Wednesday, 31 July 2019

ख़ुद के आधे-अधूरे नोट्स : व्योमेश शुक्ल

ख़ुद के आधे-अधूरे नोट्स : व्योमेश शुक्ल

है अमानिशा उगलता गगन घन अंधकार
खो रहा दिशा का ज्ञान स्तब्ध है पवन चार
(निराला, ‘राम की शक्तिपूजा’)

ऐसे क्षण अंधकार घन में जैसे विद्युत
जागी पृथ्वी तनया कुमारिका छवि अच्युत
(निराला, ‘राम की शक्तिपूजा’)

एक

स्मृति निराशा का कर्तव्य है. लेकिन इस बीच वर्तमान को इतना प्रबल, अपराजेय और शाश्वत मान लिया गया है कि कोई भी हार मानने को तैयार नहीं है और जब तक आप हार नहीं मानेंगे, स्मृति का काम शुरू नहीं होगा. यों, आजकल, स्मृति क्षीण है और चाहे-अनचाहे हमलोग उसका पटाक्षेप कर देने पर आमादा हैं.

दो

इस धारणा को साक्ष्यों से सिद्ध किया जा सकता है. मिसाल के लिए फ़ेसबुक प्रायः रोज़ हमें याद दिलाता रहता है कि आज – इसी तारीख़ से – ठीक एक-दो-तीन-चार या पाँच साल पहले हमने यहाँ क्या कहा-सुना था, कहाँ गए थे या कौन सी तस्वीर शाया की थी. उस परिघटना को वह स्मृति की तरह पेश करता है और हमें, एक बार फिर, उसे अपने लोगों के साथ साझा करने का अवसर देता है. हममें से ज्यदातर लोग कई बार उस बिलकुल क़रीब के अतीत को स्मृति की तरह स्वीकार करते हैं और ‘वे दिन’ वाले अंदाज़ में शेयर करते हैं. हमारे मित्रों की लाइक्स और आशंसा भरी प्रतिक्रियाओं से यह निर्धारित भी होता जाता है कि वह जो कुछ भी है, स्मृति ही है.

तीन

स्मृति की उम्र इतनी कम नहीं हुआ करती. वह बहुत मज़बूत धातु है. मनुष्य नामक शक्तिशाली चीज़ जब इस धातु से टकराती है तो उससे निकलने वाली आवाज़ शताब्दियों के आरपार लहराती हुई जाती है. मुक्तिबोध के शब्दों में : ‘इतिहास की पलक एकबार उठती और गिरती है कि सौ साल बीत जाते हैं.

चार

एक ओर इतिहास-बोध का नुक़सान और दूसरी तरफ़ वर्तमान के ही हीनतर और सद्यःव्यतीत संस्करण को स्मृति मान लेने का भोथरा परसेप्शन – क्या ये दो असंबद्ध बातें हैं ? जो लोग इतिहास और स्मृति को ध्रुवांतों पर रखकर सोचने के अभ्यस्त हैं, उन्हें इस सचाई को भी सोचना होगा. आख़िर यथार्थ का अनुभव क्या है ? वह या तो स्मृति है या कल्पना. यानी स्मृति का अवमूल्यन यथार्थ का निरादर है.

लमही पर कुछ नोट्स : व्योमेश शुक्ल

लमही पर कुछ नोट्स : व्योमेश शुक्ल

लमही वतन है

एक

लमही वतन है। दूसरी जगहें गाँव घर मुहल्ला गली शहर या जन्मस्थल होती हैं, लमही वतन हो जाती है और लेखक को अपने वतन लौटते रहना चाहिये। लेखक को दूसरे लेखकों के वतन भी लौटना चाहिए। जाँच-परख या टीका-टिप्पणी करने नहीं, रहने के लिए। जितनी देर तक वहाँ ठहरिये, रह जाइये। वतन जाकर रहने से कम कोई काम क्या करना ?

दो

लेकिन किसी लेखक के पैदा होने या रहने लगने से कोई जगह वतन नहीं हो जाती। चतुर्दिक फैले हुए कर्म और मानवीय सम्बन्ध उसे वतन बनाते हैं। माला में मोती पिरोने, अनवरत खाँसने और किसी कम ज़रूरी काम में लगे रहने से, आधी रात में जागकर ट्यूबवेल चलाने और ग्राम प्रधान के देर रात तक सुरा और संभोग में व्यस्त रहने जैसी अनन्त वजहों से कोई जगह वतन बन जाती है। ऐसी ही वजहों से कोई गाँव लेखक का गाँव बन जाता है, कोई जगह वतन बन आती है और प्राइमरी स्कूल का एक मुदर्रिस उपन्यास-सम्राट बन जाता है।

तीन

जबकि हमारे यहाँ वजहों को भूलकर या कुछ नकली किताबी वजहें खोजकर लोगों को और चीज़ों को समझने-समझाने की कोशिश की जाती है। ये कोशिशें दूर से गुज़र जाती हैं और असर पैदा नहीं कर पातीं। कई बार ये वस्तुस्थिति को बीमार बनाने का काम करती हैं। ये नई समस्याएँ पैदा कर देती हैं। लमही उदाहरण है। यहाँ मुंशी प्रेमचन्द के अमरत्व को उनके रोज़मर्रा मरण से अलग कर दिया गया है। कुछ सरकारी और अकादमिक क़िस्म के विभाग बन गये हैं जहाँ एक विभाग में प्रेमचंद सुबह पैदा होकर शाम को मर जाते हैं और पड़ोस के विभाग में वह 1936 से आज तक एक नुमाइशी ज़िन्दगी जी रहे हैं। लमही में प्रेमचन्द के जन्म, जीवनयापन और महानता को वहाँ के लोगों के जीवन-संघर्ष से अलग किसी संसार की तरह बसाने के प्रयत्न अब तक होते आये हैं और राजनीतिक पैंतरेबाज़ी ने रचनाकार को स्थानीय आत्मसम्मान का मुद्दा नहीं बनने दिया है। यह बात हमेशा कही जानी चाहिए कि किसी स्थान के साथ लेखक के संबंधों की पद्धतियाँ तय करना सत्ताओं के बस की बात नहीं है। ये संबंध वृहत्तर जनता की कोख़ से निकलते हैं और वहीं से नियमित होते हैं। इसलिए, आदर्श स्थिति तो यही है कि कोई कमबख्त, लेखक और जनता के बीच में न आए।

चार

अब तक की बातों से साफ़ हो गया होगा कि सत्ता के विभिन्न संस्करणों में लमही का ‘उद्धार’ कर डालने की कितनी होड़ रही है। बीते साठ सालों से लगातार चलती इस प्रतियोगिता में भाग लेने वाली चार प्रमुख टीमें इस प्रकार हैं – १. केन्द्र सरकार, २. राज्य सरकार, ३. नागरी प्रचारिणी सभा और ४. प्रगतिशील लेखक संघ। इन टीमों ने वहाँ प्रतियोगिता के सभी क़ायदों का जुलूस निकाल दिया है और श्रेय लेने की जगहें लगातार ढूँढती रही हैं। प्रेमचन्द के वंशजों ने पैतृक सम्पत्ति सरकार को दान देकर ख़ुद को दौड़ से बाहर कर लिया है। वे कभी-कभार अतिथि की तरह वहाँ पधारते हैं और उनमें से आलोक राय और सारा राय जैसी छवियाँ गाँव के धूलपसीनामग्न माहौल में ख़ासी सिनेमाई लगती हैं। नागरी प्रचारिणी सभा का संगठन जर्जर और मृतप्राय होकर किनारे लग गया है और सिर्फ़ 31 जुलाई को होने वाले वार्षिक कर्मकांड में हिस्सा लेने योग्य बचा है। उसने प्रेमचन्द के मक़ान के ठीक सामने अपने छोटे से किन्तु ऐतिहासिक महत्व के ‘कंपाउंड’ को ज़िले के प्रशासन को दान में दे दिया। यह छोटी सुंदर संपदा ‘सभा’ को अरसा पहले प्रेमचन्द के परिवार द्वारा ही दान में मिली थी। दान में मिली वस्तु को दान कर डालने की यह अद्भुत घटना, ऐसा लगता है, कि बनारस की ही किसी संस्था द्वारा अंजाम दी जा सकती थी जहाँ शायद दान के कोई पारलौकिक आशय नहीं बचे हैं। बहरहाल, इसी परिसर में पहले राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने मुंशी प्रेमचंद स्मारक का शिलान्यास किया था और शिलान्यास का शिलापट्ट यहाँ से गायब है। स्थानीय मीडिया के लिए यह बात लमही के दुर्भाग्य की स्थायी ख़बर है। बनारस रहकर जवान होते हुए इस बात को प्रतिवर्ष कम से कम दो बार अखबारों में पढ़कर मनहूस हुआ जा सकता है। उसी परिसर में लगी प्रेमचन्द की पत्थर की मूर्ति की आँखें या तो टूट-फूट गई हैं या गाँव के शरारती बच्चों ने निकाल ली हैं। यह दृश्य न्यूज़ चैनल्स के काम का है। दृश्य की विकृति देखने-दिखाने वालों के लिए है। चार साल पहले 31 जुलाई के आसपास लमही में घूमते हुए इन पंक्तियों के लेखक ने देखा कि ‘स्टार न्यूज’ के उत्साही फोटोग्राफर दौड़-दौड़कर गाँव के भीतर से कपड़े धोते बच्चों को मूर्त्ति के करीब ला रहे हैं और उनसे वहीं बैठाकर कपड़ा धुलवा रहे हैं।.कमाल का दृश्य था। बग़ैर साफ़ पानी के, सिर्फ़ साबुन के झाग से कपड़ा धुल रहा था क्योंकि बच्चे पानी की बाल्टी लेकर नहीं आए थे। वाशिंग पाउडर निर्माता कंपनियों को तत्काल स्टार न्यूज से सम्पर्क करना चाहिए।

पाँच

फ़िलहाल सरकार की सरपरस्ती में यह छोटा-सा परिसर पहले से अच्छी हालत में है। दीवारों से लगी व्यवस्थित हरियाली और प्रेमचन्द की कहानियों, जीवन-प्रसंगों और दूसरे रचनाकारों के प्रसिद्ध वाक्यों पर आधारित पोस्टर्स हमें भटका देते हैं। हमारा ध्यान बदनसीबी से हट जाता है। इस परिसर का रखरखाव निहायत स्वयंभू तरीके से प्रेमचंद-साहित्य के एक स्थानीय मुरीद  ‘दूबे जी’ कर रहे हैं। वे पड़ोस के गाँव से साइकिल चलाकर रोज़ सुबह-शाम लमही आते हैं, पेड़-पौधों की सेवा करते हैं, प्रतिमा और चबूतरे को पानी से धोते हैं। परिसर में स्थित दो कमरों और लम्बे बरामदे को उन्होंने प्रेमचन्द की किताबों, प्रेमचन्द के बारे में लिखी गई किताबों, डाक टिकटों और प्रेमचंद के कथासाहित्य की नुमाइंदगी करने वाली अमर वस्तुओं – चिमटा, चरखा, हुक्का, गिल्ली-डंडा आदि से सजा दिया है। उन्होंने बताया कि ये पुस्तकें आस-पास के गाँवों के बच्चों और अन्य लोगों को पढ़ने के लिए दी जाती हैं । इन्हीं में से एक कमरे में उन्होंने अपना एक दफ्तर जमा लिया है और वहाँ कुर्सी-मेज पर बैठकर वह कुछ और आत्मविश्वास के साथ प्रेमचंद के बारे में पिटी-पिटायी बातें करते हैं, हालांकि उनकी इस निःस्वार्थ और गैरकानूनी कोशिश में सेवा और कर्त्तव्य के असली तत्वों की झलक है। उनसे मिलकर ऐसा लगता है कि एक दिन नागरिक किसी न किसी तरीके से सरकार को पीछे करके सुधार के काम अपने हाथ में ले लेगा – अपनी सारी सीमाओं और सरकार की सारी शक्तियों के बावजूद। ऐसे व्यक्ति लमही, गढ़ाकोला और अगोना (बस्ती) जैसी जगहों में पहली-पहली बार दिखना शुरू हुए हैं। यह सुखद अभिनव विकास है। तंग आकर जनता कुछ ऐसे ही हिस्सेदारी करने लगती है।

छह

प्रेमचन्द के पुश्तैनी मकान को राज्य सरकार ने पर्याप्त पैसा खर्च करके नया बना दिया है; उसके मूल रूप को यथावत रखने की विफल और सतही कोशिश भी इस निर्णय में हुई है। लेकिन इतना तय है कि दुर्दशा पर सालाना आँसू बहाने वाले लोग अचानक बेरोजगार हो गये हैं, कि अब किस बात पर अफसोस किया जाय। बड़े मकान की सुरक्षा और रखरखाव का स्थाई इन्तजाम नहीं है और स्वयंसेवी ग्रामवासी सोत्साह ‘गाइड’ की भूमिका निभाने लगते हैं। खिड़कियों से धूल और उजाला लगातार भीतर आता रहता है। दरवाजे भी हमेशा हर किसी के लिए खुले हैं। मधुमक्खी के बड़े-बड़े छत्ते हैं और सफेद दीवारों पर आशिकों और दिलजलों ने अपने नाम और मोबाइल नम्बर खून के रंग में लिख डाले हैं। पूरे मकान में बिजली की वायरिंग की गई है लेकिन बल्ब और पंखों वगैरह का कहीं पता नहीं है।

सात

गाँव में – हालाँकि लमही को गाँव मानना मुश्किल है; वह बनारस का एक बिगड़ा हुआ मुहल्ला .ज्यादा लगता है – मुख्य रूप से तीन जातियाँ हैं – गोड़, कुनबी और कायस्थ। प्रायः सभी कायस्थ खुद को प्रेमचन्द का दूर या नजदीक का रिश्तेदार बताते हैं। समृद्धि और भोग के मामलों में पटेल (कुनबी) समुदाय के लोगों ने सबको पीछे छोड़ दिया है। वे दरअसल प्रदेश की सबसे ताकतवर जातियों में से एक हैं। प्रेमचन्द के मकान के ठीक बाहर एक शिव मंदिर है। उसके निर्माण की दास्तान तथाकथित रूप से 150 साल और वास्तव में 5 साल में फैली हुई है। लगभग 5 साल पहले 31 जुलाई के आसपास वहाँ एक शिवलिंग खुले में रखा हुआ था। एक साल बाद वहाँ पहुँचने पर इन पंक्तियों के लेखक ने देखा कि वहां दरो-दीवार का इंतजाम हो गया था। दीवार पर मोटे-मोटे हर्फों में लिखा हुआ था  – ‘ 150 साल पुराना मंदिर – प्रेमचंदेश्वर महादेव।’ एक शराबी ने झूमते हुए बताया कि यह महान मंदिर मुंशी प्रेमचन्द द्वारा स्थापित है। हमने शराबी से नाम पूछा तो उसने कहा कि ‘प्रेमचंद’। हालाँकि इस बीच वहाँ जाने पर देखा गया है कि ‘प्रेमचंदेश्वर महादेव’ के ऊपर पुताई करा दी गयी है और लिख दिया गया है – ‘बाबा भोलेनाथ मंदिर, लमही’,  और कम से कम दर्जन भर शिवलिंग और स्थापित कर दिये गये हैं।

आठ

प्रेमचंद और शिवरानी देवी के प्रकाशन-समूहों में काम कर चुके कुल दो बुजुर्ग अभी जीवित हैं। दोनों सज्जन मृत्युशय्या पर हैं। पत्रिका आदि के लोकार्पण के लिए ये दो लोग उपयुक्त सर्वहारा मुख्य अतिथि और अध्यक्ष रहे हैं। हालाँकि दोनों को काफी ऊँचा सुनाई देता है और याद रखने लायक सभी बाते ये बहुत पहले भूल चुके हैं। उनके चेहरों और जीर्ण जीवन को कोशिश करके बिकाऊ बनाया गया है. लेकिन खरीदने वाली ताक़तें आशंकाओं से ज़्यादा चंचल और कंजूस साबित हुई हैं.

नौ

लेकिन अंदरूनी तब्दीलियाँ बेसंभाल ढंग से घटित हो रही हैं. समझदार लोग अंदाज़ा नहीं लगा पा रहे हैं या उलझना नहीं चाहते, इसलिए सूत्र कम से कम उपलब्ध हैं. दरअसल नेतृत्व बदल गया है. इसे ३१ जुलाई को शिद्दत से महसूस किया जा सकता है, लेकिन शायद उस दिन लोग उत्सव में गाफ़िल रहते होंगे. आयोजन की सूची बड़े ज़ोरदार ढंग से घोर साहित्येतर लोगों के हाथ में जा रही हैं, बल्कि चली गई हैं, ये लोग राजनीति या समाज के दूसरे मंचों के उजले लोग नहीं, दिलजले हैं – चिढ़े हुए, शोर्ट टेम्पर्ड और अत्यन्त निराशावादी. लेकिन यह तय है कि ये अपना, प्रेमचंद और लमही का सबसे बड़ा दुश्मन वहाँ आकर भाषण देने वालों को मानते हैं. बीती ३१ जुलाई को इन्होने पर्याप्त सांस्कृतिक उपद्रव किया. वहाँ इस बार प्रगतिशील परंपरा के घुटे हुए भाषणबाज़  वहाँ किनारे कर दिए गए थे और उत्तर भारत के बड़े बिरहा गायक मंच की शोभा बढ़ा रहे थे. दसियों हज़ार लोगों की भीड़ के सामने शहरी साहित्यकारों की हवा गुम होने को थी. बग़ल के एक विद्यालय में भंडारा चल रहा था, यहाँ अज्ञात लोग इंतज़ाम में लगे हुए थे और लेखकनुमा लोगों को आदर सहित बुलाकर बाटी-चोखा खिला रहे थे. मेरे ख़याल से यह निरादर की हद है और अकर्मण्यता का सच्चा पारिश्रमिक. अब लेखक मेहमान हैं या दामाद हैं व्यापक समाज के.

दस

बनारस की ख़ास अपनी दिक्क़तें अलग भूमिकाएं निभाती रहती हैं. विराट अतीत प्रायः विपत्ति है. अकेले प्रेमचंद ही शोभा नहीं हैं, प्रसाद हैं, भारतेंदु हैं, और पीछे जाइए तो कबीर, तुलसी, रैदास, रामानंद. नागरी प्रचारिणी, शुक्ल और द्विवेदी; हिंदी विभागों की अपनी ऐतिहासिकता को छोड़कर भागना आसान नहीं है. आधुनिक काल के अपने संकट हैं. सबके प्रति आभारी होना, या दिखना हिंदी वाले का कर्तव्य है. धूमिल , त्रिलोचन, गिन्सबर्ग, शिवप्रसाद सिंह – सबके अपने-अपने प्रकोष्ठ हैं. पार पाना आसान नहीं, गंगा एक आग का दरिया है और उसमें सिर्फ़ डूबके नहीं, मर के जाना है, तभी मुक्ति है. इसलिए अभिनवता के मोर्चे कभी खुल ही नहीं पाते और रचनाकार स्वप्न देखता रह जाता है.
मसलन कवि अपनी कविता में लिखता है:
छोटे से आँगन में माँ ने लगाए हैं तुलसी के बिरवे दो
पिता ने उगाया है बरगद छतनार
मैं अपना नन्हा गुलाब कहाँ रोप दूं? (केदारनाथ सिंह)

ग्यारह

कभी-कभी लगता है, हम काम के भीतर से राह निकालना भूल गए हैं. हम विचारमग्न या चिंतित होना चाहते लोग हो गए और हमें पता ही नहीं चला. यह हार थी. कुछ संकल्प होते ही ऐसे हैं कि उन्हें बैठकर दिमागी ताक़त से साधा नहीं जा सकता. लेकिन कौन याद दिलाये किसे? ऐसे मुद्दों पर हमारा शरीर सोचता है, वह आवाहन करता है दिमाग़ का, तब तानाशाही चलना बंद होती है, लेकिन ऐसा कभी-कभी होता है.

बारह

प्रेमचंद की कहानी सिर्फ़ गाँव की कहानी नहीं है, वह शहर में भी फ़ैली हुई है, उनसे जुडी हुई चीज़ों और जगहों को सँभालने और पहचानने का काम शर्म और आलस्य से भर गया है. उनकी ग़रीबी को मिथक के वज़न पर प्रचारित किया गया, जबकि यह अकाट्य है कि एकाध मौक़ों को छोड़कर प्रेमचंद ज़िन्दगी में कभी विपन्न नहीं रहे. पता नहीं इस झूठ से किसी को क्या फ़ायदा हुआ होगा, लेकिन यह चेतना के बालीवुड़ीकरण का प्राचीन प्रमाण है. ऐसे लोग अभी जीवित और सक्रिय हैं मसलन जिनके मक़ान में रहकर प्रेमचंद ने निर्मला की रचना की थी, उनका वह कमरा अभी भी वैसा ही है. उन्होंने अपने पिता के हवाले से लगभग शर्माते हुए बताया कि मुंशी जी समय से किराया नहीं देते थे और इस मुद्दे पर झक-झक होती रहती थी. बनारस में जिस जगह उनका निधन हुआ वहाँ एक शिलापट्ट तक नहीं है.

Tuesday, 9 July 2019

मंगलेश डबराल की कविताएं

कुछ देर के लिए

कुछ देर के लिए मैं कवि था
फटी-पुरानी कविताओं की मरम्मत करता हुआ
सोचता हुआ कविता की जरूरत किसे है
कुछ देर पिता था
अपने बच्चों के लिए
ज्यादा सरल शब्दों की खोज करता हुआ
कभी अपने पिता की नकल था
कभी सिर्फ अपने पुरखों की परछाईं
कुछ देर नौकर था सतर्क सहमा हुआ
बची रहे रोजी-रोटी कहता हुआ

कुछ देर मैंने अन्याय का विरोध किया
फिर उसे सहने की ताकत जुटाता रहा
मैंने सोचा मैं इन शब्दों को नहीं लिखूँगा
जिनमें मेरी आत्मा नहीं है जो आतताइयों के हैं
और जिनसे खून जैसा टपकता है
कुछ देर मैं एक छोटे से गड्ढे में गिरा रहा
यही मेरा मानवीय पतन था

मैंने देखा मैं बचा हुआ हूँ और साँस
ले रहा हूँ और मैं क्रूरता नहीं करता
बल्कि जो निर्भय होकर क्रूरता किए जाते हैं
उनके विरुद्ध मेरी घृणा बची हुई है यह काफी है

बचे-खुचे समय के बारे में मेरा खयाल था
मनुष्य को छह या सात घंटे सोना चाहिए
सुबह मैं जागा तो यह
एक जानी पहचानी भयानक दुनिया में
फिर से जन्म लेना था
यह सोचा मैंने कुछ देर तक।

1992 
-मंगलेश डबराल (हम जो देखते हैं)

2

परिभाषा की कविता

परिभाषा का अर्थ है चीज़ों के अनावश्यक विस्तार में न जाकर उन्हें
एक या दो पंक्तियों में सीमित कर देना. परिभाषाओं के कारण ही
यह संभव हुआ कि हम हाथी जैसे जानवर या ग़रीबी जैसी बड़ी घटना
को दिमाग़ के छोटे-छोटे ख़ानों में हूबहू रख सकते हैं. स्कूली बच्चे
इसी कारण दुनिया के समुद्रों को पहचानते हैं और रसायनिक यौगिकों
के लंबे-लंबे नाम पूछने पर तुरंत बता देते हैं.

परिभाषाओं की एक विशेषता यह है कि वे परिभाषित की जाने वाली
चीज़ों से पहले ही बन गयी थीं. अत्याचार से पहले अत्याचार की
परिभाषा आयी. भूख से पहले भूख की परिभाषा जन्म ले चुकी थी.
कुछ लोगॊं ने जब भीख देने के बारे में तय किया तो उसके बाद
भिखारी प्रकट हुए.

परिभाषाएँ एक विकल्प की तरह हमारे पास रहती हैं और जीवन को
आसान बनाती चलती हैं. मसलन मनुष्य या बादल की परिभाषाएँ
याद हों तो मनुष्य को देखने की बहुत ज़रूरत नहीं रहती और आसमान
की ओर आँख उठाये बिना काम चल जाता है. संकट और पतन की
परिभाषाएँ भी इसीलिए बनायी गयीं.

जब हम किसी विपत्ति का वर्णन करते हैं या यह बतलाना चाहते हैं
कि चीज़ें किस हालत में हैं तो कहा जाता है कि शब्दों का अपव्यय
है. एक आदमी छड़ी से मेज़ बजाकर कहता है : बंद करो यह पुराण
बताओ परिभाषा.

रचनाकाल : 1990    (हम जो देखते हैं)
-मंगलेश डबराल

समीक्षा - रति-राग और यौन नैतिक विवेक की कविताएँ 'चौंसठ सूत्र सोलह: अभिमान'

रति-राग और यौन नैतिक विवेक की कविताएँ
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चर्चित युवा कवि अविनाश मिश्र का दूसरा कविता-संग्रह 'चौंसठ सूत्र:सोलह अभिमान' शीर्षक से राजकमल प्रकाशन से आया है।बक़ौल कवि ये कविताएँ उसके जीवन में प्रेम व 'कामसूत्र' दोनों के आगमन की साक्षी हैं।कवि की खूबी यहाँ दैहिक आत्म की अपनी खोज में रति-सुख के सार्वजनिक स्पेस का दृष्टा बनने में है।इन कविताओं को पढ़ते हुए मुझे वर्षों पहले लिखीं अपनी ही पंक्तियाँ याद आईं:'अगली बार युवा कवियों के संकोच कम हों/वे लिखें प्रेम के बारे में कविताएँ/अलगनी पर सूखने डाल दिए जाएँ/कुछ नए रूमाल/कुछ पुराने चुम्बन'।हिंदी में लंबे समय
तक सामाजिक संघर्षों की विकट वरीयता के चलते प्रेम को एक कमतर शै माना गया- अशोक वाजपेयी की कविताओं से किया गया सलूक इस तथ्य की पुष्टि करता है।
दरअसल मध्यकालीन दुराग्रहों ने भारत के लोगों को यौन संकोची और यौनजीवन-व्यवहार में छद्म बनाया।अन्यथा वेद के ऋषि को तो अनन्य साधक भी प्रेमिका की ओर जाते जार-सा दिखाई देता था, उपनिषदकार को ऊब-डूब आध्यात्मिक स्थिति के लिए प्रिया का आलिंगन याद आता था।इसीलिए वैदिक मनीषा ने इंद्रियों के छबीलेपन और वासना के उन्माद को लेकर अद्भुत सृजन किया है ताकि जीवन को कुछ और सजीला कुछ और  रसीला बनाया जा सके।
भारतीय इतिहास में लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व महर्षि वात्स्यायन रचित 'कामशास्त्र' विश्व की पहली 'यौन-संहिता' है।इसके 7 अधिकरणों,36 अध्यायों एवं 64 प्रकरणों में प्रेम के मनोशारीरिक सिंद्धान्तों एवं प्रयोगों की विस्तृत पड़ताल करते हुए वात्सायन ने व्यक्ति के दाम्पत्य जीवन को सुखी बनाने, यौन जीवन में उसे संतुष्ट रहने के कारगर नुस्खे सुझाये हैं।कवि अविनाश इस संग्रह में उस विषय सरणी के पारम्परिक सूत्रों का निर्वाह करते हुए भी यहाँ जिस तरह प्रेम की निजता का सन्धान करते हैं वह काबिले-तारीफ़ है।
पहली ही कविता 'मंगलाचरण'में वे कहते है-'मेरे प्रार्थनाक्षर/तुम्हारे नाम के वर्ण-विन्यास को चूमते हैं आलिंगन,चुम्बन,नखक्षत,दंतक्षत,सीत्कृत जैसी रति-क्रियाओं में गहरे पैंठते हुए वे प्रणययुद्ध में रात्रि से उत्तेजना और सूर्योदय से बल की याचना करते हैं।यौन सुख में यहाँ जिह्वां युद्ध में 'अधरों के आघात' हैं,'वक्षरेखा' में डूबती दृष्टि है,रजतरश्मियों
से 'अभिसार' हैं,उरोजों व उरुओं के 'स्मारणीयक' हैं,'नहीं भरती प्यास' और तनुता में 'नाभि में भरता जल' है,नाखूनों से स्तनों पर बनते 'अर्धचंद्र' हैं...
और भी कितना कुछ!
पर कवि कहीं भी भदेस नहीं होता।प्रेम में 'मात्र अनुराग ही चयन के योग्य' है की धारणा में यकीन रखने वाले कवि अविनाश साफ़ कहते हैं कि 'उच्च कुल भी रच सकता है नर्क'।पर 'प्रेम अगर सफल हो/तब पीछे से उम्र घटती है/ अगर असफल हो/तब आगे से।उनका यह भी कहना है कि तुम्हारे बगैर/मेरी सारी यात्राएँ अधूरी हैं इसीलिए यह विश्वास कि-जो प्यार में हैं/प्यार बरसता है उन पर।कवि को:'मैं बहुत गलत था जीवन में/तुम से मिलकर सही हुआ' का अहसास है।अपनी 'समरत' कविता में वह परस्पर प्रिया के पैर दबाने और फलतः दर्द में कभी अकेले न होने में विश्वास प्रकट करता है।वह आश्वस्त हैं कि जो आत्मबल से युक्त हैं-ऐसे नायकों को अनायास ही अलभ्य नायिकाएं मिलती हैं।लेकिन आत्मवंचित/मैत्रीमुक्त/नागरकतारहित/अंतर्मुखी नायकों को(?)के लिए है:हस्तमैथुन।
जीवन की इसी ज़रूरी नैतिक पक्षधरता के चलते यौन सम्बन्धों को लेकर कवि का मानना है कि-समय से पूर्व पहुँचना मूर्खता है/समय पर पहुँचना अनुशासन/समय के पश्चात अहंकार। 'व्यवहित राग' कविता में कवि का कहना है कि तुम इच्छाओं से भरी हुई हो/जैसे यह सृष्टि/मैं सुन सकता हूँ तुम्हे उम्र भर/व्रती है यह दृष्टि।इस तरह कवि जीवन की शुभता के लिए स्त्री-पुरुष समवाय पर बल देता है।इतना ही नहीं 'सवर्णा' शीर्षक अपनी एक दुर्लभ कविता में वह उन तमाम यौन अनैतिकताओं का ब्यौरा पेश करता है जो विवाह कर लाई गई एक लड़की को बगैर छुए प्रताड़ित करने का घरों में सबब बनते हैं-विवाहपूर्व यौन सम्बन्ध,विवाहेत्तर
यौन सम्बन्ध,विवाह बाद भी हस्तमैथुन की कुटिल लत,अप्राकृतिक यौन सम्बध।
कवि का तो यहाँ तक मानना है कि अनैतिकताएँ/कुछ भी पहन लें/वासनाएँ ही जगाती हैं: प्रेम में कौमार्य की चाह में न बहना ही सच्ची प्रगतिशीलता है और सच्चा स्त्री-पुरुष विमर्श भी।इसीलिए कवि कह पाता है:'एकल रहना स्त्रीवाद है/मुझे चाँद चाहिए कहना स्त्री विरोधी।इस यौन अराजक समय और छद्मब्रह्मचर्य प्रदर्शन भरे युग में कवि अविनाश जैसे एक नैतिक यौन मानक के लिए मार्ग प्रशस्त करते हैं।वे यह भी मानते हैं कि प्रेम का अभिनय नहीं हो सकता।उसमें 'तुम्हारे सब अंग अब मेरे हैं' का भरोसा ज़रूरी है।इस तरह ये कविताएँ अपने विन्यास में समकालीन अधकचरी मॉड अवधारणा (राजेंद्र यादव मार्का)के बरक्स भारतीय दाम्पत्य के स्त्री-पुरुष ऐक्य की नज़ीर बनती हैं।
भारतीय मनीषा दस दिशाएं मानती आई है।आठ दिशाएं 8×8 के अनुपात में 64 के विस्तार में व्याप रही हैं।ऊर्ध्व और अधो दो दिशाएं आकाश और पाताल की मानी गई हैं।अविनाश संग्रह के प्रथम खंड में अपने विभिन्न आयामों में चौंसठ के विस्तार में रति-राग और जीवन के अनिवार्य यौन नैतिक विवेक को वर्णित करते हैं।दूसरे और समापन खंड में 16 कविताएँ 'संग्रहित हैं।गौरतलब है कि प्रेम में कुछ भी'अधो' स्थिति नहीं होती-सभी कुछ 'ऊर्ध्व' है-इसलिए कवि दोनों को 'सौलह अभिमान' कहता उपयुक्त समझता है।
अपनी व्यंजना और विन्यास में दूसरे खंड की कविताएँ दुर्लभ बन पड़ी हैं।बल्कि 'उल्लेखनीय' में कवि अविनाश अपनी इन कविताओं की जिस अनायासिता का ज़िक्र करते हुए 'उन्हें 'आई और हुई' कविताएँ बताते हैं उसका जीवंत अहसास इस खंड की कविताओं को पढ़कर अधिक होता है। सिंदूर, बेंदा, बिंदिया, काजल, नथ,कर्णफूल,
गजरा मंगलसूत्र,बाजूबंद,मेंहदी,चूड़ियाँ,अँगूठी,
मेखला,पायल,बिछवे,इत्र जैसे प्राचीन पारम्परिक आभूषणों के प्रतीक के जरिए कवि ने विवाह की मांगलिक मान्यताओं के निहित गहन आशय को जिस अनूठे ढंग से निबद्ध किया है वह पढ़ते ही बनता है।
यहाँ सिंदूर किसी लड़की के विवाहित होने की ही नहीं,पराये हो जाने की भी गवाही देता है।रंगबूँद-सी भाल पर प्रतिष्ठित बिंदिया एक लड़की के स्वप्न-अभिलाषा और उसके आत्मगौरव तथा नैतिक रूप से किसी के होने का भी इज़हार है।नथ वह घड़ी है जिसमें चन्द्रमा व समुद्र दोनों को कसा जा सकता है।चंद्रमा जो हमारे यहाँ भावपूर्ण मन और समुद्र जो मर्यादित गहराई का प्रतीक रहा है। मंगलसूत्र वह सूत्र है जिस पर पति का मंगल निर्भर है।कवि इसे पुरुष की मर्यादा और स्त्री की कामना से जोड़कर उसके मांगलिक आशय का विस्तार करता है।बाजूबंद प्रथम पुरुष के लिए अर्गला है,मध्यम के लिए आश्चर्य और अन्य के लिए आशंका-कहकर कवि जैसे दाम्पत्य के सामाजिक-नैतिक सूत्र का खुलासा करता है।'मेखला 'मैं और तुम के बीच मध्यमार्गी-सी है। 'इत्र' कविता में कवि कहता है कि-'मैं ऐसे प्रवेश चाहता हूँ/तुम में/कि मेरा कोई रूप न हो/मैं तुम्हें ज़रा-सा भी न घेरूँ/और तुम्हें पूरा ढँक लूँ।प्रेम की ऐसी निर्भार सूझ ही उसे गहरा और अंतरंग बनाती है।इस तरह इन कविताओं के के ज़रिए कवि अविनाश जैसे तिरोहित भारतीय दाम्पत्य परंपराओं को एक बार फिर से खोजने-पाने में सफल होते हैं।
किताब
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सूरज सरस्वती की कविताएं

1

बस में बैठी हुई लड़की

मिनट-मिनट पर देखती है घड़ी
खिड़की से बाहर झांकते हुये
पढ़ती है दीवारों और दुकानों
पर लिखे स्थानों के नाम

दुविधा में है कहीं भूल न जाए पता
उतर न जाए गंतव्य से पहले
गाने सुनते हुए भी ध्यान है
बस कंडक्टर की आवाज़ पर

सुंदरता हर बार सौम्य हो, ज़रूरी नहीं
व्याकुलता का आवरण भी
हो सकता है उसकी आँखों पर
कि दूर से आते पहचान ले
पिता को, पति को या फिर प्रेमी को

उसने चाय नहीं पी उतर कर
ना ही सीट पर टूटते बदन को
एक बेसुध अंगड़ाई से तोड़ने की कोशिश की
वह उंगली में रुमाल का कोना घुमाते
देखती रही चढ़ते उतरते यात्रियों को

पर यहां तो कोई नहीं था
लड़की भी कहाँ थी बस में
बस भी तो कल्पना में ही गति कर रही थी
सब कुछ काल्पनिक था उस दृश्य में
एक कविता होने के लिए

2

द्वंद्व

बहुत कुछ बीत चुका है
और जो बीत जाता है उसपर
कविताएँ ही हो सकती हैं
संशोधन नहीं

बीते हुए को अतीत कह देना
अतीत सा प्रतीत नहीं होता
मानों कल, नहीं अभी
आँखों के सामने से गुज़रा हो

मैं अतीत में जाकर
अपनी कविताओं को
संशोधित करने का मार्ग
तलाशना चाहता हूँ

जो मानसिक द्वंद्व
वर्तमान और भविष्य के मध्य
छिड़ा हुआ है
उससे निकलने के लिए मुझे
एक कवि , एक लेखक , एक विचारक की नहीं
एक अक्खड़ अट्ठारह वर्षीय
ढीठ की आवश्यकता है

3

सिक्का

खेल के मैदान में उछाला हुआ सिक्का
ज़मीन पर ही नहीं गिरा
वह गिरा वैश्विक स्तर पर अपने मूल्यों के साथ

एक छोटे से बच्चे की जेब से गिरा
जिसने कुल्फी के लिए
पोलिश किये थे कई जोड़ी जूते

भिखारी के कटोरे से गिरा
जब पुलिस ने मांगा उससे राशनकार्ड
उसके नाम से जुड़ा पिता का नाम

जेब रखी हुई देह के साथ गिरा
खनकते हुए एक
इमारत की निर्माणाधीन छत से

खेत में औंधे गिरा
मुँह से झाग फेंकते हुए
और उग आया परिवार का मुआवजा बन

इतनी ऊपर से गिरते हुए भी
भारत का सिक्का
टॉस जीत चुका था

4

उन दुःखों की स्मृतियां
उनकी पीड़ा से भी
अधिक कष्ट देती हैं

जिन्हें भोगने से पूर्व ही
एक सुलभ मार्ग
ले लिया हमनें

दुःखों के साथ रचा स्वांग
स्वप्न में हमारे लिए पीड़ा का
चक्रव्यूह रचता है

5

सांसों पर अटकी कविता

नहीं जगा सुबह का सूरज
अभी तक तिमिर नहीं छटा गृह से
रोग वियोग का जोग लिए
एक पथिक कहीं को चला जाता है

मनःस्थिति से ऊब चुका मन
इतना कि स्वयम् को देखे अरसा हुआ एक
कानों में आती कर्कश ध्वनियां
भेदने लगी हैं हृदयद्वार
कोई भीतर ही भीतर छलने लगा है
हृदय की गतियां

उसके नेत्रों ने देखा है
गिरते हुये जीवन को 
बिजली के तारों से टकरा कर
पंख फड़फड़ाते हुए , फिर मौन !

उसकी सांसे उतनी ही बची हैं
जितने सिक्के आ जाते हैं एक अबोध की
हथेलियों में खनखनाते हुए
कुछ गिरते कुछ संभलते

इन सबसे इतर वह पथिक
गिन रहा है अपने पदचिह्नों को
एक सौ एक, एक सौ दो , दो सौ
यही वह गिनती है जो उसे स्मरण रहने को है
अंततः ख़त्म हो जाते हैं
उस अबोध के हाथ में खनखनाते सिक्के

6

  मुरब्बा

माँ हमेशा डपट देती है
शीशे के जार से जब भी
मुरब्बे निकालता हूँ 
मुझे मुरब्बे नहीं पसन्द
माँ की डांट पसन्द है

मैं बस उसकी डांट सहेजना
चाहता हूं स्मृतियों में
मैं उन स्मृतियों के टीले पर बैठ
मुरब्बे खाना चाहता हूं 
एक , दो , तीन
हर बार नयी डांट के साथ

7

मूल्य

मेरा कवि सौम्य और सहज है
वह जानता है अपनी हाँ का मूल्य
उसके शब्द बोझिल ऊंट की पीठ नहीं
दौड़ते हुए घोड़े की नाल हैं

मैं उसे कविता पाठ करते हुए नहीं देखता
ना ही देखता हूँ किसी मंच के अधीन
अपनी ही कविता को हास्यास्पद विषय बनाते
मैं उसे माँ के गर्भ में लात मारते हुए
उस अजन्में शिशु की तरह देखता हूँ
जिसकी पीड़ा में भी अपार सुख निहित है

वह अज्ञात शब्दों के मध्य परिलक्षित होता है
उसे तालियों की गूंज , स्मृति चिह्नों की नहीं
उसे आवश्यकता है कमरे के कोने में पड़े
दो मिनट के एकांतवास की
वह भी कहाँ मिल पाता है उसे
घड़ी की सुइयां भी अब
उसकी काव्य कल्पना के अधीन हो चली हैं

मैंने कई दफ़े उसे चाय के लिए पूछा
वह बताने लगा मुझे चाय की खेती में
आने वाली अनेकों मुश्किलात के बारे में
वह बताने लगा गन्ना किसानों की आत्महत्यायें
हमारे एक कप चाय की कीमत भर है

मैं उसे पढ़ते हुए अनुभव कर लेता हूँ
कि समाज में सामाजिकता का
मेरा स्वयम् का क्या स्तर है
वह मुझसे पहले नहीं मरेगा
ना ही उसका रचा काव्य 
वह उस दिन के उस क्षण तक जीवित रहेगा
जब किसी की मृत्यु , किसी का शोक
हमारी एक कप चाय की कीमत भर ना रह जाये

8

मैं समाज

खिड़की बंद कर दो !
अब रोशनी से अधिक
अनायास के तर्क-वितर्क
दंगे में चलाए गए पत्थर
किसी मृत पशु की बू
ईर्ष्या, घृणा, द्वेष
आते हैं कमरे के भीतर

कि बिटिया अब बड़ी हो चुकी है
वह समझती है
ना , हां और बस !
बिना मतलब की पहेलियां
बुझाना बंद कर दो
वह परिपक्वता को माप लेगी
घर के देहरी की लंबाई और ऊंचाई से

हृदय अब प्रेम नहीं चाहता
वह प्रेम प्रपंच से इतर
धड़कने की लिप्सा लिए है
उसे मौसम नहीं लुभातें
वह निरंकुश नहीं 
विमुख हो चला है
समाज पर चढ़े हुए
चांदी के कलेवर से

किसी की मृत्यु इसलिए
कम मृत्यु है कि वह
कमरे में बैठे-बैठे मर गया
तो किसी का शोक सुनाई देता है
गली, कूचे से लेकर व्यस्त सड़कों पर
उसे बीच चौराहे पर गोली मारी थी किसी ने

हक्सले ने कहा था -
"शायद यह दुनिया किसी और ग्रह का नर्क है"
हम यह बात सिद्ध कर रहे हैं

हम किसी दंड से पूर्व
अपनी मानसकिता से मारे जा चुके
समाज का हिस्सा हैं

9

काव्य प्रेत

तुम नहीं बंद कर सकते
किसी की आँखें
इसलिए कि
उसकी दृष्टि का सूर्य
तुम्हारी दृष्टि के सूर्य से
अधिक प्रकाशवान है

तुम नहीं काट सकते
किसी के हाथ इस आवेश में कि
उसने चुना मूर्तियां बनाना
और तुमने छेनी और हथौड़ा
तुम्हारी अज्ञानता
तुम्हें सदैव अनभिज्ञ रखेगी
इस बात से कि तुम्हारी कला
उसकी कला की पूरक है

जैसा कि मुक्तिबोध ने कहा था
"मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ
तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है
कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है "

तुम मेरे विष को बस इसलिए
ग़लत नहीं ठहरा सकते
कि तुम्हरा गला
तुम्हारे निर्मित अमृत से सराबोर है
सर्पदंश से भी होते आये हैं
मरीज़ों के इलाज
और हकीमों और वैद्यों ने भी
निगली हैं कई ज़िंदगियाँ

मेरा हृदय तुम्हारे हृदय से
अधिक विशाल और शांत है
वह समाहित कर लेता है
अनायास की आलोचनाएं
उसे नहीं आया बंदूक की गोली बन
रोक देना किसी की हृदयगति
इस समाज में वह अज्ञानी ही रहा
किन्तु जीवित

छटपटाती तितली का छटपटाना
इतना सूक्ष्म है
कि नज़रअंदाज़ किया जा सकता है
वहीं पूर्ण होती है ख़्वाहिश महज़
एक बरौनी के टूटने भर से

काश वह बरौनी बचा लेती
एक छटपटाती हुई तितली को
छटपटाने से
या उठा ले जाता कोई प्रेत उसे
इस मृत हो चुके समाज से

मेरा कवि मृत हो चली
कविताओं से
निकलता हुआ प्रेत है

10

अभिशप्त मैं

कितना कुछ याद रखना पड़ता है तुम्हें
गैस पर उबलता दूध
जब तुम्हारे लड़कपन सा
छलक जाता है चूल्हे के आस-पास

कुकर में पक रही दाल की
तीन सीटी और चौथी सीटी के
मध्य बचे अंतराल में ही
ढूंढ कर देना पड़ता होगा पिता का चश्मा

भींगे बाल में तौलिया लपेटे
छत पर जाना और
अरगनी पर टँगा हुआ दुपट्टा ले लेना
वह भी रात्रि से व्याकुल रहा तुम्हारे स्पर्श को

माँ सरीखी ही लगती हो तुम
तुम्हारा प्रेम भी तो थोड़ा-थोड़ा वैसा ही है
कभी-कभी दूर की बुआ की भांति
चिढ़ जाती हो छोटी सी बात पर

सूर्य को तुम्हारे हाथ से दिया अर्ध्य
आमंत्रित कर देगा मेघों की श्रृंखला
जो अनवरत तुम्हारे यौवन से
लिपटे रहेंगे आषाढ़ मास की बरखा बन

मैं एक कवि की अभिशप्त प्रतिमा हूँ
उसके मृत हो चुके
रस, छंद, अलंकार
तुम्हारे स्पर्श से ही मुक्त होंगे

11

चिट्ठियां

कभी-कभी सोचता हूँ ये सारे दूरसंचार के साधन नष्ट हो जाने चाहिए । फोन, कंप्यूटर, रेडियो सब कुछ ।

हम-तुम एक दूसरे के हृदय तक का सफ़र चिट्ठियों के माध्यम से करतें ।

चिट्ठियों वाला प्रेम बंद बक्से को खोलने का एक बहाना दे देता है । दूसरे शहर की ख़ुश-बू लिपटी रहती है उसमें ।आम की महक , अमलतास की, गुलमोहर की, कनेर की, 
उसके हाथों में लिपटे हुए मसालों की ।

चिट्ठियों वाला प्रेम उत्साहित नहीं होता । वह एकांत खोजता है। वह नहीं होने देतीं हमारी निजता का हनन।
इतना कि सखियाँ तक एक अज्ञात व्याकुलता के संग लौट जाती हैं अपने घर को।

जहां तकनीकी युग में कुछ मृत होते ही, भुला दिया जाता है । वहीं चिट्ठियों पर शेष रह जाते हैं  कलम की स्याही के साथ गिरे हुए आंसुओ के निशान और रुदन की एक-दो ध्वनियां ।

काश हम आज से सौ साल पहले मिले होतें। काश हमारा प्रेम चिट्ठियों के द्वारा नवजात से परिपक्वता की सीढ़ी चढ़ता।

हमारे भी ख़त हमारे बाद पढ़े जाने थे। जैसे पढ़े गयें बीथोवन, रूजवेल्ट, काफ़्का और सुभाष चंद्र बोस के ख़त।

लेकिन ऐसा कहाँ ही संभव था, हमें तो बिजली के तार और गगनचुम्बी टावरों के मध्य स्थापित करना था प्रेम। जिसमें न जाने कितने पँछी धरती की गर्भ में समा गयें।
हो न हो उनकी हत्यायें हमारे सिर ही आनी हैं।

मैं तुमसे गुस्सा होता तब भी तुम्हारे ख़त नहीं जलाता । ख़त जलाना एक क्रूरता भरा कृत्य है। तुम्हारे ख़त जलाना तुम्हारी देह जलाने के समान होता ।

•●•
सूरज सरस्वती

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