कृष्णानन्द की कविता
तुम क्या समझोगे ?
तुम क्या समझोगे ?
जेठ की दुपरिहा में
पैरों में भू की तपन
तुम क्या समझोगे ?
पैरों में पत्थर की चोट
कांटे की दर्द भरी चुभन
तुम क्या समझोगे ?
आषाढ़ के महीनो में
घर की टूटी छत से
टपकते पानी को
तुम क्या समझोगे ?
भीगी लकड़ियों से धुन्धुआते चूल्हे
धुँआई रोटी का स्वाद
तुम क्या समझोगे ?
माघ के महीने में
फटे चादर से सनसनाती हवा
नीचे से धरती की ठंडक
तुम क्या समझोगे?
दो दिन की भूख में
एक रोटी का स्वाद
तुम क्या समझोगे ?
सूखी मिट्टी में ठनकते फावड़े
हाथ में लगती चोट
और फूटे छाले को
तुम क्या समझोगे ?
मिट्टी से भरे टोकरे का
खोपड़ी पर पड़ते भार
सिर में चिलचिलाती धूप
डगमगाते पैरों में उठे दर्द
तुम क्या समझोगे ?
स्कूल की घंटी बजने पर
पढ़ने को लालायित होने पर
कलम की जगह हथौड़ा पकड़ने पर
ह्रदय और घायल हाथों के दर्द
तुम क्या समझोगे ?
कृष्णानन्द
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