1
बस में बैठी हुई लड़की
मिनट-मिनट पर देखती है घड़ी
खिड़की से बाहर झांकते हुये
पढ़ती है दीवारों और दुकानों
पर लिखे स्थानों के नाम
दुविधा में है कहीं भूल न जाए पता
उतर न जाए गंतव्य से पहले
गाने सुनते हुए भी ध्यान है
बस कंडक्टर की आवाज़ पर
सुंदरता हर बार सौम्य हो, ज़रूरी नहीं
व्याकुलता का आवरण भी
हो सकता है उसकी आँखों पर
कि दूर से आते पहचान ले
पिता को, पति को या फिर प्रेमी को
उसने चाय नहीं पी उतर कर
ना ही सीट पर टूटते बदन को
एक बेसुध अंगड़ाई से तोड़ने की कोशिश की
वह उंगली में रुमाल का कोना घुमाते
देखती रही चढ़ते उतरते यात्रियों को
पर यहां तो कोई नहीं था
लड़की भी कहाँ थी बस में
बस भी तो कल्पना में ही गति कर रही थी
सब कुछ काल्पनिक था उस दृश्य में
एक कविता होने के लिए
2
द्वंद्व
बहुत कुछ बीत चुका है
और जो बीत जाता है उसपर
कविताएँ ही हो सकती हैं
संशोधन नहीं
बीते हुए को अतीत कह देना
अतीत सा प्रतीत नहीं होता
मानों कल, नहीं अभी
आँखों के सामने से गुज़रा हो
मैं अतीत में जाकर
अपनी कविताओं को
संशोधित करने का मार्ग
तलाशना चाहता हूँ
जो मानसिक द्वंद्व
वर्तमान और भविष्य के मध्य
छिड़ा हुआ है
उससे निकलने के लिए मुझे
एक कवि , एक लेखक , एक विचारक की नहीं
एक अक्खड़ अट्ठारह वर्षीय
ढीठ की आवश्यकता है
3
सिक्का
खेल के मैदान में उछाला हुआ सिक्का
ज़मीन पर ही नहीं गिरा
वह गिरा वैश्विक स्तर पर अपने मूल्यों के साथ
एक छोटे से बच्चे की जेब से गिरा
जिसने कुल्फी के लिए
पोलिश किये थे कई जोड़ी जूते
भिखारी के कटोरे से गिरा
जब पुलिस ने मांगा उससे राशनकार्ड
उसके नाम से जुड़ा पिता का नाम
जेब रखी हुई देह के साथ गिरा
खनकते हुए एक
इमारत की निर्माणाधीन छत से
खेत में औंधे गिरा
मुँह से झाग फेंकते हुए
और उग आया परिवार का मुआवजा बन
इतनी ऊपर से गिरते हुए भी
भारत का सिक्का
टॉस जीत चुका था
4
उन दुःखों की स्मृतियां
उनकी पीड़ा से भी
अधिक कष्ट देती हैं
जिन्हें भोगने से पूर्व ही
एक सुलभ मार्ग
ले लिया हमनें
दुःखों के साथ रचा स्वांग
स्वप्न में हमारे लिए पीड़ा का
चक्रव्यूह रचता है
5
सांसों पर अटकी कविता
नहीं जगा सुबह का सूरज
अभी तक तिमिर नहीं छटा गृह से
रोग वियोग का जोग लिए
एक पथिक कहीं को चला जाता है
मनःस्थिति से ऊब चुका मन
इतना कि स्वयम् को देखे अरसा हुआ एक
कानों में आती कर्कश ध्वनियां
भेदने लगी हैं हृदयद्वार
कोई भीतर ही भीतर छलने लगा है
हृदय की गतियां
उसके नेत्रों ने देखा है
गिरते हुये जीवन को
बिजली के तारों से टकरा कर
पंख फड़फड़ाते हुए , फिर मौन !
उसकी सांसे उतनी ही बची हैं
जितने सिक्के आ जाते हैं एक अबोध की
हथेलियों में खनखनाते हुए
कुछ गिरते कुछ संभलते
इन सबसे इतर वह पथिक
गिन रहा है अपने पदचिह्नों को
एक सौ एक, एक सौ दो , दो सौ
यही वह गिनती है जो उसे स्मरण रहने को है
अंततः ख़त्म हो जाते हैं
उस अबोध के हाथ में खनखनाते सिक्के
6
मुरब्बा
माँ हमेशा डपट देती है
शीशे के जार से जब भी
मुरब्बे निकालता हूँ
मुझे मुरब्बे नहीं पसन्द
माँ की डांट पसन्द है
मैं बस उसकी डांट सहेजना
चाहता हूं स्मृतियों में
मैं उन स्मृतियों के टीले पर बैठ
मुरब्बे खाना चाहता हूं
एक , दो , तीन
हर बार नयी डांट के साथ
7
मूल्य
मेरा कवि सौम्य और सहज है
वह जानता है अपनी हाँ का मूल्य
उसके शब्द बोझिल ऊंट की पीठ नहीं
दौड़ते हुए घोड़े की नाल हैं
मैं उसे कविता पाठ करते हुए नहीं देखता
ना ही देखता हूँ किसी मंच के अधीन
अपनी ही कविता को हास्यास्पद विषय बनाते
मैं उसे माँ के गर्भ में लात मारते हुए
उस अजन्में शिशु की तरह देखता हूँ
जिसकी पीड़ा में भी अपार सुख निहित है
वह अज्ञात शब्दों के मध्य परिलक्षित होता है
उसे तालियों की गूंज , स्मृति चिह्नों की नहीं
उसे आवश्यकता है कमरे के कोने में पड़े
दो मिनट के एकांतवास की
वह भी कहाँ मिल पाता है उसे
घड़ी की सुइयां भी अब
उसकी काव्य कल्पना के अधीन हो चली हैं
मैंने कई दफ़े उसे चाय के लिए पूछा
वह बताने लगा मुझे चाय की खेती में
आने वाली अनेकों मुश्किलात के बारे में
वह बताने लगा गन्ना किसानों की आत्महत्यायें
हमारे एक कप चाय की कीमत भर है
मैं उसे पढ़ते हुए अनुभव कर लेता हूँ
कि समाज में सामाजिकता का
मेरा स्वयम् का क्या स्तर है
वह मुझसे पहले नहीं मरेगा
ना ही उसका रचा काव्य
वह उस दिन के उस क्षण तक जीवित रहेगा
जब किसी की मृत्यु , किसी का शोक
हमारी एक कप चाय की कीमत भर ना रह जाये
8
मैं समाज
खिड़की बंद कर दो !
अब रोशनी से अधिक
अनायास के तर्क-वितर्क
दंगे में चलाए गए पत्थर
किसी मृत पशु की बू
ईर्ष्या, घृणा, द्वेष
आते हैं कमरे के भीतर
कि बिटिया अब बड़ी हो चुकी है
वह समझती है
ना , हां और बस !
बिना मतलब की पहेलियां
बुझाना बंद कर दो
वह परिपक्वता को माप लेगी
घर के देहरी की लंबाई और ऊंचाई से
हृदय अब प्रेम नहीं चाहता
वह प्रेम प्रपंच से इतर
धड़कने की लिप्सा लिए है
उसे मौसम नहीं लुभातें
वह निरंकुश नहीं
विमुख हो चला है
समाज पर चढ़े हुए
चांदी के कलेवर से
किसी की मृत्यु इसलिए
कम मृत्यु है कि वह
कमरे में बैठे-बैठे मर गया
तो किसी का शोक सुनाई देता है
गली, कूचे से लेकर व्यस्त सड़कों पर
उसे बीच चौराहे पर गोली मारी थी किसी ने
हक्सले ने कहा था -
"शायद यह दुनिया किसी और ग्रह का नर्क है"
हम यह बात सिद्ध कर रहे हैं
हम किसी दंड से पूर्व
अपनी मानसकिता से मारे जा चुके
समाज का हिस्सा हैं
9
काव्य प्रेत
तुम नहीं बंद कर सकते
किसी की आँखें
इसलिए कि
उसकी दृष्टि का सूर्य
तुम्हारी दृष्टि के सूर्य से
अधिक प्रकाशवान है
तुम नहीं काट सकते
किसी के हाथ इस आवेश में कि
उसने चुना मूर्तियां बनाना
और तुमने छेनी और हथौड़ा
तुम्हारी अज्ञानता
तुम्हें सदैव अनभिज्ञ रखेगी
इस बात से कि तुम्हारी कला
उसकी कला की पूरक है
जैसा कि मुक्तिबोध ने कहा था
"मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ
तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है
कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है "
तुम मेरे विष को बस इसलिए
ग़लत नहीं ठहरा सकते
कि तुम्हरा गला
तुम्हारे निर्मित अमृत से सराबोर है
सर्पदंश से भी होते आये हैं
मरीज़ों के इलाज
और हकीमों और वैद्यों ने भी
निगली हैं कई ज़िंदगियाँ
मेरा हृदय तुम्हारे हृदय से
अधिक विशाल और शांत है
वह समाहित कर लेता है
अनायास की आलोचनाएं
उसे नहीं आया बंदूक की गोली बन
रोक देना किसी की हृदयगति
इस समाज में वह अज्ञानी ही रहा
किन्तु जीवित
छटपटाती तितली का छटपटाना
इतना सूक्ष्म है
कि नज़रअंदाज़ किया जा सकता है
वहीं पूर्ण होती है ख़्वाहिश महज़
एक बरौनी के टूटने भर से
काश वह बरौनी बचा लेती
एक छटपटाती हुई तितली को
छटपटाने से
या उठा ले जाता कोई प्रेत उसे
इस मृत हो चुके समाज से
मेरा कवि मृत हो चली
कविताओं से
निकलता हुआ प्रेत है
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अभिशप्त मैं
कितना कुछ याद रखना पड़ता है तुम्हें
गैस पर उबलता दूध
जब तुम्हारे लड़कपन सा
छलक जाता है चूल्हे के आस-पास
कुकर में पक रही दाल की
तीन सीटी और चौथी सीटी के
मध्य बचे अंतराल में ही
ढूंढ कर देना पड़ता होगा पिता का चश्मा
भींगे बाल में तौलिया लपेटे
छत पर जाना और
अरगनी पर टँगा हुआ दुपट्टा ले लेना
वह भी रात्रि से व्याकुल रहा तुम्हारे स्पर्श को
माँ सरीखी ही लगती हो तुम
तुम्हारा प्रेम भी तो थोड़ा-थोड़ा वैसा ही है
कभी-कभी दूर की बुआ की भांति
चिढ़ जाती हो छोटी सी बात पर
सूर्य को तुम्हारे हाथ से दिया अर्ध्य
आमंत्रित कर देगा मेघों की श्रृंखला
जो अनवरत तुम्हारे यौवन से
लिपटे रहेंगे आषाढ़ मास की बरखा बन
मैं एक कवि की अभिशप्त प्रतिमा हूँ
उसके मृत हो चुके
रस, छंद, अलंकार
तुम्हारे स्पर्श से ही मुक्त होंगे
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चिट्ठियां
कभी-कभी सोचता हूँ ये सारे दूरसंचार के साधन नष्ट हो जाने चाहिए । फोन, कंप्यूटर, रेडियो सब कुछ ।
हम-तुम एक दूसरे के हृदय तक का सफ़र चिट्ठियों के माध्यम से करतें ।
चिट्ठियों वाला प्रेम बंद बक्से को खोलने का एक बहाना दे देता है । दूसरे शहर की ख़ुश-बू लिपटी रहती है उसमें ।आम की महक , अमलतास की, गुलमोहर की, कनेर की,
उसके हाथों में लिपटे हुए मसालों की ।
चिट्ठियों वाला प्रेम उत्साहित नहीं होता । वह एकांत खोजता है। वह नहीं होने देतीं हमारी निजता का हनन।
इतना कि सखियाँ तक एक अज्ञात व्याकुलता के संग लौट जाती हैं अपने घर को।
जहां तकनीकी युग में कुछ मृत होते ही, भुला दिया जाता है । वहीं चिट्ठियों पर शेष रह जाते हैं कलम की स्याही के साथ गिरे हुए आंसुओ के निशान और रुदन की एक-दो ध्वनियां ।
काश हम आज से सौ साल पहले मिले होतें। काश हमारा प्रेम चिट्ठियों के द्वारा नवजात से परिपक्वता की सीढ़ी चढ़ता।
हमारे भी ख़त हमारे बाद पढ़े जाने थे। जैसे पढ़े गयें बीथोवन, रूजवेल्ट, काफ़्का और सुभाष चंद्र बोस के ख़त।
लेकिन ऐसा कहाँ ही संभव था, हमें तो बिजली के तार और गगनचुम्बी टावरों के मध्य स्थापित करना था प्रेम। जिसमें न जाने कितने पँछी धरती की गर्भ में समा गयें।
हो न हो उनकी हत्यायें हमारे सिर ही आनी हैं।
मैं तुमसे गुस्सा होता तब भी तुम्हारे ख़त नहीं जलाता । ख़त जलाना एक क्रूरता भरा कृत्य है। तुम्हारे ख़त जलाना तुम्हारी देह जलाने के समान होता ।
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सूरज सरस्वती