Friday, 3 May 2019

बेगूसराय चुनाव-2019 - पत्रकार महेश भारती की कलम से

बेगूसराय चुनाव-2019

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक चुनाव के रिजल्ट को लेकर आंकड़ेबाजों के गुरुर टूट चुके होंगे . निश्छल समर्थकों व भावुक कार्यकर्ताओं के बीच मतगणना तक भ्रम रखने की उनकी कवायद भी तेज हो गई होगी. चुनावी राजनीति के ये आम नुस्खे होते हैं. कोई हारना नहीं चाहता. आज से एक महीना पहले एक पार्टी के चिंतक से जब मैंने बेगूसराय के चुनाव को लेकर चर्चा की और जमीनी हवा, गठबंधन के असर और जिले के चुनावी  इतिहास के सबक को लेकर सच्चाई बयां किया तो उन्होंने कहा चुनाव तक कम से कम ये बात आप न बोलिए.
बेगूसराय में लोकसभा का यह चुनाव काफी चर्चित रहा देश के मीडिया समूहों ने, बुद्धिजीवियों ने ,विभिन्न विचारों के समर्थकों ने आकर इसे दिलचस्प बना दिया. चुनाव के दौरान एक मीडिया चैनल से जुड़े पत्रकार को जब मेंने कहा कि आपलोग सच्चाई से परे खबरें दिखा रहें हैं तो उन्होंने कहा -सर टीआरपी बढाना है कि नहीं. एक खास उम्मीदवार उनके टीआरपी का हिस्सा था. एक चैनल के वरिष्ठ पत्रकार ने कहा-चुनावी रिपोर्टिंग तो है, यहां  कन्हैया के लिए.
चुनाव के इस खेल में शायद ही देश के कोई भी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कर्मी बचे  रह पाएं हों.  उनके कोण में  चाहे जो हों बेगूसराय के चुनाव को धरातलीय भावना से अलग की रिपोर्टिंग के लिए भी जाना जाएगा. एक दिन कुछ पत्रकारनुमा लडकों की एक टीम से भेंट हुई और जब पूछने पर मेंने अपने अनुभवों और समझ को बताया तो वे किसी खास के पेसुआ निकले . पूरे जिले में ऐसी टीमों को लगाया गया था जो यहां के जमीनी सच्चाई से अलग तो थे ही उनके पास अनुभव की भी कमी थी.
लेकिन इन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी.
बेगूसराय की चुनावी चर्चा को लेकर सोशल मीडिया ग्रुप को लडकों का जोश भी अपने समर्थकों को लेकर खासा दिलचस्प रहा. हैं मुंबई और दिल्ली में.यहांतक की विदेश में.  लेकिन चुनाव को लेकर खासे झूठ परोसने से किसी को परहेज नहीं. चुनाव हो चुके हैं. सभी सच्चाई से अवगत भी हैं. वोटों के धु्रवीकरण के सच सामने आ चुके हैं लेकिन ऐसे प्रवासी अभी भी आंकड़े से अपनों को संतुष्ट करने में लगे हैं।

                घड़ी की सुई पीछे घूमती है और बेगूसराय चुनाव को लेकर हमें हरिहर महतो याद आ जाते हैं. जब 1999 लोकसभा चुनाव के संदर्भ में उनहोंने एक उम्मीदवार के बारे में कहा था कि उसे तो सौरी घर में ही नमक चटा दिया गया. इस चुनाव में बेगूसराय में महागठबंधन बनने की प्रक्रिया में टूट ने पहले ही सब कुछ तय कर दिया. वोटों के गणित के जातीय और सांप्रदायिक समीकरण के फुफकार जो बिहार की राजनीति में 1991 के लोकसभा चुनाव से सुनाई पड़ते रहे हैं की प्रयोगशाला में लाल रंग से परहेज की बात उठ गई.
जिसे लेकर पूरे देश के नामी बुद्धिजीवी,संपादक,पत्रकार,कवि,लेखक,फिल्मिस्तानी वर्तमान सरकार की घेराबंदी में लगे थे वह दूध उस फुंकार के विष से यहां फट गया थाः.  हालाँकि सौरी घर में नोन चटे उस बालक की आकृति को लेकर  ये मचलते रहे. बेगूसराय ऐसे लोगों की तीर्थस्थली बन गयी जिसकी संरचना बनने से पहले ही बिगाड़ दी गयी थी और मुर्दा में जान फूंकने की उनकी कवायद जारी रही. राजनीति  े पहले ही खेल बिगाड़ दिया था और ये जानते हुए भी कि सभी मरे हुए हैं  महाभारत के रण में लड रहे थे. ऐसे लोग भी  जो जिले के जातीय और सांप्रदायिक गणित को समझ रहे थे सच्चाई से अवगत भी थे. जिले के एक वडे वामपंथी नेता ने चुनाव के दौरान बातचीत में कहा भी तामझाम तो बहुत है वोट कहां है. हां बाहर से आनेवाले लोगों ने प्रयोगशाला में जमकर प्रयोग किया. अपने अपने तरीके से. जातीय और सांप्रदायिक समूहों में शायद बडी टूट का सपना पाले वे अपने अभियान में सफल भी रहे. लेकिन, बेगूसराय के चुनाव की पटकथा के लेखक ने महागठबंधन की टूटी रस्सी से पहले ही फांसी लगा ली थी. वोटों के गणित के हिसाब हमेशा टेढेमेढे होते हैं.यहां तो सोचनेवाले के लिए ये सीधे थे. जाति, गोत्र, वंश, इस पार उस पार, जिले के बेटे और बाहरी, जैसे सूत्र उछाले तो गए ही .कोई यह नहीं कह सकता कि चुनाव की वैतरणी पार करने के लिए वे बाछी की पूंछ नहीं पकड़े. राजनीति की इस प्रयोग
शाला की धरती पर जब चिंतक, विचारक,   जानकारों को भी भी झूठे प्रलाप करते देखता तो मुझे कभी बडी हंसी आती. वोटों क् गणित के सूत्र फेल हो जाने के बाद भी लोग कैसे झूठ के गणित रटते हैं.
यह बेगूसराय के लोकसभा चुनाव में स्पष्ट था.

        बेगूसराय लोकसभा चुनाव कई मायनों में दिलचस्प रहा. दलों के चुनावी टिकट की होड से लेकर महा गठबंधन बनने की कवायद और टूट तक.
बिहार में जातियों के गणित की चुनावी रणनीति 1990 के दशक से बनने लगी और 2001 आते आते वह जातीय समीकरण के गठजोड़ में तबदील हो गई. बेशरम से जातियों के नेता ने अपने दल बनाए और फिर बडे राजनीतिक दल उनके बाहुपाश में झूलने लगे. सिद्धांत और नैतिकता से भरे नेताओं ने या तो दल छोड़ दिया या फिर उन्हें छोडने को मजबूर किया गया. कई राजनीतिक दल भी हाशिए पर आ गए. उनके समर्थक और वोटर जातीय भावना में जातीय सांप्रदायिक नेताओं की शरण में चले गए . सीट झटकने की छीना झपटी में लग गए. सब अपने जोगाड में.
   बेगूसराय भी इससे भिन्न नहीं रहा. दल के अंदरखाने टिकट पाने की होड और चुनावी गठजोड़ से नाखुश नेताओं की लंबी श्रेणी. टिकट से वंचित नेताओं की लाबी भीतरघात के इतिहास रचने में जुट गई. कोई दल अछूता नहीं. संगठित और अनुशासित दल में पुराने नेताओं की फौज चुनावी परिदृश्य से गायब नजर आए तो नए लोगों का हुजूम सामने आ गया. उनके पास न तो चुनावी अनुभव था न ही धरातलीय चुनाव जीतने के गणित के सूत्र . गुटबाजी चरम पर रही.  कई नेत अंडरग्राउंड हो गए. कई की उम्मीदवार द्वारा पूछ नहीं हुई. टिकट न मिलने से नाराज नेताओं के भीतरघात की कहानी फिर कभी. राजनीतिक गठजोड़ वाले दलों के नेतृत्व व कार्यकर्ताओं की प्रतिबद्धता भी कई जगह नेताओं से भिन्न. महागठबंधन के एक बड़े घटक दल के कई नेता व कार्यकर्ता चुनाव प्रचार के दौरान मिले जो अपने गठबंधन से इतर के उम्मीदवार के लिए वोट मांगते नजर आए. यूं कोई दल इससे अलग  नहीं.  बेगूसराय के चुनावी गणित हल करने के एक माहिर ने बताया यह राजनीतिक संकट का दौर है. जब नेताओं की प्रतिबद्धता नहीं है तो कार्यकर्ता और जनता कहां माननेवाले हैं .बेगूसराय के चुनावी परिणाम को ऐसे लोग प्रभावित तो बहुत ज्यादा नहीं कर पाए. लेकिन, उम्मीदवार और उनके समर्थकों को सशंकित जरूर कर दिया ।
चुनावी विश्लेषण -4
बेगूुसराय चुनाव-2019
बेगूसराय में लोकसभा का चुनाव  राष्टीय मीडिया, बुद्धि्जीवियों ,शासक दल के पदासीन नेताओ, संपूर्ण विपक्ष के चर्चा के केन्द्र बिन्दु में रहा. आखिर क्यों. इसके कारणों की पड़ताल जरूरी है. सिर्फ वैचारिक आंदोलन और मत विरोध की वजह से नहीं चुनावी रणनीति की वजह से भी. बेगूसराय के वामपंथी उम्मीदवार ने कई मिथकों को तोड चुनाव लड़ने के सारे आयुध को अपने चुनावी युद्ध में लाकर विरोधियों की बोलती बंद कर दी. कारपोरेट टाइप चुनाव प्रचार में सारे दलों को पीछे ही नहीं काफी पीछे छोड़ जिले में वामपंथी प्रत्याशी ने नया इतिहास रच दिया. एक पुराने वामपंथी साथी ने कहा इसबार के चुनाव प्रचार के तरीके से आगे किसी वामपंथी का चुनाव लडना कठिन टास्क हो जाएगा. जिस पार्टी के पास कभी एक अदद जीप चुनाव में हुआ करती थी वहां गाडियों का काफिला था. चुनावी खर्च  में भी शासक दल और दूसरे उम्मीदवार से काफी आगे. कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार और नई संस्कृति का प्रादुर्भाव . वोट को समेटने के नए तरीके भी और जाति, धर्म, गोत्र का मंत्र भी.  पूंजीवाद को पानी पी पी कर गाली देनेवाले चुनावी राजनीति  में उस  संस्कृति से थोड़ा भी कम नजर नहीं आए. एक बुजुर्ग वामपंथी ने हमें चुनाव प्रचार के दौरान कहा 1967 से चुनाव देख रहा हूं इस बार ही चुनाव में हमलोगों का समाजवाद आया है.  हर विरोध और समर्थक के मुंह पर हम हैं. हालांकि चुनाव प्रचार में सारे विरोधियों से आगे निकलने के बाद भी वोटों के गुणा भाग में सफलता पर उनका  संदेह बरकरार था.
  बेगूसराय की सीट को लेकर महगठबंधन की राजनीति में सीपीआई को अलग थलग करने में राजद और एनडीए की मिलीभगत की बात भी उठी.  राजद नेताओं ने इसे एक जिले और एक जाति की पार्टी तक कहा. कहने वाले नेता के बाप से भी पहले बननेवाली पार्टी को एक सीट भी देने को वे राजी नहीं हुए तो नवजात पार्टियों को दो से पांच सीटों  का गिफ्ट मिल गया. राज्य की वाम पार्टियां कटोरा लिए अंत तक महा्गठबंधन की आस में रहे. वाम को भाजपा ैसे ज्यादा  अपमान गठबंधन के नेतृत्व से सहना पडा.. लेकिन चुनाव में भाजपा और उसके पीएम हीै निशाने पर रहे .वोटों के गणित पर कल आंदोलन.

             बेगूसराय लोकसभा चुनाव 2019 कई राजनीतिक समीकरण के बनने के लिए याद  किए जाएंगे. चुनावी रिज़ल्ट के पहले और जब रिज़ल्ट को लेकर लोग दावे प्रति दावे तेज किए हों तो उन्हें सच्चाई से अवगत कराने या उनके नजदीक तक पहुंचाना जरूरी होै जाता है. कई लोग ऐसे मुगालते में हैं कि तीसरे पायदान पर रहनेवाले को भी जिताने की गारंटी लिए बैठे हैं. तर्क और गणित का, वोटों की गिनती का उनका अपना हिसाब है.जिताना या हराना हमारा काम नहीं . सिर्फ बेगूसराय के चुनावी गणित पर अपनी बेबाक राय जो तार्किकता से भरा हो और जिन समीकरणों की चर्चा चुनाव के दौरान बनी और  मतदान में जो प्रत्यक्ष हुआ उसकी सत्यता की तह तक पहुंचने की कोशिश जरूरी है.
    पिछले 2014 के चुनाव के रिजल्ट और 2019 के रिज़ल्ट में कोई बड़ा बदलाव नहीं होनेवाला है. वोटरों की संख्या चुंकि बढी है तो आनुपातिक परिवर्तन स्वाभाविक है. पिछले चुनाव की तरह तीन में प्रतियोगिता है. वोटरों का समीकरण भी कमोवेश वही है . राजनीतिक जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी वही देखे गए जो पिछले चुनावों के थे.  पार्टियों के गठबंधन में थोडा अंतर जरूर आया.
     बिहार में पिछले 28 बरसों से जातीय रुझान के वोट हैं. मुसलमानों की सांप्रदायिक सोच पर चर्चा से भागा नहीं जा सकता. चुनाव प्रचार के दौरान प्रसिद्ध पटकथा लेखक जावेद अख्तर ने एक माकूल और ऊंची बात कही. कहा कि मुसलमान मुसलमान प्रत्याशी को इसलिए वोट नहीं दे कि वो उनकी जात के हैं.वे दूसरी जमात को उम्मीदवार को यह कहकर वोट दें कि हम आपके साथ हैं. इससे देश का लोकतंत्र मजबूत होगा और वे आपके एहसानमंद भी होंगे और आपके विकास के भागीदार भी.
यह लोकतंत्र के लिए सच्चा संदेश है. लेकिन खुद जावेद जी को इसलिए बेगूसराय बुलाया गया कि वे मुसलमानों का वोट ठीक कर सकें. जब आप कश्मीर से कन्याकुमारी तक के एक कौम और जाति से जुडे लोगों को इसलिए बुलाते हैं कि उनसे उस कौम या जाति का वोट ठीक हो जाएगा और ऐसे लोग उन्हीं की आबादी में घूमें तो दलों के, नेताओं के ,विचारों के, लोकतंत्र की धज्जियां उड़ रहीं होती है. फिर भी चुनाव जीतने के लिए इसमें कोई किसी से पीछे नहीं.
बेगूसराय का चुनाव इन जातीय और सामाजिक समीकरण के वोटों के गणित में ही उलझा है. सामाजिक जातियों और मुसलमानों के वोट ठीक करने के लिए जब आप अभियान चलाते हैं तो रिज़ल्ट भी उसी के अनुरूप होंगे. कभी जगजीवन राम ने कहा था इस देश की जनता शिक्षित नहीं समझदार बहुत है. तो जातीय समीकरण की राजनीति के इस दौर में जनता का निर्णय भी उसी के पक्ष में जाएगा जिसके सामाजिक जातियों के वोट का दायरा बडा हो.

         बेगूसराय में चुनावी लडाई जाति से उबर नहीं पायी. बडी बडी आबादी वाले  जातियों के वोट बांटने की कोशिश मेंे में सभी दलों के लोग शामिल रहे. जिनका जिन जातियों में आधार रहा वहां उनके वोट बैंक नजर आए. राष्ट्रवाद, विकास, देशद्रोह, सा माजिक न्याय ,समता आदि के नारे तो लगे वे जाति, संप्रदाय से ज्यादा पवित्र नजर नहीं आए. हर ने एक दूसरे के समीकरण में सेंधमारी की भरपूर कोशिश की लेकिन चुनाव में मानसिकता बना चुके वोटर पार्टी के कार्यकर्ताओं और नेताओं से आगे नजर आते रहे.
लफ्ज जबतक वुजू नहीं करते
हम तेरी गुफ्तगू नहीं करते
लाल नवाचारी चुनाव प्रचार व्यवस्था  में प्रतिद्वंदी बैकफुट पर ही नही काफी पीछे नजर आए. प्रचार की सुगठित  शैली में संगठन, तंत्र,धन की जोड के जुटने से वाम का प्रचार जो इतिहास में पिलपिलाता सा नजर आता था इस चुनाव में सबसे तगड़ा बना उच्च शिखर पर नजर आया.गरीब और गरीबों की पार्टी कही जानेवाला मिथक टूट से गए.  विरोधी उम्मीदवार इस मामले में लगभग फिसड्डी नजर आए. चुनावी प्रचार ने वाम में जोश तो भरा लेकिन आधार वोट बैंक की कमी और उम्मीदवार पर जेएनयू के देशविरोधी नारों का ठप्पा लगे रहने और जिले के पुराने नेताओं के साथ तारतम्यता के अभाव ने वोटरों के बीच हमेशा संशय बनाए रखा. बावजूद बडी संख्या में बाहरी प्रचारकों को लाने और युवा जोश को जगाने में उन्हें सफलता मिली. बेगूसराय के लोकसभा चुनाव भाजपा के उग्र राष्ट्रवादी चेहरा और वाम के चर्चित चेहरे के बीच जातिवादी दलों के कथित सामाजिक न्याय के धार्मिक पुट लिए चेहरे के बीच था. लेकिन त्रिकोण के तीनों कोणों के योग की ज्यमितीय व्याख्या जो हो यहां वह व्याख्या राष्ट्रवादी कोण के साथ झुका नजर आया. बरौनी, बछवाडा, बखरी जैसे क्षेत्रों में त्रिकोणीय मुकाबला चेरियाबरियारपुर, मटिहानी, बेगूसराय, साहेबपुरकमाल में काफी पिछड़ता नजर आया. राष्ट्रीय मीडिया से लेकर नीचे की मीडिया मैनेजमैंट में सब पर भारी पड़ वाम और दक्षिण की लड़ाई में सामाजिक न्याय का नारा गुम होते नजर आया. मीडिया ने तो उन्हें पूरे तौर पर नजरंदाज कर दिया, उपेक्षा भी. लेकिन, धरातल पर अपने आधार वोट को समेटने और उन्हें टूटने से बचाने में वे सफल रहे.चुनाव के रिजल्ट में मीडिया को टीआरपी बढाने और विज्ञापन वसूलने के अलावा चुनाव प्रचार के काम में यहां संलिप्तता के लिए भी याद किया जाएगा.

     बेगूसराय लोकसभा क्षेत्र में चुनावी पैटर्न दलीय निषठा औऱ गठबंधन धर्म को तार तार कर गया.  जारी चर्चा और विशलेषण के बीच कल एक कांग्रेसी सज्जन ने मेरे फेसबुक पर आकर कहा कि हमलोग राजद से अलग सीपीआई की मदद में थे. उनका कहना था कि राजद जीते या सीपीआई मदद केन्द्र मे कांग्रेस की ही करेंगे. चुंकि पूरे देश में बेगूसराय का चुनाव कई मायने में भिन्न था औऱ मोदी विरोध के राष्टीय प्रतीक के रूप में चर्चित सीपी आई का चेहरा कांग्रेसियों को ज्यादा मुफीद लगा इसलिये उन्होंने गठबंधन धर्म का पालन नहीं किया. कमोबेश गठबंधन से जुड़े दलों के जातीय गणित भी गडबडा गए और उन्होंने दलीय तानाबाना को छिन्नभिन्न कर अपने पसंदीदा प्रत्याशी के पक्ष में मतदान किया. कांग्रेस के अगडे वोटर सीपीआई के पक्ष में तो मुस्लिम और पिछडे राजद में.
     भाजपा को विकास, मोदी के प्रधानमंत्री चेहरा और सर्जिकल स्टर्राईक के अलावा जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का लाभ भी गांवों मे मिला. मुस्लिम बाहुल्य गांवों में धार्मिक ध्रुवीकरण का असर रहा कि दलितों और पिछड़े ने भाजपा के पक्ष में मतदान कर सारे समीकरण ध्वस्त कर दिए. कई गांवों में वोटर मोदी सरकार की शौचालय, उज्जवला,किसान सम्मान, पेंशन आदि के मोह में मोदी के पक्ष में नजर आए. महिलाओं, दलितों और पिछड़ों की बडी भागीदारी भाजपा के पक्ष में साफ दिखाई दे रही थी.
  यूं सीपीआई कीे युवा प्रचारक टीम भी करिश्माई अंदाज मे  वोटरों को लुभाने में लगी रही. दलित, मुस्लिम, पिछड़े, सवर्ण के गोत्रीय नेता  तक को अपने अपने क्षेत्र में सीपीआई के पक्ष में प्रचार और वोटरों को लुभाने के लिए भेजा गया. राजद के एमवाय के समीकरण बेंधने में सीपीआई को कुछ सफलता जरूर मिली मगर ये मुक्कमल नहीं रहा. राजद इन वोट बैंक के अलावा अगडे विरोध वाले पिछड़े वोट पर कब्जा जमाने में सफल रही.
      भाजपा को जदयू गठबंधन का लाभ भी मिला. स्वजातीय कुर्मी और धानुक मतदाता पर प्रभाव रखनेवाले नीतीश कुमार ने उन्हें लुभाने के लिए जिले में कई सभा भी की.

          चुनावी विश्लेषण के क्रम में आज एक कामरेड ने फोन करके कहा कि आपको पता नहीं है पिछले 2014 के चुनाव में जितने कामरेड भोला बाबू को वोट किए थे इस बार के चुनाव में वे सब लौट आए औऱ उन्होने सीपीआई के  पक्ष मे मतदान किया ही नही अपितु करवाया भी. उन्होंने जोडा और थोड़ी नाराजगी जताते हुए कहा भी, हम जीत रहे हैं . वाह भाई  मैं किसी को जीतने में मना थोड़े करता हूं. तो पिछले चुनाव मे कामरेडों ने अपने उम्मीदवार रहते भी भाजपा प्रत्याशी को वोट किया. यह दल के अंदर के अन्तरविरोध का परिणाम था या फिर  कामरेडों का जातीय या धार्मिक प्रेम.

      मामला जो कुछ हो पिछले चुनाव मे ही भाजपा उम्मीदवार भोला सिंह ने भाजपा को सर्वग्राह्य पार्टी का दर्जा जिला मे दिला  दिया . भोला सिंह ने बरास्ते कम्युनिस्ट होते भाजपा तक की यात्रा की थी.भोला सिंह की जीत सर्व विदित है. इस चुनाव मे भाजपा ने अपने फायर ब्रांड नेता गिरीराज सिंह को बेगूसराय से उम्मीदवार बनाया. काफी नानुकर और मान मनौव्वल के बाद  वे बेगूसराय आए. लेकिन दल का अंतरविरोध साथ लेकर. टिकट न मिलने से नाराज नेताओं ने पहले तो बाहरी भीतरी का नारा उछाला और बाद मे सीपीआई का यह चुनाव प्रचार का पंचलाइन बन गया. चुनाव में जिले का बेटा ,बाहरी भीतरी ,भाजपा के जिले के नेताओं की उपेक्षा का मुद्दा छाया रहा. भाजपा के नाराज नेतागण चुनाव प्रचार से भी अलग दिखे. हालांकि मोदी से प्रभावित वोटरों ने उनके भीतघाती प्लान को असफल कर दिया.

      इसी तरह सीपीआई में बडी संख्या में बाहरी प्रचारक तो आए लेकिन जिले के तपे तपाये और स्थापित पार्टी नेता तथा कार्यकरता पिछले चुनावों के बने अंतरविरोधों से उबर नहीं पाए. कसक तपेतपाये नेता गण को बायपास करने के मामले को लेकर रहा.यूं पार्टी अनुशासन और युवा जोश को देखते उनकी चुप्पी बनी रही. ऐसे नेता पारटी के आधुनिक हाईटेक चुनाव प्रचार से भौंचक भी थे और दबी जबान से आलोचक भी. सीपीआई का 2019 का चुनावी खर्च और प्रचार का ढंग जिले के चुनाव के लिए इतिहास से अलग की वस्तु बनी रही.

     राजद का चुनावी जंग अपने नायक के जेल मे रहने और थके हारे बुझे कार्यकर्ताओं का चुनाव बनकर रह गया. नया नेतृत्व न,ई उर्जा का संचार नहीं करा सका. घिसेपिटे उनके नारे को मोदीब्रांड ने हाईजैक कर पिछडे,अतिपिछडे,दलित जातियों मे अपनी घुसपैठ कर अपने वोट बैंक का दायरा बढाते जीत आसान कर ली.

      चुनाव हो चुके हैं. मत ईवीएम में बंद गर्भगृह में हैं. इससे किनका बच्चा जीवित और किनका मृत निकलता है यह आस लिए सब आकलन में लगे हैं. चुनावी विश्लेषण को जब कोई अपने चश्मे से देखने लगता है तो निष्पक्षता पर शंका स्वभाविक है. चश्मे का दायरा बढाईए . थोडी बात सुनते चलिए.
   कल पूर्व सांसद रामजीवन बाबू से भेंट हुई.  मतदान पर चर्चा के दौरान मैंने उत्सुकतावश पूछा .बेगूसराय से कौन जीतेगा. उन्होंने कहा कौन जीतेगा,यह तो 23 मई को बताया जाएगा, फिलहाल देश के चुनाव मे लोकतंत्र हार गया.और जब लोकतंत्र हार गया तो समाजवाद कैसे आएगा. बिना लोकतंत्र के समाजवाद आ नहीं सकता और बिना समाजवाद के लोकतंत्र टिक नहीं सकता. अच्छे उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अच्छे साधन भी चाहिए, साध्य पूरा करने के लिए साधन की पवित्रता जरूरी है. जब साधन ही अपवित्र हैं तो साध्य का परिणाम कैसा होगा,
        लोकतंत्र को लाने, उसे सुचारू रूप से चलाने तथा मजबूत करने के लिए जनता mass को शिक्षित प्रशिक्षित करना जरूरी है. जनता को शिक्षित करने के लिए लोकतंत्र में दो ही अवसर हैंelection and struggle  चुनाव व जनांदोलन. लेकिन चुनाव के वक्त जनता को शिक्षित करने के बजाय नेता विक्षिप्त कर देते हैं.जाति,धर्म, भाषा, क्षेत्र, संप्रदाय से उतरकर गोत्र तक पर वोट मांगा जाता है. ऐसा इसलिए होता है कि  विचार या सिद्धांत की बात करनेवाले अपने को ही विचार का प्रयाय मान लेते हैं. वे समझते हैँ कि हम नहीं तो जग नहीं. और जिसमें या जब मैं का भाव आ गया तो वहीं से सारी बुराई शुरू हो जाती है.और लोकतंत्र मे ं स्व का कोई स्थान नहीं है. लोकतंत्र की पहली शर्त है स्व का विसर्जन.
     आज यह अंतिम कडी है. बेगूसराय की जनता  ने वोट डाल दिए. निर्णय23 मई को आना है. पिछले आम चुनाव  की तरह  कमल,लालटेन, हंसिया बाली में क्रम बदलता है या फिर  यही रहता है. एक बात और सीपीआई के उम्मीदवार के मत ज्यों ज्यों बढेंगे जीतने और हारने का अंतर भी. ऐसा इसलिए कि वो राजद के वोट बैंक को ही ज्यादा प्रभावित कर रहा है. ऐसा इसलिए कि हम तो डूबे सनम तुझको भी ले डूबे, राजद के नेतृत्व ने महागठबंधन नहीं बनने दिया.एक तरह से आप कह सकते हैं कि जीत की पटकथा तो उसी दिन लिख गया था जब मुकम्मल गठबंधन नहीं हुआ.  जिले में अतिपछडे, व महिलाओं के वोट भाजपा के.खाते में जाने से बेगूसराय का यह चुनाव कई संदेश छोडेगा. चुनावी रिजल्ट का आकलन वोटरों के रुझान पर ही होते हैं.   आप मेरी बात सत्य मत मानिए.लेकिन सत्य हमेशा आकलन का हिस्सा है. रोम के पोप ने जब गैलेलियो  से कहा कि सूर्य पृथ्वी के चारों ओर घूमता है. . तब उसने कहा था यह झूठ है और सच्चाई वही रहेगी. झूठ बोलकर गुमराह करना मेरे लेखन का न हिस्सा रहा है न बनना चाहता हूं.  बेगूसराय जिले पर चुनाव का असर इसका विश्लेषण रिजल्ट बाद.

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