ख़ुद के आधे-अधूरे नोट्स : व्योमेश शुक्ल
है अमानिशा उगलता गगन घन अंधकार
खो रहा दिशा का ज्ञान स्तब्ध है पवन चार
(निराला, ‘राम की शक्तिपूजा’)
ऐसे क्षण अंधकार घन में जैसे विद्युत
जागी पृथ्वी तनया कुमारिका छवि अच्युत
(निराला, ‘राम की शक्तिपूजा’)
एक
स्मृति निराशा का कर्तव्य है. लेकिन इस बीच वर्तमान को इतना प्रबल, अपराजेय और शाश्वत मान लिया गया है कि कोई भी हार मानने को तैयार नहीं है और जब तक आप हार नहीं मानेंगे, स्मृति का काम शुरू नहीं होगा. यों, आजकल, स्मृति क्षीण है और चाहे-अनचाहे हमलोग उसका पटाक्षेप कर देने पर आमादा हैं.
दो
इस धारणा को साक्ष्यों से सिद्ध किया जा सकता है. मिसाल के लिए फ़ेसबुक प्रायः रोज़ हमें याद दिलाता रहता है कि आज – इसी तारीख़ से – ठीक एक-दो-तीन-चार या पाँच साल पहले हमने यहाँ क्या कहा-सुना था, कहाँ गए थे या कौन सी तस्वीर शाया की थी. उस परिघटना को वह स्मृति की तरह पेश करता है और हमें, एक बार फिर, उसे अपने लोगों के साथ साझा करने का अवसर देता है. हममें से ज्यदातर लोग कई बार उस बिलकुल क़रीब के अतीत को स्मृति की तरह स्वीकार करते हैं और ‘वे दिन’ वाले अंदाज़ में शेयर करते हैं. हमारे मित्रों की लाइक्स और आशंसा भरी प्रतिक्रियाओं से यह निर्धारित भी होता जाता है कि वह जो कुछ भी है, स्मृति ही है.
तीन
स्मृति की उम्र इतनी कम नहीं हुआ करती. वह बहुत मज़बूत धातु है. मनुष्य नामक शक्तिशाली चीज़ जब इस धातु से टकराती है तो उससे निकलने वाली आवाज़ शताब्दियों के आरपार लहराती हुई जाती है. मुक्तिबोध के शब्दों में : ‘इतिहास की पलक एकबार उठती और गिरती है कि सौ साल बीत जाते हैं.
चार
एक ओर इतिहास-बोध का नुक़सान और दूसरी तरफ़ वर्तमान के ही हीनतर और सद्यःव्यतीत संस्करण को स्मृति मान लेने का भोथरा परसेप्शन – क्या ये दो असंबद्ध बातें हैं ? जो लोग इतिहास और स्मृति को ध्रुवांतों पर रखकर सोचने के अभ्यस्त हैं, उन्हें इस सचाई को भी सोचना होगा. आख़िर यथार्थ का अनुभव क्या है ? वह या तो स्मृति है या कल्पना. यानी स्मृति का अवमूल्यन यथार्थ का निरादर है.
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