Thursday, 10 January 2019

हैलो, क्या आप हिंदी बोलते हैं; नमस्ते...! - डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद

हैलो, क्या आप हिंदी बोलते हैं; नमस्ते...!

नवाधुनिक विधानों एवं नवाचारी अनुशासनों में हिंदी भाषा सहज ही स्वीकार्य है। हिंदी की ‘रेंज’ बहुत अधिक है। वैश्विक बनती हिंदी चुनावी भाषणों, ख़रीद-बिक्री सम्बन्धी सामान्य बातचीतों, नितांत निजी अथवा घरेलू राय-विचारों, सामान्य-विशेष बहस-मुबाहिसों आदि की पटरी पर सरपट दौड़ रही है। इसके अतिरिक्त नवमाध्यमों यानी ‘न्यू मीडिया’ एवं ‘वर्चुअल मीडिया’ में भी उसकी भूमिका देखने योग्य है। संचार-क्रांति और सूचना-राजमार्ग वाली इस उत्तर शती में भारतीय भाषा का वैश्विक वितान ‘हिन्दी-समय’ ही है। यह राष्ट्रीय ही नहीं अन्तरराष्ट्रीय दबाव है कि हिंदी बौद्धिकता अंग्रेजी ‘आईपीआर’ (इंटेलेक्चुअल प्रोपर्टी राइट) को सीधे टक्कर दे रही है।

रोजगारपरक और कौशल-निर्माणकारी भाषा की खोज में उभरे हिंदी के प्रयोजनमूलक स्वरूप को देखें, तो इक्कीसवीं सदी का भारत आज जिस ज़बान में जवान होता दिखाई दे रहा है, वह प्रयोजनमूलक हिंदी ही है। चुनाव से बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है। अंग्रेजी के जानकर, प्रबंधक, बौद्धिक चाहे जो कुछ भी कर ले; चुनाव की भाषा यानी ‘मीडियम आॅफ स्पीच’ हिंदी की जगह अंग्रेजी नहीं हो सकती है। इसी प्रकार फ़िल्म, विज्ञापन, समाचार एवं मनोरंजन माध्यम आदि में हिंदी की पैठ एवं ठाठ जबर्दस्त है। ‘न्यू मीडिया’ की खूबियों को पूरी तरह आत्मसात कर चुकी हिंदी भाषा को जानने, देखने, समझने की जो नयी परिपाटी शुरू हुई है, उसका एक बड़ा उपभोक्ता-वर्ग हिंदी जनसमाज है। यूनीकोडी सोशल मीडिया ने तो झमाझमी मचा दी है। यथा: वेब, ब्लाॅग, ट्वीटर, फेसबुक, वाट्सअप, हैंगआउट, हैशटैग इत्यादि।

यह समय अपनी हिंदी भाषा को लेकर रुदाली-गान करने का नहीं है। अंग्रेजी की आलोचना करने की जगह आज आवश्यकता अन्तरभाषायी तथा अन्तरानुशासनिक हिंदी अनुवाद की दिशा में उत्तरोत्तर आगे बढ़ने की है। साहित्य, कला, विज्ञान, प्रौद्योगिकी इत्यादि से सम्बन्धित ज्ञानानुशासनों को हिंदी में लेकर आना हिंदी भाषा के वैश्विक महत्त्व एवं पहचान को केन्द्रीयता प्रदान करना है। जनपक्षधरता की दृष्टि से अंग्रेजी ही नहीं, संविधान की आठवीं अनुसूची में वर्णित सभी राष्ट्रीय भाषाओं का अनुवाद सम्बन्धी कार्य महत्त्वपूर्ण है। विशेषतया विभिन्न देशज भाषाओं में उपलब्ध ज्ञान-सामग्रियों का हिंदी में संग्रहण-संकलन अत्यावश्यक है। यह कार्य स्वाधीनतापूर्व बड़े जतन से किया गया।

यह और बात है, आजादी से पहले जिस हिन्दुस्तानी ज़बान ने देश की गरिमा और उसका गौरवगान कायम रखा था, स्वाधीन भारत में उसे वह सर्वोचित स्थान नहीं मिला। बहुभाषिक तथा बहुसांस्कृतिक भारतीय जनसमाज में हिंदी के महत्त्व को इरादतन कम कर दर्शाना अंग्रेजीपठित भारतीय नेताओं की सोची-समझी चाल थी। बाद के दिनों में हिंदी भाषा को लेकर जो विवाद-विरोध शुरू हुए उसे भाषिक राजनीति कहा जाना उचित है। भाषा को लेकर वितंडावाद खड़े करने वाले अधिसंख्य नेताओं को अपनी-अपनी मातृभाषाओं से लगाववृत्ति न होकर उनमें राजनीतिक हित-लाभ साधने की छटपटाहट और महत्त्वाकांक्षा अधिक थी। हाल के दिनों तक संयुक्त राष्ट्रसंघ में हिंदी भाषा को शामिल किए जाने को लेकर चर्चे खूब हुए; लेकिन हिंदी की दशा और दिशा में आमूल-चूल परिवर्तन नहीं हुआ।

ध्यातव्य है कि हम आज को लेकर अतीत के कालक्रमों पर अपना मनगढ़त आरोप मढ़ते हैं। जबकि अंग्रेजी का दबदबा अंग्रेजी राज में भी वैसी सम्मानित स्थिति में कभी नहीं रहा जिस प्रभुमान स्थिति में आज है। दरअसल, ‘‘जब अंग्रेजी शिक्षा और सभ्यता भारत के चिंतनशील लोगों के बीच में आई, उन्होंने बजाए इसके कि इसके साथ बह जाएँ, अपने अतीत की ओर देखना आरंभ किया। इससे एक नए जागरण का युग प्रारंभ हुआ।’’ स्वाधीनता आन्दोलन के दिनों में उपलब्ध उन सभी माध्यमों को आज़माया गया जिसमें भारतीयता की जान बसती हो, राष्ट्रीयता की चेतना अनुस्यूत हो। समाचारपत्र-पत्रिकाओं से कहीं अधिक बेजोड़ करतब दिखाने का काम ‘आकाशवाणी’ और स्वाधीनता के पश्चात ‘दूरदर्शन’ ने किया।

विशेषतया ‘‘इसके लिए आकाशवाणी का माध्यम सबसे सबल और प्रबल माध्यम है। क्योंकि अनेक बोलियों में, अनेक भाषाओं में प्रसारण इस संस्थान के द्वारा होता है लेकिन अभिव्यक्ति इतनी भाषाओं में, इतनी बोलियों में, मुद्रण के माध्यम से भी नहीं होती जितनी कि इसके माध्यम से होती है और इसमें अपनी अभिव्यक्ति की विविध शैलियाँ हैं जैसे कि जो आकाशवाणी के हमारे किसानों के लिए कार्यक्रम होते हैं, हमारे श्रमिकों के लिए कार्यक्रम होते हैं या अन्य विशेष वर्गों के लिए जो कार्यक्रम होते हैं उनमें ऐसी अभिव्यक्ति-शैली अपनाई जाती है जो उन तक बात पहुँचा सके।’’

स्मृतिभ्रंशता के इस मुश्किल दौर में विभिन्न समाज एवं संस्कृतियों के बीच एक सेतु बनाए जाने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। हिंदी अपनी जनपक्षधर प्रकृति के कारण यह सेतु बन भी रही है। ध्यातव्य है कि भारतीय परिक्षेत्र से बाहर और भारत के सभी क्षेत्रों में हिन्दी समझी जाती है। समझे जाने का मतलब वह भाषा जिसे बहुत सारे लोग बोलते हैं; अपने भाव, विचार एवं दृष्टि में बड़ी आसानी से बरतते हैं। यह सहजता हिन्दी भाषा की खूबसूरती है यानी प्राणतत्त्व। हिन्दी भाषा की लिपि देवनागरी है। हिन्दी लिखावट और उच्चार दोनों में सादृश्यता रखती है। इस भाषिक वैशैष्टिय के कारण यह बेहद सुघड़ और सजीव भाषा है।

‘कर ले ग़लती से मिस्टेक’ वाली ‘मस्टेकियन’ पीढ़ी को यह समझना ही होगा कि हिंदी भाषा जिसे नवजागरणकाल में बखूबी गढ़ा गया; में प्रतिरोध की चेतना और आत्मबल की शक्ति प्रचुर मात्रा में सन्निहित थी। यह शक्ति ओजमान और तेजमान थी इसलिए भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में हिंदी पत्रकारिता के अवदान एवं योगदान को लेकर बहुत कुछ कहने-सुनने को शेष है। इक्कीसवीं सदी में पैदा और विकसित हुई पीढ़ी को ध्यान में रखकर कहें, तो हमें अपनी भाषा-संस्कृति और उसमें घुली-मिली राजनीतिक चेतना को लेकर संवेदनशील होने-बनने की जरूरत सबसे अधिक है। युवाओं पर अतिरिक्त बल इस कारणवश कि, ‘‘जिस दुनिया में हम जी रहे हैं, वह बुद्धिजीवी-पैगम्बरों की दुनिया है, स्वार्थ में डूबे हुए व्यक्तियों की दुनिया है। वह ऐसी दुनिया है, जिसमें औद्योगिक और पूँजीवाद से निकली एक भयानक पद्धति राज कर रही है। जिसमें तकनीकी सफलताओं और बाहरी जीतों की धूम है, जिसमें शारीरिक सुविधाओं और अवास्तविक विलासिता सामग्री की बाढ़ है, जहाँ सार्वजनिक जीवन में भी अनियंत्रित लिप्सा का अनंत साम्राज्य है। जहाँ पाशविकता और रक्तपात का सहारा लेकर तानाशाही फैल रही है, जहाँ वास्तविकता का आदर एवं धर्म तथा आत्मा की उपेक्षा सबसे बड़ा आधार है।’’

अतएव, अधिसंख्य भारतीय भाषाओं के समक्ष अपने को बचाए रखने की जद्दोजहद जबर्दस्त है। हमने निज भाषा से सृजित माध्यम-संस्कृति जिसमें एक-दूसरे से जुड़ने या जुड़े रहने की अभ्यर्थना होती है; का परित्याग कर दिया है। अंग्रेजी की आरोपित माध्यम-संस्कृति ने भारतीय भाषा के सत्यानाश का महानुष्ठान जारी रखा है। लेकिन यह सच है, कोई भी अनुष्ठान दीर्घजीवी नहीं होता है। प्रत्येक भाषा न तो मन की कैदी है, न विचार की बंदी। यह तो अनुभूति, प्रत्यक्ष ज्ञान, आचरण और उन्मुक्त आदान-प्रदान पर आधारित ‘वार्ता-कौशल’ है। यह कौशल अथवा प्रवीणता अर्जित है न कि प्रकृत। इस कारणवश इसका स्वरूप किंचित मात्र भी पूर्व-निर्धारित या नियंत्रित नहीं है। आज हिंदी भाषा ऐसे वितण्डावादियों को धूल चटा चुकी है। वह पूरे विश्व में ज्ञान की भाषा बनने के लिए दृढ़संकल्पित है। हिंदी में भाषिक दक्षता, कुशलता, प्रयोग, अनुप्रयोग, प्रकृति, प्रयुक्ति आदि का समाजशास्त्र बदल चुका है। अर्थशास्त्र इसकी चेरी है। विज्ञापन हो या फिल्म, हाट-बाज़ार हो या उत्तर-दक्षिण हिंदी सबको जोड़ने में सफल है। हिंदी अन्य प्रदेशों की मातृभाषाओं के संग-साथ राष्ट्र-निर्माण में जुटी है।

-डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद

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