्व की गरिमा ।

हम सम्मान समारोह किसी लाभ या लोभ में नहीं कर रहे थे।हमने तो सिर्फ़ एक सच्चे अध्यापक और एक अच्छे मनुष्य के लिए अपने प्रेम का इज़हार किया था।जो प्रेम हमारे जीवन का अंग तब भी था आज भी है।
आख़िर हमारे आचार्य ने हमें इसी रूप में गढ़ा था ।

रामचन्द्र तिवारी : दो संस्मरण 
1
हमारा एम ए अंतिम वर्ष का सत्र समापन की ओर था । तब साल भर परीक्षाएँ नहीं होती थीं ।सालाना परीक्षा होती थी । परीक्षा नज़दीक थी ।मैं कोई बहुत अच्छा विद्यार्थी नहीं था फिर भी अच्छे अंकों से पास होने की ललक पैदा हो गयी थी।कुछ सवाल लेकर सुबह सुबह पहुँच गया तिवारी जी के यहाँ ।उस समय यह भी तमीज़ नहीं थी कि किससे मिलने कब जाना चाहिए और कब नहीं ।वैसे  तो तिवारी जी बड़े प्रेम से बैठाते और लम्बी चर्चा करके हर शंका और जिज्ञासा समाधान करके वापस भेजते।उस दिन उन्होंने जल्दी जल्दी निपटाया और विदा करने के मूड में आ गये।मुझे उनका यह व्यवहार अजीब लग रहा था।शायद वे भाँप गये।चलते चलते बोले अरे भाई क्लास है मेरी,निकलने के पहले कुछ देख लेना है।मुझे मालूम था कि दस बजे से उनकी कबीर की क्लास है। मैंने कहा - सर कबीर की क्लास है उसमें आप को क्या देखना? उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखा और यह चौपाई पढ़ी - शास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ । भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ।।आपने शास्त्र का भले ही अच्छी तरह अध्ययन किया हो लेकिन उसे बार बार देखते रहना चाहिए, नहीं तो बातें भूल जाती है।इसी तरह अच्छी तरह सेवा करने के बावजूद राजा को बस में हुआ नहीं मान लेना चाहिए ।वह किसी बात पर नाराज़ होकर दण्डित कर सकता है।यानी शास्त्र और राजा को टेकेन फ़ॉर ग्रांटेड नहीं लेना चाहिए ।
यह पाठ मुझे अब भी याद है।
2
बात सन् दो हज़ार एक के आरम्भ की है।दिल्ली में हुए भीषण एक्सीडेंट से उबरने के बाद मैं गोरखपुर गया था।बनारस जाने का मन बना चुका था।लेकिन कुछ औपचारिकताएँ बाक़ी थीं।इसलिए मेडिकल लीव के बाद गोरखपुर विश्वविद्यालय में ही काम करना था।मैं अपनी गुरू प्रो शांता सिंह के यहाँ रुका हुआ था।वहीं से विभाग आना जाना हो रहा था।शांता जी की नतिनी और मेरी भतीजी स्वस्ति ( बचपन का नाम गोलू) जिसे मैंने बचपन में गोदी में खिला चुका था,मुझे स्कूटर से प्राचीन इतिहास वाले गेट पर छोड़ देती।और मैं छड़ी के सहारे धीरे धीरे विभाग चला जाता।उसी समय की बात है।तिवारी जी ने फ़ोन किया और पूछा कि तुमको देखने आना चाहता हूँ,कब आऊँ? मैंने कहा कि सर आप क्यों परेशान होंगे,मैं ही किसी के साथ आ जाऊँगा ।उन्होंने कहा- मैं तुम्हें देखना चाहता हूँ इसलिए आऊँगा तो मैं ही।तुम बताओ कब आऊँ? मेरे पास कोई चारा नहीं था।मैंने अगले दिन के लिए कह दिया।रविवार का दिन था तिवारी जी रिक्शे से आये ।दोपहर के बाद की जाड़े की ख़ुशनुमा धूप थी। हम लॉन  में बैठे ।तिवारी जी शांता जी और मैं।उन्होंने विस्तार से मेरा हाल जाना।और भी बहुत सी बातें हुईं ।शाम ढलने को हुई ।तिवारी जी लौटने लगे। रिक्शा बुला लिया गया।वे बाहर निकल गये।मैं गेट तक छोड़ने आया। रिक्शे पर चढ़ते चढ़ते तिवारी जी रुक गये। लौटकर मेरे पास आए ।बोले - एक और बात कहनी थी, तुम पता नहीं ईश्वर को मानते हों या नहीं प्रकृति को तो मानते होगे,तो जो भी हो ईश्वर या प्रकृति वह जब किसी को इस तरह मृत्यु के मुख से बचा लेती है, उससे उसको ( प्रकृति को) कोई बड़ा काम लेना होता है।तो तुम्हें कोई बड़ा काम करना है।मेरे यह कहने पर कि मैं किस लायक़ हूँ और कौन सा बड़ा काम करूँगा वे हँसते हुए बोले - ‘जो अपने को पहले ही बहुत लायक़ और बड़ा मान लेते हैं वे कुछ बड़ा नहीं कर पाते।तुम करोगे कोई बडा काम।यह इतिहास विधाता का निर्णय है।’ 
आजतक तो मुझ से कोई ठीक ठिकाने का काम हुआ नहीं बड़ा तो खैर क्या ही होगा! लेकिन गुरुवर रामचन्द्र तिवारी का वह विश्वास आशीर्वाद की तरह मेरे साथ बना हुआ है।
उन्हें और उनके प्रिय आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल को हार्दिक श्रद्धांजलि ।

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