Saturday, 19 August 2017

मानवता निर्माण की बेचैनियों और भाषा के समर्थ कवि हैं त्रिलोचन -अरमान आनंद


भूख और प्यास

आदमी से वह सब कराती है
जिसे संस्कृति कहा जाता है
जीने की कला ( कविता ) त्रिलोचन


                                                  त्रिलोचन शास्त्री हिन्दी साहित्य के उन मूर्धन्य कवियों में हैं जिन्होंने कविता को न सिर्फ लिखा बल्कि उसे जिया भी है। त्रिलोचन कि कविताएं मनुष्यता के निर्माण की बेचैनियों की कबकबाहट को अपने भीतर समाहित किये  हुए अपने पथ पर अग्रसर मिलती हैं।  भाषा मे गंवई सुगन्ध और अपने प्रयोगों के कारण हिंदी साहित्य की भारी भीड़ में भी त्रिलोचन की कविताएं अलग दिखती हैं।  यही वजह है कि प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने इनकी कविताओं के लिए एक अलग काव्यशास्त्र की मांग कर दी। 
त्रिलोचन शास्त्री का असली नाम वासुदेव सिंह था। उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के कटघरा चिरानी पट्टी गांव में इनका जन्म हुआ। इनके पिता का नाम जगरदेव सिंह था। त्रिलोचन शास्त्री ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से एम ए तथा लाहौर से शास्त्री की परीक्षा ऊत्तीर्ण की। यहीं लाहौर से शास्त्री शब्द उनके नाम के पीछे चिपक गया।  संस्कृति को पेट से जोड़ कर देखने वाले शास्त्री जी आधुनिक हिंदी कविता में नागार्जुन और शमशेर के साथ प्रगतिशील त्रयी में गिने जाते हूं। इन्होंने गीत , नवगीत, सॉनेट, कविता, कहानी और लेख विधाओं में अपनी साहित्य साधना की। 
        स्वभाव से फक्कड़ त्रिलोचन शास्त्री हिंदी के अतिरिक्त अरबी और फ़ारसी के भी अच्छे जानकार थे। इन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रभाकर, वानर, हंस, आज और समाज जैसी पत्रिकाओं का भी सफल संपादन किया। मार्क्सवादी विचारधारा के पोषक त्रिलोचन शास्त्री 1995 से 2001 तक जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे।

वे लिखते हैं -

'दीवारें ! दीवारें ! दीवारें ! दीवारें !
चारों ओर खड़ी हैं। तुम चुपचाप खड़े हो
हाथ धरे छाती पर, मानो वहीं गड़े हो।
मुक्ति चाहते हो तो आओ धक्के मारें
और ढहा दें। उद्यम करते कभी न हारें
ऐसे वैसे आघातों से। स्तब्ध पड़े हो
किस दुविधा में। हिचक छोड़ दो। जरा कड़े हो।
आओ, अलगाने वालें अवरोध निवारें।'

समाज की पुरानी और सड़ी गली व्यवस्थाओ को उखाड़ फेंकने के लिए वे लिखते हैं
'अगर घुटन हो, प्राण छटपटाएं तो घेरा

तोड़-फोड़ दो, क्योकि हुआ है नया सबेरा।'

या फिर
'बीज क्रांति के बोता हूँ मैं, अक्षर दाने

हैं, घर बाहर जन समाज को नये सिरे से
रच देने की रूचि देता है। घीरे-घीरे से
रहना असम्मान है जीवन का अनजाने।'

शास्त्री जी ने करीब 550 सॉनेट लिखे। प्यार शीर्षक सॉनेट में वे लिखते हैं
बिना बुलाये जो आता है प्यार वही है

प्राणों की धारा उसमें चुप चाप बही है

देशकाल शीर्षक से उन्होंने एक कहानी संग्रह भी लिखा । इसके अलावा धरती (1945), गुलाब और बुलबुल (1956), दिगंत (1957), ताप के ताये हुए दिन (1980), शब्द (1980), उस जनपद का कवि हूँ (1981), अरघान (1984), तुम्हे सौंपता हूँ (1985), चैती (1987) आदि काव्य संग्रह लिखे। 
ताप के ताये हुए दिन के लिए उन्हें साहित्य अकादमी 1981 पुरस्कार भी दिया गया। उन्हें शलाका सम्मान एवं अन्य सम्मान भी मिले।

त्रिलोचन ने समाज की विभिन्न विसंगतियों के मद्देनजर भी कविताएं लिखीं। स्त्री शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने चम्पा काले अक्षर नहीं चिन्हती जैसी प्रसिद्ध कविता लिखी।
मैने कहा चम्पा, पढ़ लेना अच्छा है

ब्याह तुम्हारा होगा , तुम गौने जाओगी,
कुछ दिन बालम सँग साथ रह चला जायेगा जब कलकत्ता
बड़ी दूर है वह कलकत्ता
कैसे उसे सँदेसा दोगी
कैसे उसके पत्र पढ़ोगी
चम्पा पढ़ लेना अच्छा है! 

चम्पा बोली : तुम कितने झूठे हो , देखा ,

हाय राम , तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो
मैं तो ब्याह कभी न करुंगी 
और कहीं जो ब्याह हो गया
तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूंगी 
कलकत्ता में कभी न जाने दुंगी
कलकती पर बजर गिरे।

त्रिलोचन की कविताओं में गांव की मिट्टी की खुशबू है। वे अपनी भाषा के लिए तुलसीदास को प्रेरणा स्रोत मानते हैं
तुलसीबाबा , भाषा मैंने तुमसे सीखी

मेरी सजग चेतना में तुम रमे हुए हो ।

त्रिलोचन की कविताओं में पलिहर , थेथर, बारी इनार मड़ई, सिवान जैसे शब्दों की भरमार है। नगई महरा शीर्षक कविता की भाषा तो बिल्कुल मातृभाषा सरीखी हो गयी है 

'नगई खाँची फाँदे बैठा था
हाथों में वही काम
आँखे उन हाथों को
हयवट चिताती हुई
खाँची में लगी एक आँख मुझे भी देखा
और कहा बैठो उस पीढ़े पर
साफ है मैंने कुछ ही पहले धोया है
बैठने पर मुझसे कहा
अच्छा बाँच लेते हो रामायन
तुम्हारे बापू कहते थे जैसे
अब कोई क्या कहेगा
उनकी भीतरी आँख खुली थी
सुर भी क्या कंठ से निकलता था
जैसे असाढ़ के मेघ की गरज'

शास्त्री जी की कविताओं की एक अन्य खास बात है लोकध्वनियाँ। इनके यहां लोकध्वनियों का ऐसा प्रयोग मिलता है जो सम्पूर्ण हिंदी साहित्य में आज भी अनूठा और दुर्लभ है। 
ये दिन न भुला ऽ ऽ ऽ ऽ ना। और सनेही

नींबू के फूले, बेला के फूले
कहीं किसी बारी में भूले भूले
विलग मत जा ऽ ऽ ऽ ना। ओ सनेही
मंजर गए आम। कोयलिया न बोली
बाटों के अपने। हाथ उठाए धरती।
बसंत सखी को बुलाए
पेड़ हैं सब काम
कोयलिया न बोली।

त्रिलोचन का अंतिम समय बहुत कष्टकर रहा। बुढ़ापे में विस्मृति के शिकार रहे। वे अक्सर रास्ता भटक जाते और कई दिनों बाद कहीं भीख मांगते मिलते। उन्होंने कविता भी लिखी

भीख माँगते उसी त्रिलोचन को देखा कल

भीख माँगते उसी त्रिलोचन को देखा कल
जिस को समझे था है तो है यह फ़ौलादी
ठेस-सी लगी मुझे, क्योंकि यह मन था आदी नहीं,
झेल जाता श्रद्धा की चोट अचंचल,
नहीं सँभाल सका अपने को।
जाकर पूछा ‘भिक्षा से क्या मिलता है। जीवन

त्रिलोचन ने शेर और ग़ज़लें भी लिखीं
कोई दिन था जबकि हमको भी बहुत कुछ याद था

आज वीराना हुआ है, पहले दिल आबाद था।
×××××××××××××××××××××××××××××

गुल गया, गुलशन गया, बुलबुल गया, फिर क्या रहा

पूछते हैं अब वो ठहरा किस जगह सैयाद था।

मारे-मारे फिरते हैं उस्ताद अब तो देख लो,

मर्म जो समझे कहे पहले वही उस्ताद था।

9 दिसंबर 2007 को गाजियाबाद में त्रिलोचन शास्त्री का निधन हो गया। त्रिलोचन तुलसी , ग़ालिब , निराला की परंपरा के कवि थे। उनके जीवन मे कबीर सा फक्कड़पन और अक्खड़पन झलकता है। 
यूं तो भारत मे कई बड़े कवि हुए। लेकिन कह सकते हैं कवि होना और बात है त्रिलोचन होना और बात। उन्होंने साहित्य और मानवता की सेवा में अपनी हर सांस समर्पित कर दी।

भाव उन्हीं का सबका है

जो थे अभावमय
लेकिन अभाव से तपे नहीं
जागे स्वभाव में थके

                                                                                                                         
                                                                                                                          अरमान आनंद


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