“पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता”
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मित्रो, पिछले चार साल से आप स्त्री दर्पण की गतिविधियों को देखते आ रहे हैं। आपने देखा होगा कि हमने लेखिकाओं पर केंद्रित कई कार्यक्रम किये और स्त्री विमर्श से संबंधित टिप्पणियां और रचनाएं पेश की लेकिन हमारा यह भी मानना है कि कोई भी स्त्री विमर्श तब तक पूरा नहीं होता जब तक इस लड़ाई में पुरुष शामिल न हों। जब तक पुरुषों द्वारा लिखे गए स्त्री विषयक साहित्य को शामिल न किया जाए हमारी यह लड़ाई अधूरी है, हम जीत नहीं पाएंगे। इस संघर्ष में पुरुषों को बदलना भी है और हमारा साथ देना भी है। हमारा विरोध पितृसत्तात्मक समाज से है न कि पुरुष विशेष से इसलिए अब हम स्त्री दर्पण पर उन पुरुष रचनाकारों की रचनाएं भी पेश करेंगे जिन्होंने अपनी रचनाओं में स्त्रियों की मुक्ति के बारे सोचा है। इस क्रम में हम हिंदी की सभी पीढ़ियों के कवियों की स्त्री विषयक कविताएं आपके सामने पेश करेंगे। हम अपने वरिष्ठ कवियों से यह सिलसिला शुरू करेंगे और उसके बाद आज की पीढ़ी के कवियों की कविताएं लेकर आएंगे।
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‘पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता’ शृंखला स्त्री विमर्श में अपने विशेष स्थान होने का संज्ञान लेती है। यह एक आकृष्ट करता ऐसा विषय है जो स्त्री-पुरुष दोनों के जुडते परिदृश्य पर नज़र रखता है और उनके अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य को व्यक्त करता है। पुरुष के मन्तव्य, वैचारिकता एवं दृष्टिकोण वैशिष्ट्य स्त्री विमर्श के उस रिक्त को भरते हैं जिसका खामोश इंतजार हमेशा रहा है। पुरुष प्रधान समाज में पुरुष कवियों की ‘स्त्री विषयक कविताएं’ समाज में स्त्रियों की स्थिति एवं विशेषता दर्शाती है। ये कविताएं, पुरुषों के स्त्री संबंधी मानसिकता की रूपरेखा का साक्षात्कार ही नहीं, उनके सोच का सूक्ष्म निरीक्षण भी है। कठघरे में खड़ा ‘पुरुष’ स्त्री विमर्श का ध्येय नहीं बल्कि पुरुष कवियों के स्त्री विषयक भीतरी सौन्दर्य का मूल्यांकन भी अहम है।
पुरुष कवियों की ‘पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता’ शृंखला की शुरुआत वरिष्ठ कवियों से की गई हैं। शृंखला में कवियों का क्रम वरिष्ठता का सम्मान है। वसंत पंचमी के दिन युगप्रवर्तक कवि निराला की कालजयी रचनाओं में उनकी स्त्री विषयक कविताओं को प्रस्तुत करने के बाद समकालीन कवियों में सर्वप्रथम प्रसिद्ध कवि विनोद कुमार शुक्लजी की कविताओं से शृंखला का शुभारंभ किया गया। उनके बाद प्रसिद्ध कवियों में नरेश सक्सेना, प्रयाग शुक्ल, ऋतुराज, लीलाधर जगूड़ी, इब्बार रब्बी, अशोक बाजपेयी, राजेश जोशी, गिरधर राठी, आलोक धन्वा, नरेंद्र जैन विनोद भारद्वाज, विजय कुमार, विष्णु नागर, हृदयेश मयंक, उदय प्रकाश, लीलाधर मंडलोई, अरुण कमल, मदन कश्यप, असद ज़ैदी, स्वप्निल श्रीवास्तव, विनोद दास, अजामिल, सुभाष राय, कुमार अंबुज, अष्टभूजा शुक्ल, कृष्ण कल्पित, लाल्टू, राजीव कुमार शुक्ल, हेमंत शेष, नवल शुक्ल, अनूप सेठीजी की कविताएँ आप पाठकों के समक्ष प्रस्तुत की गई। आभारी हैं के आप पाठकों ने पसंद किया। आपने बहुमूल्य विचारों, प्रतिक्रिया, टिप्पणी द्वारा प्रोत्साहित किया आगे भी आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार है। इस शृंखला में वरिष्ठ कवि अनूप सेठी के बाद अगले प्रसिद्ध कवि सदानन्द शाही हैं। पुरुष कवियों के भाव-बोध की गहराई में उतरते संवेदना को विस्तार देते उनके अनुभव द्वारा उद्घाटित उनकी स्त्री विषयक दृष्टि हम उनकी रचनाओं में पाते हैं जो उनके विचारों और आत्मबोध के वैचारिक परिदृश्य का विस्तार भी है।
इस शृंखला में चयनित की गई वरिष्ठ कवि सदानन्द शाहीजी की कविताएं क्रमानुसार इस प्रकार हैं, 1 चालीस पार करती कुँवारी लड़कियां 2 देवी का प्रतिमा विसर्जन 3 वह बिगड़ैल लड़की 4 ज़िद 5 करती रही इन्तजार 6 एक स्त्री को जानना 7 पत्नी होने की अनिवार्य शर्त 8 सोने का पिंजरा 9 मझली मामी 10 धिक्कार है 11 वह तीन नामों वाली लड़की 12 नए के आरंभ में 13 बस कोई दिन 14 वाल्मीकि की बेटियाँ 15 औरतों की जीभ। वरिष्ठ कवि सदानन्द शाहीजी की इन कविताओं को “पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता” शृंखला में समाहित किया गया हैं जो आप पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं।
कविताओं पर टिप्पणी :
कवि स्त्री को अपने स्वतंत्र अस्तित्व के लिए संघर्षरत पाते हैं। कवि के अनुसार स्त्री अपने विवाहित और अविवाहित ठहरे समय को में ताने ऊब, संयम से गुजरती निराशा का कोलाज देखते हुए भी समय से मुठभेड़ करती है। देवीय कल्पना से होते हुए विशिष्टता के बोध को कर किनारा प्रत्यक्ष वर्तमान धरातल पर उतर आई स्त्री कवि को चुनौती से भरी दिखाई देती है। पितृसत्तात्मक समाज में बेबाक समझौते को धता बताकर गर एक स्त्री पुरुषों के बनाए पिंजड़े से आजाद होती है जिसे बिगड़ैल शब्द से नवाजा जाता है। दुनिया स्त्री को बनाती रही लेकिन अब स्त्री दुनिया को बदलना चाहती है। सीता, अहिल्या, द्रौपदी बनी स्त्रियों को कथाओं में भी पुरुष के ठोकरों से साधा जाना प्रश्न बोता है कवि जिस पर अपनी दृष्टि रखते हैं। स्त्री को जानने के लिए स्त्री के दुखों के साथ कवि स्त्री के सपने, उल्लास, आनंद से रूबरू होना जरूरी समझते हैं। स्त्री और पुरुष के संबंधों में स्त्री का आर्थिक रूप से सशक्त होना भी रिश्ते को बचा नहीं पाता बल्कि धोखा खाती स्त्री समाज में पुरुषों की चालाकी को झेलती आई है। कवि के अनुसार स्त्री अपनी शक्ति को पहचानने लगी है, वह अब बंधन का मतलब समझने लगी है। कवि कहते है शहर से अंजान गाँव में भी पुरुष शराब की लत लगाए रहते है और स्त्री संयम, सहनशील, हँसमुख बने रहना जीवन भर सहेजती है। छल, फरेब, बलात्कार और गर्भपात को झेलती स्त्री प्रेम, ईश्वर, जाति और अहंकार के बल पर पुरुषों द्वारा छले जाने को समझते हुए उसे धिक्कारती है जिसे पुरुष ने अनसुना किया है। स्त्रियों के ‘बेनाम’ होने के किस्से समाज में स्त्री की परिवार में स्थिति को सामने रखते हैं जाहीर है यह पुरुषसत्तात्मक समाज है। कुछ नया होने की आस में जीवन जीती स्त्री कवि की निगाहों से नहीं बच पाती। अग्नि परीक्षाएं और लक्ष्मण रेखाएं स्त्री अब पुरुषों के लिए चाहती है ताकि उसमें इस तकलीफों को जीने के अनुभव का स्वाद उन्हें भी मिले। कवि के अनुसार वाल्मीकि की बेटी सीता समाज का ऐसा उदाहरण जिसे समाज ने मानक की तरह लिया। कवि कटाक्ष करते हैं जीभ को कटने से बचाने के लिए स्त्री का चुप रहना जरूरी है और इस तरह समाज में स्त्रियों पर हो रहे अत्याचारों छुपे रहेंगे।
पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं वरिष्ठ कवि सदानन्द शाहीजी की स्त्री को विशेषता प्रदान करती उनकी पंद्रह कविताएं, जो तय करेंगी उनकी कविताओं में होना ‘स्त्री’ विशेष का।
- रीता दास राम
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सदानन्द शाही की कविताएँ -
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1 चालीस पार करती कुँवारी लड़कियां
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वजह चाहे जो हो
पिता की बेबसी, उदासीनता या प्रेमी का छल
या अदृश्य जंजीरों को
तोड़ने के साहस का अभाव
वे चालीस की उमर में भी कुंवारी
रह गई हैं
हाँलाकि कुँवारी रहना
कोई जुर्म नहीं है
पर हजारों प्रश्नवाचकों की तलवारें
सहानुभूति के बाण
अनाप-शनाप किस्से
बुढ़ाये अघाये, ऊबे चटे सहकर्मियों की सम्भावना तलाशती नजरें
कुंवारेपन को जुर्म से भी बड़ा बना ही देती हैं
इसलिए वे संयम से रहती हैं
देर तक आईने के सामने खड़ी होकर
बालों में उग आई चांदी से लड़ती हैं
खिड़की के बाहर दूर क्षितिज को निहारती हैं
क्षितिज हमेशा की तरह उम्मीद और निराशा का कोलाज नजर आता है
वे हड़बड़ाकर अपने कमरों में लौटती हैं
टी. वी. आन करके देखने लग जाती हैं
समय का कोई चालू सीरियल।
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2 देवी का प्रतिमा विसर्जन
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अपनी ही प्रतिमा को छिन्न-भिन्न करती हुई
वह निकल आयी है बाहर
अक्षत, चन्दन, धूप, दीप, नैवेद्य को तिलांजलि देकर
रोली, कुंकुम और रेशमी अंगवस्त्रम के माया जाल की
ऐसी तैसी करते हुए
मंदिर के ऊंचे सिंहासन पर प्रस्तरीभूत श्रद्धास्पदता के
निष्प्राण भजन कीर्तन को मीलों पीछे छोड़
विशिष्टता की चमक-दमक को चीरते हुए
उतर आयी है
जीवन के उबड़-खाबड़ में
हाड़, मांस और रक्त की ऊष्मा से भरपूर
तेज साँस और धड़कती हुई छाती के साथ
महज दृश्य होने की नियति को धता बताते हुए
आ खड़ी हुई है
ऐन दर्शकों के बीच
दुनिया उसे अब दृश्य की तरह नहीं
चुनौती की तरह देख रही है।
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3 वह बिगड़ैल लड़की
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हाथ के तोते
खुद ही उड़ाकर
खुश हो सकती है
कि चलो
तालियां तो बजा सकते हैं
समझदारों के हर सुझाव के ठीक
उलट चलकर
जड़ सकती है तमाचा
ऐसी हर समझदारी के मुंह पर
जो समझौते से आती है
हथेली पर इंद्रधनुष उगाने का
सपना लिए
लगा सकती है पृथ्वी के पूरे सात चक्कर
और खाली हाथ लौटकर भी
खिलखिला सकती है
घर हो या घरौंदा
किसी पिंजड़े में नहीं बसते
उसके प्राण
आकाश के इस छोर से
उस छोर तक
विचरते हैं।
शताब्दियां बीत गईं
जमाने से लड़ते हुए
थके नहीं उसके पांव
पुरुषों के बियाबान जंगल में
सीधी तनी हुई
चलती चली जा रही है
वह बिगड़ैल लड़की।
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4 ज़िद
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वह दुनिया को प्रेम करने लायक बनाती रही
और
दुनिया उसे अपने लायक बनाने में लगी रही
उसके सपनों की दुनिया बन नहीं पायी
और
दुनिया उसे अपनी तरह बदल नहीं पायी
दोनों अपनी अपनी ज़िद पर कायम हैं।
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5 करती रही इन्तजार
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जब मैं सीता थी
अपने वनवासी पति का सिर गोद में लिए
बैठी ही तो थी भविष्य की बाट जोहती
देवताओं के राजा इन्द्र के बेटे जयन्त ने
मेरी छातियों को लहूलुहान कर दिया
जब मैं अहिल्या थी
अपनी कुटिया में सोई आधी नींद में
पति गौतम का इन्तजार करती हुई
देवताओं के राजा इन्द्र के
छलात्कार का शिकार बनी
आकाश में चमकने वाला चन्द्रमा
सिर्फ गवाह नहीं था
पूरे वाकये में शामिल था
देवताओं का देवत्व
इस कदर बरपा
कि मैं
पथरा गई
जब द्रौपदी हुई
अपने पाँचों पतियों की अनुगामिनी
(सनद रहे
कि मैंने नहीं वरा था पाँच पतियों को
माता कुन्ती के आदेश से
बाँट दी गई बराबर-बराबर)
मैं नहीं खेल रही थी जुआ
सिर्फ दाँव पर चढ़ा दी गई थी
मैं हारी नहीं थी
सिर्फ जीत ली गई थी
लायी गयी दुर्योधन की सभा में
पाँचों पतियों के साथ
और दुःशासन के पशुबल से
अपमानित हुई
कोई साधारण सभा नहीं थी वह
वहाँ पितामह भीष्म थे
वहाँ द्रोणाचार्य थे
वहाँ कृपाचार्य थे
और जाने कौन कौन से आचार्य थे सब धृतराष्ट्र थे एक स्त्री निर्वस्त्र की जा रही थी
और वह महान सभा देख रही थी
महारथी चुप थे
रश्मिरथी चुप थे
आचार्य चुप थे
इतिहासवेत्ता
नीति निर्माता
सब चुप थे
सोचती हूँ क्यों चुप थे सब !
कि दोष मेरा ही था
कि मेरे परिधान दोषी थे
नहीं तो मेरे स्त्री शरीर का दोष तो
होगा ही होगा
मैं इस स्त्री शरीर का क्या करूँ
जिसको लिए दिए
देवताओं
महारथियों
आचार्यों के
कल, बल, छल का
शिकार होती रही
पत्थर बनती रही
मुक्ति के लिए
किसी पुरुष के पैरों की ठोकर का
करती रही इंतजार।
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6 एक स्त्री को जानना
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मैंने एक स्त्री को जानना चाहा
उसके दुखों के सहारे
और नहीं जान पाया
मुझे
एक समूचा जीवन यह जानने में लग गया
कि एक स्त्री को जानना
केवल उसके दुखों को जानना नहीं है
एक स्त्री को जानना
उसके सपनों को जानना है
उसके उल्लास को
और आनंद को
जानना है.
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7 पत्नी होने की अनिवार्य शर्त
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वे पत्नी हैं
एक उच्चकुलीन घर की बेटी
निखालिस कन्नौजिया
उत्तर प्रदेश के एक बडे शहर के
बडे कालेज में पढाती हैं
पत्नी होने के लिए
एक अदद पति का होना आवश्यक है
खट्टू हो या निखट्टू
इसलिए एक पति पाला
उच्च कुल का पुरुष
कुल ही उसकी योग्यता
कुल ही उसकी ट्रेनिंग
उसे
रोजी रोटी के लिए
और कुछ करने की जरूरत ही नहीं थी
अत्यंत कुलीन
कुल का होने के बावजूद
उसने उदारतापूर्वक
बीबी को नौकरी करने की इजाजत दे रखी थी
यही क्या कम था
वैसे तो उसने
और भी बहुत सारे काम अपने हाथ में ले रखे थे
जैसे बीबी का बैंक एकाउण्ट
पैसे का हिसाब-किताब
खरीद-फरोख्त
और सबसे बढकर
बीबी की निगरानी
जिसे वह पूरी मुश्तैदी से करता था
वह कब किससे
मिलीं मिलीं तो क्यों
जैसी पूछताछ के साथ
गाली-गलौज
मारपीट
सब शामिल
उसने कार खरीदवाई
अपने नाम से
घर खरीदा
अपने नाम से
तर्क यह कि
तुम कहां कोर्ट कचहरी जाओगी
एक अदद पति को बनाये
और बचाये रखने के लिए
उसने सब किया
सब सहा
लेकिन सब व्यर्थ
बीबी के पैसे से खरीदे गये घर में
दूसरी औरत ले आया
अब बीबी एक कोने में रहती है
और सब कुछ सहती है
जैसा भी हो
पति है
पत्नी होने की अनिवार्य शर्त ।
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8 सोने का पिंजरा
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हम आसमानों को थाहने निकली हैं
हमें हमारे पंख लौटा दो
अपना
सोने का पिंजरा अपने पास रखो।
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9 मझली मामी
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वे जब व्याह कर आयीं थीं
तब हम छोटे बच्चे थे
वे बेहद खूबसूरत थीं
इतनी कि
उस बचपन में
वे हमें
मैदे के लोई की तरह लगतीं
गोरी चिट्टी और मुलायम
छू दो तो मैली हो जायें
बाद में समझ आया कि नहीं
वे ताजे सेब की तरह थीं
छू
दो
तो रस निकल आये
वे पढ़ी-लिखी नहीं थीं
शहराती भी नहीं थीं
हमारी तब की दुनिया में
शहराती औरतें थीं भी नहीं
न पढ़ी लिखी औरतों से हमारा पाला पड़ा था
लेकिन अपनी देहाती धज में
वे यों चलतीं
जैसे सीधे पल्ले की साड़ी पहने चाँद आ- जा रहा हो
उनके सौन्दर्य की सहजता से
हम सब अभिभूत थे
इसी बीच एक-एक कर
चार बच्चों को जन्म दिया
बेटे दो
बेटियां दो
एक से एक सुंदर
उनके सौन्दर्य की आभा में चलता रहा
मेरे ननिहाल का जीवन
गो उनका खुद का जीवन जैसा बीता
उसे बहुत अच्छा
या अच्छा नहीं कह सकते
हुआ यह कि
पति अपनी असफल महत्त्वाकांक्षाओं के दाग
शराब से धोकर साफ करने लगे
इसी में
खेत बिके
मान सम्मान बिका
मनहूसियत ने
घर में
घर कर लिया
वे उन बातों के लिए ताने सुनती रहीं
जिनसे उनका वास्ता नहीं था
सब देखती रहीं
सब सुनती रहीं
सब बीतता रहा
सब बीत ने दिया
बहुत कोशिश की कि पति सुधर जाय
शराब छोड़ दें
चुपके-चुपके
ओझा सोखा, झाड़ फूंक, दवा बिरो
सब करती रहीं
वे कोई पूजा पाठी नहीं थीं
लेकिन उनके भी अपने भगवान थे
जिन से वे सुख-दुख बतियातीं
कहतीं और कुछ नहीं
बस ये पहले जैसे हो जायं
लेकिन सब बेकार
जिनको पहले जैसा होना था
वे नहीं हुए पहले जैसे
पति की दुनिया अपने ढंग से चलती रही
और उस चलते हुए के साथ
घिसटता रहा उनका अपना जीवन
आखिर एक दिन आया
जब पति ने शराब छोड़ दी
पर बहुत देर से आया
इस बात को यों भी कह सकते हैं कि
पतिदेव ने दुनिया से
शराब की हस्ती मिटा देने का
जो बीड़ा उठाया था
उसे उठा लिया
बड़े बेटे ने
अब तक जो झाड़ फूंक पति के लिए होती रही
वही होने लगी बेटे के लिए
फर्क इतना था
कि अब पति भी शामिल थे
इस अभियान में
लेकिन यह कोशिश भी बेकार जानी थी
गयी
जहरीली शराब ने
एक दिन बड़े बेटे के गोरे शरीर को
नीला और ठंडा कर दिया
बात यहीं पर नहीं रुकी
पिता और बड़े भाई के अधूरे काम को पूरा करने के लिए
छोटा बेटा सामने आया
और बहुत जल्दी
वह भी जहरीली शराब का
शिकार हुआ
इस तरह उजड़ती गयी
उनकी दुनिया
और वे इस उजाड़ की
गवाह बनी रहीं
लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी
यह बीहड़ उजाड़
उनके सौन्दर्य को नहीं उजाड़ पाया
उनके नितांत खाली हाथों
और खाली जीवन में
एक सरल मुस्कान बची हुई थी
सौन्दर्य की मद्धिम रोशनी बिखेरती
इसी से वे
सभी अभावों
सभी विपत्तियों का
करतीं रहीं सामना
एक बार कभी उनसे कहा था-
जितनी सुंदर हैं आप
उतनी ही सुन्दर है आपकी मुस्कान
उनके चेहरे पर उतर आयी थी एक करुण मुस्कान
एक दीर्घ नि:श्वास के साथ उनका यह वाक्य
कि भाग्य नहीं था सुंदर
स्मृति में टंक गया
न विपत्तियों का सिलसिला थमा
न उनका सामना करनेवाली वह मुस्कान कम हुई
जो कुछ बाकी बचा था
उसे अब होना था
एक दिन
उनकी जुबान पर एक फुंसी निकल आयी
और देखते देखते
कैंसर में बदल गयी
इलाज शुरू हुआ
लगातार कीमोथेरपी
और रेडियो थेरपी की कष्टप्रद प्रक्रिया
दर्द का इलाज
इलाज का दर्द
मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों ज्यों दवा की
इस बेइंतहा दर्द के बीच
लगातार बनी रही उनकी मुस्कराहट
न गिला न शिकवा
बस मुस्करा देना
बीमारी आखिरी स्टेज पर पहुंच गई थी
कहते हैं
एक रात वे चुपके से उठीं
और देर तक ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी
काजल लगाती रहीं
अपनी सुंदर आंखों को
काजल से सजाना
उन्हें बेहद पसंद था
वे आखिरी सांस तक लगाती रहीं काजल
पानी और काजल के अलावा
कोई सौन्दर्य प्रसाधन नहीं था उनके पास
और न ही जरूरत थी
मृत्यु तेजी से क़रीब आ रही थी
चेहरा काला पड़ गया था
सारे जीवन का काजल
चेहरे में उतर आया था
पहले उनके चेहरे से सुंदरता गयी
फिर वे गयीं
जब वे गयीं
उनके बिस्तर पर
दो ही चीजें छूट गयीं थीं
एक छोटा सा कजरौटा
और एक करुण सी मुस्कान
जब वे ले जायी गयीं
अंतिम यात्रा के लिए
छोटी गंडक के किनारे
साथ साथ चली जा रही थी
वह करुण मुस्कान
उनके मृत्युभोज के लिए
सफेद कागज पर
शोक संदेश मिला
तब जाकर मालूम हुआ
जिन्हें
हम सिर्फ मझली मामी के संबोधन से जानते आये थे
उनका नाम प्रीतिबाला है
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10 धिक्कार है
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धिक्कार है
तुम्हारे प्रेम को
तुम्हारी कसमों को
तुम्हारे ईश्वर को
धिक्कार है
तुम्हारी जाति को
तुम्हारे कुल को
धिक्कार है
तुम्हारे अहंकार को
तुम्हारी आन बान शान को
धिक्कार है
तुम्हारी ऊंची नाक को
जिसका तुम्हें इतना गुमान है
ध्यान से देखो
मेरी जूतियों पर रगड़ते-रगड़ते
घिस गई है तुम्हारी नाक
उसका गंध बोध खत्म हो गया है
मिट गया है
पसीने और पेशाब का फर्क
धिक्कार है
तुम्हारी दुनिया पर
जो सिमट गई है
छल और फरेब में
बलात्कार और गर्भपात में
धिक्कार है
तुम्हारे अस्तित्व पर
तुम्हारे होने पर
थूकती हूँ मैं
आक्क थू
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11 वह तीन नामों वाली लड़की
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(अनूप श्री विजयिनी के लिए)
मां सिर्फ मां थी
दादी सिर्फ दादी
नानी का भी यही हाल था
दीदी हद सेहद दिदिया हो जाती थी
मौसी ,बुआ और काकियां भी
बेनाम रहती चली आईं थी
कभी-कभी इनके साथ
जगहें जुड़ जाती थीं
मसलन -
कोई छपरा वाली
कोई हरैया वाली
कोई पटना वाली
और जगहों के सहारे
वे जानी जाती रहीं
कभी-कभी किसी नाम का
तमगा लग जाता
किसी की बीवी
किसी की बेटी
किसी की बहू
या
किसी की बुआ होती थीं वे
इस तरह बेनाम रहकर
जीना सीख आई थीं
कुल खानदान की
सारी की सारी औरतें
बेनाम औरतों की कहानियां सुन सुनकर
उदास हो चली थी वह
एक सुबह वह उठी
और अचानक घुस गई
नामों के कोठार में
अपने लिए उठा लाई
तीन नाम
और ऐलान कर दिया कि लो -
तुम एक नाम नहीं दे रहे थे
और मैं उठा लाई
तीन-तीन नाम
हालांकि आसान नहीं था यह
तरह-तरह से मजाक बनाया गया
ताने मारे गए
फिर भी
अपने तीन नामों के साथ घूमती रही
इस राजधानी से
उस राजधानी तक
खाक छानती रही
खाक छानते हुए भी खुश थी
कि उसके पास तीन-तीन नाम है
जिसमें अतीत की गुमनामी है
जिसमें वर्तमान की जद्दोजहद है
और भविष्य की विजय गाथा है
इस तरह मिली
अपने तीनों नामों को उजागर करती हुई
वह तीन नामों वाली लड़की।
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12 नए के आरंभ में
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उसके सपने पूरे नहीं हुए थे
अधूरे रह गए थे मिशन
हसरतें
बस हसरतें बनकर रह गई थीं
बालों में उतर आई सफेदी
गजर की तरह बजी जा रही थी
इन सबसे बेपरवाह
आज भी वह जुटी है
किसी नए के आरंभ में
(24.09.2019 )
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13 बस कोई दिन
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रोज ही स्त्री सुबोधिनी पढाई जाती है
रोज ही लक्ष्मण रेखाओं से उलझती हूं
घर लौटने पर
रोज-रोज की
अग्नि परीक्षाएं
कोई दिन तुम भी पढ लो स्त्री सुबोधिनी
रह जाओ लक्ष्मण रेखा के भीतर
दे डालो अग्निपरीक्षा....
बस कोई दिन।
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14 वाल्मीकि की बेटियाँ
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वाल्मीकि की बेटियां
लौटकर राजधानी नहीं आतीं
राजा से दया की भीख नहीं मांगती
सिंहासन की
आँखों में आँखें डालकर बात करती हैं
वाल्मीकि की बेटियाँ
वन में रह जाती हैं
कुश पर सोती हैं
कांटे पर चलती हैं
आग में जल जाती हैं
पानी में डूब जाती हैं
धरती में समा जाती हैं
वाल्मीकि की बेटियां
सच से समझौता नहीं करतीं
वाल्मीकि की बेटियां
वे जब धरती में समा जाती हैं
बहुत देर तक हिलती रहती है
धरती।
*
(2021)
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15 औरतों की जीभ
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बहुत बढ़ गयी है
औरतों की जीभ
बहुत बोलने लगीं हैं औरतें
हक जताने लगीं हैं औरतें
मुनासिब नहीं है
औरतों का बोलना
और हक जताना
यह एक सामाजिक अपराध है
यह एक धार्मिक अपराध है
औरतों के बोलने से
हिल जाते हैं
सिंहासन
औरतों के बोलने से
हिल जाती है
धर्म की ध्वजा
भंग हो जाती हैं
महामुनि की महान तपस्याएँ
औरतों की बढ़ी हुई जीभ
धर्म की हानि है
इसे हजारों साल पहले ही
जान लिया गया था
जब-जब बढ़ जाती है
औरतों की जीभ
काट ली जाती है।
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कवि परिचय –
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सदानन्द शाही। जन्म 7 अगस्त 1958। ग्राम सिंगहा जनपद कुशीनगर उप्र। साहित्यिक पत्रिका साखी और कर्मभूमि के सम्पादक। कविताओं के चार संग्रह। कुछ और पुस्तकें :कविताओं के उड़िया, बांग्ला, नेपाली, मराठी, अंग्रेज़ी और इतालवी में अनुवाद। बीएचयू में हिन्दी के अध्यापक रहे। सम्प्रति “बुद्ध की धरती पर कविता” आयोजन शृंखला का आयोजन। कबीर, रैदास और प्रेमचन्द पर कुछ काम प्रका़शित। जर्मनी, फ़्रांस, इटली, अमेरिका, सिंगापुर, मारीशस आदि देशों की यात्राएँ। DAAD Fellow के रूप में हाइडेलवर्ग विश्वविद्यालय में फेलो।
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