जब मोहम्मद रफ़ी मरे तो बारिश हुई थी
संदर्भ : #मनोज_कुमार_झा_की_कविताएँ
■ शहंशाह आलम
मनोज कुमार झा की कविता हवा का वह झोंका है, जो भीषण गर्मी के दिन सहसा आता है और पसीने से चिपचिप बदन को थोड़े समय के लिए राहत देकर खेत, पगडंडी, दरख़्त, दरिया के रास्ते आगे बढ़ जाता है। नामवर सिंह ने भी इनकी कविता को लेकर कहा है कि इनकी कविताएँ हवा के नए झोंके की तरह हैं। नामवर जी ने सही लिखा। मनोज कुमार झा की कविता में हवा के जिस झोंके की बात यहाँ पर चल रही है, वह झोंका जब-जब आता है
पुनर्नवा होकर आता है। मनोज कुमार झा की कविता में व्यक्त शब्द आदमी के लिए यही काम करते हैं। यानी इनकी कविता आदमी को राहत पहुँचती है। आज की तारीख़ में एक आदमी की हालत कैसी है, यह क़िस्सा किसी दहलाने वाले क़िस्से से कम नहीं है। तभी दुनिया भर के आदमियों के सड़कों पर निकलने की ख़बरें रोज़ आती रहती हैं। सड़कों पर आदमी के लिए कड़ी धूप है और किसी साये का इंतज़ाम तक नहीं है। ऐसे में, मनोज कुमार झा की कविता एक सायेदार पेड़ की तरह आदमी को राहत पहुँचाती है। कविता का असल काम यही तो है। बहुत सारे लोग ऐसे भी हैं, जो पल भर सो नहीं पाते, ग़ुरबत की वजहकर। इनकी कविता उनकी आँखों को नींद देती आई है।
मनोज कुमार झा |
मनोज कुमार झा की कविता ‘देशज’ कविता है और यह कवि ‘देशज्ञ’ कवि है। यानी इनकी कविता बोलचाल की भाषा से स्वतः उत्पन्न कविता तो है ही, कवि आदमी की रीति, नीति और संस्कृति से भी परिचित है। यह देशजता और यह देशज्ञता इस कवि का अपना गुण है। अपना मूल पाठ है। संभवतः इन्हीं कारणों से यह कवि अतीत से अधिक वर्तमान में जीता है। कवि का अपना वर्तमान वही है, जो देश के आम नागरिक का वर्तमान है, ‘ठीक कह रहे अनवर भाई / जब मोहम्मद रफ़ी मरे तो बारिश हुई थी / अनवर भाई, ठीक कह रहे / जब आपके भाई रोशन क़व्वाल मरे तब भी बारिश हुई थी / मानता हूँ अनवर भाई / आपके अब्बू मोहम्मद रफ़ी की नक़ल नहीं करते थे / उनकी आवाज़ निकालते थे / मगर अबकि बारिश वैसी बारिश नहीं / घुला हुआ है अम्ल / घुला हुआ है रक्त / चलो अनवर चलो कोई चौड़े पाट वाली नदी ढूँढ़ो / जिसमें धुल सके इस बारिश की बूँदें।’
अपने शब्द की मार्फ़त अंतिम आदमी के लिए जितना कुछ किया जा सकता है, हर कवि करता है। मनोज कुमार झा अपने शब्द की मार्फ़त यही करते हैं। कारण कि जो अंतिम आदमी है, उसकी बोलती बंद है। हर अंतिम आदमी ‘कदाचित् अपूर्ण’ है। अब जिन कदाचित् कारणों से सबकी आवाज़ अपूर्ण है, सबकी बोलती बंद है, सबकी हालत पतली है, ये सारी वजहें घृणा से भरी हुई हैं। घृणित इस कारण हैं कि सत्ताएँ हर अंतिम आदमी के साथ आखेट करती हैं। यह सच ही तो है, अब वह वक़्त गया, जब कोई राजा अपने राज्य के अंतिम आदमी के दुःख को समझने वेश बदलकर रात को निकला करता था। अब का राजा अपने असली रूप में अंतिम आदमी का शिकार करने निकलता है। यानी अब सत्ताधीश बस कुशल आखेटक भर बनकर है, शांत दिनों की हर संभावना को नष्ट करने वाला भर रह गया है, ‘उखड़ी-उखड़ी लगती है रात की साँस / बढ़ता जाता प्रकाश का भार / तेज़ उठता मथने वाला शोर / तो क्या फट जाएगा एक दिन रात का शहद / और नाराज़ सूरज कहेगा अब नहीं लौटूँगा / रात ही देती थी लाल रूमाल / जिसको हिलाते बीतते थे प्रात / अब भोगो अपना प्रकाश अपना अँधकार।’ मनोज कुमार झा अपनी कविता में जिस अंदेशे से अकसर घिरे दिखाई देते रहे हैं, वह अंदेशा एक जागरूक कवि का अंदेशा है। यह अंदेशा हर कवि में बार-बार आता रहता है। वह कवि जिस भी भाषा का कवि है, यह अंदेशा यानी यह पूर्वाभास उसको परेशान करता रहता है कि उसके घर के बाहर जो सत्ताधीश गली में छिपकर उसकी टोह में लगा हुआ है, वह उसको न मालूम किस जुर्म में फँसाकर उसका शिकार कर लेगा। ऐसे टोही और हरजाई सत्ताधीशों से भरे समय में भी मनोज कुमार झा अपने ‘अनवर भाई’ जैसे पड़ोसियों को आज के शिकारी सत्ताधीश से बचाना चाहते हैं। कवि के बचाव का यह तरीक़ा हर आदमी के लिए माक़ूल है और कविता के लिए मुनासिब भी, ‘क्या तुम्हें शर्म नहीं आती / क्या तुमने दूध के लिए रोते बच्चों को देखा है / अपनी माँ से पूछ लो / नहीं, तुमसे छूट गई होगी वो भाषा / जिसमें माँओं से बात की जाती है / क्या तुमने तेज़ाब की शीशी को / बच्चों की पहुँच से दूर किया है कभी / अपनी पत्नी से पूछ लो।’
मनोज कुमार झा की कविता ऊपर-ऊपर से जितनी शांत दिखाई देती है, अंदर से आपको इतनी बेचैन कर देती है कि आप ज़िंदगी की त्रासदी को परत-दर-परत समझ पाते हैं। शर्त यही है कि इस कवि की कविता वाली नदी में आपको डुबकी लगानी होगी। शर्त यह भी है कि आपको नदी में गोता लगाना आता हो। इनकी कविता का स्वर आदमी को प्रेम से बाँधे रखना ज़रूर है, परंतु जो सत्ताधीश रेड कार्पेट पर चलते हैं, उनकी मुख़ालफ़त की शर्त पर मनोज कुमार झा आपसे प्रेम करते हैं। वजह साफ़ है, सत्ता के लोग आपके मुख़ालिफ़ ही तो खड़े दिखाई देते रहे हैं। मनोज कुमार झा की असल कारीगरी यही है कि लोगों के सत्तावादी प्यार को ख़त्म करना चाहते हैं, ‘तुम नहीं तो यहाँ अब मेरे हाथ नहीं / एक जोड़े दास्तानें हैं / पैर भी नहीं / एक जोड़ी जूते की / देह भी नहीं / मात्र बाँस का एक बिजूका / जिसमें रक्त और हवाएँ घूम रही हैं।’ कवि आपसे यह कहना चाहता है कि पक्षियों और जंतुओं को डराने के लिए खेत में उलटी हाँडी का सिर बनाकर खड़ा किया गया जो पुतला होता है न, वही अब लोगबाग होते जा रहे हैं। लेकिन वह पुतला तो महज़ धोखा और भुलावा होता है न। फिर आप ऐसे क्यों होते जा रहे हैं? कवि को मालूम है, आज के सत्ताधीश अपनी जनता को किसी बिजूका से ज़्यादा नहीं मानते। हालत यह हो गई है कि देश में जनता को नोटबंदी के बाद अब एक किलो प्याज़ के लिए पंक्ति में खड़ा कराया जा रहा है और तुर्रमख़ाँ सत्ताधीश विदेश की यात्राएँ कर-करके मौज मना रहा है, ‘तुमने परमाणु बम बनाया / चाँद को छुआ / वह दस दिन का बच्चा डूब रहा पानी में / वह काग़ज़ का टुकड़ा नहीं / जिसे तुम फेंक देते हो बिना दस्तख़त के / शिशु-शरीर वह / बसती है जिसमें सभ्यता की सुगंध / तुम इस दस दिन के बच्चे को नहीं बचा सकते / तुम्हें शर्म नहीं आती।’
यह सही है कि सत्ताधीशों को अब शर्म नहीं आती। शर्म आती होती तो वे जो दिन-रात संविधान की धज्जियाँ यहाँ-वहाँ उड़ाते हुए दनदनाते फिर रहे हैं, देश में संविधान दिवस मनाए जाने की बातें नहीं करते। वास्तव में, देश की जनता ऐसे सत्ताधीशों को अपना मौन-समर्थन जब तक देती रहेगी, वे देश की जनता को प्याज़ क्या, नमक तक के लिए पंक्ति में खड़ा करवाते रहेंगे। चेतना सत्ताधीशों को नहीं, हमको है। ग़म यही है कि हम चेतने से अच्छा किसी मंदिर में जाकर घंटी बजा आना मान रहे हैं, ‘यह युद्ध इतना विषम / नोचे इतने पंख / लूटते रहे मेरे दिन की परछाइयाँ / कुतरते रहे मेरे रात की पंखुड़ियाँ / चितकबरा लहू थूकता यह अँधकार / फिर भी छूटा वो अर्जित कोना निपट अकेला / जहाँ बसे हैं विकट दुर्गुण मेरे ख़ास।’ मनोज कुमार झा धब्बेदार, लाल-काले दाग़ोंवाली और बेसुरी इस सदी के बारे में जो भी कहते हैं, यथार्थ कहते हैं। तभी इनकी कविता यथार्थ की कविता है। यह कवि ऐसा है कि अपने दुःख में सबको शामिल करने से बचता दिखाई देता है। इस कवि को मालूम है, दुखी तो सभी जन हैं, फिर अपना दुःख सुनाकर दुखी जनों को और अधिक दुखी काहे किया जाए, ‘मैं काँपता अपने निश्चय के भीतर कि मैं तो रोऊँगा।’ आज का माहौल भी ऐसा है कि किसी रोते हुए आदमी के काँधे पर भला प्यार से कौन हाथ धरता है। हमदर्द आदमियों की कमी जो होती जा रही है। साथ ही, आदमी के अंदर से हमदर्दी ख़त्म भी होती जा रही है, ‘मगर मेरे पास सिर्फ़ देह / क्या इसे निर्वस्त्र करके गलियों में घुमाऊँ / तो दिखेगा उदासी का चेहरा।’ एक कवि आपको चेता भर ही न सकता है कि आप अपनी दर्दमंदी, अपना ख़ुलूस, अपनी सहानुभूति खो रहे हैं, तभी अब आप दूसरे के दुःख से दुखी होने का भाव अपने अंदर नहीं महसूस कर पाते, ‘उधर से खाँसी उठती थी / जान जाता था कि पिता जगे हैं / इधर मैं कविताओं का काग़ज़ फाड़ता था / जान जाते थे कि लड़का जगा है / इस तरह एक रिश्ता बनता था / लड़ाइयों की हार की तरफ़ लुढ़कते हुए।’
मनोज कुमार झा की कविता का जो स्वर है, यही है कि इनकी कविता आदमी के अतीत और वर्तमान, दोनों को साथ लेकर चलती है। आदमी का अतीत अगर-मगर करता हुआ पूर्णता के साथ बीता है तो उसका वर्तमान कदाचित् अपूर्ण रह गया है। लेकिन कवि की श्रद्धा आदमी के भविष्य को लेकर विश्वास से भरी है। यही वजह है कि इनकी कविता आदमी को अधूरा आदमी नहीं मानती - पूर्ण, सुंदर और भव्य मानती है। इनकी कविता आदमी से बातचीत की कविता है। कहीं कोई कमी है भी तो कवि का ग़ुस्सा सातवें आसमान तक नहीं जाता है। कारण कि ‘तथापि जीवन’ एक कवि का ही जीवन तो है। मनोज कुमार झा ‘हम तक जो विचार’ पहुँचाना चाहते है, यही पहुँचाना चाहते हैं, ‘दुःख तो पुराना गुइयाँ है / जैसे राख की साथी आग / मगर चुंबक का एक सिल बनाया हम लोगों ने / और उस पर खीरा रखा / जिसे काटने को लोहे के चाक़ू से हुनर क़बूल किया।’
मनोज कुमार झा उम्मीदों के कवि हैं। इनको नाउम्मीदी हर तरफ़ से घेरती भी है तो नाउम्मीदी का घेरा इनको तोड़ना बख़ूबी आता है। नाउम्मीदी के घेरे को तोड़ने का यह काम भी यह कवि विनम्रतापूर्वक करता है। संभव है, इनकी इस विनम्रता और इनके इस विनयन के लिए कोई ‘बहुत डरा हुआ कवि’ कहकर ताने मारे, लेकिन यह ग़लत होगा। मानवता के बचाव की लड़ाई मुहब्बत से भी लड़ी जाती रही है। मनोज कुमार झा ऐसे ही कवियों में हैं। इनकी कविता को एक नए फ़्रेम में देखेंगे तो लगेगा कि पूरी तरह सहज रहकर कोई कवि किस प्रकार आदमी के पक्ष का संघर्ष जीतता है, ‘नहीं दिख रहा हरसिंगार का पेड़ / नहीं दिख रहा गेंदा जिसे सुबह में छुआ था / इन अँधियारों में मुझे क्यों लग रहा कोई नाव चला रहा है।’ दरअसल मनोज कुमार झा का कवि उस नाविक की भूमिका में है, जो नाविक चाहे समुद्र में जितनी आँधियाँ आएँ, जितनी परेशानियाँ आएँ, जितनी हैरानियाँ आएँ, अपनी कश्ती को किनारे लाकर ही दम लेता है। यह इनके एक सतर्क कवि होने का भी परिचायक है।
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