#फ्रेडरिकजेम्सन
(हमारे समय के महानतम साहित्य-चिंतकों में से एक फ्रेडरिक जेम्सन का निधन हो गया है। उनकी उम्र
90 साल थी। उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए मैं अपने एक लेख का वह अंश शेयर कर रहा हूं, जिसमें उनकी कुछ मान्यताओं को लेकर ऐजाज़ अहमद से बहस की गई है।)
फ्रेडरिक जेम्सन के एक निबंध 'थर्ड वर्ल्ड लिटेरचर इन द एरा ऑफ मल्टीनेशनल कैपिटलिज्म' के फुटनोट में तीसरी दुनिया के संज्ञानात्मक सौंदर्यशास्त्र की शब्दावली के प्रयोग पर सवाल खड़े करते हुए ऐजाज़ अहमद कहते हैं कि यूरोप या अमरीका का शायद ही कोई ऐसा लेखक होगा जो कथित तीसरी दुनिया की कोई भाषा जानता हो। इन देशों की भाषाओं से अंग्रेजी अनुवाद भी अपवादस्वरूप ही हो पाता है। ऐसे में इन देशों के अंग्रेजी में लिखने वाले लेखक अनायास इनके प्रतिनिधि का दर्जा पा लेते हैं जैसा कि सलमान रश्दी और एडवर्ड सईद के मामले में हुआ है। इसके अलावा फ्रेडरिक जेम्सन की अपनी वैचारिकी में तीसरी दुनिया और पहली दुनिया एक दूसरे के बायनरी विपरीत हैं। तीसरी दुनिया को वे उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के 'अनुभव' के आधार पर परिभाषित करते हैं, राष्ट्रवाद जिसकी अनिवार्य परिणति है। इसके बाद उनका प्रसिद्ध सूत्र आता है— तीसरी दुनिया की सभी रचनाओं को आवश्यक रूप से राष्ट्रीय रूपक की तरह पढ़ा जाना चाहिए। इस प्रकार इन तीनों का समीकरण अविभाज्य है।
उल्लेखनीय है कि जेम्सन के अनुसार पहली दुनिया पूंजीवादी राज्यों का समूह है, और दूसरी दुनिया समाजवादी राज्यों का। तीसरी दुनिया शेष बची हुई है जिसकी विशेषता उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का उसका 'अनुभव' है। ऐजाज़ अहमद की आपत्ति यह है कि इस वर्गीकरण की पहली दो श्रेणियां मानवीय प्रयासों का परिणाम हैं, जबकि तीसरी श्रेणी केवल निष्क्रिय भोक्ता होने की स्थिति को व्यक्त करती है। भारत का उदाहरण देकर वे बताते हैं कि उसमें पहली और दूसरी दुनिया के कई देशों से अधिक मात्रा में पूंजीवादी विकास भी हुआ है, और समाजवादी विकास भी। इससे मिलती-जुलती स्थिति ब्राजील, मेक्सिको, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों की भी है। इसलिए इन्हें पहली दुनिया का बायनरी विपरीत बताना वास्तविकता से मेल नहीं खाता। उनका कहना है कि तीसरी दुनिया के सामने दो ही विकल्प हैं, राष्ट्रवाद या अमरीकी उत्तरआधुनिक संस्कृति। ऐजाज़ अहमद का प्रश्न है कि उनके सामने दूसरी दुनिया में शामिल होने का विकल्प क्यों नहीं हो सकता। वे जेम्सन को याद दिलाते हैं कि तीसरी दुनिया के वही राष्ट्र अमरीकी साम्राज्यवाद का प्रतिरोध कर सके जिन्होंने समाजवाद की राह चुनी। बाकी राष्ट्रवादियों को अमरीकी संस्कृति से जुड़ने में वक्त नहीं लगा। अगर मानव समाजों की व्याख्या उत्पादन संबंधों के बजाय अंतरराष्ट्रीय प्रभुत्व के 'अनुभवों' के आधार पर की जाएगी और उन्हें पूंजीवाद और समाजवाद के बीच संघर्ष के बाहर हमेशा के लिए त्रिशंकु की तरह लटकने के लिए छोड़ दिया जाएगा, उनके बीच एकता और संघर्ष के अन्य बिंदुओं की जगह राष्ट्रीय उत्पीड़न का अनुभव ही उन्हें एकताबद्ध करेगा, तो वे इतिहास के निष्क्रिय शिकार के रूप में देखे जाने को अभिशप्त होंगे।
इस बहस को आगे बढ़ाते हुए ऐजाज़ अहमद एक वैकल्पिक तर्क देते हैं— मान कर देखें कि हम तीन दुनियाओं में नहीं बल्कि एक ही दुनिया में रहते हैं, जिसमें पूंजीवाद और समाजवाद के बीच युद्ध छिड़ा हुआ है। कहीं पूंजीवाद जीता है जिसे जेम्सन पहली दुनिया कहते हैं, कहीं समाजवाद जीता है जिसे वे दूसरी दुनिया कहते हैं, और जहां अभी पलड़ा किसी के पक्ष में निर्णायक तौर पर नहीं झुका है उसे तीसरी दुनिया कहते हैं। यह विचार दुनिया की अधिक यथार्थवादी समझ देता है। इस दृष्टि से सोचने पर राष्ट्रवाद पर अतिरिक्त जोर देने की जरूरत नहीं रह जाती और न ही राष्ट्रीय रूपक की कोई खास अहमियत होती है।
दूसरी तरफ जेम्सन का विचार है कि औद्योगिक समाजों में 'व्यक्तिगत' और 'सामाजिक' का पूर्ण विलगाव हो जाता है और पूर्व औद्योगिक समाजों में व्यक्तिगत और सामूहिक के तत्व परस्पर घुले-मिले होते हैं। इसीलिए तीसरी दुनिया के देशों की कथाओं में व्यक्तिगत के साथ सामूहिकता के कुछ आशय भी सम्मिलित हो जाते हैं। इसे ही उन्होंने राष्ट्रीय रूपक होने का कारण माना है। ऐजाज़ अहमद इस बात के लिए उनको आड़े हाथों लेते हैं कि वे अपनी धारणाएं बहुत जल्दी-जल्दी बदलते हैं। 'सामूहिक' और 'राष्ट्रीय' में बहुत बड़ा फर्क है। 19वीं और 20वीं सदी के भारत की अनेक कथा-रचनाओं का हवाला देकर उन्होंने बताया कि वे कतई राष्ट्रीय रूपक नहीं है। इनमें मिर्जा हादी रुसवा की 'उमराव जान अदा' मोहम्मद हुसैन आजाद, इंशा अल्ला खाँ इत्यादि 19वीं सदी के बड़े लेखकों से लेकर 20 वीं सदी के उपन्यासकार अब्दुल्लाह हुसैन भी शामिल हैं।
इस संबंध में कहने की बात यह है कि बहस में अगर कोई पक्ष अपनी बात का स्पष्टीकरण दे तो उसे फेसवैल्यू पर लेना चाहिए, और यथासंभव स्वीकार करना चाहिए, बशर्ते उसे येन केन प्रकारेण हराने ही कि मंशा न हो। क्योंकि इसके बगैर इस बात की संभावना बनी रहती है कि आप अपने प्रतिपक्ष के विचारों के किसी हीनतर पक्ष से बहस करते रहे जाएँ, और अपने हिसाब से उसमें सुर्खरू भी हो जाएँ, लेकिन वास्तविकता में उस बहस से कुछ भी नहीं बदलता। इस बहस में भी फ्रेडरिक जेम्सन की बात को ऐजाज़ अहमद तोड़ते-मरोड़ते हुए प्रतीत होते हैं। जैसे, उन्होंने जेम्सन पर परोक्ष रूप से ईसाइयत की परंपरा को रूपक के माध्यम से पुनर्जीवित करने का आरोप लगा दिया है, क्योंकि मध्यकाल में एलिगरी या रूपक का इस्तेमाल धार्मिक बोधकथाओं को प्रस्तुत करने के लिए बहुतायत से किया जाता था, जिसके विरुद्ध 19वीं सदी के अंग्रेज़ी साहित्य में विद्रोह हुआ और सेक्युलर परंपरा की स्थापना हुई थी। अब यह कुछ ऐसी ही बात है जैसे आज हिंदी में कोई रूपक की बात करे तो उस पर 'पंचतंत्र' या 'पुराणों' की परंपरा को पुनर्जीवित करने का आरोप लगा दिया जाए। बीसवीं सदी में भी अंग्रेज़ी-फ्रांसीसी साहित्य में रूपक-आधारित बेहतरीन कृतियों की रचना हुई है। अल्बैर कामू का 'प्लेग' और जार्ज ऑरवेल का 'एनिमल फार्म' इनमें खास तौर पर उल्लेखनीय हैं। फ़िलहाल हमारा विषय 19वीं और 20वीं सदी का हिंदी-उर्दू साहित्य है तो इसमें से बहुत चुने हुए दो-तीन रचनाकारों के माध्यम से रूपक की अहमियत पर बात की जाएगी।
सबसे पहले ऐजाज़ अहमद के प्रिय शायर मिर्ज़ा ग़ालिब को लेते हैं। उनकी शायरी के बेशतर हिस्से को बतौर राष्ट्रीय रूपक ही समझ जा सकता है। मसलन उनकी ये मशहूर ग़ज़ल देखें:
न गुल-ए-नग़मा हूँ न पर्दा-ए-साज़
मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज़'
यह महज़ किसी आशिक़ की आवाज़ नहीं है, एक पराजित और विनष्ट होती हुई सभ्यता की भी आवाज़ है। इस शेर को अगर केवल रवायती मुहावरे में समझने की कोशिश करेंगे तो कोई घिसा-पिटा अर्थ भले ही हाथ लग जाए, इसका वास्तविक वैभव हमसे दूर ही रह जाएगा। अगला शेर देखें:
'हूँ गिरफ़्तार-ए-उल्फ़त-ए-सय्याद
वरना बाक़ी है ताक़त-ए-परवाज़'
यहाँ बात और खुल जाती है। ये जो शिकारी है, जिसने हमें क़ैद कर रखा है, हम दरअसल उसके सम्मोहन में उलझ गए हैं। वरना उड़ने की ताक़त अभी ख़त्म नहीं हुई है। हम भारतीय लोग 19वीं सदी में ब्रिटिश मान मूल्यों से ऐसे ही सम्मोहित हो गए थे। आज भी औपनिवेशिक विरासत हमारे ऊपर सवार है, क्योंकि राजनैतिक रूप से हम भले ही आज़ाद हो गए, लेकिन सांस्कृतिक स्तर पर आज भी ब्रिटिश-अमरीकी संस्कृति के दीवाने हैं। इसीलिए ज्ञान के किसी भी क्षेत्र में हम कोई मौलिक काम कर पाने में असमर्थ हो चुके हैं।
ग़ालिब की एक अपेक्षाकृत कम उद्धृत की गई ग़ज़ल के चंद शेर हैं-
'गुलशन में बंदोबस्त बरंगे-दिगर है आज
कुमरी का तौक़ हल्का-ए-बेरूने-दर है आज
'आता है एक पारा-ए-दिल हर फ़ुगाँ के साथ
तारे-नफ़स कमंदे-शिकारे-असर है आज
'अय आफ़ियत किनारा कर अय इंतिज़ाम चल
सैलाबे-गिरिया दर पै-ए-दीवारो-दर है आज'
पहले शेर का आशय है कि बग़ीचे का इंतज़ाम आज दूसरे ढंग का हो गया है। पहले जो फंदा चिड़िया के गले
के इर्द-गिर्द था, अब वह दरवाजे का दायरा बन गया है। ऊपरी तौर पर तो चिड़िया अपना गीत गाने के लिए आजाद है, लेकिन यह आज़ादी एक बड़े क़ैदख़ाने के अंदर की आज़ादी है। आबो-हवा में उन्मुक्तता की जगह घुटन भर गई है, और पूरा माहौल प्रदूषित हो गया है। यह फ़र्क़ शासकवर्गीय कठोरता और उदारता का है। 19वीं सदी में अंग्रेज़ों ने इन हथकंडों का बख़ूबी इस्तेमाल किया था। हमारे मौजूदा शासक भी अक्सर इसका स्वांग भरते दीख जाते हैं। यहां दूसरे (दिगर) ढंग के इंतज़ाम' की बात में व्यंग्य और विडंबना है। अव्वल तो वह पहले से अलग है नहीं, और फिर उसे आज़ाद करने वाला समझा जा रहा है जबकि वह ग़ुलामी ही को और गहराई देता है।
दूसरे शेर में इसी परिस्थिति से उपजी मन:स्थिति का बयान है। इस स्थिति में हर कराह के साथ दिल का एक टुकड़ा बाहर आ जाता है। इससे प्रभावित व्यक्ति की सांस का हर तार मानो कमान बन गया है, जिससे छूटने वाला तीर उसके दिल में पैबस्त हो जाता है।
तीसरे शेर में भी इसी तकलीफ़देह सचाई पर प्रतिक्रिया व्यक्त किया है---ऐ दिल की शांति तू अपनी राह ले और ऐ व्यवस्था तू चलती रह। आंसुओं की बाढ़ आज घर-बार को ढा देने पर उतारू है। व्यवस्था यानी वही 'नया बंदोबस्त'। उसे चलते रहना है क्योंकि कोई और विकल्प नहीं है, लेकिन उसके साथ शांति का बने राह पाना नामुमकिन है। अशांति होकर रहेगी। दुख के इस पहाड़ का मुकाबला आँसुओं की नदी में आई बाढ़ ही कर सकती है। यही बाढ़ अन्याय पर आधारित इस घर की दीवारों को ढाने में कामयाब हो सकती है।
इस विषय पर बहुत विस्तार से बात की जा सकती है लेकिन मैं नमूने के बतौर ही यहाँ कुछ प्रस्तुत करना चाहता हूँ। इसके बाद बीसवीं सदी के हिंदी कवि मुक्तिबोध का एक अंश और अब्दुल्लाह हुसैन का शाहकार 'उदास नस्लें' के बारे में कुछ वाक्य। मुक्तिबोध की कविता 'ब्रह्मराक्षस' की ये अंतिम पंक्तियां हैं:
'पिस गया वह भीतरी
औ' बाहरी दो कठिन पाटों बीच,
ऐसी ट्रैजेडी है नीच ! !
बावड़ी में वह स्वयं
पागल प्रतीकों में निरन्तर कह रहा
वह कोठरी में किस तरह
अपना गणित करता रहा
औ' मर गया..
वह सघन झाड़ी के कँटीले
तम-विवर में
मरे पक्षी-सा
बिदा ही हो गया
वह ज्योति अनजानी सदा को सो गयी
यह क्यों हुआ !
क्यों यह हुआ ! !
मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य
होना चाहता
जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य,
उसकी वेदना का स्रोत
संगत, पूर्ण निष्कर्षों तलक
पहुँचा सकूँ।'
यहाँ 'ब्रह्मराक्षस' नाम का यह पात्र ज्ञान के लिए उन्मुख भारतीय परंपरा का ही रूपक है जो आंतरिक स्तर पर सामंती और बाहरी स्तर पर औपनिवेशिक, दो कठिन पाटों के बीच पिस कर ख़त्म हो जाता है।
ऐजाज़ अहमद ने जिन रचनाकारों का नाम अपने मत के समर्थन में लिया है, उनमें अब्दुल्लाह हुसैन भी हैं। क्लासिक का दर्जा रखने वाले उनके उपन्यास' 'उदास नस्लें' को वर्षों तक मैं विश्वविद्यालय की कक्षाओं में पढ़ाता रहा हूँ और ये दावे के साथ कह सकता हूँ कि राष्ट्रीय रूपक के बतौर पढ़े बग़ैर इस उपन्यास में आने वाले घटनाक्रमों— 1857 के विद्रोह में एक सरकारी कर्मचारी रोशन अली ख़ाँ के हाथों कर्नल जानसन की जान बचने, फिर इस सेवा के बदले ब्रिटिश सरकार से मिली ज़मीन पर 'रोशनपुर' के बसने, उस नए बसे गाँव में रोशन अली ख़ाँ का अपने मुग़ल दोस्त मिर्ज़ा मुहम्मद बेग को रहने के लिए आमंत्रित करने, मुहम्मद बेग का अच्छी खासी जमींदारी के बावजूद लोहे की शिल्पकारी शौक़िया करने, उनकी मौत के बाद उनके बेटे नियाज़ बेग को इसी शिल्पकारी के कारण राजद्रोह के आरोप में जेल जाने, और उसके बेटे नईम का अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आज़ादी की जंग में शामिल होने जैसे प्रसंगों की कोई सार्थक व्याख्या नहीं हो सकती। यह आम तौर पर समूची 19वीं सदी में और ख़ास तौर पर '57 के विद्रोह के दमन के बाद अंग्रेज़ों के हाथों अपने वफ़ादार लोगों के माध्यम से पुनर्गठित हिंदुस्तान की कथा है।
रोशनपुर इसी नए हिंदुस्तान का रूपक है। इसकी अपनी प्रभुत्वशाली परंपरा अंग्रेज़ों के एहसानमन्द और उनकी दी हुई जागीरों और वजीफ़ों पर पलने वालों की है तो दूसरी वास्तविक भारतीयता की परंपरा भी है जो इससे बेनियाज़ होकर अपनी मेहनत से सच्चे हिंदुस्तानी की तरह जीने वाले लोगों के जीवन में दिखती है। इसकी नुमाइंदगी मुग़ल परिवार करता है। शिल्पकारी का शौक़ एक ऐसा सूत्र है जो उन्हें भारतीयता से जोड़ता है। हमारे देश में शास्त्रज्ञान का उतना ही महत्व रहा है, जितना कि कला कौशल का। अपने काम मे दक्ष कोई किसान, कोई शिल्पकार, कोई जुलाहा, कोई राजमिस्त्री, या कोई कातिब किसी विद्वान से कम नहीं समझा जाता था। यह अंग्रेज़ों की बनाई हुई व्यवस्था थी जिसमें केवल औपचारिक शिक्षा को मान्यता मिली, और बाकी सबको अशिक्षित और अज्ञानी मान लिया गया। रोशनपुर का यह मुगल परिवार शिल्पकारी में दक्ष है। आगे चलकर मुहम्मद बेग का बेटा नियाज़ बेग लोहे की खूबसूरत बंदूकें बनाने लगता है, जिसे पुलिस की चेतावनी के बावजूद नहीं छोड़ता और राजद्रोह के आरोप में बारह साल की सज़ा काटता है। ध्यान रहे कि हिंदुस्तान के लोगों के हथियार रखने के हक़ को ब्रिटिश सरकार ने ही छीना था। आज जिस लाइसेंस प्रणाली को हम स्वाभाविक समझते हैं, वह ग़ुलाम देशों की ही ख़ासियत है जो अब तक चली आई है। बहरहाल, आगे चलकर ये दोनों परंपराएं परस्पर घुलती-मिलती भी हैं, आज़ादी के लिए लड़ती हैं, और अपनी राष्ट्रीय नियति में साझेदारी करती हैं।
कहने का आशय यह कि रूपक एक शैली है जिसमें आधुनिक युग के अनुरूप भी रचनाकर्म होता है। उस पर मध्ययुग का ठप्पा लगा देना उचित नहीं है। जेम्सन ने जिस संदर्भ में कहा है कि पूर्वऔद्योगिक समाजों में व्यक्तिगत कथा में सामूहिक कथा शामिल होती है, वह समझ में आने वाली बात है। पूर्वआधुनिक परंपराओं में व्यक्तिगत की चेतना भी नहीं होती और समूह के अंश के रूप में ही व्यक्ति के अस्तित्व की चरितार्थता संभव होती है। यही समाज उपनिवेशवाद से लड़ाई के दौरान अपने अंदर एक नई, राष्ट्रीय पहचान विकसित करता है। विकसित औद्योगिक समाज बनने तक उसकी चेतना में नई व पुरानी दोनों प्रकार की सामूहिकताएँ सक्रिय रहती हैं। लेकिन उपनिवेशवाद-विरोधी और साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना उसे लगातार आधुनिक दिशा में उन्मुख करती है। इसी पृष्ठभूमि में जेम्सन तीसरी दुनिया की रचनाओं को राष्ट्रीय रूपक के बतौर 'पढ़ने' की वक़ालत करते हैं। ध्यान दें, कि वे ऐसा 'लिखने' का आग्रह नहीं कर रहे हैं। सिर्फ़ पढ़ने के आग्रह में यह निहित है कि पुरानी सामूहिकताओं के नज़रिए से लिखी हुई रचनाओं में भी नई सामूहिकता यानी राष्ट्र के आग्रह स्वाभाविक रूप से शामिल होंगे। अब क्योंकि यह नई चीज है और सबसे मूल्यवान भी, इसलिए हमें चाहिए कि पढ़ते समय इसके प्रति विशेष रूप से सचेत हों, अन्यथा हम इसकी पहचान करने से चूक सकते हैं।
इस बहस का केंद्रीय मुद्दा यह है कि जो देश उपनिवेशवाद से मुक्त हुए हैं उन्हें समाजवाद में संक्रमण का संभावित उम्मीदवार माना जाए या साम्राज्यवाद से जूझते राष्ट्रवाद के रूप में देखा जाए। ऐजाज़ अहमद के विश्लेषण से ऐसा लगता है कि एक बार औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त होने के बाद उन्हें कथित तौर पर पूंजीवादी पहली या समाजवादी दूसरी दुनिया के अंग के रूप में अपनी भूमिका तय कर लेनी चाहिए, वरना वे तीसरी दुनिया की त्रिशंकु नियति को ही प्राप्त होंगे। इस मान्यता के पीछे जो सबसे बड़ी वजह दिखती है वह यह कि राष्ट्रवाद को वे व्यवहारतः राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के नेतृत्व में चलने वाला विचार ही मानते हैं, सैद्धांतिक गुंजाइशें चाहे जो हो। यानी, तीसरी दुनिया में राष्ट्रवाद के होने का एकमात्र अर्थ है कि वहां सर्वहारा वर्ग पूंजीपति का अनुगामी है, और समाजवाद के लिए संघर्ष नहीं हो पा रहा है।
ग़ौरतलब है कि यह सारा विश्लेषण उन्होंने तब किया जब चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में जनता के लोकतांत्रिक गणतंत्र की स्थापना हो चुकी थी, पूंजीवाद के राहियों (कैपिटलिस्ट रोडर्स) के विरुद्ध दस साल तक 'सांस्कृतिक क्रांति' चलाने के बाद उसे वापस ले लिया गया था, और माओ ने कहा था कि यह पूंजीवाद और समाजवाद के बीच संघर्ष की संक्रमणकालीन स्थिति है। यह संघर्ष लंबा चलेगा और अंत में कौन जीतेगा यह अभी से नहीं कहा जा सकता। रूस समेत जिन देशों में समाजवाद आया उनमें से कोई विकसित पूंजीवादी देश (जैसी कि मार्क्स ने कल्पना की थी) नहीं था। पिछड़ी हुई उत्पादन पद्धतियों वाले समाज में क्रांतियाँ संपन्न हुईं। रूस में 1917 की अक्टूबर क्रांति के सिर्फ़ एक साल के अंदर लेनिन 'नई आर्थिक नीति' लेकर आए जिसमें पूंजीवादी उत्पादन संबंधों को एक स्तर पर पुनर्स्थापित किया गया ताकि उत्पादक शक्तियों के विकास में मदद मिल सके। उस दौर के समाजवाद को इसीलिए 'राजकीय पूंजीवाद' और 'पूंजीपति के बगैर पूंजीवाद' कहां गया। समाजवाद की पहचान बन चुका नारा 'सबसे उसकी क्षमता के अनुसार और सब को उसके काम के अनुसार' पूंजीवादी लूट और शोषण के विरुद्ध अवश्य है, लेकिन बेशी मूल्य के आधार पर पूंजी के संचय के विरुद्ध नहीं है। ख़ुद ऐजाज़ अहमद के विश्लेषण में एक जगह यह सचाई झलक जाती है, जब वे लेनिन की छोटे बुर्जुआ वर्ग के लिए जगह बनाने वाली नई आर्थिक नीति को पलटने और 'नियंत्रित अर्थव्यवस्था' की नीति अपनाने के स्तालिन के रवैये को 'विकृति' कहते हैं:
'बदले में इसका नतीजा यह हुआ कि स्तालिनीय नौकरशाहीवाद की सबसे बुरी संभावनाएँ सामने आईं, जिन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर न केवल विरोध को दबा दिया बल्कि अर्थव्यवस्था में व्यापक विकृतियों को जन्म दिया, जिसमें भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद में पतन भी शामिल था। असहनीय बाहरी दबाव, और नियंत्रित अर्थव्यवस्था जिसे स्तालिन शासन ने नई आर्थिक नीति को हटाकर लागू किया और बाद में पूर्वमध्य यूरोप के कोमेकान देशों तक पर थोप दिया था, और जो समाजवादी निर्माण का मॉडल बन गया था, के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं थी। कहना मुश्किल था कि बाहरी दबाव ने आंतरिक विकृतियों को किस हद तक निर्धारित किया।' (वही, पृ. 22-3)
दूसरी बात यह कि जेम्सन के सूत्रीकरण में यह निहित है कि तीसरी दुनिया का सीधा संघर्ष साम्राज्यवाद से है। लेकिन इस समीकरण को बायनरी विपरीत का मामला बताकर ऐजाज़ अहमद खारिज कर देते हैं क्योंकि तीसरी दुनिया को साम्राज्यवाद या राष्ट्रवाद में से एक विकल्प चुनना पड़ता है। वे मानते हैं कि समाजवाद का सीधा संघर्ष साम्राज्यवाद से है और तीसरी दुनिया भी उस संघर्ष में शामिल है, यानी मूल लड़ाई समाजवाद बनाम पूंजीवाद है। उन्हें एतराज है कि इस सिद्धांत में समाजवाद को साम्राज्यवाद के विकल्प के रूप में क्यों नहीं रखा गया है। ध्यान दें कि साम्राज्यवाद से सीधे टकराव में अगर कामयाबी नहीं मिलेगी तो तीसरी दुनिया के देशों को उसका अंग बनना ही पड़ेगा। इसे अलग से कहने की भी जरूरत नहीं है। लेकिन अगर संघर्ष में कामयाबी मिलेगी तो जाहिर है कि देश के अंदर की समाजवादी प्रवृत्तियां मजबूत होंगी। ऐसी स्थिति में त्रिशंकु बनने की आशंका उचित नहीं है।
ऐसा लगता है कि ऐजाज़ अहमद यह कल्पना ही नहीं करते कि मजदूर वर्ग कभी राष्ट्रवाद का चैंपियन बन सकता है। साम्राज्यवाद के युग में राष्ट्रीय पूंजी के लिए यह संभव ही नहीं है कि वह राष्ट्रीय हितों के लिए समझौताहीन संघर्ष कर सके। हर जगह उसे जनता के अधिकारों में कटौती करनी पड़ेगी, राष्ट्रवाद की जगह अंधराष्ट्रवाद लागू करना पड़ेगा, और साम्राज्यवाद को अधिक से अधिक छूट देते हुए अपनी जनता की मुश्कें कसने का काम करना होगा। इसी परिस्थिति से जूझते हुए किसी देश के अंदर की समाजवादी शक्तियां मजबूत होती हैं और राष्ट्रवाद तथा जनतंत्र के लिए संघर्ष की अगुवाई करती हैं। पिछड़े हुए विकासशील देशों के समाजवादी दिशा अपनाने का यही वास्तविक तरीका है, ऐजाज़ अहमद जिसकी अनदेखी करते हैं।
एक और बात जिसके लिए उन्होंने जेम्सन को आड़े हाथों लिया है कि वे राष्ट्रों को उत्पादन प्रणाली के आधार पर नहीं, अंतरराष्ट्रीय प्रभुत्व के संबंधों के 'अनुभव' के आधार पर वर्गीकृत कर रहे हैं। यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी नवस्वतंत्र देश के इतिहास में उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के 'अनुभव' का अर्थ कोई संवेदनात्मक अनुभूति नहीं है। इसका सीधा संबंध उत्पादन प्रणाली, उत्पादन संबंध, स्वामित्व और वितरण के तरीकों से होता है। उपनिवेशवाद का अनुभव भारत जैसे देश में पुरानी उत्पादन प्रणाली के विनाश, संरक्षणवादी नीतियों के माध्यम से देश को कच्चे माल की मंडी में बदलना, भूमि संबंधों में बदलाव, देश के नियम कानून में बदलाव, शिक्षा, प्रशासन और राजनैतिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन आदि के रूप में दिखाई पड़ता है। यानी, किसी पिछड़े हुए उत्पादन संबंध वाले नवस्वतंत्र देश के लिए उपनिवेशवाद का 'अनुभव' 'अंतरराष्ट्रीय प्रभुत्व संबंध' का अध्ययन नहीं है। यह उत्पादन संबंधों का ही अध्ययन है।
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