Tuesday, 2 July 2019

शैलेन्द्र कुमार शुक्ल की कविता मेरे प्यारे दोस्तों तुम्हें शुक्रिया

मेरे प्यारे दोस्तों तुम्हें शुक्रिया

मेरे घर में अभी मां हैं
पिता हैं
भाई भतीजे हैं
एक भैंस है
उसकी प्यारी पड़िया
जिसे मैनें अपनी खुरपी से छील कर घास खिलाई है
मेरा बेटा जिसका दूध पीकर जवान हो रहा है
उस महिषी को मेरा शुक्रिया

उन मजदूरों को मेरा शुक्रिया
जिन्होंने मेरे बाबा के खेत में काम किया
उस एक अकेली धोती को मेरा शुक्रिया
जिसे बुढऊ आधी पहनते थे और आधी ओढ़ कर
नीले आसमान के नीचे
खलिहान में माड़ते थे मड़नी
उन बैलों की जोड़ी को मेरा शुक्रिया
जिनका अपने बेटों से ज्यादा ख़याल रखती थीं दादी

उन गांव के तमाम तमाम लोगों को मेरा शुक्रिया
जिन्होंने मुझे बहुत प्यार दिया
उस तालाब को शुक्रिया
जिसने मुझ नंग धड़ंग लड़के की उछल कूद को
कभी अश्लील नहीं माना
गांव की उस गरीब बूढ़ी औरत को मेरा शुक्रिया
जिसने मेरी नौकरी के लिए मन्नते मांगी

अब उस पागल को कैसे शुक्रिया कहूँ
जो मेरी बेरोजगारी से बहुत परेशान था
लेकिन उन होशियार लोगों को मेरा बहुत बहुत शुक्रिया
जिन्होंने सदैव मुझे नीचा दिखाने की जुगत की
मेरे पांव इस धरती पर जमे रहें
इस अनंत आकाश को मेरा शुक्रिया

उस जवान होती आबादी को मेरा शुक्रिया
जिसमें मेरा आबनूस बसता है
उन बुजुर्गों को मेरा शुक्रिया
जिनकी निगरानी में मुझे बिगड़ने का मौका मिला
मेरे दुश्मनों को मेरा शुक्रिया
जिन्होंने मुझे याद रक्खा

लखनऊ को शुक्रिया हैदराबाद तक
और हैदराबाद को लखनऊ तक शुक्रिया
बनारस को शुक्रिया कहूँ
तो किस मुँह से
जिसने मुँह खोलना सिखाया
किसका मुँह मांगू कि मिले भी
शुक्रिया बनारस

विदर्भ की काली मिट्टी को मेरा शुक्रिया
कपास की काली पत्तियों और सफेद रुई को
मेरी तरफ से शुक्रिया
ग़ांधी को तो अभी नहीं
लेकिन उनके बंदरों को मेरा शुक्रिया
शुक्रिया उन सब को
जो मेरे बहुत अपने हैं

मेरे प्यारे दोस्तों तुम्हें शुक्रिया कहूँ
तो मुझे माफ़ मत करना
मैं तुम्हारा दोस्त हूँ।

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