Thursday, 3 October 2024

रामविलास शर्मा की वर्ण साधना - कृष्णमोहन

(निराला ने 1929 में "वर्णाश्रम धर्म की वर्तमान स्थिति" शीर्षक लेख में घोर वर्णाश्रमवादी विचार व्यक्त किए, लेकिन यह इस तरह का उनका अंतिम लेख साबित हुआ। 1930 में लिखे "वर्तमान हिंदू समाज" शीर्षक लेख में उनके विचार बदले हुए हैं। इसके बाद वे 31 साल जीवित रहे और मृत्यपर्यंत वर्णव्यवस्था का विरोध करते रहे। रामविलास शर्मा ने सचेत रूप से उनके 1929 वाले लेख के विचारों को प्रचारित किया और बाद वाले लेखन पर, बकौल कवि त्रिलोचन, 'कोलतार ले लेकर पोता'। अफ़सोस की बात है कि दलित चिंतकों ने भी इस मामले में रामविलास शर्मा के ही पदचिह्नों का अनुसरण किया है। उन्होंने कुछ उद्धरणों के सहारे निराला को दलित विरोधी घोषित करने का उत्साह तो दिखाया है, लेकिन इस विषय की पर्याप्त छानबीन नहीं की है। रामविलास शर्मा वाले प्रकरण पर मैंने पिछले साल छपी अपनी किताब "रामविलास शर्मा की वर्णसाधना" में विस्तार से विचार किया है। उसका एक हिस्सा यहां शेयर कर रहा हूं।)

1930 का वर्ष निराला के वैचारिक रूपांतरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस साल उन्होंने वैचारिक-दार्शनिक स्तर पर अपनी ख़ुद की राह बनानी शुरू कर दी थी। इससे पहले का वेदांती-वैष्णव दृष्टिकोण, जिसमें जगत और ब्रह्म के बीच खींचतान दिखाई पड़ती है, अब जगत की ओर अधिकाधिक उन्मुख होने लगता है। इस दृष्टि से उनके दो निबंध ख़ास तौर पर उल्लेखनीय हैं। पहला है 'वर्णाश्रम धर्म की वर्तमान स्थिति' (1929, 'चाबुक' और रचनावली भाग 6 में संकलित) और दूसरा 'वर्तमान हिंदू समाज' (1930, 'प्रबन्ध-प्रतिमा' और रचनावली भाग 6 में संकलित)। पहले निबंध में जाति-पांति तोड़क मण्डल को जवाब देते हुए निराला ने वर्णव्यवस्था-समर्थक तर्क दिए थे, लेकिन 1930 के निबंध में मानो वे अपनी स्थिति पर पुनर्विचार करते हैं, और नए नतीजों पर पहुँचते हैं। पहले 1929 वाले लेख का आलोचक द्वारा दिया गया हवाला देखें---

"उस समय ब्राह्मण का उत्कर्ष और शूद्र का उत्कर्ष बराबर न था। इसलिए दोनों के लिए दण्ड भी अलग-अलग थे। इसके सिवा 'लघु दण्ड से शूद्रों की बुद्धि भी ठिकाने न आती।' ('वर्णाश्रम धर्म की वर्तमान स्थिति'; चाबुक, पृ. 73) शूद्रों ने समाज की सेवा अवश्य की किन्तु उनके "जरा से उपकार पर सहस्र-सहस्र अपकार होते थे।" अपकार यह था कि द्विजों के शुद्ध समाज को शूद्रों के शरीर से निकले हुए दूषित परमाणु प्रतिक्षण अस्वस्थ करते थे। शूद्रों द्वारा किए हुए इस उत्पीड़न को सहते हुए ब्राह्मणों ने समाज की रक्षा के लिए कुछ कठोर नियम बना दिए तो कौन-सा वज्रपात हो गया !" (निराला की साहित्य साधना, भाग दो, पृष्ठ 101)

यहाँ प्रसंग जाति-पांति तोड़क मण्डल के संचालक संतराम को दिए निराला के जवाब का है। इसमें उन्होंने शंकराचार्य की वर्णाश्रम-व्यवस्था का औचित्य बताते हुए कहा था कि शूद्रों के बीजाणु ब्राह्मणों के लिए घातक थे, इसलिए शंकर ने शूद्रों पर कठोर अनुशासन का समर्थन किया था। निराला ने अपने समाज से प्राप्त बहुत सारे वर्णाश्रमवादी संस्कारों के साथ लेखन की शुरूआत की थी। लेकिन अपनी सीमाओं के बावजूद सामाजिक मसलों पर उनका आत्मसंघर्ष खरा और तीखा था। यह लेख वर्णाश्रम धर्म का औचित्य प्रतिपादन करने के मामले में संभवतः अंतिम है। इसके बाद उन्होंने वर्णव्यवस्था की अप्रासंगिकता, और दलित-शूद्र जातियों के उत्थान और समाज की अगुवाई करने की उनकी अपरिहार्य भूमिका की पेशीनगोई की। अगले ही साल लिखा उनका लेख 'वर्तमान हिंदू समाज' इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। लेकिन रामविलास शर्मा जानबूझकर उनके इस पहलू पर पर्दा डालते हैं, और उनके पिछले लेख के हवाले से वर्णव्यवस्था का समर्थन मुदित भाव से करते हैं। उन्हें अच्छी तरह पता है कि जो उद्धरण वे दे रहे हैं, वह निराला की वैचारिक यात्रा के आरंभिक दौर का है। इस यात्रा में 1930 के बाद आए बदलाव से वे बख़ूबी परिचित हैं और एक भिन्न संदर्भ में लिखते भी हैं कि "सन् '३० के बाद की रचनाओं में यह फासला प्रायः खत्म हो जाता है। क्रान्ति करना क्रान्तिकारियों का ही काम नहीं है; क्रान्ति जनता करती है, तभी वह सफल होती है ।" (वही, पृष्ठ 158) लेकिन इस लेख में व्यक्त हुए निराला के वर्णव्यवस्था-समर्थक विचारों को ही उनके वास्तविक विचार सिद्ध करने के लिए वे इसके बाद व्यक्त हुए वर्णव्यवस्था-विरोधी विचारों को खुलेआम तोड़ते-मरोड़ते हैं। आप स्वयं ही देखें---

"पर कुछ काल बाद फिर ब्राह्मणों के मस्तिष्क में स्पर्धा ने प्रचण्ड रूप धारण किया। भगवान् बुद्ध आये। अब की ब्राह्मणों के शास्त्र-शस्त्र भी उड़ा दिये गये। वैदिक सभ्यता ही न रह गयी। उन्होंने अपनी तपस्या से प्राप्त ज्ञान की ज्योति फैलायी। शिक्षा का माध्यम रहा उसी समय की प्रचलित भाषा। साधारण जनों को यह बात बहुत पसन्द आयी। कुछ काल के लिए फिर भारत में सुख-शान्ति का साम्राज्य हुआ। पर इसके बाद ही आचारवान् ब्राह्मणों ने फिर सिर उठाया। भगवान् शंकर ने बौद्धों को परास्त कर वेदों का उद्धार किया। बौद्धों के शून्यवाद का 'सच्चिदानन्द' के 'अस्ति, भाति, प्रिय' द्वारा खण्डन किया। बुद्ध के विशाल हृदय के कारण जो अधिकारियों का भेद न रह गया था, वह शंकर के समय घोर अधिकार-भेद को लेकर खड़ा हुआ। अधिकारियों का भेद न रखने से बौद्ध-धर्म शीघ्र ही नष्ट हो गया, सब वर्णों तथा उभय लिंगों के एकत्र वास के कारण आचरण शुद्ध नहीं रह सके । इधर ब्राह्मणों में आचार-निष्ठा थीं। वे आस्तिक थे पर हृदयहीन थे, जैसा कि मस्तिष्क और हृदय में कुछ वैषम्य रहता है। ब्राह्मणों के आचारवान् होने के कारण भगवान् शंकर ने उन्हें ही सर्वोत्तम अधिकारी चुना। यही कारण है कि आज नये सुधारक, जिन्हें शूद्रों का पक्ष लेना होता है, शंकर पर शूद्र-विरोध का लांछन लगाते हैं। पर शंकर किसी के विरोधी और किसी के मददगार नहीं थे। उन्होंने मार्जन को देखकर अधिकारियों का निर्वाचन किया है। शंकर की दृष्टि केवल चमक पर थी, और वह धर्म की रक्षा अधिकारियों में ही समझते थे। इसलिए उनके नियम बड़े कठोर हुए। वैदिक ज्ञान की मर्यादा तथा महत्त्व को स्थिर रखने के लिए शूद्रों के प्रति उनके अनुशासन बड़े कठोर हैं। यही कारण है कि शूद्र उन्हें अपना शत्रु समझते हैं। कुछ हो, शंकर का महान् मस्तिष्क-धर्म भी अधिक काल तक यहाँ स्थायी नहीं रह सका। उनका आदर्श इतना ऊँचा था कि उस समय की क्रमशः क्षीण होती हुई प्रतिभा उस उज्ज्वलता को धारण नहीं कर सकी। शंकर का आगमन जैसे वैदान्तिक प्रतिष्ठा के लिए ही हुआ हो, जैसे ज्ञानकाण्ड की स्थापना तथा बौद्धों के उच्छेद के लिए ही वह आये हों। शंकर के बाद भारत को शीघ्र ही एक ऐसे धर्म की आवश्यकता पड़ी, जिसमें हृदय-जन्य सुख तथा अनुभूतियों का आधिक्य हो। फिर रामानुज आये। इनके बाद अब तक हृदय-धर्म का ही प्राबल्य रहा। वैष्णव-धर्म के अन्तर्गत भी जाति-पाँति का भेद नहीं रहा।" (वर्तमान हिंदू समाज, 1930, रचनावली, भाग 6, पृष्ठ 120-21)

इस उद्धरण से कोई भी आसानी से यह समझ सकता है कि निराला अपने ढंग से बुद्ध और शंकर को अलग अलग सामाजिक-ऐतिहासिक आवश्यकताओं की उपज बता रहे हैं। जातिगत-श्रेष्ठता पर आधारित अधिकार-भेद को स्वीकार न करने के कारण बौद्धों का अवसान हुआ। शंकर के 'महान मस्तिष्क-धर्म' की व्यावहारिक सचाई यही है कि उनकी 'दृष्टि केवल चमक पर थी'। ज़ाहिर है कि आचार की श्रेष्ठता को निराला केवल बाहरी चमक-दमक मानते हैं। किसी कथित ज्ञानी के लिए यह कहा जाए कि उसकी नज़र केवल बाहरी चमक-दमक तक जाती है तो इसका अर्थ है कि उसका नज़रिया सतही है। यहाँ शंकर के बारे में उनके वास्तविक विचार प्रकट हुए हैं। बाक़ी जो प्रशंसा उनके ज्ञान और मस्तिष्क की हुई है, उसे रस्मी शिष्टाचार समझना चाहिए। वैसे भी इस विचार-प्रणाली का जैसा वर्चस्व भारतीय चिंतन-पद्धतियों पर रहा है, और शासकवर्गीय सामाजिक शक्तियों का जैसा समर्थन इसे इसके उद्भवकाल से ही मिला हुआ है, इससे अधिक कुछ कहने की बात शायद निराला सोच भी नहीं सकते थे। ध्यान रखें कि शंकर का समय बुद्ध के लगभग बारह शताब्दी बाद का है। इस बीच बौद्धों के योगदान को निराला अत्यंत उत्साह के साथ स्वीकार करते हैं। लेकिन समय के साथ जब बौद्धों में कुछ आचारगत शिथिलता आई तो उसका फ़ायदा 'अधिकार-भेदवादियों' ने उठाया। लेकिन उनकी बाहरी चमक-दमक अधिक नहीं टिक सकी क्योंकि उसमें मनुष्य-मात्र के प्रति हार्दिक संवेदना का अभाव था। इसी वजह से शंकर के धर्म का भी विलोप हो गया। रामानुज के वैष्णव धर्म की समायानुकूलता के कारण ही वह अब तक प्रबल बना हुआ है। उसकी सबसे बड़ी विशेषता जाति-पांति भेद का न होना है। 

ग़ौरतलब है कि अब से लगभग हजार वर्ष पूर्व रामानुजाचार्य ने शंकराचार्य के अद्वैतवाद के विरुद्ध विशिष्टाद्वैत का प्रतिपादन किया था। उन्होंने शंकर के विपरीत ईश्वर की भक्ति के मार्ग में दलित-उत्पीड़ित तबकों के भी समानता के अधिकार को स्वीकार किया था, और इसके लिए संघर्ष किया था। यह अपने समय का एक महान सुधारवादी क़दम था, जो आगे चलकर भक्ति-आंदोलन की एक प्रमुख प्रेरणा बना। लेकिन रामविलास शर्मा जिस तरह निराला को उद्धृत करते हैं, पूरी बात ही उलट जाती है।

आलोचक के मंतव्य को और साफ़ करने के लिए इसी प्रसंग का एक और उद्धरण देखें---"वैष्णव धर्म के साथ 'भारतवर्ष में दुर्बलता खूब फैली'; लोग मस्तिष्क धर्म अर्थात् ज्ञान भूल गए; 'हृदय-धर्म के कारण यहाँ के लोग सुखों की कल्पना में भूल गए। चारित्रिक पतन हुआ।' शूद्र ब्राह्मणों की बराबरी करने लगे। 'अपढ़ रैदास भी जब ईश्वर प्राप्त करने लगा, और नाम की महत्ता का प्रचार हुआ, तब बस फिर क्या, माला जपना मुख्य और अध्ययन गौण हो गया।' " (वर्तमान हिंदू समाज, 1930, रचनावली भाग 6, पृष्ठ 121, 'साहित्य साधना' में उद्धृत पृष्ठ 103)

यह अंश ऊपर दिए इसी पृष्ठ के उद्धरण के तुरंत बाद का है। इन पंक्तियों से आलोचक महोदय ने यह ज़ाहिर करने का प्रयत्न किया है कि रामानुज आदि के वैष्णव धर्म के, भक्ति के क्षेत्र में, सभी वर्णों को समान मानने, और कबीर तथा रैदास जैसे निम्न वर्णों से आए संत कवियों के उभार के कारण समाज में झूठी बराबरी का प्रचलन हुआ। विद्याध्ययन की जगह माला जपने जैसे बाहरी कर्मकांडों ने ले ली। दूसरे शब्दों में, वैष्णव धर्म से प्रेरित संत कवियों के उत्थान से समाज में ढोंग और पाखंड बढ़ा। अब इस अंश को सही ढंग से समझने के लिए निराला-लिखित मूल प्रकरण भी देख लें ताकि आलोचक महोदय की योजना का पता चल सके---

"वैष्णव-धर्म की उदारता के साथ ही भारतवर्ष में दुर्बलता खूब फैली। हृदयधर्म के कारण यहाँ के लोग सुखों की कल्पना में भूल गये। चारित्रिक पतन हुआ। अनेक देव-देवियों की उपासनाएँ फैल गयीं। साधारण कोटि के लोगों में विचारों की उच्चता न रही। वे उपन्यासों के पाठकों की तरह पुराणों के उपाख्यानों में आ पड़े। ज्ञान का विस्तार सीमा में बँध गया। अपढ़ रैदास भी जब ईश्वर प्राप्त करने लगा, और नाम की महत्ता का प्रचार हुआ, तब बस फिर क्या, माला जपना मुख्य और अध्ययन गौण हो गया। संसार की असारता तो भारतवर्ष में आज भी प्रबल है। फल यह हुआ कि द्विजाति भी विद्या से रहित, दुर्गुणों से भरे-पूरे होने लगे। इधर विश्वास भी रहा कि एक ही डुबकी गंगा में लगावेंगे, जन्म-जन्मान्तर के पातक-पुंज को डुबा देंगे, और फिर ब्रह्म की ही तरह चमकते हुए निकलेंगे।…..... पुराणों के उपाख्यानों का भीतरी रहस्य लोग भूल गये, उन्हें इतिहास के रूप से पढ़ने लगे। उन्हीं पर उनका विश्वास हो गया, जैसा कि अशिक्षितों का अन्धविश्वास होता है। चारित्रित पतन के कारण समाज में शिथिलता आयी, और हेकड़ी, हठ, अभिमान, अहंकार आदि ने सिर उठाया, स्वामिजनों का सेवकों तथा शूद्रों पर अनुचित दबाव पड़ने लगा।" (वर्तमान हिंदू समाज, 1930, रचनावली भाग 6, पृष्ठ 121-22)

इस उद्धरण के अंतिम वाक्य से स्पष्ट है कि निराला, दरअसल, 'बराबरी' की नहीं 'ग़ैरबराबरी' यानी शूद्रों और सेवकों पर अनुचित दबाव डालने वाले हठी और अहंकारी स्वामियों की कारस्तानियों की शिकायत कर रहे हैं। इधर रामविलास शर्मा 'चारित्रिक पतन' वाले वाक्य के बाद अपनी तरफ़ से लिखते हैं कि 'शूद्र ब्राह्मणों की बराबरी करने लगे'। पूरे प्रसंग से स्पष्ट है कि मसला बराबरी का नहीं, 'द्विजातियों के विद्यारहित होने' का है। इन द्विजातियों ने रैदास आदि औपचारिक शिक्षा से वंचित संतों के उदाहरण का यह अर्थ लगाया कि अब विद्याध्ययन की ज़रूरत नहीं है। इससे ब्राह्मणों में अध्ययन की कमी हुई और उसकी जगह माला फेरने की प्रथा ने ले ली। संतों ने तो पोथी-पत्रा वाले रास्ते को छोड़कर 'एक ओंकार सतनाम' को अपना लिया था। उसीको नियमित और अनुशासित रूप से जपने और गिनने के लिए उन्होंने मनकों का प्रयोग किया, और इस प्रकार मन की गति और दिशा को नियंत्रित करके आध्यात्मिक अनुभव पाने की राह खोजी। लेकिन विद्याध्ययन और ज्ञान का अपना महत्व था, जिससे पारंपरिक रूप से शिक्षित समाज विमुख हुआ। लेकिन रामविलास शर्मा ने इसका अभिप्राय जिस तरह प्रस्तुत किया है उससे लगता है कि अनपढ़ रैदास की देखादेखी समाज में झूठे कर्मकांडों और पाखंडों की बाढ़ आ गई थी, ख़ासकर 'ब्राह्मणों की बराबरी करने' के चक्कर में पड़े शूद्रों के अंदर, जिसकी निराला निंदा कर रहे हैं। 
जहाँ तक शूद्रों द्वारा ब्राह्मणों की बराबरी करने की बात है तो इससे तकलीफ़ किसे हो रही थी, निराला को या  रामविलास शर्मा को, इसे जानने के लिए उसी लेख का यह अंश भी देखते चलें---"रैदास की शिष्या रानी भी थी। सदन कसाई का नाम आज भी प्रातःकाल उठकर बड़े-बड़े ब्राह्मण बड़े चाव से जपते हैं। अधिक क्या, प्रत्येक समाज से उतने ही बड़े महापुरुष निकले हैं, जितने बड़े ब्राह्मण समाज में हो सकते हैं। जो आत्मिक उत्कर्ष मण्डन मिश्र ने वेदाध्ययन से प्राप्त किया था, वही उत्कर्ष व्याध मांस बेचकर प्राप्त करता है। पर योरप में किसी जूते गाँठनेवाले अपढ़ की मर्यादा ऐसी नहीं कि वह लॉर्ड-खानदान के साथ बराबरी का व्यवहार करे। यहाँ की सामाजिक प्रणाली दूसरी ही थी।" (वर्तमान हिंदू समाज, 1930, रचनावली भाग 6, पृष्ठ 121)

इस समूचे प्रकरण में आलोचक की मंशा पर शक करने के कारण इतने अधिक हैं कि शिष्टाचार के नाम पर उनका ज़िक्र न करना बेईमानी होगी। मसलन उपरोक्त उद्धरणों को देने के बाद प्रस्तुत इस टिप्पणी को ही देखें, जिसे वे अत्यंत मुदित भाव से करते हैं---"चाहे जिस रास्ते से चलिए, पहुँचिएगा इसी नतीजे पर कि शूद्रों पर द्विजों के शासन के बिना अध्यात्मवाद की रक्षा नहीं हो सकती! जो विचारधारा इस वर्णव्यवस्था और अन्य सामन्ती अवशेषों का विरोध करती है, वह पश्चिम से प्रभावित है, अभारतीय है।" (निराला की साहित्य साधना, भाग दो, पृष्ठ 103)

इस तरह रामविलास शर्मा ने निराला के वक्तव्य को पूरी तरह से तोड़मरोड़कर यह साबित करने का प्रयास किया कि उनके मुताबिक़ जो वर्णव्यवस्था का विरोधी है, वह विचार, दरअसल, भारतीय हो ही नहीं सकता। वे  यहीं पर नहीं ठहरते। निराला के विचारों को पूरी तरह से विकृत करके उसका अनर्थ करने के बाद वे यहाँ-वहाँ की उक्तियों और कुतर्कों के सहारे एक बार फिर निराला को वेदांत के माध्यम से अद्वैत का समर्थक साबित करने पर तुल जाते हैं। अपने इस पराक्रम से वे किसका हित साधते हैं और वर्णव्यवस्था का समर्थक कौन है, इस पर हम काफी कुछ कह चुके हैं। आइए देखें, ख़ुद उनका इस पर क्या कहना है----

"वेदान्त की व्याख्या अनेक प्रकार से की जा सकती है, स्वयं निराला ने की है। यहाँ उस व्याख्या की चर्चा है जो शुद्ध अध्यात्मवादी है, जो ब्रह्म को अगोचर ज्ञानमय और संसार को मिथ्या और मायारूप मानती है। यह दृष्टिकोण भारत को अध्यात्मवादी और यूरोप को भौतिकवादी कहने के बाद भारतीयता के नाम पर उस राजनीतिक कार्यवाही का विरोध करता है जिसका उद्देश्य सामंती व्यवस्था को बदलना है। व्यवहार में यह अध्यात्मवाद वर्णव्यवस्था का समर्थक, उच्च वर्णों, विशेषकर ब्राह्मणों के प्रभुत्व का समर्थक सिद्ध होता है। राजनीति के साथ वह भौतिक विज्ञान और इतिहास का विरोध करता है। वैज्ञानिक इतिहास लेखन को जड़ बताकर स्वयं पुराण-कथाओं को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करता है। वेदों के बाद का सारा इतिहास उसे पतन का इतिहास मालूम होता है, आधुनिक भारतीय भाषाएँ संस्कृत का विकृत रूप, भक्ति आन्दोलन ज्ञानच्युत जनता का भावुकतापूर्ण आन्दोलन लगता है। साहित्य में इस दृष्टिकोण की माँग है कि पाप पर पुण्य की विजय दिखाई जाए । मनुष्य की भावनाओं को दैव और आसुर भावों में बाँटकर वह प्राचीन साहित्य को भी इसी पाप-पुण्य की कसौटी पर परखता है। इस सारे चिन्तन का केन्द्र हैं शंकराचार्य जिन्होंने ब्रह्म को एकमात्र सत्य कहा और शूद्रों के प्रति कठोर नियम भी बनाए।" (वही, पृष्ठ 103-4)

कहना न होगा कि 'ब्रह्म को अगोचर ज्ञानमय और संसार को मिथ्या और मायारूप मानने वाली यह शुद्ध अध्यात्मवादी विचारधारा' शंकराचार्य की है। तमाम शीर्षासन करने के बाद आलोचकप्रवर को भी यह मानना पड़ा कि शंकराचार्य के विचारों का वास्तविक आशय क्या है। लेकिन इससे यह समझ लेना भूल होगी कि वे सही राह पर लौट आए हैं। वैचारिक मामलों में लचीलापन वर्णाश्रमवाद की बहुत बड़ी ताक़त रहा है। अपने बुनियादी मसले पर दृढ़ता के साथ-साथ ब्यौरों के मामले में नमनीयता उसकी ख़ासियत है। ध्यान दें कि यहाँ रामविलास शर्मा ने एक अपरिहार्य नतीजे को स्वीकार करके अपनी तर्कप्रक्रिया में कोई हार नहीं मानी है, बल्कि एक बढ़त और पहलक़दमी ली है। 'वेदांत' की उनकी जैसी अवधारणा है उसमें वे किसी भी विचार को फिट कर सकते हैं। यहाँ उन्होंने सोचे-समझे ढंग से क़दम पीछे हटाए हैं। एक क़दम पीछे हटकर वे वेदांत के सहारे दो क़दम आगे बढ़ने का प्रयास करेंगे। आख़िर में तो वेदांत के खोल में से गिरी अद्वैत की ही निकलेगी।

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