एक वहम
पाल रखा था मैंने
बनारस के बारे मे
वहम ये
कि ज़िन्दगी
जैसे भीड़ भाड़
सँकरी गलियो
और गालियों में ही पनपती है।
वहम ये
कि प्रेम
बनारस का
रंग नहीं आत्मा है
जिसका अंश
समा जाता है
हर बनारसी में।
वहम ये
कि बनारस
दिल्ली नहीं है
जहाँ
बेतुकी सी ज़िन्दगी
दौड़ती रहती है
मीलों, अविरल
सड़कें लंबी
चौड़ी
विस्तृत
पर हृदय
छोटे संकुचित
जैसे धड़कना
कोई परियोजना हो।
पर
ये वहम हुआ कैसे?
मैं तो सतर्क रहता हूँ
सिवाय उस पल के
जब चैतन्य पर
किसी शराब सी
चढ़ जाती थी तुम।
पर नहीं
बनारस भी दिल्ली है
ये भी छीनता है
प्रेम यहाँ भी
रंग है
जो बदल जाता है
नियमित अंतराल पर
बनारस
इक्षाओं का
अस्सी है तो
प्रेम का
मणिकर्णिका भी।
बनारस नगरी है
शिव की
और
शव की भी।
मनीष
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