आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को बताने वाले आचार्य रामचन्द्र तिवारी
आज आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जन्मदिन है लेकिन लिख रहा हूँ रामचन्द्र तिवारी के बारे में ।रामचन्द्र शुक्ल और रामचन्द्र तिवारी केवल नाम साझा नहीं करते जन्म तिथि भी इस मायने में साझा करते हैं कि शुक्ल जी की जन्मतिथि 4अक्टूबर है तो तिवारी जी की 4 जून। रामचन्द्र तिवारी ने आचार्य शुक्ल की व्याख्या में पूरा जीवन यों ही नहीं लगाया था।इसलिए आचार्य शुक्ल की जन्मतिथि पर उनकी ही परम्परा के आलोचक और उनके अनन्य अध्येता को याद करने की संगति बनती है। बक़ौल कबीर गुरू गोविंद दोऊ खड़े वाली बात है।पिछले दिनों गोरखपुर से लौटकर मैंने यह चित्र लगाया था और एक छोटी सी टिप्पणी भी लिखी थी। यह चित्र 1985 - 86 के किसी दिन का है।इसमें भगवती प्रसाद सिंह रामचन्द्र तिवारी को उत्तरीय देकर सम्मानित कर रहे है।हम लोगों ने उसी साल एम ए की परीक्षा उत्तीर्ण की थी जिस साल तिवारी जी रिटायर हुए ।चूँकि हम लोग आख़िरी बैच के विद्यार्थी थे इसलिए हमें तिवारी जी का स्नेह भी भरपूर मिला।
हम लोगों ने अपने प्रिय अध्यापक प्रो रामचन्द्र तिवारी की षष्ठिपूर्ति के अवसर पर राष्ट्रीय संगोष्ठी और सम्मान समारोह आयोजित किया था।यह हम छात्रों द्वारा आयोजित पहला कार्यक्रम था।हमें नहीं मालूम था कि हम अध्ययन अध्यापन की दुनिया का हिस्सा बन जायेंगे और इतनी दूर तक चलते चले आयेंगे… हमें यह भी आभास नहीं था कि विश्वविद्यालय के शिक्षकों की दुनिया बहुस्तरीय क्षुद्रताओं से भरी है…. आयोजन के दौरान विलक्षण क्षुद्रताओं से साक्षात्कार हुआ …. और अब इतनी यात्रा के बाद यह देखकर किंचित् आश्चर्य और दुख की अनुभूति होती है कि तमाम ऊँचाइयाँ हासिल करने के बाद भी क्षुद्रताओं का छिछलापन जस का तस है… बावजूद इसके हम गाँधी की बात पर अमल करते रहे हैं कि पाप से घृणा करो पापी से नहीं । हमने छिछलेपन और क्षुद्रताओं से परहेज़ किया… हमारे मन में क्षुद्र लोगों के लिए भी सद्भावना ही रही ,हम उनकी दयनीयता पर दया करते रहे… आज भी हम यही कामना करते हैं कि बड़े से बड़े पदों पर पहुँच जाने के बावजूद जिनकी क्षुद्रताएँ अक्षुण्ण बनी हुई हैं जाती हुई बरसात का पानी उनके मन का कलुष धोए और थोड़ा बहुत मनुष्य होने की इज़्ज़त बख्शे।…भवति सब्ब मंगलम्।
बात साथ के चित्र की हो रही है जिसमें भगवती प्रसाद सिंह रामचन्द्र तिवारी का सम्मान करते हुए दिखाई पड़ रहे हैं ।भगवती प्रसाद सिंह रामचन्द्र तिवारी के ठीक पहले अध्यक्ष थे।कुछ लोग तिवारी जी के सम्मान समारोह का विरोध इसलिए कर रहे थे कि सम्मान होना ही है तो पहले सिंह साहब का होना चाहिए ।हमारे मन में सिंह साहब के प्रति भी पर्याप्त सम्मान और आदर था।लेकिन वे प्रत्यक्ष तौर पर हमारे गुरू नहीं थे।ज़ाहिर है उनका सम्मान उन लोगों को करना चाहिए था जो हमारे आयोजन का विरोध कर रहे थे।वे लोग सिंह साहब के लिए सम्मान समारोह आयोजित करने की जगह तिवारी जी के लिए आयोजित होने वाले समारोह में बाधा बन रहे थे।तर्क यह था कि सिंह साहब को कितना बुरा लगेगा। हम सीधे पहुँचे सिंह साहब के पास ।उनसे कार्यक्रम के बारे में बताया और अनुरोध किया कि वे सम्मान सत्र की अध्यक्षता करें और तिवारी जी को सम्मानित करें।उन्होंने हमारा अनुरोध सहर्ष स्वीकार कर लिया और ख़ुशी ख़ुशी सम्मान समारोह में शामिल हुए ।यह चित्र आज भी इस बात की गवाही दे रहा है।
कुछ लोग इस बात से नाराज़ थे कि रिटायर होने वाले व्यक्ति का नहीं बल्कि आगामी अध्यक्ष का सम्मान होना चाहिए ।हालाँकि उन्हें ऐसा करने से किसी ने मना नहीं किया था पर वे बिना हर्रे फिटकिरी के रंग चोखा करना चाहते थे।बाद में हमें समझ आया कि वे ऐसी प्रजाति के लोग थे जिन्हें हर अध्यक्ष से कुछ काम निकालना रहता और इसके लिए उसे खुश रखना होता था।आने वाले अध्यक्ष को खुश करने का एक ही तरीक़ा उन्हें आता था ‘ विदा हो रहे अध्यक्ष को अपमानित करो’। दोनों तरह के महानुभावों के बावजूद हम वह सम्मान समारोह कर पाये तो इसलिए कि दृश्य में कुछ ऐसे लोग थे जिनमें मानवीय संवेदना थी और थी व्यक्तित्व की गरिमा ।
हम सम्मान समारोह किसी लाभ या लोभ में नहीं कर रहे थे।हमने तो सिर्फ़ एक सच्चे अध्यापक और एक अच्छे मनुष्य के लिए अपने प्रेम का इज़हार किया था।जो प्रेम हमारे जीवन का अंग तब भी था आज भी है।
आख़िर हमारे आचार्य ने हमें इसी रूप में गढ़ा था ।
रामचन्द्र तिवारी : दो संस्मरण
1
हमारा एम ए अंतिम वर्ष का सत्र समापन की ओर था । तब साल भर परीक्षाएँ नहीं होती थीं ।सालाना परीक्षा होती थी । परीक्षा नज़दीक थी ।मैं कोई बहुत अच्छा विद्यार्थी नहीं था फिर भी अच्छे अंकों से पास होने की ललक पैदा हो गयी थी।कुछ सवाल लेकर सुबह सुबह पहुँच गया तिवारी जी के यहाँ ।उस समय यह भी तमीज़ नहीं थी कि किससे मिलने कब जाना चाहिए और कब नहीं ।वैसे तो तिवारी जी बड़े प्रेम से बैठाते और लम्बी चर्चा करके हर शंका और जिज्ञासा समाधान करके वापस भेजते।उस दिन उन्होंने जल्दी जल्दी निपटाया और विदा करने के मूड में आ गये।मुझे उनका यह व्यवहार अजीब लग रहा था।शायद वे भाँप गये।चलते चलते बोले अरे भाई क्लास है मेरी,निकलने के पहले कुछ देख लेना है।मुझे मालूम था कि दस बजे से उनकी कबीर की क्लास है। मैंने कहा - सर कबीर की क्लास है उसमें आप को क्या देखना? उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखा और यह चौपाई पढ़ी - शास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ । भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ।।आपने शास्त्र का भले ही अच्छी तरह अध्ययन किया हो लेकिन उसे बार बार देखते रहना चाहिए, नहीं तो बातें भूल जाती है।इसी तरह अच्छी तरह सेवा करने के बावजूद राजा को बस में हुआ नहीं मान लेना चाहिए ।वह किसी बात पर नाराज़ होकर दण्डित कर सकता है।यानी शास्त्र और राजा को टेकेन फ़ॉर ग्रांटेड नहीं लेना चाहिए ।
यह पाठ मुझे अब भी याद है।
2
बात सन् दो हज़ार एक के आरम्भ की है।दिल्ली में हुए भीषण एक्सीडेंट से उबरने के बाद मैं गोरखपुर गया था।बनारस जाने का मन बना चुका था।लेकिन कुछ औपचारिकताएँ बाक़ी थीं।इसलिए मेडिकल लीव के बाद गोरखपुर विश्वविद्यालय में ही काम करना था।मैं अपनी गुरू प्रो शांता सिंह के यहाँ रुका हुआ था।वहीं से विभाग आना जाना हो रहा था।शांता जी की नतिनी और मेरी भतीजी स्वस्ति ( बचपन का नाम गोलू) जिसे मैंने बचपन में गोदी में खिला चुका था,मुझे स्कूटर से प्राचीन इतिहास वाले गेट पर छोड़ देती।और मैं छड़ी के सहारे धीरे धीरे विभाग चला जाता।उसी समय की बात है।तिवारी जी ने फ़ोन किया और पूछा कि तुमको देखने आना चाहता हूँ,कब आऊँ? मैंने कहा कि सर आप क्यों परेशान होंगे,मैं ही किसी के साथ आ जाऊँगा ।उन्होंने कहा- मैं तुम्हें देखना चाहता हूँ इसलिए आऊँगा तो मैं ही।तुम बताओ कब आऊँ? मेरे पास कोई चारा नहीं था।मैंने अगले दिन के लिए कह दिया।रविवार का दिन था तिवारी जी रिक्शे से आये ।दोपहर के बाद की जाड़े की ख़ुशनुमा धूप थी। हम लॉन में बैठे ।तिवारी जी शांता जी और मैं।उन्होंने विस्तार से मेरा हाल जाना।और भी बहुत सी बातें हुईं ।शाम ढलने को हुई ।तिवारी जी लौटने लगे। रिक्शा बुला लिया गया।वे बाहर निकल गये।मैं गेट तक छोड़ने आया। रिक्शे पर चढ़ते चढ़ते तिवारी जी रुक गये। लौटकर मेरे पास आए ।बोले - एक और बात कहनी थी, तुम पता नहीं ईश्वर को मानते हों या नहीं प्रकृति को तो मानते होगे,तो जो भी हो ईश्वर या प्रकृति वह जब किसी को इस तरह मृत्यु के मुख से बचा लेती है, उससे उसको ( प्रकृति को) कोई बड़ा काम लेना होता है।तो तुम्हें कोई बड़ा काम करना है।मेरे यह कहने पर कि मैं किस लायक़ हूँ और कौन सा बड़ा काम करूँगा वे हँसते हुए बोले - ‘जो अपने को पहले ही बहुत लायक़ और बड़ा मान लेते हैं वे कुछ बड़ा नहीं कर पाते।तुम करोगे कोई बडा काम।यह इतिहास विधाता का निर्णय है।’
आजतक तो मुझ से कोई ठीक ठिकाने का काम हुआ नहीं बड़ा तो खैर क्या ही होगा! लेकिन गुरुवर रामचन्द्र तिवारी का वह विश्वास आशीर्वाद की तरह मेरे साथ बना हुआ है।
उन्हें और उनके प्रिय आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल को हार्दिक श्रद्धांजलि ।
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