Thursday, 10 January 2019

मीडिया गुलामगिरी के इस दौर में : डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद

मीडिया गुलामगिरी के इस दौर में : डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद
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आजकल सोशल मीडिया से लगायत अधिसंख्य मीडियाहाउस ज्यादा, शोख, बदमिज़ाज़ और नकचढे़ किस्म का हो चले हैं। कहने को तो जनमाध्यम है, पर लोगों से सरोकार लेशमात्र भी नजर नहीं आता। किसी जमाने की मिशनधर्मी पत्रकारिता अपने मुख्य लक्ष्य से भटकते हुए आज प्रायोजित राजनीति, सिरफिरे निर्णय, भ्रष्ट शासन-तंत्र, सेक्स, हिंसा तथा हल्के व फुहड़ किस्म के मनोरंजन का ठेकेदार बन चुकी है। किसान, युवा, विद्यार्थी, दलित, पीड़ित जनसमाज ख़बर से बाहर धकेले जा चुके हैं; वह भी इरादतन। लिहाजा, सैद्धांतिक मूल्य तथा नैतिक-बोध जैसी कोई स्पष्ट लक्ष्मण-रेखा दूर-दूर तक नजर नहीं आती, जिस से यह अनुमान लगाया जा सके कि हम कहाँ कौन सी भूल कर रहे हैं?

नये निर्धारित मानदंड के मुताबिक संपादकीय विशेषाधिकार प्रबंधकीय जिम्मेदारी के पाले में चला गया है। मीडियावी पद और रुतबा पाकर बौराए नौसिखिओं की कारगुजारियाँ भयावह और देश के लिए त्रासद है, यह मीडिया और राजनीति के मिलीभगत से स्वतः ज़ाहिर है। आज मीडिया ने संपादकीय सत्ता एवं पत्रकारीय वजूद को खंडित-मंडित करते हुए पत्रकारिता के मूल-स्वर को ही विलुप्त कर डाला है। नामचीन और अभिजनवादी मीडिया प्रशिक्षण केन्द्रों/ मैनजमेंट स्कूलों से प्रबंधन का गुर सीख मीडिया के उच्चतम पदों पर आसीन लोगों के लिए पत्रकारिता एक पैकेजिंग आइटम है जिसे कलात्मक ढंग से एक उत्पाद माफिक बेचा जाना है।

स्वाधीनता से ठीक पहले पत्रकारिता में ओज और सत्य के प्रति जो दृढ़ आग्रह दिखलाई पड़ता है। उसका अंशमात्र प्रभाव भी आज की पत्रकारिता में नहीं है। जनहित और जनकल्याण को अपना प्राथमिक दायित्व मानने वाली यह पत्रकारिता असल में गाँधी के ‘सर्वोदय पत्रकारिता’ तो डाॅ. अम्बेडकर के ‘बहिष्कृत भारत’ का  उदाहरण है। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाएँ भी इन जननायकों का समर्थन करती दिखती हैं। एक जमाने में दैनिक समाचार पत्र का उद्देश्य लोगों में सूचना, शिक्षा एवं स्वस्थ मनोरंजन को अधिकाधिक विकसित करना था। यह आम से खास वर्ग तक एकसमान पहुँच को प्रदर्शित करने का उपयुक्त जरिया थी। उनका यह दृढ़विश्वास था कि पत्रकारिता समाज में जागरूकता और जागृति लाने का सशक्त हथियार है जो व्यक्ति की आंतरिक खूबसूरती को निखारते हुए उसे कला-साहित्य व ज्ञान-क्षेत्र की बौद्धिक दुनिया से परिचित कराता है। इस दौर की पत्रकारिता महज सूचना-स्रोत का अथाह सागर न हो कर जनचेतना, जनवाणी और जनसमृद्धि का विकासमान प्रतीक मानी जा चुकी थी। नामों की फेहरिस्त में प्रमुखता से शामिल भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालमुकुन्द गुप्त, बालकृष्ण भटृ, प्रताप नारायण मिश्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, गणेश  शंकर विद्यार्थी, बाबूराव पराड़कर, माखनलाल चतुर्वेदी, प्रेमचंद, तिलक, गाँधी अम्बेडकर आदि ऐसे पत्रकार थें, जिनके लिए मुनाफे की बात कौमी एजेंडे अथवा धार्मिक फलसफ़े के आगे तुच्छ और अस्वीकार्य थी।

लेकिन आज पत्रकारिता में फायदे की बात सर्वोपरि है। आप चाहे कितने भी कुशल, दक्ष और सक्षम क्यों न हो? आपकी पूछ तभी होगी, जब आप अखबारी संस्थान को मोटी आय उपलब्ध कराने में सफल हों। अन्यथा आप से बेहतर कई जन अपने भरे-पूरे रिज्यूम के साथ लाइन में खड़े हैं। कड़ी प्रतिस्पर्धा के इस कठिन दौर में अखबारी दफ्तर अब हाईटेक बन चुका है। अब पहले माफिक एक कोठरीनुमा जगह से अखबार निकालना संभव नहीं है। अब आडम्बर का प्रक्षेपण किया जा रहा है जिसमें प्रस्तुत छवियाँ निहारने वाले को इतना मोहित कर ले कि उसका विवेक काम करना स्वतः बंद कर दे। वह कहे को सुने ही नहीं, सच मान लें; यह जानते हुए कि यह सबकुछ फंतासी है, वाग्जाल है।

वह दौर बीत गया जब घाटे का सौदा जानकर भी पत्र या पत्रिका निकालने की एक अदद कोशिश होती थी। श्रमजीवी पत्रकार की भूमिका निभाते हुए औने-पौने मेहनताना पर संपादक और पत्रकार बनने की होड़ मची रहती थी। जबकि अब संपादक या उपसंपादक का मतलब एक ढंग का बंगला, लग्जरी कार और अत्याधुनिक सामानों की पूरी फौज साथ होना है। महत्त्वाकांक्षी संपादक या पत्रकार अब सुविधाभोगी हो गया है, और सरकारी उच्छिष्टों का तलबगार भी। समय ने शहरी जीवनशैली को इतना बदल दिया है कि मीडियाकर्मी इन सब चीजों से कट कर रह ही नहीं सकता है।

गौरतलब है कि आज के मीडियाकर्मियों की खुद की परेशानी और तकलीफ कम नहीं है। चौबीसों घंटे वह काम करने का दबाव झेल रहा है। नौकरी हर पल एक चैलेंज सामने रखती है। व्यावसायिकता के बवंडर ने उसकी व्यक्तिगत सोच, विवेक और दृष्टि को मानों सोख लिया है। उस पर हर कीमत पर सबसे पहले ख़बर हासिल करने और दिखाने का दबाव है। ऐसी खबर जिसके अंदर हंगामा खड़ा कर सकने की कुव्वत हो तथा बहुतांश लोगों में सनसनी फैला देने का दमखम हो। क्योंकि आम-आदमी की हकीकत दिख-दिखाकर और उसे बार-बार दुहरा कर उन्हें अपना बिजनेस चौपट नहीं करना है।

अतएव, सिर्फ यह कह चुप्पी साध लेना कि आज की पत्रकारिता नीलाम हो रही है या फिर हाशिए पर ठेली जा रही है, तर्कसंगत नहीं है। निःसंदेह पत्रकारिता द्वारा पूर्व-स्थापित मानदंडों में बदस्तूर गिरावट जारी है तथा ख़बरों में मानवीय सोच, संवेदना और दिशा-दृष्टि का पूर्णतः अभाव है; फिर भी हमें मीडिया के अंदर के ‘पॉलिटिक्स’ को नए तरीके से समझने की जरूरत है। अंदरूनी समीकरण को जब तक दुरुस्त नहीं किया जाता हम मीडिया पर एकतरफा आक्षेप या आरोप मढ़कर खुश अवश्य हो सकते हैं, किंतु सार्थक उपाय ढूँढ पाना बेहद मुश्किल है। अतः आधुनिक पत्रकारिता के खिलाफ हल्लाबोल किस्म का प्रोपगेंडा फैलाने की बजाय इस बारे में पूरी गंभीरता के साथ सोचा जाना ही श्रेयस्कर है। हमें इस व्यवस्था के अंदर काम कर रहे लोगों की मजबूरियों पर भी दृष्टिपात करना होगा जिनके लिए हाल और हालात ने ऐसी परिस्थितियाँ रच दी है कि उसकी मुखालफत कर कोई भी पत्रकार या मीडियाकर्मी एक ढंग का ठौर ठिकाना हासिल नहीं कर सकता है।

लोभ-स्वार्थ, घृणा-महत्वाकांक्षा तथा झूठ-फरेब से भरे इस दौर में मीडिया के अंदर स्वस्थ-सृजन हो, सूचना-संवेदन हो, ज्ञान-विवेक हो, वैज्ञानिक-दृष्टि हो; इसके लिए जरूरी है-सरकारी प्रयास, समर्थं ढाँचा, बेहतर वेतनमान, पारदर्शी कानून और स्वैच्छिक अचारसंहिता। मीडिया बिकाऊ है, क्योंकि उसमें निवेशित पूँजी सरकारी कम विदेशी अधिक है। जहाँ सीधे ऐसा नहीं है वहाँ वह सरकार की परिचारिका है; उसका पालतू ‘हियरिंग डाॅग’ है। अन्तरराष्ट्रीय पूँजीदारों ने लोकतांत्रिक सरकार तक की बोली लगाकर खरीदी कर ली है, यही सचाई है। अतः आज हर दल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ‘एजेण्ट’ हैं और जो इस तरह के कतार में शामिल नहीं हैं वे या तो बौने करार दिए जा रहे हैं या उनकी शक्ल पर अक्लमंदी का ताला जड़ दिया गया है।

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