Thursday, 25 January 2018

बाबा नागार्जुन की कविता किसकी है जनवरी किसका अगस्त है?

किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है? - बाबा नागार्जुन
किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है?
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है?
सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है
गालियां भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है
चोर है, डाकू है, झूठा-मक्कार है
कातिल है, छलिया है, लुच्चा-लबार है
जैसे भी टिकट मिला, जहां भी टिकट मिला
शासन के घोड़े पर वह भी सवार है
उसी की जनवरी छब्बीस
उसीका पन्द्रह अगस्त है
बाकी सब दुखी है, बाकी सब पस्त है
कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है
कौन है बुलंद आज, कौन आज मस्त है
खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा
मालिक बुलंद है, कुली-मजूर पस्त है
सेठ यहां सुखी है, सेठ यहां मस्त है
उसकी है जनवरी, उसी का अगस्त है
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मास्टर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मज़दूर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
घरनी की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
बच्चे की छाती में कै ठो हाड़ है!
देख लो जी, देख लो, देख लो जी, देख लो
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है
महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है
गऱीबों की बस्ती में उखाड़ है, पछाड़ है
धत् तेरी, धत् तेरी, कुच्छों नहीं! कुच्छों नहीं
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
ताड़ के पत्ते हैं, पत्तों के पंखे हैं
पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है
कुच्छों नहीं, कुच्छों नहीं
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!
किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है!
सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है
मंत्री ही सुखी है, मंत्री ही मस्त है
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है।

Saturday, 20 January 2018

अनिल सूर्यधर की कविता : रेत शक़्ल-दर-शक़्ल

रेत शक़्ल-दर-शक़्ल (कविता)
…................................
19 जनवरी 2018 की एक भींगी सी दोपहर थी
मगहर की बलुई जमीन पर कुछ लोग
रेत की शक्लें तैयार कर रहे थे
तरबूज के बेलों सी जिन्दगी के फ़लसफ़े दूर तक फैले हुए थे
हाथों में औजार लिए  कुछ कलाकार
सपनो की खेती कर रहे थे
सपने
जो कुछ टूट गए थे
उधड़ गए थे
कुछ जिन्हें सिल सिल कर दुबारा इस लायक बनाया गया कि
कोई नाउम्मीदी की सर्द हवा कहीं से घुस न जाये
बूढ़ा समय  गंगा में अपनी शक्ल निहार रहा था
गंगा के गंदले पानी मे
एक बूढी झुर्रीदार
कटी फटी सी शक्ल
जिस पर न जाने
कितने युद्ध
नरसंहारों
और विश्वासघातों के चिन्ह थे
गंगा
का बहुत पानी
बह चुका था
बहुत सारे खून के दाग धोये जा चुके थे
अधेड़ सभ्यता थी
जो अब भी हमारा साथ नहीं छोड़ रही थी
कुछ परम्पराएं थी जिसे काठ मार गया था
संस्कृति
वेश्या सी टांगें पसारे
चौखट पर
बैठी थी
बाज़ार
गुलकंद चबाए
और चमेली के फूल लिए
अपनी जेबें टटोलता चला आ रहा था
मेरे भीतर और भी बहुत कुछ था
जो घट रहा था
आज v2 मॉल के sell की आखिरी तारीख थी
उसकी 50 प्रतिशत की छूट पर जान अटकी हुई थी
लंका के गेट पर
कुछ दोस्त होठों में सिगरेट दबाये मेरा इंतज़ार कर रहे थे
एक पत्नी थी
जिसे प्रेमिका होना था
एक प्रेमिका थी
जो अब कहीं नहीं थी
एक प्रेम था
जो कभी था ही नहीं
सब कुछ मेरे ही समय मे घट रहा था
जहां मैं था
और जहाँ मैं नहीं था
लेकिन इन सबके बीच
मेरी आँखें रेत की शक्लों पर अटकी हुई थीं
वे मुझे निगलना चाहते थे
मैं रेत सा
अब भरभराया
कि तब भरभराया
रेत एक सच की तरह उभर रहा था
उन चेहरों की अपनी भाषा थी
उनका अपना साहित्य था
एक मनुष्यता थी
जो बार बार एजेंडे की तरह सामने आ खड़ी हो रही थी
मेरी आँख से टपका एक आंसू
रेत निगल चुका था
आंसू अब रेत की शक्ल में उभरता है
गंगा अब भी बहती चली जाती है
हमारी सभ्यताओं के किताब में न जाने कितने शक्लें हैं
स्याही की गिरफ्त में शक्लें
खूबसूरत और वाहियात शक्लें
खून और आंसू में उतराती हुई शक्लें
थूकों से नहाई हुई शक्लें
शक्लों की भीड़
और भीड़ की शक्लें
शक्लें मेरी हमशक्ल हैं
शक्लें जो मौका देख कर उभरती
और उछाली जाती हैं
रेत पर शक्लें
शक्लों की निशान हैं
गंगा गुजरेगी
तो सब बराबर कर देगी
   "अनिल सूर्यधर"

स्मगलर -(कहानी)- शशि कुमार सिंह

स्मगलर
रात से ही बॉर्डर पर ट्रकों की लम्बी कतार थी.वह भी ट्रक लेकर जल्द से जल्द निकलने की जद्दोजहद में था.वह बार-बार पुलिस वालों से कहता कि ''मुझे जाने दो.मेरा जाना जरूरी है.मैं बहुत जरूरी सामान लेकर जा रहा हूँ.अगर समय पर नहीं पहुँचा तो अनर्थ हो जाएगा.''
पुलिस वालों ने एक सुर में कहा,''हम तलाशी लेंगे.आखिर हम देखें तो, इसमें  है क्या.''
''क्या आप हमारे ऊपर विश्वास नहीं करते.चार सालों से मैं इसी रास्ते से आ-जा रहा हूँ.''उसने कहा.
''हाँ, मगर हमने कभी तुम्हारा ट्रक चेक नहीं किया.''
''साहब ट्रक चोरों का चेक किया जाता है.मैं कोई चोर थोड़ी हूँ.''
''मैं तुमको चोर कहाँ कह रहा हूँ?मगर हम देखें कि इसमें क्या लदा है.''एक पुलिस वाले ने कहा.
''साहब जब पहले चेक नहीं किया तो अब क्यूं चेक कर रहे हैं.आखिर विश्वास भी कोई चीज होती है कि नहीं.मैं क्या आपको स्मगलर नजर आ रहा हूँ.और मेरे पहले जो लोग ट्रक लेकर गए थे,वे क्या शरीफ थे?ईमानदार थे?''
''नहीं, तुम देखने में बेहद शरीफ हो.''
''देखने में नहीं साहब.हूँ ही.''
पुलिस वालों ने यह मान लिया कि विश्वास भी कोई चीज़ है.
लोग बड़ी बेसब्री से उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे.ठीक उसी समय वह ट्रक लेकर हाज़िर हुआ.सबकी ही नहीं उसकी भी खुशी देखने लायक थी.उसने प्रशंसा के लिए सबकी तरफ निगाह दौड़ाई.लोगों ने प्रशंसा की.वह फिर बहुत खुश हुआ.सबको लग रहा था कि यह ट्रक ड्राईवर ही हमारे दुखों को सदा-सदा के लिए दूर करेगा.
युवाओं ने बढ़कर ट्रक का फाटक खोला.देख कर सभी भौंचक.उस पर बेसन लदा था.सभी ने बेसन उतारा और पकौड़ी की दूकान खोल ली.युवाओं ने उस ट्रक ड्राईवर का जोर से जयकारा लगाया.अभी सब खुश हैं.उस ट्रक ड्राईवर ने वाकई लोगों के दुखों को सदा-सदा के लिए दूर कर दिया था

Thursday, 18 January 2018

पिछले जमाने मे (पूर्वांचल) बिहार उत्तर प्रदेश की बारात कैसी होती थी- Er S. D. Ojha

पूर्वांचल की बारात .

पूर्वांचल में बारात जाने से पहले दूल्हे को परीछा जाता है. परीछा परीक्षा को कहा जाता होगा ,जिसमें मां बेटे से विवाह के लिए प्रस्थान करने से पहले अपने दूध के कर्ज का वास्ता देती है. यह एक तरह की परीक्षा हुई,जिसमें कुछ पास हो जाते हैं . कुछ फेल हो जाते हैं . कुछ ऋण से उऋण हो जाते हैं. कुछ इस ऋण का सूद तो क्या मूल भी नहीं चुका पाते , पर हर मां हर बार अपने बेटे से शादी के प्रस्थान से पहले यही सवाल करती है -दूध का कर्ज ,दूध का नीखि कब दोगे ?

तुहूं त चललs बाबू गऊरी बिआहन ,दुधवा के नीखि मोहि देहुस रे.

पहले के लोग बारात में पैदल जाते थे. पांच छ: कोस पैदल चलना मामूली बात होती थी . धोती , गंजी पहन एक हाथ में छाता ,दूसरे में झोला लेकर चल पड़ते थे. झोले में कुर्ता होता था ,जिसे मंजिल पर जाकर हीं पहनना होता था. कुर्ता यदि पहले पहन लिया तो गंदा हो सकता है ,पसीने से तर बतर हो सकता है . रास्ते के मध्य ठहर कर कलेऊ होता था . कलेऊ दाल चावल भाजी या सत्तू का कर , थोडा़ विश्राम कर ,फिर गंतब्य की तरफ चल पड़ते .

बारात दुल्हन के गांव के बगीचे में एकत्र होती . लोग अपना अपना कुर्ता पहन लेते . घोड़े ,हाथी और ऊंट तैयार किए जाते . बारात एक पंक्ति , एक सीध का रुख अख्तियार कर लेती . उधर से वधु पक्ष के लोग भी बारातियों के स्वागत के लिए पंक्तिवद्ध हो जाते.

हम भी हैं ,तुम भी हो ;दोनों हैं आमने सामने .
देख लो क्या असर कर दिया प्यार के नाम ने.

बीच की जगह में घुड़दौड़ शुरू हो जाती . दोनों पक्ष धीरे धीरे एक दुसरे के मुखातिब बढ़तेे "दो कदम तुम चलो ,दो कदम हम चलें " की तर्ज पर. चलते चलते फासले मिटने लगते और एक समय ऐसा अाता कि दोनों मिल जाते.फिर दोनों मिलकर चल पड़ते वधू के द्वार ,जहां द्वार पूजा होती . बैंड बाजा बजता रहता ,बीच बीच में सिंघा की आवाज गूंजती -धु ...धु....का . इसीलिए सिंघा को धुधुका भी कहा जाता है . द्वार पूजा के बाद बाराती पहुंचते जनवासे में ,जहां शामियाना तना होता , शामियाने में नाच होता . नाच का उन दिनों एक प्रसिद्ध गीत होता था -

सांझे बोले चिरई ,बिहाने बोले मोरवा ,
कोरवा छोड़ि द बलमू !

शामियाने में बारातियों का स्वागत उन पर केवड़ा जल छिड़क कर किया जाता .अइगा मंगाई होती.फिर वधू पक्ष की तरफ से वर पक्ष से सवाल पूछे जाते .सवाल रोब जमाने के लिए बहुधा अंग्रेजी में पूछे जाते .वर पक्ष के लोग अंग्रेजी के उद्भट विद्वान बारात में लेकर चलते थे . हमारे जवार में बच्चू सिंह बहुत प्रसिद्ध थे . वे अंग्रेजी में धुंआधार बोलते थे . मेरी शादी में वे किसी कारण वश नहीं आ पाए थे. उनके न आने का कुछ भी फर्क नहीं पडा़ था हमारी बारात की सेहत पर ,क्योंकि प्रश्न हिंदी में पूछा गया था . प्रश्न हीं कुछ ऐसा था ,जिससे सभी चकरा गये . प्रश्न था -प्रणय प्रतीक सिंदूर को हीं क्यों माना गया है ? माकूल जवाब न दिये जाने पर वधू पक्ष की टिप्पड़ी आई थी -"हम उड़द का भाव पूछ रहे हैं और आपलोग बनऊर की बता रहे हैं."

सिंदूर एक प्रकृति प्रदत्त तत्व होता है ,जिसमें पारा बहुतायत में होता है . पारा नकारात्मक ऊर्जा को नियंत्रित करता है . सिंदूर दान मांग में किया जाता है . मांग के नीचे ब्रह्मरंध्र होता है ,जो मुख्य दिमाग होता है . नई नवेली बहू को नये घर में एडजस्ट होने में दिक्कत होती है . इसलिए वह तनाव ,चिंता ,अवसाद के गिरफ्त में जल्दी आ जाती है . सिंदूर का पारा बहू को इन सबसे उबरने में मदद करता है. दूसरी बात यह कि बहू के कहीं आने जाने पर सिंदूर उसे बुरी नजर से बचाता भी है.शोहदों के लिए यह "नो वेकेंसी " का बोर्ड होता है .

अइगा मांगने के बाद गुरहत्ती होती है,जिसमें दूल्हे के बड़े भाई (बहू के भसुर ) बहू के लिए लाये गये गहने उसे भेंट करते हैं. शादी की रस्म शुरू होती है . वर वधू सात बचनों से बद्ध हो अग्नि के सात फेरे लेते हैं. सिंदूर दान होता है . औरतें समवेत स्वर में गाती हैं -

बाबा बाबा पुकारिले ,बाबा ना बोलसु रे !
बाबा के बलजोरिया सेनुर वर डालेला रे !

गुरहत्ती के साथ हीं बारात को खिलाना शुरु हो जाता है. पहले बारातियों के भोजन में पूड़ी ,कई किस्म की तरकारी ,बुनिया ,जलेबी व दही परोसा जाता था. आजकल पुलाव परोसने का भी चलन आ गया है . पहले पुलाव की कच्ची रसोई की श्रेणी में गिनती होती थी . कन्यादान एक पवित्र अनुष्ठान होता था ,इसलिए इसमें कच्ची रसोई वर्जित माना जाता था. खैर, अब तो शादी में मीट व शराब भी धड़ल्ले से परोसे जा रहे हैं.

शादी की रस्म के बाद दूल्हा ,दूल्हे के पिता ,भाई , जीजा व मामा सब मड़वे में जिमने के लिए बैठते हैं. दूल्हे व उसके भाई (सहबलिया )को थाली व छिपुली में भोजन परोसा जाता था . बाकी लोगों को पत्तल में. कई बार दुल्हे व उसके भाई को भी पत्तल में खाना दे दिया जाता था ,जिसके लिए रुसा फुली ( रूठने मनाने ) का दौर चलता था .अब तो सभी को थाली में खाना परोसा जाता है . खाना खाते समय उनका सम्मान औरतें गाली गा कर करती थीं . अब भी करती हैं.

सुबह मिलनी होती ,जिसे समधो कहा जाता है. गीत गवनी समेत सभी पवनी पसारी को नेग दिया जाता . बारात बिदा होती . कहीं दुल्हन की विदाई शादी में हीं होती तो कहीं गवना में होती  . दूल्हे राजा का उमंग रात के गीतों में अटका रहता है .उनके कानों में झांय झांय गीतों की आवाज आती रहती है .वे असवारी (पालकी ) में बैठकर चल देते हैं अपनी मां से यह कहने के लिये कि उनका ससुराल में अच्छा स्वागत नहीं हुआ . उन्हें खट्टी दही व बासी भात खाने को हीं मिला है .झूठ की भी हद होती है .

अम्मा बासी भात खट्टी दहिया.
अम्मा इहे खइनी हम ससुररिया .

- Er S. D. Ojha

Tuesday, 2 January 2018

अरमान आनंद की नई कविता : बच्चे मारे जा रहे हैं

बच्चे मारे जा रहे हैं-अरमान आनंद

आसमान पर मक्खियां भिन भीना रही हैं
सूरज निर्दोष के खून का धब्बा है
पृथ्वी
मेज पर नचा कर छोड़ा हुआ एक अंडा है
जिसके गिरकर फूटते ही
सारा आदर्श बह कर बेकार हो जाएगा
जिसके होठों से अभी भी नहीं उतरा था
मां के दूध का रंग
वो तीन साल का बच्चा मर गया
सूडान में भुखमरी से मरा
सीरिया से भागता हुआ मेडिटेरियन सी में डूब कर मरा
पेरिस में गोलियों का शिकार हुआ
और
भारत में एक कस्बे में उसके हिस्से की हवा छीन ली गयी
और दूसरे से भात
वह अभी कहाँ जान पाया था
कि
रंगों का भी मजहब है
उसकी भी एक जाति है
भगवा
हरा
और
नीला
सिर्फ रंग नहीं है
एक राजनीति है
दुनियां के कई खेल हैं
गुड्डे गुड़ियों
और काठ की गाड़ियों से अलग
कुर्सियां भी सिर्फ कुर्सी खेल
तक सीमित नहीं है
पिता के कंधे पर
उसका मरा हुआ बच्चा
पृथ्वी और पाप से भी अधिक भारी होता है
पसलियों से अधिक आत्मा थकती है
माँ से अधिक नियति रोती है
अरे यम मृत बच्चे की इस लटक रहे हाथ की हथेली को थामो तो जरा
अरे यम एक पल के लिए तो रुको तो जरा
इस हथेली से मुलायम और मजबूत
भला दुनिया की कोई और चीज़ है क्या
जाने से पहले
एक बार अपनी माँ की उँगली को भींच लेते बच्चे
देखो तुम्हारी माँ के स्तनों का नमकीन समंदर
उसकी आंखों में उतर आया है
जिस पर सिर्फ तुम्हारा हक था
बच्चे
अभी जबकि तुम्हारे सवालों से दुनियां को जूझना था
और तुम खामोश हो
अभी जब तुम्हारी खिलखिलाहटों में इस उदास दुनियाँ को हँसना था
और तुम खामोश हो
अभी जबकि तुम्हारे आंसुओं में
बुद्ध अपनी करुणा का पाठ पढ़ते
और तुम खामोश हो
तुम्हारी चुप्पी भारी पड़ रही है
पृथ्वी को
जहाँ से उठा लिए हैं धरती से तुमने अपने पांव
वहीं से धरती का कलेजा फट रहा है




सूरज निर्दोष के खून का धब्बा है
पृथ्वी
मेज पर नचा कर छोड़ा हुआ एक अंडा है
जिसके गिरकर फूटते ही
सारा आदर्श बह कर बेकार हो जाएगा


जिसके होठों से अभी भी नहीं उतरा था
मां के दूध का रंग
वो तीन साल का बच्चा मर गया
सूडान में भुखमरी से मरा
सीरिया से भागता हुआ मेडिटेरियन सी में डूब कर मरा
पेरिस में गोलियों का शिकार हुआ
और
भारत में एक कस्बे में उसके हिस्से की हवा छीन ली गयी
और दूसरे से भात


वह अभी कहाँ जान पाया था
कि
रंगों का भी मजहब है
उसकी भी एक जाति है
भगवा
हरा
और
नीला
सिर्फ रंग नहीं है
एक राजनीति है


दुनियां के कई खेल हैं
गुड्डे गुड़ियों
और काठ की गाड़ियों से अलग


कुर्सियां भी सिर्फ कुर्सी खेल
तक सीमित नहीं है


पिता के कंधे पर
उसका मरा हुआ बच्चा
पृथ्वी और पाप से भी अधिक भारी होता है
पसलियों से अधिक आत्मा थकती है
माँ से अधिक नियति रोती है


अरे यम मृत बच्चे की इस लटक रहे हाथ की हथेली को थामो तो जरा
अरे यम एक पल के लिए तो रुको तो जरा
इस हथेली से मुलायम और मजबूत
भला दुनिया की कोई और चीज़ है क्या


जाने से पहले
एक बार अपनी माँ की उँगली को भींच लेते बच्चे
देखो तुम्हारी माँ के स्तनों का नमकीन समंदर
उसकी आंखों में उतर आया है
जिस पर सिर्फ तुम्हारा हक था


बच्चे
अभी जबकि तुम्हारे सवालों से दुनियां को जूझना था
और तुम खामोश हो
अभी जब तुम्हारी खिलखिलाहटों में इस उदास दुनियाँ को हँसना था
और तुम खामोश हो
अभी जबकि तुम्हारे आंसुओं में
बुद्ध अपनी करुणा का पाठ पढ़ते
और तुम खामोश हो


तुम्हारी चुप्पी भारी पड़ रही है
पृथ्वी को
जहाँ से उठा लिए हैं धरती से तुमने अपने पांव
वहीं से धरती का कलेजा फट रहा है

Featured post

व्याकरण कविता अरमान आंनद

व्याकरण भाषा का हो या समाज का  व्याकरण सिर्फ हिंसा सिखाता है व्याकरण पर चलने वाले लोग सैनिक का दिमाग रखते हैं प्रश्न करना  जिनके अधिकार क्षे...