चिट्ठी एक अध्यापक की
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प्रिय विद्यार्थियों ,
सफलता और असफलता ज़िन्दगी के चित्त-पट हैं। पर अक्सर हमारी आकुलता या कहें सारी बेचैनी सफलता पाने को लेकर ही परेशां-हाल रहती है। हम किसी भी चीज को अच्छे से जाने बगैर आगे बढ़ जाने को अपनी सफलता मान लेते हैं। हमें सिर्फ अपने बढ़े हुए पाँव और इसके बीच नापी गई ज़मीन से मतलब होता है; किन्तु हम यह नहीं देख पाते कि इस दरम्यान हमने नया क्या सीखा, नया क्या जाना? यह भी कि जो जाना उसे ग्रहण किस प्रकार किया है, साधा कैसे है? कई चीजें छुटी भी, जिन्हें सहेजना जरूरी था। गुजरते वक़्त की स्मृति में बहुत कुछ शामिल होता है जिससे हमारे ज़िन्दगी के असल ‘कैरेक्टर’ बनते हैं।
इन दिनों फेसबुक, इंस्टाग्राम, वाट्स अप, ट्वीटर, यू ट्यूब आदि तो हमारे ज़िन्दा होने के असल पर्याय सिद्ध होने लगे हैं। यह सनक गंभीर है और इसका लती हो जाने पर हमारे व्यवहार का असामान्य और दिनचर्या का गड़बड़ हो जाना तय बात है। आज के किशोरवय का तकनीकी-प्रौद्योगिकी के प्रति यह मोहग्रस्तता चरम पर है। वे जाने-अनजाने इन अत्याधुनिक साधनों के चंगुल में है। कई बार तो इनकी वजह से उनकी जान पर भी बन आती है। ‘ब्लू व्हेल’ गेम के शिकार हुए भारतीयों बच्चों में विडियो आॅनलाइन गेम का खतरनाक परिणाम देखे जा चुके हैं। इसी तरह फेसबुक जैसे सोशल मीडिया में दोस्तीबाजी की आड़ में ‘साइबर क्राइम’ के कई सारे केसेज सामने आ चुके हैं।
मुख्य बात यह है कि संचार-माध्यमों की इन दिनों बड़ी धूम है। इनसे हमारा रिश्ता-वास्ता हर रोज का है; लेकिन संचार-यंत्रों का सामान्य इतिहास-बोध भी क्या हमको पता होता है? जैसे-हम आसानी से ई-मेल सुविधा का लाभ उठाते हैं, तो क्या यह जानते हैं कि किसके दिमाग में पहली बार ‘इलेक्ट्राॅनिक मेल’ का विचार आया होगा। वह व्यक्ति क्या भारतीय था; अगर हाँ तो उसका नाम क्या था या उसने कब इसका पहली बार प्रयोग किया आदि-आदि। ऐसे ही कई सवाल जब तक हमारे जे़हन में नहीं उमड़ेंगे-घूमेंगे हम कुछ नया नहीं सीख पाएँगे; उल्टे जो सीखा है उसको भी बिसार देंगे। आजकल अपनी चीजों को गँवाना आसान है, लेकिन उसके महत्त्व को कायम रखना बेहद मुश्किल और जोख़िम भरा दायित्व है। कारण कि हम सब वर्तमानजीवी होने का आदी हो चुके हैं। हमारे घंटे-मिनट की सुई बेकार हो गई है और हम हर काम को ‘फ्रैक्शन आॅफ सेकेण्ड’ में करने का जुनूनी हो गए हैं। यह प्रवृत्ति खतरनाक है, जिससे बचा जाना आवश्यक है।
आजकल किशोर बच्चे सामान्य हिसाब-किताब करने में कमजोर हैं। उन्हें दस-बारह वस्तुओं की अलग-अलग कीमत जोड़ने को कह दें, तो उनके चेहरे का भाव ऐसा बनेगा कि मत पूछिए। कुछ तो तुरंत स्मार्ट कैलकुलेटर निकाल लेंगे। अरे! ये क्या हुई बात? आपको आगे चलकर बनना इंजीनियर है, भारत के सबसे टाॅप रैंकेस्ट इंस्टीट्यॅट में दाख़िला लेना है और आप अभी से सामान्य-बोध में फिसड्डी साबित हो रहे हैं। इसी तरह कई बच्चों को यह याद रखना बोरिंग मालूम देता है कि किस चीज में कौन-सी विटामिन है और क्या चीज होने से हमारे शरीर को फायदा होता है और उनके न होने से कौन-सी विशेष तरह की बिमारी होती है या हो सकती है। दरअसल, हम यह भूलते जा रहे हैं कि सीखने से समझ बनती हैं; जानने से ज्ञान का विस्तार होता है। इसी ज्ञान-विवेक से तर्कसहित निर्णय करने की योग्यता विकसित होती है। और योग्यता अंकों की मग़जमारी से नहीं बल्कि जाने-समझे गए हुनर-कौशल से हमारे व्यक्तित्व में निखार लाता है; हमें सबका प्रिय बनाता है। दूसरे का विश्वास हम पर तभी जगता है या भरोसा कायम होता है जब हम अपने काम को सही-सटीक ढंग से करते हैं; किसी समस्या को हल करने से भागते नहीं, बल्कि उनसे जूझते हुए सदैव उचित समाधान निकालने की कोशिश करते हैं। करने की चाहत होने से क्या संभव नहीं है। हमने अपने बचपन में बड़े-बुजुर्गों को यह कहते सुना है-‘करत-करत अभ्यास से, जड़मति होत सुजान। रसरी आवत-जात से, शील पर पड़त निशान।।‘ नेपोलियन बोनापार्ट के बारे में प्रायः कहा जाता है कि उसने कहा था कि-‘उसकी डिक्शनरी में असंभव नाम का कोई शब्द नहीं है’। यह कहने का हिम्मत-हौसला उसी में होता है जिसकी इच्छाशक्ति मजबूत होती है; जिसका अपना निर्णय संकल्पवान होता है। इसी से हममें लगकर काम करने की प्रवृत्ति पैदा होती है। हम परिश्रमपूर्वक उन चीजों को पाने का हरसंभव प्रयत्न करते हैं जिसे पाने की अभिलाषा हमारे मन में पैठी होती है। इस तरह की सोचावट होने से हमारे अंदर अपने काम के प्रति लगाववृत्ति पैदा होती है। हम अपने काम को बोझ नहीं समझते हैं, बल्कि उसके प्रति हमारी जो टान या कहें कि अटूट निष्ठा है वह हमसें अमुक काम करा लेती है। हम पूरे आशा और उत्साह के साथ जब अपने काम को पूरा करते हैं, तो हमें दोहरी खुशी मिलती है। हमारी आत्मसंतुष्टि दुनिया की सर्वोत्तम उपहार है या कह लें अमूल्य भेंट।
कौन कहता है कि बच्चे इतिहास नहीं रचते या अपनी तरह से अपने समय का दस्तावेजीकरण नहीं करते। एनी फ्रैंक का नाम आज पूरी दुनिया जानती है। तेरहवर्षीय एनी फ्रैंक की लिखी डायरी ‘द डायरी आॅफ ए यंग गर्ल’ की चर्चाएँ अक्सर सुनने को मिल जाती है। लेखन में रूचि रखने वाली इस बहादुर लड़की ने 1942 से लेकर 1944 के बीच के समयांतराल का वर्णन किया है जिन दिनों एनी का बचपन हिटलर के नाजी हुकूमत का शिकार हुआ था।
सौ बात की एक बात कि हम अध्यापकों को भी अपने बच्चों के भावनाओं की गरिमा को भी ध्यान में रखना होगा। उनके इरादों अथवा पसंद-नापसंद को तरज़ीह देना होगा। हमें स्वयं ऐसी हरक़तों से परहेज़ करना होगा जैसा व्यवहार उनसे न करने की हम अपेक्षा करते हैं या उम्मीद रखते हैं। हम अक्सर अपने सयानेपन के आगे उनकी बात को महत्त्व नहीं देते हैं या चाहे-अनचाहे उनके कहे को अनसुना कर डालते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि समय बितने के साथ वे भी बड़े हो रहें हैं। उनमें भी विचार और तर्क करने की क्षमता और योग्यता विकसित हो रही है। वह हमारी भाषा के मायने और सन्दर्भ समझ रहे हैं। यह भी ध्यान देना होगा कि ज्ञान पाने या अर्जित करने का अर्थ केवल किताबों के संग-साथ होना या बस्ते का बोझ ढोना नहीं है। जब तक हमारे बच्चों की सार्गिदगी में वे चीजें शामिल नहीं होंगी जिनके बीच उनका जीवन फल-फूल रहा है; वह सच्चा मनुष्य नहीं बन पाएँगे। अपने आस-पड़ोस या इर्द-गिर्द के वातावरण से कटकर हम अपने बच्चों को, किशोरों को दुनिया भर से यांत्रिक सम्बन्ध बनाने का अवसर तो उपलब्ध करा सकते हैं, मनोरंजन सम्बन्धी गैजेट्स तो उनको दिला सकते हैं; लेकिन हम उन्हें ज़िन्दगी की वास्तविकताओं से मरहूम कर देंगे। इन्हीं चीजों में आवश्यकता से अधिक रमे रहने से यह तय है कि वे अपनी प्राथमिकताओं को भूल जाएँ। यानी मूल्य, संस्कार, नैतिक-बोध, भाईचारा, साझेदारी, सामंजस्य इत्यादि जो मानव-विशेष की मूलप्रवृत्तियाँ होती हैं; उससे हमारी भावी पीढ़ी सर्वथा अनभिज्ञ मालूम दे। बड़ी से बड़ी घटनाओं, त्रासदियों आदि का उनके मानस-पटल पर कोई असर ही न पड़े। हिंसा, हत्या, लूट, अपराध, बर्बरता, दुष्कर्म जैसी जघन्यतम घटनाओं से वे स्पंदित-संवेदित ही न हों। ऐसा हो सकता है जब हम भौतिक-संसाधनों के कृत्रिम विलासिता को अपना सर्वस्व घोषित कर दें और भावी पीढ़ी को भी उसी खूँटे में बाँधकर रखने लग जाएँ।
अतः जरूरी है कि हमसब एक-दूसरे से जुड़े रहे, आपस में प्रेम और अपनापे के मजबूत बंधन में बँधे रहे। अध्यापक हों, पैरेंट्स हो या बच्चें; सबको यह समझना होगा कि अपनी ही भावनाओं की तरह औरों की भावनाओं का कद्र करना ही दुनिया का सबसे बेहतरीन विचार है। अपने दुख-सुख की तरह ही औरों की आवश्यकताओं-जरूरतों को महसूस करना ही इंसानियत का सबसे बड़ा धर्म है। धर्म अपने मूल अर्थों में ‘सबको संग साथ’ धारण करने, अपनाने, स्वीकार करने से अभिप्रेत है; इसलिए इस धर्म को ही अपनी ज़िन्दगी का मुख्य उद्देश्य बना लेना आज की दौड़ती-भागती-बदलती दुनिया का मुख्य दर्शन है, तज़रबा या कह लें फ़लसफ़ा है।
इस साल के मुसकान के साथ आगामी वर्ष की शुभकामनाओं सहित,
आपका टीचर
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