पूर्वांचल की बारात .
पूर्वांचल में बारात जाने से पहले दूल्हे को परीछा जाता है. परीछा परीक्षा को कहा जाता होगा ,जिसमें मां बेटे से विवाह के लिए प्रस्थान करने से पहले अपने दूध के कर्ज का वास्ता देती है. यह एक तरह की परीक्षा हुई,जिसमें कुछ पास हो जाते हैं . कुछ फेल हो जाते हैं . कुछ ऋण से उऋण हो जाते हैं. कुछ इस ऋण का सूद तो क्या मूल भी नहीं चुका पाते , पर हर मां हर बार अपने बेटे से शादी के प्रस्थान से पहले यही सवाल करती है -दूध का कर्ज ,दूध का नीखि कब दोगे ?
तुहूं त चललs बाबू गऊरी बिआहन ,दुधवा के नीखि मोहि देहुस रे.
पहले के लोग बारात में पैदल जाते थे. पांच छ: कोस पैदल चलना मामूली बात होती थी . धोती , गंजी पहन एक हाथ में छाता ,दूसरे में झोला लेकर चल पड़ते थे. झोले में कुर्ता होता था ,जिसे मंजिल पर जाकर हीं पहनना होता था. कुर्ता यदि पहले पहन लिया तो गंदा हो सकता है ,पसीने से तर बतर हो सकता है . रास्ते के मध्य ठहर कर कलेऊ होता था . कलेऊ दाल चावल भाजी या सत्तू का कर , थोडा़ विश्राम कर ,फिर गंतब्य की तरफ चल पड़ते .
बारात दुल्हन के गांव के बगीचे में एकत्र होती . लोग अपना अपना कुर्ता पहन लेते . घोड़े ,हाथी और ऊंट तैयार किए जाते . बारात एक पंक्ति , एक सीध का रुख अख्तियार कर लेती . उधर से वधु पक्ष के लोग भी बारातियों के स्वागत के लिए पंक्तिवद्ध हो जाते.
हम भी हैं ,तुम भी हो ;दोनों हैं आमने सामने .
देख लो क्या असर कर दिया प्यार के नाम ने.
बीच की जगह में घुड़दौड़ शुरू हो जाती . दोनों पक्ष धीरे धीरे एक दुसरे के मुखातिब बढ़तेे "दो कदम तुम चलो ,दो कदम हम चलें " की तर्ज पर. चलते चलते फासले मिटने लगते और एक समय ऐसा अाता कि दोनों मिल जाते.फिर दोनों मिलकर चल पड़ते वधू के द्वार ,जहां द्वार पूजा होती . बैंड बाजा बजता रहता ,बीच बीच में सिंघा की आवाज गूंजती -धु ...धु....का . इसीलिए सिंघा को धुधुका भी कहा जाता है . द्वार पूजा के बाद बाराती पहुंचते जनवासे में ,जहां शामियाना तना होता , शामियाने में नाच होता . नाच का उन दिनों एक प्रसिद्ध गीत होता था -
सांझे बोले चिरई ,बिहाने बोले मोरवा ,
कोरवा छोड़ि द बलमू !
शामियाने में बारातियों का स्वागत उन पर केवड़ा जल छिड़क कर किया जाता .अइगा मंगाई होती.फिर वधू पक्ष की तरफ से वर पक्ष से सवाल पूछे जाते .सवाल रोब जमाने के लिए बहुधा अंग्रेजी में पूछे जाते .वर पक्ष के लोग अंग्रेजी के उद्भट विद्वान बारात में लेकर चलते थे . हमारे जवार में बच्चू सिंह बहुत प्रसिद्ध थे . वे अंग्रेजी में धुंआधार बोलते थे . मेरी शादी में वे किसी कारण वश नहीं आ पाए थे. उनके न आने का कुछ भी फर्क नहीं पडा़ था हमारी बारात की सेहत पर ,क्योंकि प्रश्न हिंदी में पूछा गया था . प्रश्न हीं कुछ ऐसा था ,जिससे सभी चकरा गये . प्रश्न था -प्रणय प्रतीक सिंदूर को हीं क्यों माना गया है ? माकूल जवाब न दिये जाने पर वधू पक्ष की टिप्पड़ी आई थी -"हम उड़द का भाव पूछ रहे हैं और आपलोग बनऊर की बता रहे हैं."
सिंदूर एक प्रकृति प्रदत्त तत्व होता है ,जिसमें पारा बहुतायत में होता है . पारा नकारात्मक ऊर्जा को नियंत्रित करता है . सिंदूर दान मांग में किया जाता है . मांग के नीचे ब्रह्मरंध्र होता है ,जो मुख्य दिमाग होता है . नई नवेली बहू को नये घर में एडजस्ट होने में दिक्कत होती है . इसलिए वह तनाव ,चिंता ,अवसाद के गिरफ्त में जल्दी आ जाती है . सिंदूर का पारा बहू को इन सबसे उबरने में मदद करता है. दूसरी बात यह कि बहू के कहीं आने जाने पर सिंदूर उसे बुरी नजर से बचाता भी है.शोहदों के लिए यह "नो वेकेंसी " का बोर्ड होता है .
अइगा मांगने के बाद गुरहत्ती होती है,जिसमें दूल्हे के बड़े भाई (बहू के भसुर ) बहू के लिए लाये गये गहने उसे भेंट करते हैं. शादी की रस्म शुरू होती है . वर वधू सात बचनों से बद्ध हो अग्नि के सात फेरे लेते हैं. सिंदूर दान होता है . औरतें समवेत स्वर में गाती हैं -
बाबा बाबा पुकारिले ,बाबा ना बोलसु रे !
बाबा के बलजोरिया सेनुर वर डालेला रे !
गुरहत्ती के साथ हीं बारात को खिलाना शुरु हो जाता है. पहले बारातियों के भोजन में पूड़ी ,कई किस्म की तरकारी ,बुनिया ,जलेबी व दही परोसा जाता था. आजकल पुलाव परोसने का भी चलन आ गया है . पहले पुलाव की कच्ची रसोई की श्रेणी में गिनती होती थी . कन्यादान एक पवित्र अनुष्ठान होता था ,इसलिए इसमें कच्ची रसोई वर्जित माना जाता था. खैर, अब तो शादी में मीट व शराब भी धड़ल्ले से परोसे जा रहे हैं.
शादी की रस्म के बाद दूल्हा ,दूल्हे के पिता ,भाई , जीजा व मामा सब मड़वे में जिमने के लिए बैठते हैं. दूल्हे व उसके भाई (सहबलिया )को थाली व छिपुली में भोजन परोसा जाता था . बाकी लोगों को पत्तल में. कई बार दुल्हे व उसके भाई को भी पत्तल में खाना दे दिया जाता था ,जिसके लिए रुसा फुली ( रूठने मनाने ) का दौर चलता था .अब तो सभी को थाली में खाना परोसा जाता है . खाना खाते समय उनका सम्मान औरतें गाली गा कर करती थीं . अब भी करती हैं.
सुबह मिलनी होती ,जिसे समधो कहा जाता है. गीत गवनी समेत सभी पवनी पसारी को नेग दिया जाता . बारात बिदा होती . कहीं दुल्हन की विदाई शादी में हीं होती तो कहीं गवना में होती . दूल्हे राजा का उमंग रात के गीतों में अटका रहता है .उनके कानों में झांय झांय गीतों की आवाज आती रहती है .वे असवारी (पालकी ) में बैठकर चल देते हैं अपनी मां से यह कहने के लिये कि उनका ससुराल में अच्छा स्वागत नहीं हुआ . उन्हें खट्टी दही व बासी भात खाने को हीं मिला है .झूठ की भी हद होती है .
अम्मा बासी भात खट्टी दहिया.
अम्मा इहे खइनी हम ससुररिया .
- Er S. D. Ojha