प्रेमी स्थान खोजते है /अम्बर पाण्डेय
जा, निर्विघ्न सम्पन्न हो तेरी रति
कोई नहीं आता वर्षा में इस ओर
रात को
भृंगवल्लभ के इन वृक्षों में
पुष्प अधिक है पत्रों से
भौरें- लालची, लम्पट, रातों को भी
भनभन करते जगते है
सुगंध से मस्तक की ऐसी दशा होती है
जैसे गुड़पुष्पों का सार पिया हो लोटाभर
छिन्नसंशय गुँथी पड़ी रह उससे
जैसे मन में विपरीत भावों का
द्वन्द रहता है
कलंक तक ने यहाँ का रस्ता नहीं देखा
पुतलियों पर छप जाए
उसकी पुतलियाँ, ऐसी देख एकटक
उतार दे वस्त्र योगियों से सीख
कैसे निर्विकल्प समाधि में वे
पंचभूतों की पोटली छोड़ दिया करते है
छींटें पड़ने लगे तो चली जाना
भीतर तक नि:संकोच
रति के पूर्ण हो जाने पर जो गन्ध
जोड़ों के कलेबरों से उठा करती है
वैसी ही सुगन्धवाले पुष्प वहाँ बहुत है
जिह्वा यों
जैसे मछली मूँगे की बेल का फल खाकर
जड़ हो जाती है, पुष्प का नाम ले नहीं पाता
मैं भी तो अपनी पूर्वप्रेमिका का
वहीं गाढ़ चुम्बन लेकर आया हूँ
#सम्वत२०७४आषाढ़ ९
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