Monday, 22 June 2020

मनीष राय की कविता बनारस

एक वहम
पाल रखा था मैंने
बनारस के बारे मे

वहम ये 
कि ज़िन्दगी 
जैसे भीड़ भाड़ 
सँकरी गलियो
और गालियों में ही पनपती है।

वहम ये 
कि प्रेम 
बनारस का
रंग नहीं आत्मा है
जिसका अंश
समा जाता है
हर बनारसी में।

वहम ये
कि बनारस 
दिल्ली नहीं है
जहाँ 
बेतुकी सी ज़िन्दगी
दौड़ती रहती है
मीलों, अविरल
सड़कें लंबी 
चौड़ी
विस्तृत 
पर हृदय
छोटे संकुचित
जैसे धड़कना
कोई परियोजना हो।

पर 
ये वहम हुआ कैसे?
मैं तो सतर्क रहता हूँ
सिवाय उस पल के
जब चैतन्य पर
किसी शराब सी
चढ़ जाती थी तुम।

पर नहीं
बनारस भी दिल्ली है
ये भी छीनता है
प्रेम यहाँ भी
रंग है 
जो बदल जाता है
नियमित अंतराल पर

बनारस 
इक्षाओं का
अस्सी है तो
प्रेम का 
मणिकर्णिका भी।

बनारस नगरी है 
शिव की 
और 
शव की भी।

मनीष

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