Thursday, 14 November 2019

एक विक्षिप्त वैज्ञानिक का अवसान : प्रेमकुमार मणि

एक विक्षिप्त वैज्ञानिक का अवसान : प्रेमकुमार मणि 

 किंवदंती पुरुष गणितज्ञ वशिष्ठनारायण  सिंह आज 14  नवंबर को इस दुनिया को अलविदा कह गए . यूँ भी उनका पार्थिव  शरीर ही शेष था . चेतना तो आज से 45   साल पहले ही लोप हो गयी थी . दरअसल उनका वास्तविक अवसान उसी रोज ,यानि आज से 45 साल पहले जनवरी 1974 में हो चुका था .
  
     मैं जब हाई स्कूल में था ,तब वशिष्ठ जी का नाम पहली दफा  सुना था . हमारे स्कूल में शिक्षा विभाग के रिजनल डायरेक्टर आये थे . 1967 -68 का साल होगा .  अपने भाषण के दौरान नेतरहाट स्कूल के औचित्य पर बोलते हुए उन्होंने कहा था कि वैसा स्कूल हर जिले में होना चाहिए . इसी क्रम में उन्होंने वशिष्ठनारायण की चर्चा की और कहा कि यदि एक वशिष्ठ उस स्कूल से  निकल गया तो नेतरहाट का  बनना सार्थक हो गया . हमारे गाँव-घर  के सत्यदेव प्रसाद जी ,जो अब दिवंगत हैं ,नेतरहाट स्कूल में वशिष्ठ नारायण से एक बैच सीनियर थे . हायर सेकेंडरी के पहले बैच में बिहार भर  में उन्होंने भी प्रथम स्थान प्राप्त किया था . मैंने  सत्यदेव भैया से वशिष्ठनारायण के बारे में पूछा . वह ,यानि सत्यदेव भैया उनके खूब प्रशंसक थे . उनकी विलक्षणता की जानकारी उनसे भी हुई थी . बाद में सुना कि वशिष्ठनारायण जी विक्षिप्त हो गए . लेकिन लीजेंड तो वह छात्रजीवन में ही बन चुके थे . आज उस करुण- कथा का अंत हो गया . आज मेरे हिसाब से श्रद्धांजलि का नहीं ,संकल्प  का समय है . हम इस पूरे हादसे को एक गंभीर  सामाजिक प्रश्न के रूप में क्यों नहीं देखते ? 

जो थोड़ी बहुत जानकारी मुझे मिली है ,उसके अनुसार 1942 में जन्मे वशिष्ठजी का विवाह जुलाई 1973 में हुआ और जनवरी 1974 में वह विक्षिप्त हो गए . मैं उन लोगों में नहीं हूँ जो सब कुछ सरकार पर छोड़ते हैं . यह सामाजिक समस्या है ,जिस पर सबको मिल कर सोचना है . हमने अपनी प्रतिभाओं को सहेजना नहीं सीखा है . शिक्षा और ज्ञान के प्रति हमारी रूचि गलीज़ किस्म की है . संभव है उनपर जोर हो कि इतनी प्रतिभा है तो भारतीय प्रशासनिक सेवा में क्यों नहीं जाते . क्योंकि हमारे कुंठित और गुलाम समाज में अफसर बनना प्रतिभा की पहली पहचान होती है . देखता हूँ प्रतिभाशाली  इंजीनियर  और डॉक्टर भी प्रशासनिक सेवाओं में तेजी से जा रहे हैं . इस पर पाबंदी लगाने की कोई व्यवस्था हमारे यहां नहीं है . शिक्षा का हाल और संस्कार कितना बुरा है ,कहना मुश्किल है . शिक्षा का समाजशास्त्र यही है कि बड़े लोग वर्चस्व हासिल करने केलिए उच्च शिक्षा हासिल करते हैं और मिहनतक़श तबका मुक्ति हेतु इससे जुड़ते हैं . वशिष्ठ नारायण शिक्षा के ज्ञान मार्ग से  जुड़ गए थे . अपनी साधना का इस्तेमाल वह सुपर थर्टी खोल कर पैसे और रुतबा हासिल करने में कर सकते थे . प्रशासनिक सेवाओं से जुड़ कर वह सत्ता की मलाई में हिस्सेदार हो  सकते थे . लेकिन वह तो गणितीय सूत्रों को सुलझा कर ज्ञान की वह चाबी ढूँढ रहे थे ,जिससे प्रकृति के रहस्यों पर से पर्दा हटाना संभव होता . वह वैज्ञानिक थे . हमने वैज्ञानिकों का सम्मान करना नहीं सीखा है . अधिक से अधिक टेक्नोक्रेट तक पहुँच पाते हैं ,जो आज की साइंस -प्रधान दुनिया के अफसर ही होते हैं . ऐसे समाज में वशिष्ठ नारायण विक्षिप्त नहीं हों तो क्या हों ? हमारे साहित्य की दुनिया में निराला और मुक्तिबोध अंततः इसी अवस्था को प्राप्त हुए थे . एक लोभी , काहिल और वर्चस्व -पसंद समाज अफसर ,नेता और ठेकेदार ही पैदा कर सकता है . उसे वैज्ञानिकों -विशेषज्ञों की जरुरत ही नहीं  होती . यहां पंडित वही  होता है ,जो गाल बजाते हैं . 

और ऐसे में गुस्से से मन खीज उठता है ,जब लोग सरकार को दोष देते हुए कायराना रुदन कर रहे हैं कि हमारे महान वैज्ञानिक के शव को सरकार एम्बुलेंस भी मुहैय्या नहीं करा सकी . खैर ,आज की गमगीन घड़ी में हम यदि यह संकल्प लें कि अपने समाज में हम किसी दूसरे वशिष्ठ को विक्षिप्त नहीं होने देंगे ,तब यह उस गणितज्ञ के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी . लेकिन मैं जानता हूँ ऐसा  कुछ नहीं होगा . बस दो चार रोज में हम उन्हें भूल जायेंगे . हमारी जिद है कि  हम नहीं सुधरेंगें . जात - पात और सामंती ख्यालों के कीचड़ में लोटम -लोट होने में जो आनंद है ,वह अन्यत्र कहाँ  है ?

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