Monday, 25 November 2019

समय सत्ता और कवि : एक (मनोज कुमार झा की कविताएं)

जब मोहम्मद रफ़ी मरे तो बारिश हुई थी
संदर्भ : #मनोज_कुमार_झा_की_कविताएँ
शहंशाह आलम

मनोज कुमार झा की कविता हवा का वह झोंका है, जो भीषण गर्मी के दिन सहसा आता है और पसीने से चिपचिप बदन को थोड़े समय के लिए राहत देकर खेत, पगडंडी, दरख़्त, दरिया के रास्ते आगे बढ़ जाता है। नामवर सिंह ने भी इनकी कविता को लेकर कहा है कि इनकी कविताएँ हवा के नए झोंके की तरह हैं। नामवर जी ने सही लिखा। मनोज कुमार झा की कविता में हवा के जिस झोंके की बात यहाँ पर चल रही है, वह झोंका जब-जब आता है
मनोज कुमार झा
पुनर्नवा होकर आता है। मनोज कुमार झा की कविता में व्यक्त शब्द आदमी के लिए यही काम करते हैं। यानी इनकी कविता आदमी को राहत पहुँचती है। आज की तारीख़ में एक आदमी की हालत कैसी है, यह क़िस्सा किसी दहलाने वाले क़िस्से से कम नहीं है। तभी दुनिया भर के आदमियों के सड़कों पर निकलने की ख़बरें रोज़ आती रहती हैं। सड़कों पर आदमी के लिए कड़ी धूप है और किसी साये का इंतज़ाम तक नहीं है। ऐसे में, मनोज कुमार झा की कविता एक सायेदार पेड़ की तरह आदमी को राहत पहुँचाती है। कविता का असल काम यही तो है। बहुत सारे लोग ऐसे भी हैं, जो पल भर सो नहीं पाते, ग़ुरबत की वजहकर। इनकी कविता उनकी आँखों को नींद देती आई है।
     मनोज कुमार झा की कविता ‘देशज’ कविता है और यह कवि ‘देशज्ञ’ कवि है। यानी इनकी कविता बोलचाल की भाषा से स्वतः उत्पन्न कविता तो है ही, कवि आदमी की रीति, नीति और संस्कृति से भी परिचित है। यह देशजता और यह देशज्ञता इस कवि का अपना गुण है। अपना मूल पाठ है। संभवतः इन्हीं कारणों से यह कवि अतीत से अधिक वर्तमान में जीता है। कवि का अपना वर्तमान वही है, जो देश के आम नागरिक का वर्तमान है, ‘ठीक कह रहे अनवर भाई / जब मोहम्मद रफ़ी मरे तो बारिश हुई थी / अनवर भाई, ठीक कह रहे / जब आपके भाई रोशन क़व्वाल मरे तब भी बारिश हुई थी / मानता हूँ अनवर भाई / आपके अब्बू मोहम्मद रफ़ी की नक़ल नहीं करते थे / उनकी आवाज़ निकालते थे / मगर अबकि बारिश वैसी बारिश नहीं / घुला हुआ है अम्ल / घुला हुआ है रक्त / चलो अनवर चलो कोई चौड़े पाट वाली नदी ढूँढ़ो / जिसमें धुल सके इस बारिश की बूँदें।’
     अपने शब्द की मार्फ़त अंतिम आदमी के लिए जितना कुछ किया जा सकता है, हर कवि करता है। मनोज कुमार झा अपने शब्द की मार्फ़त यही करते हैं। कारण कि जो अंतिम आदमी है, उसकी बोलती बंद है। हर अंतिम आदमी ‘कदाचित् अपूर्ण’ है। अब जिन कदाचित् कारणों से सबकी आवाज़ अपूर्ण है, सबकी बोलती बंद है, सबकी हालत पतली है, ये सारी वजहें घृणा से भरी हुई हैं। घृणित इस कारण हैं कि सत्ताएँ हर अंतिम आदमी के साथ आखेट करती हैं। यह सच ही तो है, अब वह वक़्त गया, जब कोई राजा अपने राज्य के अंतिम आदमी के दुःख को समझने वेश बदलकर रात को निकला करता था। अब का राजा अपने असली रूप में अंतिम आदमी का शिकार करने निकलता है। यानी अब सत्ताधीश बस कुशल आखेटक भर बनकर है, शांत दिनों की हर संभावना को नष्ट करने वाला भर रह गया है, ‘उखड़ी-उखड़ी लगती है रात की साँस / बढ़ता जाता प्रकाश का भार / तेज़ उठता मथने वाला शोर / तो क्या फट जाएगा एक दिन रात का शहद / और नाराज़ सूरज कहेगा अब नहीं लौटूँगा / रात ही देती थी लाल रूमाल / जिसको हिलाते बीतते थे प्रात / अब भोगो अपना प्रकाश अपना अँधकार।’ मनोज कुमार झा अपनी कविता में जिस अंदेशे से अकसर घिरे दिखाई देते रहे हैं, वह अंदेशा एक जागरूक कवि का अंदेशा है। यह अंदेशा हर कवि में बार-बार आता रहता है। वह कवि जिस भी भाषा का कवि है, यह अंदेशा यानी यह पूर्वाभास उसको परेशान करता रहता है कि उसके घर के बाहर जो सत्ताधीश गली में छिपकर उसकी टोह में लगा हुआ है, वह उसको न मालूम किस जुर्म में फँसाकर उसका शिकार कर लेगा। ऐसे टोही और हरजाई सत्ताधीशों से भरे समय में भी मनोज कुमार झा अपने ‘अनवर भाई’ जैसे पड़ोसियों को आज के शिकारी सत्ताधीश से बचाना चाहते हैं। कवि के बचाव का यह तरीक़ा हर आदमी के लिए माक़ूल है और कविता के लिए मुनासिब भी, ‘क्या तुम्हें शर्म नहीं आती / क्या तुमने दूध के लिए रोते बच्चों को देखा है / अपनी माँ से पूछ लो / नहीं, तुमसे छूट गई होगी वो भाषा / जिसमें माँओं से बात की जाती है / क्या तुमने तेज़ाब की शीशी को / बच्चों की पहुँच से दूर किया है कभी / अपनी पत्नी से पूछ लो।’
     मनोज कुमार झा की कविता ऊपर-ऊपर से जितनी शांत दिखाई देती है, अंदर से आपको इतनी बेचैन कर देती है कि आप ज़िंदगी की त्रासदी को परत-दर-परत समझ पाते हैं। शर्त यही है कि इस कवि की कविता वाली नदी में आपको डुबकी लगानी होगी। शर्त यह भी है कि आपको नदी में गोता लगाना आता हो। इनकी कविता का स्वर आदमी को प्रेम से बाँधे रखना ज़रूर है, परंतु जो सत्ताधीश रेड कार्पेट पर चलते हैं, उनकी मुख़ालफ़त की शर्त पर मनोज कुमार झा आपसे प्रेम करते हैं। वजह साफ़ है, सत्ता के लोग आपके मुख़ालिफ़ ही तो खड़े दिखाई देते रहे हैं। मनोज कुमार झा की असल कारीगरी यही है कि लोगों के सत्तावादी प्यार को ख़त्म करना चाहते हैं, ‘तुम नहीं तो यहाँ अब मेरे हाथ नहीं / एक जोड़े दास्तानें हैं / पैर भी नहीं / एक जोड़ी जूते की / देह भी नहीं / मात्र बाँस का एक बिजूका / जिसमें रक्त और हवाएँ घूम रही हैं।’ कवि आपसे यह कहना चाहता है कि पक्षियों और जंतुओं को डराने के लिए खेत में उलटी हाँडी का सिर बनाकर खड़ा किया गया जो पुतला होता है न, वही अब लोगबाग होते जा रहे हैं। लेकिन वह पुतला तो महज़ धोखा और भुलावा होता है न। फिर आप ऐसे क्यों होते जा रहे हैं? कवि को मालूम है, आज के सत्ताधीश अपनी जनता को किसी बिजूका से ज़्यादा नहीं मानते। हालत यह हो गई है कि देश में जनता को नोटबंदी के बाद अब एक किलो प्याज़ के लिए पंक्ति में खड़ा कराया जा रहा है और तुर्रमख़ाँ सत्ताधीश विदेश की यात्राएँ कर-करके मौज मना रहा है, ‘तुमने परमाणु बम बनाया / चाँद को छुआ / वह दस दिन का बच्चा डूब रहा पानी में / वह काग़ज़ का टुकड़ा नहीं / जिसे तुम फेंक देते हो बिना दस्तख़त के / शिशु-शरीर वह / बसती है जिसमें सभ्यता की सुगंध / तुम इस दस दिन के बच्चे को नहीं बचा सकते / तुम्हें शर्म नहीं आती।’
     यह सही है कि सत्ताधीशों को अब शर्म नहीं आती। शर्म आती होती तो वे जो दिन-रात संविधान की धज्जियाँ यहाँ-वहाँ उड़ाते हुए दनदनाते फिर रहे हैं, देश में संविधान दिवस मनाए जाने की बातें नहीं करते। वास्तव में, देश की जनता ऐसे सत्ताधीशों को अपना मौन-समर्थन जब तक देती रहेगी, वे देश की जनता को प्याज़ क्या, नमक तक के लिए पंक्ति में खड़ा करवाते रहेंगे। चेतना सत्ताधीशों को नहीं, हमको है। ग़म यही है कि हम चेतने से अच्छा किसी मंदिर में जाकर घंटी बजा आना मान रहे हैं, ‘यह युद्ध इतना विषम / नोचे इतने पंख / लूटते रहे मेरे दिन की परछाइयाँ / कुतरते रहे मेरे रात की पंखुड़ियाँ / चितकबरा लहू थूकता यह अँधकार / फिर भी छूटा वो अर्जित कोना निपट अकेला / जहाँ बसे हैं विकट दुर्गुण मेरे ख़ास।’ मनोज कुमार झा धब्बेदार, लाल-काले दाग़ोंवाली और बेसुरी इस सदी के बारे में जो भी कहते हैं, यथार्थ कहते हैं। तभी इनकी कविता यथार्थ की कविता है। यह कवि ऐसा है कि अपने दुःख में सबको शामिल करने से बचता दिखाई देता है। इस कवि को मालूम है, दुखी तो सभी जन हैं, फिर अपना दुःख सुनाकर दुखी जनों को और अधिक दुखी काहे किया जाए, ‘मैं काँपता अपने निश्चय के भीतर कि मैं तो रोऊँगा।’ आज का माहौल भी ऐसा है कि किसी रोते हुए आदमी के काँधे पर भला प्यार से कौन हाथ धरता है। हमदर्द आदमियों की कमी जो होती जा रही है। साथ ही, आदमी के अंदर से हमदर्दी ख़त्म भी होती जा रही है, ‘मगर मेरे पास सिर्फ़ देह / क्या इसे निर्वस्त्र करके गलियों में घुमाऊँ / तो दिखेगा उदासी का चेहरा।’ एक कवि आपको चेता भर ही न सकता है कि आप अपनी दर्दमंदी, अपना ख़ुलूस, अपनी सहानुभूति खो रहे हैं, तभी अब आप दूसरे के दुःख से दुखी होने का भाव अपने अंदर नहीं महसूस कर पाते, ‘उधर से खाँसी उठती थी / जान जाता था कि पिता जगे हैं / इधर मैं कविताओं का काग़ज़ फाड़ता था / जान जाते थे कि लड़का जगा है / इस तरह एक रिश्ता बनता था / लड़ाइयों की हार की तरफ़ लुढ़कते हुए।’
     मनोज कुमार झा की कविता का जो स्वर है, यही है कि इनकी कविता आदमी के अतीत और वर्तमान, दोनों को साथ लेकर चलती है। आदमी का अतीत अगर-मगर करता हुआ पूर्णता के साथ बीता है तो उसका वर्तमान कदाचित् अपूर्ण रह गया है। लेकिन कवि की श्रद्धा आदमी के भविष्य को लेकर विश्वास से भरी है। यही वजह है कि इनकी कविता आदमी को अधूरा आदमी नहीं मानती - पूर्ण, सुंदर और भव्य मानती है। इनकी कविता आदमी से बातचीत की कविता है। कहीं कोई कमी है भी तो कवि का ग़ुस्सा सातवें आसमान तक नहीं जाता है। कारण कि ‘तथापि जीवन’ एक कवि का ही जीवन तो है। मनोज कुमार झा ‘हम तक जो विचार’ पहुँचाना चाहते है, यही पहुँचाना चाहते हैं, ‘दुःख तो पुराना गुइयाँ है / जैसे राख की साथी आग / मगर चुंबक का एक सिल बनाया हम लोगों ने / और उस पर खीरा रखा / जिसे काटने को लोहे के चाक़ू से हुनर क़बूल किया।’
     मनोज कुमार झा उम्मीदों के कवि हैं। इनको नाउम्मीदी हर तरफ़ से घेरती भी है तो नाउम्मीदी का घेरा इनको तोड़ना बख़ूबी आता है। नाउम्मीदी के घेरे को तोड़ने का यह काम भी यह कवि विनम्रतापूर्वक करता है। संभव है, इनकी इस विनम्रता और इनके इस विनयन के लिए कोई ‘बहुत डरा हुआ कवि’ कहकर ताने मारे, लेकिन यह ग़लत होगा। मानवता के बचाव की लड़ाई मुहब्बत से भी लड़ी जाती रही है। मनोज कुमार झा ऐसे ही कवियों में हैं। इनकी कविता को एक नए फ़्रेम में देखेंगे तो लगेगा कि पूरी तरह सहज रहकर कोई कवि किस प्रकार आदमी के पक्ष का संघर्ष जीतता है, ‘नहीं दिख रहा हरसिंगार का पेड़ / नहीं दिख रहा गेंदा जिसे सुबह में छुआ था / इन अँधियारों में मुझे क्यों लग रहा कोई नाव चला रहा है।’ दरअसल मनोज कुमार झा का कवि उस नाविक की भूमिका में है, जो नाविक चाहे समुद्र में जितनी आँधियाँ आएँ, जितनी परेशानियाँ आएँ, जितनी हैरानियाँ आएँ, अपनी कश्ती को किनारे लाकर ही दम लेता है। यह इनके एक सतर्क कवि होने का भी परिचायक है।
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Sunday, 17 November 2019

कविता : कम्बखत ये गरीब

ये गरीबों के बच्चे
कम्बखत

बिना टैक्स दिए
पढ़ लेते हैं 
देश के बड़े संस्थानों में

फीस बढ़ाओ और 
संस्थानों को इनकी पहुंच से बाहर कर दो

बिना टैक्स दिए लेते हैं
देश की हवा में सांस
और
टैक्स पेयर के हिस्से की भी हवा खींच लेते हैं

सायकिल से मर्सिडीज की सड़क जाम कर देते हैं

देश की रफ्तार बढ़ाने के लिए
इन गरीब पिल्लों को 
मारो
धक्के दो
और विकास रथ से नीचे उतार दो

Saturday, 16 November 2019

कविता: प्रेम जो कभी बासी नहीं होता

बहुत बार दुहराने पर जो बासी नही होता
वह प्रेम ही है
बाक़ी
सब कुछ बासी हो जाता है
स्वर्ग
स्वाद
देह
दान
ज्ञान
जीवन
दुनिया- जहान

Thursday, 14 November 2019

एक विक्षिप्त वैज्ञानिक का अवसान : प्रेमकुमार मणि

एक विक्षिप्त वैज्ञानिक का अवसान : प्रेमकुमार मणि 

 किंवदंती पुरुष गणितज्ञ वशिष्ठनारायण  सिंह आज 14  नवंबर को इस दुनिया को अलविदा कह गए . यूँ भी उनका पार्थिव  शरीर ही शेष था . चेतना तो आज से 45   साल पहले ही लोप हो गयी थी . दरअसल उनका वास्तविक अवसान उसी रोज ,यानि आज से 45 साल पहले जनवरी 1974 में हो चुका था .
  
     मैं जब हाई स्कूल में था ,तब वशिष्ठ जी का नाम पहली दफा  सुना था . हमारे स्कूल में शिक्षा विभाग के रिजनल डायरेक्टर आये थे . 1967 -68 का साल होगा .  अपने भाषण के दौरान नेतरहाट स्कूल के औचित्य पर बोलते हुए उन्होंने कहा था कि वैसा स्कूल हर जिले में होना चाहिए . इसी क्रम में उन्होंने वशिष्ठनारायण की चर्चा की और कहा कि यदि एक वशिष्ठ उस स्कूल से  निकल गया तो नेतरहाट का  बनना सार्थक हो गया . हमारे गाँव-घर  के सत्यदेव प्रसाद जी ,जो अब दिवंगत हैं ,नेतरहाट स्कूल में वशिष्ठ नारायण से एक बैच सीनियर थे . हायर सेकेंडरी के पहले बैच में बिहार भर  में उन्होंने भी प्रथम स्थान प्राप्त किया था . मैंने  सत्यदेव भैया से वशिष्ठनारायण के बारे में पूछा . वह ,यानि सत्यदेव भैया उनके खूब प्रशंसक थे . उनकी विलक्षणता की जानकारी उनसे भी हुई थी . बाद में सुना कि वशिष्ठनारायण जी विक्षिप्त हो गए . लेकिन लीजेंड तो वह छात्रजीवन में ही बन चुके थे . आज उस करुण- कथा का अंत हो गया . आज मेरे हिसाब से श्रद्धांजलि का नहीं ,संकल्प  का समय है . हम इस पूरे हादसे को एक गंभीर  सामाजिक प्रश्न के रूप में क्यों नहीं देखते ? 

जो थोड़ी बहुत जानकारी मुझे मिली है ,उसके अनुसार 1942 में जन्मे वशिष्ठजी का विवाह जुलाई 1973 में हुआ और जनवरी 1974 में वह विक्षिप्त हो गए . मैं उन लोगों में नहीं हूँ जो सब कुछ सरकार पर छोड़ते हैं . यह सामाजिक समस्या है ,जिस पर सबको मिल कर सोचना है . हमने अपनी प्रतिभाओं को सहेजना नहीं सीखा है . शिक्षा और ज्ञान के प्रति हमारी रूचि गलीज़ किस्म की है . संभव है उनपर जोर हो कि इतनी प्रतिभा है तो भारतीय प्रशासनिक सेवा में क्यों नहीं जाते . क्योंकि हमारे कुंठित और गुलाम समाज में अफसर बनना प्रतिभा की पहली पहचान होती है . देखता हूँ प्रतिभाशाली  इंजीनियर  और डॉक्टर भी प्रशासनिक सेवाओं में तेजी से जा रहे हैं . इस पर पाबंदी लगाने की कोई व्यवस्था हमारे यहां नहीं है . शिक्षा का हाल और संस्कार कितना बुरा है ,कहना मुश्किल है . शिक्षा का समाजशास्त्र यही है कि बड़े लोग वर्चस्व हासिल करने केलिए उच्च शिक्षा हासिल करते हैं और मिहनतक़श तबका मुक्ति हेतु इससे जुड़ते हैं . वशिष्ठ नारायण शिक्षा के ज्ञान मार्ग से  जुड़ गए थे . अपनी साधना का इस्तेमाल वह सुपर थर्टी खोल कर पैसे और रुतबा हासिल करने में कर सकते थे . प्रशासनिक सेवाओं से जुड़ कर वह सत्ता की मलाई में हिस्सेदार हो  सकते थे . लेकिन वह तो गणितीय सूत्रों को सुलझा कर ज्ञान की वह चाबी ढूँढ रहे थे ,जिससे प्रकृति के रहस्यों पर से पर्दा हटाना संभव होता . वह वैज्ञानिक थे . हमने वैज्ञानिकों का सम्मान करना नहीं सीखा है . अधिक से अधिक टेक्नोक्रेट तक पहुँच पाते हैं ,जो आज की साइंस -प्रधान दुनिया के अफसर ही होते हैं . ऐसे समाज में वशिष्ठ नारायण विक्षिप्त नहीं हों तो क्या हों ? हमारे साहित्य की दुनिया में निराला और मुक्तिबोध अंततः इसी अवस्था को प्राप्त हुए थे . एक लोभी , काहिल और वर्चस्व -पसंद समाज अफसर ,नेता और ठेकेदार ही पैदा कर सकता है . उसे वैज्ञानिकों -विशेषज्ञों की जरुरत ही नहीं  होती . यहां पंडित वही  होता है ,जो गाल बजाते हैं . 

और ऐसे में गुस्से से मन खीज उठता है ,जब लोग सरकार को दोष देते हुए कायराना रुदन कर रहे हैं कि हमारे महान वैज्ञानिक के शव को सरकार एम्बुलेंस भी मुहैय्या नहीं करा सकी . खैर ,आज की गमगीन घड़ी में हम यदि यह संकल्प लें कि अपने समाज में हम किसी दूसरे वशिष्ठ को विक्षिप्त नहीं होने देंगे ,तब यह उस गणितज्ञ के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी . लेकिन मैं जानता हूँ ऐसा  कुछ नहीं होगा . बस दो चार रोज में हम उन्हें भूल जायेंगे . हमारी जिद है कि  हम नहीं सुधरेंगें . जात - पात और सामंती ख्यालों के कीचड़ में लोटम -लोट होने में जो आनंद है ,वह अन्यत्र कहाँ  है ?

Monday, 11 November 2019

सवाल :कविता

सवाल

सवाल
महफ़िल में किसी बच्चे की तरह
बार बार
उठ खड़ा होता है
लोग नाच के नशे में चिल्लाते हैं

बैठ जाओ
बैठ जाओ

अरमान

Friday, 1 November 2019

तिब्बत की स्वाधीनता का स्वप्न है मेरा भविष्य - तेन्ज़िन च़ुन्डू

तिब्बत की स्वाधीनता का स्वप्न है मेरा भविष्य  - तेन्ज़िन  च़ुन्डू
तेन्ज़िन च़ुन्डू निर्वासित तिब्बतियों की भू- राजनीतिक जनांकाक्षाओं की न केवल साहित्यिक आवाज़ है,बल्कि वह एक जांबाज़ क्रांतिकारी एक्टिविस्ट के रूप में ज़्यादा जाने और सराहे जाते हैं ।
 
 तिब्बती कवि एक्टिविस्ट तेन्ज़िन  च़ुन्डू और हिन्दी के कवि अग्निशेखर
धर्मशाला में उनकी पहचान माथे पर बंधी लाल पट्टी वाले तिब्बती एक्टिविस्ट के रूप में है।सन् 1959 में तिब्बत से करीब एक लाख लोगों के निर्वासित होने के करीब डेढ़ दशक के बाद तेन्ज़िन च़ंडू  का जन्म सड़क  मज़दूरी करने वाले शरणार्थी माता -पिता के यहाँ मनाली में हुआ। देश के अलग अलग राज्यों में शिक्षा पाई।

तेन्ज़िन च़ुन्डू एक अत्यंत संवेदनशील, प्रश्नाकुल कवि तो हैं हीं जो निर्वासन की चेतना से ओतप्रोत तिब्बत के प्रश्न पर बड़े बड़े जोखिम उठाते रहे हैं । चीन की तानाशाही और छिन चुके तिब्बत में जारी उसकी विध्वंसक कार्यकलाप  का विरोध करने वालों में वह अग्रणी हैं ।
आम तिब्बती लामाओं की तरह उनके चेहरे पर अवसाद और सौम्य खामेशी नहीं  बल्कि एक मुखर बांकपन है। तिब्बत उनके रोम रोम में है ,उनकी आंखों में है। वह तिब्बत के बारे में देश में जगह जगह जाकर जागरूकता के अभियान में लगे रहते हैं ।अंग्रेज़ी में लिखने वाले तेन्ज़िन च़ंडू की चार पुस्तकें हैं ।
मैंने धर्मशाला जाकर उनके जीवन, उनके स्वप्न, संघर्ष और उनकी साहित्यिक यात्रा के कई पहलुओं पर एक विस्तृत बातचीत की ।
अग्निशेखर  : आपसे यदि अपना परिचय देने को कहें तो क्या कहेंगे अपने बारे में ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू : मैं जवाब में अपनी कविता 'शरणार्थी ' का एक अंश सुनाता हूँ आपको।
       जब मेरा जन्म  हुआ
       कहा मेरी माँ ने
       एक शरणार्थी हो तुम
       बर्फ में धंसा सड़क किनारे
       तंबु हमारा
       तुम्हारी भौंहों के बीच
       एक 'R' है अंकित
       कहा मेरे शिक्षक ने..
यानी मैं एक पैदाइशी शरणार्थी हूँ  जिसके  माता पिता सन् 1960 में किशोर अवस्था में तिब्बत पर चीनी आक्रमण के बाद जान बचाकर भारत आए । यहाँ उन्होंने कुली का काम किया । रास्ते बनाने की मज़दूरी की। पिता लद्दाख के रास्ते से भाग आए थे और अन्य तिब्बती अरुणाचल,नेपाल,भूटान,सिकिम से आए थे। माता पिता अलग अलग कैंपों में रहे । कुली का काम खत्म होने पर वे अन्य तिब्बती शरणार्थियों की तरह कर्णाटक चले गए।इस तरह मेरी शिक्षा दीक्षा भी अलग अलग जगहों पर हुई।
अग्निशेखर  : आपने अपनी एक कविता में कहा है कि आप उस देश के लिए लड़ते हुए थक गये हैं जिसे आपने कभी नहीं देखा है ।
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : यह एक फ्रस्ट्रेशन की अभिव्यक्ति है ।एक घुटन है।हम दशकों से जुलूस निकालते हैं।संघर्ष करते हैं ।लेकिन बदलता कुछ नहीं । कोई हमारा साथ नहीं देता। मैक्लोडगंज,कुल्लू,
  मनाली,दिल्ली या कहीं भी आप जब जुलूस निकालते हैं तो सब किनारे से तमाशा देखते हैं ।शामिल नहीं होते।आपको लग सकता है कि यह एक अनुष्ठान है,एक अलग तरह रिवाज है ।विरोध नहीं ।इसलिए एक फ्रस्ट्रेशन सी होती है कि हो कुछ नहीं रहा।
लेकिन हम लड़ना जारी रखे हुए हैं ।उसका कोई विकल्प नहीं है ।भले ही मैंने अपनी मातृभूमि देखी नहीं है , मैं उसके लिए लड़ रहा हूँ फिर भी ।
अग्निशेखर  :आपने सन् 2002 में तत्कालीन चीनी राष्ट्रपति के भारत आगमन के अवसर पर मुम्बई में ओबेराय टावर्स की चौदहवीं मंज़िल पर ' तिब्बत को आज़ाद करो' अंकित तिब्बती झंडा और बैनर फहराया था।कुछ प्रकाश डालेंगे उस जोखिम भरी घटना पर ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : यह तिब्बत को चीन द्वारा हड़प लिए जाने और उसकी मुक्ति के उद्देश्य से प्रेरित एक कदम उठाया था मैंने ताकि संसार का ध्यान आकर्षित हो हमारे साथ हुए अन्याय के प्रति ।
मुझे याद है कैसे मुम्बई में छः सौ तिब्बती युवा भूख हड़ताल पर बैठे थे।मैं चुपचाप ओबेराॅय होटल की 14वीं मंज़िल  की स्कैफ़ोल्डिंग पर तिब्बत का राष्ट्रीय झंडा फहराया।वहाँ तत्कालीन चीनी राष्ट्रपति भारतीय व्यापारियों को संबोधित कर रहे थे।मैंने "तिब्बत को मुक्त करो"  का नारा लगाया।। हवा में करीब 500 पर्चों की वर्षा की। गिरफ्तार हुआ।
फिर जब सन् 2006 में चीन के तत्कालीन राष्ट्रपति का भारत दौरा था , मुझे 14 दिन तक धर्मशाला में पुलिस ने हिरासत में रखा।ऐसे किसी भी आंदोलन से जुडे किसी प्रतिबद्ध कवि- कार्यकर्ता के लिए आम बात होती हैं।किसी भी हद तक जाया जा सकता है ।आपतो भली भांति जानते हैं यह सब।
अग्निशेखर: तो " मैं थक गया हूँ " , जिसे आप एक तरह ऊब या फ्रस्ट्रेशन कहते हैं, कविता को क्या आपकी पीढ़ी की समकालीन सोच माना जाए ,जिन्होंने तिब्बत नहीं देखा ..परंतु उसके लिए लडे जा रहे हैं?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू : हाँ ..बिलकुल ।
अग्निशेखर: आप अपनी अग्रज पीढ़ी के संघर्ष को कैसे देखते हैं  ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  :  उस पीढ़ी में नॉस्टेल्जिया बहुत है।वे लोग तिब्बत में रहे।वहाँ पैदा हुए।पले बढे..और उनको मातृभूमि छोड़कर आना पढ़ा।उनके त्रासद अनुभव हैं जो सीधे हैं । वे पहाडों पहाडों भारत आते हैं ।उनका शरीर यहाँ रहता है लेकिन उनकी आत्मा तिब्बत में रहती है ।
अग्निशेखर  : और आप कहाँ रहते हैं ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : दोनों दुनियाओं में ।यहाँ भी और वहाँ भी। जहाँ हमारे माँ- बाप,हमारी अग्रज यादों में रहते हैं ,वहीं हम सपनों में रहते हैं ।दोनों तिब्बत में रहते हैं ।
हममें बचपन में एक दिन तिब्बत वापस जाने का सपना बोया गया ।वो सपना हमारे लिए भविष्य है और तिब्बत की यादें हमारे बडों के लिए अतीत ।दो सोच हैं और साफ साफ हैं।
अग्निशेखर  : इन दोनों संघर्षरत पीढियों में आपसे में तिब्बत को लेकर कोई संवाद है ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : है..लेकिन अब उन्हें लगने लगा है कि वे वापस नहीं पहुँचने वाले। वे बूढे हो गये हैं,उनके घुटने दुखने लग गये हैं । उनके हाथों से सब कुछ निकलता जा रहा है । अब वे नहीं उनके बच्चे यानी हमारी पीढ़ी जाएगी एक दिन ।इसलिए जब मैं थकने की बात करता हूँ तो वो अस्थायी मानसिक अवस्था है,हताशा नहीं।
अग्निशेखर  : कुछ याद है कि बचपन में  तिब्बत आपकी चेतना में कब आया ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : बचपन में नानी से सुनी   की कहानियों से मेरे अंदर तिब्बत साकार हुआ। वह ऊंचा पर्वतक्षेत्र है।वहाँ याक और ड्री नाम के विशेष जानवर होते हैं ।वहाँ दही और पनीर बनाती थी नानी।हमारी वेशभूषा और भाषा तिब्बती है।
मैं नानी से पूछा करता था कि फिर हमारे कैंप के बाहर ये जो भारतीय लोग रहते हैं इनके चेहरे,इनकी भाषा और वेशभूषा अलग क्यों हैं ?
मज़ेदार बात यह कि मैं नानी से पूछता कि ये भारतीय लोग यहाँ क्यों हैं? फिर हर शनिवार और रविवार को एक कन्नडिगा स्त्री हमारी बस्ती में इडली बेचने आती थी ।हम बच्चे दौड़ कर जाते इडली खाने।
इस तरह समझ में आया कि हम तिब्बत से भागकर यहाँ आए हैं ..हम शरणार्थी हैं ।एक बच्चे को जब यह पता चले कि हम यहाँ के नहीं हैं किसी अन्य देश से आए हैं ..उसपर क्या गुज़रती होगी ..कोई कल्पना कर सकता है ? फिर बडे होने पर समझ में आया कि हम हर साल 'तिब्बती विद्रोह दिवस' क्यों मनाते हैं उन हज़ारों  शहीदों की याद में जिन्हें  सन् 1959 में चीनी आक्रमणकारी सेनाओं ने मार डाला।
अग्निशेखर  : मैं यह अच्छे से  समझ सकता हूँ, यह शरणार्थी कैंपों में  हमारे   बच्चों का भी अनुभव है ।
●तेन्ज़िन च़ुन्डू : तो हमारे माता-पिता  को बेबस और अपमानित होकर अपना देश छोड़कर भागना पड़ा है ; और एक बच्चे के लिए संसार में उसके माता-पिता ही पहला गौरव होते हैं ।और अब हम किसी अन्य देश में शरणार्थी हैं ।किसी की सहानुभूति और दया पर रहते हैं और यदि उनका मन बदले तो हमें यहाँ से  जाना होगा ।इस तरह बचपन में एहसास हुआ कि मैं एक शरणार्थी हूँ ।
और शरणार्थी होना कोई शर्म नहीं,क्योंकि  इसके लिए हम ज़िम्मेदार नहीं । शरणार्थी बनने को मैं एक सुअवसर के रूप में देखता हूँ ।आप के लिए भगतसिंह या गाँधी बनने के रास्ते भी खुल सकते हैं । जैसे मेरे पास तीन भाषाएँ हैं ।मातृभाषा जिसमें मैं गाता हूँ, स्थानीय भाषा के अतिरिक्त तीसरी भाषा है -
"रंगज़ेन" (Rangzen) अर्थात् मुक्ति ।रंगज़ेन विमर्श के तौर पर मेरी भाषा है।
अग्निशेखर  : एकबार आप चोरी छिपे तिब्बत पहुँच  गये थे और वहाँ पकड़े भी गये थे। वो सब कैसे हुआ था ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : यह तब की बात है जब मुझ पर अपनी मातृभूमि तिब्बत की एक झलक देखने का जुनून हावी हो गया। तिब्बत केवल मेरी सोची हुई दुनिया में था।मैंने लद्दाख के उत्तरी मैदान  से हिमालय लांघकर अवैध रूप से  तिब्बत में प्रवेश किया और मन बनाया अब तिब्बत में ही बसूंगा।मुझे चीन की सेना ने पकड़ लिया।मेरी पिटाई की । गिरफ्तार किया गया ।और एक दिन किसी तरह मैं उनकी जेल से रिहा हुआ।
अग्निशेखर : आपने शुरु से ही अंग्रेज़ी में लेखन किया अथवा पहले तिब्बती में लिखते थे ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू : मैं शायद तिब्बती भाषा में बेहतर लिख सकता था।लेकिन हमें शुरू से ही बताया गया था कि दुनिया को हमारे बारे में कुछ पता नहीं है ।इसलिए मैंने  बचपन से ही तय किया था कि अंग्रेज़ी में ही लिखूंगा।यों दावा नोरबु के बाद  जमियंग नोरबू, थिरिंग वांग्याल ,तुंडुप जैसे मेधावी बुद्धिजीवी ने ही अंग्रेज़ी में लिखने की सुदृढ़ नींव डाली।
अग्निशेखर  : चूंकि चीन की तानाशाही और उसकी विस्तारवादी नीति के चलते तिब्बत में एक जीनोसाइड हुआ है।आप इसपर क्या कहना चाहेंगे ?
● तेन्ज़िन च़ुन्डू  :  चीन की कोशिश जारी है कि वह तिब्बत में हमारे इतिहास को ,हमारी संस्कृति और आबादी को पूरी तरह से नष्ट करे ।उसने साठ लाख तिब्बती नागरिकों में से दस-ग्यारह लाख लोगों  का जनसंहार किया है ।
इतने भर से उसका पेट नहीं भरा।चीन ने हमारी तिब्बती भाषा और संस्कृति पर धावा बोला है।आप जानते होंगे कि चीन ने तिब्बत में सांस्कृतिक संहार के चलते छः हज़ार बौध विहार नष्ट किए हैं। प्राचीन पांडुलिपियां जला डाली हैं ।कुछ पांडुलिपियां लामा लोग यहाँ साथ ले आए। 'कल्चरल रिवोल्यूशन' के दौरान चीन ने यही नीति चीन में अपनायी।चीन के लोगों के पास उसकी बर्बरता से निपटने का कोई विकल्प न था।तिब्बत में चीन इस दृष्टि से पूर्ण रूप से सफल न हो सका ।
अग्निशेखर  : सो कैसे  ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : इधर सन् 1981-82 के बाद से सुनने में आया कि तिब्बत में लोग अपने बुद्ध धर्म,अपनी संस्कृति और भाषा की ओर फिर से मुड गए हैं ।
अग्निशेखर : कविता के अलावा गद्य की अन्य विधाओं की क्या स्थिति है  तिब्बती  निर्वासन साहित्य में?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : भले ही कम लिखा जा रहा हो, लेकिन कहानी, आत्मकथा,जीवनी, निबंध खूब लिखे गये हैं ।जमियंग नोरबू ने
नाटक लिखे ,उपन्यास लिखे।आपको आश्चर्य होगा कि साहित्य की अपेक्षा हमारे यहाँ संगीत अभिव्यक्ति का सर्वाधिक सशक्त माध्यम है ।लोक साहित्य भी लोकप्रिय माध्यम बना हुआ है। लोग पारंपरिक गीत गाएँगे, 'बोली' करेंगे,नाटक करेंगे । इसी में ज़्यादातर तिब्बत की स्मृति है।उसका बिछोह है।
अग्निशेखर  : कोई उदाहरण देंगे ?
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : एक लोकगीत गाया जाता है -"एक दिन गुरूजी ( दलाईलामा) को साथ लेकर हम अपने देश वापस जाएँगे।"
पारंपरिक धुनों में नये भावबोध के प्रार्थना गीत गाये जाते हैं-" गुरुजी तिब्बत आ जाएँ ..."
एक लोकगीत में दलाईलामा और पेंचनलामा (मृत्यु 1988) को नायकत्व दिया गया है ।दलाईलामा  स्वाधीनता की मणि की खोज में तिब्बत छोड़ कर गये हैं और उन्होंने अपने पीछे तिब्बती में  प्रजा की देखभाल के लिए पेंचनलामा को रखा है।यह सब पूर्वजन्म के  कर्मों का खेल है ।इस लोकगीत में दलाईलामा के मुंह से कहलवाया गया है कि मेघों के पीछे ढका हुआ सूर्य अवश्य फिर से निकलेगा ।
अग्निशेखर  : क्या निर्वासन की यह केंद्रीय संवेदना चित्रकारों  के यहाँ भी देखने को मिलती है?आपके यहाँ तो थन्का पेंटिंग की समृद्ध परंपरा है।
●तेन्ज़िन च़ुन्डू  : हमारे अधिकांश चित्रकारों ने इधर जो चित्र बनाए हैं उनमें अक्सर प्रतीक रूप में "पोताला" (दलाईलामा का प्राचीन महल), उनका चित्र और तिब्बत का राष्ट्रीय ध्वज भी बनाया हुआ मिलेगा।अमेरिका में हमारे अनेक चित्रकार सक्रिय हैं ।आस्ट्रेलिया में कर्मा फिन्सुक सृजनरत  हैं।
अग्निशेखर  : तिब्बती समाज में साहित्यिक  पत्र पत्रिकाएँ हैं क्या ?
तेन्ज़िन च़ुन्डू  :बहुत ज़्यादा जानकारी नहीं है । एक ज़माने में 'नोरबलिंगा',  'चिलू मेलों','  'सोशल मिरर' साहित्यिक होते थे। तिब्बत लाइब्रेरी का एक ' तिब्बत जर्नल' निकला करता था। उनका एक साहित्यिक ग्रुप होता था -" अनिमाची " जो पुरस्कार भी देते थे।
अग्निशेखर  : आपको कभी कोई सम्मान मिला है ?
तेन्ज़िन च़ुन्डू  : मेरी कोई अपेक्षा भी नहीं ..चार पुस्तकें  लिखी हैं ।
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