रति-राग और यौन नैतिक विवेक की कविताएँ
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चर्चित युवा कवि अविनाश मिश्र का दूसरा कविता-संग्रह 'चौंसठ सूत्र:सोलह अभिमान' शीर्षक से राजकमल प्रकाशन से आया है।बक़ौल कवि ये कविताएँ उसके जीवन में प्रेम व 'कामसूत्र' दोनों के आगमन की साक्षी हैं।कवि की खूबी यहाँ दैहिक आत्म की अपनी खोज में रति-सुख के सार्वजनिक स्पेस का दृष्टा बनने में है।इन कविताओं को पढ़ते हुए मुझे वर्षों पहले लिखीं अपनी ही पंक्तियाँ याद आईं:'अगली बार युवा कवियों के संकोच कम हों/वे लिखें प्रेम के बारे में कविताएँ/अलगनी पर सूखने डाल दिए जाएँ/कुछ नए रूमाल/कुछ पुराने चुम्बन'।हिंदी में लंबे समय
तक सामाजिक संघर्षों की विकट वरीयता के चलते प्रेम को एक कमतर शै माना गया- अशोक वाजपेयी की कविताओं से किया गया सलूक इस तथ्य की पुष्टि करता है।
दरअसल मध्यकालीन दुराग्रहों ने भारत के लोगों को यौन संकोची और यौनजीवन-व्यवहार में छद्म बनाया।अन्यथा वेद के ऋषि को तो अनन्य साधक भी प्रेमिका की ओर जाते जार-सा दिखाई देता था, उपनिषदकार को ऊब-डूब आध्यात्मिक स्थिति के लिए प्रिया का आलिंगन याद आता था।इसीलिए वैदिक मनीषा ने इंद्रियों के छबीलेपन और वासना के उन्माद को लेकर अद्भुत सृजन किया है ताकि जीवन को कुछ और सजीला कुछ और रसीला बनाया जा सके।
भारतीय इतिहास में लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व महर्षि वात्स्यायन रचित 'कामशास्त्र' विश्व की पहली 'यौन-संहिता' है।इसके 7 अधिकरणों,36 अध्यायों एवं 64 प्रकरणों में प्रेम के मनोशारीरिक सिंद्धान्तों एवं प्रयोगों की विस्तृत पड़ताल करते हुए वात्सायन ने व्यक्ति के दाम्पत्य जीवन को सुखी बनाने, यौन जीवन में उसे संतुष्ट रहने के कारगर नुस्खे सुझाये हैं।कवि अविनाश इस संग्रह में उस विषय सरणी के पारम्परिक सूत्रों का निर्वाह करते हुए भी यहाँ जिस तरह प्रेम की निजता का सन्धान करते हैं वह काबिले-तारीफ़ है।
पहली ही कविता 'मंगलाचरण'में वे कहते है-'मेरे प्रार्थनाक्षर/तुम्हारे नाम के वर्ण-विन्यास को चूमते हैं आलिंगन,चुम्बन,नखक्षत,दंतक्षत,सीत्कृत जैसी रति-क्रियाओं में गहरे पैंठते हुए वे प्रणययुद्ध में रात्रि से उत्तेजना और सूर्योदय से बल की याचना करते हैं।यौन सुख में यहाँ जिह्वां युद्ध में 'अधरों के आघात' हैं,'वक्षरेखा' में डूबती दृष्टि है,रजतरश्मियों
से 'अभिसार' हैं,उरोजों व उरुओं के 'स्मारणीयक' हैं,'नहीं भरती प्यास' और तनुता में 'नाभि में भरता जल' है,नाखूनों से स्तनों पर बनते 'अर्धचंद्र' हैं...
और भी कितना कुछ!
से 'अभिसार' हैं,उरोजों व उरुओं के 'स्मारणीयक' हैं,'नहीं भरती प्यास' और तनुता में 'नाभि में भरता जल' है,नाखूनों से स्तनों पर बनते 'अर्धचंद्र' हैं...
और भी कितना कुछ!
पर कवि कहीं भी भदेस नहीं होता।प्रेम में 'मात्र अनुराग ही चयन के योग्य' है की धारणा में यकीन रखने वाले कवि अविनाश साफ़ कहते हैं कि 'उच्च कुल भी रच सकता है नर्क'।पर 'प्रेम अगर सफल हो/तब पीछे से उम्र घटती है/ अगर असफल हो/तब आगे से।उनका यह भी कहना है कि तुम्हारे बगैर/मेरी सारी यात्राएँ अधूरी हैं इसीलिए यह विश्वास कि-जो प्यार में हैं/प्यार बरसता है उन पर।कवि को:'मैं बहुत गलत था जीवन में/तुम से मिलकर सही हुआ' का अहसास है।अपनी 'समरत' कविता में वह परस्पर प्रिया के पैर दबाने और फलतः दर्द में कभी अकेले न होने में विश्वास प्रकट करता है।वह आश्वस्त हैं कि जो आत्मबल से युक्त हैं-ऐसे नायकों को अनायास ही अलभ्य नायिकाएं मिलती हैं।लेकिन आत्मवंचित/मैत्रीमुक्त/नागरकतारहित/अंतर्मुखी नायकों को(?)के लिए है:हस्तमैथुन।
जीवन की इसी ज़रूरी नैतिक पक्षधरता के चलते यौन सम्बन्धों को लेकर कवि का मानना है कि-समय से पूर्व पहुँचना मूर्खता है/समय पर पहुँचना अनुशासन/समय के पश्चात अहंकार। 'व्यवहित राग' कविता में कवि का कहना है कि तुम इच्छाओं से भरी हुई हो/जैसे यह सृष्टि/मैं सुन सकता हूँ तुम्हे उम्र भर/व्रती है यह दृष्टि।इस तरह कवि जीवन की शुभता के लिए स्त्री-पुरुष समवाय पर बल देता है।इतना ही नहीं 'सवर्णा' शीर्षक अपनी एक दुर्लभ कविता में वह उन तमाम यौन अनैतिकताओं का ब्यौरा पेश करता है जो विवाह कर लाई गई एक लड़की को बगैर छुए प्रताड़ित करने का घरों में सबब बनते हैं-विवाहपूर्व यौन सम्बन्ध,विवाहेत्तर
यौन सम्बन्ध,विवाह बाद भी हस्तमैथुन की कुटिल लत,अप्राकृतिक यौन सम्बध।
यौन सम्बन्ध,विवाह बाद भी हस्तमैथुन की कुटिल लत,अप्राकृतिक यौन सम्बध।
कवि का तो यहाँ तक मानना है कि अनैतिकताएँ/कुछ भी पहन लें/वासनाएँ ही जगाती हैं: प्रेम में कौमार्य की चाह में न बहना ही सच्ची प्रगतिशीलता है और सच्चा स्त्री-पुरुष विमर्श भी।इसीलिए कवि कह पाता है:'एकल रहना स्त्रीवाद है/मुझे चाँद चाहिए कहना स्त्री विरोधी।इस यौन अराजक समय और छद्मब्रह्मचर्य प्रदर्शन भरे युग में कवि अविनाश जैसे एक नैतिक यौन मानक के लिए मार्ग प्रशस्त करते हैं।वे यह भी मानते हैं कि प्रेम का अभिनय नहीं हो सकता।उसमें 'तुम्हारे सब अंग अब मेरे हैं' का भरोसा ज़रूरी है।इस तरह ये कविताएँ अपने विन्यास में समकालीन अधकचरी मॉड अवधारणा (राजेंद्र यादव मार्का)के बरक्स भारतीय दाम्पत्य के स्त्री-पुरुष ऐक्य की नज़ीर बनती हैं।
भारतीय मनीषा दस दिशाएं मानती आई है।आठ दिशाएं 8×8 के अनुपात में 64 के विस्तार में व्याप रही हैं।ऊर्ध्व और अधो दो दिशाएं आकाश और पाताल की मानी गई हैं।अविनाश संग्रह के प्रथम खंड में अपने विभिन्न आयामों में चौंसठ के विस्तार में रति-राग और जीवन के अनिवार्य यौन नैतिक विवेक को वर्णित करते हैं।दूसरे और समापन खंड में 16 कविताएँ 'संग्रहित हैं।गौरतलब है कि प्रेम में कुछ भी'अधो' स्थिति नहीं होती-सभी कुछ 'ऊर्ध्व' है-इसलिए कवि दोनों को 'सौलह अभिमान' कहता उपयुक्त समझता है।
अपनी व्यंजना और विन्यास में दूसरे खंड की कविताएँ दुर्लभ बन पड़ी हैं।बल्कि 'उल्लेखनीय' में कवि अविनाश अपनी इन कविताओं की जिस अनायासिता का ज़िक्र करते हुए 'उन्हें 'आई और हुई' कविताएँ बताते हैं उसका जीवंत अहसास इस खंड की कविताओं को पढ़कर अधिक होता है। सिंदूर, बेंदा, बिंदिया, काजल, नथ,कर्णफूल,
गजरा मंगलसूत्र,बाजूबंद,मेंहदी,चूड़ियाँ,अँगूठी,
मेखला,पायल,बिछवे,इत्र जैसे प्राचीन पारम्परिक आभूषणों के प्रतीक के जरिए कवि ने विवाह की मांगलिक मान्यताओं के निहित गहन आशय को जिस अनूठे ढंग से निबद्ध किया है वह पढ़ते ही बनता है।
गजरा मंगलसूत्र,बाजूबंद,मेंहदी,चूड़ियाँ,अँगूठी,
मेखला,पायल,बिछवे,इत्र जैसे प्राचीन पारम्परिक आभूषणों के प्रतीक के जरिए कवि ने विवाह की मांगलिक मान्यताओं के निहित गहन आशय को जिस अनूठे ढंग से निबद्ध किया है वह पढ़ते ही बनता है।
यहाँ सिंदूर किसी लड़की के विवाहित होने की ही नहीं,पराये हो जाने की भी गवाही देता है।रंगबूँद-सी भाल पर प्रतिष्ठित बिंदिया एक लड़की के स्वप्न-अभिलाषा और उसके आत्मगौरव तथा नैतिक रूप से किसी के होने का भी इज़हार है।नथ वह घड़ी है जिसमें चन्द्रमा व समुद्र दोनों को कसा जा सकता है।चंद्रमा जो हमारे यहाँ भावपूर्ण मन और समुद्र जो मर्यादित गहराई का प्रतीक रहा है। मंगलसूत्र वह सूत्र है जिस पर पति का मंगल निर्भर है।कवि इसे पुरुष की मर्यादा और स्त्री की कामना से जोड़कर उसके मांगलिक आशय का विस्तार करता है।बाजूबंद प्रथम पुरुष के लिए अर्गला है,मध्यम के लिए आश्चर्य और अन्य के लिए आशंका-कहकर कवि जैसे दाम्पत्य के सामाजिक-नैतिक सूत्र का खुलासा करता है।'मेखला 'मैं और तुम के बीच मध्यमार्गी-सी है। 'इत्र' कविता में कवि कहता है कि-'मैं ऐसे प्रवेश चाहता हूँ/तुम में/कि मेरा कोई रूप न हो/मैं तुम्हें ज़रा-सा भी न घेरूँ/और तुम्हें पूरा ढँक लूँ।प्रेम की ऐसी निर्भार सूझ ही उसे गहरा और अंतरंग बनाती है।इस तरह इन कविताओं के के ज़रिए कवि अविनाश जैसे तिरोहित भारतीय दाम्पत्य परंपराओं को एक बार फिर से खोजने-पाने में सफल होते हैं।
किताब
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